Wasim Barelvi, Wasim Barelwi, Mera kya

January 21, 2017 | Author: Vishal Khatri | Category: N/A
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Short Description

Wasim Barelvi, Wasim Barelwi, Mera kya...

Description

ज़रा-सा क़तरा अगर आज कही उभरता है ज़रा-सा क़तरा अगर आज कही उभरता है समनदरो ही के लहजे मे बात करता है खुली छतो के िदये कब के बुझ गए होते कोई तो है जो हवाओ के पर कतरता है शराफतो की यहा कोई अहिमयत ही नही िकसी का कुछ न िबगाडो तो कौन डरता है यह देखना है िक सहरा भी है, समनदर भी वह मेरी ितशनालबी िकसके नाम करता है तुम आ गये हो तो कुछ चानदनी-सी बाते हो ज़मी पे चानद कहा रोज़-रोज़ उतरता है ज़मी की कैसी वक़ालत हो िफर नही चलती जब आसमा से कोई फैसला उतरता है

1

खु ल के िमलने का सलीका आपको आता नही खुल के िमलने का सलीका आपको आता नही और मेरे पास कोई चोर दरवाज़ा नही वो समझता था, उसे पाकर ही मै रह जाऊनगा उसको मेरी पयास की िशदत का अनदाज़ा नही जा, िदखा दिु नया को, मुझको कया िदखाता है गरर तू समनदर है तो हो, मै तो मगर पयासा नही कोई भी दसतक करे, आहट हो या आवाज़ दे मेरे हाथो मे मेरा घर तो है, दरवाज़ा नही अपनो को अपना कहा, चाहे िकसी दजे के हो और जब ऐसा िकया मैने, तो शरमाया नही उसकी महिफल मे उनही की रौशनी, िजनके चराग मै भी कुछ होता, तो मेरा भी िदया होता नही तुझ से कया िबछडा, मेरी सारी हक़ीक़त खुल गयी अब कोई मौसम िमले, तो मुझ से शरमाता नही

2

तुम हे गमो को समझना अगर न आएगा तुमहे गमो को समझना अगर न आएगा तो मेरी आख मे आसू नज़र न आएगा ये िज़नदगी का मुसािफर, ये बेवफा लमहा चला गया, तो कभी लौटकर न आएगा बनेनगे ऊचे मकानो मे बैथकर नक़शे तो अपने िहससे मे िमटी का घर न आएगा मना रहे है बहु त िदनो से जशन-ए-तशनालबी हमे पता था, ये बादल इधर न आएगा लगेगी आग तो िसमत-ए-सफर न देखेगी मकान शहर मे कोई नज़र न आएगा 'वसीम' अपने अनधेरो का खुद इलाज करो कोई चराग जलाने इधर न आएगा

3

मुह बबत नासमझ होती है , समझाना ज़ररी है मुहबबत नासमझ होती है, समझाना ज़ररी है जो िदल मे है, उसे आखो से कहलाना ज़ररी है उसूलो पर जहा आच आए टकराना ज़ररी है जो िज़नदा हो, तो िफर िज़नदा नज़र आना ज़ररी है नई ऊमो की ख़ुदमुखतािरयो को कौन समझाए कहा से बच के चलना है, कहा जाना ज़ररी है थके-हारे पिरनदे जब बसेरे के िलए लौटे सलीकामनद शाखो का लचक जाना ज़ररी है बहु त बेबाक आखो मे तअलुक़ िटक नही पाता मुहबबत मे किशश रखने को शरमाना ज़ररी है सलीका ही नही, शायद उसे महसूस करने का जो कहता है ख़ुदा है, तो नज़र आना ज़ररी है मेरे होठो अपनी पयास रख दो और िफर सोचो कया इसके बाद भी दिु नया मे कुछ पाना ज़ररी है

4

अचछा है , जो िमला, वह कही छू टता गया अचछा है, जो िमला, वह कही छूटता गया मुड-मुड के िज़नदगी की तरफ देखना गया मै, ख़ाली जेब, सब की िनगाहो मे आ गया सडको पे भीख मांगने वालो का कया गया जाना ही था, तो जाता, उसे इिख़तयार था जाते हु ए यह बात मुझे कयो बता गया कयो मुझमे ढू ंढता है वह पहला-सा एतबार जब उसकी िज़ंदगी मे कोई और आ गया उसने भी छोड दी मेरे बारे मे गुफ़तगू कुछ िदन के बाद मै भी उसे भूल-सा गया मेले की रौनको मे बहु त गुम तो हो 'वसीम' घर लौटने क वक़त िमयां सर पे आ गया

5

भला गमो से कहां हार जाने वाले थे भला गमो से कहां हार जाने वाले थे हम आं सुओं की तरह मुसकुराने वाले थे हमी ने कर िदया एलान-ए-गुमराही वनार हमारे पीछे बहु त लोग आने वाले थे इऩहे तो ख़ाक मे िमलना ही‌ था िक मेरे थे यह अशक़ कौन से ऊंचे घराने वाले थे उऩहे क़रीब न होने िदया कभी मैने जो दोसती मे‌ हदे भूल जाने वाले थे मै िजनको जान के पहचान भी नही सकता कुछ ऐसे लोग मेरा घर जलाने वाले थे हमारा अलिमया यह था िक हमसफर भी हमे वही िमले, जो बहु त याद आने वाले थे 'वसीम' कैसी तअलुक़ की राह थी, िजसमे वही िमले, जो बहु त िदल िदखाने वाले थे

6

क़तरा अब एहितजाज करे भी, तो कया िमले क़तरा अब एहितजाज करे भी, तो कया िमले दिरया जो लग रहे थे, समनदर से जा िमले हर शख़स दौडता है यहां भीड की तरफ िफर यह भी चाहता है, उसे रासता िमले इस आज़ूर ने और तमाशा बना िदया जो भी िमले, हमारी तरफ देखता िमले दिु नया को दस ू रो की नज़र से न देिखये चेहरे न पढ सके, तो िकताबो मे कया िमले िरशतो को बार-बार समझने की‌ आज़ूर कहती‌ है, िफर िमले, तो कोई बेवफा िमले इस दौर-ए-मुंिसफी मे‌ ज़ररी नही‌ 'वसीम' िजस शख़स की ख़ता हो, उसी को सज़ा िमले

7

सभी का धूप से बचने को सर नही होता

सभी का धूप से बचने को सर नही होता हर आदमी के मुक़दर मे‌ घर नही होता कभी लहू से भी तारीख़ िलखनी पडती है हर एक मािरका बातो से सर नही होता मै उसको आं ख का आं सू न बन सका, वनार मुझे भी ख़ाक मे िमलने का डर नही होता मुझे तलाश करोगे, तो िफर न पाओगे मै इक सदा हू ं, सदाओं का घर नही होता हमारी आं ख के आं सू की अपनी दिु नया है िकसी फक़ीर को शाहो का डर नही होता क़लम उठाये मेरे थक गये, िफर भी तुमहारे घर की तरह मेरा घर नही होता मै उस मकान मे रहता हू ं और िज़नदा हू ं 'वसीम' िजसमे हवा का गुज़र नही होता

8

कै सा दिरया है िक पयासा तो न मरने दे ग ा

कैसा दिरया है िक पयासा तो न मरने देगा अपनी गहराई का अनदाज़ा न करने देगा ख़ाक-ए-पा हो के िमलो, िजससे िमलो, िफर देखो इस बुलनदी से तुमहे कौन उतरने देगा पयार तहज़ीब-ए-तअलुक़ का अजब बनधन है कोई चाहे, तो हदे पार न करने देगा डू ब जाने को, जो तक़दीर समझ बैठे हो ऐसे लोगो मे मुझे कौन उभरने देगा सब से जीती भी रहे, सब की चहीती भी रहे िज़नदगी ऐसे तुझे कौन गुज़रने देगा िदल को समझाओ िक बेकार परेशां है 'वसीम' अपनी मनमानी उसे कोई न करने देगा

9

अपने चे ह रे से जो ज़ािहर है छु पाये कै से

अपने चेहरे से जो ज़ािहर है छुपाये कैसे तेरी मज़ी के मुतािबक़ नज़र आये कैसे घर सजाने का तसववुर तो बहु त बाद का है पहले यह तय हो िक इस घर को बचाये कैसे लाख तलवारे बढी आती हो गरदन की तरफ सर झुकाना नही आता तो झुकाये कैसे क़हक़हा आं ख का बतारव बदल देता है हंसने वाले तुझे आं सू नज़र आये कैसे फूल से रंग जुदा होना कोई खेल नही अपनी िमटी को कही छोड के जाये कैसे कोई अपनी ही नज़र से तो हमे देखेगा एक क़तरे को समनदर नज़र आये कैसे िजसने दािनसता िकया हो नज़रअनदाज़ 'वसीम' उसको कुछ याद िदलाये, तो िदलाये कैसे

10

दख ु अपना अगर हमको बताना नही आता

दख ु अपना अगर हमको बताना नही आता तुम को भी तो अनदाज़ा लगाना नही आता पहु च ं ा है बुज़गो के बयानो से जो हम तक कया बात हु ई, कयो वो ज़माना नही आता मै भी उसे खोने का हु नर सीख न पाया उसको भी‌ मुझे छोड के जाना नही आता इस छोटे ज़माने के बडे कैसे बनोगे लोगो को जब आपस मे लडाना नही आता ढू ंढे है तो पलको पे चमकने के बहाने आं सू को मेरी आं ख मे आना नही आता तारीख़ की आं खो मे धुआं हो गये ख़ुद ही तुम की तो कोई घर भी जलाना नही आता

11

अब ऐसा घर के दरीचो को बनद कया रखना

अब ऐसा घर के दरीचो को बनद कया रखना हवा के आने का कोई तो रासता रखना तअलुक़ात कभी एक-से नही रहते उसे गंवा के भी जीने का हौसला रखना जब अपने लोग ही आयेगे लूटने के िलए तो दोसती का तक़ाज़ा है, घर खुला रखना यह क़ुबर ते ही बडे इिमतहान लेती है िकसी से वासता रखना, तो दरू का रखना तमाम झगडे वहां िमिलकयत के होते है कही भी रहना, मगर घर िकराए का रखना बडे-बडो को यहां हाथ तापना होगे जले-मकानो को कुछ िदन यूं ही जला रखना 'वसीम' िदली की सडको पे रात भारी है िसरहाने मीर का दीवान ही खुला रखना

12

मै आसमां पे बहु त दे र रह नही सकता मै आसमां पे बहु त देर रह नही सकता मगर यह बात ज़मी से तो कह नही सकता िकसी के चेहरे को कब तक िनगाह मे रकखूं सफर मे एक ही मंज़र तो रह नही सकता यह आज़माने को फुसर त तुझे कभी िमल जाये मै आं खो-आं खो मे कया बात कह नही सकता सहारा लेना ही पडता है मुझको दिरया का मै एक क़तरा हू ं तनहा तो बह नही सकता लगा के देख ले, जो भी िहसाब आता हो मुझे घटा के वह िगनती मे रह नही सकता यह चनद लमहो की बेइिख़तयािरयां है 'वसीम' गुनाह से िरशता बहु त देर रह नही सकता

13

हम अपने आपको इक मसलआ बना न सके हम अपने आपको इक मसलआ बना न सके इसीिलए तो िकसी की‌ नज़र मे‌ आ न सके हम आं सुओं की तरह वािसते िनभा न सके रहे िजन आं खो मे, उनमे ही घर बना न सके िफर आं िधयो ने िसखाया वहां सफर का हु नर जहां चराग हमे रासता िदखा न सके जो पेश-पेश थे बसती बचाने वालो मे लगी जब आग, तो अपना भी घर बचा न सके मेरे ख़ुदा िकसी ऐसी जगह उसे रखना जहां कोई मेरे बारे मे कुछ बता न सके तमाम उम की कोिशश् का बस यही हािसल िकसी को अपने मुतािबक़ कोई बना न सके तसिलयो पे बहु त िदन िजया नही जाता कुछ ऐसा हो िक तेरा एतबार आ न सके

14

वह मे रे घर नही आता, मै उसके घर नही जाता वह मेरे घर नही आता, मै उसके घर नही जाता मगर इन एहितयातो से तअलुक़ मर नही जाता बुरे-अचछे हो, जैसे भी हो, सब िरशते यही के है िकसी को साथ दिु नया से कोई लेकर नही जाता घरो की तरिबयत कया आ गयी टी.वी. के हाथो मे, कोई बचचा अब अपने बाप के ऊपर नही जाता मुहबबत के यह आसू है, इऩहे आख़ो मे रहने दो शरीफो के घरो का मसअला बाहर नही जाता 'वसीम' उससे कहो, दिु नया बहु त महददू है मेरी िकसी दर का जो हो जाये, वो िफर दर-दर नही जाता

15

चलो हम ही पहल कर दे िक हमसे बदगुम ा कयो हो चलो हम ही पहल कर दे िक हमसे बदगुमा कयो हो कोई िरशता ज़रा-सी िज़द की ख़ाितर राएगा कयो हो मै िजनदा हू , तो इस िजनदा-ज़मीरी की बदौलत ही जो बोले तेरे लहजे मे, भला मेरी ज़बा कयो हो सवाल आिख़र यह इक िदन देखना हम ही उठायेनगे न समझे जो ज़मी के गम, वह अपना आसमा कयो हो हमारी गुफ़तगू की और भी समते बहु त-सी है िकसी का िदल दख ु ाने ही को िफर अपनी ज़बा कयो हो िबखरकर रह गया हमसायगी का ख़वाब ही, वनार िदये इस घर मे रौशन हो, तो उस घर मे धुआ कयो हो मुहबबत आसमा को जब ज़मी करने की िज़द ठहरी तो िफर बुज़िदल उसूलो की शराफत दरिमयां कयो हो उममीदे सारी दिु नया से 'वसीम' और खुद मे ऐसे गुम िकसी पे कुछ न ज़ािहर हो, तो कोई मेहरबा कयो हो

16

हमारा अज़म-ए-सफर कब िकधर का हो जाए

हमारा अज़म-ए-सफर कब िकधर का हो जाए ये वो नही जो िकसी रहगुज़र का हो जाए उसी को जीने का हक़ है, जो इस ज़माने मे इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए खुली हवाओ मे उडना तो उसकी िफतरत है पिरनदा कयो िकसी शाख़ो-शजर का हो जाए मै लाख चाहू , मगर हो तो यह नही सकता िक तेरा चेहरा मेरी ही नज़र का हो जाए मेरा न होने से कया फक़र उसको पडना है पता चले, जो िकसी कम-नज़र का हो जाए 'वसीम' सुबह की तनहाई-ए-सफर सोचो मुशाइरा तो चलो रातभर का हो जाए

17

िज़नदगी िकतने ज़ख़म खाये है

िज़नदगी िकतने ज़ख़म खाये है िफर भी कया शय है, मुसकुराये है उम-ए-एहसास रक-सी जाये है जब कभी तेरा ख़याल आये है घर तो घर, जह भी जल उठते है आग ऐसी कोई लगाये है मै तो गहरा कुआ हू ऐ लोगो कौन मेरे करीब आये है मै तुझे भूल तो गया होता कया कर, याद आ ही जाये है दशत-ए-शब मे वो एक चीख़ की गूनज कौन सनाटे को रलाये है जाने िकस का है इिनतज़ार 'वसीम' िज़नदगी है िक गुज़री जाये है

18

तुम हारी राह मे िमटी के घर नही आते

तुमहारी राह मे िमटी के घर नही आते इसीिलये तो तुमहे हम नज़र नही आते मुहबबतो के िदनो की यही ख़राबी है यह रठ जाये, तो िफर लौटकर नही आते िज़ऩहे सलीका है तहज़ीब-ए-गम समझने का उऩही के रोने मे आसू नज़र नही आते ख़ुशी की आख़ मे आसू की भी जगह रखना बुरे ज़माने कभी पूछकर नही आते िबसाते-इशक़ पे बढना िकसे नही आता यह और बात की बचने के घर नही आते 'वसीम' ज़ह बनाते है, तो वही अख़बार जो ले के एक भी अचछी ख़बर नही आते

19

आवाज़ो का लबो से बहु त फािसला न था आवाज़ो का लबो से बहु त फािसला न था लेिकन को ख़ौफ था िक कोई बोलता न था आसू को एतबार के क़ािबल समझ िलया मै ख़ुद ही छोटा िनकला, तेरा गम बडा न था उसने ही मुझको देखा ज़माने की आख़ से िजसको मेरी नज़र से कोई देखता न था उन अजनबीयतो के सताये है इन िदनो जैसे कभी िकसी से कोई वािसता न था हर मोड पर उममीद थी, हर सोच आज़ूर ख़ुद से फरार का भी कोई रासता न था अपना यह अलिमयां है िक हम ज़ही तौर पर उस शह मे रहे, जो अभी तक बसा न था कैसी िगरावटो पर ख़डी थी, मगर 'वसीम' ऊची इमारतो से कोई पूछता न था

20

अपने साए को इतना समझाने दे

अपने साए को इतना समझाने दे मुझ तक मेरे िहससे की धूप आने दे एक नज़र मे कई ज़माने देखे, तो बूढी आख़ो की तसवीर बनाने दे बाबा दिु नया जीत के मै िदख़ला दनू गा अपनी नज़र से दरू तो मुझको जाने दे मै भी तो इस बाग का एक पिरनदा हू मेरी ही आवाज़ मे मुझको गाने दे िफर तो यह ऊनचा ही होता जायेगा बचपन के हाथो मे चानद आ जाने दे फसले पक जाये, तो खेत से िबछडेनगी रोती आख़ को पयार कहा, समझाने दे

21

जीते है , िकरदार नही है

जीते है, िकरदार नही है नाव तो है, पतवार नही है मेरा गम मझदार नही है गम है, कोई उस पार नही है खोना-पाना मै कया जानू पयार है, कारोबार नही है सजदा वहा इक सर की विज़र श सर पे जहा तलवार नही है ज़हो मे दीवार न हो तो िमलना कोई दशु वार नही है मै भी कुछ ऐसा दरू नही हू तू भी समनदर-पार नही है पहले तोलो, िफर कुछ बोलो लफ़ज़ कोई बेकार नही है मै सबसे झुककर िमलता हू मेरी कही भी हार नही है

22

वह जो हर आख़ को पै म ाना नज़र आये है

वह जो हर आख़ को पैमाना नज़र आये है मुझसे िमलती है वही आख़ तो भर आये है कोई साथी, न कोई राह, न िसमत-ए-मिनज़ल िज़नदगी मे इक ऐसा भी सफर आये है लौटता हू तो सलीके से सजा िमलता है मेरे पीछे जैसे कोई मेरे घर आये है िज़नदगी फूल-सी नाज़ूक है, मगर ख़वाबो की आख़ से देखो तो काटो-सी नज़र आये है इिनतज़ार एक सफर है िक जो हो ख़तम तो िफर रात आकाश से आख़ो मे उतर आये है मुऩहिसर अब तो इसी आस पे जीना है 'वसीम' रात के बाद सुना है िक सहर आये है

23

अपने अनदाज़ का अके ला था

अपने अनदाज़ का अकेला था इसीिलए मै बडा अकेला था पयार तो जनम का अकेला था कया मेरा तजरबा अकेला था साथ तेरा न कुछ बदल पाया मेरा ही रासता अकेला था बिख़शश-ए-बेिहसाब के आगे मेरा दसते-दआ ु अकेला था तेरी समझौतेबाज़ दिु नया मे कौन मेरे िसवा अकेला था जो भी िमलता गले लगा लेता िकस क़दर आईना अकेला था

24

वो पयार िजसके िलये हमने कया गवा न िदया

वो पयार िजसके िलये हमने कया गवा न िदया उसीने बच के िनकलने का रासता न िदया कोई नज़र मे रहा भी, तो इस सलीके से िक मैने उसके ही घर का उसे पता न िदया जब एक बार जला ली हथेिलया अपनी तो िफर ख़ुदा ने भी उस हाथ ने िदया न िदया यह गुमरही का नशशा अजीब था, वनार गुनाहगार ने रसता, न फािसला न िदया ज़बा से िदल के सभी फैसले नही होते उसे भुलाने को कहते तो थे, भुला न िदया 'वसीम' उसके ही घर और उस पे ही तनक़ीद यही बहु त है िक उसने तुमहे उठा न िदया

25

मे र ी धूप ो के सर को िरदा कौन दे

मेरी धूपो के सर को िरदा कौन दे नीनद मे यह मुझे फूल-सा कौन दे ख़ुद चलो तो चलो आसरा कौन दे भीड के दौर मे रासता कौन दे ज़ुलम िकसने िकया, कौन मज़लूम था, सबको मालूम है, िफर बता कौन दे यह ज़माना अकेले मुसािफर का है इस ज़माने को िफर रहनुमा कौन दे अपने आगे िकसी को समझता नही उसके हाथो मे इक आईना कौन दे िदल सभी का दख ु ा है, मगर ऐ 'वसीम' देखना है, उसे बदआ ु कौन दे

26

वो बे ि हसी के िदन आये िक कु छ हु आ न लगा वो बेिहसी के िदन आये िक कुछ हु आ न लगा कब उसको भूल गये, ये भी तो पता न लगा िबछडते वक़त िदलासे, न खोखले वादे वह पहली बार मुझे आज बेवफा न लगा जहा पे दसतक़े पहचानकर जवाब िमले गुज़र भी ऐसे मक़ा से हो तो सदा न लगा यह देखने क सलीक़ा भी िकसका आता है िक उसने देखा मुझे और देखता न लगा 'वसीम' अपने गरेबा मे झाककर देखा तो अपने चारो तरफ कोई भी बुरा न लगा

27

कु छ इतना ख़ौफ का मारा हु आ भी पयार न हो कुछ इतना ख़ौफ का मारा हु आ भी पयार न हो वो एतबार िदलाये और एतबार न हो हवा िख़लाफ हो, मौजो पे इिख़तयार न हो यह कैसी िज़द है िक दिरया िकसी से पार न हो मै गाव लौट रहा हू बहु त िदनो के बाद ख़ुदा करे िक उसे मेरा इिनतज़ार न हो ज़रा-सी बात पे घुट-घुट के सुबह कर देना मेरी तरह भी कोई मेरा गमगुसार न हो दख ु ी समाज मे आसू भरे ज़माने मे उसे ये कौन बताये िक अशकबार न हो गुनाहगारो पे उनगली उठाये देते हो 'वसीम' आज कही तुम भी सनगसार न हो

28

कया द ख ु है , समनदर को बता भी नही सकता

कया दख ु है, समनदर को बता भी नही सकता आसू की तरह आख़ तक आ भी नही सकता तू छोड रहा है तो ख़ता इसमे तेरी कया हर शख़स मेरा साथ िनभा भी नही सकता पयासे रहे जाते है ज़माने के सवालात िकसके िलये िज़नदा हू बता भी नही सकता घर ढू नढ रहे है मेरा रातो के पुजारी मै हू िक चरागो को बुझा भी नही सकता वैसे तो इक आसू ही बहाकर मुझे ले जाये ऐसे कोई तूफान िहला भी नही सकता

29

कहा सवाब, कहा कया अज़ाब होता है कहा सवाब, कहा कया अज़ाब होता है मुहबबतो मे कब इतना िहसाब होता है िबछड के मुझसे तुम अपनी किशश न खो देना उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है उसे पता ही नही िक पयार की बाज़ी जो हार जाये, वही कामयाब होता है जब उसके पास गवाने को कुछ नही होता तो कोई आज क इज़ज़तमआब होता है िजसे मै िलखता हू ऐसे िक ख़ुद ही पढ पाऊ िकताब-ए-ज़ीसत मे ऐसा भी बाब होता है बहु त भरोसा न कर लेना अपनी आख़ो पर िदखाई देता है जो कुछ वो ख़वाब होता है

30

मै जै से चाहू िजऊ मे र ी िज़नदगी है िमयां

मै जैसे चाहू िजऊ मेरी िज़नदगी है िमयां तुमहे सलीक़ा िसखाने की कया पडी है िमयां िकसी से िबछडो तो ये सोचकर िबछड जाना तअलुक़ात से यह िज़नदगी बडी है िमयां तुमहारी सोचो के अकसर िख़लाफ होता है तुमहारे बारे मे दिु नया जो सोचती है िमयां इस इिनतज़ार मे कयो हो वो लौट आयेगा तुमहारे पयार मे शायद कोई कमी है िमयां िबछड गये तो िकसी रोज़ िमल भी जाओगे यह दिु नया ऐसी कहां की बहु त बडी है िमयां

31

हद से बढ के तअलु क़ िनभाया नही

हद से बढ के तअलुक़ िनभाया नही मैने इतना भी खुद को गंवाया नही जाते-जाते मुझे कैसा हक़ दे गया वो पराया भी हो के पराया नही पयार को छोड के बाकी हर खेले मे िजतना खोना पडा उतना पाया नही वापसी का सफर िकतना दशु वार था चाहकर भी उसे भूल पाया नही उम सारी तमाशो मे गुज़री मगर मैने ख़ुद को तमाशा बनाया नही िज़नदगी का ये लमबा सफर और 'वसीम' जेब मे दो क़दम का िकराया नही

32

उदास एक मुझ ी को तो कर नही जाता उदास एक मुझी को तो कर नही जाता वह मुझसे रठ के अपने भी घर नही जाता वह िदन गये िक मुहबबत थी जान की बाज़ी िकसी से अब कोई िबछडे तो मर नही जाता तुमहारा पयार तो सांसो मे सांस लेता है जो होता नशशा तो इक िदन उतर नही जाता पुराने िरशतो की बेगरिज़यां न समझेगा वह अपने ओहदे से जब तक उतर नही जाता 'वसीम' उसकी तडप है, तो उसके पास चलो कभी कुआं िकसी पयासे के घर नही जाता

33

तू भी िबखरना सीख ले , अपने िजसम की पागल ख़ुश बू से

तू भी िबखरना सीख ले, अपने िजसम की पागल ख़ुशबू से मै भी हु आ जाता हू बाहर, अनदेशो के क़ाबू से मेरा कहलाने का मतलब ये तो नही, तू मेरा हो तेरा-मेरा िरशता, जैसे फूल का िरशता ख़ुशबू से संग उठाओ संग िक देखो पतथर है पतथर का जवाब िक़लए ढाने िनकले हो और वो भी लरज़ते आसूं से शाहो ने भी शाही छोड के पयार िकया, तो पयार िमला िदल की ज़मीने जीत न पाया कोई भी ज़ोर-ए-बाज़ू से िफतत ही आज़ाद हो िजसकी, उसका ददर नही जाना मैने तो बस, ये चाहा, अपनी मुटी भर लूं ख़ुशबू से आं खे ज़ख़मी है, तो 'वसीम' अब िशकवा और िशकायत कया तुमने भी तो देखना चाहा दिु नया हो हर पहलू से

34

सोचे , तो ख़ुद से शरमाये

सोचे, तो ख़ुद से शरमाये िकसके है, िकसके कहलाये आं ख मे हो आं सू कहलाये घर छूटे िमटी हो जाये कुछ बातो क हु सन यही है िदल मे रहे होठो पे न आये उम ही िकतनी इन रंगो की कैसे तेरी तसवीर बनाये और अभी कुछ धोखे दे लो जाने कब आं खे खुल जाये

35

तुम से िमलने को चे ह रे बनाना पडे

तुमसे िमलने को चेहरे बनाना पडे कया िदखाये जो िदल भी िदखाना पडे गम के घर तक न जाने की कोिशश करो जाने िकस मोड पर मुसकुराना पडे आग ऐसी लगाने से कया फायदा िजसके शोलो को ख़ुद ही बुझाना पडे कल का वादा न लो, कौन जाने िक कल िकस को चाहू , िकसे भूल जाना पडे खो न देना कही ठोकरो का िहसाब जाने िकस-िकस को रसता बताना पडे ऐसे बाज़ार मे आये ही कयो 'वसीम' अपनी बोली जहां ख़ुद लगाना पडे

36

ख़वाब दे खूं , ख़वाब-सी ताबीर हो सकती नही

ख़वाब देखूं, ख़वाब-सी ताबीर हो सकती नही जो बदल जाये, मेरी तक़दीर हो सकती नही मेरी जािनब हो िनगाहे, िदल मे कोई और हो इतनी लापरवा तेरी तसवीर हो सकती नही रौदते जाते हो िरशते, तोडते जाते हो िदल इस तरह तो कोई भी तामीर हो सकती नही कुछ भी सुनने के िलए राज़ी नही है सािमईन आज जलसे मे कोई तक़रीर हो सकती नही मै मुख़ाितब हू ं, तो मेरा नाम भी होगा कही इस क़दर बेरबत यह तहीर हो सकती नही

37

रात के हाथ से िदन िनकलने लगे

रात के हाथ से िदन िनकलने लगे जायदादो के मािलक बदलने लगे एक अफवाह सब रौनक़े ले गयी देखते-देखते शह जलने लगे मै तो खोया रहू गं ा तेरे पयार मे तू ही कह देना, जब तू बदलने लगे सोचने से कोई राह िमलती नही चल िदये है तो रसते िनकलने लगे छीन ली शोहरतो ने सब आज़ािदयां राह चलतो से िरशते िनकलने लगे

38

जो िमला उसको तअलु क़ क गुम ां रहने िदया

जो िमला उसको तअलुक़ क गुमां रहने िदया उसने मेरा ख़वाब मेरा ही कहां रहने िदया दशु मन-ए-तहज़ीब-ए-मशिरक़ और कया चाहेगा तू हमने टी.वी. को खुला वक़त-ए-अज़ां रहने िदया काहे की बहसे िमयां, वो हम हु ए या तुम हु ए िकसने ये िहंदोसतां िहंदोसतां रहने िदया इक िदये का चेहरा कोई दस ू रा पढने न पाये घर के आं गन मे िकसी ने वो धुआं रहने िदया मै बनाना चाहता था िजसको गािलब की गज़ल तुमने उस बसती मे मेरा घर कहां रहने िदया

39

क़तरा हू ं , अपनी हद से गुज़ रता नही

क़तरा हू ं, अपनी हद से गुज़रता नही मै समनदर को बदनाम करता नही तू अगर एक हद से गुज़रता नही मै भी अपनी हदे पार करता नही अपनी कम-िहममती को दआ ु दीिजये पर िकसी के कोई यूं कतरता नही जाने कया हो गयी इसकी मासूिमयत अब ये बचचा धमाको से डरता नही बस, ज़मी से जुडी है सभी रौनके आसमां से कोई घर उतरता नही

40

कया बताऊं , कै सा ख़ुद को दरबदर मै ने िकया

कया बताऊं, कैसा ख़ुद को दरबदर मैने िकया उम-भर िकस-िकस के िहससे का सफर मैने िकया तू तो नफरत भी न कर पायेगा इस िशदत के साथ िजस बला क पयार, तुझसे बेख़बर मैने िकया कैसे बचचो को बताऊं रासतो के पेचो-ख़म िज़नदगी-भर तो िकताबो का सफर मैने िकया िकसको फुसर त थी िक बतलाता तुझे इतनी-सी बात ख़ुद से कया बतारव तुझसे छूटकर मैने िकया चनद जज़बाती-से िरशतो के बचाने को 'वसीम' कैसा-कैसा जब अपने आप पर मैने िकया

41

िसफर ते र ा नाम ले क र रह गया

िसफर तेरा नाम लेकर रह गया आज दीवाना बहु त कुछ कह गया कया मेरी तक़दीर मे मंिज़ल नही फािसला कयो मुसकुराकर रह गया िज़नदगी दिु नया मे ऐसा अशक था जो ज़रा पलको पे ठहरा, बह गया और कया था, उसकी पुरिसश का जवाब अपने ही आं सू छुपाकर रह गया उससे पूछ ऐ कामयाब-ए-िज़नदगी िजसका अफ़साना अधूरा रह गया हाय! कया दीवानगी थी ऐ 'वसीम' जो न कहना चािहए था, कह गया

42

कभी लफ़ज़ो से गदरी न करना

कभी लफ़ज़ो से गदरी न करना गज़ल पढना, अदाकारी न करना जो मेरी िज़नदगी के साथ की है वही मरने पे फनकारी न करना मेरे बचचो के आं सू पोछ देना िलफाफे का िटकट जारी न करना इलाही ख़ाक तो कर देना, लेिकन िकसी शोले को िचनगारी न करना

43

मुझे बुझ ा दे , मे र ा दौर मुख़ तसर कर दे

मुझे बुझा दे, मेरा दौर मुख़तसर कर दे मगर िदये की तरह मुझको मौतबर कर दे िबखरते-टू टते िरशतो की उम ही िकतनी मै तेरी शाम हू ं, आजा, मेरी सहर कर दे जुदाइयो की यह राते तो काटनी होगी कहािनयो को कोई कैसे मुख़तसर कर दे तेरे ख़याल के हाथो कुछ ऐसा िबखरा है िक जैसे बचचा िकताबे इधर-उधर कर दे 'वसीम' िकसने कहा था िक यूं गज़ल कहकर यह फूल-जैसी ज़मी आं सुओ से तर कर दे

44

लहू न हो, तो क़लम तरजुम ां नही होता

लहू न हो, तो क़लम तरजुमां नही होता हमारे दौर मे आं सू ज़बां नही होता जहां रहेगा, वही रौशनी लुटायेगा िकसी चराग क अपना मक़ां नही होता यह िकस मुक़ाम पे लायी है मेरी तनहाई िक मुझ से आज कोई बदगुमां नही होता बस, इस िनगाह मेरी राह देखती होती यह सारा शह मेरा मेज़बां नही होता तेरा ख़याल न होता, तो कौन समझाता ज़मी न हो, तो कोई आसमां नही होता मै उसको भूल गया हू ं, यह कौन मानेगा िकसी चराग के बस मे धुआं नही होता 'वसीम' सिदयो की आं खो से देिखये मुझको वह लफ़ज़ हू ं, जो कभी दासतां नही होता

45

मे रे गम को जो अपना बताते रहे

मेरे गम को जो अपना बताते रहे वक़त पडने पे हाथो से जाते रहे बािरशे आयी और फैसला कर गयी लोग टू टी छते आज़माते रहे आं खे मंज़र हु ई, कान नग़मा हु ए घर के अनदाज़ ही घर से जाते रहे शाम आयी, तो िबछडे हु ए हमसफर आं सुओं-से इन आं खो मे आते रहे नऩहे बचचो ने छू भी िलया चांद को बूढे बाबा कहानी सुनाते रहे दरू तक हाथ मे कोई पतथर न था िफर भी, हम जाने कयो सर बचाते रहे शाइरी जह थी, कया करे ऐ 'वसीम' लोग पीते रहे, हम िपलाते रहे

46

कोई मौसम नही ख़ुद को दोहराये ग ा

कोई मौसम नही ख़ुद को दोहरायेगा तू गया, तो गया, िफर कहां आयेगा रात मेरी नही, रात तेरी नही िजसने आं खो मे काटी, वही पायेगा लोग कुछ भी कहे और मै चुप रहू ं यह सलीक़ा मुझे जाने कब आयेगा कोई मंज़र भरोसे के कािबल नही तेरी आं खो का दख ु और बढ जायेगा आसमां जब ज़मीनो की िकसमत िलखे कोई इंसाफ मांगे, तो कया पायेगा उसकी आं खो मे कया ढू ंढते हो 'वसीम' जैसे खोया हु आ वक़त िमल जायेगा

47

मौसमो के पिरनदो पे हं स ता हु आ मौसमो के पिरनदो पे हंसता हु आ एक चेहरा है, आं खो मे ठहरा हु आ रात-भर आं सुओं से जो िलकखी गयी सुबह को उस कहानी का सौदा हु आ आज़ूरओं का िरशतो से िरशता ही कया तुम िकसीके हु ए, मै िकसीका हु आ देिखये, कब कोई पढने वाला िमले मै हू ं अपने ही चेहरे पे िलकखा हु आ पयास का वह सफर हू ं िक िजसको 'वसीम' कोई बादल िमला भी, तो बरसा हु आ

48

अब इन आं खो मे कोई कहानी नही

अब इन आं खो मे कोई कहानी नही कैसे दिरया हु ए, िजनमे पानी नही खो गयी, िमल गयी, वक़त की गद्र मे वह मुहबबत, जो लगता था फानी नही रेज़ा-रेज़ा िबखरना मुक़दर हु आ हार कर कभी हार मानी नही सारा िकससा सफर के इरादो का है रासतो की तो कोई कहानी नही भागती भीड से कोई कह दे 'वसीम' मेरी आं खो मे आं सू है, पानी नही

49

कु छ इस तरह वह मे र ी िज़नदगी मे आया था

कुछ इस तरह वह मेरी िज़नदगी मे आया था िक मेरा होते हु ए भी बस एक साया था हवा मे उडने की धुन ने यह िदन िदखाया था उडान मेरी थी, लेिकन सफर पराया था यह कौन राह िदखाकर चला गया मुझको मै िज़नदगी मे भला िकसके काम आया था मै अपने वादे पे क़ायम न रह सका वनार वह थोडी दरू ही जाकर तो लौट आया था न अब वह घर है, न उस घर के लोग याद 'वसीम' न जाने उसने कहां से मुझे चुराया था

50

आज यह ज़माना उसी का लगे

आज यह ज़माना उसी का लगे वह जो पयासा न हो और पयासा लगे उसको चाहा ही है मैने कुछ इस तरह वह कही भी रहे, िसफर मेरा लगे मै ख़रीदं ू तुझे, तू ख़रीदे मुझे गांव मे िफर कोई ऐसा मेला लगे रात-भर झील की गोद मे सो के भी सुबह को चांद कयो पयासा-पयासा लगे पास जाओ तो बस रेत ही रेत है दरू से देखने मे जो दिरया लगे एक िदल था उसे जाने कया हो गया ऐ 'वसीम' इन िदनो कुछ न अचछा लगे

51

इक कहानी-सी िदल पर िलखी रह गयी

इक कहानी-सी िदल पर िलखी रह गयी वह नज़र जो मुझे देखती रह गयी रंग सारे ही कोई चुरा ले गया मेरी तसवीर अधूरी पडी रह गयी लोग बाज़ार मे आके िबक भी गये मेरी क़ीमत लगी-की-लगी रह गयी वह तो कमरे से उठकर चला भी गया बात करती हु ई ख़ामुशी रह गयी दो उजाले अंधेरो मे खो भी गये हाथ मलती हु ई चांदनी रह गयी बस, वही अब हवा की िनगाहो मे है िजन चरागो मे कुछ रौशनी रह गयी वह भी चाहे, तो पूरी न हो ऐ 'वसीम' िज़नदगी मे कुछ ऐसी कमी रह गयी

52

मे र ी आं खो को यह सब कौन बताने दे ग ा

मेरी आं खो को यह सब कौन बताने देगा ख़वाब िजसके है, वही नीद न आने देगा उसने यूं बांध िलया ख़ुद को नये िरशतो मे जैसे मुझपर कोई इलज़ाम न आने देगा सब अंधेरो से कोई वादा िकये बैठे है कौन ऐसे मे मुझे शम्अ जलाने देगा भीगती झील, कंवल, बाग, महक, सनाटा यह मेरा गांव मुझे शह न जाने देगा वह भी आं खो मे कई ख़वाब िलये बैठा है यह तसववुर ही कभी नीद न आने देगा अब तो हालात से समझौता ही कर लीजे 'वसीम' कौन माज़ी की तरफ लौट के जाने देगा

53

सफर पे आज वही किशतयां िनकलती है

सफर पे आज वही किशतयां िनकलती है िजऩहे ख़बर है, हवाएं भी तेज़ चलती है मेरी हयात से शायद वो मोड छूट गये बगैर समतो के राहे जहां िनकलती है हमारे बारे मे िलखना, तो बस यही िलखना कहां की शम्एं है, िकन महिफलो मे जलती है बहु त करीब हु ए जा रहे हो, सोचो तो िक इतनी क़ुबर ते िजसमो से कब संभलती‌ है 'वसीम' आओ, इन आं खो को गौर से देखो यही तो है, जो मेरे फैसले बदलती‌ है

54

उसे समझने का कोई तो रासता िनकले

उसे समझने का कोई तो रासता िनकले मै चाहता भी यही था, वह बेवफा िनकले िकताबे-माज़ी के औराक़ उलट के देख ज़रा न जाने कौन-सा सफ़हा मुडा हु आ िनकले मै तुझसे िमलता हू ,ं तफ़सील मे नही आता मेरी तरफ से तेरे िदल मे जाने कया िनकले जो देखने मे बहु त ही क़रीब लगता है उसी के बारे मे सोचो तो फािसला िनकले तमाम शह की आं खो मे सुख़र शोले है 'वसीम' घर से अब ऐसे मे कोई कया िनकले

55

वह फािसले ही मुझे तय कराये दे त ा है वह फािसले ही मुझे तय कराये देता है िक मेरे ख़वाबो की उमे घटाये देता है तमाम अशक है और मुसकुराये देता है ये कौन है, जो समनदर सुखाये देता है ये िकसका हाथ है, िफर काट कयो नही देते जो सारे शह की शम्एं बुझाये देता है यही चराग तेरी तीरगी का साथी था िजसे तू सुबह की ख़ाितर बुझाये देता है 'वसीम' ज़ह की ख़ुदािरयां भी कया शय है बुरा-सा लगता है, जब कोई राय देता है

56

एक-एक करके हर इक चे ह रा छु पा जाये है एक-एक करके हर इक चेहरा छुपा जाये है सारा मंज़र ही कोई ख़वाब हु आ जाये है बदगुमानी की िनगाहो के लगे है पहरे तेरा यह शह इक अनदेशा हु आ जाये है मै अंधेरो के सफरनामो का उनवां ठहरा मुझसे कयो शम्एं जलाने को कहा जाये है िज़नदगी तू ही बता देना िक कैसी गुज़री हम पे भी जाने का इलज़ाम लगा जाये है कौन अहसास की इस पयास को समझेगा 'वसीम' एक झोका ही हवाओं का रला जाये है

57

िज़नदगी तुझ पे अब इलज़ाम कोई कया रकखे िज़नदगी तुझ पे अब इलज़ाम कोई कया रकखे अपना अहसास ही ऐसा है, तो तनहा रकखे िकन िशकसतो के शबो-रोज़ से गुज़रा होगा वह मुसिववर जो हर इक नक़श अधूरा रकखे ख़ुशक िमटी ही ने जब पांव जमाने न िदये बहते दिरया से िफर उममीद कोई कया रकखे आ! गमे-दोसत इसी मोड पे हो जाऊं जुदा जो मुझे मेरा ही रहने दे, न तेरा रकखे आज़ूरओं के बहु त ख़वाब तो देखो हो 'वसीम' जाने िकस हाल मे बेददर ज़माना रकखे

58

शाम तक सुब ह की नज़रो से उतर जाते है शाम तक सुबह की नज़रो से उतर जाते है इतने समझौतो पे जीते है िक मर जाते है िफर वही तिलख़-ए-हालात मुक़दर ठहरी नशशे कैसे भी हो, कुछ िदन मे उतर जाते है इक जुदाई का वह लमहां िक जो मरता ही नही लोग कहते है िक सब वक़त गुज़र जाते है घर की िगरती हु ई दीवारे ही मुझसे अचछी रासता चलते हु ए लोग ठहर जाते है हम तो बेनाम इरादो के मुसािफर है 'वसीम' कुछ पता हो, तो बताये िक िकधर जाते है

59

ज़ह मे पानी के बादल अगर आये होते ज़ह मे पानी के बादल अगर आये होते मैने िमटी के घरौदे न बनाये होते धूप के एक ही मौसम ने िजऩहे तोड िदया इतने नाज़ुक भी यह िरशते न बनाये होते डू बते शहर मे िमटी का मक़ां िगरता ही तुम यह सब सोच के मेरी तरफ आये होते धूप के शहर मे इक उम न जलना पडता हम भी ऐ काश िकसी पेड के साये होते फल पडोसी के दरख़तो पे न पकते, तो 'वसीम' मेरे आं गन मे यह पतथर भी न आये होते

60

आते -आते मे र ा नाम-सा रह गया आते-आते मेरा नाम-सा रह गया उसके होठो पे कुछ कांपता रह गया रात मुजिरम थी, दामन बचा ले गयी िदन गवाहो की सफ मे खडा रह गया वह मेरे सामने ही गया और मै रासते की तरह देखता रह गया झूठ वाले कही-से-कही बढ गये और मै था िक सच बोलता रह गया आं िधयो के इरादे तो अचछे न थे यह िदया कैसे जलता हु आ रह गया उसको कांधो पे ले जा रहे है 'वसीम' और वह जीने का हक़ मांगता रह गया

61

घर से िनकला, तो िफर घर को कया दे ख ता घर से िनकला, तो िफर घर को कया देखता कौन था, जो मेरा रासता देखता इक क़दम भी न उठता तेरी राह मे मै अगर राह का फािसला देखता चनद सडको ही मे बंट गयी िज़नदगी तेरी दिु नया भी होगी, मै कया देखता आसमां की बुलनदी बुलाये िजसे वह ज़मी की तरफ मुड के कया देखता सारे रंग आ गये एक ही रंग मे कौन आं सू के अनदर ख़ुदा देखता

62

वह मुझे छोड के यूं आगे बढा जाता है वह मुझे छोड के यूं आगे बढा जाता है जैसे अब मेरा सफर ख़तम हु आ जाता है बात रोने की लगे और हंसा जाता है यूं भी हालात से समझौता िकया जाता है िदल के िरशते ही िगरा देते है दीवारे भी िदल के िरशतो ही को दीवार कहा जाता है यह मेरी आख़री शब तो नही मयख़ाने मे कांपते हाथो से कयो जाम िदया जाता है िकस अदालत मे सुना जायेगा दावा उनका िजन उममीदो का गला घोट िदया जाता है फािसले िजसको िरफक़त क मुक़दर ठहरे उस मुसािफर का कहां साथ िदया जाता है रात आधी से िज़यादा ही गयी होगी 'वसीम' आओ घर लौट ले नावक़त हु आ जाता है

63

ते र ा ख़याल न होता, तो यह ज़माना था तेरा ख़याल न होता, तो यह ज़माना था िकसी बहाने मुझे ख़ुद से छूट जाना था हसीन ख़वाबो ने आं खो का साथ जब छोडा तो यह लगा िक मै गुज़रा हु आ ज़माना था यह कया िक आं धी की मािनंद होते होते जाते हो वही चराग बुझाते, िजसे बुझाना था वह मेरे साथ बहु त दरू तक गया होता मगर उसे तो ज़माने को मुह ं िदखाना था अजीब शते-सफर थी, जहां पे आज लुटे वही से कल के िलये रासता बनाना था उसी ख़ुशी की तमना मे तुम भी िनकले हो 'वसीम' िजसके तअक़क़ुब मे इक ज़माना था

64

पयार की फांस िकसी तरह िनकलती भी नही पयार की फांस िकसी तरह िनकलती भी नही ख़त जला डािलये, तहीर तो जलती भी नही तेरे बख़शे हु ए अशक़ो का ख़ुदा ही हािफज़ यह अमानत अब इन आं खो से संभलती भी नही कब से इक वादा वफा होने की उममीद िलये ऐसी इक राह पे बैठा हू ं, जो चलती भी नही उन पे जांबाज़ पिरनदो ने बसेरा चाहा िजन पहाडो से कभी बफर िपघलती भी नही िजसका इक ज़ात से थोडा-सा तअलुक़ है 'वसीम' जह से ऐसी कोई बात िनकलती भी नही

65

ख़ुश ी का साथ िमला भी, तो िदल पे बार रहा ख़ुशी का साथ िमला भी, तो िदल पे बार रहा मै आप अपनी तबाही का िज़ममेदार रहा अधूरे ख़वाब, गये िदन, अजान अनदेशे मेरी हयात पे िकस-िकस का इिख़तयार रहा जो सब पे बोझ था, इक शाम जब नही लौटा उसी पिरनदे का शाखो को इिनतज़ार रहा वह कोई और ही जज़बा था, िसफर पयार न था तुझे जो अपना जताने को बेक़रार रहा न जाने िकसका तअलुक़ था मेरे साथ 'वसीम' कोई भी दौर हु आ, मुझको साज़गार रहा

66

अब कै से यह सुल ूक छु पाये िकसी से हम अब कैसे यह सुलूक छुपाये िकसी से हम पहचाने जा रहे है मेरी बेरख़ी से हम मजबूिरयो का शह था, बेगानगी का दौर िमलता ही कया, जो मांगते अपनी ख़ुशी से हम जलते हु ए मक़ानो के मंज़र बतायेगे कया बात थी, जो रठ गये रौशनी से हम उतरे हु ए नशे िक तरह कया पता लगे िकस फािसले पे छूट गये िज़नदगी से हम िरशतो को एहितयात की एक आं च चािहये देखा िकये है तेरी तरफ दरू ही से हम ख़ुद मे वह लमहा-लमहा तगययुर है ऐ 'वसीम' िमलते हो जैसे रोज़ िकसी अजनबी से हम

67

न जाने कयो मुझे उससे ही ख़ौफ लगता है न जाने कयो मुझे उससे ही ख़ौफ लगता है मेरे िलये जो ज़माने को छोड आया है अंधेरी शब के हवालो मे उसको रकखा है जो एक शह की नीदे उडा के सोया है िरफाक़तो के सफर मे तो बे-यक़ीनी थी यह फािसला है, जो िरशते बनाये रखता है वह ख़वाब थे, िजऩहे हम िमल के देख सकते थे यह बारे-ज़ीसत है, तनहा उठाना पडता है हमे िकताबो मे कया ढू ंढने चले हो 'वसीम' जो हमको पढ नही पाये, उनही ने िलखा है

68

नही िक अपना ज़माना भी तो नही आया है नही िक अपना ज़माना भी तो नही आया है हमे िकसी से िनभाना भी तो नही आया है जला के रख िलया हाथो के साथ दामन तक तुमहे चराग बुझाना भी तो नही आया है नये मकान बनाये, तो फािसलो की तरह हमे ये शह बसाना भी तो नही आया है वह पूछता था मेरी आं ख भीगने का सबब मुझे बहाना बनाना भी तो नही आया है 'वसीम' देखना मुड-मुड के वह उसी की तरफ िकसी को छोड के जाना भी तो नही आया है

69

मे र ा कया था, मै टू टा िक िबखरा रहा मेरा कया था, मै टू टा िक िबखरा रहा तेरे हाथो मे तो इक िखलौना रहा इक ज़रा-सी अना के िलये उम-भर तुम भी तनहा रहे, मै भी तनहा रहा तेरे जाने का मंज़र ही गमख़वार था िज़नदगी-भर जो आं खो से िलपटा रहा मेरा एहसास सिदयो पे फैला हु आ ऐसा आं सू, जो पलके बदलता रहा घर की सब रौनक़ मुझसे और मै 'वसीम' ताक़ पर इक िदये-जैसा जलता रहा

70

ज़रा-सी ख़ाक हो, इस बात पर नही जाना ज़रा-सी ख़ाक हो, इस बात पर नही जाना हज़ार आं िधयां आये, िबखर नही जाना िबछड गया हू ं, तो जाना िक िज़नदगी कया है तुमहारे साथ सफर को सफर नही जाना िशकसतगी का भरम रखना ऐ मेरे चेहरे िकसी का सामना हो, तो उतर नही जाना तमाम िदन की तलब राह देखती होगी जो ख़ाली हाथ चले हो, तो घर नही जाना ये सर अज़ीम है, झुकने कही न पाये 'वसीम' ज़रा-सी जीने की ख़वािहश पे मर नही जाना

71

बदगुम ानी का सदक़ा उतारा गया बदगुमानी का सदक़ा उतारा गया शह मे िफर कोई आज मारा गया रहम खाने की फुसर त िकसे थी यहां वह जो जीता रहा, वह जो हारा गया खूशबुएं तो क़बीलो मे बटती नही नाम देकर मुझे कयो पुकारा गया मांगते िफर रहे है वो िकरनो की भीख िजनके आं गन मे सूरज उतारा गया उसने मुडकर न देखा, तो िशकवा ही कया मुझसे भी तो उसे कब पुकारा गया िज़नदगी बस मे थी, िज़नदगी हार दी एक तू था, जो मुझसे न हारा गया िज़नदगी के सफर की न पूछो 'वसीम' रात काटी गयी, िदन गुज़ारा गया

72

मलाल भी हो, तो लबआशना नही होता मलाल भी हो, तो लबआशना नही होता जहां िदलो मे कोई फािसला नही होता मेरे चराग अलग हो, तेरे चराग अलग मगर उजाला तो िफर भी जुदा नही होता मै अपनी ताक़ते-इनसाफ खो चुका, वनार तुमहारे हाथ मेरा फैसला नही होता कही भी जाये, मेरी हमसफर-सी लगती है वह राह िजसमे कोई नक़शे-पा नही होता 'वसीम' शोहरते िज़द मे क़ुबूल की, वनार मै उसके होते िकसी और का नही होता

73

आगे इक हद से िकसी को और कया ले जाये ग ा आगे इक हद से िकसी को और कया ले जायेगा मै भी जाऊंगा, जहां तक रासता ले जायेगा उसकी आं खो मे इक आं सू-सा रहू गं ा उम-भर वह जहां जायेगा, मेरा वािक़या ले जायेगा उम-भर िलकखूं िकताबे-िज़नदगी क इक वरक़ और हवा का एक ही झोका उडा ले जायेगा शाम के साथी अजब है, घर पे छोडेगे कहां एक से बच भी गया, तो दस ू रा ले जायेगा दरू तक शोले है, िफर भी िदल ये कहता है 'वसीम' कोई आयेगा, मेरे घर को बचा ले जायेगा

74

मे र ी वफाओं का नशशा उतारने वाला मेरी वफाओं का नशशा उतारने वाला कहां गया, मुझे हंस-हंस के हारने वाला हमारी जान गयी, जाये, देखना यह है कही नज़र मे न आ जाये मारने वाला बस, एक पयार की बाज़ी है, बे-गरज़ बाज़ी न कोई जीतने वाला, न कोई हारने वाला भरे मक़ां का भी अपना नशा है, कया जाने शराबख़ाने मे राते गुज़ारने वाला मै उसका िदन भी ज़माने मे बांटकर रख दं ू वह मेरी रातो को छुपकर गुज़ारने वाला 'वसीम' हम भी िबखरने का हौसला करते हमे भी होता, जो कोई संवारने वाला

75

मै अपने ख़वाब से िबछडा नज़र नही आता मै अपने ख़वाब से िबछडा नज़र नही आता तो इस सदी मे अकेला नज़र नही आता अजब दबाव है इन बाहरी हवाओं का घरो का बोझ भी उठता नज़र नही आता मै तेरी राह से हटने को हट गया, लेिकन मुझे तो कोई रसता नज़र नही आता मै इक सदा पे हमेशा को घर तो छोड आया मगर पुकारने वाला नज़र नही आता धुआं भरा है यहां तो सभी की आं खो मे िकसी को घर मेरा जलता नज़र नही आता गज़लसराई का दावा तो सब करे है 'वसीम' मगर वह 'मीर'-सा लहज़ा नज़र नही आता

76

मै इस उममीद पे डू बा िक तू बचा ले ग ा मै इस उममीद पे डू बा िक तू बचा लेगा अब इसके बाद मेरा इिमतहान कया लेगा ये एक मेला है, वादा िकसी से कया लेगा ढलेगा िदन तो हर इक अपना रासता लेगा मै बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊंगा कोई चराग नही हू ं िक िफर जला लेगा कलेजा चािहये दशु मन से दशु मनी के िलये जो बेअमल है, वह बदला िकसी से कया लेगा मै उसका हो नही सकता बता न देना उसे लकीरे हाथ की अपनी वह सब जला लेगा हज़ार तोड के आ जाऊं उससे िरशता 'वसीम' मै जानता हू ं वह जब चाहेगा बुला लेगा

77

िमली हवाओं मे उडने की वह सज़ा यारो िमली हवाओं मे उडने की वह सज़ा यारो िक मै ज़मीन के िरशतो से कट गया यारो वह बे-ख़याल मुसािफर मै रासता यारो कहां था बस मे मेरे उसको रोकना यारो मेरे क़लम पे ज़माने की गदर ऐसी थी िक अपने बारे मे कुछ भी न िलख सका यारो तमाम शह ही िजसकी तलाश मे गुम था मै उसके घर का पता िकससे पूछता यारो जो बेशम ु ार िदलो की नज़र मे रहता था वह अपने बचचो को इक घर न दे सका यारो जनाबे 'मीर' की खुदगिज़र यो के सदक़े मे िमयां 'वसीम' के कहने को कया बचा यारो

78

अजीब ददर क िरशता िदखाई दे त ा है अजीब ददर क िरशता िदखाई देता है िक हर गम-आशना अपना िदखाई देता है िजसे तेरी तरफ उठने का इक सलीक़ा हो उसी िनगाह पे पहरा िदखाई देता है तुम अपने शह के लोगो से पूछकर देखो मेरी तरह कोई तनहा िदखाई देता है तेरे बगैर मेरी िज़नदगी का हर लमहा मेरे ही ख़ून का पयासा िदखाई देता है ज़रर जीने के आदाब जानता होगा जो मयकदे मे भी पयासा िदखाई देता है 'वसीम' इतने बडे िज़नदगी के मेले मे बस, एक गम है, जो अपना िदखाई देता है

79

मै ने ख़वाबो को अगर ख़वाब ही समझा होता मैने ख़वाबो को अगर ख़वाब ही समझा होता इस भरे शह मे काहे को अकेला होता यह कडी धूप, यह इक उम क बेिसमत सफर कैसे तय होगा, कभी तुमने भी सोचा होता तुमने बेकार ही क़समो मे मुझे बानध िदया मेरे होठो से कहां िज़क तुमहारा होता शम्अ की तरह िकसी बज़म के हो जाते 'वसीम' एक-दो शब ही जो तक़दीर मे जलना होता

80

मै सोचता हू ं कही साथ छू ट जाये ग ा मै सोचता हू ं कही साथ छूट जायेगा ये तेरा गम भी कहां तक मुझे िनभायेगा कली की तरह िखलो, िखलते ही िबखर जाओ ये शतर है, तो भला कौन मुसकुरायेगा शराबख़ाने के बाहर का हाल मत पूछो तुमहारे हाथ से पैमाना छूट जायेगा हमारे शे'रो मे इक दौर सांस लेता है 'वसीम' कैसे ज़माना हमे भुलायेगा

81

हाल द ख ु दे ग ा, तो माज़ी पे नज़र आये ग ी हाल दख ु देगा, तो माज़ी पे नज़र आयेगी िज़नदगी हादसा बन-बन के गुज़र जायेगी तुम िकसी राह से आवाज़ न देना मुझको िज़नदगी इतने सहारे पे ठहर जायेगी तेरे चेहरे की उदासी पे है दिु नया की नज़र मेरे हालात पे अब िकसकी नज़र जायेगी तुम जो यह मशवरा-ए-तकेवफा देते हो उम इक रात नही है, जो गुज़र जायेगी उनकी यादो का तसलसुल जो कही टू ट गया िज़नदगी तू मेरी नज़रो से उतर जायेगी इसी उममीद पे कब से चले आता हू ं 'वसीम' उसकी जािनब भी कोई राहगुज़र जायेगी

82

खोिलये चल के गमे -िदल की द क ु ां और कही खोिलये चल के गमे-िदल की दक ु ां और कही मांद पड जाये न ज़ख़मो के िनशां और कही बादे-कमज़फर ने गुलशन मे ठहरने न िदया ढू ंढना ही पडा ख़ुशबू को मकां और कही साथ इस शह के सिदयो की तानासानी है दसे-तहीक दे ऐ कारे-जहां और कही वादी-ए-संग मे िफर जशन की तैयारी है कया कोई बन गया शीशे का मकां और कही िजसमो-एहसास तो बसते रहे इस बसती मे और कहते हो मै खोलूं तो ज़बां और कही बनद कमरो मे जलाते रहे लफ़ज़ो के चराग बात ले जाये न मानी का धुआं और कही क़ैस-ओ-फरहाद तो िमलते रहे दिु नया मे 'वसीम' पयार को िमल न सका शाहजहां और कही

83

दआ ु करो िक कोई पयार नज़रे-जाम न हो दआ ु करो िक कोई पयार नज़रे-जाम न हो वह िज़नदगी ही नही है, जो नातमाम न हो जो मुझमे-तुझमे चला आ रहा है सिदयो से कही हयात इसी फािसले का नाम न हो कोई चराग, न आं सू, न आज़ूर-ए-सहर ख़ुदा करे िक िकसी घर मे ऐसी शाम न हो अजीब शतर लगायी है एहितयातो ने िक तेरा िज़क करं और तेरा नाम न हो सबा िमज़ाज की तेज़ी भी‌ एक नेमत है अगर चराग बुझाना ही एक काम न हो 'वसीम' िकतनी ही सुबहे लहू -लहू गुज़री इक ऐसी सुबह भी आये िक िजसकी शाम न हो

84

ते र ी आज़ूर बहु त है , ते र ा इिनतज़ार कम है तेरी आज़ूर बहु त है, तेरा इिनतज़ार कम है ये वह हादसा है िजस पर मेरा इिख़तयार कम है ये हवािदसे-ज़माना बडी दरू ले गये है मुझे अपनी िज़नदगी से ये नही िक पयार कम है मै गुनाहगार भी हू ं, मै गुनाहगर भी, लेिकन मुझे कोई ऐसा टोके, जो गुनाहगार कम है मै 'वसीम' शेर कहने के िलए तरस रहा हू ं कई िदन से आं ख मेरी इधर अशकबार कम है

85

यही बज़मे -ऐश होगी, यही दौरे-जाम होगा यही बज़मे-ऐश होगी, यही दौरे-जाम होगा मगर आज का तसववुर यहां कल हराम होगा मै कुछ इस तरह िजया हू ं िक यक़ीन हो गया है मेरे बाद िज़नदगी का बडा एहितराम होगा मेरी ज़ीसत इक जनाज़ा है जो राहे-वक़त मे है जो थकेगे िदन के कांधे तो सुपुदे-शाम होगा यही हादसाते-गम है, तो यह डर है जीने वालो कोई िदन मे िज़नदगी का कोई और नाम होगा

86

ठोकरो से कयो सुकू ने -िदल नही ठोकरो से कयो सुकूने-िदल नही िज़नदगी इक राह है, मंिज़ल नही और तदबीरे मेरी नाकाम कर मै अभी तक़दीर का क़ायल नही छोड दो तुम भी मुझे सबकी तरह रासतो मेरी कोई मंिज़ल नही आं सुओं पर इस तरह हंसते है लोग जैसे गम का कोई मुसतिक़बल नही अपने माज़ी को न दोहराओ 'वसीम' सबके सीने मे तुमहारा िदल नही

87

राहे वफा के फािसले कु छ मोतबर न थे राहे वफा के फािसले कुछ मोतबर न थे अचछा हु आ िक आप मेरे हमसफर न थे हम गमनसीब लोगो के यह हमसफर न थे इक तंज़ थे हयात पे शामो-सहर न थे ऐ दौरे-नौ हमारा मुक़दर वही रहा कया हम शरीके-गिदर शे-शामो-सहर न थे इस तरह पायमाल न करना थी िज़नदगी हम तेरे राहे-रौ थे तेरी रहगुज़र न थे सािज़श मेरे िख़लाफ हु ई है कोई 'वसीम' साक़ी की उं गिलयो के िनशां जाम पर न थे

88

मुस कु राता हू ं िदले -नाकाम से मुसकुराता हू ं िदले-नाकाम से पी रहा हू ं मय िशकसता जाम से आज भी इस िज़नदगी की लाश मे जान पड जाती है तेरे नाम से शाम की लज़ज़त से बेगाने रहे सुबह का गम करने वाले शाम से सोचता हू ं आज की यह बिसतयां कल पुकारी जायेगी िकस नाम से लमहा-लमहा कट रही है िज़नदगी क़तरा-क़तरा बह रहा है जाम से इक तसलसुल ख़तम हो जाता 'वसीम' मौत आ जाती अगर आराम से

89

वह बहु त ज़ािहर सही, िफर भी छु पा रह जाये ग ा वह बहु त ज़ािहर सही, िफर भी छुपा रह जायेगा मेरी आं खो के िलए इक मसअला रह जायेगा तेरे रसते, मेरी समते मेरा कया रह जायेगा इक मुसािफर का रहा, तो तिज़करा रह जायेगा िज़नदगी मे और तो रहने को कया रह जायेगा उसको जाते देखने का हौसला रह जायेगा एक तहज़ीबी-तसलसुल से है सारी िज़नदगी पेड से पता अलग होगा तो कया रह जायेगा आजकल के रासतो की बे-यक़ीनी देखकर कौन है, िजसमे सफर का हौसला रह जायेगा

90

िशकवा ही कया, कही यह नसीबे -हु नर न हो िशकवा ही कया, कही यह नसीबे-हु नर न हो घर हो तो बेिदया हो, िदया हो तो घर न हो कब से भटक रहा हू ं मेरे पा-ए-िफक को वह राह दे िक िजसमे कोई हमसफर न हो इस दौरे-तंग-िदल मे तरक़क़ी के नाम पर वह घर िमले िक िजसमे हवा का गुज़र न हो या तेज़ आं िधयो पे मुझे इिख़तयार दे या वह चराग दे, िजसे बुझने का डर न हो शोहरत से बेिनयाज़ है फनकार यूं 'वसीम' ख़ुशबू की जैसे फूल को अपनी ख़बर न हो

91

हवे ि लयो मे मे र ी तरिबयत नही होती हवेिलयो मे मेरी तरिबयत नही होती तो आज सर पे टपकने को छत नही होती हमारे घर का पता पूछने से कया हािसल उदािसयो की कोई शिहयत नही होती चराग घर का हो, महिफल का हो िक मिनदर का हवा के पास कोई मसलहत नही होती हमे जो ख़ुद से िसमटने का फन नही आता तो आज ऐसी तेरी सलतनत नही होती 'वसीम' शह मे सचचाइयो के लब होते तो आज ख़बरो मे सब ख़ैिरयत नही होती

92

पयार को इक पहे ल ी बनाने लगे पयार को इक पहेली बनाने लगे तुम तो आं खो से आं सू छुपाने लगे हम भी कया थे िक इक दोसती कया गयी राह चलतो को दशु मन बनाने लगे दम िदयो मे न देखा, तो ऐसे भी‌ थे आं िधयो से तअलुक़ बढाने लगे सच की चुप मसलेहत की ज़बां कया हु ई क़ते खुद को समनदर बताने लगे उम बचचो-सी िज़द कर रही है 'वसीम' कोई आये, कहानी सुनाने लगे

93

हादसो की ज़द पे है , तो मुस कु राना छोड दे हादसो की ज़द पे है, तो मुसकुराना छोड दे ज़लज़लो के ख़ौफ से कया घर बनाना छोड दे तुमने मेरे घर न आने की क़सम खायी तो है आं सुओं से भी कहो, आं खो मे आना छोड दे पयार के दशु मन, कभी तू पयार से कह के तो देख एक तेरा दर ही कया, हम तो ज़माना छोड दे घोसले वीरान है, अब वो पिरनदे ही कहां इक बसेरे के िलए जो आबोदाना छोड दे

94

न सहर-तलब अं धे र ा, न गम-आशना िदया है न सहर-तलब अंधेरा, न गम-आशना िदया है मेरी िख़लवतो से पूछो, मुझे तुमने कया िदया है मेरी बिसतयां न देखो, यहां वो मकान भी‌ है िजनहे खुद िनगाहबानो ने खणडहर बना िदया है वो मुक़ाम-ए-जुसतजू भी‌ मेरी िज़नदगी ने देखा जहां तेरी क़ुबर तो ने मुझे फािसला िदया है यह िशकसत-ए-िज़नदगी तो मै क़बुल कर लू,ं लेिकन यह ख़याल है िक तुमने मुझे आसरा िदया है न बुढाओ बदगुमानी िक 'वसीम' आज उसने कोई मसलहत ही होगी, जो तुमहे भुला िदया है

95

दीवार समझती है िक दर कर न सकूं गा दीवार समझती है िक दर कर न सकूंगा िहममत है, तो कया मािरका सर कर न सकूंगा लेना है मुझे साथ तो मेरा भी भरम रख मै तेरे इरादो से सफर कर न सकूंगा अब के वो दबे-पांव चली आती है आं धी लगता है चरागो को ख़बर कर न सकूंगा मेर-े तेरे िरशते मे दरारे है कुछ ऐसी चाहू ं भी, तो िदल मे तेरे घर कर न सकंू गा

96

रंग बे रंग हो, ख़ुश बू का भरोसा जाये रंग बेरगं हो, ख़ुशबू का भरोसा जाये मेरी आं खो से जो दिु नया तुझे देखा जाये हमने िजस राह को छोडा, िफर उसे छोड िदया अब न जायेगे उधर, चाहे ज़माना जाये मैने मुदत से कोई ख़वाब नही देखा है हाथ रख दे मेरी आं खो पे िक नीद आ जाये मै गुनाहो का तरफगार नही हू ं, िफर भी रात को िदन की िनगाहो से न देखा जाये कुछ बडी सोचो मे ये सोचे भी शािमल है 'वसीम' िकस बहाने से कोई शह जलाया जाये

97

मै बुझ ा, मे र ा घर जगमगाता रहा मै बुझा, मेरा घर जगमगाता रहा कुछ लगा भी तो हो, कुछ भी जाता रहा िज़नदगी ने कुछ ऐसे िलये इिमतहां मौत का ख़ौफ था, वो भी जाता रहा मानने को यहां कौन तैयार था लाख मै अपने-अपने िरशते बताता रहा अब तो समझौता करते बनेगी 'वसीम' आपके हाथ से वक़त जाता रहा

98

जब अपनी सांस ही दरपरदा हम पे वार करे जब अपनी सांस ही दरपरदा हम पे वार करे तो िफर जहां मे‌ कोई िकस पे एतबार करे वफा की राह मे िकतने ही मोड आयेगे बता! ये उम कहां तेरा इिनतज़ार करे हरएक अपने िलए मेरे ज़ख़म िगनता है मेरे िलए भी कोई हो, जो मुझसे पयार करे बहु त िदनो मै ज़माने की ठोकरो मे रहा कहो ज़माने से, अब मेरा इिनतज़ार करे सब अपनी पयास मे गुम है, यहां तो ऐ साक़ी कोई‌ नही, जो तेरे मैक़दे से पयार करे

99

मै यह नही कहता िक मे र ा सर न िमले ग ा मै यह नही कहता िक मेरा सर न िमलेगा लेिकन मेरी आं खो मे तुझे डर न िमलेगा सर पर तो िबठाने को है तैयार ज़माना लेिकन तेरे रहने को यहां घर न िमलेगा जाती है, चली जाये ये मैख़ाने की रौनक़ कमज़फो ं के हाथो मे तो सागर न िमलेगा दिु नया की‌ तलब है, तो क़नाअत ही न करना क़तरे ही से खुश हो तो समनदर न िमलेगा

100

हम सुब ह हो के शाम का साया बने रहे हम सुबह हो के शाम का साया बने रहे कया होना चािहए था, मगर कया बने रहे कांटे का ज़ख़म, फूल की सहबा बने रहे कया जाने तुम मेरे िलए कया-कया बने रहे राहे हमारी िकतनी अलग थी, न जाने कयो तुम िफर भी िज़नदगी का सहारा बने रहे एक आते, एक जाते ज़माने के दरिमयां हम थे, जो एतबार का िरशता बने रहे इस दौर-ए-नाशनास-ए-हक़ीक़त मे ऐ 'वसीम' िकतने गुलाब लाला-ए-सहरा बने रहे

101

अपने हर-हर लफ़ज़ का खु द आईना हो जाऊं गा अपने हर-हर लफ़ज़ का खुद आईना हो जाऊंगा उसको छोटा कह के मै कैसे बडा हो जाऊंगा तुम िगराने मे लगे थे, तुम समझते ही नही मै िगरा तो मसअला बनकर खडा हो जाऊंगा मुझको चलने दो, अकेला है अभी मेरा सफर रासता रोका गया, तो क़ािफला हो जाऊंगा सारी दिु नया की नज़र मे है मेरा अहदे-वफा इक तेरे कहने से कया मै बेवफा हो जाऊंगा

102

वफा के हु सन को शरिमनद-ए-फु गां न बना वफा के हु सन को शरिमनद-ए-फुगां न बना जो शम्अ बन के िजये है उसे धुआं न बना िशकसत-ए-इशक़ बहरगाम िज़नदगी के िलए जो हो सके तो मुझे एक इिमतहां न बना अंधेरा िदल मे िबठाता रहा उजालो को मगर उजाला अंधेरे का पासबां न बना मेरी वफा तो भटकती िफरी ज़माने मे मगर मुसािफर-ए-तनहा से कारवां न बना तरस रही है इक आं सू को आज ये आं खे 'वसीम' गम भी‌ बहु त रोज़ हमज़बां न बना

103

तुम अपने शह की क़ीमत कहां‌ िगराओगे तुम अपने शह की क़ीमत कहां‌ िगराओगे िमटाना चाहोगे, मुझको िमटा न पाओगे जले मक़ानो की िचनगािरयो को िमलने दो तुम अपनी ऊंची इमारत बचा न पाओगे बस, एक बार समझ लो, यही गनीमत है मै‌ वो नही िक िजसे रोज़ आज़माओगे बस, एक-दो ही तअलुक़ बहु त है जीने को बहु त-से िरशते बनाये, तो टू ट जाओगे

104

हमारे ज़फर का ये इिमतहान कम न हु आ हमारे ज़फर का ये इिमतहान कम न हु आ ख़ुशी के दौर मे रसवा तुमहारा गम न हु आ िशकसते खाता रहा और मुसकुराता रहा मै वो उजाला हू ,ं जो तीरगी से कम न हु आ शराबघर मे भी साक़ी से ले के सागर तक शरीके-मय तो थे, कोई शरीके-गम न हु आ तरह-तरह तेरे बारे मे सोचकर देखा मगर िकसी भी तरह एतबार कम न हु आ तमाम िखडिकयां दरवाज़े खोल डाले, मगर घुटा हु आ था जो घर मे धुआं, वो कम न हु आ

105

तमाम उम न जुड ने का गम उठाते है तमाम उम न जुडने का गम उठाते है वो ऐतबार के िरशते, जो टू ट जाते है तुम अपने चेहरे का हम से िहसाब ले लेना ये आइने तो कोई िदन मे टू ट जाते है जो एक पयास को पानी न दे सका, िफर भी उसी को लोग समनदर बताये जाते है 'वसीम' रशक से देखूं न कयो पिरनदो को ये शाम होते घरो तो तो लौट आते है

106

ये िसतम का दौर तो है , मगर ये नही िक इससे मफर नही ये िसतम का दौर तो है, मगर ये नही िक इससे मफर नही कोई ऐसी शाम बताइये, जो कहे िक मेरी सहर नही अगर इिख़तयार की लज़ज़ते है बहु त अज़ीज़ तो अहदेगम वो दआ ु भी होठो से छीन ले, जो गुनाहगार-ए-असर नही मै न जाने कब से हू ं िफक मे, रहे-िज़नदगी तुझे तय करं मगर आज तक मेरे अज़म का, तेरे फािसलो पे असर नही वही रसम-ए-राज़-ओ-िनयाज़ है, मगर आज शते-वफा िलये तुझे आज़माइश-ए-सर नही, मुझे आज़माइश-ए-दर नही मै‌ गज़ल की बज़म मे इसिलए भी इक अजनबी हू ं िक ऐ 'वसीम' मेरे पास ज़ुलफो की‌ शब नही, मेरे पास रख़ की सहर नही

107

मे रे िदल की गम-पसनदी तो ज़रर कम न होगी मेरे िदल की गम-पसनदी तो ज़रर कम न होगी मगर उनकी आज़ूर है, तो अब आं ख नम न होगी मेरी आं ख से कुछ आं सू जो बहे, तो गम न कीजे यह शराब अपने सागर से छलक के कम न होगी मेरी मौत पे कुछ ऐसे ये चराग गुल हु ए है मेरे बाद जैसे दिु नया मे ये शामे-गम न होगी िकसी मयकदे मे‌ जाऊं िक हरम मे शब गुज़ारं मगर ऐसी तशनगी है, जो 'वसीम' कम न होगी

108

मे र ी हयात! िशकसतो पे सोगवार न हो मेरी हयात! िशकसतो पे सोगवार न हो कही ये रसम-ए-िसतम ही तेरा िसंगार न हो इक आज़ूर की तबाही के िज़ममेदार न हो गुनाह से रोकने वालो! गुनाहगार न हो कली की तरह अजल-दोसतो की बसती मे वो मुसकुराये िजसे िज़नदगी से पयार न हो ये बार-बार तेरे िसमत ज़ह का जाना तुझे भी आज कही मेरा इिनतज़ार न हो 'वसीम' जीना वही तक बहु त गनीमत है िक ये हयात जहां तक िकसी पे बार न हो

109

कै से कहू ं िक वो मे र ा गमख़वार ही न था कैसे कहू ं िक वो मेरा गमख़वार ही न था जो मेरा साथ देने को तैयार ही न था बस, उथले पािनयो मे गुज़रनी थी िज़नदगी मै डू बता कहां, कोई मझधार ही न था कल रात अपना जाइज़ा लेकर पता चला मुझसे बडा तो कोई गुनाहगार ही न था तुझसे जुदा हु आ हू ं तो इक भीड हो गया अब तो मेरी नज़र पे कोई बार ही न था

110

जो तू नही, तो ते रे ख़वाब दे ख ना कया है जो तू नही, तो तेरे ख़वाब देखना कया है अधूरे शह मे रहने से फायदा कया है मुसीबतो मे उभरती है शिख़सयत यारो जो पतथरो से न उलझे, वो आईना कया है वो अपने चेहरे का िलकखा भी पढ नही सकता हर इक से पूछ रहा है, मेरा पता कया है ये रौशनी के इरादो की बात थी, वनार हवा के सामने नऩहा-सा इक िदया कया है हवा की‌ तेज़ी दरीचे मे बनद कर लेना बस, और इसके िसवा जज़ब-ए-वफा कया है

111

ख़ुश क आं खे है , पलक भी नम नही ख़ुशक आं खे है, पलक भी नम नही अब कोई आं सू शरीके-गम नही िजसको लोग आपस मे िमलकर बांट ले िज़नदगी ऐसा भी तेरा गम नही रोने वालो! मुसकुराना सीख ले हो सके, तो फूल बन, शबनम नही लाश है अपने तबससुम की 'वसीम' फूल की आगोश मे शबनम नही

112

बस, इिनतज़ार था, एहसासे -इिनतज़ार न था बस, इिनतज़ार था, एहसासे-इिनतज़ार न था वो िदन भी‌ कया थे िक जब ख़ुद पे इिख़तयार न था िकसी भी चशमे-करम का उममीदवार न था मै तशनालब था, मगर मयकदे पे बार न था िकस आसरे पे तेरे गम से अहद कर लेता हयात भी वो िमली, िजसका एतबार न था अजीब लोग थे, क़बो पे जान देते थे सडक की लाश का कोई भी दावेदार न था 'वसीम' धूप से बचने भी हम कहां आये इक ऐसे पेड के नीचे, जो सायादार न था

113

ये मे र ा ज़फर भी शायद िकसी नज़र मे ‌ रहे ये मेरा ज़फर भी शायद िकसी नज़र मे‌ रहे िक सारे ख़वाब िबखरकर भी चशमे-तर मे‌ रहे न मेरा गम कोई समझा, न मैने समझाया वो अशक हू ं जो िकसी चशमे-मोतबर मे रहे ये आरज़ू ही तबाही का पेशालफ़ज़ बनी िकसी नज़र मे‌ रहे और कोई नज़र मे‌ रहे 'वसीम' कैसे मेरी मंिज़ले क़रीब आती तमाम उम इरादे मेरे सफर मे‌ रहे

114

न तुझ को खोये हु ए ही रहा, न पाये हु ए न तुझको खोये हु ए ही रहा, न पाये हु ए हयात काट दी इक फािसला बनाये हु ए न संगे-मील, न मंिज़ल, मगर है जाने-सफर वो इक मोड िक अपने जहां पराये हु ए अजीब वक़त पडा है मेरी मुहबबत पर ज़माना गुज़रा िकसी का ख़याल आये हु ए बडा गुमां था िक ये शहे-िज़नदगी है, मगर यहां तो जो भी िमला, अपनी लाश उठाये हु ए 'वसीम' कल इसी महिफल मे सर बुलनद भी थे जहां पे बैठे है हम आज सर झुकाये हु ए

115

िकसी शक के हाथो जै से तुझे मात हो गयी है िकसी शक के हाथो जैसे तुझे मात हो गयी है तेरी ख़ामुशी कहे है, कोई बात हो गयी है मै चला था सूए-मंिज़ल, तो कोई न साथ आया मै भटक गया, तो दिु नया मेरे साथ हो गयी है वही एक िज़नदगी थी, मगर इस तरह से गुज़री कही सुबह बन गयी है, कही रात हो गयी है कभी ऐ 'वसीम' दिु नया मे‌ कुछ इस तरह लगे है कही घर से दरू जैसे मुझे रात हो गयी है

116

आज उन राहो मे ले क र ते र ा गम जाये है आज उन राहो मे लेकर तेरा गम जाये है गमगुसारी को जहां फािसला थम जाये है जब सह जाऊं, तो जीने की अदा मुजिरम हो मुसकुराऊं, तो तेरे गम का भरम जाये है कौन जाने, िकसी राही की यही मंिज़ल हो पांव उठता है, तो इक नक़शे-क़दम जाये है लाख ख़ुिशयो की ज़मानत िदये जाये उममीद िफर भी िदल से कही अनदेशा-ए-गम जाये है आज हालात इक ऐसी जगह ले जाये 'वसीम' अपने बारे मे जहां सोचा भी कम जाये है

117

वो मे रे बालो मे यूं उं ग िलयां िफराता था वो मेरे बालो मे यूं उं गिलयां िफराता था िक आसमां के फिरशतो को पयार आता था उसे गुलाब की पती ने क़तल कर डाला वो सब की राहो मे कांटे बहु त िबछाता था तुमहारे साथ िनगाहो का कारोबार गया तुमहारे बाद िनगाहो मे कौन आता था सफर के साथ सफर के नये मसाइल थे घरो का िज़क तो रसते मे छूट जाता था

118

मय तो मे रे लहू की‌ पयासी है मय तो मेरे लहू की‌ पयासी है तेरे चेहरे पे कयो उदासी है इन िदनो तुम जो रठे -रठे हो िज़नदगी भी ख़फा-ख़फा-सी है और कुछ देर मुसकुराते है िफर वही हम, वही उदासी है तेरे गम से कनाराकश होकर िदल है उअर िदल की बेिलबासी है तिलख़यां उम बन गयी है 'वसीम' िज़नदगी कोई बदआ ु -सी है

119

तमाम उम बडे सख़त इिमतहान मे था तमाम उम बडे सख़त इिमतहान मे था वो फािसला जो तेर-े मेरे दरिमयान मे था परो मे िसमटा, तो ठोकर मे‌ था ज़माने की उडा, तो एक ज़माना मेरी उडान मे था उसी पे हो गया क़ुबारन दो िदलो का िमलाप वो जायदाद का झगडा, जो ख़ानदान मे था तुझे गंवा के कई बार ये ख़याल आया तेरी अना ही मे कुछ था, न मेरी आन मे था

120

मुझे पूछ ने का हक़ दे िक ये एहितमाम कयो है मुझे पूछने का हक़ दे िक ये एहितमाम कयो है मेरे साथ पयास कयो है, तेरे पास जाम कयो है िजसे मेरी तीर-बख़ती से फरोग िमल रहा हो वही सुबह पूछती है, मेरे घर मे शाम कयो है तेरी बेिनयािज़यो को कभी सोचना पडेगा जहां तेरी गुफ़तगू है, वहां मेरा नाम कयो है यहां रौशनी का लाना, अगर इक गुनह से कम हो तो ये सुबह के मसीहा पे सलीबे-शाम कयो है मै 'वसीम' वक़त से भी अभी मुतमइन नही हू ं मुझे इससे ये िगला है िक ये सुसतगाम कयो है

121

न कोई शरीक चाहे , न ये गमगुस ार मांगे न कोई शरीक चाहे, न ये गमगुसार मांगे मेरी शाम की ख़मोशी बस इक इिनतज़ार मांगे मै गुलाब तो नही हू ं, मगर ऐ चमननसीबो! मेरा िदल भी फूल-जैसे ही कुछ इिख़तयार मांगे तेरे बेज़रर फिरशतो से भरी पडी है दिु नया मगर इस जहां की रौनक़ तो गुनहगार मांगे कही बेज़बान ख़शबू को न ले उडे हवाएं तेरे िजसम का ये मौसम कोई पहरेदार मांगे

122

शबे -मयख़ाना भी‌ जब तुझ पे गरां गुज़ रेग ी शबे-मयख़ाना भी‌ जब तुझ पे गरां गुज़रेगी िज़नदगी तू ही बता दे िक कहां गुज़रेगी तूने इक बज़म को रौशन तो िकया है, लेिकन उमे-शम्अ तेरी बन के धुआं गुज़रेगी िज़नदगी तेरे िलए मैने बहु त कुछ खोया ये न समझा था िक बेनाम-ओ-िनशां गुज़रेगी आज पी लेने दे, साक़ी, मुझे जी लेने दे कल मेरी‌ रात ख़ुदा जाने कहां गुज़रेगी उन से कह दो मुझे ख़ामोश ही रहने दे 'वसीम' लब पे आयेगी, तो हर बात गरां गुज़रेगी

123

न सोचकर कभी अं ज ाने -गुम रही मै ने न सोचकर कभी अंजाने-गुमरही मैने इस एक उम मे तेरी तलाश की मैने ख़ुशी की धूप मे तलख़ी थी, इसीिलए ऐ दोसत हयात साया-ए-गम मे गुज़ार दी मैने तमाम रात, तेरी आं ख का ख़याल बख़ैर लबो से जाम लगाकर गुज़ार दी मैने मेरी उदास िनगाही 'वसीम' काफी थी सबूते-गम के िलए आं ख तर न की मैने

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िकसी ऐसी आज़ूर मे जो कही-सुन ी न जाये िकसी ऐसी आज़ूर मे जो कही-सुनी न जाये वहां उम काट आये, जहां सांस ली न जाये मै तमाम ही तो ख़वाबो का लहू िपला चुका हू ं मगर ऐ गमे-ज़माना तेरी तशनगी न जाये जो हयात ले के आयी, वो तेरे लबो को पहु च ं ी मेरे लब पे तो वो आयी, जो हंसी हंसी न जाये वो नशा ही कया, जो तेरे िकसी गम की राह रोके वो शराब कया, जो मेरे ही लहू को पी न जाये न हो आस का सहारा, तो 'वसीम' िज़नदगी है वो सदा जो दी न जाये, वो दआ ु जो की न जाये

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ते र ी बज़म तक तो आऊं , जो ये आना रास आये तेरी बज़म तक तो आऊं, जो ये आना रास आये ये सुना है, जो गये है, वो बहु त उदास आये वो िदल आप िमट रहेगे, तेरा गम उठा न िजनसे वो चराग कया जलेगे, िजऩहे शब न रास आये मै शराब पी रहा हू ं, मेरे पास कैसी फुसर त िकसी और वक़त गम से कहो, मेरे पास आये कभी ऐ 'वसीम' पहु च ं े, जो गमो मे मुसकुराने उठा शोर मयकदे मे िक वो देवदास आये

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न आस टू टी, न आं खो‌ से इिनतज़ार गया न आस टू टी, न आं खो‌ से इिनतज़ार गया इक एतबार पे मै एक उम हार गया इसी उजालो की बसती मे वो भी रहता था जो एक शब की तरह िज़नदगी गुज़ार गया िकसी गुलाब की ख़ुशबू से हम भी महकेगे इस आस पर ही यहां मौसमे-बहार गया हमारे पयासे लबो पर कुछ उं गिलयां ही उठी मगर तुमहारी तो महिफल का एतबार गया जो छोड आये उसी अंजुमन मे जाओ 'वसीम' वही क़रार िमलेगा, जहां क़रार गया

127

िमटे वो िदल, जो ते रे गम को ले के चल न सके िमटे वो िदल, जो तेरे गम को ले के चल न सके वही चराग बुझाये गये, जो जल न सके हम इसिलए नयी दिु नया के साथ चल न सके िक जैसे रंग यह बदली है, हम बदल न सके मै उन िचरागो की उमे-वफा को रोता हू ं जो एक शब भी मेरे िदल के साथ जल न सके मै वो मुसािफरे-गमगी हू ं, िजसके साथ 'वसीम' िखज़ां के दौर भी कुछ दरू चल के चल न सके

128

िकसको बताये ग ा यहां, शाम है ये सहर नही िकसको बतायेगा यहां, शाम है ये सहर नही जब तेरे इिख़तयार मे तेरा ख़ुद अपना घर नही चलती हु ई हवा के इक झोके की हमसफर बने मेरे िदयो की रौशनी इतनी भी कमनज़र नही कैसे हु आ, कहां हु आ, पयार अजीब चीज़ था उसको भी कुछ पता नही, मुझको भी कुछ ख़बर नही आं ख मे आं ख डालकर बात तो करके देखता इतना भी एतमाद उसे अपनी िनगाह पर नही

129

सांस का मतलब जान नही है सांस का मतलब जान नही है जीना कोई आसान नही है पयार की बाज़ी हार गये, तो हार के भी नुक़सान नही है ज़ो मे वह जंग है जारी िजसका कोई ऐलान नही है गांव के मेले-पनघट देखो शहर मे िहनदसु तान नही है आज की दिु नया उसको जाने िजसकी कोई पहचान नही है

130

िज़नदगी है और िदले -नादान है िज़नदगी है और िदले-नादान है कया सफर है और कया सामान है मेरे गम को भी समझकर देखते मुसकुरा देना बहु त आसान है मैने हंस-हंसकर गुज़ारा है तुझे िज़नदगी तुझ पर मेरा एहसान है मौत को यूं याद करते हो 'वसीम' जैसे मर जाना बहु ता आसान है

131

समनदर िदल मे है , इज़हार के पयासे -से लगते है समनदर िदल मे है, इज़हार के पयासे-से लगते है सदाओं के ज़माने मे जो सनाटे से लगते है अजब एहसास है गदे-गुनाह छूकर गुज़र जाये तो अपने आपको हम देर तक मैले-से लगते है न मेरी आं ख मे आं सू, न तू चेहरे से बेचेहरा िमले है मुदतो मे हम, तो समझौते-से लगते है

132

िदयो का क़द घटाने के िलए राते बडी करना िदयो का क़द घटाने के िलए राते बडी करना बडे शहो मे रहना हो तो िफर बाते बडी करना मुहबबत के घरो के कचचेपन को ये कहां‌ समझे इन आं खो को तो बस आता है बरसाते बडी करना मुहबबत मे िबछडने का हु नर सबको नही‌ आता िकसी को छोडना हो, तो मुलाक़ाते बडी करना

133

सोचते ही रहे , साथ छू टे हु ए सोचते ही रहे, साथ छूटे हु ए कैसे िमल जाते है‌ लोग िबछडे हु ए एक आं धी का िक़ससा सुनाते रहे फूल िबखरे हु ए, पेड टू टे हु ए वक़त की गदर मे वक़त ही रह गया लोग बाते हु ए, लोग िक़ससे हु ए

134

बे स मती का मौसम सारा, मं ज़ र पयासा-पयासा था बेसमती का मौसम सारा, मंज़र पयासा-पयासा था मैने ही आवाज़ तुझे दी, तू तो इक सनाटा था हम दोनो इक पयास के मारे ख़ाली-ख़ाली बैठे थे और हमारी रग-रग मे इक पागल दिरया बहता था वो तो कचचे बेरो की इक गठरी लेकर िनकली थी उसको कया मालूम िक इस बाज़ार मे कया-कया िबकता था

135

तख़ातुब मे जो मे रे नाम का एलान हो जाये तख़ातुब मे जो मेरे नाम का एलान हो जाये तुमहारा कया िबगडता है, मेरी पहचान हो जाये िकसी से कोई भी उममीद रखना छोडकर देखो तो ये िरशते िनभाना िकस क़दर आसान हो जाये दबाये जाने से इक मौज बेवक़अत नही होती यही ख़तरा लगा रहता है, कब तूफान हो जाये

136

रोज़ सडको पे लहू यूं जो िबखर जाये ग ा रोज़ सडको पे लहू यूं जो िबखर जायेगा राहगीरो की तरह कौन गुज़र जायेगा ये तो सैलाब है, ढू ंढेगा नशेबो की‌ ज़मी मेरे घर आने से पहले तेरे घर जायेगा मैने चाहा है तुझे आम-से इंसां की तरह तू मेरा ख़वाब नही है, जो िबखर जायेगा

137

द रू ी हु ई , तो उनसे क़रीब और हम हु ए दरू ी हु ई, तो उनसे क़रीब और हम हु ए ये कैसे फािसले थे, जो बढने से कम हु ए शायद गमे-ज़माना तेरी जीत हो गयी मुदत हु ई इन आं खो को बेवजह नम हु ए आं सू सुपद ु े-ज़बत सुपद ु े-क़लम हु ए तब जा के ऐ 'वसीम' ज़माने के हम हु ए

138

ते रे साथ रहने पे बस नही, तुझे भूल ना भी मुह ाल है तेरे साथ रहने पे बस नही, तुझे भूलना भी मुहाल है मै‌ कहां गुज़ारं ये िज़नदगी, मेरे सामने ये सवाल है िदले-तशना-तशना ये भूल जा िक यह पा िलया, वो गंवा िदया यह हयात िसफर सवाल है, ये ज़माना िसफर ख़याल है िदले-शीश-ए-िसतम-आशना! तू िशकसत खा के िबखर गया हो नज़र मे आने पे नाज़ भी, जहां टू टने का मलाल है

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ये कौन है , जो ऐसे मुझे खोल रहा है ये कौन है, जो ऐसे मुझे खोल रहा है मुझ मे है, मगर मुझसे अलग बोल रहा है रख देता है ला-ला के मुक़ािबल नये सुरज वो मेरे िचरागो से कहां बोल रहा है मेयारे-ज़माना तो कभी कुछ है, कभी कुछ तू कैसी तराज़ू मे, मुझे तोल रहा है __________________________________________________________________________

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