Shrimad Bhagwad Geeta-In Hindi
February 6, 2017 | Author: Rajesh Kumar Duggal | Category: N/A
Short Description
It is Shrimad Bhagwad Geeta. Here you find Sanskrit Shlokas along with their meaning in Hindi. It also contains Mahatamy...
Description
(अनुकम)
शीमद भग वदगीता माहातमय
- शो क -
अनु वाद (अनुकम)
पूजय बाप ू क ा प ावन सनद ेश
हम धनवान होगे या नहीं, यशसवी होगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नहीं इसमे शंका हो सकती है परनतु भैया ! हम मरे गे या नहीं इसमे कोई शंका है ? िवमान उडने का समय िनिित
होता है , बस चलने का समय िनिित होता है , गाडी छूटने का समय िनिित होता है परनतु इस जीवन की गाडी के छूटने का कोई िनिित समय है ?
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है , जो कुछ पाप िकया है .... आज के बाद जो
जानोगे और पाप करोगे, पयारे भैया ! वह सब मतृयु के एक ही झटके मे छूट जायेगा, जाना अनजाना हो जायेगा, पािप अपािप मे बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अनतमुख ु होकर अपने अिवचल आतमा को, िनजसवरप के
अगाध आननद को, शाशत शांित को पाप कर लो। ििर तो आप ही अिवनाशी आतमा हो।
जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हुए िनियबल को जगाओ। सवद ु े श, सवक ु ाल मे सवोतम
आतमबल को अिजत ु करो। आतमा मे अथाह सामथयु है । अपने को दीन-हीन मान बैठे तो िवश मे ऐसी कोई सता नहीं जो तुमहे ऊपर उठा सके। अपने आतमसवरप मे पितिित हो गये तो ििलोकी मे ऐसी कोई हसती नहीं जो तुमहे दबा सके।
सदा समरण रहे िक इधर-उधर विृतयो के साथ तुमहारी शिि भी िबखरती रहती है । अतः
विृतयो को बहकाओ नहीं। तमाम विृतयो को एकिित करके साधना-काल मे आतमिचनतन मे
लगाओ और वयवहार काल मे जो कायु करते हो उसमे लगाओ। दतिचत होकर हर कोई कायु
करो। सदा शानत विृत धारण करने का अभयास करो। िवचारवनत और पसनन रहो। जीवमाि को अपना सवरप समझो। सबसे सनेह रखो। िदल को वयापक रखो। आतमिनिा मे जगे हुए
महापुरषो के सतसंग तथा सतसािहतय से जीवन की भिि और वेदानत से पुष तथा पुलिकत करो।
(अनुकम)
अनुकम पूजय बापू का पावन संदेश।
शीमदभगवदगीता के जानने योगय िवचार।
शीमदभगवदगीता का माहातमय।
शीगीतामाहातमय का अनुसध ं ान।
गीता मे शीकृ षण भगवान के नामो के अथ।ु
अजुन ु के नामो के अथ।ु
शीमद भगवदगीता। पहले अधयाय का
पहला अधयायःअजुन ु िवषादयोग।
दस ू रे अधयाय का माहातमय।
दस ू रा अधयायः सांखय योग।
चौथे अधयाय का माहातमय।
अधयाय चौथाः जानकमस ु नयासयोग।
पाँचवे अधयाय का माहातमय।
पाँचवाँ अधयायः कमस ु न ं यासयोग।
छठे अधयाय का माहातमय।
छठा अधयायः आतमसंयमयोग।
सातवे अधयाय का माहातमय।
सातवां अधयायः जान िवजानयोग।
आठवे अधयाय का माहातमय।
आठवाँ अधयायः अकर बहयोग।
नौवे अधयाय का माहातमय।
नौवाँ अधयायः राजिवदाराजगुहयोग।
दसवे अधयाय का माहातमय।
दसवाँ अधयायः िवभूितयोग।
गयारहवे अधयाय का माहातमय।
गयारहवाँ अधयायः िवशरपदशन ु योग।
बारहवे अधयाय का माहातमय।
बारहवाँ अधयायः भिियोग।
तेरहवे अधयाय का माहातमय।
तेरहवाँ अधयायः केिकिजिवभागयोग।
चौदहवे अधयाय का माहातमय।
चौदहवाँ अधयायः गुणियिवभागयोग।
पंदहवे अधयाय का माहातमय।
पंदहवाँ अधयायः पुरषोतमयोग।
सोलहवे अधयाय का माहातमय।
सोलहवाँ अधयायः दै वासुरसंपििभागयोग।
सिहवे अधयाय का माहातमय।
सिहवाँ अधयायः शदाियिवभागयोग।
अठारहवे अधयाय का माहातमय।
अठारहवाँ अधयायः मोकसंनयासयोग।
माहातमय।
तीसरे अधयाय का माहातमय।
तीसरा अधयायः कमय ु ोग।
शीमद भगवदग ीता के िवषय
मे जान ने योगय
िवच ार
गीता म े ह दयं पा थु गीता म े सारम ुतमम।्
गीता म े जानमतय ुग ं गीता म े जानमवययम। ् । गीता म े चोतम ं स थान ं गीता म े पर मं पदम।् गीता म े पर मं ग ुह ं गीता म े पर मो गुरः।।
गीता मेरा हदय है । गीता मेरा उतम सार है । गीता मेरा अित उग जान है । गीता मेरा
अिवनाशी जान है । गीता मेरा शि े िनवाससथान है । गीता मेरा परम पद है । गीता मेरा परम रहसय है । गीता मेरा परम गुर है ।
भगवान शी क ृषण
गीता स ुगीता कत ु वया िकम नयैः शासिवसतर ै ः। या सवय ं पदनाभसय
मुखपदािििनः सृ ता।।
जो अपने आप शीिवषणु भगवान के मुखकमल से िनकली हुई है वह गीता अचछी तरह
कणठसथ करना चािहए। अनय शासो के िवसतार से कया लाभ?
मह िष ु वयास
गेय ं गीतानामसह सं धय ेय ं श ीपितरपमज सम।् नेय ं स जजनस ंग े िच तं द ेय ं दीनज नाय च िवतम।।
गाने योगय गीता तो शी गीता का और शी िवषणुसहसनाम का गान है । धरने योगय तो शी िवषणु भगवान का धयान है । िचत तो सजजनो के संग िपरोने योगय है और िवत तो दीनदिुखयो को दे ने योगय है ।
शीमद आद श ंकराचाय ु
गीता मे वेदो के तीनो काणड सपष िकये गये है अतः वह मूितम ु ान वेदरप है और उदारता मे तो वह वेद से भी अिधक है । अगर कोई दस ू रो को गीतागंथ दे ता है तो जानो िक उसने लोगो के िलए मोकसुख का सदावत खोला है । गीतारपी माता से मनुषयरपी बचचे िवयुि होकर भटक रहे है । अतः उनका िमलन कराना यह तो सवु सजजनो का मुखय धमु है ।
संत जान ेशर
'शीमद भगवदगीता' उपिनषदरपी बगीचो मे से चुने हुए आधयाितमक सतयरपी पुषपो से
गुथ ँ ा हुआ पुषपगुचछ है । (अनुकम)
सवामी िवव ेकाननद
इस अदभुत गनथ के 18 छोटे अधयायो मे इतना सारा सतय, इतना सारा जान और इतने सारे उचच, गमभीर और साििवक िवचार भरे हुए है िक वे मनुषय को िनमन-से-िनमन दशा मे से
उठा कर दे वता के सथान पर िबठाने की शिि रखते है । वे पुरष तथा िसयाँ बहुत भागयशाली है
िजनको इस संसार के अनधकार से भरे हुए सँकरे मागो मे पकाश दे ने वाला यह छोटा-सा लेिकन अखूट तेल से भरा हुआ धमप ु दीप पाप हुआ है ।
महामना मा लवीय जी
एक बार मैने अपना अंितम समय नजदीक आया हुआ महसूस िकया तब गीता मेरे िलए
अतयनत आशासनरप बनी थी। मै जब-जब बहुत भारी मुसीबतो से ििर जाता हूँ तब-तब मै
गीता माता के पास दौडकर पहुँच जाता हूँ और गीता माता मे से मुझे समाधान न िमला हो ऐसा कभी नहीं हुआ है ।
महातमा ग ाँधी
जीवन के सवाग ा ीण िवकास के िलए गीता गंथ अदभुत है । िवश की 578 भाषाओं मे गीता का अनुवाद हो चुका है । हर भाषा मे कई िचनतको, िविानो और भिो ने मीमांसाएँ की है और
अभी भी हो रही है , होती रहे गी। कयोिक इस गनथ मे सब दे शो, जाितयो, पंथो के तमाम मनुषयो के कलयाण की अलौिकक सामगी भरी हुई है । अतः हम सबको गीताजान मे अवगाहन करना
चािहए। भोग, मोक, िनलप े ता, िनभय ु ता आिद तमाम िदवय गुणो का िवकास करने वाला यह गीता गनथ िवश मे अििितय है ।
पूजयपाद
सवा मी श ी लीलाशाहजी म
हार ाज
पाचीन युग की सवु रमणीय वसतुओं मे गीता से शि े कोई वसतु नहीं है । गीता मे ऐसा
उतम और सववुयापी जान है िक उसके रचियता दे वता को असंखय वषु हो गये ििर भी ऐसा दस ू रा एक भी गनथ नहीं िलखा गया है ।
अमेिरकन म हातमा थ ॉरो
थॉरो के िशषय, अमेिरका के सुपिसद सािहतयकार एमसन ु को भी गीता के िलए, अदभुत
आदर था। 'सवु भुत ेष ु चात मा नं सव ु भूतािन चातमिन
' यह शोक पढते समय वह नाच उठता
था। बाईबल का मैने यथाथु अभयास िकया है । उसमे जो िदवयजान िलखा है वह केवल गीता के उदरण के रप मे है । मै ईसाई होते हुए भी गीता के पित इतना सारा आदरभाव इसिलए
रखता हूँ िक िजन गूढ पशो का समाधान पािातय लोग अभी तक नहीं खोज पाये है , उनका
समाधान गीता गंथ ने शुद और सरल रीित से िदया है । उसमे कई सूि अलौिकक उपदे शो से भरपूर लगे इसीिलए गीता जी मेरे िलए साकात ् योगेशरी माता बन रही है । वह तो िवश के तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवषु का अमूलय खजाना है । (अनुकम)
एि .एच.मोल ेम (इंगल ै नड )
भगवदगीता ऐसे िदवय जान से भरपूर है िक उसके अमत ृ पान से मनुषय के जीवन मे
साहस, िहममत, समता, सहजता, सनेह, शािनत और धमु आिद दै वी गुण िवकिसत हो उठते है , अधमु
और शोषण का मुकाबला करने का सामथयु आ जाता है । अतः पतयेक युवक-युवती को गीता के शोक कणठसथ करने चािहए और उनके अथु मे गोता लगा कर अपने जीवन को तेजसवी बनाना चािहए।
पूजयपाद स ंत श ी आसारामजी बाप
शी गण े शा य नमः (अनुकम)
शीमद भगवदगीता म धरोवा च
ाहातमय
भगव नपरम ेशान भ ििरव यिभचािरणी
पारबध ं भुजयमानसय कथ ं भ वित ह े पभो।। 1।। शी पथ ृ वी दे वी ने पूछाः
हे भगवन ! हे परमेशर ! हे पभो ! पारबधकमु को भोगते हुए मनुषय को एकिनि भिि
कैसे पाप हो सकती है ?(1)
शीिवषण ुरवाच पारब धं भ ुजयमानो
िह गीताभयासरतः सदा।
स म ुि ः स स ुखी लोके क मु णा न ोप िलपयत े।। 2।। शी िवषणु भगवान बोलेः
पारबध को भोगता हुआ जो मनुषय सदा शीगीता के अभयास मे आसि हो वही इस लोक
मे मुि और सुखी होता है तथा कमु मे लेपायमान नहीं होता।(2) महापापािदपापािन गीताधया
नं करोित च ेत।्
कव िचतसप शा न कुव ु िनत निलनीदलम मबुवत।् । 3।।
िजस पकार कमल के पते को जल सपशु नहीं करता उसी पकार जो मनुषय शीगीता का धयान करता है उसे महापापािद पाप कभी सपशु नहीं करते।(3)
गीतायाः प ुसतकं यि पाठः प वत ु ते।
ति सवा ु िण ती थाु िन पयागाद ीिन त ि व ै।। 4।।
जहाँ शीगीता की पुसतक होती है और जहाँ शीगीता का पाठ होता है वहाँ पयागािद सवु तीथु िनवास करते है ।(4)
सवे देवाि ऋषयो य ोिगनः पननगा ि य े। गोपालबालक ृषणो s िप ना रदध ुवपाष ु दैः।।
सहाय ो जायत े शीघ ं यि गी ता प वत ु ते।। 5।।
ू
जहाँ शीगीता पवतम ु ान है वहाँ सभी दे वो, ऋिषयो, योिगयो, नागो और गोपालबाल शीकृ षण भी नारद, धुव आिद सभी पाषद ु ो सिहत जलदी ही सहायक होते है ।(5)
यिगीतािव चारि पठन ं पाठन ं श ु त म।्
तिाह ं िनिि तं प ृ िथव िनवसा िम स दैव िह ।। 6।।
जहाँ शी गीता का िवचार, पठन, पाठन तथा शवण होता है वहाँ िनवास करता हूँ। (6)
हे पथ ृ वी ! मै अवशय
गीताश येऽह ं ितिािम ग ीता मे चोतम ं ग ृ हम।् गीताजानम ुपािशतय ि ींललोकानपालयामयह
ंम।् । 7।।
मै शीगीता के आशय मे रहता हूँ, शीगीता मेरा उतम िर है और शीगीता के जान का
आशय करके मै तीनो लोको का पालन करता हूँ।(7)
गीता म े पर मा िवदा ब हरपा न स ं शयः।
अधु मािाकरा िनतया
सविन वाु चयपदाितमका।।
8।।
शीगीता अित अवणन ु ीय पदोवाली, अिवनाशी, अधम ु ािा तथा अकरसवरप, िनतय, बहरिपणी और परम शि े मेरी िवदा है इसमे सनदे ह नहीं है ।(8)
िच दाननद ेन कृषण े न पोिा सवम ुखतोऽज ु नम।् वेदियी पराननदा
तिवा थु जा नसंय ुता।। 9।।
वह शीगीता िचदाननद शीकृ षण ने अपने मुख से अजुन ु को कही हुई तथा तीनो वेदसवरप,
परमाननदसवरप तथा तिवरप पदाथु के जान से युि है ।(9)
योऽषाद शजपो िनतय ं नरो िनिल मानसः।
जानिस िदं स ल भते ततो याित पर ं पदम।् । 10।।
जो मनुषय िसथर मन वाला होकर िनतय शी गीता के 18 अधयायो का जप-पाठ करता है वह जानसथ िसिद को पाप होता है और ििर परम पद को पाता है ।(10)
पाठे ऽसम थु ः स ंप ूण े ततोऽ धा पाठमाचर ेत।्
तदा गोदानज ं पुणय ं लभत े नाि स ं शयः।। 11।।
संपूणु पाठ करने मे असमथु हो तो आधा पाठ करे , तो भी गाय के दान से होने वाले पुणय को पाप करता है , इसमे सनदे ह नहीं।(11)
ििभाग ं पठ मानसत ु गंगासनानिल ं लभ ेत।्
षडं शं जपमानसत ु सोमयागि लं लभ ेत।् । 12।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगासनान का िल पाप करता है और छठवे भाग का पाठ करे तो सोमयाग का िल पाता है ।(12)
एकाधयाय ं त ु यो िनतय ं पठत े भ ििस ंय ुतः।
रदलोकमवापनोित गणो भ
ूतवा वस े िचचर म।। 13।।
जो मनुषय भिियुि होकर िनतय एक अधयाय का भी पाठ करता है , वह रदलोक को पाप होता है और वहाँ िशवजी का गण बनकर िचरकाल तक िनवास करता है ।(13) (अनुकम) अधयाय े शोकपाद ं वा िनतय ं यः पठत े नरः।
स य ाित नरता ं यावनमनव नतर ं वस ु नधर े।। 14।।
हे पथ ृ वी ! जो मनुषय िनतय एक अधयाय एक शोक अथवा शोक के एक चरण का पाठ करता है वह मनवंतर तक मनुषयता को पाप करता है ।(14) गीताया
शोकद शकं सप प ं च चत ु षयम।्
िौ िी नेकं तद धा वा श ोका नां य ः पठ ेननरः।। 15।। चन दलोकमवापनोित वषा
ु णामय ुत ं ध ुव म।्
गीतापाठसमाय ुिो म ृ तो मान ुषता ं वज ेत।् ।16।।
जो मनुषय गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे शोक का पाठ करता है वह अवशय दस हजार वषु तक चनदलोक को पाप होता है । गीता के पाठ मे लगे हुए मनुषय की
अगर मतृयु होती है तो वह (पशु आिद की अधम योिनयो मे न जाकर) पुनः मनुषय जनम पाता है ।(15,16)
गीताभयास ं प ुनः क ृतवा ल भते म ु ििम ुतमाम।् गीत ेतय ुच चारस ंय ुि ो ििय माणो ग ितं ल भेत।् । 17।।
(और वहाँ) गीता का पुनः अभयास करके उतम मुिि को पाता है । 'गीता' ऐसे उचचार के साथ जो मरता है वह सदगित को पाता है ।
गीताथ ु शवणासिो महापापय
ुतोऽिप वा।
वैकुणठं स मवापन ोित िवषण ुना स ह मोदत े।। 18।।
गीता का अथु ततपर सुनने मे ततपर बना हुआ मनुषय महापापी हो तो भी वह वैकुणठ
को पाप होता है और िवषणु के साथ आननद करता है ।(18)
गीताथ ा धयायत े िनतय ं कृतवा क माु िण भ ू िरश ः।
जीव नमुिः स िवज ेयो द ेहा ंत े पर मं पदम।् । 19।।
अनेक कमु करके िनतय शी गीता के अथु का जो िवचार करता है उसे जीवनमुि जानो। मतृयु के बाद वह परम पद को पाता है ।(19)
गीतामा िशतय ब हवो भ ूभ ुजो जनकादयः।
िन धूु तकल मषा ल ोके गीता यात ाः पर ं प दम।् । 20।।
गीता का आशय करके जनक आिद कई राजा पाप रिहत होकर लोक मे यशसवी बने है और परम पद को पाप हुए है ।(20)
गीतायाः पठन ं कृतवा मा हातमय ं नैव यः पठ ेत।् वृ था पाठो भव ेतसय श म एव ह ुदाहतः।। 21।।
शीगीता का पाठ करके जो माहातमय का पाठ नहीं करता है उसका पाठ िनषिल होता है और ऐसे पाठ को शमरप कहा है ।(21) (अनुकम)
एतन माहातमयस ंय ुिं गीताभयास ं करोित य ः।
स तति लमवापनोित द ु लु भ ां ग ितमापन ुय ात।् ।22।।
इस माहातमयसिहत शीगीता का जो अभयास करता है वह उसका िल पाता है और दल ु ु भ
गित को पाप होता है ।(22)
सूत उ वाच माहातमयम ेतद गीताया
सूत जी बोलेः
मया पोि ं सनातनम। ्
गीतानत े पठ ेदसत ु यद ु िं तति लं लभ ेत।् । 23।।
गीता का यह सनातन माहातमय मैने कहा। गीता पाठ के अनत मे जो इसका पाठ करता है वह उपयुि ु िल पाप करता है ।(23)
इित श ीवा राहप ुराण े श ीमद गीतामाहातमय
ं स ंप ूण ु म।्
इित श ीवा राहप ुराण मे शीमद गी ता मा हातमय संप ूण ु ।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुकम)
शी गीतामाहा तमय का अ नुस ंधान शौ नक उवाच
गीतायाि ैव माहातमय ं यथावतस ूत म े वद।
पुराणम ुिनना पोिं वयास ेन श ु ितनोिदत म।् । 1।।
शौनक ऋिष बोलेः हे सूत जी ! अित पूवक ु ाल के मुिन शी वयासजी के िारा कहा हुआ
तथा शिुतयो मे विणत ु शीगीताजी का माहातमय मुझे भली पकार किहए।(1) सूत उ वाच
पृ षं व ै भ वता यतनमहद गोपय
ं प ुरातनम। ्
न केन श कयत े विुं गी तामाहातमयम ुतमम।् । 2।।
सूत जी बोलेः आपने जो पुरातन और उतम गीतामाहातमय पूछा, वह अितशय गुप है । अतः वह कहने के िलए कोई समथु नहीं है ।(2)
कृषणो जानाित व ै समयक ् कव िचतकौ नतेय एव च ।
वय ासो वा वयासप ुिो वा
याजवलकयोऽथ म ैिथ लः।। 3।।
गीता माहातमय को शीकृ षण ही भली पकार जानते है , कुछ अजुन ु जानते है तथा वयास, शुकदे व, याजवलकय और जनक आिद थोडा-बहुत जानते है ।(3)
अनये श वणतः श ृतवा लोक े स ंकीत ु य िनत च । तसमा ितकंिच िदामयद
वयाससयास यानमया श ु तम।् । 4।।
दस ु करते है । अतः शीवयासजी के मुख से मैने ू रे लोग कणोपकणु सुनकर लोक मे वणन
जो कुछ सुना है वह आज कहता हूँ।(4)
गीता स ुगीता कत ु वया िक मनय ैः शासस ं गहैः।
या सवय ं पदनाभसय
मुखपदािििनः सृ ता।। 5।।
जो अपने आप शीिवषणु भगवान के मुखकमल से िनकली हुई है गीता अचछी तरह
कणठसथ करना चािहए। अनय शासो के संगह से कया लाभ?(5)
यसमादम ु मयी गीता सव ु जानपयोिजका।
सवु शासमयी
गीता तस माद गीता िव िशषयत े।। 6।।
गीता धमम ु य, सवज ु ान की पयोजक तथा सवु शासमय है , अतः गीता शि े है ।(6) संसारसागर ं िोर ं तत ु िमच छित यो जनः।
गीतानाव ं समारह पार ं यात ु स ुख ेन स ः।। 7।। जो मनुषय िोर संसार-सागर को तैरना चाहता है उसे गीतारपी नौका पर चढकर
सुखपूवक ु पार होना चािहए।(7)
गीताशासिम दं प ुणय ं यः पठ ेत ् पयतः प ुमान।्
िवषणोः पद मवापन ोित भयशोकािदव
िज ु त ः।। 8।।
जो पुरष इस पिवि गीताशास को सावधान होकर पढता है वह भय, शोक आिद से रिहत
होकर शीिवषणुपद को पाप होता है ।(8)
गीताजान ं श ु तं न ैव सद ैवाभय ासयोगत ः।
मोकिम चछ ित म ूढातमा याित बालक
हासयताम। ् ।9।।
िजसने सदै व अभयासयोग से गीता का जान सुना नहीं है ििर भी जो मोक की इचछा
करता है वह मूढातमा, बालक की तरह हँ सी का पाि होता है ।(9)
ये श ृणव िनत पठ नतय ेव गीता शासमहिन ु श म।्
न ते व ै म ानुषा जेया देवा एव न स ं शयः।। 10।। जो रात-िदन गीताशास पढते है अथवा इसका पाठ करते है या सुनते है उनहे मनुषय नहीं
अिपतु िनःसनदे ह दे व ही जाने।(10)
मलिनमो चनं पुं सां ज लसना नं िद ने िद ने।
सकृद गी तामभिस
सना नं स ंसारम लनाशनम। ् । 11।।
हर रोज जल से िकया हुआ सनान मनुषयो का मैल दरू करता है िकनतु गीतारपी जल मे
एक बार िकया हुआ सनान भी संसाररपी मैल का नाश करता है ।(11) (अनुकम) गीताशाससय
जानाित पठन ं न ैव पाठनम। ्
परसमा नन श ु तं जान ं श दा न भावना।। 12।। स एव मान ुष े लोके प ुरषो िव डवराहकः।
यसमाद गीत ां न जान ाित न ाध मसततपरो जनः।।
13।।
जो मनुषय सवयं गीता शास का पठन-पाठन नहीं जानता है , िजसने अनय लोगो से वह
नहीं सुना है , सवयं को उसका जान नहीं है , िजसको उस पर शदा नहीं है , भावना भी नहीं है , वह मनुषय लोक मे भटकते हुए शूकर जैसा ही है । उससे अिधक नीच दस ू रा कोई मनुषय नहीं है , कयोिक वह गीता को नहीं जानता है ।
िधक् त सय जानमाचार ं वत ं च ेषा ं तपो यश ः।
गीता थु पठन ं ना िसत न ाध मसततपरो जन।।
14।।
जो गीता के अथु का पठन नहीं करता उसके जान को, आचार को, वत को, चेषा को, तप
को और यश को िधककार है । उससे अधम और कोई मनुषय नहीं है ।(14)
गीतागीत ं न यजज ानं तििदयास ुरस ंजकम।्
तन मोि ं ध मु रिह तं व ेदव ेदानतग िहु तम।् ।15।। जो जान गीता मे नहीं गाया गया है वह वेद और वेदानत मे िनिनदत होने के कारण उसे
िनषिल, धमरुिहत और आसुरी जाने।
योऽ धीत े स ततं गीत ां िदवारािौ यथाथ
ु त ः।
सवपन गचछ नवद ंिसत िञछाशत ं मो कमापन ु यात।् । 16।। जो मनुषय रात-िदन, सोते, चलते, बोलते और खडे रहते हुए गीता का यथाथत ु ः सतत
अधययन करता है वह सनातन मोक को पाप होता है ।(16)
योिगस थान े िसदपीठ े िशषाग े स तसभास ु च ।
यजे च िवषण ुभिाग े पठ नयाित परा ं ग ितम।् । 17।। योिगयो के सथान मे, िसदो के सथान मे, शि े पुरषो के आगे, संतसभा मे, यजसथान मे और
िवषणुभिोके आगे गीता का पाठ करने वाला मनुषय परम गित को पाप होता है ।(17) गीतापाठ ं च श वणं यः करोित
िदन े िदन े।
कतवो वा िजम े धाद ाः कृतासत ेन स दिकणाः।। 18।। जो गीता का पाठ और शवण हर रोज करता है उसने दिकणा के साथ अशमेध आिद यज
िकये ऐसा माना जाता है ।(18)
गीताऽ धीता च येनािप भ िि भाव े न च ेत सा।
तेन व ेदाि शासािण प
ुराणािन
च सव ु शः।। 19।।
िजसने भििभाव से एकाग, िचत से गीता का अधययन िकया है उसने सवु वेदो, शासो
तथा पुराणो का अभयास िकया है ऐसा माना जाता है ।(19) (अनुकम)
यः श ृणो ित च गीता था कीत ु ये चच सवय ं प ुमान।्
शावय ेच च पराथ ा वै स पयाित पर ं प दम।् । 20।। जो मनुषय सवयं गीता का अथु सुनता है , गाता है और परोपकार हे तु सुनाता है वह परम
पद को पाप होता है ।(20)
नोपसप ु िनत ति ैव यि गीता चु नं ग ृ हे।
तापियोदवा ः पीडा न ैव वया िधभय ं तथा।। 21।। िजस िर मे गीता का पूजन होता है वहाँ (आधयाितमक, आिधदै िवक और आिधभौितक)
तीन ताप से उतपनन होने वाली पीडा तथा वयािधयो का भय नहीं आता है । (21) न शापो न ैव पाप ं च द ु गु ितन ं च िकं चन।
देहेऽरयः षड ेत े व ै न बाधनत े क दाचन।। 22।। उसको शाप या पाप नहीं लगता, जरा भी दग ु िुत नहीं होती और छः शिु (काम, कोध, लोभ,
मोह, मद और मतसर) दे ह मे पीडा नहीं करते। (22)
भगवतपरम ेशा ने भििरवय िभचािरणी।
जायत े सतत ं त ि यि गीता िभननदनम। ् ।23।।
जहाँ िनरनतर गीता का अिभनंदन होता है वहाँ शी भगवान परमेशर मे एकिनि भिि
उतपनन होती है । (23)
सनातो वा
य िद वाऽसनातः श
ुिच वाु यिद वाऽ शुिच ः।
िव भूित ं िवशरप ं च स ंसमरन सव ु दा श ु िचः ।। 24।।
सनान िकया हो या न िकया हो, पिवि हो या अपिवि हो ििर भी जो परमातम-िवभूित का
और िवशरप का समरण करता है वह सदा पिवि है । (24)
सवु ि पित भोिा च प ितगाही च स वु श ः।
गीतापाठ ं प कुवा ु णो न िलप येत कदा चन।। 25।। सब जगह भोजन करने वाला और सवु पकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ
करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता। (25)
यसय ानत ःकरण ं िनतय ं गीताया ं रमत े सदा।
सवा ु िगनकः स दाजापी
िकयावानस च
पिणड तः।। 26।।
िजसका िचत सदा गीता मे ही रमण करता है वह संपूणु अिगनहोिी, सदा जप करनेवाला,
िकयावान तथा पिणडत है । (26)
दशु नी यः स धनवानस योगी जानवा
स एव यािजको
निप।
ध या नी सव ु वेदाथ ु द शु कः।। 27।।
वह दशन ु करने योगय, धनवान, योगी, जानी, यािजक, धयानी तथा सवु वेद के अथु को
जानने वाला है । (27) (अनुकम)
गीतायाः प ुसत कं यि िनतय ं पाठ े प वत ु ते।
ति स वाु िण तीथा ु िन पयागादीिन भ
ूतल े।। 28।।
जहाँ गीता की पुसतक का िनतय पाठ होता रहता है वहाँ पथ ृ वी पर के पयागािद सवु तीथु
िनवास करते है । (28)
िनवस िनत स दा ग ेहे देहेदेश े सद ै व िह।
सवे देवाि ऋषयो य ोिगनः पननगा ि य े।। 29।। उस िर मे और दे हरपी दे श मे सभी दे वो, ऋिषयो, योिगयो और सपो का सदा िनवास
होता है ।(29)
गीता ग ंगा च गायिी
स ीता स तया सरसव ती।
बहिवदा बहवल ली ििस ं धया मुि गेिहनी।। 30।। अधु मािा िच दाननदा भव घन ी भयनािशनी।
वेदियी पराऽनन ता तिवा थु जानम ंजरी।। 31।। इत येतािन जप ेिननतय ं नरो िन िलमानस ः।
जानिसिद ं ल भेचछीघ ं तथानत े पर मं पदम।् । 32।। गीता, गंगा, गायिी, सीता, सतया, सरसवती, बहिवदा, बहवलली, ििसंधया, मुिगेिहनी, अधम ु ािा,
िचदाननदा, भवघनी, भयनािशनी, वेदियी, परा, अननता और तिवाथज ु ानमंजरी (तिवरपी अथु के जान का भंडार) इस पकार (गीता के) अठारह नामो का िसथर मन से जो मनुषय िनतय जप करता है वह शीघ जानिसिद और अंत मे परम पद को पाप होता है । (30,31,32) यदतकम ु च सव ु ि गीतापाठ ं करो ित व ै।
तततक मु च िनदोष ं कृतवा प ूण ु म वाप नुयात।् । 33।। मनुषय जो-जो कमु करे उसमे अगर गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कमु िनदोषता
से संपूणु करके उसका िल पाप करता है । (33)
िप तृ नुद शय यः शाद े गीतापाठ ं करोित व ै।
संत ुषा िपतरसतसय िनरय
ादािनत स दग ितम।् ।34।।
जो मनुषय शाद मे िपतरो को लकय करके गीता का पाठ करता है उसके िपत ृ सनतुष
होते है और नकु से सदगित पाते है । (34)
गीतापाठ ेन स ंत ुषा ः िपतर ः शादतिप ु ताः।
िप तृ लोकं पयानतय ेव प ु िाशीवा ु दततपराः।। 35।। गीतापाठ से पसनन बने हुए तथा शाद से तप ृ िकये हुए िपतग ृ ण पुि को आशीवाद ु दे ने
के िलए ततपर होकर िपतल ृ ोक मे जाते है । (35) (अनुकम)
िल िखतवा धारय ेतक णठे बाह ु दणड े च मसतके।
नशयनतय ुपदवाः सव े िवघनरपाि दारणाः।।
36।।
जो मनुषय गीता को िलखकर गले मे, हाथ मे या मसतक पर धारण करता है उसके सवु िवघनरप दारण उपदवो का नाश होता है । (36)
देहं मान ुषमािश तय च ातुव ु णये तु भारत े।
न श ृणो ित पठतय ेव ताम मृ तसवरिपणीम। ् ।37।। हसताि यािवाऽम ृ तं पाप ं कषातकव ेडं सम शुत े
पीतवा गीताम ृ तं लोके ल बधवा मोक ं स ुखी भव ेत।् । 38।।
भरतखणड मे चार वणो मे मनुषय दे ह पाप करके भी जो अमत ृ सवरप गीता नहीं पढता है या नहीं सुनता है वह हाथ मे आया हुआ अमत ृ छोडकर कष से िवष खाता है । िकनतु जो मनुषय गीता सुनता है , पढता
तो वह इस लोक मे गीतारपी अमत ृ का पान करके मोक पाप कर सुखी
होता है । (37, 38)
जनै ः स ंसारद ु ःखात ैगीताजान ं च यैः श ु तम।्
संपापमम ृ तं त ै ि गतासत े सदन ं हर ेः।। 39।।
संसार के दःुखो से पीिडत िजन मनुषयो ने गीता का जान सुना है उनहोने अमत ृ पाप
िकया है और वे शी हिर के धाम को पाप हो चुके है । (39)
गीतामा िशतय ब हवो भ ूभ ुजो जनकादयः।
िन धूु तकल मषा ल ोके गतासत े परम ं पद म।् । 40।।
इस लोक मे जनकािद की तरह कई राजा गीता का आशय लेकर पापरिहत होकर परम पद को पाप हुए है । (40)
गीतास ु न िव शेषोऽिसत
जन ेष ू चचावच ेष ु च ।
जान ेषव ेव समग ेष ु समा बहस वरिपणी।। 41।।
गीता मे उचच और नीच मनुषय िवषयक भेद ही नहीं है , कयोिक गीता बहसवरप है अतः उसका जान सबके िलए समान है । (41)
यः श ु तवा न ैव गीताथ ा मो दते परमादरात। ्
नैवाप नोित ि लं लोके पमादाच च व ृ था श मम।् । 42।।
गीता के अथु को परम आदर से सुनकर जो आननदवान नहीं होता वह मनुषय पमाद के कारण इस लोक मे िल नहीं पाप करता है िकनतु वयथु शम ही पाप करता है । (42) गीतायाः पठन ं कृतवा मा हातमय ं नैव यः पठ ेत।्
वृ था पाठिल ं तसय श म एव ही क ेवल म।् । 43।।
गीता का पाठ करे जो माहातमय का पाठ नहीं करता है उसके पाठ का िल वयथु होता है और पाठ केवल शमरप ही रह जाता है । (अनुकम)
एत नमाहातमयस ंय ुिं गीतापाठ ं करोित यः।
शदया यः श ृणोतय ेव द ु लु भां ग ित माप नुयात।् । 44।।
इस माहातमय के साथ जो गीता पाठ करता है तथा जो शदा से सुनता है वह दल ु गित ु भ
को पाप होता है ।(44)
माहातमयम ेतद गीताया
मया पोि ं सनातनम। ्
गीता नते च पठ ेदसत ु यद ु िं तति लं लभ ेत।् । 45।।
गीता का सनातन माहातमय मैने कहा है । गीता पाठ के अनत मे जो इसका पाठ करता है वह उपयुि ु िल को पाप होता है । (45) (अनुकम)
इित शीवाराहपुराणोदत ृ ं शीमदगीतामाहातमयानुसंधानं समापम।्
इित शीवाराहपुराणानतगत ु शीमदगीतामाहातमयानुंसंधान समाप।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गी ता म े श ीकृषण भगवान क े न ामो के अथ ु अननतरपः
िजनके अननत रप है वह। अचय ुतः िजनका कभी कय नहीं होता, कभी
अधोगित नहीं होती वह। अिरस ूदनः पयत के िबना ही शिु का नाश करने वाले। कृषणः
'कृष ् '
सतावाचक है । 'ण' आननदवाचक है । इन दोनो के एकतव का सूचक परबह भी कृ षण कहलाता है । केशव ः क
माने बह को और ईश – िशव को वश मे रखने वाले। केिश िनष ूदनः
िोडे का
आकार वाले केिश नामक दै तय का नाश करने वाले। कमलपिाक ः कमल के पते जैसी सुनदर िवशाल आँखो वाले। गोिव नदः गो माने वेदानत वाकयो के िारा जो जाने जा सकते है । जगतप ितः जगत के पित। जग िननवासः
िजनमे जगत का िनवास है अथवा जो जगत मे
सवि ु बसे हुए है । जनाद ु नः दष ु जनो को, भिो के शिुओं को पीिडत करने वाले। देव देवः दे वताओं के पूजय। देववरः
दे वताओं मे शि े । पुरषोतम ः कर और अकर दोनो पुरषो से उतम
अथवा शरीररपी पुरो मे रहने वाले पुरषो यानी जीवो से जो अित उतम, परे और िवलकण है वह। भगवानः
ऐशयु, धमु, यश, लकमी, वैरागय और मोक... ये छः पदाथु दे ने वाले अथवा सवु भूतो की
उतपित, पलय, जनम, मरण तथा िवदा और अिवदा को जानने वाले। भूतभावनः
सवभ ु ूतो को
उतपनन करने वाले। भूत े शः भूतो के ईशर, पित। मधुस ूदन ः मधु नामक दै तय को मारने वाले। महाबाह ू ः िनगह और अनुगह करने मे िजनके हाथ समथु है वह। मा धवः माया के, लकमी के पित। यादवः
यदक ु ु ल मे जनमे हुए। योग िवतमः
योग जानने वालो मे शि े । वास ु देवः वासुदेव
के पुि। वाषण े यः विृषण के ईश, सवामी। हिर ः संसाररपी दःुख हरने वाले। (अनुकम)
अजुु न के नामो
के अथ ु
अनिः पापरिहत, िनषपाप। किपधवज ः िजसके धवज पर किप माने हनुमान जी है वह।
कुरश े िः कुरकुल मे उतपनन होने वालो मे शि े । कुरन नदनः कुरपवीरः
कुरवंश के राजा के पुि।
कुरकुल मे जनमे हुए पुरषो मे िवशेष तेजसवी। कौ नतेयः कुंती का पुि। गुडाकेश ः
िनदा को जीतने वाला, िनदा का सवामी अथवा गुडाक माने िशव िजसके सवामी है वह। धनंजयः
िदिगवजय मे सवु राजाओं को जीतने वाला। धनु धु रः धनुष को धारण करने वाला। परंतपः परम तपसवी अथवा शिुओं को बहुत तपाने वाला। पा थु ः पथ ृ ा माने कुंती का पुि। पुरषवया घः
पुरषो मे वयाघ जैसा। पुरष षु भः पुरषो मे ऋषभ माने शि े । पाणडव ः पाणडु का पुि। भरत शे ि ः भरत के वंशजो मे शि े । भरतसतम ः भरतवंिशयो मे शि े । भरत षु भः भरतवंिशयो मे शि े । भारतः
भा माने बहिवदा मे अित पेमवाला अथवा भरत का वंशज। महाबाह ु ः बडे हाथो वाला।
सवयसािचन ् बाये हाथ से भी सरसनधान करने वाला। (अनुकम) ॐॐॐॐॐॐॐॐ
शीमद भगवदगी ता
पहले अ धयाय का माहा
तमय
शी पाव ु ती जी न े क हाः भगवन ् ! आप सब तिवो के जाता है । आपकी कृ पा से मुझे
शीिवषणु-समबनधी नाना पकार के धमु सुनने को िमले, जो समसत लोक का उदार करने वाले है । दे वेश ! अब मै गीता का माहातमय सुनना चाहती हूँ, िजसका शवण करने से शीहिर की भिि बढती है ।
शी महाद े वजी बोल े ः िजनका शीिवगह अलसी के िूल की भाँित शयाम वणु का है ,
पिकराज गरड ही िजनके वाहन है , जो अपनी मिहमा से कभी चयुत नहीं होते तथा शेषनाग की शयया पर शयन करते है , उन भगवान महािवषणु की हम उपासना करते है ।
एक समय की बात है । मुर दै तय के नाशक भगवान िवषणु शेषनाग के रमणीय आसन
पर सुखपूवक ु िवराजमान थे। उस समय समसत लोको को आननद दे ने वाली भगवती लकमी ने आदरपूवक ु पश िकया।
शीलक मीजी ने प ूछाः भगवन ! आप समपूणु जगत का पालन करते हुए भी अपने
ऐशयु के पित उदासीन से होकर जो इस कीरसागर मे नींद ले रहे है , इसका कया कारण है ?
शीभ गवान बोल े ः सुमिु ख ! मै नींद नहीं लेता हूँ, अिपतु तिव का अनुसरण करने वाली
अनतदु िष के िारा अपने ही माहे शर तेज का साकातकार कर रहा हूँ। यह वही तेज है , िजसका
योगी पुरष कुशाग बुिद के िारा अपने अनतःकरण मे दशन ु करते है तथा िजसे मीमांसक िविान वेदो का सार-तिव िनििचत करते है । वह माहे शर तेज एक, अजर, पकाशसवरप, आतमरप, रोग-
शोक से रिहत, अखणड आननद का पुंज, िनषपनद तथा िै तरिहत है । इस जगत का जीवन उसी के अधीन है । मै उसी का अनुभव करता हूँ। दे वेशिर ! यही कारण है िक मै तुमहे नींद लेता सा पतीत हो रहा हूँ।
शीलक मीजी ने कहा ः हिषकेश ! आप ही योगी पुरषो के धयेय है । आपके अितिरि भी
कोई धयान करने योगय तिव है , यह जानकर मुझे बडा कौतूहल हो रहा है । इस चराचर जगत की
सिृष और संहार करने वाले सवयं आप ही है । आप सवस ु मथु है । इस पकार की िसथित मे होकर भी यिद आप उस परम तिव से िभनन है तो मुझे उसका बोध कराइये।
शी भग वान बोल े ः िपये ! आतमा का सवरप िै त और अिै त से पथ ृ क, भाव और अभाव
से मुि तथा आिद और अनत से रिहत है । शुद जान के पकाश से उपलबध होने वाला तथा
परमाननद सवरप होने के कारण एकमाि सुनदर है । वही मेरा ईशरीय रप है । आतमा का एकतव ही सबके िारा जानने योगय है । गीताशास मे इसी का पितपादन हुआ है । अिमत तेजसवी
भगवान िवषणु के ये वचन सुनकर लकमी दे वी ने शंका उपिसथत करे हुए कहाः भगवन ! यिद
आपका सवरप सवयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है ? मेरे इस संदेह का िनवारण कीिजए।
शी भग वान बोल े ः सुनदिर ! सुनो, मै गीता मे अपनी िसथित का वणन ु करता हूँ। कमश
पाँच अधयायो को तुम पाँच मुख जानो, दस अधयायो को दस भुजाएँ समझो तथा एक अधयाय को उदर और दो अधयायो को दोनो चरणकमल जानो। इस पकार यह अठारह अधयायो की
वाङमयी ईशरीय मूितु ही समझनी चािहए। यह जानमाि से ही महान पातको का नाश करने वाली है । जो उतम बुिदवाला पुरष गीता के एक या आधे अधयाय का अथवा एक, आधे या चौथाई शोक का भी पितिदन अभयास करता है , वह सुशमाु के समान मुि हो जाता है ।
शी लक मीजी ने प ूछाः दे व ! सुशमाु कौन था? िकस जाित का था और िकस कारण से
उसकी मुिि हुई? (अनुकम)
शीभ गवान बोल े ः िपय ! सुशमाु बडी खोटी बुिद का मनुषय था। पािपयो का तो वह
िशरोमिण ही था। उसका जनम वैिदक जान से शूनय और कूरतापूणु करने वाले बाहणो के कुल मे हुआ था वह न धयान करता था, न जप, न होम करता था न अितिथयो का सतकार। वह
लमपट होने के कारण सदा िवषयो के सेवन मे ही लगा रहता था। हल जोतता और पते बेचकर जीिवका चलाता था। उसे मिदरा पीने का वयसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस
पकार उसने अपने जीवन का दीिक ु ाल वयतीत कर िदया। एकिदन मूढबुिद सुशमाु पते लाने के िलए िकसी ऋिष की वािटका मे िूम रहा था। इसी बीच मे कालरपधारी काले साँप ने उसे डँ स िलया। सुशमाु की मतृयु हो गयी। तदननतर वह अनेक नरको मे जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मतृयुलोक मे लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ। उस समय िकसी पंगु ने अपने
जीवन को आराम से वयतीत करने के िलए उसे खरीद िलया। बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हुए बडे कष से सात-आठ वषु िबताए। एक िदन पंगु ने िकसी ऊँचे सथान पर बहुत दे र तक बडी तेजी के साथ उस बैल को िुमाया। इससे वह थककर बडे वेग से पथ ृ वी पर िगरा और मूिचछु त हो गया। उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृ ष हो बहुत से लोग एकिित हो गये। उस
जनसमुदाय मे से िकसी पुणयातमा वयिि ने उस बैल का कलयाण करने के िलए उसे अपना पुणय दान िकया। ततपिात ् कुछ दस ू रे लोगो ने भी अपने-अपने पुणयो को याद करके उनहे उसके
िलए दान िकया। उस भीड मे एक वेशया भी खडी थी। उसे अपने पुणय का पता नहीं था तो भी उसने लोगो की दे खा-दे खी उस बैल के िलए कुछ तयाग िकया।
तदननतर यमराज के दत ू उस मरे हुए पाणी को पहले यमपुरी मे ले गये। वहाँ यह
िवचारकर िक यह वेशया के िदये हुए पुणय से पुणयवान हो गया है , उसे छोड िदया गया ििर वह भूलोक मे आकर उतम कुल और शील वाले बाहणो के िर मे उतपनन हुआ। उस समय भी उसे अपने पूवज ु नम की बातो का समरण बना रहा। बहुत िदनो के बाद अपने अजान को दरू करने वाले कलयाण-तिव का िजजासु होकर वह उस वेशया के पास गया और उसके दान की बात
बतलाते हुए उसने पूछाः 'तुमने कौन सा पुणय दान िकया था?' वेशया ने उतर िदयाः 'वह िपंजरे मे बैठा हुआ तोता पितिदन कुछ पढता है । उससे मेरा अनतःकरण पिवि हो गया है । उसी का पुणय मैने तुमहारे िलए दान िकया था।' इसके बाद उन दोनो ने तोते से पूछा। तब उस तोते ने अपने पूवज ु नम का समरण करके पाचीन इितहास कहना आरमभ िकया।
शुक बो लाः पूवज ु नम मे मै िविान होकर भी िविता के अिभमान से मोिहत रहता था।
मेरा राग-िे ष इतना बढ गया था िक मै गुणवान िविानो के पित भी ईषयाु भाव रखने लगा ििर समयानुसार मेरी मतृयु हो गयी और मै अनेको ििृणत लोको मे भटकता ििरा। उसके बाद इस लोक मे आया। सदगुर की अतयनत िननदा करने के कारण तोते के कुल मे मेरा जनम हुआ।
पापी होने के कारण छोटी अवसथा मे ही मेरा माता-िपता से िवयोग हो गया। एक िदन मै गीषम ऋतु मे तपे मागु पर पडा था। वहाँ से कुछ शि े मुिन मुझे उठा लाये और महातमाओं के आशय मे आशम के भीतर एक िपंजरे मे उनहोने मुझे डाल िदया। वहीं मुझे पढाया गया। ऋिषयो के
बालक बडे आदर के साथ गीता के पथम अधयाय की आविृत करते थे। उनहीं से सुनकर मै भी बारं बार पाठ करने लगा। इसी बीच मे एक चोरी करने वाले बहे िलये ने मुझे वहाँ से चुरा िलया। ततपिात ् इस दे वी ने मुझे खरीद िलया। पूवक ु ाल मे मैने इस पथम अधयाय का अभयास िकया था, िजससे मैने अपने पापो को दरू िकया है । ििर उसी से इस वेशया का भी अनतःकरण शुद हुआ है और उसी के पुणय से ये ििजशि े सुशमाु भी पापमुि हुए है ।
इस पकार परसपर वाताल ु ाप और गीता के पथम अधयाय के माहातमय की पशंसा करके वे
तीनो िनरनतर अपने-अपने िर पर गीता का अभयास करने लगे, ििर जान पाप करके वे मुि हो गये। इसिलए जो गीता के पथम अधयाय को पढता, सुनता तथा अभयास करता है , उसे इस भवसागर को पार करने मे कोई किठनाई नहीं होती। (अनुकम)
पहला अधयायःअज
ु निवषादयोग
भगवान शीकृ षण ने अजुन ु को िनिमत बना कर समसत िवश को गीता के रप मे जो महान ् उपदे श िदया है , यह अधयाय उसकी पसतावना रप है । उसमे दोनो पक के पमुख योदाओं
के नाम िगनाने के बाद मुखयरप से अजुन ु को कुटु ं बनाश की आशंका से उतपनन हुए मोहजिनत िवषाद का वणन ु है ।
।। अथ प थमो ऽधया यः ।। धृ तराष उवा च
धमु केि े कुरक ेि े स मवेता य ु युतसव ः। मामका ः पाणडवाि ैव िकमकु वु त स ंजय।। 1।।
धत ृ राष बोलेः हे संजय ! धमभ ु िू म कुरकेि मे एकिित, युद की इचछावाले मेरे पाणडु के पुिो ने कया िकया? (1)
संजय उ वाच दषवा त ु पाणडवानीक ं वय ूढं द ु योधनसतदा। आचाय ु मुपस ंगमय राजा वचनमबवीत।
् ।2।।
संजय बोलेः उस समय राजा दय ु ोधन ने वयूहरचनायुि पाणडवो की सेना को दे खकर और
दोणाचायु के पास जाकर यह वचन कहाः (2)
पशय ैता ं पा णडुप ुिाणामाचाय ा म हत ीं चम ू म।्
वयूढा ं द ु प दपुि ेण तव िश षयेण धी मता।। 3।।
हे आचायु ! आपके बुिदमान िशषय दप ृ दुमन के िारा वयूहाकार खडी की हुई ु दपुि धष
पाणडु पुिो की इस बडी भारी सेना को दे िखये।(3)
अि श ूरा मह ेषवासा
भ ीमाज ु नसमा य ुिध ।
युय ुधानो िवराटि द ु पदि म हारथः।। 4।। धृ षकेत ुि े िकतानः कािश राजि वीय ु वा न।्
पुर िजतकु िनतभोज ि श ैबयि नरप ुंगव ः।। 5।। युधामनय ुि िवकानत उत मौजाि वीय ु वा न।् सौभदो दौपद ेयाि सव ु एव म हारथाः।। 6।।
इस सेना मे बडे -बडे धनुषो वाले तथा युद मे भीम और अजुन ु के समान शूरवीर सातयिक
और िवराट तथा महारथी राजा दप ृ केतु और चेिकतान तथा बलवान कािशराज, पुरिजत, ु द, धष कुिनतभोज और मनुषयो मे शि े शैबय, पराकमी, युधामनयु तथा बलवान उतमौजा, सुभदापुि अिभमनयु और दौपदी के पाँचो पुि ये सभी महारथी है । (4,5,6)
अस माकं त ु िव िश षा ये तािननबो ध ििजोतम।
नायका म म स ै नयसय संजा था तानबवी िम त े।। 7।। हे बाहणशि े ! अपने पक मे भी जो पधान है , उनको आप समझ लीिजए। आपकी
जानकारी के िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हूँ, उनको बतलाता हूँ। (अनुकम) भवानभीषमि क णु ि कृपि स िम ितंजय ः।
अशतथामा िव कण ु ि सौमद ितसतथ ैव च ।। 8।। आप, दोणाचायु और िपतामह भीषम तथा कणु और संगामिवजयी कृ पाचायु तथा वैसे ही
अशतथामा, िवकणु और सोमदत का पुि भूिरशवा। (8)
अन ये च ब हवः श ूरा म दथे तयिजीिवता ः। नानाशसपहरण ाः स वे युदिवशारदाः।।
9।।
और भी मेरे िलए जीवन की आशा तयाग दे ने वाले बहुत से शूरवीर अनेक पकार के
असो-शसो से सुसिजजत और सब के सब युद मे चतुर है । (9)
अपया ु पं तदसमाक ं ब लं भीषमा िभरिकत म।्
पया ु पं ितवदम ेत ेष ां बल ं भी मािभर िकतम।् । 10।। भीषम िपतामह िारा रिकत हमारी वह सेना सब पकार से अजेय है और भीम िारा रिकत
इन लोगो की यह सेना जीतने मे सुगम है । (10)
अय नेष ु च स वे षु यथाभागमव िसथता ः।
भीषम मेवािभरक नतु भव नतः स वु एव िह ।। 11।। इसिलए सब मोचो पर अपनी-अपनी जगह िसथत रहते हुए आप लोग सभी िनःसंदेह
भीषम िपतामह की ही सब ओर से रका करे । (11)
संजय उ वाच
तसय स ं जन यन हष ु कुरव ृ दः िपतामह ः। िसंहनाद ं िवनदोचच ै ः श ंख े दधमौ पतापवान। ् । 12।।
कौरवो मे वद ृ बडे पतापी िपतामह भीषम ने उस दय ु ोधन के हदय मे हषु उतपनन करते
हुए उचच सवर से िसंह की दहाड के समान गरजकर शंख बजाया। (12)
तत ः श ंखाि भ ेय ु ि पणवानकगोम ुखाः।
सह सैवाभयहनयनत स श
बदसत ुम ु लोऽभव त।् ।13।।
इसके पिात शंख और नगारे तथा ढोल, मद ृ ं ग और नरिसंिे आिद बाजे एक साथ ही बज उठे । उनका वह शबद बडा भयंकर हुआ। (13)
तत ः श ेत ैह ु यैय ु िे म हित सयनदन े िसथतौ।
मा धवः पा णडवि ैव िदवयो शंखौ प दधमत ु ः।। 14।।
इसके अननतर सिेद िोडो से युि उतम रथ मे बैठे हुए शीकृ षण महाराज और अजुन ु ने
भी अलौिकक शंख बजाये।(14) (अनुकम)
पां चजनय ं ह िषकेशो द ेवदत ं धन ंजय ः।
पौणड द धमौ महाश ंख ं भी मकमा ु व ृ कोदरः।। 15।।
शीकृ षण महाराज ने पाञचजनय नामक, अजुन ु ने दे वदत नामक और भयानक कमव ु ाले भीमसेन ने पौणड नामक महाशंख बजाया। (15)
अननत िवजय ं राज ा कु नतीप ुिो य ुिध ििरः। नकुल ः सह देवि स ुिोषम िणप ुषपकौ।। 16।।
कुनतीपुि राजा युिधििर ने अननतिवजय नामक और नकुल तथा सहदे व ने सुिोष और मिणपुषपकनामक शंख बजाये। (16)
काशयि परम ेषवासः
िशख णडी च म हारथः।
धृ षदुमनो िवराटि साितयक
िापरािजतः।। 17।।
द ु पदो दौपद ेयाि सव ु श ः प ृ िथवीपत े।
सौभद ि महाबाह ु ः श ंखानदध मुः प ृ थकप ृ थक् ।। 18।।
शि े धनुष वाले कािशराज और महारथी िशखणडी और धष ृ दुमन तथा राजा िवराट और अजेय सातयिक, राजा दप ु द और दौपदी के पाँचो पुि और बडी भुजावाले सुभदापुि अिभमनयु-इन सभी ने, हे राजन ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये। स िोषो
ध ातु राषा णां ह दयािन वयदार यत।्
नभ ि प ृ िथ वीं च ैव त ुम ु लो वयन ुन ादयन।् ।19।। और उस भयानक शबद ने आकाश और पथृवी को भी गुंजाते हुए धातरुाषो के अथात ु ्
आपके पक वालो के हदय िवदीणु कर िदये। (19)
अथ वयविसथ तानदषटवा धात ु राषान ् किपधवज ः। पव ृ ते शससम पात े धन ु रदमय पाण डवः।। 20।। हिषके शं तदा वाकयिमद
माह महीपत े।
अजुु न उ वाच
सेनय ोरभयोम ु ध ये रथ ं स थापय मे ऽचय ुत।। 21।।
हे राजन ! इसके बाद किपधवज अजुन ु ने मोचाु बाँधकर डटे हए धत ृ राष समबिनधयो को दे खकर, उस शस चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हिषकेश शीकृ षण महाराज से यह वचन कहाः हे अचयुत ! मेरे रथ को दोनो सेनाओं के बीच मे खडा कीिजए। यावद ेतािननरीक ेऽह ं यो दकामानविसथ तान।्
कैमु या स ह यो दवयमिसमन ् रणसम ुदम े।। 22।।
और जब तक िक मै युदकेि मे डटे हुए युद के अिभलाषी इन िवपकी योदाओं को भली
पकार दे ख न लूँ िक इस युदरप वयापार मे मुझे िकन-िकन के साथ युद करना योगय है , तब तक उसे खडा रिखये। (22)
योतसयमान ानव ेक ेऽह ं य एत े ऽि स मागताः। धा तु राषस य द ु बु देय ु दे िपयिच कीष ु वः।। 23।।
दब ु ुिद दय ु ोधन का युद मे िहत चाहने वाले जो-जो ये राजा लोग इस सेना मे आये है , इन
युद करने वालो को मै दे खूँगा। (23) (अनुकम)
संजयउवाच एव मुिो ह िषके शो गुडाकेश ेन भारत।
सेनयोरभयोम ु धये र थापियतवा
र थोतमम।् । 24।।
भीषमदोणपम ुखत ः सव े ष ां च म हीिकताम। ्
उवाच पा थु पशय ैता न ् समव ेतान ् कुरिन ित।। 25।।
संजय बोलेः हे धत ृ राष ! अजुन ु िारा इस पकार कहे हुए महाराज शीकृ षणचनद ने दोनो
सेनाओं के बीच मे भीषम और दोणाचायु के सामने तथा समपूणु राजाओं के सामने उतम रथ को खडा करके इस पकार कहा िक हे पाथु ! युद के िलए जुटे हुए इन कौरवो को दे ख। (24,25) तिापशयितसथ ता न ् पाथ ु ः िप तृ नथ िपता महान।्
आचाया ु नमात ु लानभात ृ नपु िानपौिानसख ींसत था।। 26।। शशुरान ् सुहदि ै व स ेनय ोरभयोरिप।
तानस मीकय स कौनत ेय़ः सवा ु नबन धूनविसथ तान।् । 27।। कृ पय ा परयािवषो िवषीद
इसके बाद पथ ृ ापुि अजुन ु ने उन दोनो
िननमबवीत। ्
सेनाओं मे िसथत ताऊ-चाचो को, दादो-परदादो को,
गुरओं को, मामाओं को, भाइयो को, पुिो को, पौिो को तथा िमिो को, ससुरो को और सुहदो को भी दे खा। उन उपिसथत समपूणु बनधुओं को दे खकर वे कुनतीपुि अजुन ु अतयनत करणा से युि होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।(26,27)
अजुु न उ वाच
दषटव ेम ं स वजन ं कृषण युय ुतस ुं सम ुपिसथ तम।् । 28। सीद िनत म म गािा िण म ुख ं च प िरश ुषयित। वेप थुि शरीर े म े रोमहष ु ि जायत े।। 29।।
अजुन ु बोलेः हे कृ षण ! युदकेि मे डटे हुए युद के अिभलाषी इस सवजन-समुदाय को
दे खकर मेरे अंग िशिथल हुए जा रहे है और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर मे कमप और रोमांच हो रहा है ।
गाणडीव ं स ंसत े हसतािवकच ैव पिरदहत े। न च शकनोमयवसथात ुं भ मतीव च म े मन ः।। 30।।
हाथ से गाणडीव धनुष िगर रहा है और तवचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भिमत
हो रहा है , इसिलए मै खडा रहने को भी समथु नहीं हूँ।(30) िनिमतािन च
पशयािम िव परीतािन
न च श े योऽन ुपशयािम हतवा सवजनमाहव
के शव। े।। 31।।
हे केशव ! मै लकणो को भी िवपरीत दे ख रहा हूँ तथा युद मे सवजन-समुदाय को मारकर
कलयाण भी नहीं दे खता। (31) (अनुकम)
न का ंक े िवजय ं कृषण न च राजय ं सुखािन च । िकं नो राजय ेन ग ोिव नद िक ं भो गैजीिवत ेन वा।।
32।।
हे कृ षण ! मै न तो िवजय चाहता हूँ और न राजय तथा सुखो को ही। हे गोिवनद ! हमे
ऐसे राजय से कया पयोजन है अथवा ऐसे भोगो से और जीवन से भी कया लाभ है ? (32) येषामथ े का ंिकत ं नो राज यं भोगा ः स ुखािन च।
त इम े ऽविसथ ता य ुदे पाणा ं सतयिव ा धनािन च ।। 33।।
हमे िजनके िलए राजय, भोग और सुखािद अभीष है , वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को तयागकर युद मे खडे है । (33)
आचाया ु ः िपतर ः प ुिासतथ ैव च िप तामहाः।
मात ुला ः शश ुराः पौिा ः शय ालाः स मब िनधनसत था।। 34।।
गुरजन, ताऊ-चाचे, लडके और उसी पकार दादे , मामे, ससुर, पौि, साले तथा और भी समबनधी लोग है । (34)
एतानन हन तुिम चछािम घ नतोऽिप मध ु सूदन। अिप ि ै लोक यराज यसय ह ेतोः िक ं न ु म हीकृत े।। 35।।
हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनो लोको के राजय के िलए भी मै इन सबको मारना नहीं चाहता, ििर पथृवी के िलए तो कहना ही कया? (35)
िन हतय धा तु राष ानन ः का प ीितः स याजजनाद ु न। पापम ेवा शयेदस मान ् हतव ैतानातताियनः।।
36।।
हे जनादु न ! धत ृ राष के पुिो को मारकर हमे कया पसननता होगी? इन आततािययो को मारकर तो हमे पाप ही लगेगा। (36)
तसमाननाहा ु वय ं हनत ुं ध ातु राषा न ् सवबान धवान।्
सवजन ं िह कथ ं हतवा स ु िखनः सयाम माध
व।। 37।।
अतएव हे माधव ! अपने ही बानधव धत ृ राष के पुिो को मारने के िलए हम योगय नहीं है , कयोिक अपने ही कुटु मब को मारकर हम कैसे सुखी होगे? (37)
यद पयेत े न पशय िनत लोभोपहत चेतस ः।
कुलकयक ृत ं दोष ं िमि दोह े च पातकम। ् । 38।।
कथं न ज ेयमसमा िभः पापादसमा
िननवित ु तुम।्
कुलकयकृत ं दोष ं पपशयिद जु नाद ु न।। 39।।
यदिप लोभ से भषिचत हुए ये लोग कुल के नाश से उतपनन दोष को और िमिो से
िवरोध करने मे पाप को नहीं दे खते, तो भी हे जनादु न ! कुल के नाश से उतपनन दोष को
जाननेवाले हम लोगो को इस पाप से हटने के िलए कयो नहीं िवचार करना चािहए? (अनुकम) कुलक ये पणशयिनत क ुलध माु ः सनातनाः।
धमे नष े कु लं कृतसनमध मोऽिभ भवतय ुत।। 40।। कुल के नाश से सनातन कुलधमु नष हो जाते है , धमु के नाश हो जाने पर समपूणु कुल
मे पाप भी बहुत िैल जाता है ।(40)
अध माु िभ भवातक ृषण पद ु षयिनत क ु लिसयः।
सीष ु द ु षास ु वाषण े य जायत े वण ु संकरः।। 41।।
हे कृ षण ! पाप के अिधक बढ जाने से कुल की िसयाँ अतयनत दिूषत हो जाती है और हे
वाषणय े ! िसयो के दिूषत हो जाने पर वणस ु ंकर उतपनन होता है ।(41)
संकरो नरका यैव कुल घना नां कु लसय च।
पत िनत िपतरो हेषा ं ल ुपिप णडोदकिकयाः।।
42।।
वणस ु ंकर कुलिाितयो को और कुल को नरक मे ले जाने के िलए ही होता है । लुप हुई
िपणड और जल की िकयावाले अथात ु ् शाद और तपण ु से वंिचत इनके िपतर लोग भी अधोगित को पाप होते है ।(42)
दोष ैरेत ै ः कुलघनाना ं वण ु सं करका रकै ः। उतसादनत े जा ितध माु ः कुल धमा ु ि शा शताः।। 43।।
इन वणस ु ंकरकारक दोषो से कुलिाितयो के सनातन कुल धमु और जाित धमु नष हो जाते है । (43)
उत सनकु लधमा ु ण ां मन ुषय ाणा ं जनाद ु न। नरकेऽिनयत ं वासो भ वतीतय नुश ु शु म।। 44।।
हे जनादु न ! िजनका कुलधमु नष हो गया है , ऐसे मनुषयो का अिनिित काल तक नरक मे वास होता है , ऐसा हम सुनते आये है ।
अहो ब त महतपाप ं कत ुा वयव िसता वयम। ्
यदाजयस ुखलोभ ेन ह नतुं सव जनम ुदताः।। 45।।
हा ! शोक ! हम लोग बुिदमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये है , जो राजय और सुख के लोभ से सवजनो को मारने के िलए उदत हो गये है । (45)
यिद मामप तीकारमशस ं श सपाण यः।
धा तु राष ा रण े ह नयुसतन मे क ेमतर ं भव ेत।् । 46।।
यिद मुझ शसरिहत और सामना न करने वाले को शस हाथ मे िलए हुए धत ृ राष के पुि
रण मे मार डाले तो वह मारना भी मेरे िलए अिधक कलयाणकारक होगा। (46) (अनुकम) संजय उ वाच
एवम ुिवाज ु नः स ंखय े रथोपस थ उपािव शत।्
िवस ृ जय सशर ं च ापं शोक संिवगनमानसः।।
47।।
संजय बोलेः रणभूिम मे शोक से उििगन मन वाले अजुन ु इस पकार कहकर, बाणसिहत धनुष को तयागकर रथ के िपछले भाग मे बैठ गये।(47।
ॐ ततसिदित शीमदभगवदगीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे अजुन ु िवषादयोगो नाम पथमोऽधयायः।।1।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशासरप शीमदभगवदगीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'अजुन ु िवषादयोग' नामक पथम अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
द ू सरे अध याय का माहातमय
शी भग वान क हते ह ै - लकमी ! पथम अधयाय के माहातमय का उपाखयान मैने सुना िदया। अब अनय अधयायो के माहातमय शवण करो। दिकण िदशा मे वेदवेता बाहणो के
पुरनदरपुर नामक नगर मे शीमान दे वशमाु नामक एक िविान बाहण रहते थे। वे अितिथयो के पूजक सवाधयायशील, वेद-शासो के िवशेषज, यजो का अनुिान करने वाले और तपिसवयो के सदा ही िपये थे। उनहोने उतम दवयो के िारा अिगन मे हवन करके दीिक ु ाल तक दे वताओं को तप ृ िकया, िकंतु उन धमातुमा बाहण को कभी सदा न रहने वाली शािनत न िमली। वे परम
कलयाणमय तिव का जान पाप करने की इचछा से पितिदन पचुर सामिगयो के िारा सतय संकलपवाले तपिसवयो की सेवा करने लगे। इस पकार शुभ आचरण करते हुए उनके समक एक तयागी महातमा पकट हुए। वे पूणु अनुभवी, शानतिचत थे। िनरनतर परमातमा के िचनतन मे
संलगन हो वे सदा आननद िवभोर रहते थे। दे वशमाु ने उन िनतय सनतुष तपसवी को शुदभाव से
पणाम िकया और पूछाः 'महातमन ! मुझे शािनतमयी िसथती कैसे पाप होगी?' तब उन आतमजानी संत ने दे वशमाु को सौपुर गाम को िनवासी िमिवान का, जो बकिरयो का चरवाहा था, पिरचय िदया और कहाः 'वही तुमहे उपदे श दे गा।'
यह सुनकर दे वशमाु ने महातमा के चरणो की वनदना की और समद ृ शाली सौपुर गाम मे
पहुँचकर उसके उतर भाग मे एक िवशाल वन दे खा। उसी वन मे नदी के िकनारे एक िशला पर िमिवान बैठा था। उसके नेि आननदाितरे क से िनिल हो रहे थे, वह अपलक दिष से दे ख रहा
था। वह सथान आपस का सवाभािवक वैर छोडकर एकिित हुए परसपर िवरोधी जनतुओं से ििरा था। जहाँ उदान मे मनद-मनद वायु चल रही थी। मग ृ ो के झुणड शानतभाव से बैठे थे और
िमिवान दया से भरी हुई आननदमयी मनोहािरणी दिष से पथ ृ वी पर मानो अमत ृ िछडक रहा था। इस रप मे उसे दे खकर दे वशमाु का मन पसनन हो गया। वे उतसुक होकर बडी िवनय के साथ िमिवान के पास गये। िमिवान ने भी पने मसतक को िकंिचत ् नवाकर दे वशमाु का सतकार
िकया। तदननतर िविान दे वशमाु अननय िचत से िमिवान के समीप गये और जब उसके धयान
का समय समाप हो गया, उस समय उनहोने अपने मन की बात पूछीः 'महाभाग ! मै आतमा का (अनुकम)
जान पाप करना चाहता हूँ। मेरे इस मनोरथ की पूितु के िलए मुझे िकसी उपाय का
उपदे श कीिजए, िजसके िारा िसिद पाप हो चुकी हो।'
दे वशमाु की बात सुनकरक िमिवान ने एक कण तक कुछ िवचार िकया। उसके बाद इस
पकार कहाः 'िविन ! एक समय की बात है । मै वन के भीतर बकिरयो की रका कर रहा था। इतने मे ही एक भयंकर वयाघ पर मेरी दिष पडी, जो मानो सब को गस लेना चाहता था। मै
मतृयु से डरता था, इसिलए वयाघ को आते दे ख बकिरयो के झुंड को आगे करके वहाँ से भाग
चला, िकंतु एक बकरी तुरनत ही सारा भय छोडकर नदी के िकनारे उस बाि के पास बेरोकटोक चली गयी। ििर तो वयाघ भी िे ष छोडकर चुपचाप खडा हो गया। उसे इस अवसथा मे दे खकर बकरी बोलीः 'वयाघ ! तुमहे तो अभीष भोजन पाप हुआ है । मेरे शरीर से मांस िनकालकर
पेमपूवक ु खाओ न ! तुम इतनी दे र से खडे कयो हो? तुमहारे मन मे मुझे खाने का िवचार कयो नहीं हो रहा है ?'
वय ाघ बोलाः
बकरी ! इस सथान पर आते ही मेरे मन से िे ष का भाव िनकल गया।
भूख पयास भी िमट गयी। इसिलए पास आने पर भी अब मै तुझे खाना नहीं चाहता।
वयाघ के यो कहने पर बकरी बोलीः 'न जाने मै कैसे िनभय ु हो गयी हूँ। इसका कया
कारण हो सकता है ? यिद तुम जानते हो तो बताओ।' यह सुनकर वयाघ ने कहाः 'मै भी नहीं जानता। चलो सामने खडे हुए इन महापुरष से पुछे।' ऐसा िनिय करके वे दोनो वहाँ से चल
िदये। उन दोनो के सवभाव मे यह िविचि पिरवतन ु दे खकर मै बहुत िवसमय मे पडा था। इतने
मे उनहोने मुझसे ही आकर पश िकया। वहाँ वक ृ की शाखा पर एक वानरराज था। उन दोनो स ्
साथ मैने भी वानरराज से पूछा। िवपवर ! मेरे पूछने पर वानरराज ने आदरपूवक ु कहाः 'अजापाल! सुनो, इस िवषय मे मै तुमहे पाचीन वत ृ ानत सुनाता हूँ। यह सामने वन के भीतर जो बहुत बडा
मिनदर है , उसकी ओर दे खोष इसमे बहाजी को सथािपत िकया हुआ एक िशविलंग है । पूवक ु ाल मे यहाँ सुकमाु नामक एक बुिदमान महातमा रहते थे, जो तपसया मे संलगन होकर इस मिनदर मे
उपासना करते थे। वे वन मे से िूलो का संगह कर लाते और नदी के जल से पूजनीय भगवान शंकर को सनान कराकर उनहीं से उनकी पूजा िकया करते थे। इस पकार आराधना का कायु
करते हुए सुकमाु यहाँ िनवास करते थे। इस पकार आराधना का कायु करते हुए सुकमाु यहाँ
िनवास करते थे। बहुत समय के बाद उनके समीप िकसी अितिथ का आगमन हुआ। सुकमाु ने भोजन के िलए िल लाकर अितिथ को अपण ु िकया और कहाः 'िविन ! मै केवल तिवजान की
इचछा से भगवान शंकर की आराधना करता हूँ। आज इस आराधना का िल पिरपकव होकर मुझे िमल गया कयोिक इस समय आप जैसे महापुरष ने मुझ पर अनुगह िकया है । (अनुकम)
सुकमाु के ये मधुर वचन सुनकर तपसया के धनी महातमा अितिथ को बडी पसननता हुई।
उनहोने एक िशलाखणड पर गीता का दस ू रा अधयाय िलख िदया
और बाहण को उसके पाठ और
अभयास के िलए आजा दे ते हुए कहाः 'बहन ् ! इससे तुमहारा आतमजान-समबनधी मनोरथ अपने-
आप सिल हो जायेगा।' यह कहकर वे बुिदमान तपसवी सुकमाु के सामने ही उनके दे खते-दे खते अनतधान ु हो गये। सुकमाु िविसमत होकर उनके आदे श के अनुसार िनरनतर गीता के िितीय अधयाय का अभयास करने लगे। तदननतर दीिक ु ाल के पिात ् अनतःकरण शुद होकर उनहे
आतमजान की पािप हुई ििर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँ का तपोवन शानत हो गया। उनमे शीतउषण और राग-िे ष आिद की बाधाएँ दरू हो गयीं। इतना ही नहीं, उन सथानो मे भूख-पयास का
कष भी जाता रहा तथा भय का सवथ ु ा अभाव हो गया। यह सब िितीय अधयाय का जप करने वाले सुकमाु बाहण की तपसया का ही पभाव समझो।
िम िवान क हता ह ैः वानरराज के यो कहने पर मै पसननता पूवक ु बकरी और वयाघ के
साथ उस मिनदर की ओर गया। वहाँ जाकर िशलाखणड पर िलखे हुए गीता के िितीय अधयाय को मैने दे खा और पढा। उसी की आविृत करने से मैने तपसया का पार पा िलया है । अतः
भदपुरष ! तुम भी सदा िितीय अधयाय की ही आविृत िकया करो। ऐसा करने पर मुिि तुमसे दरू नहीं रहे गी।
शीभ गवान क हते ह ै - िपये ! िमिवान के इस पकार आदे श दे ने पर दे वशमाु ने उसका
पूजन िकया और उसे पणाम करके पुरनदरपुर की राह ली। वहाँ िकसी दे वालय मे पूवोि
आतमजानी महातमा को पाकर उनहोने यह सारा वत ृ ानत िनवेदन िकया और सबसे पहले उनहीं से िितीय अधयाय को पढा। उनसे उपदे श पाकर शुद अनतःकरण वाले दे वशमाु पितिदन बडी शदा के साथ िितीय अधयाय का पाठ करने लगे। तबसे उनहोने अनवद (पशंसा के योगय) परम पद को पाप कर िलया। लकमी ! यह िितीय अधयाय का उपाखयान कहा गया।
द ू सरा अधयायः सा ंखययोग
पहले अधयाय मे गीता मे कहे हुए उपदे श की पसतावना रप दोनो सेनाओं के महारिथयो
की तथा शंखधविनपूवक ु अजुन ु का रथ दोनो सेनाओं के बीच खडा रखने की बात कही गयी। बाद मे दोनो सेनाओं मे खडे अपने कुटु मबी और सवजनो को दे खकर, शोक और मोह के कारण अजुन ु युद करने से रक गया और अस-शस छोडकर िवषाद करने बैठ गया। यह बात कहकर उस अधयाय की समािप की। बाद मे भगवान शीकृ षण ने उनहे िकस पकार ििर से युद के िलए
तैयार िकया, यह सब बताना आवशयक होने से संजय अजुन ु की िसथित का वणन ु करते हुए दस ू रा अधयाय पारं भ करता है । (अनुकम)
।। अथ िित ीयोऽध या यः ।। संजय उ वाच
तं तथा क ृपयािवषमश ु पूणा ु कुल ेकणम।्
िवषीद नतिम दं वाकयम ुवाच म धुस ूदनः।। 1।।
संजय बोलेः उस पकार करणा से वयाप और आँसूओं से पूणु तथा वयाकुल नेिो वाले शोकयुि उस अजुन ु के पित भगवान मधुसूदन ने ये वचन कहा।(1) शीभगवान ुवाच
कुतसतवा कश मलिम दं िवषम े सम ुपिसथ तम।् अना यु जुष मसवगय ु मकीित ु करमज ु न।। 2।।
कलैबय ं म ा सम गम ः पाथ ु नैतिव ययुपपदत े। कुद ं हदयदौब ु लयं तयिवोिति
पर ं तप।। 3।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन ु ! तुझे इस असमय मे यह मोह िकस हे तु से पाप हुआ?
कयोिक न तो यह शि े पुरषो िारा आचिरत है , न सवगु को दे ने वाला है और न कीितु को करने वाला ही है । इसिलए हे अजुन ु ! नपुंसकता को मत पाप हो, तुझमे यह उिचत नहीं जान पडती। हे परं तप ! हदय की तुचछ दब ु ता को तयागकर युद के िलए खडा हो जा। (2,3) ु ल अजुु न उ वाच
कथं भीष ममह ं स ंखय े दोण च इषुिभ ः पितयोतसयािम प
मध ु सूदन।
ू जाहा ु विरस ूदन।। 4।।
अजुन ु बोलेः हे मधुसूदन ! मै रणभूिम मे िकस पकार बाणो से भीषम िपतामह और दोणाचायु के िवरद लडू ँ गा? कयोिक हे अिरसूदन ! वे दोनो ही पूजनीय है ।(4) गुरनहतवा
िह म हा नुभावा -
ञछेयो भोि ुं भ ैकयमपीह लोक े। हतवाथ ु काम ांसत ु ग ुरिनह ैव
भुंजीय भोगान ् रिधरप िदगधान। ् ।5।।
इसिलए इन महानुभाव गुरजनो को न मारकर मै इस लोक मे िभका का अनन भी खाना कलयाणकारक समझता हूँ, कयोिक गुरजनो को मारकर भी इस लोक मे रिधर से सने हुए अथु और कामरप भोगो को ही तो भोगूँगा।(5)
न चैत ििदः कतरननो गरीयो
यिा ज येम यिद वा नो जय यान ेव हतवा न
ेय ु ः।
िजजी िवषाम -
सते ऽविसथ ताः प मुख े धात ु राषाः।। 6।। हम यह भी नहीं जानते िक हमारे िलए युद करना और न करना – इन दोनो मे से
कौन-सा शि े है , अथवा यह भी नहीं जानते िक उनहे हम जीतेगे या हमको वे जीतेगे और िजनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आतमीय धत ृ राष के पुि हमारे मुकाबले मे खडे है । (6) (अनुकम)
काप ु णदोषोपहतसवभाव
ः
पृ चछा िम तवा ं ध मु स ममूढच ेता ः। यचछेयः सयािनन िित ं ब ू िह त नमे
िशषयसत ेऽह ं शा िि मा ं तव ां पप ननम।् । 7।। इसिलए कायरतारप दोष से उपहत हुए सवभाववाला तथा धमु के िवषय मे मोिहत िचत
हुआ मै आपसे पूछता हूँ िक जो साधन िनिित कलयाणकारक हो, वह मेरे िलए किहए कयोिक मै आपका िशषय हूँ, इसिलए आपके शरण हुए मुझको िशका दीिजए।
न िह पपशय ािम ममापन ुदा -
दचछोकम ुच छोषणिम िनदयाणाम। ् अवापय भ ूमाव सपतम ृ दं -
राजय ं सुराण ाम िप चािध पतयम।् ।8।।
कयोिक भूिम मे िनषकणटक, धन-धानयसमपनन राजय को और दे वताओं के सवामीपने को पाप होकर भी मै उस उपाय को नहीं दे खता हूँ, जो मेरी इिनदयो को सुखाने वाले शोक को दरू कर सके।
संजय उ वाच
एव मुिवा हिषक े शं ग ुडाके शः परन तप। न योतस य इ ित गोिव नदम ुिवा त ूषण ीं बभ ूव ह।। 9।।
संजय बोलेः हे राजन ! िनदा को जीतने वाले अजुन ु अनतयाम ु ी शीकृ षण महाराज के पित इस पकार कहकर ििर शी गोिवनद भगवान से 'युद नहीं करँगा' यह सपष कहकर चुप हो गये। (9) तमुवा च हिषक े शः प हसिनन व भारत। सेनयोरभयोम ु धये िवषीदनत िमद ं वच ः।। 10।।
हे भरतवंशी धत ृ राष ! अनतयाम ु ी शीकृ षण महाराज ने दोनो सेनाओं के बीच मे शोक करते हुए उस अजुन ु को हँ सते हुए से यह वचन बोले।(10)
शी भ गवान ुवाच
अशोचया ननव शोचसतव ं पजावादा ं ि भाषस े।
गतास ूनगता सूंि ना नुशो चिनत प िणडताः।। 11।। शी भगवान बोलेः हे अजुन ु ! तू न शोक करने योगय मनुषयो के िलए शोक करता है और
पिणडतो के जैसे वचनो को कहता है , परनतु िजनके पाण चले गये है , उनके िलए और िजनके पाण नहीं गये है उनके िलए भी पिणडतजन शोक नहीं करते। (11) (अनुकम) न तव ेवाह ं जात ु नास ं न तव ं न े मे जनािधपाः।
न च ैव न भ िवषयामः स वे वयमतः परम। ् ।12।।
न तो ऐसा ही है िक मै िकसी काल मे नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है िक इससे आगे हम सब नहीं रहे गे।(12)
देिहनो ऽिसम नयथा द ेहे कौमार ं यौव नं जरा।
तथा द े हानतरपािपधीरसति न म
ु हित।। 13।।
जैसे जीवातमा की इस दे ह मे बालकपन, जवानी और वद ृ ावसथा होती है , वैसे ही अनय शरीर की पािप होती है , उस िवषय मे धीर पुरष मोिहत नहीं होता।
मा िासपशा ु सतु कौनत ेय शीतोषणस ुखद ु ःखदाः।
आगमापाियनोऽिनतयासता
ंिसत ित कसव भारत।। 14।।
हे कुनतीपुि ! सदी-गमी और सुख-दःुख दे ने वाले इिनदय और िवषयो के संयोग तो
उतपित-िवनाशशील और अिनतय है , इसिलए हे भारत ! उसको तू सहन कर।(14) यं
िह न वयथयनतय ेत े प ुर षं प ुरषष ु भ।
समद ु ःख सुख ं धीर ं सोऽ मृ ततवाय क लपत े।। 15।।
कयोिक हे पुरषशि े ! दःुख-सुख को समान समझने वाले िजस धीर पुरष को ये इिनदय
और िवषयो के संयोग वयाकुल नहीं करते, वह मोक के योगय होता है ।(15) नासतो िवदत े भावो नाभाव
ो िवदत े स तः।
उभयो रिप दषोऽन तसतवन योसतिवद िश ु िभ ः।। 16।।
असत ् वसतु की सता नहीं है और सत ् का अभाव नहीं है । इस पकार तिवजानी पुरषो
िारा इन दोनो का ही तिव दे खा गया है । (16)
अिवनाश त ु तिििद य ेन सव ु िमद ं त तम।्
िवनाशमवययस यासय न क िितकत ु महु ित ।। 17।।
नाशरिहत तो तू उसको जान, िजससे यह समपूणु जगत दशयवगु वयाप है । इस अिवनाशी का िवनाश करने मे भी कोई समथु नहीं है । (17)
अनतवन त इम े द ेहा िनतयसयोिाः शरीरणः।
अनािशनोऽपम ेयसय तसमाद ुधयसव भारत।।
18।।
इस नाशरिहत, अपमेय, िनतयसवरप जीवातमा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये है । इसिलए हे भरतवंशी अजुन ु ! तू युद कर। (18)
य एन ं व ेित हन तार ं यि ैन ं मन यते ह तम।्
उभौ तौ न िवजानीतो
नाय ं हिनत
न हनयत े।। 19।।
जो उस आतमा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है , वे दोनो ही नहीं जानते, कयोिक यह आतमा वासतव मे न तो िकसी को मारता है और न िकसी के िारा मारा जाता है ।(अनुकम)
न जायत े िियत े वा कदा िच -
नना यं भ ूतवा भ िवता वा
न भ ूय ः।
अजो िनतय ः शाशतोऽय ं प ुराणो
न ह नयत े हनयमा ने शरीर े।। 20।। यह आतमा िकसी काल मे भी न तो जनमता है और न मरता ही है तथा न यह उतपनन
होकर ििर होने वाला ही है कयोिक यह अजनमा, िनतय, सनातन और पुरातन है । शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है ।
वेदािवना िशन ं िनतय ं य एनमज मवय यम।्
कथं स पुरषः पा थु कं िातयित ह िनत क म।् । 21।।
हे पथ ृ ापुि अजुन ु ! जो पुरष इस आतमा को नाशरिहत िनतय, अजनमा और अवयय जानता है , वह पुरष कैसे िकसको मरवाता है और कैसे िकसको मारता है ? (21) वास ांिस जीणा ु िन य था िवहाय
नवािन ग ृ हणा ित नर ोऽ परािण। तथा शरीरािण िवहाय जीणा
नयनयािन
संयाित नवािन
ु-
देही।। 22।।
जैसे मनुषय पुराने वसो को तयागकर दस ू रे नये वसो को गहण करता है , वैसे ही
जीवातमा पुराने शरीरो को तयागकर दस ू रे नये शरीरो को पाप होता है । (22) नैन िछद िनत शसा िण न ै नं दह ित पावक ः
न च ैन ं कल ेयनतयापो न
श ोषयित मारत ः।। 23।।
इस आतमा को शस काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।
अचछेदोऽयम दाहोऽयमकल ेदोऽशोषय एव च।
िनतयः स वु गत ः सथान ुरचलो ऽयं सनातनः।। 24।।
कयोिक यह आतमा अचछे द है , यह आतमा अदाहा, अकलेद और िनःसंदेह अशोषय है तथा यह आतमा िनतय, सववुयािप, अचल िसथर रहने वाला और सनातन है । (24) अवयिोऽयम िचन तयोऽयमिवकायोऽयम
ुचयत े।
तसमाद ेव ं िविदतव ैन ं नान ुशोिच तुमह ु िस।। 25।।
यह आतमा अवयि है , यह आतमा अिचनतय है और यह आतमा िवकाररिहत कहा जाता है । इससे हे अजुन ु ! इस आतमा को उपयुि ु पकार से जानकर तू शोक करने के योगय नहीं है अथात ु ् तुझे शोक करना उिचत नहीं है । (25) (अनुकम)
अथ च ैन ं िनतयजात ं िनतय ं वा म नयस े म ृ तम।् तथािप तव ं म हाबाहो
नैव ं शो िचत ुमह ु िस।। 26।।
िकनतु यिद तू इस आतमा को सदा जनमनेवाला तथा सदा मरने वाला मानता है , तो भी हे महाबाहो ! तू इस पकार शोक करने को योगय नहीं है । (26)
जातसय िह ध ुवो म ृ तयुध ु वं जन म म ृ तसय च।
तसमादपिर हाय े ऽथे न तव ं शो िचत ु महु िस ।। 27।।
कयोिक इस मानयता के अनुसार जनमे हुए की मतृयु िनिित है और मरे हुए का जनम
िनिित है । इससे भी इस िबना उपाय वाले िवषम मे तू शोक करने के योगय नहीं है । (27) अवयिाद ीिन भ ू तािन वयिमधयािन
भारत।
अवयििनधनानय ेव त ि का पिरद ेवना।। 28।।
हे अजुन ु ! समपूणु पाणी जनम से पहले अपकट थे और मरने के बाद भी अपकट हो जाने वाले है , केवल बीच मे ही पकट है ििर ऐसी िसथित मे कया शोक करना है ? (28) आिय ु वतपशयित क ििद ेन -
मा िय ु विदित त थैव चा नयः। आिय ु वचच ैनम नयः श ु णो ित
शु तवापय ेन ं वेद न च ैव किि त।् । 29।।
कोई एक महापुरष ही इस आतमा को आियु की भाँित दे खता है और वैसे ही दस ू रा कोई
महापुरष ही इसके तिव का आियु की भाँित वणन ु करता है तथा दस ू रा कोई अिधकारी पुरष ही इसे आियु की भाँित सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता। (29) दे ही िनतयमवधयोऽय ं देहे स वु सय भ ारत।
तसमातसवा ु िण भ ूतािन न तव ं शोिच तुम हु िस।। 30।। हे अजुन ु ! यह आतमा सबके शरीरो मे सदा ही अवधय है । इस कारण समपूणु पािणयो के
िलए तू शोक करने के योगय नहीं है । (30)
सवध मु म िप चाव ेकय न िवकिमप तुमह ु िस।
धम ् याु िद य ुदाचछ ेयोऽनयतक िियसय न िवदत े।। 31।।
तथा अपने धमु को दे खकर भी तू भय करने योगय नहीं है अथात ु ् तुझे भय नहीं करना
चािहए कयोिक कििय के िलए धमय ु ुि युद से बढकर दस ू रा कोई कलयाणकारी कतवुय नहीं है । (31) यदचछया चोपप ननं सव गु िारमपाव ृ तम।् सुिखन ः किियाः पा थु लभ नते य ुदमीदशम। ् ।32।।
हे पाथु ! अपने आप पाप हुए और खुले हुए सवगु के िाररप इस पकार के युद को
भागयवान कििय लोग ही पाते है । (32) (अनुकम)
अथ च ेिव िमम ं ध म ् या संगा मं न क िरषयिस।
ततः सव धम ा की ित ा च िहतवा पापमवापसयिस।।
33।।
िकनतु यिद तू इस धमय ु ुि युद को नहीं करे गा तो सवधमु और कीितु को खोकर पाप को पाप होगा।(33)
अकीित ा च ािप भ ूतािन कथ ियषयिनत त े ऽवय याम।् समभािवत सय चा कीित ु मु रणाद ितिरचयत े।। 34।।
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीितु भी कथन करे गे और माननीय
पुरष के िलए अपकीितु मरण से भी बढकर है ।(34)
भयादणा द ु परत ं म ंसयनत े तवा ं म हारथाः।
येष ां च तव ं ब हुमतो भ ूतवा यासयिस लािवम।
् । 35।.
और िजनकी दिष मे तू पहले बहुत सममािनत होकर अब लिुता को पाप होगा, वे
महारथी लोग तुझे भय के कारण युद मे हटा हुआ मानेगे।(35) अवाचयवादा ंि ब हून ् विदषयिनत
तवािह ताः।
िन नदनत सतव सामथय ा ततो द ु ःखतर ं न ु िकम।् । 36।।
तेरे वैरी लोग तेरे सामथयु की िननदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योगय वचन भी
कहे गे। उससे अिधक दःुख और कया होगा?(36) हतो व पापसयिस सव
गा िजतवा वा भोकयस
े मही म।्
तस माद ु िति कौनत ेय य ुदा य कृतिन ियः।। 37।।
या तो तू युद मे मारा जाकर सवगु को पाप होगा अथवा संगाम मे जीतकर पथ ृ वी का राजय भोगेगा। इस कारण हे अजुन ु ! तू युद के िलए िनिय करके खडा हो जा।(37) सुखद ु ःखे स मे कृतवा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो य ुद ाय य ुज यसव न ैव ं पापमवापसयिस।।
38।।
जय-पराजय, लाभ-हािन और सुख-दःुख को समान समझकर, उसके बाद युद के िलए तैयार
हो जा। इस पकार युद करने से तू पाप को नहीं पाप होगा।(38)
एषा त ेऽ िभिह ता सा ंख ये ब ुिदयोग े ितवम ां श ृणु।
बुदय ा य ुिो यया पा थु कम ु ब नधं प हासयिस।। 39।।
हे पाथु ! यह बुिद तेरे िलए जानयोग के िवषय मे कही गयी और अब तू इसको कमय ु ोग के िवषय मे सुन, िजस बुिद से युि हुआ तू कमो के बनधन को भलीभाँित तयाग दे गा अथात ु ् सवथ ु ा नष कर डालेगा।(39)
नेहा िभक मन ाशो ऽिसत प तयव ायो न िवदत े।
सवलपमपयसय धम ु सय िायत े मह तो भयात।् ।40।। इस कमय ु ोग मे आरमभ का अथात ु ् बीज का नाश नहीं है और उलटा िलरप दोष भी
नहीं है , बिलक इस कमय ु ोगरप धमु का थोडा सा भी साधन जनम मतृयुरप महान भय से रका कर लेता है । (40) (अनुकम)
वयवसायाितमका ब
ुिदर ेकेह कु रननदन।
बहुशाखा ह ननताि ब ुदयोऽवयवसाियनाम। ् । 41।।
हे अजुन ु ! इस कमय ु ोग मे िनियाितमका बुिद एक ही होती है , िकनतु अिसथर िवचार वाले िववेकहीन सकाम मनुषयो की बुिदयँ िनिय ही बहुत भेदोवाली और अननत होती है ।(41) यािमम ां प ुिषपत ां वाच ं पव दनतयिवप िित ः।
वेदवादरताः पाथ
ु नानयदसतीित वा
िदनः।। 42।।
कामातमानः स वगु परा ज नम कम ु िलप दाम।् िकयािव शेषबह ु ल ां भोग ै शगु ितं पित।। 43।। भोग ैशय ु पसिाना ं तयापहत चेतसाम।्
वयवसायाितमका ब
ुिद ः समा धौ न िवधीयत े।। 44।।
हे अजुन ु ! जो भोगो मे तनमय हो रहे है , जो कमि ु ल के पशंसक वेदवाकयो मे ही पीित रखते है , िजनकी बुिद मे सवगु ही परम पापय वसतु है और जो सवगु से बढकर दस ू री कोई वसतु ही नहीं है - ऐसा कहने वाले है , वे अिववेकी जन इस पकार की िजस पुिषपत अथात ु ् िदखाऊ
शोभायुि वाणी को कहा करते है जो िक जनमरप कमि ु ल दे ने वाली और भोग तथा ऐशयु की
पािप के िलए नाना पकार की बहुत सी िकयाओं का वणन ु करने वाली है , उस वाणी िारा िजनका िचत हर िलया गया है , जो भोग और ऐशयु मे अतयनत आसि है , उन पुरषो की परमातमा मे िनियाितमका बुिद नहीं होती। (42, 43, 44)
िै गुणयिव षय ा व ेदा िनस ै गुणयो भवाज ु न।
िनि ु निो िनतयसिवस
थो िनयोगक ेम आतमवान। ् ।45।।
हे अजुन ु ! वेद उपयुि ु पकार से तीनो गुणो के कायर ु प समसत भोगो और उनके साधनो
का पितपादन करने वाले है , इसिलए तू उन भोगो और उनके साधनो मे आसििहीन, हषु-शोकािद िनिो से रिहत, िनतयवसतु परमातमा मे िसथत योग-केम को न चाहने वाला और सवाधीन अनतःकरण वाला हो।(45)
याव ारनथ ु उदपा ने सव ु त ः समपल ुतोदके।
तावान ् सवे षु व ेदेष ु बाहणसय िवजानतः।।
46।।
सब ओर से पिरपूणु जलाशय के पाप हो जाने पर छोटे जलाशय मे मनुषय का िजतना
पयोजन रहता है , बह को तिव से जानने वाले बाहण का समसत वेदो मे उतना ही पयोजन रह जाता है ।(46)
कमु ण येवािध कारसत े मा ि लेष ु कदाचन। मा कम ु ि लहेत ूभ ूु मा त े स ङगोऽसतवक मु िण।। 47।।
तेरा कमु करने मे ही अिधकार है , उनके िलो मे कभी नहीं। इसिलए तू कमो के िल का हे तु मत हो तथा तेरी कमु न करने मे भी आसिि न हो।(47) (अनुकम)
योगसथ ः कुर कमा ु िण स ङगं तयिवा धन ंजय। िसदयिसदयोः समो भ
ूतवा स मतव ं योग उचयत े।। 48।।
हे धनंजय ! तू आसिि को तयाग कर तथा िसिद और अिसिद मे समान बुिदवाला होकर योग मे िसथत हुआ कतवुयकमो को कर, समतवभाव ही योग कहलाता है । (48) द ू रेण ह वरं कम ु बु िदय ोगादन ंजय।
बुदो शरण मिनव चछ कृपणा ः िलह ेतव ः।। 49।।
इस समतव बुिदयोग से सकाम कमु अतयनत ही िनमन शण े ी का है । इसिलए हे धनंजय ! तू समबुिद मे ही रका का उपाय ढू ँ ढ अथात ु ् बुिदयोग का ही आशय गहण कर, कयोिक िल के हे तु बनने वाले अतयनत दीन है ।(49)
बुिदय ुिो जहातीह उ भे स ुकृतद ु ष कृत े।
तसमादोगाय
युजयसव योगः कम
ु सु कौश लम।् ।50।।
समबुिदयुि पुरष पुणय और पाप दोनो को इसी लोग मे तयाग दे ता है अथात ु ् उनसे मुि
हो जाता है । इससे तू समतवरप योग मे लग जा। यह समतवरप योग ही कमो मे कुशलता है अथात ु ् कमब ु नधन से छूटने का उपाय है ।(50)
कम ु जं ब ु िदय ुिा िह िल ं तयिवा मनीिषणः।
जनमब नध िविनम ु िाः प दं गच छनतयनामयम। ् । 51।।
कयोिक समबुिद से युि जानीजन कमो से उतपनन होने वाले िल को तयागकर जनमरप बनधन से मुि हो िनिवक ु ार परम पद को पाप हो जाते है ।(51)
यदा ते मो हकिल लं ब ुिदवय ु ितत िरषयित।
तदा ग नता िस िनव े दं श ोतवयस य श ु तसय च ।। 52।।
िजस काल मे तेरी बुिद मोहरप दलदल को भली भाँित पार कर जायेगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने मे आने वाले इस लोक और परलोकसमबनधी सभी भोगो से वैरागय को पाप हो जायेगा।(52)
शु ित िवप ितपनना त े यदा स थासयित िनि ला।
समाधावच ला ब ुिदसतदा योगवापसयिस।।
53।।
भाँित-भाँित के वचनो को सुनने से िवचिलत हुई तेरी बुिद जब परमातमा मे अचल और
िसथर ठहर जायेगी, तब तू योग को पाप हो जायेगा अथात ु ् तेरा परमातमा से िनतय संयोग हो जायेगा।(अनुकम)
अजुु न उ वाच िसथत पजसय का भाषा स मािध सथसय क ेशव।
िसथत धीः िकं पभाष ेत िकमासीत वज ेत िकम।् । 54।।
अजुन ु बोले हे केशव ! समािध मे िसथत परमातमा को पाप हुए िसथरबुिद पुरष का कया
लकण है ? वह िसथरबुिद पुरष कैसे बोलता है , कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?(54) शीभगवान ुवाच
पज हाित यदा कामानसवा
आत मन येवातमना
ु नपाथ ु मनोगतान। ्
तुष ः िसथ तपजसतदोचयत े।। 55।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन ु ! िजस काल मे यह पुरष मन मे िसथत समपूणु कामनाओं को
भली भाँित तयाग दे ता है और आतमा से आतमा मे ही संतुष रहता है , उस काल मे वह िसथतपज कहा जाता है ।(55)
द ु ःखेषवन ुििगनमन ाः स ुख ेष ु िवग तसप ृ ह ः।
वीतरागभयकोध ः िसथत धीम ु िनरचयत े।। 56।।
दःुखो की पािप होने पर िजसके मन पर उिे ग नहीं होता, सुखो की पािप मे जो सवथ ु ा
िनःसपह ृ है तथा िजसके राग, भय और कोध नष हो गये है , ऐसा मुिन िसथरबुिद कहा जाता है । यः स वु िानिभस नेहसतततपापय
शुभाश ु भम।्
नािभन नदित न िेिष तसय पजा पित ििता।। 57।।
जो पुरष सवि ु सनेह रिहत हुआ उस उस शुभ या अशुभ वसतु को पाप होकर न पसनन
होता है और न िे ष करता है उसकी बुिद िसथर है । (57)
यदा संहरत े चाय ं कूमोऽङ गनीव स वु श ः।
इिनद याणीिनदया थेभयसतसय पजा
प ित ििता।। 58।।
और जैसे कछुवा सब ओर से अपने अंगो को समेट लेता है , वैसे ही जब यह पुरष इिनदयो के िवषयो से इिनदयो के सब पकार से हटा लेता है , तब उसकी बुिद िसथर है । (ऐसा समझना चािहए)।
िवषया
िविनवत ु नते िनराहारस य द े िहनः।
रसव जा रसोऽपयसय
पर ं दषटवा िनवत ु ते।। 59।।
इिनदयो के िारा िवषयो को गहण न करने वाले पुरष के भी केवल िवषय तो िनवत ृ ् हो
जाते है , परनतु उनमे रहने वाली आसिि िनवत ृ नहीं होती। इस िसथतपज पुरष की तो आसिि भी परमातमा का साकातकार करके िनवत ृ हो जाती है । (59)
यततो ह िप कौ नतेय पु रषसय िवप िित ः।
इिनदयािण प माथीिन हरिनत
पस भं मनः।। 60।।
हे अजुन ु ! आसिि का नाश न होने के कारण ये पमथन सवभाव वाली इिनदयाँ यत करते हुए बुिदमान पुरष के मन को भी बलात ् हर लेती है ।(60) (अनुकम)
तािन स वाु िण स ंयमय य ुि आ सीत मतपरः।
वशे िह यस येिनदयािण त सय पजा प ितिि ता।। 61।।
इसिलए साधक को चािहए िक वह उन समपूणु इिनदयो को वश मे करके समािहतिचत हुआ मेरे परायण होकर धयान मे बैठे, कयोिक िजस पुरष की इिनदयाँ वश मे होती है , उसी की बुिद िसथर हो जाती है । (61)
धयायत े िवषयानप ुंसः स ङगसत ेष ूप जायत े।
सङगातस ं जायत े काम ः कामातकोधोऽ
िभजायत े।। 62।।
िवषयो का िचनतन करने वालेप ुरष की उन िवषयो मे आसिि हो जाती है , आसिि से उन
िवषयो की कामना उतपनन होती है और कामना मे िवघन पडने से कोध उतपनन होता है ।(62) को धाद भ वित सममोह ः सम मोहातसम ृ ित िवभ मः।
सम ृ ितभ ं शाद बुिदनाशो
बु िदनाशातपण शयित।। 63।।
कोध से अतयनत मूढभाव उतपनन हो जाता है , मूढभाव से समिृत मे भम हो जाता है ,
समिृत मे भम हो जाने से बुिद अथात ु ् जानशिि का नाश हो जाता है और बुिद का नाश हो जाने से यह पुरष अपनी िसथित से िगर जाता है ।(63)
रागि ेषिवय ुिैसत ु िवषयािनिनदय ै िर न।्
आत मवशय ैिव ु धेयातमा
प सादम िधग चछित।। 64।।
परनतु अपने अधीन िकये हुए अनतः करणवाला साधक अपने वश मे की हुई, राग-िे ष से
रिहत इिनदयो िारा िवषयो मे िवचरण करता हुआ अनतःकरण की पसननता को पाप होता है । (64) पसाद े सव ु द ु ःखा नां हा िनरसय ोपजायत े। पस ननच ेतसो हाश ु ब ु िदः पय ु व ितित े।। 65।।
अनतःकरण की पसननता होने पर इसके समपूणु दःुखो का अभाव हो जाता है और उस
पसनन िचतवाले कमय ु ोगी की बुिद शीघ ही सब ओर से हटकर परमातमा मे ही भली भाँित िसथर हो जाती है ।(65)
नािसत ब ु िदर युिसय न
च ायुिसय भावना।
न च ाभावयतः शा िनतर शानतसय क ुत ः स ुखम।् । 66।।
न जीते हुए मन और इिनदयो वाले पुरष मे िनियाितमका बुिद नहीं होती और उस
अयुि मनुषय के अनतःकरण मे भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुषय को शािनत नहीं िमलती और शािनतरिहत मनुषय को सुख कैसे िमल सकता है ?(66) (अनुकम) इिनदयाणा ं िह चरत ां यनमनोऽन ु िवधीयत े।
तद सय हर ित पजा ं वाय ुना ु विमवामभ िस।। 67।। कयोिक जैसे जल मे चलने वाली नाव को वायु हर लेती है , वैसे ही िवषयो मे िवचरती हुई
इिनदयो मे से मन िजस इिनदय के साथ रहता है वह एक ही इिनदय इस अयुि पुरष की बुिद को हर लेती है ।(67)
तसमादसय महाबाहो िनग
ृ हीतािन स वु श ः।
इिनद याणीिनदया थेभयसतसय पजा
प ित ििता।। 68।।
इसिलए हे महाबाहो ! िजस पुरष की इिनदयाँ इिनदयो के िवषयो से सब पकार िनगह की हुई है , उसी की बुिद िसथर है ।(68)
या िन शा सव ु भूताना ं त सया ं जाग ित ु संयमी।
यसया ं जाग ित भ ू तािन स ा िनशा पशयतो
मुन े ः।। 69।।
समपूणु पािणयो के िलए जो रािि के समान है , उस िनतय जानसवरप परमाननद की पािप मे िसथतपज योगी जागता है और िजन नाशवान सांसािरक सुख की पािप मे सब पाणी जागते है , परमातमा के तिव को जानने वाले मुिन के िलए वह रािि के समान है । आपूय ु माणम चलप िति ं
समुदमाप ः पिव शिनत यित।् तितकामा य ं पिव शिनत सव े
स शािनत मापनोित न कामकामी।।
70।।
जैसे नाना निदयो के जल सब ओर से पिरपूणु अचल पितिावाले समुद मे उसको
िवचिलत न करते हुए ही समा जाते है , वैसे ही सब भोग िजस िसथतपज पुरष मे िकसी पकार
का िवकार उतपनन िकये िबना ही समा जाते है , वही पुरष परम शािनत को पाप होता है , भोगो को चाहने वाला नहीं। (70)
िव हा य कामानय ः सवा ु नपु मांिर ित िनः सप ृ हः।
िनम ु मो िनरह ंकारः स
शािनत मिधग चछ ित।। 71।।
जो पुरष समपूणु कामनाओं को तयागकर ममतारिहत, अहं कार रिहत और सपह ृ रिहत हुआ
िवचरता है , वही शािनत को पाप होता है अथात ु ् वह शािनत को पाप है ।(71) एषा बाही िसथ
िसथतवासयामनत
ित ः पाथ ु नैना ं पापय
िवम ु हित।
काल ेऽ िप बहिनवा ु णम ृ चछित।। 72।।
हे अजुन ु ! यह बह को पाप हुए पुरष की िसथित है । इसको पाप होकर योगी कभी
मोिहत नहीं होता और अनतकाल मे भी इस बाही िसथित मे िसथत होकर बहाननद को पाप हो जाता है ।(अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमदभगवदगीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे सांखययोगो नाम िितीयोऽधयायः।।2।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवदगीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'सांखययोग' नामक िितीय अधयाय समपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
तीसर े अधयाय क ा माहातमय
शी भग वान क हते ह ै - िपये ! जनसथान मे एक जड नामक बाहण था, जो कौिशक वंश मे उतपनन हुआ था। उसने अपना जातीय धमु छोडकर बिनये की विृत मे मन लगाया। उसे
परायी िसयो के साथ वयिभचार करने का वयसन पड गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और िशकार खेलकर जीवो की िहं सा िकया करता था। इसी पकार उसका समय बीतता था। धन नष हो जाने पर वह वयापार के िलए बहुत दरू उतर िदशा मे चला गया। वहाँ से धन
कमाकर िर की ओर लौटा। बहुत दरू तक का रासता उसने तय कर िलया था। एक िदन सूयास ु त हो जाने पर जब दसो िदशाओं मे अनधकार िैल गया, तब एक वक ृ के नीचे उसे लुटेरो ने धर दबाया और शीघ ही उसके पाण ले िलए। उसके धमु का लोप हो गया था, इसिलए वह बडा भयानक पेत हुआ।
उसका पुि बडा ही धमातुमा और वेदो का िविान था। उसने अब तक िपता के लौट आने
की राह दे खी। जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगाने के िलए वह सवयं भी िर छोडकर चल िदया। वह पितिदन खोज करता, मगर राहगीरो से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं
िमलता था। तदननतर एक िदन एक मनुषय से उसकी भेट हुई, जो उसके िपता का सहायक था, उससे सारा हाल जानकर उसने िपता की मतृयु पर बहुत शोक िकया। वह बडा बुिदमान था।
बहुत कुछ सोच-िवचार कर िपता का पारलौिकक कमु करने की इचछा से आवशयक सामगी साथ ले उसने काशी जाने का िवचार िकया। मागु मे सात-आठ मुकाम डाल कर वह नौवे िदन उसी
वक ृ के नीचे आ पहुँचा जहाँ उसके िपता मारे गये थे। उस सथान पर उसने संधयोपासना की और गीता के तीसरे अधयाय का पाठ िकया। इसी समय आकाश मे बडी भयानक आवाज हुई। उसने
िपता को भयंकर आकार मे दे खा ििर तुरनत ही अपने सामने आकाश मे उसे एक सुनदर िवमान िदखाई िदया, जो तेज से वयाप था। उसमे अनेको कूद िंिटकाएँ लगी थीं। उसके तेज से समसत िदशाएँ आलोिकत हो रही थीं। यह दशय दे खकर उसके िचत की वयगता दरू हो गयी। उसने
िवमान पर अपने िपता को िदवय रप धारण िकये िवराजमान दे खा। उनके शरीर पर पीतामबर
शोभा पा रहा था और मुिनजन उनकी सतुित कर रहे थे। उनहे दे खते ही पुि ने पणाम िकया, तब िपता ने भी उसे आशीवाद ु िदया।(अनुकम)
ततपिात ् उसने िपता से यह सारा वत ृ ानत पूछा। उसके उतर मे िपता ने सब बाते बताकर
इस पकार कहना आरमभ िकयाः 'बेटा ! दै ववश मेरे िनकट गीता के तिृतय अधयाय का पाठ
करके तुमने इस शरीर के िारा िकए हुए दस ु नधन से मुझे छुडा िदया। अतः अब िर ु तयज कमब
लौट जाओ कयोिक िजसके िलए तुम काशी जा रहे थे, वह पयोजन इस समय तत ृ ीय अधयाय के पाठ से ही िसद हो गया है ।' िपता के यो कहने पर पुि ने पूछाः 'तात ! मेरे िहत का उपदे श
दीिजए तथा और कोई कायु जो मेरे िलए करने योगय हो बतलाइये।' तब िपता ने कहाः 'अनि !
तुमहे यही कायु ििर करना है । मैने जो कमु िकये है , वही मेरे भाई ने भी िकये थे। इससे वे िोर नरक मे पडे है । उनका भी तुमहे उदार करना चािहए तथा मेरे कुन के और भी िजतने लोग
नरक मे पडे है , उन सबका भी तुमहारे िारा उदार हो जाना चािहए। यही मेरा मनोरथ है । बेटा ! िजस साधन के िारा तुमने मुझे संकट से छुडाया है , उसी का अनुिान औरो के िलए भी करना
उिचत है । उसका अनुिान करके उससे होने वाला पुणय उन नारकी जीवो को संकलप करक दे दो। इससे वे समसत पूवज ु मेरी ही तरह यातना से मुि हो सवलपकाल मे ही शीिवषणु के परम पद को पाप हो जायेगे।'
िपता का यह संदेश सुनकर पुि ने कहाः 'तात ! यिद ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी
रिच है तो मै समसत नारकी जीवो का नरक से उदार कर दँग ू ा।' यह सुनकर उसके िपता बोलेः
'बेटा ! एवमसतु। तुमहारा कलयाण हो। मेरा अतयनत िपय कायु समपनन हो गया।' इस पकार पुि को आशासन दे कर उसके िपता भगवान िवषणु के परम धाम को चले गये। ततपिात ् वह भी
लौटकर जनसथान मे आया और परम सुनदर भगवान शीकृ षण के मिनदर मे उनके समक बैठकर िपता के आदे शानुसार गीता के तीसरे अधयाय का पाठ करने लगा। उसने नारकी जीवो का उदार करने की इचछा से गीतापाठजिनत सारा पुणय संकलप करके दे िदया।
इसी बीच मे भगवान िवषणु के दत ू यातना भोगने वाले नरक की जीवो को छुडाने के
िलए यमराज के पास गये। यमराज ने नाना पकार के सतकारो से उनका पूजन िकया और
कुशलता पूछी। वे बोलेः 'धमरुाज ! हम लोगो के िलए सब ओर आननद ही आननद है ।' इस पकार सतकार करके िपतल ृ ोक के सिाट परम बुिदमान यम ने िवषणुदत ू ो से यमलोक मे आने का कारण पूछा।
तब िवषण ुद ू तो ने कहाः
यमराज ! शेषशयया पर शयन करने वाले भगवान िवषणु ने
हम लोगो को आपके पास कुछ संदेश दे ने के िलए भेजा है । भगवान हम लोगो के मुख से
आपकी कुशल पूछते है और यह आजा दे ते है िक 'आप नरक मे पडे हुए समसत पािणयो को छोड दे ।'
अिमत तेजसवी भगवान िवषणु का यह आदे श सुनकर यम ने मसतक झुकाकर उसे
सवीकार िकया और मन ही मन कुछ सोचा। ततपिात ् मदोनमत नारकी जीवो को नरक से मुि दे खकर उनके साथ ही वे भगवान िवषणु के वास सथान को चले। यमराज शि े िवमान के िारा जहाँ कीरसागर है , वहाँ जा पहुँचे। उसके भीतर कोिट-कोिट सूयो के समान कािनतमान नील
कमल दल के समान शयामसुनदर लोकनाथ जगदगुर शी हिर का उनहोने दशन ु िकया। भगवान
का तेज उनकी शयया बने हुए शेषनाग के िणो की मिणयो के पकाश से दग ु ना हो रहा था। वे आननदयुि िदखाई दे रहे थे। उनका हदय पसननता से पिरपूणु था।(अनुकम)
भगवती लकमी अपनी सरल िचतवन से पेमपूवक ु उनहे बार-बार िनहार रहीं थीं। चारो ओर
योगीजन भगवान की सेवा मे खडे थे। धयानसथ होने के कारण उन योिगयो की आँखो के तारे
िनिल पतीत होते थे। दे वराज इनद अपने िवरोिधयो को परासत करने के उदे शय से भगवान की सतुित कर रहे थे। बहाजी के मुख से िनकले हुए वेदानत-वाकय मूितम ु ान होकर भगवान के गुणो
का गान कर रहे थे। भगवान पूणत ु ः संतुष होने के साथ ही समसत योिनयो की ओर से उदासीन पतीत होते थे। जीवो मे से िजनहोने योग-साधन के िारा अिधक पुणय संचय िकया था, उन
सबको एक ही साथ वे कृ पादिष स िनहार रहे थे। भगवान अपने सवरप भूत अिखल चराचर जगत को आननदपूणु दिष से आमोिदत कर रहे थे। शेषनाग की पभा से उदािसत और सवि ु
वयापक िदवय िवगह धारण िकये नील कमल के सदश शयाम वणव ु ाले शीहिर ऐसे जान पडते थे, मानो चाँदनी से ििरा हुआ आकाश सुशोिभत हो रहा हो। इस पकार भगवान की झाँकी के दशन ु करके यमराज अपनी िवशाल बुिद के िारा उनकी सतुित करने लगे।
यमराज बोल े ः समपूणु जगत का िनमाण ु करने वाले परमेशर ! आपका अनतःकरण
अतयनत िनमल ु है । आपके मुख से ही वेदो का पादभ ु हुआ है । आप ही िवशसवरप और इसके ु ाव िवधायक बहा है । आपको नमसकार है । अपने बल और वेग के कारण जो अतयनत दध ु ु पतीत ु ष होते है , ऐसे दानवेनदो का अिभमान चूणु करने वाले भगवान िवषणु को नमसकार है । पालन के समय सिवमय शरीर धारण करने वाले, िवश के आधारभूत, सववुयापी शीहिर को नमसकार है ।
समसत दे हधािरयो की पातक-रािश को दरू करने वाले परमातमा को पणाम है । िजनके ललाटवती
नेि के तिनक-सा खुलने पर भी आग की लपटे िनकलने लगती है , उन रदरपधारी आप परमेशर को नमसकार है । आप समपूणु िवश के गुर, आतमा और महे शर है , अतः समसत वैशवजनो को
संकट से मुि करके उन पर अनुगह करते है । आप माया से िवसतार को पाप हुए अिखल िवश
मे वयाप होकर भी कभी माया अथवा उससे उतपनन होने वाले गुणो से मोिहत नहीं होते। माया तथा मायाजिनत गुणो के बीच मे िसथत होने पर भी आप पर उनमे से िकसी का पभाव नहीं
पडता। आपकी मिहमा का अनत नहीं है , कयोिक आप असीम है ििर आप वाणी के िवषय कैसे हो सकते है ? अतः मेरा मौन रहना ही उिचत है ।
इस पकार सतुित करके यमराज ने हाथ जोडकर कहाः 'जगदगुरो ! आपके आदे श से इन
जीवो को गुणरिहत होने पर भी मैने छोड िदया है । अब मेरे योगय और जो कायु हो, उसे
बताइये।' उनके यो कहने पर भगवान मधुसूदन मेि के समान गमभीर वाणी िारा मानो अमत ृ रस से सींचते हुए बोलेः 'धमरुाज ! तुम सबके पित समान भाव रखते हुए लोको का पाप से उदार
कर रहे हो। तुम पर दे हधािरयो का भार रखकर मै िनििनत हूँ। अतः तुम अपना काम करो और अपने लोक को लौट जाओ।' (अनुकम)
यो कहकर भगवान अनतधान ु हो गये। यमराज भी अपनी पुरी को लौट आये। तब वह
बाहण अपनी जाित के और समसत नारकी जीवो का नरक से उदार करके सवयं भी शि े िवमार िारा शी िवषणुधाम को चला गया।
तीस रा अधयायः कम ु योग
दस ू रे अधयाय मे भगवान शीकृ षण ने शोक 11 से शोक 30 तक आतमतिव समझाकर
सांखययोग का पितपादन िकया। बाद मे शोक 31 से शोक 53 तक समसत बुिदरप कमय ु ोग के िारा परमेशर को पाये हुए िसथतपज िसद पुरष के लकण, आचरण और महतव का पितपादन िकया।इसमे कमय ु ोग की मिहमा बताते हुए भगवान ने 47 तथा 48 वे शोक मे कमय ु ोग का सवरप बताकर अजुन ु को कमु करने को कहा। 49 वे शोक मे समतव बुिदरप कमय ु ोग की
अपेका सकाम कमु का सथान बहुत नीचा बताया। 50 वे शोक मे समतव बुिदयुि पुरष की
पशंसा करके अजुन ु को कमय ु ोग मे जुड जाने के िलए कहा और 51 वे शोक मे बताया िक समतव बुिदयुि जानी पुरष को परम पद की पािप होती है । यह पसंग सुनकर अजुन ु ठीक से तय नहीं कर पाया। इसिलए भगवान से उसका और सपषीकरण कराने तथा अपना िनिित कलयाण जानने की इचछा से अजुन ु पूछता है ः
।। अथ त ृ तीयोऽधयायः ।। अजुु न उ वाच
जया यसी च ेतक मु णसत े मता ब ुिदज ु नाद ु न। तितकं क मु िण िोर े म ां िनयोजयिस क े शव।। 1।।
अजुन ु बोलेः हे जनादु न ! यिद आपको कमु की अपेका जान शि े मानय है तो ििर हे केशव ! मुझे भयंकर कमु मे कयो लगाते है ?
वयािम शे णेव वाकय ेन ब ुिद ं मोहयसीव म े।
तदेकं वद िन िितय य ेन श े योऽह माप नुयाम।् । 2।।
आप िमले हुए वचनो से मेरी बुिद को मानो मोिहत कर रह है । इसिलए उस एक बात को
िनिित करके किहए िजससे मै कलयाण को पाप हो जाऊँ।(2) शीभगवान ुवाच
लोकेऽ िसम िनि िवधा िनिा प ुरा पोिा
मयानि।
जान योग ेन स ांखया नां क मु योग ेन योिगनाम। ् । 3।।
शी भगवनान बोलेः हे िनषपाप ! इस लोक मे दो
पकार की िनिा मेरे िारा पहले कही
गयी है । उनमे से सांखययोिगयो की िनिा तो जानयोग से और योिगयो की िनिा कमय ु ोग से होती है ।(3) (अनुकम)
न कम ु णामनारमभानन ैषकमय ा पुरषोऽश ुत े। न च सं नयसनाद ेव िसिद ं स मिधग चछित ।। 4।।
मनुषय न तो कमो का आरमभ िकये िबना िनषकमत ु ा को यािन योगिनिा को पाप होता है और न कमो के केवल तयागमाि से िसिद यानी सांखयिनिा को ही पाप होता है ।(4) न िह किि तकणमिप
जात ु ितितयकम ु कृत।्
काय ु ते हव शः क मु सव ु ः पकृित जैग ु णै ः।। 5।। िनःसंदेह कोई भी मनुषय िकसी काल मे कणमाि भी िबना कमु िकये नहीं रहता, कयोिक
सारा मनुषय समुदाय पकृ ित जिनत गुणो िारा परवश हुआ कमु करने के िलए बाधय िकया जाता है ।
कमे नदयािण स ंयमय य आसत े मन सा स मरन।् इिनदयाथा ु िनवम ू ढातमा
िमथयाचारः स
उचयत े।। 6।।
जो मूढबुिद मनुषय समसत इिनदयो को हठपूवक ु ऊपर से रोककर मन से उन इिनदयो के िवषयो का िचनतन करता रहता है , वह िमथयाचारी अथात ु ् दमभी कहा जाता है ।(6) यिसतव िनदयाणी मनसा िनयमय
िकनतु हे
ारभत े ऽजुु न।
कमे िनदय ै ः कम ु योगम सिः स िव िशषयत े।। 7।।
अजुन ु ! जो पुरष मन से इिनदयो को वश मे करके अनासि हुआ समसत
इिनदयो िारा कमय ु ोग का आचरण करता है , वही शि े है ।(7)
िनयत ं कुर कम ु तव ं क मु जया यो हक मु णः।
शरीरय ािािप च
ते न पिसद येदकम ु ण ः।। 8।।
तू शासिविहत कतवुय कमु कर, कयोिक कमु न करने की अपेका कमु करना शि े है तथा कमु न करने से तेरी शरीर िनवाु भी िसद नहीं होगा।(8)
यजाथा ु तकम ु णोऽनयि लोको ऽयं क मु बन धनः।
तद था कम ु कौ नतेय मुिसङ गः स माचर।। 9।।
यज के िनिमत िकये जाने कमो के अितिरि दस ू रे कमो मे लगा हुआ ही यह मनुषय
समुदाय कमो से बँधता है । इसिलए हे अजुन ु ! तू आसिि से रिहत होकर उस यज के िनिमत ही भलीभाँित कतवुय कमु कर।(9)
सहयजाः पजा स ृ षटवा प ुरोवाच पजाप ितः।
अनेन पस िवषयधवम ेष वोऽ िसतवष कामध ुक् ।। 10।।
पजापित बहा ने कलप के आिद मे यज सिहत पजाओं को रचकर उनसे कहा िक तुम
लोग इस यज के िारा विृद को पाप होओ और यह यज तुम लोगो को इिचछत भोग पदान करने वाला हो।(10) (अनुकम)
देवानभावयतान ेन त े द ेवा भावयनत ु व ः। परसपर ं भावयनत ः श े यः परमवापसयथ।।
11।।
तुम लोग इस यज के िारा दे वताओं को उननत करो और वे दे वता तुम लोगो को उननत करे । इस पकार िनःसवाथभ ु ाव से एक-दस ू रे को उननत करते हुए तुम लोग परम कलयाण को पाप हो जाओगे।(11)
इषानभोगा िनह वो द ेवा दासयनत े यजभािवता ः।
तैद ु तानपदाय ैभ यो यो भुंिे सत ेन एव स ः।। 12।। यज के िारा बढाये हुए दे वता तुम लोगो को िबना माँगे ही इिचछत भोग िनिय ही दे ते
रहे गे। इस पकार उन दे वताओं के िारा िदये हुए भोगो को जो पुरष उनको िबना िदये सवयं भोगता है , वह चोर ही है ।(12)
यजिशषा िशनः स नतो म ु चयनत े सव ु िकिलबष ै ः।
भुंजत े त े तवि ं पापा य े प चनतयातमकारण ात।् । 13।।
यज से बचे हुए अनन को खाने वाले शि े पुरष सब पापो से मुि हो जाते है और पापी
लोग अपना शरीर-पोषण करने के िलये ही अनन पकाते है , वे तो पाप को ही खाते है ।(13) अननाद भ विनत भूतािन पज ु नयादननस ंभव ः।
यजाद भ वित पज ु नयो यजः क मु समुद भव ः।। 14।। कम ु ब होद भ वं िव िद बहाकरसम ुद भवम।्
तस मातसव ु गतं ब ह िनतय ं य जे प ितिित म।् ।15।।
समपूणु पाणी अनन से उतपनन होते है , अनन की उतपित विृष से होती है , विृष यज से होती है और यज िविहत कमो से उतपनन होने वाला है । कमस ु मुदाय को तू वेद से उतपनन और
वेद को अिवनाशी परमातमा से उतपनन हुआ जान। इससे िसद होता है िक सववुयापी परम अकर परमातमा सदा ही यज मे पितिित है ।
एवं पव ित ु तं चकं ना नुवत ु यतीह यः।
अिा युिर िनदयारामो
मोि ं पाथ ु स जीवित।। 16।।
हे पाथु ! जो पुरष इस लोक मे इस पकार परमपरा से पचिलत सिृषचक के अनुकूल नहीं बरतता अथात ु ् अपने कतवुय का पालन नहीं करता, वह इिनदयो के िारा भोगो मे रमण करने वाला पापायु पुरष वयथु ही जीता है ।(16)
यसतवातमरितर ेव सयादा तम तृ पि मानवः।
आत मन येव च स नतुषसतसय काय ा न िवदत े।। 17।। परनतु जो मनुषय आतमा मे ही रमण करने वाला और आतमा मे ही तप ृ तथा आतमा मे
ही सनतष है , उसके िलए कोई कतवुय नहीं है ।(17) (अनुकम)
नैव त सय कृत ेनाथो नाकृत ेन े ह किन।
न च ासय स वु भूत ेष ु क ििद थु वयपाशयः।। 18।। उस महापुरष का इस िवश मे न तो कमु करने से कोई पयोजन रहता है और न कमो के
न करने से ही कोई पयोजन रहता है तथा समपूणु पािणयो मे भी इसका िकंिचनमाि भी सवाथु का समबनध नहीं रहता।(18)
तस मादसिः स ततं काय ा कम ु स माचर।
असिो ह ाचरनक मु परमापन ोित प ूरषः।। 19।।
इसिलए तू िनरनतर आसिि से रिहत होकर सदा कतवुयकमु को भली भाँित करता रह कयोिक आसिि से रिहत होकर कम ु करता हुआ मनुषय परमातमा को पाप हो जाता है ।(19) कमु णैव िह स ंिस िदमा िसथता जनकादयः।
लोकस ं गहम ेवािप स मपशयनकत ु म हु िस ।। 20।।
जनकािद जानीजन भी आसिि रिहत कमि ु ारा ही परम िसिद को पाप हुए थे। इसिलए
तथा लोकसंगह को दे खते हुए भी तू कमु करने को ही योगय है अथात ु ् तुझे कमु करना ही उिचत है ।(20)
यदद ाचर ित श े ि सततद ेव ेतरो जनः।
स यतपमाण ं कुरत े लोकसत दनुवत ु ते।। 21।। शि े पुरष जो-जो आचरण करता है , अनय पुरष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते है । वह
जो कुछ पमाण कर दे ता है , समसत मनुषय-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है ।(21) न मे पाथा ु िसत क तु वयं ििष ु लोकेष ु िकं चन।
नानवा पमवापवय ं व तु एव च क मु िण।। 22।। हे अजुन ु ! मुझे इन तीनो लोको मे न तो कुछ कतवुय है न ही कोई भी पाप करने योगय
वसतु अपाप है , तो भी मै कमु मे ही बरतता हूँ।(22)
यिद हह ं न वत े यं जात ु कम ु णयिनद तः।
मम वत माु नुवत ु नते मन ुषयाः पाथ ु सव ु शः।। 23।। कयोिक हे पाथु ! यिद कदािचत ् मै सावधान होकर कमो मे न बरतूँ तो बडी हािन हो
जाए, कयोिक मनुषय सब पकार से मेरे ही मागु का अनुसरण करते है ।(23) उतसीद ेय ुिरम े लोका न क ुया ा क मु चेद हम।्
संकरसय च क ताु सयाम ुपह नयािममा ः पजाः।। 24।। इसिलए यिद मै कमु न करँ तो ये सब मनुषय नष-भष हो जाये और मै संकरता का
करने वाला होऊँ तथा इस समसत पजा को नष करने वाला बनूँ।(24)
सिाः कम ु णयिवि ांसो यथा क ुव ु िनत भारत।
कुया ु िििा ं सतथासि ििकीष ु लोक संगह म।् । 25।।
हे भारत ! कमु मे आसि हुए अजानीजन िजस पकार कमु करते है , आसिि रिहत
िविान भी लोकसंगह करना चाहता हुआ उसी पकार कमु करे ।(25) (अनुकम) न ब ुिदभ े दं जनय ेदजाना ं कम ु सिङगनाम। ्
जोषय ेतस वु कमा ु िण िविान युिः स माचरन।् ।26।। परमातमा के सवरप मे अटल िसथत हुए जानी पुरष को चािहए िक वह शासिविहत कमो
मे आसिि वाले अजािनयो की बुिद मे भम अथात ु ् कमो मे अशदा उनपनन न करे , िकनतु सवयं शासिविहत समसत कमु भलीभाँित करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे।(26)
पकृत ेः िकयमाणािन
गुण ैः क माु िण सव ु शः।
अहंकारिवम ूढातमा क ताु हिम ित म नयत े।। 27।।
वासतव मे समपूणु कमु सब पकार से पकृ ित के गुणो िारा िकये जाते है तो भी िजसका अनतःकरण अहं कार से मोिहत हो रहा, ऐसा अजानी 'मै कताु हूँ' ऐसा मानता है ।(27) तिविवत ु म हाबाहो
गुणा ग ुण ेष ु वत ु नत इित
गुणकम ु िवभागयोः। मतवा न
स जजत े।। 28।।
परनतु हे महाबाहो ! गुणिवभाग और कमिुवभाग के तिव को जाननेवाला जानयोगी समपूणु गुण-ही-गुणो मे बरत रहे है , ऐसा समझकर उनमे आसि नहीं होता।(28) पकृत ेग ु णसमम ूढाः सजज नते ग ुणकम ु सु।
तानकृतसनिवदो म नदानक ृतसन िवनन िव चालय े त।् । 29।।
पकृ ित के गुणो से अतयनत मोिहत हुए मनुषय गुणो मे और कमो मे आसि रहते है , उन
पूणत ु या न समझने वाले मनदबुिद अजािनयो को पूणत ु या जाननेवाला जानी िवचिलत न करे । (29) मिय स वाु िण कमा ु िण स ंनयसयाधया तम चेतसा। िनराशीिन ु मु मो भ ूतवा युधयसव िवगतजवरः।। 30।।
मुझ अनतयाम ु ी परमातमा मे लगे हुए िचत िारा समपूणु कमो को मुझमे अपण ु करके
आशारिहत, ममतारिहत और सनतापरिहत होकर युद कर।(30)
ये म े मत िमद ं िनतयमन ुिति िनत मानवाः।
शदावनतोऽनस ूयनतो म ु चयनत े त ेऽ िप कम ु िभः ।। 31।। जो कोई मनुषय दोषदिष से रिहत और शदायुि होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण
करते है , वे भी समपूणु कमो से छूट जाते है ।(31)
ये तव ेतदभयस ूयन तो नान ुिति िनत म े म तम।्
सव ु जानिनम ूढ ांसतािनव िद नषा नचेत सः।। 32।। परनतु जो मनुषय मुझमे दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते है , उन
मूखो को तू समपूणु जानो मे मोिहत और नष हुए ही समझ।(32) (अनुकम) सद शं च ेषत े सवसयाः प कृत ेजा ुनवानिप।
पकृ ितं यािनत भ ूतािन िनगह ः िकं किरषयित।।
33।।
सभी पाणी पकृ ित को पाप होते है अथात ु ् अपने सवभाव के परवश हुए कमु करते है ।
जानवान भी अपनी पकृ ित के अनुसार चेषा करते है । ििर इसमे िकसी का हठ कया करे गा।(33) इिनद यसय े िनदयसया थे रागि ेषौ वयविसथ तौ।
तयो नु वश मागच छेतौ ह सय पिरप िनथनौ।। 34।।
इिनदय-इिनदय के अथु मे अथात ु ् पतयेक इिनदय के िवषय मे राग और िे ष िछपे हुए
िसथत है । मनुषय को उन दोनो के वश मे नहीं होना चािहए, कयोिक वे दोनो ही इसके कलयाण मागु मे िवघन करने वाले महान शिु है ।(34)
शे यानसव धमो िव गुण परधमा ु तसवन ुिि तात।्
सव धमे िन धनं श े यः पर धमो भयावहः।।
35।।
अचछी पकार आचरण मे लाये हुए दस ू रे के धमु से गुण रिहत भी अपना धमु अित उतम
है । अपने धमु मे तो मरना भी कलयाणकारक है और दस ू रे का धमु भय को दे ने वाला है ।(35) अजुु न उ वाच
अथ केन पय ुिोऽय ं पाप ं चर ित प ुरष ः। अिनचछनन िप वाषण ेय बला िदव िनयोिजत ः।। 36।।
अजुन ु बोलेः हे कृ षण ! तो ििर यह मनुषय सवयं न चाहता हुआ भी बलात ् लगाये हुए
की भाँित िकससे पेिरत होकर पाप का आचरण करता है ? (36) शीभगवान ुवाच
काम एष को ध एष रजोग ुणसम ुद भ वः
महाशनो म हापापमा िवद ेयनिमह व ै िरणम।् । 37।। शी भगवान बोलेः रजोगुण से उतपनन हुआ यह काम ही कोध है , यह बहुत खाने वाला
अथात ु ् भोगो से कभी न अिाने वाला और बडा पापी है , इसको ही तू इस िवषय मे वैरी जान। (37) धूम ेनािवयत े व ििय ु थादशो मल ेन च । यथोलब ेनाव ृ तो ग भु सत था त ेन ेद माव ृ तम।् । 38।।
िजस पकार धुएँ से अिगन और मैल से दपण ु ढका जाता है तथा िजस पकार जेर से गभु ढका रहता है , वैसे ही उस काम के िारा यह जान ढका रहता है ।(38)
आव ृ तं जानम ेत ेन जािननो िनतयव ैिरणा
कामरप ेण कौनत ेय द ु षपूरेणानल े न च।। 39।।
और हे अजुन ु ! इस अिगन के समान कभी न पूणु होने वाले कामरप जािनयो के िनतय वैरी के िारा मनुषय का जान ढका हुआ है ।(39) (अनुकम) इिनदयािण मनो ब
ुिदरसया िधिानम ुचयत े।
एतै िव ु मोहयतय े ष जा नमाव ृ तय द ेिहन म।् । 40।।
इिनदयाँ, मन और बुिद – ये सब वास सथान कहे जाते है । यह काम इन मन, बुिद और इिनदयो के िारा ही जान को आचछािदत करके जीवातमा को मोिहत करता है ।(40) तसमािव िमिनदया णयाद ौ िनयमय
पापमान पजिह
भ रतष ु भ।
हे नं जानिवजान नाशनम।् ।41।।
इसिलए हे अजुन ु ! तू पहले इिनदयो को वश मे करके इस जान और िवजान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवशय ही बलपूवक ु मार डाल।(41)
इिनद यािण पराणयाह ु िरिनद येभयः पर ं मन ः।
मनससत ु परा ब ुिदयो ब ुदेः परतसत ु स ः।। 42।।
इिनदयो को सथूल शरीर से पर यािन शि े , बलवान और सूकम कहते है । इन इिनदयो से पर मन है , मन से भी पर बुिद है और जो बुिद से भी अतयनत पर है वह आतमा है ।(42) एवं ब ुदेः पर ं ब ुद ध वा संसतभयातमानमातमन जिह श िुं महाबाहो कामरप
ा।
ं द ु रासदम।् ।43।।
इस पकार बुिद से पर अथात ु ् सूकम, बलवान और अतयनत शि े आतमा को जानकर और
बुिद के िारा मन को वश मे करके हे महाबाहो ! तू इस कामरप दज ु शिु को मार डाल।(43) ु य (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहेिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे कमय ु ोगो नाम तत ृ ीयोऽधयायः।।3।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'कमय ु ोग' नामक तत ृ ीय अधयाय संपूण ु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
चौथे अ धयाय का माहातमय
शीभ गवान क हते ह ै - िपये ! अब मै चौथे अधयाय का माहातमय बतलाता हूँ, सुनो।
भागीरथी के तट पर वाराणसी(बनारस) नाम की एक पुरी है । वहाँ िवशनाथजी के मिनदर मे भरत नाम के एक योगिनि महातमा रहते थे, जो पितिदन आतमिचनतन मे ततपर हो आदरपूवक ु गीता के चतुथु अधयाय का पाठ िकया करते थे। उसके अभयास से उनका अनतःकरण िनमल ु हो गया था। वे शीत-उषण आिद िनिो से कभी वयिथत नहीं होते थे।
एक समय की बात है । वे तपोधन नगर की सीमा मे िसथत दे वताओं का दशन ु करने की
इचछा से भमण करते हुए नगर से बाहर िनकल गये। वहाँ बेर के दो वक ृ थे। उनहीं की जड मे
वे िवशाम करने लगे। एक वक ृ की जड मे उनहोने अपना मसतक रखा था और दस ृ के मूल ू रे वक मे उनका पैर िटका हुआ था। थोडी दे र बाद जब वे तपसवी चले गये, तब बेर के वे दोनो वक ृ पाँच-छः िदनो के भीतर ही सूख गये। उनमे पते और डािलयाँ भी नहीं रह गयीं। ततपिात ् वे दोनो वक ृ कहीं बाहण के पिवि गह ृ मे दो कनयाओं के रप मे उतपनन हुए।(अनुकम)
वे दोनो कनयाएँ जब बढकर सात वषु की हो गयीं, तब एक िदन उनहोने दरू दे शो से
िूमकर आते हुए भरतमुिन को दे खा। उनहे दे खते ही वे दोनो उनके चरणो मे पड गयी और मीठी वाणी मे बोलीं- 'मुने ! आपकी ही कृ पा से हम दोनो का उदार हुआ है । हमने बेर की योिन
तयागकर मानव-शरीर पाप िकया है ।' उनके इस पकार कहने पर मुिन को बडा िवसमय हुआ।
उनहोने पूछाः 'पुिियो ! मैने कब और िकस साधन से तुमहे मुि िकया था? साथ ही यह भी बताओ िक तुमहारे बेर होने के कया कारण था? कयोिक इस िवषय मे मुझे कुछ भी जान नहीं है ।'
तब वे कनयाएँ पहले उनहे अपने बेर हो जाने का कारण बतलाती हुई बोलीं- 'मुने !
गोदावरी नदी के तट पर िछननपाप नाम का एक उतम तीथु है , जो मनुषयो को पुणय पदान करने वाला है । वह पावनता की चरम सीमा पर पहुँचा हुआ है । उस तीथु मे सतयतपा नामक
एक तपसवी बडी कठोर तपसया कर रहे थे। वे गीषम ऋतु मे पजजविलत अिगनयो के बीच मे बैठते थे, वषाक ु ाल मे जल की धाराओं से उनके मसतक के बाल सदा भीगे ही रहते थे तथा जाडे के समय मे जल मे िनवास करने के कारण उनके शरीर मे हमेशा रोगटे खडे रहते थे। वे बाहर
भीतर से सदा शुद रहते, समय पर तपसया करते तथा मन और इिनदयो को संयम मे रखते हुए परम शािनत पाप करके आतमा मे ही रमण करते थे। वे अपिन िविता के िारा जैसा वयाखयान करते थे, उसे सुनने के िलए साकात ् बहा जी भी पितिदन उनके पास उपिसथत होते और पश करते थे। बहाजी के साथ उनका संकोच नहीं रह गया था, अतः उनके आने पर भी वे सदा तपसया मे मगन रहते थे।
परमातमा के धयान मे िनरनतर संलगन रहने के कारण उनकी तपसया सदा बढती रहती
था। सतयतपा को जीवनमुि के समान मानकर इनद को अपने समिृदशाली पद के समबनध मे कुछ भय हुआ, तब उनहोने उनकी तपसया मे सैकडो िवघन डालने आरमभ िकये। अपसराओं के समुदाय से हम दोनो को बुलाकर इनद ने इस पकार आदे श िदयाः 'तुम दोनो उस तपसवी की तपसया मे िवघन डालो, जो मुझे इनदपद से हटाकर सवयं सवगु का राजय भोगना चाहता है ।'
"इनद का यह आदे श पाकर हम दोनो उनके सामने से चलकर गोदावरी के तीर पर, जहाँ
वे मुिन तपसया करते थे, आयीं। वहाँ मनद और गमभीर सवर से बजते हुए मद ृ ं ग तथा मधुर
वेणुनाद के साथ हम दोनो ने अनय अपसराओं सिहत मधुर सवर मे गाना आरमभ िकया। इतना ही नहीं उन योगी महातमा को वश मे करने के िलए हम लोग सवर, ताल और लय के साथ
नतृय भी करने लगीं। बीच-बीच मे जरा-जरा सा अंचल िखसकने पर उनहे हमारी छाती भी िदख जाती थी। हम दोनो की उनमत गित कामभाव का उदीपन करनेवाली थी, िकंतु उसने उन
िनिवक ु ार िचतवाले महातमा के मन मे कोध का संचार कर िदया। तब उनहोने हाथ से जल
छोडकर हमे कोधपूवक ु शाप िदयाः 'अरी ! तुम दोनो गंगाजी के तट पर बेर के वक ृ हो जाओ।' (अनुकम)
यह सुनकर हम लोगो ने बडी िवनय के साथ कहाः 'महातमन ् ! हम दोनो पराधीन थीं,
अतः हमारे िारा जो दषुकमु बन गया है उसे आप कमा करे ।' यो कह कर हमने मुिन को पसनन कर िलया। तब उन पिवि िचतवाले मुिन ने हमारे शापोदार की अविध िनिित करते हुए कहाः
'भरतमुिन के आने तक ही तुम पर यह शाप लागू होगा। उसके बाद तुम लोगो का मतयल ु ोक मे जनम होगा और पूवज ु नम की समिृत बनी रहे गी।1
"मुने ! िजस समय हम दोनो बेर-वक ृ के रप मे खडी थीं, उस समय आपने हमारे समीप
आकर गीता के चौथे अधयाय का जप करते हुए हमारा उदार िकया था, अतः हम आपको पणाम करती है । आपने केवल शाप ही से नहीं, इस भयानक संसार से भी गीता के चतुथु अधयाय के पाठ िारा हमे मुि कर िदया।"
शीभ गवान क हते ह ै - उन दोनो के इस पकार कहने पर मुिन बहुत ही पसनन हुए और
उनसे पूिजत हो िवदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कनयाएँ भी बडे आदर के साथ पितिदन गीता के चतुथु अधयाय का पाठ करने लगीं, िजससे उनका उदार हो गया।
अधयाय च ौथाः जानकम ु सनयासयोग तीसरे अधयाय के शोक 4 से 21 तक मे भगवान ने कई पकार के िनयत कमो के आचरण की आवशयकता बतायी, ििर 30 वे शोक मे भिि पधान कमय ु ोग की िविध से ममता,
आसिि और कामनाओं का सवथ ु ा तयाग करके पभुपीतयथु कमु करने की आजा दी। उसके बाद 31 से 35 वे शोक तक उस िसदानत के अनुसार कमु करने वालो की पशंसा और नहीं करने
वालो की िननदा की है तथा राग और िे ष के वश मे न होकर सवधमप ु ालन के िलए जोर िदया गया है । ििर 36 वे शोक मे अजुन ु के पूछने से 37 वे शोक से अधयाय पूरा होने तक काम को
सवु अनथो का कारण बताया गया है और बुिद के िारा इिनदयो और मन को वश करके उसका नाश करने की आजा दी गयी है , लेिकन कमय ु ोग का महिव बडा गहन है । इसिलए भगवान ििर से उसके िवषय मे कई बाते अब बताते है । उसका आरं भ करते हुए पहले तीन शोको मे उस कमय ु ोग की परं परा बताकर उसकी मिहमा िसद करके पशंसा करते है । ।। अ थ चत ुथोऽ धय ायः ।। शी भ गवान ुवाच
इमं िवव सवत े योग ं प ोिवा नहमवययम। ्
िववसवान मनव े पाह मन ु िरकवाकव ेऽबवीत। ् ।1।।
शी भगवान बोलेः मैने इन अिवनाशी योग को सूयु से कहा था। सूयु ने अपने पुि वैवसवत मनु से कहा और मनु ने अपने पुि राजा इकवाकु से कहा।(1) (अनुकम) एवं परमपरापापिमम
स काल ेन ेह म हता योगो
ं राजष ु यो िवद ु ः।
नष ः पर ंतप।। 2।।
हे परं तप अजुन ु ! इस पकार परमपरा से पाप इस योग को राजिषय ु ो ने जाना, िकनतु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पथृवी लोक मे लुपपाय हो गया।(2) स एवाय ं मया ते ऽद योगः पोिः प
ुरातनः
भिोऽ िस म े स खा चेित रहसय ं ह ेतद ु तमम।् । 3।।
तू मेरा भि और िपय सखा है , इसिलए यह पुरातन योग आज मैने तुझे कहा है , कयोिक
यह बडा ही उतम रहसय है अथात ु ् गुप रखने योगय िवषय है ।(3) अजुु न उ वाच
अपर ं भवतो ज नम पर ं ज नम िववसवत ः। कथमेत ििजानी यां तव मादौ पोिवािन ित।। 4।।
अजुन ु बोलेः आपका जनम तो अवाच ु ीन – अभी हाल ही का है और सूयु का जनम बहुत
पुराना है अथात ु ् कलप के आिद मे हो चुका था। तब मै इस बात को कैसे समझूँ िक आप ही ने कलप के आिद मे यह योग कहा था?(4)
शी भ गवान ुवाच
बहू िन म े वयतीतािन जन
मािन तव चाज ु न।
ता नयह ं वेद सवा ु िण न तव ं व ेत थ पर ंतप।। 5।।
शी भगवान बोलेः हे परं तप अजुन ु ! मेरे और तेरे बहुत से जनम हो चुके है । उन सबको
तू नहीं जानता, िकनतु मै जानता हूँ।
अजोऽ िप सन नव ययातमा
भूतान ामीशरोऽ िप सन।्
पकृित ं सवाम िधि ाय स ं भवामय ातम माय या।। 6।।
मै अजनमा और अिवनाशीसवरप होते हुए भी तथा समसत पािणयो का ईशर होते हुए भी
अपनी पकृ ित को आधीन करके अपनी योगमाया से पकट होता हूँ।(6)
यदा यदा िह ध मु सय गलािनभ ु व ित भारत।
अभय ुत था नम धम ु सय तदातमान ं स ृ जामयहम। ् ।7।।
हे भारत ! जब-जब धमु की हािन और अधमु की विृद होती है , तब-तब ही मै अपने रप को रचता हूँ अथात ु ् साकार रप से लोगो के सममुख पकट होता हूँ।(7) पिरिाणा य साध ून ां िवनाशाय च द
ु षकृताम।्
धमु संसथापनाथा ु य समभवा िम य ुग े य ुग े।। 8।।
साधु पुरषो का उदार करने के िलए, पाप कमु करने वालो का िवनाश करने के िलए और धमु की अचछी तरह से सथापना करने के िलए मै युग-युग मे पकट हुआ करता हूँ।(8) (अनुकम) जन म कम ु च मे िदवयम ेव ं यो व ेित तिवतः।
तयकतवा
देहं प ुनज ु नम न ै ित माम ेित स ोऽज ु न।। 9।।
हे अजुन ु ! मेरे जनम और कमु िदवय अथात ु ् िनमल ु और अलौिकक है – इस पकार जो
मनुषय तिव से जान लेता है , वह शरीर को तयाग कर ििर जनम को पाप नहीं होता, िकनतु मुझे ही पाप होता है ।(9)
वीतरागभयकोधा म
नमया माम ुपा िशताः।
बहवो जानतपसा प ूता मद भ ावमागताः।। 10।। पहले भी िजनके राग, भय और कोध सवथ ु ा नष हो गये थे और जो मुझमे अननय
पेमपूवक ु िसथर रहते थे, ऐसे मेरे आिशत रहने वाले बहुत से भि उपयुि ु जानरप तप से पिवि होकर मेरे सवरप को पाप हो चुके है ।(10)
ये यथा मा ं प पदनत े ता ं सतथ ैव भ जामयहम। ्
मम वत माु नुवत ु नते मन ुषयाः पाथ ु सव ु शः।। 11।।
हे अजुन ु ! जो भि मुझे िजस पकार भजते है , मै भी उनको उसी पकार भजता हूँ,
कयोिक सभी मनुषय सब पकार से मेरे ही मागु का अनुसरण करते है ।(11)
कांकन तः क मु णां िसिद ं यजन त इह द ेव ताः।
िकप ं िह मान ुष े लोके िसिद भु वित कम ु जा।। 12।।
इस मनुषय लोक मे कमो के िल को चाहने वाले लोग दे वताओं का पूजन िकया करते है , कयोिक उनको कमो से उतपनन होने वाली िसिद शीघ िमल जाती है ।(12) चा तुव ु णय ा मया स ृ षं ग ुणक मु िव भागश ः।
तसय कता ु रमिप म ां िवदयकता ुरमवययम। ् ।13।।
बाहण, कििय, वैशय और शूद – इन चार वणो का समूह, गुण और कमो के िवभागपूवक ु मेरे िारा रचा गया है । इस पकार उस सिृष – रचनािद कमु का कताु होने पर भी मुझ अिवनाशी परमेशर को तू वासतव मे अकताु ही जान।(13)
न म ां क माु िण िल मपिनत न म े कम ु ि ले सप ृ हा।
इित मा ं योऽ िभजानाित क मु िभ नु स बधयत े।। 14।। कमो के िल मे मेरी सपह ृ ा नहीं है , इसिलए मुझे कमु िलप नहीं करते – इस पकार जो
मुझे तिव से जान लेता है , वह भी कमो से नहीं बँधता।(14)
एवं जातवा क ृत ं क मु पूव ैरिप म ुम ुक ु िभः।
कुरकम ै व तसमािव ं प ूव ैः प ूव ु तरं कृतम।् । 15।। पूवक ु ाल मे मुमुकुओं ने भी इस पकार जानकर ही कमु िकये है इसिलए तू भी पूवज ु ो
िारा सदा से िकये जाने वाले कमो को ही कर।(15) (अनुकम)
िकं क मु िक मकम े ित कवयोऽपयि मो
तते क मु पवकयािम यजजातवा
िहताः।
म ोकयस ेऽश ु भात।् । 16।।
कमु कया है ? और अकमु कया है ? – इस पकार इसका िनणय ु करने मे बुिदमान पुरष भी
मोिहत हो जाते है । इसिलए वह कमत ु िव मै तुझे भली भाँित समझाकर कहूँगा, िजसे जानकर तू अशुभ से अथात ु ् कमब ु नधन से मुि हो जाएगा।(16)
कम ु णो ह िप बोदव यं बोदव यं य िवक मु णः।
अकम ु णि बोदवय ं ग हना क मु णो ग ित ः।। 17।।
कमु का सवरप भी जानना चािहए और अकमु का सवरप भी जानना चािहए तथा िवकमु का सवरप भी जानना चािहए, कयोिक कमु की गित गहन है ।(17)
कम ु णयकम ु यः पशय ेद कम ु िण च कम ु यः।
स ब ुिद मानमन ुषय ेष ु स युिः क ृतसनकम ु कृत।् । 18।।
जो मनुषय कमु मे अकमु दे खता और जो अकमु मे कमु दे खता है , वह मनुषयो मे बुिदमान है और वह योगी समसत कमो को करने वाला है ।(18) यसय स वे समारमभाः का
जानािगनदगधकमा
मसंकलपव िज ु ताः।
ु णं तमाह ु ः पिणड तं ब ु धाः।। 19।।
िजसके समपूणु शास-सममत कमु िबना कामना और संकलप के होते है तथा िजसके समसत कमु जानरप अिगन के िारा भसम हो गये है , उस महापुरष को जानीजन भी पिणडत कहते है ।(19)
तयिवा कम ु ि लासङग ं िनतयत ृ पो िनराशयः।
कम ु णयिभपव ृ तोऽ िप न ैव िक ं िचतकरो ित सः।। 20।। जो पुरष समसत कमो मे और उनके िल मे आसिि का सवथ ु ा तयाग करके संसार के
आशय से रिहत हो गया है और परमातमा मे िनतय तप ृ है , वह कमो मे भली भाँित बरतता हुआ भी वासतव मे कुछ भी नहीं करता।(20)
िनराशीय ु तिचतातमा तयिसव
ु पिर गहः।
शारीर ं केवल ं क मु कुव ु नन ापनोित िक िलबष म।् । 21।।
िजसका अनतःकरण और इिनदयो के सिहत शरीर जीता हुआ है और िजसने समसत भोगो
की सामगी का पिरतयाग कर िदया है , ऐसा आशारिहत पुरष केवल शरीर-समबनधी कमु करता हुआ भी पापो को नहीं पाप होता।(21)
यदचछालाभस ं तुषो ि निातीतो िवमत
सरः।
सम ः िसदाव िसदौ च कृतवा िप न िनब धयत े।। 22।। जो िबना इचछा के अपने-आप पाप हुए पदाथु मे सदा सनतुष रहता है , िजसमे ईषयाु का
सवथ ु ा अभाव हो गया है , जो हषु-शोक आिद िनिो मे सवथ ु ा अतीत हो गया है – ऐसा िसिद और अिसिद मे सम रहने वाला कमय ु ोगी कमु करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता।(अनुकम) गतसङग सय मुिसय जानाविसथ तचेत सः।
यजा याचरतः क मु सम गं प िवलीयत े।। 23।।
िजसकी आसिि सवथ ु ा नष हो गयी है , जो दे हािभमान और ममतारिहत हो गया है , िजसका िचत िनरनतर परमातमा के जान मे िसथत रहता है – ऐसा केवल यजसमपादन के िलए कमु करने वाले मनुषय के समपूणु कमु भली भाँित िवलीन हो जाते है ।(23) बहाप ु णं ब ह ह िवब ु हागन ौ बहणा ह ु त म।्
बहैव त ेन गन तवय ं ब हकम ु समािधना।। 24।। िजस यज मे अपण ु अथात ु ् सुवा आिद भी बह है और हवन िकये जाने योगय दवय भी
बह है तथा बहरप कताु के िारा बहरप अिगन मे आहुित दे नारप िकया भी बह है – उस बहकमु मे िसथत रहने वाले योगी िारा पाप िकये जाने वाले योगय िल भी बह ही है । दैवम ेवापर े यज ं य ोिगनः पय ु पासत े।
बहागनावप रे यज ं य जेन ैवोपज ुहित।। 25।।
दस ु रप यज के ू रे योगीजन दे वताओं के पूजनरप परबहा परमातमारप अिगन मे अभेददशन
िारा ही आतमरप यज का हवन िकया करते है ।(25) शोिादीनीिनदयाणयनय
े स ंयमािगनष ु ज ुह ित।
शबदादी िनवषया ननय इ िनदयािगनष ु ज ुहित।। 26।।
अनय योगीजन शोि आिद समसत इिनदयो को संयमरप अिगनयो मे हवन िकया करते है और दस ू रे लोग शबदािद समसत िवषयो को इिनदयरप अिगनयो मे हवन िकया करते है ।(26) सवा ु णी िनदयकमा ु िण पाणकमा ु िण च ापर े।
आत मसंयमयोगाग नौ ज ुहित जानदीिपत
े।। 27।।
दस ू रे योगीजन इिनदयो की समपूणु िकयाओं को और पाण की समसत िकयाओं को जान
से पकािशत आतमसंयम योगरप अिगन मे हवन िकया करते है ।(27) दवय यजासतपोयजा
योगयजासतथापर े।
सवाधया यजान यजाि यतयः स ं िशत वताः।। 28।।
कई पुरष दवय-समबनधी यज करने वाले है , िकतने ही तपसयारप यज करने वाले है तथा दस ू रे िकतने ही योगरप यज करने वाले है , िकतने ही अिहं सािद तीकण वतो से युि यतशील पुरष सवाधयायरप जानयज करने वाले है ।(28) (अनुकम)
अपा ने ज ुहित प ाणं पाण ेऽपान ं तथापर े।
पाणापा नगती रदधवा पाणायामपरा अपर े िनयतहाराः पाणानपाण
सवे ऽपय ेत े यजिवदो यजकिपत
यणाः।। 29।।
ेष ु जुह ित।
कलमषाः।। 30।।
दस ू रे िकतने ही योगीजन अपानवायु मे पाणवायु को हवन करते है , वैसे ही अनय
योगीजन पाणवायु मे अपानवायु को हवन करते है तथा अनय िकतने ही िनयिमत आहार करने वालो पाणायाम-परायण पुरष पाण और अपान की गित को रोक कर पाणो को पाणो मे ही हवन
िकया करते है । ये सभी साधक यजो िारा पापो का नाश कर दे ने वाले और यजो को जानने वाले है ।(29,30)
यज िशषाम ृ तभु जो या िनत बह सनात म।्
नाय ं लो कोऽसतयजसय
कुतो ऽनयः क ु रसतम।् 31।।
हे कुरशि े अजुन ु ! यज से बचे हुए अमत ृ रप अनन का भोजन करने वाले योगीजन
सनातन परबह परमातमा को पाप होते है और यज न करने वाले पुरष के िलए तो यह मनुषयलोक भी सुखदायक नहीं है , ििर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है ?(31) एवं बह ु िवधा यजा
िवतता बहणो म ुख े।
कमु जािनव िद तानस वाु नेव ं जातवा
िवमोकयस े।। 32।।
इसी पकार और भी बहुत तरह के यज वेद की वाणी मे िवसतार से कहे गये है । उन
सबको तू मन इिनदय और शरीर की िकया िारा समपनन होने वाला जान। इस पकार तिव से जानकर उनके अनुिान िारा तू कमब ु नधन से सवथ ु ा मुि हो जाएगा।(32) शे यानदवयमयाद ाजाजजा नयजः पर ंतप।
सवा कमा ु िख लं पाथ ु जान े पिर समापयत े।। 33।।
हे परं तप अजुन ु ! दवयमय यज की अपेका जानयज अतयनत शि े है , तथा यावनमाि समपूणु कमु जान मे समाप हो जाते है ।
तिि िद पिणपात ेन पिरपश ेन स ेवया।
उपद ेकय िनत त े जान ं जािननसतिवद िश ु नः।। 34।।
उस जान को तू तिवदशी जािनयो के पास जाकर समझ, उनको भली भाँित दणडवत पणाम करने से, उनकी सेवा करने से
और कपट छोडकर सरलतापूवक ु पश करने से वे
परमातम-तिव को भली भाँित जानने वाले जानी महातमा तुझे उस तिवजान का उपदे श करे गे। (34) यजज ातवा न पुनमोह मेव ं यास यिस पाणडव। येन भ ूता नयश ेष ेण दकयसयातमनयथो म
िय।। 35।।
िजसको जानकर ििर तू इस पकार मोह को पाप नहीं होगा तथा हे अजुन ु ! िजस जान के िारा तू समपूणु भूतो को िनःशेषभाव से पहले अपने मे और पीछे मुझे सिचचदाननदिन परमातमा मे दे खेगा।(35) (अनुकम)
अिप च ेदिस पाप ेभय स वे भयः पापक ृतम ः।
सवा जा नपलव ेन ैव व ृ िजन ं स ं तिरषयिस।। 36।। यिद तू अनय सब पािपयो से भी अिधक पाप करने वाला है , तो भी तू जानरप नौका
िारा िनःसनदे ह समपूणु पाप-समुद से भलीभाँित तर जायेगा।(36)
यथैध ांिस स िमदोऽिगनभ ु सम सातकुरत ेऽज ु न।
जान ािगनः स वु कमा ु िण भ समसातक ुरत े त था।। 37।। कयोिक हे अजुन ु ! जैसे पजविलत अिगन ईधनो को भसममय कर दे ती है , वैसे ही जानरप
अिगन समपूणु कमो को भसममय कर दे ती है ।(37)
न िह जान ेन सद शं पिव ििम ह िवदत े।
ततसवय ं योगस ं िसदः काल ेनातमिन
िवनद ित।। 38।।
इस संसार मे जान के समान पिवि करने वाला िनःसंदेह कुछ भी नहीं है । उस जान को
िकतने ही काल से कमय ु ोग के िारा शुदानतःकरण हुआ मनुषय अपने आप ही आतमा मे पा लेता है ।(38)
शदावा ँल लभत े जान ं ततपर ः स ंयत े िनदयः जान ं लबधवा परा ं शा िनतम िच रेणािध गचछित ।। 39।।
िजतेिनदय, साधनपरायण और शदावान मनुषय जान को पाप होता है तथा जान को पाप होकर वह िबना िवलमब के, ततकाल ही भगवतपािपरप परम शािनत को पाप हो जाता है ।(39) अजिाशद धानि स ं शय ातमा िवनशयित।
ना यं लोकोऽ िसत न परो
न स ुख ं स ंशयातमनः।। 40।।
िववेकहीन और शदारिहत संशययुि मनुषय परमाथु से अवशय भष हो जाता है । ऐसे संशययुि मनुषय के िलए न यह लोक है , न परलोक है और न सुख ही है ।(40) योगस ं नयसतकमा ु णं जानस ंिछ ननस ंशयम।्
आतमव नतं न क माु िण िनब धनिनत ध नंजय।। 41।।
हे धनंजय ! िजसने कमय ु ोग की िविध से समसत कमो को परमातमा मे अपण ु कर िदया है और िजसने िववेक िारा समसत संशयो का नाश कर िदया है , ऐसे वश मे िकये हुए अनतःकरण वाले पुरष को कमु नहीं बाँधते।(41)
तस मादजा नसं भूत ं हतसथ ं जानािसनातमनः।
िछिव ैन ं स ं शयं योग माितिोिति भारत।।
42।।
इसिलए हे भरतवंशी अजन ु ! तू हदय मे िसथत इस अजानजिनत अपने संशय का
िववेकजानरप तलवार िारा छे दन करके समतवरप कमय ु ोग मे िसथत हो जा और युद के िलए खडा हो जा। (42) (अनुकम) ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे जानकमस ु नयासयोगो नाम चतुथोऽधयायः।।3।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे जानकमस ु नयासयोग नामक तत ृ ीय अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पाँचव े अ धयाय का माहा
तमय
शी भग वान क हते ह ै – दे वी ! अब सब लोगो िारा सममािनत पाँचवे अधयाय का
माहातमय संकेप मे बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद दे श मे पुरकुतसपुर नामक एक नगर है । उसमे िपंगल नामक एक बाहण रहता था। वह वेदपाठी बाहणो के िवखयात वंश मे, जो
सवद ु ा िनषकलंक था, उतपनन हुआ था, िकंतु अपने कुल के िलए उिचत वेद-शासो के सवाधयाय को छोडकर ढोल बजाते हुए उसने नाच-गान मे मन लगाया। गीत, नतृय और बाजा बजाने की
कला मे पिरशम करके िपंगल ने बडी पिसदी पाप कर ली और उसी से उसका राज भवन मे भी पवेश हो गया। अब वह राजा के साथ रहने लगा। िसयो के िसवा और कहीं उसका मन नहीं
लगता था। धीरे -धीरे अिभमान बढ जाने से उचछं खल होकर वह एकानत मे राजा से दस ू रो के
दोष बतलाने लगा। िपंगल की एक सी थी, िजसका नाम था अरणा। वह नीच कुल मे उतपनन
हुई थी और कामी पुरषो के साथ िवहार करने की इचछा से सदा उनहीं की खोज मे िूमा करती थी। उसने पित को अपने मागु का कणटक समझकर एक िदन आधी रात मे िर के भीतर ही
उसका िसर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन मे गाड िदया। इस पकार पाणो से िवयुि होने पर वह यमलोक पहुँचा और भीषण नरको का उपभोग करके िनजन ु वन मे िगद हुआ।
अरणा भी भगनदर रोग से अपने सुनदर शरीर को तयाग कर िोर नरक भोगने के पिात
उसी वन मे शुकी हुई। एक िदन वह दाना चुगने की इचछा से इधर उधर िुदक रही थी, इतने मे ही उस िगद ने पूवज ु नम के वैर का समरण करके उसे अपने तीखे नखो से िाड डाला। शुकी
िायल होकर पानी से भरी हुई मनुषय की खोपडी मे िगरी। िगद पुनः उसकी ओर झपटा। इतने
मे ही जाल िैलाने वाले बहे िलयो ने उसे भी बाणो का िनशाना बनाया। उसकी पूवज ु नम की पती शुकी उस खोपडी के जल मे डू बकर पाण तयाग चुकी थी। ििर वह कूर पकी भी उसी मे िगर
कर डू ब गया। तब यमराज के दत ु ृत ू उन दोनो को यमराज के लोक मे ले गये। वहाँ अपने पूवक
पापकमु को याद करके दोनो ही भयभीत हो रहे थे। तदननतर यमराज ने जब उनके ििृणत कमो पर दिषपात िकया, तब उनहे मालूम हुआ िक मतृयु के समय अकसमात ् खोपडी के जल मे सनान करने से इन दोनो का पाप नष हो चुका है । तब उनहोने उन दोनो को मनोवांिछत लोक मे जाने की आजा दी। यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनो बडे िवसमय मे पडे और पास जाकर धमरुाज के चरणो मे पणाम करके पूछने लगेः "भगवन ! हम दोनो ने पूवज ु नम मे
अतयनत ििृणत पाप का संचय िकया है , ििर हमे मनोवािञछत लोको मे भेजने का कया कारण है ? बताइये।"
यमराज ने कहा ः गंगा के िकनारे वट नामक एक उतम बहजानी रहते थे। वे
एकानतवासी, ममतारिहत, शानत, िवरि और िकसी से भी िे ष न रखने वाले थे। पितिदन गीता के पाँचवे अधयाय का जप करना उनका सदा िनयम था। पाँचवे अधयाय को शवण कर लेने पर महापापी पुरष भी सनातन बह का जान पाप कर लेता है । उसी पुणय के पभाव से शुद िचत होकर उनहोने अपने शरीर का पिरतयाग िकया था। गीता के पाठ से िजनका शरीर िनमल ु हो
गया था, जो आतमजान पाप कर चुके थे, उनही महातमा की खोपडी का जल पाकर तुम दोनो
पिवि हो गये। अतः अब तुम दोनो मनोवािञछत लोको को जाओ, कयोिक गीता के पाँचवे अधयाय के माहातमय से तुम दोनो शुद हो गये हो।
शी भग वान क हते ह ै – सबके पित समान भाव रखने वाले धमरुाज के िारा इस पकार
समझाये जाने पर (अनुकम)
दोनो बहुत पसनन हुए और िवमान पर बैठकर वैकुणठधाम को चले गये।
पाँचव ाँ अधयायः कम ु संनया सयो ग तीसरे और चौथे अधयाय मे अजुन ु ने भगवान शीकृ णण के मुख से कमु की अनेक पकार से पशंसा सुनकर और उसके अनुसार बरतने की पेरणा और आजा पाकर साथ-साथ मे यह भी
जाना िक कमय ु ोग के िारा भगवतसवरप का तिवजान अपने-आप ही हो जाता है । चौथे अधयाय के अंत मे भी भगवान ने उनहे कमय ु ोग पाप करने को आजा दी है , परं तु बीच-बीच मे
बहागनावप रे यज ं य जेन ैवोपज ुहित। त िििद पािण पात े न .... आिद वचनो के िारा जानयोग की (कमु संनयास की) पशंसा सुनी। इससे अजुन ु इन दोनो मे अपने िलए कौन-सा साधन शि े है
उसका िनिय न कर सका। इसिलए उसका िनणय ु अब भगवान के शीमुख से ही हो इस उदे शय से अजुन ु पूछते है -
।। अथ प ंचमोऽधयायः ।। अजुु न उ वाच
संनयास ं कम ु ण ां कृषण प ुनय ोगं च शं सिस। यचछेय एतयोर ेकं त नमे ब ू िह स ुिन ितम।् । 1।।
अजुन ु बोलेः हे कृ षण ! आप कमो के संनयास की और ििर कमय ु ोग की पशंसा करते है । इसिलए इन दोनो साधनो मे से जो एक मेरे िलए भली भाँित िनिित कलयाणकारक साधन हो, उसको किहये।(1)
शीभगवान ुवाच
संनयास ः कम ु योगि िन ःश े यस कराव ुभौ। तयोसत ु क मु संनयासातकम ु योगो िव िशषयत े।। 2।।
शी भगवान बोलेः कमस ु ंनयास और कमय ु ोग – ये दोनो ही परम कलयाण के करने वाले है , परनतु उन दोनो मे भी कमस ु ंनयास से कमय ु ोग साधन मे सुगम होने से शि े है ।(2) जेयः स िनतयस ंनयासी यो
न ि े िष न क ांक ित।
िनि ु निो िह म हाबाहो स ुख ं ब ंधातपम ुचयत े।। 3।।
हे अजुन ु ! जो पुरष िकसी से िे ष नहीं करता है और न िकसी की आकांका करता है , वह कमय ु ोगी सदा संनयासी ही समझने योगय है , कयोिक राग-िे षािद िनिो से रिहत पुरष सुखपूवक ु संसारबनधन से मुि हो जाता है ।(3)
सांख योगो प ृ थगबालाः प वदिनत न प िणड ताः। एकमपया िसथतः स मगुभयोिव ु नदत े िल म।् ।4।।
उपयुि ु संनयास और कमय ु ोग को मूखु लोग पथ ृ क-पथ ृ क िल दे ने वाले कहते है न िक पिणडतजन, कयोिक दोनो मे से एक मे भी समयक पकार से िसथत पुरष दोनो के िलसवरप परमातमा को पाप होता है ।(4)
यतसा ंखय ैः पापयत े स थान ं तदोग ैर िप गमयत े।
एकं सा ंखय ं य योग ं च यः पशयित स पशय
ित।। 5।।
जानयोिगयो िारा जो परम धाम पाप िकया जाता है , कमय ु ोिगयो िारा भी वही पाप िकया
जाता है इसिलए जो पुरष जानयोग और कमय ु ोग को िलरप मे एक दे खता है , वही यथाथु दे खता है ।(5)
संनयाससत ु महाबाहो द ु ःखमाप ुमयोगतः।
योगय ुि ो म ुिनब ु ह निचर ेणाध गचछ ित।। 6।।
परनतु हे अजुन ु ! कमय ु ोग के िबना होने वाले संनयास अथात ु ् मन, इिनदय और शरीर िारा
होने वाले समपूणु कमो मे कताप ु न का तयाग पाप होना किठन है और भगवतसवरप को मनन करने वाला कमय ु ोगी परबह परमातमा को शीघ ही पाप हो जाता है ।(6) योगय ुि ो िव शुदातमा
िविज तातमा िजत े िनदयः।
सव ु भू तातमभ ूतातमा क ुव ु ननिप न
िलपयत े।। 7।।
िजसका मन अपने वश मे है , जो िजतेिनदय और िवशुद अनतःकरण वाला
तथा समपूणु
पािणयो का आतमरप परमातम ही िजसका आतमा है , ऐसा कमय ु ोगी कमु करता हुआ भी िलप नहीं होता।(7) (अनुकम)
नैव िकं िचतकरोमी ित य ुि ो मन येत तिव िवत।् पशयञश ृ णव नसप ृ शिञजघ ननशनगचछ नसवपञ शसन।् ।8।। पलयप िनवस ृ ज नग ृ हण ननुिनम षिनन िमष ननिप।
इिनद याणीिनदया थेष ु वत ु नत इ ित धारयन। ् ।9।।
तिव को जानने वाला सांखययोगी तो दे खता हुआ, सुनता हुआ, सपशु करता हुआ, सूँिता
हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, शास लेता हुआ, बोलता हुआ, तयागता हुआ, गहण करता हुआ तथा आँखो को खोलता और मूद ँ ता हुआ भी, सब इिनदयाँ अपने-अपने अथो मे बरत रहीं है – इस पकार समझकर िनःसंदेह ऐसा माने िक मै कुछ भी नहीं करता हूँ। बह णय ाधाय कमा ु िण सङग ं तयिवा करोित यः। िलपयत े न स पाप े न पदपि
िमवामभसा।। 10।।
जो पुरष सब कमो को परमातमा मे अपण ु करके और आसिि को तयागकर कमु करता है , वह पुरष जल से कमल के पते की भाँित पाप से िलप नहीं होता।(10)
काय ेन मनसा ब ुदया केवल ैिरिनदय ैर िप। योिगन ः कम ु कुव ु िनत स ङगं तयिवातमश ुद ये।। 11।।
कमय ु ोगी ममतवबुिदरिहत केवल इिनदय, मन, बुिद और शरीर िारा भी आसिि को तयागकर अनतःकरण की शुिद के िलए कमु करते है ।(11)
युिः क मु िलं तयिवा शा िनतमापनोित न ैिि कीम।् अयुि ः कामकार ेण ि ले सिो िनबधयत े।। 12।।
कमय ु ोगी कमो के िल का तयाग करके भगवतपािपरप शािनत को पाप होता है और सकाम पुरष कामना की पेरणा से िल मे आसि होकर बँधता है ।
सव ु क माु िण मनसा स ं नयसय ासत े स ुख ं व शी।
नविार े पुरे द ेही न ैव कुव ु नन कारयन। ् । 13।।
अनतःकरण िजसके वश मे है ऐसा सांखययोग का आचरण करने वाला पुरष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नविारो वाले शरीर रपी िर मे सब कमो का मन से तयाग कर आननदपूवक ु सिचचदानंदिन परमातमा के सवरप मे िसथत रहता है ।(13)
न क तुृ तवं न क माु िण लोकसय स ृ जित प भुः। न क मु िल संयोग ं सवभावसत ु पवत ु ते।। 14।।
परमेशर मनुषयो के न तो कताप ु न की, न कमो की और न कमि ु ल के संयोग की रचना
करते है , िकनतु सवभाव ही बरत रहा है ।(14)
नाद ते कसय िचतपाप ं न चैव स ुकृतं िवभ ु ः।
अजा नेन ाव ृ तं जान ं तेन म ुह िनत जनतव ः।। 15।। सववुयापी परमेशर भी न िकसी के पापकमु को और न िकसी के शुभ कमु को ही गहण
करता है , िकनतु अजान के िारा जान ढका हुआ है , उसी से सब अजानी मनुषय मोिहत हो रहे है । (15) जान ेन त ु तदजान ं य ेष ां नािशत मातमनः। तेषामािदतयवजजान
ं पका शयित ततपरम। ् ।16।।
परनतु िजनका वह अजान परमातमा के तिवजान िारा नष कर िदया गया है , उनका वह
जान सूयु के सदश उस सिचचदानंदिन परमातमा को पकािशत कर दे ता है ।(16) (अनुकम) तद ब ुदयसतदातमानसतिननिासततपरायण
ाः।
गचछ नतयप ुन राव ृ ितं जानिनध ूु तकल मषाः।। 17।। िजनका मन तदप ू हो रहा है , िजनकी बुिद तदप ू हो रही है और सिचचदाननदिन परमातमा
मे ही िजनकी िनरनतर एकीभाव से िसथित है , ऐसे ततपरायण पुरष जान के िारा पापरिहत होकर अपुनराविृत को अथात ु ् परम गित को पाप होते है ।(17)
िवदािवनयस ंप नने बाहण े ग िव ह िसतनी।
शुिन च ैव शपाक े च पिणड ताः स मद िश ु नः।। 18।। वे जानीजन िवदा और िवनययुि बाहण मे तथा गौ, हाथी, कुते और चाणडाल मे भी
समदशी होते है ।(18)
इहैव त ैिज ु त ः स गो येषा ं स ामय े िसथत ं मन ः।
िनदोष ं िह सम ं ब ह तसमाद बह िण त े िसथ ताः।। 19।। िजनका मन समभाव मे िसथत है , उनके िारा इस जीिवत अवसथा मे ही समपूणु संसार
जीत िलया गया है , कयोिक सिचचदाननदिन परमातमा िनदोष और सम है , इससे वे सिचचदाननदिन परमातमा मे ही िसथत है ।(19)
न प हषय ेितपय ं पापय
नोििज ेतपापय चािपयम। ्
िसथरब ुिदरस ं मूढो बहिव द बहिण
िसथ तः।। 20।।
जो पुरष िपय को पाप होकर हिषत ु नहीं हो और अिपय को पाप होकर उििगन न हो, वह िसथरबुिद, संशय रिहत, बहवेता पुरष सिचचदाननदिन परबह परमातमा मे एकीभाव से िनतय िसथत है ।(20)
बाहसप शे षवसिातमा िव नदतय ातमिन यतस ुख म।् स बहयोगय ुिातमा स ुखमकयमश ुत े।। 21।।
बाहर के िवषयो मे आसििरिहत अनतःकरण वाला साधक आतमा मे िसथत जो
धयानजिनत साििवक आननद है , उसको पाप होता है । तदननतर वह सिचचदानंदिन परबह परमातमा के धयानरप योग मे अिभननभाव से िसथत पुरष अकय आननद का अनुभव करता है । (21) ये िह स ंसपश ु जा भो गा द ु ःखयोन य एव त े। आद नतवनत ः कौनत ेय न त ेष ु रमत े ब ुध ः।। 22।।
जो ये इिनदय तथा िवषयो के संयोग से उतपनन होने वाले सब भोग है , यदिप िवषयी पुरषो को सुखरप भासते है तो भी दःुख के ही हे तु है और आिद-अनतवाले अथात ु ् अिनतय है । इसिलए हे अजुन ु ! बुिदमान िववेकी पुरष उनमे नहीं रमता।(22) (अनुकम) शकनोतीह ैव य ः सोढ ु ं पाकशरीरिवमोकणात।
्
काम कोधोद भव ं व ेग ं स युिः स स ुखी नरः।। 23।। जो साधक इस मनुषय शरीर मे, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-कोध से
उतपनन होने वाले वेग को सहन करने मे समथु हो जाता है , वही पुरष योगी है और वही सुखी है ।(23)
योऽनत ःसुखोऽ नतरार ामसत थानतजयोितर ेव यः। स य ोगी बह िनवा ु णं ब हभूतो ऽिध गचछ ित।। 24।।
जो पुरष अनतरातमा मे ही सुख वाला है , आतमा मे ही रमण करने वाला है तथा जो आतमा मे ही जानवाला है , वह सिचचदाननदिन परबह परमातमा के साथ एकीभाव को पाप सांखयोगी शानत बह को पाप होता है ।(24)
लभनत े ब हिनवा ु णम ृ षयः कीणकल मषाः।
िछ ननि ैधा यतातमानः सव
ु भूतिहत े रता ः।। 25।।
िजनके सब पाप नष हो गये है , िजनके सब संशय जान के िारा िनवत ृ हो गये है , जो
समपूणु पािणयो के िहत मे रत है और िजनका जीता हुआ मन िनिलभाव से परमातमा मे िसथत है , वे बहवेता पुरष शानत बह को पाप होते है ।(25)
काम कोधिवय ुिाना ं यतीना ं यतच ेतसा म।्
अिभतो ब हिनवा ु णं व तु ते िव िदतातमनाम। ् ।26।।
काम कोध से रिहत, जीते हुए िचतवाले, परबह परमातमा का साकातकार िकये हुए जानी
पुरषो के िलए सब ओर से शानत परबह परमातमा ही पिरपूणु है ।(26)
सपशा ु नकृतवा बिहबा ु हांिक ुि ैवानतर े भ ुवो ः।
पाणापा नौ स मौ कृतवा नासाभयनतरचािरणौ।।
27।।
यते िनदयमनोब ुिदम ु िनमोकपरायणः।
िव गतेचछाभयकोधो यः स
दा मुि एव सः ।। 28।।
बाहर के िवषय भोगो को न िचनतन करता हुआ बाहर ही िनकालकर और नेिो की दिष
को भक ृ ु टी के बीच मे िसथत करके तथा नािसका मे िवचरने वाले पाण और अपान वायु को सम करके, िजसकी इिनदयाँ, मन और बुिद जीती हुई है , ऐसा जो मोकपरायण मुिन इचछा, भय और कोध से रिहत हो गया है , वह सदा मुि ही है ।(27,28)
भोिार ं यजतपस ां सव ु लोक महेशरम।्
सुहद ं स वु भूताना ं जातवा मा ं शािनत मृ च छित।। 29।।
मेरा भि मुझको सब यज और तपो का भोगने वाला, समपूणु लोको के ईशरो का भी ईशर तथा समपूणु भूत-पािणयो का सुहद अथात ु ् सवाथरुिहत दयालु और पेमी, ऐसा तिव से जानकर शािनत को पाप होता है ।(29) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भागवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे कमस ु ंनयासयोगो नाम पंचमोऽधयायः।।5।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'कमस ु ंनयास योग' नामक पाँचवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
छठे अधयाय क ा माहातमय
शी भग वान क हते ह ै – सुमिु ख ! अब मै छठे अधयाय का माहातमय बतलाता हूँ, िजसे
सुनने वाले मनुषयो के िलए मुिि करतलगत हो जाती है । गोदावरी नदी के तट पर पितिानपुर (पैठण) नामक एक िवशाल नगर है , जहाँ मै िपपलेश के नाम से िवखयात होकर रहता हूँ। उस
नगर मे जानशिुत नामक एक राजा रहते थे, जो भूमणडल की पजा को अतयनत िपये थे। उनका
पताप मातणुड-मणडल के पचणड तेज के समान जान पडता था। पितिदन होने वाले उनके यज के धुएँ से ननदनवन के कलपवक ृ इस पकार काले पड गये थे, मानो राजा की असाधारण दानशीलता
दे खकर वे लिजजत हो गये हो। उनके यज मे पाप पुरोडाश के रसासवादन मे सदा आसि होने के कारण दे वता लोग कभी पितिानपुर को छोडकर बाहर नहीं जाते थे। उनके दान के समय छोडे
हुए जल की धारा, पतापरपी तेज और यज के धूमो से पुष होकर मेि ठीक समय पर वषाु करते थे। उस राजा के शासन काल मे ईितयो (खेती मे होने वाले छः पकार के उपदवो) के िलए कहीं थोडा भी सथान नहीं िमलता था और अचछी नीितयो का सवि ु पसार होता था। वे बावली, कुएँ
और पोखरे खुदवाने के बहाने मानो पितिदन पथृवी के भीतर की िनिधयो का अवलोकन करते थे। एक समय राजा के दान, तप, यज और पजापालन से संतुष होकर सवगु के दे वता उनहे वर दे ने
के िलए आये। वे कमलनाल के समान उजजवल हं सो का रप धारण कर अपनी पँख िहलाते हुए आकाशमागु से चलने लगे। बडी उतावली के साथ उडते हुए वे सभी हं स परसपर बातचीत भी
करते जाते थे। उनमे से भदाश आिद दो-तीन हं स वेग से उडकर आगे िनकल गये। तब पीछे वाले हं सो ने आगे जाने वालो को समबोिधत करके कहाः "अरे भाई भदाश ! तुमलोग वेग से चलकर
आगे कयो हो गये? यह मागु बडा दग ु है । इसमे हम सबको साथ िमलकर चलना चािहए। कया ु म
तुमहे िदखाई नहीं दे ता, यह सामने ही पुणयमूितु महाराज जानशिुत का तेजपुज ं अतयनत सपष रप से पकाशमान हो रहा है ? (उस तेज से भसम होने की आशंका है , अतः सावधान होकर चलना चािहए।)"
पीछे वाले हं सो के ये वचन सुनकर आगेवाले हं स हँ स पडे और उचच सवर से उनकी बातो
की अवहे लना करते हुए बोलेः "अरे भाई ! कया इस राजा जानशिुत का तेज बहवादी महातमा रै कव के तेज से भी अिधक तीव है ?" (अनुकम)
हं सो की ये बाते सुनकर राजा जानशिुत अपने ऊँचे महल की छत से उतर गये और
सुखपूवक ु आसन पर िवराजमान हो अपने सारिथ को बुलाकर बोलेः "जाओ, महातमा रै कव को
यहाँ ले आओ।" राजा का यह अमत ृ के समान वचन सुनकर मह नामक सारिथ पसननता पकट करता हुआ नगर से बाहर िनकला। सबसे पहले उसने मुििदाियनी काशीपुरी की यािा की, जहाँ
जगत के सवामी भगवान िवशनाथ मनुषयो को उपदे श िदया करते है । उसके बाद वह गया केि मे पहुँचा, जहाँ पिुलल नेिोवाले भगवान गदाधर समपूणु लोको का उदार करने के िलए िनवास
करते है । तदननतर नाना तीथो मे भमण करता हुआ सारिथ पापनािशनी मथुरापुरी मे गया। यह
भगवान शी कृ षण का आिद सथान है , जो परम महान तथा मोक पदान कराने वाला है । वेद और
शासो मे वह तीथु ििभुवनपित भगवान गोिवनद के अवतारसथान के नाम से पिसद है । नाना दे वता और बहिषु उसका सेवन करते है । मथुरा नगर कािलनदी (यमुना) के िकनारे शोभा पाता है । उसकी आकृ ित अदुचनद के समान पतीत होती है । वह सब तीथो के िनवास से पिरपूणु है । परम आननद पदान करने के कारण सुनदर पतीत होता है । गोवधन ु पवत ु होने से मथुरामणडल की
शोभा और भी बढ गयी है । वह पिवि वक ृ ो और लताओं से आवत ृ है । उसमे बारह वन है । वह परम पुणयमय था सबको िवशाम दे ने वाले शिुतयो के सारभूत भगवान शीकृ षण की आधारभूिम है ।
ततपिात मथुरा से पििम और उतर िदशा की ओर बहुत दरू तक जाने पर सारिथ को
काशमीर नामक नगर िदखाई िदया, जहाँ शंख के समान उजजवल गगनचुमबी महलो की पंिियाँ भगवान शंकर के अटटहास की शोभा पाती है , जहाँ बाहणो के शासीय आलाप सुनकर मूक मनुषय भी सुनदर वाणी और पदो का उचचारण करते हुए दे वता के समान हो जाते है , जहाँ
िनरनतर होने वाले यजधूम से वयाप होने के कारण आकाश-मंडल मेिो से धुलते रहने पर भी अपनी कािलमा नहीं छोडते, जहाँ उपाधयाय के पास आकर छाि जनमकालीन अभयास से ही समपूणु कलाएँ सवतः पढ लेते है तथा जहाँ मिणकेशर नाम से पिसद भगवान चनदशेखर
दे हधािरयो को वरदान दे ने के िलए िनतय िनवास करते है । काशमीर के राजा मिणकेशर ने िदिगवजय मे समसत राजाओं को जीतकर भगवान िशव का पूजन िकया था, तभी से उनका नाम मिणकेशर हो गया था। उनहीं के मिनदर के दरवाजे पर महातमा रै कव एक छोटी सी गाडी पर
बैठे अपने अंगो को खुजलाते हुए वक ृ की छाया का सेवन कर रहे थे। इसी अवसथा मे सारिथ ने उनहे दे खा। राजा के बताये हुए िभनन-िभनन िचिो से उसने शीघ ही रै कव को पहचान िलया और
उनके चरणो मे पणाम करके कहाः "बहण ! आप िकस सथान पर रहते है ? आपका पूरा नाम कया है ? आप तो सदा सवचछं द िवचरने वाले है , ििर यहाँ िकसिलए ठहरे है ? इस समय आपका कया करने का िवचार है ?" (अनुकम)
सारिथ के ये वचन सुनकर परमाननद मे िनमगन महातमा रै कव ने कुछ सोचकर उससे
कहाः "यदिप हम पूणक ु ाम है – हमे िकसी वसतु की आवशयकता नहीं है , तथािप कोई भी हमारी मनोविृत के अनुसार पिरचयाु कर सकता है ।" रै कव के हािदु क अिभपाय को आदपपूवक ु गहण
करके सारिथ धीरे -से राजा के पास चल िदया। वहाँ पहुँचकर राजा को पणाम करके उसने हाथ
जोडकर सारा समाचार िनवदे न िकया। उस समय सवामी के दशन ु से उसके मन मे बडी पसननता थी। सारिथ के वचन सुनकर राजा के नेि आियु से चिकत हो उठे । उनके हदय मे रै कव का
सतकार करने की शदा जागत ृ हुई। उनहोने दो खचचिरयो से जुती हुई गाडी लेकर यािा की। साथ ही मोती के हार, अचछे -अचछे वस और एक सहस गौएँ भी ले लीं। काशमीर-मणडल मे महातमा रै कव जहाँ रहते थे उस सथान पर पहुँच कर राजा ने सारी वसतुएँ उनके आगे िनवेदन कर दीं
और पथ ृ वी पर पडकर साषांग पणाम िकया। महातमा रै कव अतयनत भिि के साथ चरणो मे पडे
हुए राजा जानशिुत पर कुिपत हो उठे और बोलेः "रे शूद ! तू दष ृ ानत ु राजा है । कया तू मेरा वत नहीं जानता? यह खचचिरयो से जुती हुई अपनी ऊँची गाडी ले जा। ये वस, ये मोितयो के हार
और ये दध ू दे ने वाली गौएँ भी सवयं ही ले जा।" इस तरह आजा दे कर रै कव ने राजा के मन मे भय उतपनन कर िदया। तब राजा ने शाप के भय से महातमा रै कव के दोनो चरण पकड िलए और भििपूवक ु कहाः "बहण ! मुझ पर पसनन होइये। भगवन ! आपमे यह अदभत माहातमय कैसे आया? पसनन होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये।"
रैकव न े कहा ः राजन ! मै पितिदन गीता के छठे अधयाय का जप करता हूँ, इसी से मेरी
तेजोरािश दे वताओं के िलए भी दःुसह है ।
तदननतर परम बुिदमान राजा जानशिुत ने यतपूवक ु महातमा रै कव से गीता के छठे
अधयाय का अभयास िकया। इससे उनहे मोक की पािप हुई। रै कव पूवव ु त ् मोकदायक गीता के
छठे अधयाय का जप जारी रखते हुए भगवान मिणकेशर के समीप आननदमगन हो रहने लगे।
हं स का रप धारण करके वरदान दे ने के िलए आये हुए दे वता भी िविसमत होकर सवेचछानुसार चले गये। जो मनुषय सदा इस एक ही अधयाय का जप करता है , वह भी भगवान िवषणु के सवरप को पाप होता है – इसमे तिनक भी सनदे ह नहीं है ।(अनुकम)
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छठा अ धयायः आतमस ंय मयोग पाँचवे अधयाय के आरमभ मे अजुन ु ने भगवान से "कमस ु ंनयास" (सांखय योग) तथा कमय ु ोग इन दोनो मे से कौन सा साधन िनिितरप से कलयाणकारी है यह जानने की पाथन ु ा
की। तब भगवान ने दोनो साधनो को कलयाणकारी बताया और िल मे दोनो समान है ििर भी साधन मे सुगमता होने से कमस ु ंनयास की अपेका कमय ु ोग की शि े ता िसद की है । बाद मे उन दोनो साधनो का सवरप, उनकी िविध और उनका िल अचछी तरह से समझाया। इसके उपरांत
उन दोनो के िलए अित उपयोगी और मुखय उपाय समझकर संकेप मे धयानयोग का भी वणन ु िकया, लेिकन उन दोनो मे से कौन-सा साधन करना यह बात अजुन ु सपष रप से नहीं समझ
पाया और धयानयोग का अंगसिहत िवसतत ृ वणन ु करने के िलए छठे अधयाय का आरमभ करते है । पथम भिियुि कमय ु ोग मे पवत ृ करने के िलए भगवान शीकृ षण कमय ु ोग की पशंसा करते है ।
।। अथ ष षोऽधयायः ।। शीभगवान ुवाच
अनािशत ः कम ु िलं काय ा कम ु करोित य ः। स स ं नयासी च योगी च न िनरिगन नु चा िकयः।। 1।।
शी भगवान बोलेः जो पुरष कमि ु ल का आशय न लेकर करने योगय कमु करता है , वह संनयासी तथा योगी है और केवल अिगन का तयाग करने वाला संनयासी नहीं है तथा केवल िकयाओं का तयाग करने वाला योगी नहीं है ।(1)
यं स ं नयासिम ित पाह ु योग ं त ं िव िद पाणडव।
न ह संनयसतस ंकल पो योगी भव ित किन।। 2।। हे अजुन ु ! िजसको संनयास ऐसा कहते है , उसी को तू योग जान, कयोिक संकलपो का
तयाग न करने वाला कोई भी पुरष योगी नहीं होता।(2)
आररकोम ु नेयोग ं कम ु कारणम ुचयत े।
योगारढसय
त सयैव श मः कारणम ुचयत े।। 3।।
योग मे आरढ होने की इचछावाले मननशील पुरष के िलए योग की पािप मे िनषकामभाव
से कमु करना ही हे तु कहा जाता है और योगारढ हो जाने पर उस योगारढ पुरष का जो सवस ु क ं लपो का अभाव है , वही कलयाण मे हे तु कहा जाता है ।(3)
यदा िह न े िनदयाथ ेष ु न क मु सवुषजजत े।
सव ु सं कलपस ं नय ासी योगारढसतदोचयत
े।। 4।।
िजस काल मे न तो इिनदयो के भोगो मे और न कमो मे ही आसि होता है , उस काल मे सवस ु क ं लपो का तयागी पुरष योगारढ कहा जाता है ।(4)
उदर ेदातमन ाऽ तमान ं नातमानमवसादय
े त।्
आतम ैव ह ातमन ो बन धुरातम ैव िरप ुरातमनः।। 5।।
अपने िारा अपना संसार-समुद से उदार करे और अपने को अधोगित मे न डाले, कयोिक यह मनुषय, आप ही तो अपना िमि है और आप ही अपना शिु है ।(5) बनधुरातमातमनसतसय य
ेनातम ैवातमना
िजत ः।
अनातमनसत ु श िुतव े वत े तातम ैव श िुवत।् ।6।।
िजस जीवातमा िारा मन और इिनदयो सिहत शरीर जीता हुआ है , उस जीवातमा का तो
वह आप ही िमि है और िजसके िारा मन तथा इिनदयो सिहत शरीर नहीं जीता गया है , उसके िलए वह आप ही शिु के सदश शिुता मे बरतता है ।(6) (अनुकम)
िजतातमनः प शानतसय परमातमा समा
िहत ः।
शीतोषणस ुखद ु ःखेष ु त था मानापमान योः।। 7।।
सदी-गमी और सुख-दःुख आिद मे तथा मान और अपमान मे िजसके अनतःकरण की
विृतयाँ भली भाँित शांत है , ऐसे सवाधीन आतमावाले पुरष के जान मे सिचचदाननदिन परमातमा, समयक् पकार से ही िसथत है अथात ु ् उसके जान मे परमातमा के िसवा अनय कुछ है ही नहीं।(7) जानिवजा नत ृ पातमा क ूटस थो िविज तेिनदय ः।
युि इ तयुचयत े योगी सम लोषा शमक ांचन ः।। 8।।
िजसका अनतःकरण जान िवजान से तप ृ है , िजसकी िसथित िवकार रिहत है , िजसकी इिनदयाँ भली भाँित जीती हुई है और िजसके िलए िमटटी, पतथर और सुवणु समान है , वह योगी युि अथात ु ् भगवतपाप है , ऐसा कहा जाता है ।(8)
सुह िनमि ायुु दासीनमधयसथ िेषयबनध ुष ु।
साध ुषव िप च पाप ेष ु स मबुिदिव ु िशषयत े।। 9।। सुहद, िमि, वैरी उदासीन, मधयसथ, िे षय और बनधुगणो मे, धमातुमाओं मे और पािपयो मे
भी समान भाव रखने वाला अतयनत शि े है ।(9)
योगी युञजीत स ततमातमान ं रहिस एकाकी यत िचतातमा
िनराशीरपिरगह
िसथ तः।
ः।। 10।
मन और इिनदयो सिहत शरीर को वश मे रखने वाला, आशारिहत और संगहरिहत योगी
अकेला ही एकानत सथान मे िसथत होकर आतमा को िनरनतर परमातमा लगावे।(10) शु चौ देश े पित िाप य िसथरमासनमातमनः।
नात यु िचछत ं नाितनी चं च ै लाजिनक ुशोतरम। ् । 11।। तिैकाग ं मनः क ृतवा यत िचत ेिनद यिकयः।
उप िवशय ास ने य ुंज यादोगमातमिव शुदय े।। 12।। शुद भूिम मे, िजसके ऊपर कमशः कुशा, मग ृ छाला और वस िबछे है , जो न बहुत ऊँचा है
न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को िसथर सथापन करके उस आसन पर बैठकर िचत और इिनदयो की िकयाओं को वश मे रखते हुए मन को एकाग करके योग का अभयास करे ।(11,12) (अनुकम)
अनतःकरण की शुिद के िलए
समं कायिशरोगीव ं धारयननच लं िसथ रः।
संप ेकयनािसकाग ं सव ं िदश िानवलोकय न।् ।13।। पशानतातमा िव गतभीब ु ह चािरवत े िसथत ः।
मन स ंयम य म िचचतो य ुि आसीत मतपर
ः।। 14।।
काया, िसर और गले को समान एवं अचल धारण करके और िसथर होकर, अपनी नािसका
के अगभाग पर दिष जमाकर, अनय िदशाओं को न दे खता हुआ बहचारी के वत मे िसथत, भयरिहत तथा भली भाँित शानत अनतःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमे िचतवाला और मेरे परायण होकर िसथत होवे।(13,14)
युंजन नेव ं सदातमान ं योगी
िनयतमानसः।
शा िनत ं िनवा ु णपरमा ं मत संसथाम िधग चछ ित।। 15।। वश मे िकये हुए मनवाला योगी इस पकार आतमा को िनरनतर मुझ परमेशर के सवरप
मे लगाता हुआ मुझमे रहने वाली परमाननद की पराकािारप शािनत को पाप होता है ।(15) नातय ाशतसत ु योगोऽ िसत न च ै कानतमनशत ः।
न च ाित सवपनशी लसय जा गतो नैव चा जुु न।। 16।। हे अजुन ु ! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न िबलकुल न खाने वाले का, न बहुत
शयन करने के सवभाववाले का और न सदा ही जागने वाले का ही िसद होता है ।(16) युिाहा रिव हारस य य ुिच ेषसय कम ु सु।
युिसवपन ावबोधसय योगो
भ वित द ु ःखहा।। 17।।
दःुखो का नाश करने वाला योग तो यथायोगय आहार-िवहार करने वाले का, कमो मे यथा
योगय चेषा करने वाले का और यथायोगय सोने तथा जागने वाले का ही िसद होता है ।(17) यदा िविनयत ं िच तमातमन येवावितित े।
िन ःसप ृ ह ः सव ु काम ेभयो य ुि इ तयुचयत े तदा।। 18।। अतयनत वश मे िकया हुआ िचत िजस काल मे परमातमा मे ही भली भाँित िसथत हो
जाता है , उस काल मे समपूणु भोगो से सपह ृ ारिहत पुरष योगयुि है , ऐसा कहा जाता है ।(18) यथा दीपो
योिगनो
िन वातसथो न ेङ गते सोपमा सम ृ ता।
यत िचतसय य ुंजतो योग मातमनः।। 19।।
िजस पकार वायुरिहत सथान मे िसथत दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा
परमातमा के धयान मे लगे हुए योगी के जीते हुए िचत की कही गयी है ।(19) (अनुकम) यिोपरमत े िचत ं िन रदं योगस ेवया।
यि च ैवातमनातमान ं पशयननातमिन त
ुषयित।। 20।।
सुखमातय िनतकं यतद बुिदगाहम तीिनदयम। ्
वेित यि न
चैवाय ं िसथत िल ित तिवत ः।। 21।।
यं लब धवा च ापर ं लाभ ं म नयत े ना िधकं तत ः।
यिसमन ् िसथतो न द ु ःखेन ग ुरणािप
िवचालयत े।। 22।।
तं िवदाद द ु ःखस ंयोगिवयोग ं योगस ं िजतम।्
स िन ियेन योि वयो योगोऽ िनिव ु णणच ेतसा।। 23।। योग के अभयास से िनरद िचत िजस अवसथा मे उपराम हो जाता है और िजस अवसथा
मे परमातमा के धयान से शुद हुई सूकम बुिद िारा परमातमा को साकात ् करता हुआ
सिचचदाननदिन परमातमा मे ही सनतुष रहता है । इिनदयो से अतीत, केवल शुद हुई सूकम बुिद िारा गहण करने योगय जो अननत आननद है , उसको िजस अवसथा मे अनुभव करता है और
िजस अवसथा मे िसथत यह योगी परमातमा के सवरप से िवचिलत होता ही नहीं। परमातमा की पािप रप िजस लाभ को पाप होकर उससे अिधक दस ू रा कुछ भी लाभ नहीं मानता और
परमातमपािपरप िजस अवसथा मे िसथत योगी बडे भारी दःुख से भी चलायमान नहीं होता। जो
दःुखरप संसार के संयोग से रिहत है तथा िजसका नाम योग है , उसको जानना चािहए। वह योग न उकताए हुए अथात ु ् धैयु और उतसाहयुि िचत से िनियपूवक ु करना कतवुय है ।
संकलपप भवानकाम ांसतयिवा
स वाु नशेषतः।
मनस ैव े िनदयगाम ं िव िनयमय स मनत तः।। 24।। शनै ः शन ैरपरम ेद ब ुदया ध ृ ित गृ हीतया।
आत मसंसथ ं मनः क ृतवा न िक ं िचद िप िचन तयेत।् । 25।।
संकलप से उतपनन होने वाली समपूणु कामनाओं को िनःशेषरप से तयागकर और मन के िारा इिनदयो के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँित रोककर कम-कम से अभयास करता हुआ
उपरित को पाप हो तथा धैयय ु ुि बुिद के िारा मन को परमातमा मे िसथत करके परमातमा के िसवा और कुछ भी िचनतन न करे ।(24,25)
यतो यतो िनिर ित मनि ं चलम िसथरम।्
ततसततो िनयमय ैतदातमन येव व शं नय ेत।् । 26।।
यह िसथर न रहने वाला और चञचल मन िजस-िजस शबदािद िवषय के िनिमत से संसार मे िवचरता है , उस-उस िवषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमातमा मे ही िनरद करे । पशान तमनस ं ह ेन ं योिगन ं स ुख मुतमम।्
उपैित शा नतरजस ं ब हभूत मकलमषम।। 27।।
कयोिक िजसका मन भली पकार शानत है , जो पाप से रिहत है और िजसका रजोगुण शानत हो गया है , ऐसे इस सिचचदाननदिन बह के साथ एकीभाव हुए योगी को उतम आननद पाप होता है ।(27)
युंजनन े वं सदातमान ं योगी िव गतकल मषः।
सुख ेन ब हसंसप शु मतयनत ं स ुखमश ुत े।। 28।। वह पापरिहत योगी इस पकार िनरनतर आतमा को परमातमा मे लगाता हुआ सुखपूवक ु
परबह परमातमा की पािपरप अननत आननद का अनुभव करता है ।(28) (अनुकम) सवु भूतस थमातमान ं स वु भूतािन च ातमिन।
ईकते योग युिातमा सव ु ि स मद शु नः।। 29।। सववुयापी अननत चेतन मे एकीभाव से िसथितरप योग से युि आतमावाला तथा सबमे
समभाव से दे खने वाला योगी आतमा को समपूणु भूतो मे िसथत और समपूणु भूतो को आतमा मे किलपत दे खता है ।(29)
यो म ां पशयित स वु ि सव ा च मिय पशयित। तसयाह ं न पणशयािम स च
मे न पणशयित।।
30।।
जो पुरष समपूणु भूतो मे सबके आतमरप मुझ वासुदेव को ही वयापक दे खता है और समपूणु भूतो को मुझ वासुदेव के अनतगत ु दे खता है , उसके िलए मै अदशय नहीं होता और वह मेरे िलए अदशय नहीं होता।(30)
सवु भूत िसथत ं यो मा ं भजत येकतवमा िसथत ः।
सवु था वत ु मानोऽ िप स योगी मिय वत
ु ते।। 31।।
जो पुरष एकीभाव मे िसथत होकर समपूणु भूतो मे आतमरप से िसथत मुझ
सिचचदाननदिन वासुदेव को भजता है , वह योगी सब पकार से बरतता हुआ भी मुझ मे ही बरतता है ।(31)
आत मौपमय ेन सव ु ि स मं पशयित योऽज ु न। सुख ं वा य िद वा द ु ःखं स योगी परमो मत
ः।। 32।।
हे अजुन ु ! जो योगी अपनी भाँित समपूणु भूतो मे सम दे खता है और सुख अथवा दःुख
को भी सबमे सम दे खता है , वह योगी परम शि े माना गया है ।(32) अजुु न उ वाच
योऽय ं योगसतवया पोिः साम
येन म धुस ूदन।
एतसयाह ं न पशयािम च ंचलतवा ितसथ ितं िसथ राम।् । 33।। अजुन ु बोलेः हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है , मन के चंचल होने से
मै इसकी िनतय िसथित को नहीं दे खता हूँ।(33)
चंचल ं िह मनः क ृषण प मािथ ब लवद दढ म।्
तसयाह ं िन गहं मन ये वायोिरव स ुद ु षकरम।् । 34।।
कयोिक हे शी कृ षण ! यह मन बडा चंचल, पमथन सवभाव वाला, बडा दढ और बलवान है ।
इसिलए उसका वश मे करना मै वायु को रोकने की भाँित अतयनत दषुकर मानता हूँ। शीभगवान ुवाच
असं शयं म हाबाहो मनो
द ु िन ु गहं चल म।्
अभयास ेन तु कौ नतेय वैरागय ेण च ग ृ हते।। 35।।
शी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! िनःसंदेह मन चंचल और किठनता से वश मे होने वाला है परनतु हे कुनतीपुि अजुन ु ! यह अभयास और वैरागय से वश मे होता है ।(35) (अनुकम) असंयतातमन ा योगो
वशयातमना
द ु षपाप इ ित म े म ित ः।
तु यतता शकयोऽवाप
ुम ुपायत ः।। 36।।
िजसका मन वश मे िकया हुआ नहीं है , ऐसे पुरष िारा योग दषुपापय है और वश मे िकये
हुए मनवाले पयतशील पुरष िारा साधन से उसका पाप होना सहज है – यह मेरा मत है ।(36) अजुु न उ वाच
अय ितः श दय ोपेतो य ोगाच चिल तमानसः।
अपापय योगस ंिस िदं का ं गित ं कृषण गचछ ित।। 37।। अजुन ु बोलेः हे शीकृ षण ! जो योग मे शदा रखने वाला है , िकंतु संयमी नहीं है , इस कारण
िजसका मन अनतकाल मे योग से िवचिलत हो गया है , ऐसा साधक योग की िसिद को अथात ु ् भगवतसाकातकार को न पाप होकर िकस गित को पाप होता है ।(37)
किचचन नोभय िवभषिशछ ननाभिमव नशयित। अप ितिो महाबाहो
िवम ूढो बहण ः पिथ ।। 38।।
हे महाबाहो ! कया वह भगवतपािप के मागु मे मोिहत और आशयरिहत पुरष िछनन-िभनन बादल की भाँित दोनो ओर से भष होकर नष तो नहीं हो जाता?(38)
एत नमे स ं शयं कृषण छ ेत ुमह ु सयश ेषत ः।
तवदनयः स ंशयसयासय
छेता न ह ुपपदत े।। 39।।
हे शीकृ षण ! मेरे इस संशय को समपूणु रप से छे दन करने के िलए आप ही योगय है , कयोिक आपके िसवा दस ू रा इस संशय का छे दन करने वाला िमलना संभव नहीं है ।(39) शीभगवान ुवाच
पाथ ु नैव ेह नाम ुि िवनाशस तसय िवदत े।
न िह कलयाणक ृतकििद द ु गु ितं तात गचछ ित।। 40।।
शीमान ् भगवान बोलेः हे पाथु ! उस पुरष का न तो इस लोक मे नाश होता है और न
परलोक मे ही कयोिक हे पयारे ! आतमोदार के िलए अथात ु ् भगवतपािप के िलए कमु करने वाला कोई भी मनुषय दग ु िुत को पाप नहीं होता।(40)
पापय पु णयकृता ं लोकान ुिषतवा शा शतीः स माः। शु चीना ं शीमत ां ग ेहे योगभषोऽ िभजायत े।। 41।।
योगभष पुरष पुणयवानो
लोको को अथात ु ् सवगािुद उतम लोको को पाप होकर, उनमे
बहुत वषो तक िनवास करके ििर शुद आचरणवाले शीमान पुरषो के िर मे जनम लेता है ।(41) अथवा योिगनाम ेव कुल े भ वित धीमताम। ्
एत िद द ु लु भ तरं ल ोके जन म यदीदशम। ् । 42।।
अथवा वैरागयवान पुरष उन लोको मे न जाकर जानवान योिगयो के ही कुल मे जनम लेता है । परनतु इस पकार का जो यह जनम है , सो संसार मे िनःसंदेह अतयनत दल ु है ।(42) ु भ (अनुकम)
ति त ं ब ुिदस ंयोग ं ल भते पौव ु देिह कम।्
यतत े च ततो भ ूयः स ं िसदौ क ुरननदन।। 43।। वहाँ उस पहले शरीर मे संगह िकये हुए बुिद-संयोग को अथात ु ् रामबुिद रप योग के
संसकारो को अनायास ही पाप हो जाता है और हे कुरननदन ! उसके पभाव से वह ििर परमातमा की पािपरप िसिद के िलए पहले से भी बढकर पयत करता है ।(43)
पूवा ु भयास े न त ेन ैव िियत े हव शोऽ िप सः ।
िजजास ुर िप योगसय
श बदबहाित वत ु ते।। 44।।
वह शीमानो के िर जनम लेने वाला योगभष पराधीन हुआ भी उस पहले के अभयास से
ही िनःसंदेह भगवान की ओर आकिषत ु िकया जाता है तथा समबुिदरप योग का िजजासु भी वेद मे कहे हुए सकाम कमो के िल को उललंिन कर जाता है ।(44) पयताद ातमानसत ु योगी
संश ुद िकिलबष ः।
अनेकज नमस ं िसदसततो याित परा
ं ग ित म।् । 45।।
परनतु पयतपूवक ु अभयास करने वाला योगी तो िपछले अनेक जनमो के संसकारबल से
इसी जनम मे संिसद होकर समपूणु पापो से रिहत हो ििर ततकाल ही परम गित को पाप हो जाता है ।(45)
तपिसव भयोऽिध को य ोगी जािनभयोऽिप म किम ु भयिा िधको योगी
त समादोगी
तोऽ िधक ः।
भ वाज ु न।। 46।।
योगी तपिसवयो से शि े है , शासजािनयो से भी शि े माना गया है और सकाम कमु करने वालो से भी योगी शि े है इससे हे अजुन ु तू योगी हो।(46)
योिगनामिप स वे षां म द गत ेनानतरातमना।
शदाव ान भजत े यो म ां स म े य ुितमो मत ः।। 47।।
समपूणु योिगयो मे भी जो शदावान योगी मुझमे लगे हुए अनतरातमा से मुझको िनरनतर
भजता है , वह योगी मुझे परम शि े मानय है ।(47) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे आतमसंयमयोगो नाम षिोऽधयायः।।6।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशासरप शीमद भगवद गीता के शी कृ षण-अजुन ु संवाद मे 'आतमसंयमयोग नामक छठा अधयाय संपूण ु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सातव े अध याय का माहातमय भगवान िश व कहत े ह ै – पावत ु ी ! अब मै सातवे अधयाय का माहातमय बतलाता हूँ,
िजसे सुनकर कानो मे अमत ृ -रािश भर जाती है । पाटिलपुि नामक एक दग ु नगर है , िजसका ु म
गोपुर (िार) बहुत ही ऊँचा है । उस नगर मे शंकुकणु नामक एक बाहण रहता था, उसने वैशय-विृत
का आशय लेकर बहुत धन कमाया, िकंतु न तो कभी िपतरो का तपण ु िकया और न दे वताओं का पूजन ही। वह धनोपाजन ु मे ततपर होकर राजाओं को ही भोज िदया करता था।
एक समय की बात है । एक समय की बात है । उस बाहण ने अपना चौथा िववाह करने
के िलए पुिो और बनधुओं के साथ यािा की। मागु मे आधी रात के समय जब वह सो रहा था,
तब एक सपु ने कहीं से आकर उसकी बाँह मे काट िलया। उसके काटते ही ऐसी अवसथा हो गई िक मिण, मंि और औषिध आिद से भी उसके शरीर की रका असाधय जान पडी। ततपिात कुछ ही कणो मे उसके पाण पखेर उड गये और वह पेत बना। ििर बहुत समय के बाद वह पेत
सपय ु ोिन मे उतपनन हुआ। उसका िवत धन की वासना मे बँधा था। उसने पूवु वत ृ ानत को समरण करके सोचाः
'मैने िर के बाहर करोडो की संखया मे अपना जो धन गाड रखा है उससे इन पुिो को
वंिचत करके सवयं ही उसकी रका करँगा।'
साँप की योिन से पीिडत होकर िपता ने एक िदन सवपन मे अपने पुिो के समक आकर
अपना मनोभाव बताया। तब उसके पुिो ने सवेरे उठकर बडे िवसमय के साथ एक-दस ू रे से सवपन की बाते कही। उनमे से मंझला पुि कुदाल हाथ मे िलए िर से िनकला और जहाँ उसके िपता
सपय ु ोिन धारण करके रहते थे, उस सथान पर गया। यदिप उसे धन के सथान का ठीक-ठीक पता
नहीं था तो भी उसने िचिो से उसका ठीक िनिय कर िलया और लोभबुिद से वहाँ पहुँचकर बाँबी को खोदना आरमभ िकया। तब उस बाँबी से बडा भयानक साँप पकट हुआ और बोलाः
'ओ मूढ ! तू कौन है ? िकसिलए आया है ? यह िबल कयो खोद रहा है ? िकसने तुझे भेजा है ?
ये सारी बाते मेरे सामने बता।'
पुि ः "मै आपका पुि हूँ। मेरा नाम िशव है । मै रािि मे दे खे हुए सवपन से िविसमत होकर
यहाँ का सुवणु लेने के कौतूहल से आया हूँ।"
पुि की यह वाणी सुनकर वह साँप हँ सता हुआ उचच सवर से इस पकार सपष वचन
बोलाः "यिद तू मेरा पुि है तो मुझे शीघ ही बनधन से मुि कर। मै अपने पूवज ु नम के गाडे हुए धन के ही िलए सपय ु ोिन मे उतपनन हुआ हूँ।"
पुि ः "िपता जी! आपकी मुिि कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताईये, कयोिक मै इस रात
मे सब लोगो को छोडकर आपके पास आया हूँ।"
िपता ः "बेटा ! गीता के अमत ृ मय सपम अधयाय को छोडकर मुझे मुि करने मे तीथु,
दान, तप और यज भी सवथ ु ा समथु नहीं है । केवल गीता का सातवाँ अधयाय ही पािणयो के जरा मतृयु आिद दःुखो को दरू करने वाला है । पुि ! मेरे शाद के िदन गीता के सपम अधयाय का पाठ करने वाले बाहण को शदापूवक ु भोजन कराओ। इससे िनःसनदे ह मेरी मुिि हो जायेगी। वतस !
अपनी शिि के अनुसार पूणु शदा के साथ िनवयस ु ी और वेदिवदा मे पवीण अनय बाहणो को भी भोजन कराना।"(अनुकम)
सपय ु ोिन मे पडे हुए िपता के ये वचन सुनकर सभी पुिो ने उसकी आजानुसार तथा उससे
भी अिधक िकया। तब शंकुकणु ने अपने सपश ु रीर को तयागकर िदवय दे ह धारण िकया और सारा धन पुिो के अधीन कर िदया। िपता ने करोडो की संखया मे जो धन उनमे बाँट िदया था, उससे वे पुि बहुत पसनन हुए। उनकी बुिद धमु मे लगी हुई थी, इसिलए उनहोने बावली, कुआँ, पोखरा, यज तथा दे वमंिदर के िलए उस धन का उपयोग िकया और अननशाला भी बनवायी। ततपिात सातवे अधयाय का सदा जप करते हुए उनहोने मोक पाप िकया।
हे पावत ु ी ! यह तुमहे सातवे अधयाय का माहातमय बतलाया, िजसके शवणमाि से मानव सब पातको से मुि हो जाता है ।"
सातवा ँ अधय ायःजा निवजान योग ।। अथ सपमो ऽधयायः।। शी भ गवान ुवाच
मययासि मन ाः पा थु योग ं य ुंजनमदा शयः। असंशय ं सम गं मा ं यथा जासयिस तच
छणु।। 1।।
शी भगवान बोलेः हे पाथु ! मुझमे अननय पेम से आसि हुए मनवाला और अननय भाव
से मेरे परायण होकर, योग मे लगा हुआ मुझको संपूणु िवभूित, बल ऐशयािुद गुणो से युि सबका आतमरप िजस पकार संशयरिहत जानेगा उसको सुन।(1)
जान ं त ेऽह ं स िवजानिमद ं व कय ामयश ेषत ः।
यजज ातवा न ेह भ ूयोऽनयजजातवयमविशषयत
े।। 2।।
मै तेरे िलए इस िवजान सिहत तिवजान को संपूणत ु ा से कहूँगा िक िजसको जानकर
संसार मे ििर कुछ भी जानने योगय शेष नहीं रहता है ।
मनुषयाणा ं सह सेष ु कििद तित िसदय े।
यततामिप
िसदाना ं किि मन मां व ेित ति वतः।। 3।।
हजारो मनुषयो मे कोई ही मनुषय मेरी पािप के िलए यत करता है और उन यत करने
वाले योिगयो मे भी कोई ही पुरष मेरे परायण हुआ मुझको तिव से जानता है ।(3) (अनुकम) भूिमरापोऽनलो वाय
ुः ख ं मनो ब ुिदर ेव च।
अहंकार इ तीय ं मे िभन ना पकृ ितरषधा।। 4।। अपर ेय िमतसतवनय ां पकृित ं िविद म े पराम। ्
जीवभ ूत ां महाबाहो यय ेद ं ध ायु ते ज गत।् । 5।। पथ ृ वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश और मन, बुिद एवं अहं कार... ऐसे यह आठ पकार से
िवभि हुई मेरी पकृ ित है । यह (आठ पकार के भेदो वाली) तो अपरा है अथात ु मेरी जड पकृ ित है और हे महाबाहो ! इससे दस ु चेतन पकृ ित जान िक िजससे यह ू री को मेरी जीवरपा परा अथात संपूणु जगत धारण िकया जाता है ।(4,5)
एतदोनीिन भ ूतािन सवा ु णीतय ुपधारय।
अहं कृतसनसय
ज गत ः पभव ः पलयसतथा।।
मतः परतर ं नानयितक ं िचद िसत धन ं जय।
6।।
मिय सव ु िमद ं पोत ं स ूि े मिण गणा इ व।। 7।।
हे अजुन ु ! तू ऐसा समझ िक संपूणु भूत इन दोनो पकृ ितयो(परा-अपरा) से उतपनन होने वाले है और मै संपूणु जगत की उतपित तथा पलयरप हूँ अथात ु ् संपूणु जगत का मूल कारण हूँ। हे धनंजय ! मुझसे िभनन दस ू रा कोई भी परम कारण नहीं है । यह समपूणु सूि मे मिणयो के सदश मुझमे गुथ ँ ा हुआ है ।(6,7)
रसोऽह मपस ु कौनत ेय पभा िसम श िशस ूय ु य ोः। पणवः स वु देव ेष ु शबद ः ख े पौरष ं न ृ षु।। 8।।
पुणयो गन धः प ृ िथवया ं च तेजिा िसम िवभावसौ। जीवन ं सव े भूत ेष ु तपिा िसम तप िसवष ु।। 9।।
हे अजुन ु ! जल मे मै रस हूँ। चंदमा और सूयु मे मै पकाश हूँ। संपूणु वेदो मे पणव(ॐ) मै
हूँ। आकाश मे शबद और पुरषो मे पुरषतव मै हूँ। पथ ृ वी मे पिवि गंध और अिगन मे मै तेज हूँ। संपूणु भूतो मे मै जीवन हूँ अथात ु ् िजससे वे जीते है वह तिव मै हूँ तथा तपिसवयो मे तप मै हूँ।(8,9)
बीज ं मा ं सव ु भूताना ं िविद पाथ ु सनातनम। ्
बुिदब ु िद मतामिसम
तेजसत ेज िसवनामहम। ् । 10।।
हे अजुन ु ! तू संपूणु भूतो का सनातन बीज यािन कारण मुझे ही जान। मै बुिदमानो की बुिद और तेजिसवयो का तेज हूँ।(10)
बलं ब लवता ं च ाहं का मरागिवव िज ु तम।्
धमाु िवरदो भूत ेष ु कामोऽ िसम भरत भु ।। 11।।
हे भरत शि े ! आसिि और कामनाओँ से रिहत बलवानो का बल अथात ु ् सामथयु मै हूँ
और सब भूतो मे धमु के अनुकूल अथात ु ् शास के अनुकूल काम मै हूँ।(11) ये च ैव सा ििवका भावा राजसासतामसाि य
े।
मत एव ेित ता िनविद न तवह ं त ेष ु त े म िय।। 12।।
और जो भी सिवगुण से उतपनन होने वाले भाव है और जो रजोगुण से तथा तमोगुण से उतपनन होने वाले भाव है , उन सबको तू मेरे से ही होने वाले है ऐसा जान। परनतु वासतव मे उनमे मै और वे मुझमे नहीं है ।(12) (अनुकम)
िििभ गुु णमय ैभा ु वैरे िभः स वु िम दं जग त।्
मो हतं नािभजानाित माम
ेभयः पर मवय यम।् ।13।।
गुणो के कायर ु प(साििवक, राजिसक और तामिसक) इन तीनो पकार के भावो से यह सारा
संसार मोिहत हो रहा है इसिलए इन तीनो गुणो से परे मुझ अिवनाशी को वह तिव से नहीं जानता।(13)
दैवी ह ेषा गुणमयी म म माया
द ु रतयया।
माम ेव य े पपदनत े मयाम ेता ं तर िनत त े।। 14।।
यह अलौिकक अथात ु ् अित अदभुत ििगुणमयी मेरी माया बडी दस ु तर है परनतु जो पुरष
केवल मुझको ही िनरं तर भजते है वे इस माया को उललंिन कर जाते है अथात ु ् संसार से तर जाते है ।(14)
न म ां द ु षकृ ितनो मूढाः पपदनत े नराधमा ः।
मायय ापहतजाना ं आस ुर ं भ ाविम िशता ः।। 15।। माया के िारा हरे हुए जानवाले और आसुरी सवभाव को धारण िकये हुए तथा मनुषयो मे
नीच और दिूषत कमु करनेवाले मूढ लोग मुझे नहीं भजते है ।(15)
चतु िव ु धा भ जनत े म ां जनाः स ु कृितनोऽज ु न।
आतो िजजास ुरथा ु थ ीं जानी
च भरतष ु भ।। 16।।
हे भरतवंिशयो मे शि े अजुन ु ! उतम कमव ु ाले अथाथ ु ी, आतु, िजजासु और जानी – ऐसे
चार पकार के भिजन मुझे भजते है ।(16)
तेष ां जान ी िनतयय ुि ए कभिि िव ु िश षयत े।
िपयो िह जािननोऽतयथ
ु महं स च मम िपयः।। 17।।
उनमे भी िनतय मुझमे एकीभाव से िसथत हुआ, अननय पेम-भििवाला जानी भि अित
उतम है कयोिक मुझे तिव से जानने वाले जानी को मै अतयनत िपय हूँ और वह जानी मुझे अतयंत िपय है । (17)
उदार ाः स वु एव ैत े जान ी तवातम ैव म े म तम।् आिसथ तः स िह युिातमा
माम ेवान ुतमा ं ग ित म।् । 18।।
ये सभी उदार है अथात ु ् शदासिहत मेरे भजन के िलए समय लगाने वाले होने से उतम है
परनतु जानी तो साकात ् मेरा सवरप ही है ऐसा मेरा मत है । कयोिक वह मदगत मन-बुिदवाला जानी भि अित उतम गितसवरप मुझमे ही अचछी पकार िसथत है । (18)
बहूनां जन मनामनत े जानव ान मां पपदत े।
वास ु देवः स वु िम ित स म हातमा स ुद ु लु भः।। 19।।
बहुत जनमो के अनत के जनम मे तिवजान को पाप हुआ जानी सब कुछ वासुदेव ही है -
इस पकार मुझे भजता है , वह महातमा अित दल ु है । (19) (अनुकम) ु भ
काम ै सतैसत ैह ु तजानाः पपदनत े ऽनयद ेवताः।
तंत ं िनयम मासथाय
प कृतय ा िनयताः सवया।।
20।।
उन-उन भोगो की कामना िारा िजनका जान हरा जा चुका है वे लोग अपने सवभाव से
पेिरत होकर उस-उस िनयम को धारण करके अनय दे वताओं को भजते है अथात ु ् पूजते है । (20) यो यो या ं या ं तन ुं भि ः शदयािच ु तु िमच छित।
तसय तसयाचल ां शदा ं ताम ेव िवद धामयहम। ् । 21।।
जो-जो सकाम भि िजस-िजस दे वता के सवरप को शदा से पूजना चाहता है , उस-उस भि की शदा को मै उसी दे वता के पित िसथर करता हूँ। (21)
स तया श दया य ुिसतसयासधनमीहत
े।
लभत े च तत ः कामानमय ैव िविह तािनह तान।् । 22।।
वह पुरष उस शदा से युि होकर उस दे वता का पूजन करता है और उस दे वता से मेरे िारा ही िवधान िकये हुए उन इिचछत भोगो को िनःसनदे ह पाप करता है । (22) अनत वतु ि लं त ेषा ं त द भवतयलपम ेध साम।्
देवा नदेवयजो या िनत मद भ िा या िनत माम िप।। 23।।
परनतु उन अलप बुदवालो का वह िल नाशवान है तथा वे दे वताओं को पूजने वाले दे वताओं को पाप होते है और मेरे भि चाहे जैसे ही भजे, अंत मे मुझे ही पाप होते है । (23) अवयिं वयिि मापनन ं मनय नते मामब ुदयः।
परं भाव मजाननतो ममावययमन
ु तम म।् । 24।।
बुिदहीन पुरष मेरे अनुतम, अिवनाशी, परम भाव को न जानते हुए, मन-इनदयो से परे मुझ
सिचचदानंदिन परमातमा को मनुषय की भाँित जानकर वयिि के भाव को पाप हुआ मानते है । (24) नाह ं पका शः सव ु सय योगमायासमाव ृ त ः मूढोऽय ं न ािभजानाित लोको मामज
मवय यम।् ।25।।
अपनी योगमाया से िछपा हुआ मै सबके पतयक नहीं होता इसिलए यह अजानी जन
समुदाय मुझ जनमरिहत, अिवनाशी परमातमा को तिव से नहीं जानता है अथात ु ् मुझको जनमनेमरनेवाला समझता है । (25)
इचछाि ेषसम ुतथ ेन ि निमोह ेन भारत।
सवु भूतािन स ं मोह ं स गे यािनत पर ंतप।। 27।। हे भरतवंशी अजुन ु ! संसार मे इचछा और िे ष से उतपनन हुए सुख-दःुखािद िनिरप मोह
से संपूणु पाणी अित अजानता को पाप हो रहे है । (27) (अनुकम)
येष ां तवनत गतं पाप ं जनाना ं प ुणयकम ु णाम।्
ते ि निमोहिन मुु िा भ जनत े म ां दढव ताः।। 28।। (िनषकाम भाव से) शि े कमो का आचरण करने वाला िजन पुरषो का पाप नष हो गया है ,
वे राग-िे षािदजिनत िनिरप मोह से मुि और दढ िनियवाले पुरष मुझको भजते है । (28) जरामरणमोकाय
मामा िशतय यतिनत
ये।
ते बह त ििद ु ः कृतसनमधयातम ं कम ु चा िखलम।् । 29।।
जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के िलए यत करते है , वे पुरष उस बह को
तथा संपूणु अधयातम को और संपूणु कमु को जानते है । (29)
सा िधभ ूतािध दैव ं मा ं सािध यजं च ये िवद ु ः।
पयाणकाल ेऽ िप च म ां त े िवद ु यु िचेतस ः।। 30।।
जो पुरष अिधभूत और अिधदै व के सिहत तथा अिधयज के सिहत (सबका आतमरप) मुझे अंतकाल मे भी जानते है , वे युि िचतवाले पुरष मुझको ही जानते है अथात ु ् मुझको ही पाप होते है । (30) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवदगीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे जानिवजानयोगे नाम सपमोऽधयायः।।7।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशाससवरप शीमद भगवदगीता मे शीकृ षण तथा अजुन ु के संवाद मे 'जानिवयोग नामक' सातवाँ अधयाय संपूण।ु
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आठ वे अधयाय क ा माहातमय भगवान िश व कहत े ह ै – दे िव ! अब आठवे अधयाय का माहातमय सुनो। उसके सुनने
से तुमहे बडी पसननता होगी। लकमीजी के पूछने पर भगवान िवषणु ने उनहे इस पकार अषम ् अधयाय का माहातमय बतलाया था।
दिकम मे आमदु कपुर नामक एक पिसद नगर है । वहाँ भावशमाु नामक एक बाहण रहता
था, िजसने वेशया को पती बना कर रखा था। वह मांस खाता था, मिदरा पीता, शि े पुरषो का धन चुराता, परायी सी से वयिभचार करता और िशकार खेलने मे िदलचसपी रखता था। वह बडे
भयानक सवभाव का था और और मन मे बडे -बडे हौसले रखता था। एक िदन मिदरा पीने वालो
का समाज जुटा था। उसमे भावशमाु ने भरपेट ताडी पी, खूब गले तक उसे चढाया। अतः अजीणु से अतयनत पीिडत होकर वह पापातमा कालवश मर गया और बहुत बडा ताड का वक ृ हुआ।
उसकी िनी और ठं डी छाया का आशय लेकर बहराकस भाव को पाप हुए कोई पित-पती वहाँ रहा करते थे।
उनके पूवु जनम की िटना इस पकार है । एक कुशीबल नामक बाहण था, जो वेद-वेदांग
के तिवो का जाता, समपूणु शासो के अथु का िवशेषज और सदाचारी था। उसकी सी का नाम
कुमित था। वह बडे खोटे िवचार की थी। वह बाहण िविान होने पर भी अतयनत लोभवश अपनी सी के साथ पितिदन भैस, कालपुरष और िोडे आिद दानो को गहण िकया करते था, परनतु दस ू रे बाहणो को दान मे िमली हुई कौडी भी नहीं दे ता था। वे ही दोनो पित-पती कालवश मतृयु को
पाप होकर बहराकस हुए। वे भूख और पयास से पीिडत हो इस पथ ृ वी पर िूमते हुए उसी ताड
वक ृ के पास आये और उसके मूल भाग मे िवशाम करने लगे। इसके बाद पती ने पित से पूछाः 'नाथ ! हम लोगो का यह महान दःुख कैसे दरू होगा? बहराकस-योिन से िकस पकार हम दोनो की मुिि होगी? तब उस बाहण ने कहाः "बहिवदा के उपदे श, आदयतमततव के िवचार और कमिुविध के जान िबना िकस पकार संकट से छुटकारा िमल सकता है ?
यह स ुनकर पती
ने प ूछाः "िकं तद बह िकमधयातमं िकं कमु पुरषोतम" (पुरषोतम !
वह बह कया है ? अधयातम कया है और कमु कौन सा है ?) उसकी पती
इतना कहते ही जो
आियु की िटना ििटत हुई, उसको सुनो। उपयुि ु वाकय गीता के आठवे अधयाय का आधा शोक था। उसके शवण से वह वक ृ उस समय ताड के रप को तयागकर भावशमाु नामक बाहण हो
गया। ततकाल जान होने से िवशुदिचत होकर वह पाप के चोले से मुि हो गया तथा उस आधे शोक के ही माहातमय से वे पित-पती भी मुि हो गये। उनके मुख से दै वात ् ही आठवे अधयाय का आधा शोक िनकल पडा था। तदननतर आकाश से एक िदवय िवमान आया और वे दोनो पित-पती उस िवमान पर आरढ होकर सवगल ु ोक को चले गये। वहाँ का यह सारा वत ृ ानत अतयनत आियज ु नक था।
उसके बाद उस बुिदमान बाहण भावशमाु ने आदरपूवक ु उस आधे शोक को िलखा और
दे वदे व जनादु न की आराधना करने की इचछा से वह मुििदाियनी काशीपुरी मे चला गया। वहाँ उस उदार बुिदवाले बाहण ने भारी तपसया आरमभ की। उसी समय कीरसागर की कनया भगवती लकमी ने हाथ जोडकर दे वताओं के भी दे वता जगतपित जनादु न से पूछाः "नाथ ! आप सहसा नींद तयाग कर खडे कयो हो गये?"
शी भग वान बोल े ः दे िव ! काशीपुरी मे भागीरथी के तट पर बुिदमान बाहण भावशमाु
मेरे भििरस से पिरपूणु होकर अतयनत कठोर तपसया कर रहा है । वह अपनी इिनदयो के वश मे
करके गीता के आठवे अधयाय के आधे शोक का जप करता है । मै उसकी तपसया से बहुत संतुष हूँ। बहुत दे र से उसकी तपसया के अनुरप िल का िवचार का रहा था। िपये ! इस समय वह िल दे ने को मै उतकणठित हूँ।
पाव ु ती जी ने प ूछाः भगवन ! शीहिर सदा पसनन होने पर भी िजसके िलए िचिनतत हो
उठे थे, उस भगवद भि भावशमाु ने कौन-सा िल पाप िकया?
शी महाद े वजी बोल े ः दे िव ! ििजशि े भावशमाु पसनन हुए भगवान िवषणु के पसाद को
पाकर आतयिनतक सुख (मोक) को पाप हुआ तथा उसके अनय वंशज भी, जो नरक यातना मे पडे थे, उसी के शुद कमु से भगवदाम को पाप हुए। पावत ु ी ! यह आठवे अधयाय का माहातमय थोडे मे ही तुमहे बताया है । इस पर सदा िवचार करना चािहए।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आठव ाँ अधयायः अकरबहयोग सातवे अधयाय मे 1 से 3 शोक तक भगवान ने अजुन ु को सतयसवरप का ततव सुनने के
िलए सावधान कर उसे कहने की पितजा की। ििर उसे जानने वालो की पशंसा करके 27 वे शोक तक उस तिव को िविभनन तरह से समझाकर उसे जानने के कारणो को भी अचछी तरह से
समझाया और आिखर मे बह, अधयातम, कमु, अिधभूत, अिधदै व और अिधयजसिहत भगवान के
समग सवरप को जानने वाले भिो की मिहमा का वणन ु करके वह अधयाय समाप िकया। लेिकन बह, अधयातम, कमु, अिधभूत, अिधदै व और अिधयज इन छः बातो का और मरण काल मे भगवान को जानने की बात का रहसय समझ मे नहीं आया, इसिलए अजुन ु पूछते है –
।। अथ ाषमो ऽधयायः ।। अजुु न उ वाच िकं तद ब ह िक मधयातम ं िकं क मु पुरषोतम।
अिध भूत ं च िकं पोिमिध दैव ं िकम ुचयत े।। 1।।
अजुन ु ने कहाः हे पुरषोतम ! वह बह कया है ? अधयातम कया है ? कमु कया है ? अिधभूत
नाम से कया कहा गया है और अिधदै व िकसको कहते है ?(1)
अिध यज कथ ं को ऽि द ेहेऽ िसमन मधु सूदन।
पयाणकाल े च कथ ं जेयोऽ िस िनयतातम िभः।। 2।। हे मधुसूदन ! यहाँ अिधयज कौन है ? और वह इस शरीर मे कैसे है ? तथा युििचतवाले
पुरषो िारा अनत समय मे आप िकस पकार जानने मे आते है ? (2) शीभगवान ुवाच
अकरं ब ह परम ं सव भावोऽधयातमम ुचयत े। भूत भावोद भ वकरो िवस गु ः क मु संिजत ः।। 3।।
शीमान भगवान ने कहाः परम अकर 'बह' है , अपना सवरप अथात ु ् जीवातमा 'अधयातम'
नाम से कहा जाता है तथा भूतो के भाव को उतपनन करने वाला जो तयाग है , वह 'कमु' नाम से कहा गया है ।(3)
अिधभ ूत ं करो भावः प ुरष िािध दैवतम।्
अिधयजोऽह मेवाि द ेहे द ेहभ ृ तां वर।। 4।। उतपित िवनाश धमव ु ाले सब पदाथु अिधभूत है , िहरणयमय पुरष अिधदै व है ओर हे
दे हधािरयो मे शि े अजुन ु ! इस शरीर मे मै वासुदेव ही अनतयाम ु ी रप से अिधयज हूँ।(4) (अनुकम)
अनकाल े च मा मेव समरन मुिवा क लेवरम।् यः पयाित स ं म द भाव ं याित नासतयि
संशयः।। 5।।
जो पुरष अनतकाल मे भी मुझको ही समरण करता हुआ शरीर को तयाग कर जाता है ,
वह मेरे साकात ् सवरप को पाप होता है – इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।(5)
यं यं वािप स मरनभाव ं तयजतयनत े कल ेवरम।्
तं तम ेव ै ित कौनत ेय सदा तद भा वभािवत ः।। 6।।
हे कुनतीपुि अजुन ु ! यह मनुषय अनतकाल मे िजस-िजस भी भाव को समरण करता हुआ
शरीर का तयाग करता है , उस उसको ही पाप होता है , कयोिक वह सदा उसी भाव से भािवत रहा है ।(6)
तसमातसव े षु का लेष ु मामन ुसमर य ुधय च ।
मययिप ु त मनोब ुिदमा ु मेव ैषयस यसं शयम।् ।7।। इसिलए हे अजुन ु ! तू सब समय मे िनरनतर मेरा समरण कर और युद भी कर। इस
पकार मुझमे अपण ु िकये हुए मन-बुिद से युि होकर तू िनःसंदेह मुझको ही पाप होगा।(7) अभयासयोगय ुिेन चेतसा नानयगािमना।
परम ं प ु रषं िदवय ं याित पाथा ु नुिच नतयन।् ।8।। हे पाथु ! यह िनयम है िक परमेशर के धयान के अभयासरप योग से युि, दस ू री और न
जाने वाले िचत से िनरनतर िचनतन करता हुआ मनुषय परम पकाशरप िदवय पुरष को अथात ु ् परमेशर को ही पाप होता है ।(8)
किवं प ुराणमन ुशािस तार मणोरणी यां समन ुसमर ेद।
सव ु सय धातारम िचन तयरप मािदतयवण ा तम सः परसतात। ् ।9।। पयाणकाल े मनसाचल ेन
भिया युिो योगबल ेन च ैव।
भूवोम ु धये प ाणमाव े शय समयक ्
स त ं पर ं प ुरष मुप ैित िदवयम। ् । 10।।
जो पुरष सवज ु , अनािद, सबके िनयनता, सूकम से भी अित सूकम, सबके धारण-पोषण करने वाले, अिचनतयसवरप, सूयु के सदश िनतय चेतन पकाशरप और अिवदा से अित परे , शुद
सिचचदाननदिन परमेशर का समरण करता है । वह भिियुि पुरष अनतकाल मे भी योग बल से भक ृ ु टी के मधय मे पाण को अचछी पकार सथािपत करके, ििर िनिल मन से समरण करता हुआ उस िदवयरप परम पुरष परमातमा को ही पाप होता है ।(9,10) (अनुकम) यदकर ं व ेदिवदो वद िनत
िवश िनत यदतयो
वीतरागाः।
यिद चछनतो ब हचय ा चर िनत
तते पद ं स ंगह ेण पवकय े।। 11।। वेद के जानने वाले िविान िजस सिचचदाननदिनरप परम पद को अिवनाशी कहते है ,
आसििरिहत संनयासी महातमाजन िजसमे पवेश करते है और िजस परम पद को चाहने वाले बहचारी लोग बहचयु का आचरण करते है , उस परम पद को मै तेरे िलए संकेप मे कहूँगा।(11)
सवु िार ािण स ंयमय मनो हिद
िनरधय च।
मूध नया ु धाय ातमनः पाणमा िसथतो योगधारणाम। ् ।12।। ओिमत येकाकर ं बह वयाहरनमामन
यः पया ित तयजनद ेहं स याित परम
ुसमरन।्
ां ग ितम।् । 13।।
सब इिनदयो के िारो को रोक कर तथा मन को हदयदे श मे िसथर करके, ििर उस जीते हुए मन के िारा पाण को मसतक मे सथािपत करके, परमातमसमबनधी योगधारणा मे िसथत
होकर जो पुरष ॐ इस एक अकररप बह को उचचारण करता हुआ और उसके अथस ु वरप मुझ िनगुण ु बह का िचनतन करता हुआ शरीर को तयाग कर जाता है , वह होता है ।(12,13)
पुरष परम गित को पाप
अननयच े ताः सत तं य ो मा ं समर ित िनतयशः।
तसयाह ं सुलभ ः पाथ ु िनतय ुिसय योिगनः।।
14।।
हे अजुन ु ! जो पुरष मुझमे अननयिचत होकर सदा ही िनरनतर मुझ पुरषोतम को समरण
करता है , उस िनतय-िनरनतर मुझमे युि हुए योगी के िलए मै सुलभ हूँ, अथात ु ् मै उसे सहज ही पाप हो जाता हूँ।(14)
माम ुप ेतय प ुनज ु नम द ु ःखालयमशाशत म।्
नापन ुविनत म हातमानः स ं िसिद परम ां गता ः।। 15।।
परम िसिद को पाप महातमाजन मुझको पाप होकर दःुखो के िर तथा कणभंगुर पुनजन ु म
को नहीं पाप होते ।(15)
आब हभुवनाललोकाः प ुनरावित ु नोऽज ु न। मा मुप ेतय तु कौ नतेय पुनज ु नम न िवदत े।। 16।।
हे अजुन ु ! बहलोक सब लोक पुनरावती है , परनतु हे कुनतीपुि ! मुझको पाप होकर पुनजन ु म नहीं होता, कयोिक मै कालातीत हूँ और ये सब बहािद के लोक काल के िारा सीिमत होने से अिनतय है ।(16) (अनुकम)
सह सयुगपय ु नतम हय ु दबहणो
िवद ु ः।
रािि ं य ुग सहसा नता ं त े ऽहोराििवदो जनाः।।
17।।
बहा का जो एक िदन है , उसको एक हजार चतुयुगी तक की अविधवाला और रािि को भी
एक हजार चतुयुगी तक की अविधवाला जो पुरष तिव से जानते है , वे योगीजन काल के ततव को जानने वाले है (17)
अवयिादवयि यः स वाु ः पभ वनतयहरागम े। रातयागम े पलीयनत े ति ैवावयिस ंजके।। 18।।
समपूणु चराचर भूतगण बहा के िदन के पवेशकाल मे अवयि से अथात ु ् बहा के सूकम
शरीर से उतपनन होते है और बहा की रािि के पवेशकाल मे उस अवयि नामक बहा के सूकम शरीर मे लीन हो जाते है ।(18)
भूतगाम ः स एवाय ं भ ूतवा भ ूतवा पलीयत े।
रात यागम े ऽवश ः पाथ ु पभ वतयहर ागम े।। 19।। हे पाथु ! वही यह भूतसमुदाय उतपनन हो-होकर पकृ ित के वश मे हुआ रािि के पवेशकाल
मे लीन होता है और िदन के पवेशकाल मे ििर उतपनन होता है ।
परसतसमात ु भावोऽवयिोऽवयिातसन
ातनः।
यः स स वे षु भ ूत ेष ु नशयतस ु न िवनश यित।। 20।। उस अवयि से भी अित परे दस ु ् िवलकण जो सनातन अवयि भाव है , वह परम ू रा अथात
िदवय पुरष सब भूतो के नष होने पर भी नष नहीं होता।(20)
अवयिोऽकर इतय ुिसतमाह ु ः परम ां गित म।्
यं पापय न
िनवत ु नते तदाम परम ं म म।। 21।।
जो अवयि 'अकर' इस नाम से कहा गया है , उसी अकर नामक अवयिभाव को परम गित
कहते है तथा िजस सनातन अवयिभाव को पाप होकर मनुषय वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है ।(21)
पुरष ः स पर ः पाथ ु भिया लभयसतवननयया। यसयानतः सथािन भ ूतािन य ेन सव ु िम दं तत म।् । 22।।
हे पाथु ! िजस परमातमा के अनतगत ु सवभ ु ूत है और िजस सिचचदाननदिन परमातमा से यह समसत जगत पिरपूणु है , वह सनातन अवयि परम पुरष तो अननय भिि से ही पाप होने योगय है ।(22)
यि काल े तवनाव ृ ितमाव ृ ितं च ैव योिगनः
पयाता यािनत त
ं का लं वकयािम भरतष
ु भ।। 23।।
हे अजुन ु ! िजस काल मे शरीर तयाग कर गये हुए योगीजन तो वापस न लौटनेवाली गित
को और िजस काल मे गये हुए वापस लौटनेवाली गित को ही पाप होते है , उस काल को अथात ु ् दोनो मागो को कहूँगा।(23) (अनुकम)
अिगनजयोितरहः श
ति पयाता गचछ
ुकल ः षणमासा उतरायणम। ्
िनत ब ह बह िवदो जनाः।। 24।।
िजस मागु मे जयोितमय ु अिगन-अिभमानी दे वता है , िदन का अिभमानी दे वता है , शुकलपक का अिभमानी दे वता है और उतरायण के छः महीनो का अिभमानी दे वता है , उस मागु मे मरकर गये हुए बहवेता योगीजन उपयुि ु दे वताओं िारा कम से ले जाये जाकर बह को पाप होते है । (24)
धूमो राििसत था कृषणः ष णमासा दिकणायनम। ्
ति चा नदम सं जय ोितय ोगी पापय
िनवत ु ते।। 25।।
िजस मागु मे धूमािभमानी दे वता है , रािि अिभमानी दे वता है तथा कृ षणपक का अिभमानी दे वता है और दिकणायन के छः महीनो का अिभमानी दे वता है , उस मागु मे मरकर गया हुआ
सकाम कमु करनेवाला योगी उपयुि ु दे वताओं िारा कम से ले जाया हुआ चनदमा की जयोित को पाप होकर सवगु मे अपने शुभ कमो का िल भोगकर वापस आता है ।(25)
शुकल कृषण े ग ती ह ेत े ज गतः शा शते मत े।
एकया यात यनाव ृ ितमनययावत ु ते प ुनः।। 26।।
कयोिक जगत के ये दो पकार के – शुकल और कृ षण अथात ु ् दे वयान और िपतय ृ ान मागु
सनातन माने गये है । इनमे एक के िारा गया हुआ – िजससे वापस नहीं लौटना पडता, उस परम गित को पाप होता है और दस ु ् जनम-मतृयु को ू रे के िारा गया हुआ ििर वापस आता है अथात पाप होता है ।(26)
नैत े स ृ ती पाथ ु जाननयोगी
मुह ित किन।
तस मातसव े षु काल ेष ु योगय ुिो भ वाज ु न।। 27।।
हे पाथु ! इस पकार इन दोनो मागो को तिव से जानकर कोई भी योगी मोिहत नहीं होता। इस कारण हे अजुन ु ! तू सब काल मे समबुिदरप योग से युि हो अथात ु ् िनरनतर मेरी पािप के िलए साधन करने वाला हो।(27)
वेदेष ु यज ेष ु तप ु ःसु च ैव
दा नेष ु यतप ुणयिल ं पिद षम।् अतय े ित ततसव ु िमद ं िव िदतवा
योगी पर ं सथानम ुप ै ित चादम। ् । 28।।
योगी पुरष इस रहसय को तिव से जानकर वेदो के पढने मे तथा यज, तप और दानािद
के करने मे जो पुणयिल कहा है , उन सबको िनःसंदेह उललंिन कर जाता है और सनातन परम पद को पाप होता है ।(28) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे अकरबहयोगो नामाऽषमोऽधयाय।।8।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'अकरबहयोग' नामक आठवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
नौव े अ धयाय का माहा
तमय
महाद ेव जी क हते ह ै – पावत ु ी अब मै आदरपूवक ु नौवे अधयाय के माहातमय का वणन ु
करँ गा, तुम िसथर होकर सुनो। नमद ु ा के तट पर मािहषमती नाम की एक नगरी है । वहाँ माधव
नाम के एक बाहण रहते थे, जो वेद-वेदांगो के ततवज और समय-समय पर आने वाले अितिथयो के पेमी थे। उनहोने िवदा के िारा बहुत धन कमाकर एक महान यज का अनुिान आरमभ िकया। उस यज मे बिल दे ने के िलए एक बकरा मंगाया गया। जब उसके शरीर की पूजा हो गयी, तब
सबको आियु मे डालते हुए उस बकरे ने हँ सकर उचच सवर से कहाः "बाहण ! इन बहुत से यजो िारा कया लाभ है ? इनका िल तो नष हो जाने वाला
तथा ये जनम, जरा और मतृयु के भी
कारण है । यह सब करने पर भी मेरी जो वतम ु ान दशा है इसे दे ख लो।" बकरे के इस अतयनत
कौतूहलजनक वचन को सुनकर यजमणडप मे रहने वाले सभी लोग बहुत ही िविसमत हुए। तब वे यजमान बाहण हाथ जोड अपलक नेिो से दे खते हुए बकरे को पणाम करके यज और आदर के साथ पूछने लगे।
बाहण बोल ेः आप िकस जाित के थे? आपका सवभाव और आचरण कैसा था? तथा िजस
कमु से आपको बकरे की योिन पाप हुई? यह सब मुझे बताइये।
बकरा बो लाः बाहण ! मै पूवु जनम मे बाहणो के अतयनत िनमल ु कुल मे उतपनन हुआ
था। समसत यजो का अनुिान करने वाला और वेद-िवदा मे पवीण था। एक िदन मेरी सी ने
भगवती दग ु ाु की भिि से िवनि होकर अपने बालक के रोग की शािनत के िलए बिल दे ने के िनिमत मुझसे एक बकरा माँगा। ततपिात ् जब चिणडका के मिनदर मे वह बकरा मारा जाने
लगा, उस समय उसकी माता ने मुझे शाप िदयाः "ओ बाहणो मे नीच, पापी! तू मेरे बचचे का वध करना चाहता है , इसिलए तू भी बकरे की योिन मे जनम लेगा।" ििजशि े ! तब कालवश मतृयु को
पाप होकर मै बकरा हुआ। यदिप मै पशु योिन मे पडा हूँ, तो भी मुझे अपने पूवज ु नमो का समरण बना हुआ है । बहण ! यिद आपको सुनने की उतकणठा हो तो मै एक और भी आियु की बात
बताता हूँ। कुरकेि नामक एक नगर है , जो मोक पदान करने वाला है । वहाँ चनदशमाु नामक एक सूयव ु ंशी राजा राजय करते थे। एक समय जब सूयग ु हण लगा था, राजा ने बडी शदा के साथ
कालपुरष का दान करने की तैयारी की। उनहोने वेद-वेदांगो के पारगामी एक िविान बाहण को बुलवाया और पुरोिहत के साथ वे तीथु के पावन जल से सनान करने को चले और दो वस
धारण िकये। ििर पिवि और पसननिचत होकर उनहोने शेत चनदन लगाया और बगल मे खडे हुए पुरोिहत का हाथ पकडकर ततकालोिचत मनुषयो से ििरे हुए अपने सथान पर लौट आये।
आने पर राजा ने यथोिचत िविध से भििपूवक ु बाहण को कालपुरष का दान िकया।(अनुकम)
तब कालपुरष का हदय चीरकर उसमे से एक पापातमा चाणडाल पकट हुआ ििर थोडी दे र
के बाद िननदा भी चाणडाली का रप धारण करके कालपुरष के शरीर से िनकली और बाहण के
पास आ गयी। इस पकार चाणडालो की वह जोडी आँखे लाल िकये िनकली और बाहण के शरीर मे हठात पवेश करने लगी। बाहण मन ही मन गीता के नौवे अधयाय का जप करते थे और
राजा चुपचाप यह सब कौतुक दे खने लगे। बाहण के अनतःकरण मे भगवान गोिवनद शयन करते थे। वे उनहीं का धयान करने लगे। बाहण ने जब गीता के नौवे अधयाय का जप करते हुए अपने
आशयभूत भगवान का धयान िकया, उस समय गीता के अकरो से पकट हुए िवषणुदत ू ो िारा
पीिडत होकर वे दोनो चाणडाल भाग चले। उनका उपयोग िनषिल हो गया। इस पकार इस िटना
को पतयक दे खकर राजा के नेि आियु से चिकत हो उठे । उनहोने बाहण से पूछाः "िवपवर ! इस भयंकर आपित को आपने कैसे पार िकया? आप िकस मनि का जप तथा िकस दे वता का समरण कर रहे थे? वह पुरष तथा सी कौन थी? वे यह सब मुझे बताइये।
दोनो कैसे उपिसथत हुए? ििर वे शानत कैसे हो गये?
बाहण न े क हाः राजन ! चाणडाल का रप धारण करके भयंकर पाप ही पकट हुआ था
तथा वह सी िननदा की साकात मूितु थी। मै इन दोनो को ऐसा ही समझता हूँ। उस समय मै
गीता के नवे अधयाय के मनिो की माला जपता था। उसी का माहातमय है िक सारा संकट दरू हो गया। महीपते ! मै िनतय ही गीता के नौवे अधयाय का जप करता हूँ। उसी के पभाव से पितगहजिनत आपितयो के पार हो सका हूँ।
यह सुनकर राजा ने उसी बाहण से गीता के नवम अधयाय का अभयास िकया, ििर वे
दोनो ही परम शािनत (मोक) को पाप हो गये।
(यह कथा सुनकर बाहण ने बकरे को बनधन से मुि कर िदया और गीता के नौवे
अधयाय के अभयास से परम गित को पाप िकया।)(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
नौव ाँ अधयायः राजिवदाराजग
ुहयोग
सातवे अधयाय के आरमभ मे भगवान ने िवजानसिहत जान का वणन ु करने की पितजा
की थी। उस अनुसार उस िवषय का वणन ु करते हुए आिखर मे बह, अधयातम, कमु, अिधभूत,
अिधदै व और अिधयजसिहत भगवान को जानने की और अतंकाल मे भगवान के िचंतन की बात
कही है ििर आठवे अधयाय मे िवषय को समझने के िलए सात पश िकये। उनमे से छः पशो के उतर तो भगवान शीकृ षण ने संिकप मे तीसरे और चौथे शोक मे िदये, लेिकन सातवे पश के उतर मे उनहोने िजस उपदे श का आरं भ िकया उसमे ही आठवाँ अधयाय पूणु हुआ। इस तरह सातवे
अधयाय मे शुर िकये गये िवजानसिहत जान का सांगोपांग वणन ु नहीं हो पाने से उस िवषय को बराबर समझाने के िलए भगवान इस नौवे अधयाय का आरमभ करते है । सातवे अधयाय मे
वणन ु िकये गये उपदे श से इसका पगाढ समबनध बताने के िलए भगवान पहले शोक मे ििर से वही िवजानसिहत जान का वणन ु करने की पितजा करते है ।
।। अथ न वमो ऽधयायः ।। शीभगवान ुवाच इदं त ु त े ग ुहत मं पवकयामय नसूयव े।
जान ं िवजानसिह तं यजज ातवा मोकयस ेऽ शुभात।् ।1।।
शी भगवान बोलेः तुझ दोष दिष रिहत भि के िलए इस परम गोपनीय िवजानसिहत जान को पुनः भली भाँित कहूँगा, िजसको जानकर तू दःुखरप संसार से मुि हो जाएगा।(1) राजिवदा
राजग ुह ं पिव ििम दमुतमम।्
पतयकावगम ं ध मया सुस ुख ं कत ु मवय यम।् ।2।।
यह िवजानसिहत जान सब िवदाओं का राजा, सब रहसयो का राजा, अित पिवि, अित उतम, पतयक िलवाला, धमय ु ुि साधन करने मे बडा सुगम और अिवनाशी है ।(2) अशदधानाः प ुरषा ध मु सयासय पर ंतप।
अपापय म ां िनवत ु नते म ृ तयुस ंसारवतम ु िन।। 3।।
हे परं तप ! इस उपयुि ु धमु मे शदारिहत पुरष मुझको न पाप होकर मतृयुरप संसारचक मे भमण करते रहते है ।
मया तत िमद ं स वा जगदवयिम ू ित ु ना। मत सथािन सव ु भूतािन न
च ाहं त ेषवविसथ तः।। 4।।
मुझ िनराकार परमातमा से यह सब जगत जल से बिु से सदश पिरपूणु है और सब भूत मेरे अनतगत ु संकलप के आधार िसथत है , िकनतु वासतव मे मै उनमे िसथत नहीं हूँ।(4) न च मतस थािन भ ूतािन पशय म े योगम ैशरम।्
भूतभ ृ नन च भूतस थो म मातमा भ ूत भावनः।। 5।।
वे सब भूत मुझमे िसथत नहीं है , िकनतु मेरी ईशरीय योगशिि को दे ख िक भूतो को धारण-पोषण करने वाला और भूतो को उतपनन करने वाला भी मेरा आतमा वासतव मे भूतो मे िसथत नहीं है ।(5)
यथाकाश िसथतो िनतय ं वाय ुः सव ु ि गो महान। ्
तथा सवा ु िण भ ूतािन मतसथानीतय ही
ुपधार य।। 6।।
जैसे आकाश से उतपनन सवि ु िवचरने वाला महान वायु सदा आकाश मे ही िसथत है , वैसे
मेरे संकलप िारा उतपनन होने से समपूणु भूत मुझमे िसथत है , ऐसा जान।(6) (अनुकम) सव ु भू तािन कौनत ेय पक ृित ं य ािनत मा िमकाम।्
कल पकय े प ुनसतािन कलपादौ
िवस ृ जामयहम। ् ।7।।
हे अजुन ु ! कलपो के अनत मे सब भूत मेरी पकृ ित को पाप होते है अथात ु ् पकृ ित मे लीन
होते है और कलपो के आिद मे उनको मै ििर रचता हूँ।(7) पकृ ितं सवामवषभय िव
सृ जािम पुनः प ुनः।
भूतगाम िमम ं कृतसनमवश ं पकृत े वु शात।् ।
अपनी पकृ ित को अंगीकार करके सवभाव के बल से परतनि हुए इस समपूणु भूतसमुदाय
को बार-बार उनके कमो के अनुसार रचता हूँ।(8)
न च मा ं तािन कमा ु िण िनबधनिनत
धन ंजय।
उदासीनवद ासीनमसि ं त ेष ु कम ु सु।। 9।। हे अजुन ु ! उन कमो मे आसिि रिहत और उदासीन के सदश िसथत मुझ परमातमा को वे
कमु नहीं बाँधते।(9)
मयाधयक ेण प कृित ः स ूयत े सचरा चरम।्
हेत ुनान ेन कौनत ेय जग ििपिरवत ु ते।। 10।। हे अजुन ु ! मुझ अिधिाता के सकाश से पकृ ित चराचर सिहत सवु जगत को रचती है और
इस हे तु से ही यह संसारचक िूम रहा है ।(10)
अवजान िनत मा ं म ूढा मान ुषी ं तन ुमा िशतम।् परं भावमजाननतो म
म भ ूत महेशरम।् । 11।।
मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ लोग मनुषय का शरीर धारण करने वाले मुझ
समपूणु भूतो के महान ईशर को तुचछ समझते है अथात ु ् अपनी योगमाया से संसार के उदार के िलए मनुषयरप मे िवचरते हुए मुझ परमेशर को साधारण मनुषय मानते है ।(11) मोिाशा मोिकमा
ु णो मोिजा ना िवच े तसः।
राकसीमास ुरी ं च ैव पक ृ ितं मोिहन ीं िश ताः।। 12।।
वे वयथु आशा, वयथु कमु और वयथु जानवाले िविकपिचत अजानीजन राकसी, आसुरी और मोिहनी पकृ ित को ही धारण िकये रहते है ।(12)
महातमानसत ु मा ं पाथ ु दै वीं पकृ ितमा िशता ः।
भजनतयननयमनसो जातव
ा भ ूता िदमवययम। ् ।13।।
परनतु हे कुनतीपुि ! दै वी पकृ ित के आिशत महातमाजन मुझको सब भूतो का सनातन कारण और नाशरिहत अकरसवरप जानकर अननय मन से युि होकर िनरनतर भजते है ।(13) (अनुकम)
सततं कीत ु यनतो मा ं यतनत ि दढवताः।
नमसयन ति मा ं भिया
िनतय युिा उपासत े।। 14।।
वे दढ िनिय वाले भिजन िनरनतर मेरे नाम और गुणो का कीतन ु करते हुए तथा मेरी
पािप के िलए यत करते हुए और मुझको बार-बार पणाम करते हुए सदा मेरे धयान मे युि होकर अननय पेम से मेरी उपासना करते है ।(14)
जानय जेन चापयनय े यज नतो म ामुपासत े।
एकतव ेन प ृ थिव ेन ब हुधा िवशतोम ुखम।् । 15।।
दस ु -िनराकार बह का जानयज के िारा अिभननभाव से पूजन ू रे जानयोगी मुझ िनगुण
करते हुए भी मेरी उपासना करते है और दस ू रे मनुषय बहुत पकार से िसथत मुझ िवराटसवरप परमेशर की पथ ृ क भाव से उपासना करते है ।(15)
अहं क तुरह ं यजः स धाहम हमौषध म।्
मंिोऽह महम ेवाजयमहमिगनरह ं ह ु त म।् । 16।।
कतु मै हूँ, यज मै हूँ, सवधा मै हूँ, औषिध मै हूँ, मंि मै हूँ, ित ृ मै हूँ, अिगन मै हूँ और
हवनरप िकया भी मै ही हूँ।(16)
िपताहमसय ज गतो म ाता ध ाता िपताम हः।
वेद ं पिव िमोकार
ऋकसाम यज ुरेव च ।। 17।।
इस समपूणु जगत का धाता अथात ु ् धारण करने वाला और कमो के िल को दे ने वाला,
िपता माता, िपतामह, जानने योगय, पिवि ओंकार तथा ऋगवेद, सामवेद और यजुवद े भी मै ही हूँ। (17) गित भु ताु प भुः सा की िनवासः शरण ं स ुहत।् पभवः प लयः सथान ं िनधान ं बीजमवययम। ् ।18।।
पाप होने योगय परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका सवामी, शुभाशुभ का दे खने
वाला, सब का वाससथान, शरण लेने योगय, पतयुपकार न चाहकर िहत करने वाला, सबकी उतपितपलय का हे तु, िसथित का आधार, िनधान और अिवनाशी कारण भी मै ही हूँ।(18) तपामयह महं व षा िनग ृ हामय ुतस ृ जािम च।
अमृ तं च ैव म ृ तयुि सदस चचाह मजुु न।। 19।।
मै ही सूयर ु प से तपता हूँ, वषाु का आकषण ु करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अजुन ु ! मै
ही अमत ृ और मतृयु हूँ और सत ् असत ् भी मै ही हूँ।(19) (अनुकम)
िै िवदा मा ं सो मपाः प ूतपापा
यजैिरषवा सवग ु ितं पाथ ु य नते। ते प ु णयमासाद
सुरेनदलोक -
मश िनत िदवयािनद िव द ेवभोगान। ् । 20।।
तीनो वेदो मे िवधान िकये हुए सकाम कमो को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पाप
रिहत पुरष मुझको यजो के िारा पूजकर सवगु की पािप चाहते है , वे पुरष अपने पुणयो के िलरप सवगल ु ोक को पाप होकर सवगु मे िदवय दे वताओं के भोगो को भोगते है । ते त ं भ ुिवा सव गु लोकं िव शाल ं
कीण े प ुण ये मतय ु लोकं िवश िनत। एवं ि यीधम ु मनुपपनना
गतागत ं कामकामा ल भनत े।। 21।। वे उस िवशाल सवगल ु ोक को भोगकर पुणय कीण होने पर मतृयुलोक को पाप होते है । इस
पकार सवगु के साधनरप तीनो वेदो मे कहे हुए सकाम कमु का आशय लेने वाले और भोगो की
कामना वाले पुरष बार-बार आवागमन को पाप होते है , अथात ु ् पुणय के पभाव से सवगु मे जाते है और पुणय कीण होने पर मतृयुलोक मे आते है ।(21)
अननयािि नतयनतो मा ं य े जनाः पय ु पासत े। तेषा ं िनतया िभय ुिा नां योगक ेम ं व हामयहम। ् । 22।।
जो अननय पेम भिजन मुझ परमेशर को िनरनतर िचनतन करते हुए िनषकाम भाव से
भजते है , उन िनतय-िनरनतर मेरा िचनतन करने वाले पुरषो को योगकेम मै सवयं पाप कर दे ता हूँ।(22)
येऽपयनयद ेवता भिा यजनत े श दय ािनवताः।
ते ऽिप मा मेव कौनत ेय यजनतयिव िधप ूव ु क म।् । 23।।
हे अजुन ु यदिप शदा से युि जो सकाम भि दस ू रे दे वताओं को पूजते है , वे भी मुझको
ही पूजते है , िकनतु उनका पूजन अिविधपूवक ु अथात ु ् अजानपूवक ु है ।(23)
अहं िह सव ु यजाना ं भोिा च प भुरेव च।
न तु मामिभ जानिनत तिव ेनातियव िनत त े।। 24।। कयोिक समपूणु यजो का भोिा और सवामी मै ही हूँ, परनतु वे मुझ परमेशर को तिव से
नहीं जानते, इसी से िगरते है अथात ु ् पुनजन ु म को पाप होते है ।(25)
या िनत द ेववता द ेवा िनपत ृ नय ािनत िपत ृ वताः।
भूतािन यािनत भ
ूत ेजया यािनत मदा
िजनोऽिप मा म।् ।25।।
दे वताओं को पूजने वाले दे वताओं को पाप होते है , िपतरो को पूजने वाले िपतरो को पाप
होते है , भूतो को पूजने वाले भूतो को पाप होते है और मेरा पूजन करने वाले भि मुझको पाप होते है । इसिलए मेरे भिो का पुनजन ु म नहीं होता।(25) (अनुकम)
पिं प ुषप ं िल ं तोय ं यो मे भ िय ा पयचछ ित। तदह ं भकतय ुपहतमशा िम पयतातमनः।।
26।।
जो कोई भि मेरे िलए पेम से पि, पुषप, िल, जल आिद अपण ु करता है , उस शुदबुिद िनषकाम पेमी भि का पेमपूवक ु अपण ु िकया हुआ वह पि-पुषपािद मै सगुणरप से पकट होकर पीितसिहत खाता हूँ।(26)
यतकर ोिष यदशािस यजज
ुहोिष ददा िस यत।्
यतपस यिस कौनत ेय ततक ुरषव मद पु णम।् । 27।। हे अजुन ु ! तू जो कमु करता है , जो खाता है , जो हवन करता है , जो दान दे ता है और जो
तप करता है वह सब मुझे अपण ु कर।(27)
शु भाश ुभि लैरेव ं म ोकयस े क मु बन धनैः।
संनयासयोगय ुि ातमा िव मुिो मामप ैशयिस।। 28।। इस पकार िजसमे समसत कमु मुझ भगवान के अपण ु होते है – ऐसे सनयासयोग से युि
िचतवाला तू शुभाशुभ िलरप कमब ु नधन से मुि हो जाएगा और उनसे मुि होकर मुझको ही पाप होगा(28)
समो ऽहं सव ु भूत ेष न म े ि ेषयोऽ िसत न िपयः। ये भज िनत त ु म ां भ कतय ा मिय त े त ेष ु च ापयहम।् । 29।।
मै सब भूतो मे समभाव से वयापक हूँ। न कोई मेरा अिपय है ओर न िपय है परनतु जो
भि मुझको पेम से भजते है , वे मुझमे है और मै भी उनमे पतयक पकट हूँ।(29) अिप च ेतस ुद ु राचारो
भ जते मामननयभाक ् ।
साध ुरेव स म नतवयः स मयगव यव िसतो िह स ः।। 30।।
यिद कोई अितशय दरुाचारी भी अननयभाव से मेरा भि होकर मुझे भजता है तो वह
साधु ही मानने योगय है , कयोिक वह यथाथु िनियवाला है अथात ु ् उसने भली भाँित िनिय कर िलया है िक परमेशर के भजन के समान अनय कुछ भी नहीं है ।(30)
िकप ं भ वित धमा ु तमा श शचछा िनत ं िन गचछ ित।
कौ नतेय प ित जानीिह न म
े भि ः पणशयित।। 31।।
वह शीघ ही धमातुमा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शािनत को पाप होता है । हे
अजुन ु ! तू िनियपूवक ु सतय जान िक मेरा भि नष नहीं होता।(31)
मां िह पाथ ु वयापािशतय य े ऽिप सय ु ः पापय ोनयः।
िसयो वैशयासतथा श ू दासत ेऽिप या िनत परा ं ग ित म।् । 32।।
हे अजुन ु ! सी, वैशय, शूद तथा पापयोिन-चाणडालािद जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर
परम गित को पाप होते है ।(32) (अनुकम)
िकं प ुनबा ु हणाः प ुणया भ िा राजष ु यसत था।
अिनतयमस ुख ं लोक िमम ं पाप य भज सव माम। ् ।33।।
ििर इसमे तो कहना ही कया है , जो पुणयशील बाहण तथा राजिषु भगवान मेरी शरण
होकर परम गित को पाप होते है । इसिलए तू सुखरिहत और कणभंगुर इस मनुषय शरीर को पाप होकर िनरनतर मेरा ही भजन कर।(33)
मनमना भव म द भिो मदाजी
म ां नमसक ु र।
माम ेव ैषयिस य ुकतव ैवमातमान ं म तपरा यणः।। 34।।
मुझमे मनवाला हो, मेरा भि बन, मेरा पूजनकरने वाला हो, मुझको पणाम कर। इस पकार आतमा को मुझमे िनयुि करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही पाप होगा।(34)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे राजिवदाराजगुह योगो नाम नवमोऽधयायः।।9।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'राजिवदाराजगुहयोग' नामक नौवाँ अधयाय संपूण ु हुआ।।9।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
दसव े अधयाय क ा माहातमय
भगवान िश व कहत े ह ै – सुनदरी ! अब तुम दशम अधयाय के माहातमय की परम पावन कथा सुनो, जो सवगर ु पी दग ु ु मे जाने के िलए सुनदर सोपान और पभाव की चरम सीमा
है । काशीपुरी मे धीरबुिद नाम से िवखयात एक बाहण था, जो मुझमे िपय ननदी के समान भिि रखता था। वह पावन कीितु के अजन ु मे ततपर रहने वाला, शानतिचत और िहं सा, कठोरता और दःुसाहस से दरू रहने वाला था। िजतेिनदय होने के कारण वह िनविृतमागु मे
िसथत रहता था।
उसने वेदरपी समुद का पार पा िलया था। वह समपूणु शासो के तातपयु का जाता था। उसका
िचत सदा मेरे धयान मे संलगन रहता था। वह मन को अनतरातमा मे लगाकर सदा आतमतिव का साकातकार िकया करता था, अतः जब वह चलने लगता, तब मै पेमवश उसके पीछे दौडदौडकर उसे हाथ का सहारा दे ता रहता था।
यह द ेख म ेरे पाष ु द भ ं ृ िग िर िट न े प ूछा ः भगवन ! इस पकार भला, िकसने आपका
दशन ु िकया होगा? इस महातमा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप िकया है िक सवयं आप ही पगपग पर इसे हाथ का सहारा दे ते रहते है ? (अनुकम)
भंिृगिरिट का यह पश सुनकर मैने इस पकार उतर दे ना आरमभ िकया। एक समय की
बात है – कैलास पवत ु के पाशभ ु ागम मे पुननाग वन के भीतर चनदमा की अमत ृ मयी िकरणो से धुली हुई भूिम मे एक वेदी का आशय लेकर मै बैठा हुआ था। मेरे बैठने के कण भर बाद ही
सहसा बडे जोर की आँधी उठी वहाँ के वक ृ ो की शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपस मे टकराने लगीं, िकतनी ही टहिनयाँ टू ट-टू टकर िबखर गयीं। पवत ु की अिवचल छाया भी िहलने लगी। इसके बाद वहाँ महान भयंकर शबद हुआ, िजससे पवत ु की कनदराएँ पितधविनत हो उठीं। तदननतर आकाश से कोई िवशाल पकी उतरा, िजसकी कािनत काले मेि के समान थी। वह कजजल की रािश,
अनधकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पवत ु -सा जान पडता था। पैरो से पथ ृ वी का सहारा लेकर उस पकी ने मुझे पणाम िकया और एक सुनदर नवीन कमल मेरे चरणो मे रखकर सपष वाणी मे सतुित करनी आरमभ की। पकी बोलाः
दे व ! आपकी जय हो। आप िचदाननदमयी सुधा के सागर तथा जगत के
पालक है । सदा सदभावना से युि और अनासिि की लहरो से उललिसत है । आपके वैभव का
कहीं अनत नहीं है । आपकी जय हो। अिै तवासना से पिरपूणु बुिद के िारा आप िििवध मलो से रिहत है । आप िजतेिनदय भिो को अधीन अिवदामय उपािध से रिहत, िनतयमुि, िनराकार,
िनरामय, असीम, अहं कारशूनय, आवरणरिहत और िनगुण ु है । आपके भयंकर ललाटरपी महासपु की िवषजवाला से आपने कामदे व को भसम िकया। आपकी जय हो। आप पतयक आिद पमाणो से दरू होते हुए भी पामाणयसवरप है । आपको बार-बार नमसकार है । चैतनय के सवामी तथा
ििभुवनरपधारी आपको पणाम है । मै शि े योिगयो िारा चुिमबत आपके उन चरण-कमलो की
वनदना करता हूँ, जो अपार भव-पाप के समुद से पार उतरने मे अदभुत शििशाली है । महादे व ! साकात बह ृ सपित भी आपकी सतुित करने की धष ृ ता नहीं कर सकते। सहस मुखोवाले नागराज
शेष मे भी इतना चातुयु नहीं है िक वे आपके गुणो का वणन ु कर सके, ििर मेरे जैसे छोटी बुिदवाले पकी की तो िबसात ही कया है ?
उस पकी के िारा िकये हुए इस सतोि को सुनकर मैने उससे पूछाः "िवहं गम ! तुम कौन
हो और कहाँ से आये हो? तुमहारी आकृ ित तो हं स जैसी है , मगर रं ग कौए का िमला है । तुम िजस पयोजन को लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।" पकी बोलाः
दे वेश ! मुझे बहा जी का हं स जािनये। धूजट ु े ! िजस कमु से मेरे शरीर मे
इस समय कािलमा आ गयी है , उसे सुिनये। पभो ! यदिप आप सवज ु है , अतः आप से कोई भी बात िछपी नहीं है तथािप यिद आप पूछते है तो बतलाता हूँ। सौराष (सूरत) नगर के पास एक सुनदर सरोवर है , िजसमे कमल लहलहाते रहते है । उसी मे से बालचनदमा के टु कडे जैसे शेत
मण ृ ालो के गास लेकर मै तीव गित से आकाश मे उड रहा था। उडते-उडते सहसा वहाँ से पथ ृ वी
पर िगर पडा। जब होश मे आया और अपने िगरने का कोई कारण न दे ख सका तो मन ही मन सोचने लगाः 'अहो ! यह मुझ पर कया आ पडा? आज मेरा पतन कैसे हो गया?' पके हुए कपूर के समान मेरे शेत शरीर मे यह कािलमा कैसे आ गयी? इस पकार िविसमत होकर मै अभी िवचार
ही कर रहा था िक उस पोखरे के कमलो मे से मुझे ऐसी वाणी सुनाई दीः 'हं स ! उठो, मै तुमहारे िगरने और काले होने का कारण बताती हूँ।' तब मै उठकर सरोवर के बीच गया और वहाँ पाँच
कमलो से युि एक सुनदर कमिलनी को दे खा। उसको पणाम करके मैने पदिकणा की और अपने पतन का कारण पूछा।(अनुकम)
कम िलनी बो लीः कलहं स ! तुम आकाशमागु से मुझे लाँिकर गये हो, उसी पातक के
पिरणामवश तुमहे पथ ृ वी पर िगरना पडा है तथा उसी के कारण तुमहारे शरीर मे कािलमा िदखाई दे ती है । तुमहे िगरा दे ख मेरे हदय मे दया भर आयी और जब मै इस मधयम कमल के िारा
बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुख से िनकली हुई सुगनध को सूँिकर साठ हजार भँवरे सवगल ु ोक को पाप हो गये है । पिकराज ! िजस कारण मुझमे इतना वैभव – ऐसा पभाव आया है , उसे
बतलाती हूँ, सुनो। इस जनम से पहले तीसरे जनम मे मै इस पथ ृ वी पर एक बाहण की कनया के रप मे उतपनन हुई थी। उस समय मेरा नाम सरोजवदना था। मै गुरजनो की सेवा करती हुई
सदा एकमाि पितवत के पालन मे ततपर रहती थी। एक िदन की बात है , मै एक मैना को पढा रही थी। इससे पितसेवा मे कुछ िवलमब हो गया। इससे पितदे वता कुिपत हो गये और उनहोने
शाप िदयाः 'पािपनी ! तू मैना हो जा।' मरने के बाद यदिप मै मैना ही हुई, तथािप पाितवतय के
पसाद से मुिनयो के ही िर मे मुझे आशय िमला। िकसी मुिनकनया ने मेरा पालन-पोषण िकया। मै िजनके िर मे थी, वे बाहण पितिदन िवभूित योग के नाम से पिसद गीता के दसवे अधयाय
का पाठ करते थे और मै उस पापहारी अधयाय को सुना करती थी। िवहं गम ! काल आने पर मै मैना का शरीर छोड कर दशम अधयाय के माहातमय से सवगु लोक मे अपसरा हुई। मेरा नाम पदावती हुआ और मै पदा की पयारी सखी हो गयी।
एक िदन मै िवमान से आकाश मे िवचर रही थी। उस समय सुनदर कमलो से सुशोिभत इस रमणीय सरोवर पर मेरी दिष पडी और इसमे उतर कर जयो हीं मैने जलकीडा आरमभ की,
तयो ही दव ु ा मुिन आ धमके। उनहोने वसहीन अवसथा मे मुझे दे ख िलया। उनके भय से मैने ु ास सवयं ही कमिलनी का रप धारण कर िलया। मेरे दोनो पैर दो कमल हुए। दोनो हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगो के साथ मेरा मुख भी कमल का हो गया। इस पकार मै पाँच
कमलो से युि हुई। मुिनवर दव ु ा ने मुझे दे खा उनके नेि कोधािगन से जल रहे थे। वे बोलेः ु ास
'पािपनी ! तू इसी रप मे सौ वषो तक पडी रह।' यह शाप दे कर वे कणभर मे अनतधान ु हो गये कमिलनी होने पर भी िवभूितयोगाधयाय के माहातमय से मेरी वाणी लुप नहीं हुई है । मुझे लाँिने माि के अपराध से तुम पथृवी पर िगरे हो। पकीराज ! यहाँ खडे हुए तुमहारे सामने ही आज मेरे
शाप की िनविृत हो रही है , कयोिक आज सौ वषु पूरे हो गये। मेरे िारा गाये जाते हुए, उस उतम अधयाय को तुम भी सुन लो। उसके शवणमाि से तुम भी आज मुि हो जाओगे।
यह कहकर पिदनी ने सपष तथा सुनदर वाणी मे दसवे अधयाय का पाठ िकया और वह
मुि हो गयी। उसे सुनने के बाद उसी के िदये हुए इस कमल को लाकर मैने आपको अपण ु िकया है ।(अनुकम)
इतनी कथा सुनाकर उस पकी ने अपना शरीर तयाग िदया। यह एक अदभुत-सी िटना
हुई। वही पकी अब दसवे अधयाय के पभाव से बाहण कुल मे उतपनन हुआ है । जनम से ही अभयास होने के कारण शैशवावसथा से ही इसके मुख से सदा गीता के दसवे अधयाय का
उचचारण हुआ करता है । दसवे अधयाय के अथु-िचनतन का यह पिरणाम हुआ है िक यह सब
भूतो मे िसथत शंख-चकधारी भगवान िवषणु का सदा ही दशन ु करता रहता है । इसकी सनेहपूणु दिष जब कभी िकसी दे हधारी क शरीर पर पड जाती है , तब वह चाहे शराबी और बहहतयारा ही कयो न हो, मुि हो जाता है तथा पूवज ु नम मे अभयास िकये हुए दसवे अधयाय के माहातमय से इसको दल ु तिवजान पाप हुआ तथा इसने जीवनमुिि भी पा ली है । अतः जब यह रासता ु भ
चलने लगता है तो मै इसे हाथ का सहारा िदये रहता हूँ। भंिृगिरटी ! यह सब दसवे अधयाय की ही महामिहमा है ।
पावत ु ी ! इस पकार मैने भंिृगिरिट के सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही तुमसे भी
कही है । नर हो या नारी, अथवा कोई भी कयो न हो, इस दसवे अधयाय के शवण माि से उसे सब आशमो के पालन का िल पाप होता है ।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
दसवा ँ अ धयायः िवभ ू ितयो ग सात से लेकर नौवे अधयाय तक िवजानसिहत जान का जो वणन ु िकया है वह बहुत
गंभीर होने से ििर से उस िवषय को सपषरप से समझाने के िलए इस अधयाय का अब आरमभ
करते है । यहाँ पर पहले शोक मे भगवान पूवोि िवषय का ििर से वणन ु करने की पितजा करते है -
।। अथ दश मोऽधयायः ।। शीभगवान ुवाच
भूय एव म हाबाहो श ृणु म े परम ं व चः। यतेऽह ं पीयमाणाय
वकया िम िह तकामय या।। 1।।
शी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! ििर भी मेरे परम रहसय और पभावयुि वचन को सुन, िजसे मै तुझ अितशय पेम रखनेवाले के िलए िहत की इचछा से कहूँगा।(1) न मे िवद ु ः स ुरगणाः प भवं न म हष ु यः।
अहमा िदिह ु देवाना ं महषीण ां च सव ु शः।। 2।।
मेरी उतपित को अथात ु ् लीला से पकट होने को न दे वता लोग जानते है और न महिषज ु न
ही जानते है , कयोिक मै सब पकार से दे वताओं का और महिषय ु ो का भी आिदकरण हूँ।(2) यो मा मजमनािद ं च वेित लोकमह ेशर म।्
असंम ूढः स म तये षु स वु पाप ैः प मुचयत े।। 3।।
जो मुझको अजनमा अथात ु ् वासतव मे जनमरिहत, अनािद और लोको का महान ईशर,
तिव से जानता है , वह मनुषयो मे जानवान पुरष समपूणु पापो से मुि हो जाता है ।(3) बुिदजा ु नमसममोह ः कमा सतय ं दम ः शम ः।
सुख ं द ु ःखं भ वोऽभावो भय ं चा भयम ेव च।। 4।। अिहंसा सम ता तुिषसत पो दान ं यशोऽयश ः।
भविनत भावा भ ूताना ं मत एव प ृ थिगव धाः।। 5।।
िनिय करने की शिि, यथाथु जान, असममूढता, कमा, सतय, इिनदयो का वश मे करना, मन का िनगह तथा सुख-दःुख, उतपित-पलय और भय-अभय तथा अिहं सा, समता, संतोष, तप, दान, कीितु और अपकीितु – ऐसे ये पािणयो के नाना पकार के भाव मुझसे ही होते है ।(4,5) महष ु यः सप प ूव े च तवारो मनवसत था।
मद भावा मानसा जाता य
ेष ां लोक इ माः पजाः।। 6।।
सात महिषज ु न, चार उनसे भी पूवु मे होने वाले सनकािद तथा सवायमभुव आिद चौदह
मनु – ये मुझमे भाव वाले सब के सब मेरे संकलप से उतपनन हुए है , िजनकी संसार मे यह समपूणु पजा है ।(6)
एत ां िव भूित ं य ोगं च मम य ो व ेित तिवत ः। सोऽ िवकमप ेन योग े न य ुजयत े नाि स ं शयः।। 7।।
जो पुरष मेरी इस परमैशयर ु प िवभूित को और योगशिि को तिव से जानता है , वह िनिल भिियोग से युि हो जाता है – इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।(7)
अहं स वु सय प भवो मतः स वा पवत ु ते।
इित मतवा भज नते मा ं ब ुधा भावस मिनव ताः।। 8।।
मै वासुदेव ही समपूणु जगत की उतपित का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेषा
करता है , इस पकार समझकर शदा और भिि से युि बुिदमान भिजन मुझ परमेशर को ही िनरनतर भजते है ।(8)
मिचचता मद ग तपाणा बो धयनतः परसपरम। ्
कथयन ति मा ं िनतय ं त ुषयिनत च
रमिनत
च ।। 9।।
िनरनतर मुझ मे मन लगाने वाले और मुझमे ही पाणो को अपण ु करने वाले भिजन
मेरी भिि की चचाु के िारा आपस मे मेरे पभाव को जानते हुए तथा गुण और पभावसिहत मेरा कथन करते हुए ही िनरनतर सनतुष होते है , और मुझ वासुदेव मे ही िनरनतर रमण करते है ।(9) तेषा ं स ततय ुिाना ं भजत ां – पीतीप ूव ु कम।्
ददािम ब ुिदयोग ं त ं य ेन माम ुपया िनत त े।। 10।।
उन िनरनतर मेरे धयान आिद मे लगे हुए और पेमपूवक ु भजने वाले भिो को मै वह
तिवजानरप योग दे ता हूँ, िजससे वे मुझको ही पाप होते है ।(10)
तेषाम ेवान ुकमपाथ ु मह मजानज ं त मः।
नाशयामया तम भावसथो जानद ीपेन भ ासवता।। 11।।
हे अजुन ु ! उनके ऊपर अनुगह करने के िलए उनके अनतःकरण मे िसथत हुआ मै सवयं
ही उनके अजान जिनत अनधकार को पकाशमय तिवजानरप दीपक के िारा नष कर दे ता हूँ। (11) (अनुकम)
अजुु न उ वाच
परं ब ह पर ं धाम प िवि ं परम ं भ वान।् पुरष ं शाश तं िदवयमािद देवमज ं िवभ ुम।् । 12।। आहुसतवाम ृ षयः सव े देविष ु नाु रदसतथा।
अिसतो द ेव लो वयास ः सवय ं चैव बवीिष म े।। 13।।
अजुन ु बोलेः आप परम बह, परम धाम और परम पिवि है , कयोिक आपको सब ऋिषगण सनातन, िदवय पुरष और दे वो का भी आिददे व, अजनमा और सववुयापी कहते है । वैसे ही दे विषु
नारद तथा अिसत और दे वल ऋिष तथा महिषु वयास भी कहते है और आप भी मेरे पित कहते है ।(12,13)
सवु मेतदत ं म नये य नमा ं व दिस क े शव। न िह ते भगव नवयिि ं िवद ु देवा न दानवाः।।
14।।
हे केशव ! जो कुछ भी मेरे पित आप कहते है , इस सबको मै सतय मानता हूँ। हे भगवान
! आपके लीलामय सवरप को न तो दानव जानते है और न दे वता ही।(14) सवयम ेवातमनातमान ं वेत थ तव ं प ुरषोतम।
भूत भावन भूत े श द ेवद ेव ज गतपत े।। 15।।
हे भूतो को उतपनन करने वाले ! हे भूतो के ईशर ! हे दे वो के दे व ! हे जगत के सवामी! हे पुरषोतम ! आप सवयं ही अपने-से-अपने को जानते है ।(15) विु महु सयश ेष ेण िदवया
ह ातमिव भूतयः।
यािभ िव ु भू ित िभलोकािनम ांसतव ं वयाप य िति िस।। 16।।
इसिलए आप ही उन अपनी िदवय िवभूितयो को समपूणत ु ा से कहने मे समथु है , िजन िवभूितयो के िारा आप इन सब लोके को वयाप करके िसथत है ।(16)
कथं िवदामह ं यो िगंसतवा ं स दा प िरिच नतयन।्
केष ु केष ु च भाव ेष ु िच नतयोऽिस
भगव नमया।। 17।।
हे योगेशर ! मै िकस पकार िनरनतर िचनतन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन !
आप िकन-िकन भावो से
मेरे िारा िचनतन करने योगय है ?(17)
िवसत ेणातमनो योग ं िवभ ू ितं च जनाद ु न।
भूयः क थय त ृ िप िहु श ृणवतो नािसत म े ऽम ृ तम।् ।18।।
हे जनादु न ! अपनी योगशिि को और िवभूित को ििर भी िवसतारपूवकु किहए, कयोिक आपके अमत ृ मय वचनो को सुनते रहती है ।(18) (अनुकम)
हुए मेरी तिृप नहीं होती अथात ु ् सुनने की उतकणठा बनी ही शीभगवान ुवाच
हनत त े क थियषयािम िदवया हातम
िवभ ूतयः।
पा धानयतः क ुर शे ि नासत यन तो िवसतरसय म े।। 19।।
शी भगवान बोलेः हे कुरशि े ! अब मै जो मेरी िवभूितयाँ है , उनको तेरे िलए पधानता से कहूँगा, कयोिक मेरे िवसतार का अनत नहीं है ।(19)
अहमातमा ग ुडाकेश स वु भूताशय िसथत ः।
अहमा िदि म धयं च भूतानामनत ए व च।। 20।।
हे अजुन ु ! मै सब भूतो के हदय मे िसथत सबका आतमा हूँ तथा समपूणु भूतो का आिद,
मधय और अनत भी मै ही हूँ।(20)
आिदतयानामह ं िवषण ुजयोितषा ं र िवर ंश ुमान।्
मरीिच मु रताम िसम नकिाणामह ं शश ी।। 21।।
मै अिदित के बारह पुिो मे िवषणु और जयोितयो मे िकरणो वाला सूयु हूँ तथा उनचास
वायुदेवताओं का तेज और नकिो का अिधपित चनदमा हूँ।(21)
वेदाना ं सामव ेदो ऽिसम देवान ाम िसम वासव ः। इिनदयाणा ं मन िािसम भ ूतान ाम िसम च ेतना।। 22।।
मै वेदो मे सामवेद हूँ, दे वो मे इनद हूँ, इिनदयो मे मन हूँ और भूतपािणयो की चेतना
अथात ु ् जीवन-शिि हूँ।(22)
रदाण ां श ंकरिा िसम िवत े शो यकरकसा म।्
वसूना ं पावक िािसम म ेरः िश खिरणामह म।् । 23।।
मै एकादश रदो मे शंकर हूँ और यक तथा राकसो मे धन का सवामी कुबेर हूँ। मै आठ
वसुओं मे अिगन हूँ और िशखरवाले पवत ु ो मे सुमेर पवत ु हूँ।(23)
पुरोधस ां च म ुखय ं मा ं िविद पा थु ब ृ हसप ितम।्
सेनानी नामह ं सक नदः सर सामिसम
सागरः।। 24।।
पुरोिहतो मे मुिखया बह ृ सपित मुझको जान। हे पाथु ! मै सेनापितयो मे सकनद और जलाशयो मे समुद हूँ।(24)
महषीणा ं भ ृ गुरह ं िगरामसम येकमकरम। ्
यजाना ं जपयजोऽिसम
सथावराणा ं िहमालयः।। 25।।
मै महिषय ु ो मे भग ृ ु और शबदो मे एक अकर अथात ु ् ओंकार हूँ। सब पकार के यजो मे
जपयज और िसथर रहने वालो मे िहमालय पवत ु हूँ।(25)
अशत थः सव ु व ृ काणा ं द ेवषीणा ं च नारदः।
गनध वाु णां िच िरथ ः िसदाना ं क िपलो म ुिन ः।। 26।।
मै सब वक ृ ो मे पीपल का वक ृ , दे विषय ु ो मे नारद मुिन, गनधवो मे िचिरथ और िसदो मे किपल मुिन हूँ।(26) (अनुकम)
उचचै ःशव समशाना ं िविद माम मृ तोद भवम। ्
ऐरावत ं गज ेनदाणा ं नराणा ं च न रा िधपम।् । 27।।
िोडो मे अमत ृ के साथ उतपनन होने वाला उचचैःशवा नामक िोडा, शि े हािथयो मे ऐरावत नामक हाथी और मनुषयो मे राजा मुझको जान।(27)
आयुधानामह ं व जं ध ेन ूनामिसम का मधुक् ।
पजनिािसम
कनदप ु ः सपा ु णा िसम वास ुिक ः।। 28।।
मै शसो मे वज और गौओं मे कामधेनु हूँ। शासोि रीित से सनतान की उतपित का हे तु
कामदे व हूँ और सपो मे सपरुाज वासुकी हूँ।(28) अनन तिािसम
नागा नां वरणो यादसामह
िपत ृ णामय ु मा चािसम
म।्
यमः स ंयमतामह म।् ।29।।
मै नागो मे शेषनाग और जलचरो का अिधपित वरण दे वता हूँ और िपंजरो मे अयम ु ा
नामक िपतर तथा शासन करने वालो मे यमराज मै हूँ।(29)
पहादिा िसम द ैतयाना ं काल ः कलयतामह म।्
मृ गाण ां च म ृ गेनदोऽह ं व ैनत ेयि प िकणाम।् । 30।।
मै दै तयो मे पहाद और गणना करने वालो का समय हूँ तथा पशुओं मे मग ृ राज िसंह और
पिकयो मे मै गरड हूँ।(30)
पवन ः पवतामिसम
रामः शस भृ तामहम।्
झषाण ां मकरिा िसम सोतसा मिसम जाहवी।।
31।।
मै पिवि करने वालो मे वायु और शसधािरयो मे शीराम हूँ तथा मछिलयो मे मगर हूँ
और निदयो मे शीभागीरथी गंगाजी हूँ।(31)
सगाु णामािदरनत ि मधय ं च ैवाह मजुु न।
अधयातमिवदा िवदाना
ं वाद ः पवदतामह म।् ।32।।
हे अजुन ु सिृषयो का आिद और अनत तथा मधय भी मै ही हूँ। मै िवदाओं मे
अधयातमिवदा अथात ु ् बहिवदा और परसपर िववाद करने वालो का तिव-िनणय ु के िलए िकया जाने वाला वाद हूँ।(32)
अकरा णामकारोऽिसम
िनि ः सामा िसकसय च।
अहम ेवाकयः का लो ध ाताह ं िवश तोम ुखः।। 33।। मै अकरो मे अकार हूँ और समासो मे िनि नामक समास हूँ। अकयकाल अथात ु ् काल का
भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, िवराटसवरप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मै ही हूँ। (33) (अनुकम)
मृ तयुः स वु हरिाहम ुद भ वि भ िवषयताम। ्
कीित ु ः शीवा ु कच नारीणा ं सम ृ ितम े धा ध ृ ित ः कमा।। 34।।
मै सबका नाश करने वाला मतृयु और उतपनन होने वालो का उतपित हे तु हूँ तथा िसयो
मे कीितु, शी, वाक् , समिृत, मेधा, धिृत और कमा हूँ।(34) बृ हतसाम तथा सामन
ां गायिी
छ नदसाम हम।्
मासाना ं माग ु शीषोऽह मृ तूना ं कुस ु माकरः।। 35।।
तथा गायन करने योगय शिुतयो मे मै बह ृ तसाम और छनदो मे गायिी छनद हूँ तथा
महीनो मे मागश ु ीषु और ऋतुओं मे वसनत मै हूँ।(36)
दूत ं छ लयतामिसम त े जसत ेजिसवनाम हम।्
जयोऽ िसम वयवसायोऽिसम
सिव ं सिववता महम।् ।36।।
मै छल करने वालो मे जुआ और पभावशाली पुरषो का पभाव हूँ। मै जीतने वालो का
िवजय हूँ, िनिय करने वालो का िनिय और साििवक पुरषो का साििवक भाव हूँ।(36) वृ षणीना ं वास ुदेवो ऽिसम पाणडवाना ं धन ंजय ः।
मुनीन ामपयह ं वय ास ः कवीनाम ुशना क िव ः।। 37।।
विृषणवंिशयो मे वासुदेव अथात ु ् मै सवयं तेरा सखा, पाणडवो मे धनंजय अथात ु ् तू, मुिनयो
मे वेदवयास और किवयो मे शुकाचायु किव भी मै ही हूँ।(37)
दणडो द मयतामिसम नी ितरिसम
िजगीषताम। ्
मौन ं चैवा िसम ग ुहाना ं जान ं जा नवताम हम।् ।38।।
मै दमन करने वालो का दणड अथात ु ् दमन करने की शिि हूँ, जीतने की इचछावालो की
नीित हूँ, गुप रखने योगय भावो का रकक मौन हूँ और जानवानो का तिवजान मै ही हूँ।(38) यच चािप सव ु भूताना ं बीज ं तदह मजुु न।
न तद िसत िवना यतसय
ान मया भू तं चराचरम। ् ।39।।
और हे अजुन ु ! जो सब भूतो की उतपित का कारण है , वह भी मै ही हूँ, कयोिक ऐसा चर
और अचर कोई भी भूत नहीं है , जो मुझसे रिहत हो।(39)
नानतोऽ िसत म म िदवयाना ं िव भूतीना ं पर ंतप।
एष त ूदेशत ः पोिो
िवभ ूत े िव ु सतरो मया।। 40।।
हे परं तप ! मेरी िदवय िवभूितयो का अनत नहीं है , मैने अपनी िवभूितयो का यह िवसतार तो तेरे िलए एकदे श से अथात ु ् संकेप से कहा है ।(40)
यदििभ ू ितमतसिव ं श ीमद ू िज ु तमेव वा।
ततद ेवावगचछ तव ं म म त ेजो ऽशसम भवम।् । 41।।
जो-जो भी िवभूितयुि अथात ु ् ऐशयय ु ुि, कािनतयुि और शिियुि वसतु है , उस उसको तू
मेरे तेज के अंश की ही अिभवयिि जान(41) (अनुकम)
अथवा बह ु नैत ेन िकं जात ेन त वाज ु न।
िवषभयाहिम दं कृतसनम ेक ांश ेन िसथ तो ज गत।् । 42।।
अथवा हे अजुन ु ! इस बहुत जानने से तेरा कया पयोजन है ? मै इस समपूणु जगत को
अपनी योगशिि के एक अंशमाि से धारण करके िसथत हूँ।(42)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे िवभूितयोगो नाम दशमोऽधयायः।।10।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे 'िवभूितयोग' नामक दसवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गया रह वे अधयाय क ा माहातमय शी महाद े व जी क हते ह ै – िपये ! गीता के वणन ु से समबनध रखने वाली कथा और
िवशरप अधयाय के पावन माहातमय को शवण करो। िवशाल नेिो वाली पावत ु ी ! इस अधयाय के माहातमय का पूरा-पूरा वणन ु नहीं िकया जा सकता। इसके समबनध मे सहसो कथाएँ है । उनमे से एक यहाँ कही जाती है । पणीता नदी के तट पर मेिंकर नाम से िवखयात एक बहुत बडा नगर
है । उसके पाकार (चारदीवारी) और गोपुर (िार) बहुत ऊँचे है । वहाँ बडी-बडी िवशामशालाएँ है , िजनमे सोने के खमभे शोभा दे रहे है । उस नगर मे शीमान, सुखी, शानत, सदाचारी तथा िजतेिनदय
मनुषयो का िनवास है । वहाँ हाथ मे शारं ग नामक धनुष धारण करने वाले जगदीशर भगवान िवषणु िवराजमान है । वे परबह के साकार सवरप है , संसार के नेिो को जीवन पदान करने वाले
है । उनका गौरवपूणु शीिवगह भगवती लकमी के नेि-कमलो िारा पूिजत होता है । भगवान की वह झाँकी वामन-अवतार की है । मेि के समान उनका शयामवणु तथा कोमल आकृ ित है । वकसथल पर शीवतस का िचि शोभा पाता है । वे कमल और वनमाला
से सुशोिभत है । अनेक पकार के
आभूषणो से सुशोिभत हो भगवान वामन रतयुि समुद के सदश जान पडते है । पीतामबर से उनके शयाम िवगह की कािनत ऐसी पतीत होती है , मानो चमकती हुई िबजली से ििरा हुआ
िसनगध मेि शोभा पा रहा हो। उन भगवान वामन का दशन ु करके जीव जनम और संसार के बनधन से मुि हो जाता है । उस नगर मे मेखला नामक महान तीथु है , िजसमे सनान करके
मनुषय शाशत वैकुणठधाम को पाप होता है । वहाँ जगत के सवामी करणासागर भगवान निृसंह का दशन ु करने से मनुषय के सात जनमो के िकये हुए िोर पाप से छुटकारा पा जाता है । जो मनुषय मेखला मे गणेशजी का दशन ु करता है , वह सदा दस ु तर िवघनो से पार हो जाता है । (अनुकम)
उसी मेिंकर नगर मे कोई शि े बाहण थे, जो बहचयप ु रायण, ममता और अहं कार से
रिहत, वेद शासो मे पवीण, िजतेिनदय तथा भगवान वासुदेव के शरणागत थे। उनका नाम सुननद था। िपये ! वे शारं ग धनुष धारण करने वाले भगवान के पास गीता के गयारहवे अधयाय-
िवशरपदशन ु योग का पाठ िकया करते थे। उस अधयाय के पभाव से उनहे बहजान की पािप हो गयी थी। परमाननद-संदोर से पूणु उतम जानमयी समाधी के िारा इिनदयो के अनतमुख ु हो जाने के कारण वे िनिल िसथित को पाप हो गये थे और सदा जीवनमुि योगी की िसथित मे रहते
थे। एक समय जब बह ृ सपित िसंह रािश पर िसथत थे, महायोगी सुननद ने गोदावरी तीथु की यािा आरमभ की। वे कमशः िवरजतीथु, तारातीथु, किपलासंगम, अषतीथु, किपलािार, निृसंहवन,
अिमबकापुरी तथा करसथानपुर आिद केिो मे सनान और दशन ु करते हुए िववादमणडप नामक
नगर मे आये। वहाँ उनहोने पतयेक िर मे जाकर अपने ठहरने के िलए सथान माँगा, परनतु कहीं भी उनहे सथान नहीं िमला। अनत मे गाँव के मुिखया ने उनहे बहुत बडी धमश ु ाला िदखा दी।
बाहण ने सािथयो सिहत उसके भीतर जाकर रात मे िनवास िकया। सबेरा होने पर उनहोने अपने को तो धमश ु ाला के बाहर पाया, िकंतु उनके और साथी नहीं िदखाई िदये। वे उनहे खोजने के िलए
चले, इतने मे ही गामपाल (मुिखये) से उनकी भेट हो गयी। गामपाल ने कहाः "मुिनशि े ! तुम सब पकार से दीिाय ु ु जान पडते हो। सौभागयशाली तथा पुणयवान पुरषो मे तुम सबसे पिवि हो।
तुमहारे भीतर कोई लोकोतर पभाव िवदमान है । तुमहारे साथी कहाँ गये? कैसे इस भवन से बाहर हुए? इसका पता लगाओ। मै तुमहारे सामने इतना ही कहता हूँ िक तुमहारे जैसा तपसवी मुझे
दस ू रा कोई िदखाई नहीं दे ता। िवपवर ! तुमहे िकस महामनि का जान है ? िकस िवदा का आशय
लेते हो तथा िकस दे वता की दया से तुमहे अलौिकक शिि पाप हो गयी है ? भगवन ! कृ पा करके इस गाँव मे रहो। मै तुमहारी सब पकार से सेवा-सुशष ू ा करँगा।
यह कहकर गामपाल ने मुनीशर सुननद को अपने गाँव मे ठहरा िलया। वह िदन रात बडी
भिि से उसकी सेवा टहल करने लगा। जब सात-आठ िदन बीत गये, तब एक िदन पातःकाल
आकर वह बहुत दःुखी हो महातमा के सामने रोने लगा और बोलाः "हाय ! आज रात मे राकस ने मुझ भागयहीन को बेटे को चबा िलया है । मेरा पुि बडा ही गुणवान और भििमान था।" गामपाल
के इस पकार कहने पर योगी सुननद ने पूछाः "कहाँ है वह राकस? और िकस पकार उसने तुमहारे पुि का भकण िकया है ?" (अनुकम)
गामपाल बोला ः बहण ! इस नगर मे एक बडा भयंकर नरभकी राकस रहता है । वह
पितिदन आकर इस नगर मे मनुषयो को खा िलया करता था। तब एक िदन समसत नगरवािसयो ने िमलकर उससे पाथन ु ा कीः "राकस ! तुम हम सब लोगो की रका करो। हम तुमहारे िलए
भोजन की वयवसथा िकये दे ते है । यहाँ बाहर के जो पिथक रात मे आकर नींद लेगे, उनको खा जाना।" इस पकार नागिरक मनुषयो ने गाँव के (मुझ) मुिखया िारा इस धमश ु ाला मे भेजे हुए
पिथको को ही राकस का आहार िनिित िकया। अपने पाणो की रका करने के िलए उनहे ऐसा करना पडा। आप भी अनय राहगीरो के साथ इस िर मे आकर सोये थे, िकंतु राकस ने उन सब को तो खा िलया, केवल तुमहे छोड िदया है । ििजोतम ! तुममे ऐसा कया पभाव है , इस बात को
तुमहीं जानते हो। इस समय मेरे पुि का एक िमि आया था, िकंतु मै उसे पहचान न सका। वह मेरे पुि को बहुत ही िपय था, िकंतु अनय राहगीरो के साथ उसे भी मैने उसी धमश ु ाला मे भेज िदया। मेरे पुि ने जब सुना िक मेरा िमि भी उसमे पवेश कर गया है , तब वह उसे वहाँ से ले आने के िलए गया, परनतु राकस ने उसे भी खा िलया। आज सवेरे मैने बहुत दःुखी होकर उस िपशाच से पूछाः "ओ दष ु ातमन ् ! तूने रात मे मेरे पुि को भी खा िलया। तेरे पेट मे पडा हुआ मेरा पुि िजससे जीिवत हो सके, ऐसा कोई उपाय यिद हो तो बता।"
राकस न े क हाः गामपाल ! धमश ु ाला के भीतर िुसे हुए तुमहारे पुि को न जानने के
कारण मैने भकण िकया है । अनय पिथको के साथ तुमहारा पुि भी
अनजाने मे ही मेरा गास
बन गया है । वह मेरे उदर मे िजस पकार जीिवत और रिकत रह सकता है , वह उपाय सवयं
िवधाता ने ही कर िदया है । जो बाहण सदा गीता के गयारहवे अधयाय का पाठ करता हो, उसके पभाव से मेरी मुिि होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन पाप होगा। यहाँ कोई बाहण रहते है ,
िजनको मैने एक िदन धमश ु ाला से बाहर कर िदया था। वे िनरनतर गीता के गयारहवे अधयाय का जप िकया करते है । इस अधयाय के मंि से सात बार अिभमिनित करके यिद वे मेरे ऊपर जल का छींटा दे तो िनःसंदेह मेरा शाप से उदार हो जाएगा। इस पकार उस राकस का संदेश पाकर मै तुमहारे िनकट आया हूँ।
गामपाल बोला ः बहण ! पहले इस गाँव मे कोई िकसान बाहण रहता था। एक िदन वह अगहनी के खेत की कयािरयो की रका करने मे लगा था। वहाँ से थोडी ही दरू पर एक बहुत बडा िगद िकसी राही को मार कर खा रहा था। उसी समय एक तपसवी कहीं से आ िनकले, जो उस
राही को िलए दरू से ही दया िदखाते आ रहे थे। िगद उस राही को खाकर आकाश मे उड गया। तब उस तपसवी ने उस िकसान से कहाः "ओ दष ु हलवाहे ! तुझे िधककार है ! तू बडा ही कठोर
और िनदु यी है । दस ू रे की रका से मुँह मोडकर केवल पेट पालने के धंधे मे लगा है । तेरा जीवन
नषपाय है । अरे ! शिि होते हुए भी जो जोर, दाढवाले जीव, सपु, शिु, अिगन, िवष, जल, गीध, राकस, भूत तथा बेताल आिद के िारा िायल हुए मनुषयो की उपेका करता है , वह उनके वध का िल पाता है । जो शििशाली होकर भी चोर आिद के चंगुल मे िँसे हुए बाहण को छुडाने की चेषा
नहीं करता, वह िोर नरक मे पडता है और पुनः भेिडये की योिन मे जनम लेता है । जो वन मे
मारे जाते हुए तथा िगद और वयाघ की दिष मे पडे हुए जीव की रका के िलए 'छोडो....छोडो...' की पुकार करता है , वह परम गित को पाप होता है । जो मनुषय गौओं की रका के िलए वयाघ, भील तथा दष ु राजाओं के हाथ से मारे जाते है , वे भगवान िवषणु के परम पद को पाप होते है जो
योिगयो के िलए भी दल ु है । सहस अशमेध और सौ वाजपेय यज िमलकर शरणागत-रका की ु भ सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। दीन तथा भयभीत जीव की उपेका करने से
पुणयवान पुरष भी समय आने पर कुमभीपाक नामक नरक मे पकाया जाता है । तूने दष ु िगद के िारा खाये जाते हुए राही को दे खकर उसे बचाने मे समथु होते हुए भी जो उसकी रका नहीं की, इससे द ू िनदु यी जान पडता है , अतः तू राकस हो जा।(अनुकम)
हलवाहा बोला ः महातमन ! मै यहाँ उपिसथत अवशय था, िकंतु मेरे नेि बहुत दे र से खेत
की रका मे लगे थे, अतः पास होने पर भी िगद के िारा मारे जाते हुए इस मनुषय को मै नहीं जान सका। अतः मुझ दीन पर आपको अनुगह करना चािहए।
तपसवी बाहण न े क हाः जो पितिदन गीता के गयारहवे अधयाय का जप करता है , उस
मनुषय के िारा अिभमिनित जल जब तुमहारे मसतक पर पडे गा, उस समय तुमहे शाप से छुटकारा िमल जायेगा।
यह कहकर तपसवी बाहण चले गये और वह हलवाहा राकस हो गया। अतः ििजशि े !
तुम चलो और गयारहवे अधयाय
से तीथु के जल को अिभमिनित करो ििल अपने ही हाथ से
उस राकस के मसतक पर उसे िछडक दो।
गामपाल की यह सारी पाथन ु ा सुनकर बाहण के हदय मे करणा भर आयी। वे 'बहुत
अचछा' कहकर उसके साथ राकस के िनकट गये। वे बाहण योगी थे। उनहोने िवशरपदशन ु नामक गयारहवे अधयाय से जल अिभमिनित करके उस राकस के मसतक पर डाला। गीता के गयारहवे
अधयाय के पभाव से वह शाप से मुि हो गया। उसने राकस-दे ह का पिरतयाग करके चतुभुजरप धारण कर िलया तथा उसने िजन सहसो पािणयो का भकण िकया था, वे भी शंख, चक और गदा
धारण िकये हुए चतुभुजरप हो गये। ततपिात ् वे सभी िवमान पर आरढ हुए। इतने मे ही
गामपाल ने राकस से कहाः "िनशाचर ! मेरा पुि कौन है ? उसे िदखाओ।" उसके यो कहने पर
िदवय बुिदवाले राकस ने कहाः 'ये जो तमाल के समान शयाम, चार भुजाधारी, मािणकयमय मुकुट से सुशोिभत तथा िदवय मिणयो के बने हुए कुणडलो से अलंकृत है , हार पहनने के कारण िजनके कनधे मनोहर पतीत होते है , जो सोने के भुजबंदो से िवभूिषत, कमल के समान नेिवाले,
िसनगधरप तथा हाथ मे कमल िलए हुए है और िदवय िवमान पर बैठकर दे वतव के पाप हो चुके है , इनहीं को अपना पुि समझो।' यह सुनकर गामपाल ने उसी रप मे अपने पुि को दे खा और उसे अपने िर ले जाना चाहा। यह दे ख उसका पुि हँ स पडा और इस पकार कहने लगा। पुि बोलाः
गामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुि हो चुके हो। पहले मै तुमहारा पुि था,
िकंतु अब दे वता हो गया हूँ। इन बाहण दे वता के पसाद से वैकुणठधाम को जाऊँगा। दे खो, यह
िनशाचर भी चतुभज ु रप को पाप हो गया। गयारहवे अधयाय के माहातमय से यह सब लोगो के साथ शीिवषणुधाम को जा रहा है । अतः तुम भी इन बाहदे व से गीता के गयारहवे अधयाय का
अधययन करो और िनरनतर उसका जप करते रहो। इसमे सनदे ह नहीं िक तुमहारी भी ऐसी ही उतम गित होगी। तात ! मनुषयो के िलए साधु पुरषो का संग सवथ ु ा दल ु है । वह भी इस समय ु भ तुमहे पाप है । अतः अपना अभीष िसद करो। धन, भोग, दान, यज, तपसया और पूवक ु मो से कया लेना है ? िवशरपाधयाय के पाठ से ही परम कलयाण की पाप हो जाती है । (अनुकम)
पूणान ु नदसंदोहसवरप शीकृ षण नामक बह के मुख से कुरकेि मे अपने िमि अजुन ु के
पित जो अमत ृ मय उपदे श िनकला था, वही शीिवषणु का परम ताििवक रप है । तुम उसी का
िचनतन करो। वह मोक के िलए पिसद रसायन। संसार-भय से डरे हुए मनुषयो की आिध-वयािध का िवनाशक तथा अनेक जनम के दःुखो का नाश करने वाला है । मै उसके िसवा दस ू रे िकसी साधन को ऐसा नहीं दे खता, अतः उसी का अभयास करो।
शी महाद े व कहत े ह ै – यह कहकर वह सबके साथ शीिवषणु के परम धाम को चला
गया। तब गामपाल ने बाहण के मुख से उस अधयाय को पढा ििर वे दोनो ही उसके माहातमय से िवषणुधाम को चले गये। पावत ु ी ! इस पकार तुमहे गयारहवे अधयाय की माहातमय की कथा सुनायी है । इसके शवणमाि से महान पातको का नाश हो जाता है ।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
गया रहव ाँ अधयायः िवशरपदश
ु नयोग
दसवे अधयाय के सातवे शोक तक भगवान शीकृ षण ने अपनी िवभूित, योगशिि तथा उसे
जानने के माहातमय का संकेप मे वणन ु िकया है । ििर गयारहवे शोक तक भिियोग तथा उसका िल बताया। इस िवषय पर शोक 12 से 18 तक अजुन ु ने भगवान की सतुित करके िदवय
िवभूितयो का तथा योगशि का िवसतत ृ वणन ु करने के िलए पाथन ु ा की है , इसिलए भगवान शी
कृ षण का िवसतत ृ वणन ु करने के िलए पाथन ु ा की है , इसिलए भगवान शी कृ षण ने 40 वे शोक तक अपनी िवभूितयो का वणन ु समाप करके आिखर मे योगशिि का पभाव बताया और समसत
बहांड को अपने एक अंश से धारण िकया हुआ बताकर अधयाय समाप िकया। यह सुनकर अजुन ु के मन मे उस महान सवरप को पतयक दे खने की इचछा हुई। इस गयारहवे अधयाय के आरमभ
मे पहले चार शोक मे भगवान की तथा उनके उपदे श की बहुत पशंसा करते हुए अजुन ु अपने को िवशरप का दशन ु कराने के िलए भगवान शीकृ षण से पाथन ु ा करते है –
।। अथ ैकादशोऽधयायः ।। अजुु न उ वाच
मदन ुगहाय परम ं ग ु हमधयातमस ं िजतम।् यिवयोि ं व चसत ेन मोहोऽय ं िव गतो मम।। 1।।
अजुन ु बोलेः मुझ पर अनुगह करने के िलए आपने जो परम गोपनीय अधयातमिवषयक वचन अथात ु ् उपदे श कहा, उससे मेरा यह अजान नष हो गया है ।(1)
भवाप ययौ िह भ ू ता नां श ु तौ िव सतरशो मया।
तवतः क मलप िाक माहातमयमिप चावययम।
् ।2।।
कयोिक हे कमलनेि ! मैने आपसे भूतो की उतपित और पलय िवसतारपूवक ु सुने है तथा आपकी अिवनाशी मिहमा भी सुनी है ।
एव मेतदथातथ तवमातमान
ं परम ेशर।
दषुिम चछािम ते रपम ैशर ं प ुरषोतम।। 3।।
हे परमेशर ! आप अपने को जैसा कहते है , यह ठीक ऐसा ही है परनतु हे पुरषोतम ! आपके जान, ऐशयु, शिि, बल, वीयु और तेज से युि ऐशयम ु य-रप को मै पतयक दे खना चाहता हूँ।(3)
मनयस े यिद तच छकय ं मया दष ु िमित प भो।
योग ेशर ततो म े तव ं द शु या तमानमवययम। ् । 4।।
हे पभो ! यिद मेरे िारा आपका वह रप दे खा जाना शकय है – ऐसा आप मानते है , तो हे
योगेशर ! उस अिवनाशी सवरप का मुझे दशन ु कराइये।(4)
शीभगवान ुवाच
पशय मे पा थु रपािण शत शोऽ थ सह सश ः। नानािवधािन
िदवय ािन नान ावणा ु कृतीिन च।। 5।।
शी भगवान बोलेः हे पाथु ! अब तू मेरे सैकडो-हजारो नाना पकार के और नाना वणु तथा नाना आकृ ित वाले अलौिकक रपो को दे ख।(5)
पशयिदतयानवस ून ् रदानिशनौ
म रतसत था।
बहूनयदषप ूवा ु िण पशयािया ु िण भारत।। 6।।
हे भरतवंशी अजुन ु ! तू मुझमे आिदतयो को अथात ु ् अिदित के िादश पुिो को, आठ वसुओं
को, एकादश रदो को, दोनो अिशनीकुमारो को और उनचास मरदगणो को दे ख तथा और भी बहुत से पहले न दे खे हुए आियम ु य रपो को दे ख।(6)
इहैकसथ ं जगतक ृतसन ं पशया द सच राचरम।्
मम द ेहे गुडाकेश यच चानयददष ुिम चछिस ।। 7।।
हे अजुन ु ! अब इस मेरे शरीर मे एक जगह िसथत चराचरसिहत समपूणु जगत को दे ख तथा और भी जो कुछ दे खना चाहता है सो दे ख।(7)
न तु मा ं श कयस े दष ुमन ेन ैव सव चकुषा।
िदवय ं ददािम
ते चक ु ः पशय मे योगम ै शरम।् । 8।।
परनतु मुझको तू इन अपने पाकृ त नेिो िारा दे खने मे िनःसंदेह समथु नहीं है । इसी से मै तुझे िदवय अथात ु ् अलौिकक चकु दे ता हूँ। इससे तू मेरी ईशरीय योगशिि को दे ख।(8) (अनुकम) संजय उ वाच
एव मुकतवा त तो राज नमहायोग ेशरो ह िरः।
दशु यामास पाथा ु य पर मं रपम ैशरम।् ।9।। अने कवकिनय नम नेकाद ु तद शु नम।्
अनेक िदवय ाभरण ं िदवयान ेकोदताय ुधम।् ।10।। िदवयमालयामबरधर
ं िदवयग नधान ुल ेपनम।्
सवाु िय ु मयं देवमननत ं िवशतोम ुख म।् । 11।।
संजय बोलेः हे राजन ! महायोगेशर और सब पापो के नाश करने वाले भगवान ने इस
पकार कहकर उसके पिात अजुन ु को परम ऐशयय ु ुि िदवय सवरप िदखलाया। अनेक मुख और नेिो से युि, अनेक अदभुत दशन ु ोवाले, बहुत से िदवय भूषणो से युि और बहुत से िदवय शसो को हाथो मे उठाये हुए, िदवय माला और वसो को धारण िकये हुए और िदवय गनध का सारे
शरीर मे लेप िकये हुए, सब पकार के आियो से युि, सीमारिहत और सब ओर मुख िकये हुए िवराटसवरप परमदे व परमेशर को अजुन ु ने दे खा।
िदिव स ूय ु सहससय भव ेद ुगपद ु ितथता।
यिद भा ः सदशी सा सयाद भासस
तसय म हातमनः।। 12।।
आकाश मे हजार सूयो के एक साथ उदय होने से उतपनन जो पकाश हो, वह भी उस
िवशरप परमातमा के पकाश के सदश कदािचत ् ही हो।(12)
तिैकसथ ं जगत कृतसन ं प िवभि मनेक धा।
अपशयद ेव देवसय श रीर े पाण डवसतदा।। 13।।
पाणडु पुि अजुन ु ने उस समय अनेक पकार से िवभि अथात ु ् पथ ृ क-पथ ृ क, समपूणु जगत
को दे वो के दे व शीकृ षण भगवान के उस शरीर मे एक जगह िसथत दे खा।(13) तत ः स िव समयािवषो हषरोमा
ध नंजयः।
पणमय िशर सा दे वं कृता ं जिलर भाषत।। 14।।
उसके अननतर वे आियु से चिकत और पुलिकत शरीर अजुन ु पकाशमय िवशरप परमातमा को शदा-भििसिहत िसर से पणाम करके हाथ जोडकर बोलेः।(14) अजुु न उ वाच
पशय ािम द ेव ांसतव द ेव द ेहे
सवाु सतथा भ ूत िवश ेष संिा न।् बहाणमीश ं क मलासनस थ-
मृ षींि स वाु नुरगा ंि िदवया न।् । 15।।
अजुन ु बोलेः हे दे व ! मै आपके शरीर मे समपूणु दे वो को तथा अनेक भूतो के समुदायो
को कमल के आसन पर िवरािजत बहा को, महादे व को और समपूणु ऋिषयो को तथा िदवय सपो को दे खता हूँ।(15) (अनुकम)
अनेकबाह ू दरवकि नेि ं
पशय ािम तवा ं स वु तोऽननतरप म।् नानत ं न म धयं न पुनसतवा िदं
पशय ािम िवश े शर िवशरप।। 16।।
हे समपूणु िवश के सवािमन ् ! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेिो से युि तथा सब
ओर से अननत रपो वाला दे खता हूँ। हे िवशरप ! मै आपके न तो अनत को दे खता हूँ, न मधय को और न आिद को ही।(16)
िकरीिटन ं ग िदन ं च िकण ं च
तेजोरा िशं सव ु तो दीिपम नतम।् पशयािम तव ां द ु िन ु रीकय ं स मन ता दीपा नलाकु दुित मपम ेयम।् ।17।।
आपको मै मुकुटयुि, गदायुि और चकयुि तथा सब ओर से पकाशमान तेज के पुंज,
पजविलत अिगन और सूयु के सदश जयोितयुि, किठनता से दे खे जाने योगय और सब ओर से अपमेयसवरप दे खता हूँ।(17)
तवमकर ं परम ं व े िदतवय ं तवमसय िव शसय पर ं िनधानम। ् तव मवय यः शा शतध मु गोपा
सनातनसतव ं पु रषो म तो म े।। 18।।
आप ही जानने योगय परम अकर अथात ु ् परबह परमातमा है , आप ही इस जगत के परम
आशय है , आप ही अनािद धम ु के रकक है और आप ही अिवनाशी सनातन पुरष है । ऐसा मेरा मत है ।(18)
अनािद मधयानतमनन तवीय ु मन नतबाह ुं श िशस ूय ु नेिम।्
पशय ािम तवा ं दीपह ु ता शवकि ं
सवत ेजसा िवशिम दं तप नतम।् । 19।। आपको आिद, अनत और मधय से रिहत, अननत सामथयु से युि, अननत भुजावाले, चनद-
सूयर ु प नेिोवाले, पजजविलत अिगनरप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संतप करते हुए दे खता हूँ।(19)
दावाप ृ िथवय ोिरद मनतर ं िह वय ापं तवय ैकेन िदश ि सवा ु ः। दषटवादभ ु तं रपम ुग ं तव े दं
लोकिय ं पवयिथ तं महातमन। ् ।20।।
हे महातमन ! यह सवगु और पथ ृ वी के बीच का समपूणु आकाश तथा सब िदशाएँ एक आपसे ही पिरपूणु है तथा आपके इस अलौिकक और भयंकर रप को दे खकर तीनो लोक अित वयथा को पाप हो रहे है ।(20) (अनुकम)
अमी िह तव ां स ुरस ंिा िव शिनत
केिचद भी ताः पा ं जलयो ग ृ णिनत । सवस तीत युकतवा मह िष ु िसद संिाः
सतुव िनत तव ां सत ुित भीः प ुषक लािभ ः।। वे ही दे वताओं के समूह आपमे पवेश करते है और कुछ भयभीत होकर हाथ जोडे आपके
नाम और गुणो का उचचारण करते है तथा महिषु और िसदो के समुदाय 'कलयाण हो' ऐसा कहकर उतम सतोिो िारा आपकी सतुित करते है ।(21) रदािदतया
व सवो ये च स ाधया
िवश ेऽ िशनौ मरतिोषमपा
गनध वु यकास ुरिसदस ंिा
ि।
वीक नते तवा ं िविसम ताि ैव सव े ।। 22।।
जो गयारह रद और बारह आिदतय तथा आठ वसु, साधयगण, िवशेदेव, अिशनीकुमार तथा मरदगण और िपतरो का समुदाय तथा गनधवु, यक, राकस और िसदो के समुदाय है – वे सब ही िविसमत होकर आपको दे खते है ।(22)
रपं महत े बह ु वकि नेि ं
महाबाहो बह ु बाह ू रपाद म।् बहूदरं बह ु दंषाकराल ं
दषटवा लोका ः पवयिथतासत थाहम।् ।23।। हे महाबाहो ! आपके बहुत मुख और नेिो वाले, बहुत हाथ, जंिा और पैरो वाले, बहुत उदरो
वाले और बहुत-सी दाढो के कारण अतयनत िवकराल महान रप को दे खकर सब लोग वयाकुल हो रहे है तथा मै भी वयाकुल हो रहा हूँ।(23)
नभःसप ृ शं दीपमन े कवण ु
वयात ानन ं दीप िवशाल नेिम।्
दषटवा िह तवा ं पवय िथतानतरातमा धृ ितं न िव नदािम श मं च िवषणो।। 24।।
कयोिक हे िवषणो ! आकाश को सपशु करने वाले, दे दीपयमान, अनेक वणो
युि तथा
िैलाये हुए मुख और पकाशमान िवशाल नेिो से युि आपको दे खकर भयभीत अनतःकरणवाला मै धीरज और शािनत नहीं पाता हूँ।(24) (अनुकम)
दंषाकरालािन
च ते म ुखािन
दषटव ैव कालानलस िननभािन। िदशो न जान े न लभ े च श मु
पसीद द ेव ेश ज गिनन वास।। 25।। दाढो के कारण िवकराल और पलयकाल की अिगन के समान पजविलत आपके मुखो के
दे खकर मै िदशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसिलए हे दे वेश ! हे जगिननवास ! आप पसनन हो।(25)
अमी च तवा ं ध ृ तराषसय
पुिाः
सवे सह ैवाविन पालस ंि ैः।
भीषमो दोणः स ूतप ुिसत थासौ सहासमदीय ैरिप योधम ुखय ैः।। 26।। वकिा िण त े तवरमाणा
िवश िनत
दंषाकरालािन भयानकािन
केिच िि लगन ा दशनानतर ेष ु
संदशयनत े चूिण ु तैरतमाङग ैः।। 27।।
वे सभी धत ृ राष के पुि राजाओं के समुदायसिहत आपमे पवेश कर रहे है और भीषम िपतामह, दोणाचायु तथा वह कणु और हमारे पक के भी पधान योदाओं सिहत सब के सब आपके दाढो के कारण िवकराल भयानक मुखो मे बडे वेग से दौडते हुए पवेश कर रहे है और कई एक चूणु हुए िसरो सिहत आपके दाँतो के बीच मे लगे हुए िदख रहे है ।(26,27)
यथा नदी नां ब हवोऽमब ुव ेगा ः समुद मेवािभ मुखा दव िनत । तथा तवामी नरलोकवीरा
िवश िनत वक िाणयिभ िवजवल िनत।। 28।।
जैसे निदयो के बहुत से जल के पवाह सवाभािवक ही समुद के सममुख दौडते है अथात ु ्
समुद मे पवेश करते है , वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके पजविलत मुखो मे पवेश कर रहे है ।
यथा पदीप ं जवलन ं पतङ गा
िव शिनत नाशाय
स मृ दवेगाः।
तथैव नाशाय िव शिनत लोका -
सत वािप वकिािण स
मृ दवेगाः।। 29।।
जैसे पतंग मोहवश नष होने के िलए पजविलत अिगन मे अित वेग से दौडते हुए पवेश
करते है , वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के िलए आपके मुखो मे अित वेग से दौडते हुए पवेश कर रहे है । (29) (अनुकम)
लेिल हसे ग समानः स मनता ललोकान समगानव दनैजव ु लिद ः। तेजोिभराप ूय ु जगतस मगं
भाससतवो गाः पतप िनत िवषणो।। 30।।
आप उन समपूणु लोको को पजजविलत मुखो िारा गास करते हुए सब ओर से बार-बार
चाट रहे है । हे िवषणो ! आपका उग पकाश समपूणु जगत को तेज के िारा पिरपूणु करके तपा रहा है ।(30)
आखयािह म े को भ वान ुगरपो नमोऽ सतु त े द ेववर पसीद।
िवजात ु िमचछा िम भव नतमाद ं
न िह पजानािम तव पव मुझे बतलाइये िक आप उग रप वाले कौन है ? हे
ृ ितम।् ।31।।
दे वो मे शि े ! आपको नमसकार हो।
आप पसनन होइये। हे आिदपुरष ! आपको मै िवशेषरप से जानना चाहता हूँ, कयोिक मै आपकी पविृत को नहीं जानता।(31)
शीभगवान ुवाच कालोऽ िसम लोक कयकृतपव ृ द ो लोकानस माहत ु िम ह पव ृ तः।
ऋतेऽ िप तवा ं न भ िवषयिनत
सव े
येऽव िसथता ः पतयन ीकेष ु योधाः।।
32।।
शी भगवान बोलेः मै लोको का नाश करने वाला बढा हुआ महाकाल हूँ। इस समय लोको
को नष करने के िलए पवत ृ हुआ हूँ। इसिलए जो पितपिकयो की सेना मे िसथत योदा लोग है वे सब तेरे िबना भी नहीं रहे गे अथात ु ् तेरे युद न करने पर भी इन सब का नाश हो जाएगा।(32) तस मािवम ुिति यशो ल भसव
िजतवा शि ून ् भुंक व रा जयं सम ृ दम।् मयैव ैत े िन हताः प ूव ु मे व
िन िमतमाि ं भ व सवयसािचन। ् ।33।।
अतएव तू उठ। यश पाप कर और शिुओं को जीतकर धन-धानय से समपनन राजय को भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही िारा मारे हुए है । हे सवयसािचन! तू तो केवल िनिमतमाि बन जा।(33) (अनुकम)
दोण ं च भीषम ं च जयदथ ं च
कण ा तथा नया निप योधवीरान। ्
मया ह तांसतव ं ज िह मा वय िथिा
युधयसव ज ेता िस रण े स पत ् ना न।् । 34।।
दोणाचायु और भीषम िपतामह तथा जयदथ और कणु तथा और भी बहुत-से मेरे िारा
मारे हुए शूरवीर योदाओं को तू मार। भय मत कर। िनःसनदे ह तू युद मे वैिरयो को जीतेगा। इसिलए युद कर।(34)
संजय उ वाच एतचछतवा वचन ं केशव सय
कृताज िलव े पमानः िकरीटी।
नमस कृतवा भूय एवाह क ृषण ं
सगद दं भीतभीत ः पणमय।। 35।। संजय बोलेः केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अजुन ु हाथ जोडकर
काँपता हुआ नमसकार करके, ििर भी अतयनत भयभीत होकर पणाम करके भगवान शीकृ षण के पित गदगद वाणी से बोलेः।(35)
अजुु न उ वाच सथान े ह िषकेश त व पकीतय ाु जगतपहषयतय नुरजयत े च ।
रका ं िस भीतािन
सवे नमसयिनत च
िदशो दव िनत
िसद संिाः।। 36।।
अजुन ु बोलेः हे अनतयािुमन ् ! यह योगय ही है िक आपके नाम, गुण और पभाव के कीतन ु
से जगत अित हिषत ु हो रहा है और अनुराग को भी पाप हो रहा है तथा भयभीत राकस लोग िदशाओं मे भाग रहे है और सब िसदगणो के समुदाय नमसकार कर रहे है ।(36) कसमाच च त े न नम ेरन महातमन ् गरीयस े बहणोऽपयािदक
िे ।
अनन त द ेव ेश ज गिननवास
तव मकर ं सदसततपर ं यत।् । 37।। हे महातमन ् ! बहा के भी आिदकताु और सबसे बडे आपके िलए वे कैसे नमसकार न करे ,
कयोिक हे अननत ! हे दे वेश ! हे जगिननवास ! जो संत ,् असत ्, और उनसे परे अकर अथात ु ् सिचचदाननदिन बह है , वह आप ही है ।(37) (अनुकम)
तवमािद देवः प ुरष ः प ुराण -
सतव मसय िवशसय पर ं िन धानम।् वेतािस व ेद ं पर ं च ध ाम
तवया तत ं िवश मननतरप।। 38।।
आप आिददे व और सनातन पुरष है । आप इस जगत के परम आशय और जानने वाले तथा जानने योगय और परम धाम है । हे अननतरप ! आपसे यह सब जगत वयाप अथात ु ् पिरपूणु है ।(38)
वाय ुय ु मोऽिगनव ु रणः श शांक ः पजापित सतव ं पिपताम हि।
नमो नमसत े ऽसत ु सह सकृतवः
पुनि भ ूयोऽिप नमो नमसत
े।। 39।।
आप वायु, यमराज, अिगन, वरण, चनदमा, पजा के सवामी बहा और बहा के भी िपता है ।
आपके िलए हजारो बार नमसकार ! नमसकार हो ! आपके िलए ििर भी बार-बार नमसकार ! नमसकार !!
नमः प ुरसताद थ प ृ ितसत े नमोऽ सतुं त े सव ु त एव स वु । अनन तवीय ाु िमतिव कमसतव ं
सव ु स मापन ोिष त तोऽिस सव ु ः।। 40।।
हे अननत सामथयु वाले ! आपके िलए आगे से और पीछे से भी नमसकार ! हे सवातुमन ्!
आपके िलए सब ओर से नमसकार हो कयोिक अननत पराकमशाली आप समसत संसार को वयाप िकये हुए है , इससे आप ही सवर ु प है ।(40)
सखे ित मतवा पस भं य द ु िं
हे कृषण ह े यादव
हे सख े ित।
अजा नता म िहमान ं तव ेद ं
मया पमादातपणय
ेन वािप।। 41।।
यच चावहासाथ ु म सतकृतोऽ िस िव हारशययामनभोजन
ेष ु।
एको ऽथवापयचय ुत ततसमक ं
ततकाम ये तवामहमपम ेयम।् ।42।। आपके इस पभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा है , ऐसा मानकर पेम से अथवा पमाद
से भी मैने 'हे कृ षण !', 'हे यादव !', 'हे सखे !', इस पकार जो कुछ िबना सोचे समझे हठात ् कहा है और हे अचयुत ! आप जो मेरे िारा िवनोद के िलए िवहार, शयया, आसन और भोजनािद मे अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमािनत िकये गये है – वह सब अपराध अपमेयसवरप अथात ु ् अिचनतय पभाववाले आपसे मै कमा करवाता हूँ।(41,42) (अनुकम) िपतािस
लोकसय चराचरसय
तव मसय पूजयि ग ुरग ु रीय ान।्
न तवत समोऽसतयभय िधकः क ु तोऽनयो लोकि येऽपयपित मपभाव।। 43।।
आप इस चराचर जगत के िपता और सबसे बडे गुर तथा अित पूजनीय है । हे अनुपम पभाव वाले ! तीनो लोको मे आपके समान भी दस ू रा कोई नहीं है , ििर अिधक तो कैसे हो सकता है ।(43)
तसमातपणमय पिण
धाय काय ं
पसादय े तवामह मीशमीडयम। ् िपत ेव प ुिसय सख ेव सखय ुः
िपयः िपयाय ाहु िस द ेव सोढ ु म।् । 44।।
अतएव हे पभो ! मै शरीर को भलीभाँित चरणो मे िनवेिदत कर, पणाम करके, सतुित करने
योगय आप ईशर को पसनन होने के िलए पाथन ु ा करता हूँ। हे दे व ! िपता जैसे पुि के, सखा जैसे सखा के और पित जैसे िपयतमा पती के अपराध सहन करते है – वैसे ही आप भी मेरे अपराध सहन करने योगय है ।(44)
अद षपूव ा हिष तोऽिसम
दषवा
भयेन च पवय िथत ं मनो म े। तदेव म े दश ु य द ेवरप ं
पसीद द ेव ेश ज गिनन वास।। 45।।
मै पहले न दे खे हुए आपके इस आिमय ु रप को दे खकर हिषत ु हो रहा हूँ और मेरा मन
भय से अित वयाकुल भी हो रहा है , इसिलए आप उस अपने चतुभुच िवषणुरप को ही मुझे िदखलाइये ! हे दे वेश ! हे जगिननवास ! पसनन होइये।(45)
िकरीिटन ं गिदन ं च कहसत -
िम चछािम तवा ं दष ुमह ं त थैव। तेन ैव रप ेण चत ुभ ु जेन
सहसबाहो भव
िवशम ूत े ।। 46।।
मै वैसे ही आपको मुकुट धारण िकये हुए तथा गदा और चक हाथ मे िलए हुए दे खना
चाहता हूँ, इसिलए हे िवशसवरप ! हे सहसबाहो ! आप उसी चतुभुजरप से पकट होइये।(46) (अनुकम)
शीभगवान ुवाच मया प सन नेन त वाज ु नेद ं
रपं पर ं द िश ु त मातमयोगात। ् तेजोमय ं िवश मननतमाद ं
यनम े तवदन येन न दषप ूव ु म।् । 47।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन ु ! अनुगहपूवक ु मैने अपनी योगशिि के पभाव से यह मेरा
परम तेजोमय, सबका आिद और सीमारिहत िवराट रप तुझको िदखलाया है , िजसे तेरे अितिरि दस ू रे िकसी ने नहीं दे खा था।(47)
न व ेदयजाधय यनैन ु दान ै नु च िकया िभन ु त पोिभर गैः। एवंरप ः शकय अह ं न ृ लोके
दषुं तवद नयेन कुरपवीर।। 48।।
हे अजुन ु ! मनुषयलोक मे इस पकार िवशरपवाला मै न वेद और यजो के अधययन से, न दान से, न िकयाओं से और न उग तपो से ही तेरे अितरि दस ू रे के िारा दे खा जा सकता हूँ।(48) मा त े वयथा मा च
िवम ूढभावो
दषटवा रप ं िोरमीदङमम ेद म।् वयप ेतभीः पीतमनाः प
ुनसतव ं
तदेव म े रप िमद ं पपशय।। 49।।
मेरे इस पकार के इस िवकराल रप को दे खकर तुझको वयाकुलता नहीं होनी चािहए और मूढभाव भी नहीं होना चािहए। तू भयरिहत और पीितयुि मनवाला होकर उसी मेरे शंख-चकगदा-पदयुि चतुभुज रप को ििर दे ख।(49)
संजय उ वाच
इतयज ु नं वास ुदेवस तथोकतवा सव कं रप ं द शु यामास भ ूयः। आशासयामास च
भीतम ेन ं
भूतवा प ुनः सौमयवप ुम ु हातमा।। 50।।
संजय बोलेः वासुदेव भगवान ने अजुन ु के पित इस पकार कहकर ििर वैसे ही अपने चतुभुज रप को िदखलाया और ििर महातमा शीकृ षण ने सौमयमूितु होकर इस भयभीत अजुन ु को धीरज बंधाया।(50)
अजुु न उ वाच
दषटव ेद ं मान ुष ं रप ं सौमय ं जनाद ु न। इदा नीम िसम स ंव ृ त ः सच ेता ः पकृ ितं गत ः।। 51।।
अजुन ु बोलेः हे जनादु न ! आपके इस अित शानत मनुषयरप को दे खकर अब मै िसथरिचत हो गया हूँ और अपनी सवाभािवक िसथित को पाप हो गया हूँ।(51) (अनुकम) शीभगवान ुवाच
सुद ु दु शु िमद ं रप ं दषवान िस यनमम।
देवा अपयसय रपसय
िनतय ं द शु नका ंिकण ः।। 52।।
शी भगवान बोलेः मेरा जो चतुभुज रप तुमने दे खा है , यह सुदद ु ् इसके दशन ु ु ुशु है अथात
बडे ही दल ु है । दे वता भी सदा इस रप के दशन ु की आकांका करते रहते है ।(52) ु भ नाह ं वेद ैन ु तपसा न दान ेन न च ेजयय ा।
शकय एव ंिव धो दष ुं दषवान िस मा ं यथा।। 53।। िजस पकार तुमने मुझे दे खा है – इस पकार चतुभुजरपवाला मै न तो वेदो से, न तप से,
न दान से, और न यज से ही दे खा जा सकता हूँ।(53) भिय ा तवननयया
श कय अ हमेव ंिव धोऽज ु न।
जात ुं दष ुं च तिव ेन प वेषुं च पर ंतप।। 54।।
परनतु हे परं तप अजुन ु ! अननय भिि के िारा इस पकार चतुभुजरपवाला मै पतयक
दे खने के िलए तिव से जानने के िलए तथा पवेश करने के िलए अथात ु ् एकीभाव से पाप होने के िलए भी शकय हूँ।(54)
मत कम ु कृनमतपरमो मद िः स ं गविज ु तः। िनव ैर ः सव ु भूत ेष ु यः स माम े ित पाणड व।। 55।।
हे अजुन ु ! जो पुरष केवल मेरे ही िलए समपूणु कतवुयकमो को करने वाला है , मेरे परायण है , मेरा भि है , आसििरिहत है और समपूणु भूतपािणयो मे वैरभाव से रिहत है , वह अननय भिियुि पुरष मुझको ही पाप होता है ।(55) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन ु संवादे िवशरपदशन ु योगो नाम एकादशोऽधयायः ।।11।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे िवशरपदशन ु योग नामक गयारहवाँ अधयाय संपूण ु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
बारहव े अ धयाय का माहा
तमय
शीम हाद ेवजी क हते ह ै – पावत ु ी ! दिकण िदशा मे कोलहापुर नामक एक नगर है , जो
सब पकार के सुखो का आधार, िसद-महातमाओं का िनवास सथान तथा िसिद पािप का केि है । वह पराशिि भगवती लकमी की पधान पीठ है । समपूणु दे वता उसका सेवन करते है । वह
पुराणपिसद तीथु भोग और मोक पदान करने वाला है । वहाँ करोडो तीथु और िशविलंग है । रदगया भी वहाँ है । वह िवशाल नगर लोगो मे बहुत िवखयात है । एक िदन कोई युवक पुरष
नगर मे आया। वह कहीं का राजकुमार था। उसके शरीर का रं ग गोरा, नेि सुनदर, गीवा शंख के समान, कंधे मोटे , छाती चौडी तथा भुजाएँ बडी-बडी थीं। नगर मे पवेश करके सब ओर महलो की शोभा िनहारता हुआ वह दे वेशरी महालकमी के दशन ु ाथु उतकिणठत हो मिणकणठ तीथु मे गया
और वहाँ सनान करके उसने िपतरो का तपण ु िकया। ििर महामाया महालकमी जी को पणाम करके भििपूवक ु सतवन करना आरमभ िकया। राजकुमार बो लाः
िजसके हदय मे असीम दया भरी हुई है , जो समसत कामनाओं को
दे ती तथा अपने कटाकमाि से सारे जगत की रचना, पालन और संहार करती है , उस जगनमाता महालकमी की जय हो। िजस शिि के सहारे उसी के आदे श के अनुसार परमेिी बहा सिृष रचते है , भगवान अचयुत जगत का पालन करते है तथा भगवान रद अिखल िवश का संहार करते है , उस सिृष, पालन और संहार की शिि से समपनन भगवती पराशिि का मै भजन करता हूँ।
कमले ! योगीजन तुमहारे चरणकमलो का िचनतन करते रहते है । कमलालये ! तुम अपनी
सवाभािवक सता से ही हमारे समसत इिनदयगोचर िवषयो को जानती हो। तुमहीं कलपनाओं के
समूह को तथा उसका संकलप करने वाले मन को उतपनन करती हो। इचछाशिि, जानशिि और िकयाशिि – ये सब तुमहारे ही रप है । तुम परासंिचत (परमजान) रिपणी हो। तुमहारा सवरप
िनषकाम, िनमल ु , िनतय, िनराकार, िनरं जन, अनतरिहत, आतंकशूनय, आलमबहीन तथा िनरामय है । दे िव ! तुमहारी मिहमा का वणन ु करने मे कौन समथु हो सकता है ? जो षटचको का भेदन करके अनतःकरण के बारह सथानो मे िवहार करती है , अनाहत, धविन, िबनद ु, नाद और कला ये िजसके
सवरप है , उस माता महालकमी को मै पणाम करता हूँ। माता ! तुम अपने मुखरपी पूणच ु नदमा से पकट होने वाली अमत ृ रािश को बहाया करती हो। तुमहीं परा, पशयनती, मधयमा और वैखरी नामक वाणी हो। मै तुमहे नमसकार करता हूँ। दे िव ! तुम जगत की रका के िलए अनेक रप धारण िकया करती हो। अिमबके ! तुमहीं बाही, वैषणवी, तथा माहे शरी शिि हो। वाराही, महालकमी,
नारिसंही, ऐनदी, कौमारी, चिणडका, जगत को पिवि करने वाली लकमी, जगनमाता सािविी, चनदकला
तथा रोिहणी भी तुमहीं हो। परमेशरी ! तुम भिो का मनोरथ पूणु करने के िलए कलपलता के समान हो। मुझ पर पसनन हो जाओ।
उसके इस पकार सतुित करने पर भगवती महालकमी अपना साकात ् सवरप धारण करके
बोलीं - 'राजकुमार ! मै तुमसे पसनन हूँ। तुम कोई उतम वर माँगो।'(अनुकम) राजप ुि बोलाः
माँ ! मेरे िपता राजा बह ृ दथ अशमेध नामक महान यज का अनुिान कर
रहे थेष वे दै वयोग से रोगगसत होकर सवगव ु ासी हो गये। इसी बीच मे यूप मे बँधे हुए मेरे
यजसमबनधी िोडे को, जो समूची पथृवी की पिरकमा करके लौटा था, िकसी ने रािि मे बँधन काट कर कहीं अनयि पहुँचा िदया। उसकी खोज मे मैने कुछ लोगो को भेजा था, िकनतु वे कहीं भी
उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये है , तब मै ऋितवजो से आजा लेकर तुमहारी शरण मे आया हूँ। दे वी ! यिद तुम मुझ पर पसनन हो तो मेरे यज का िोडा मुझे िमल जाये, िजससे यज पूणु हो सके। तभी मै अपने िपता जी का ऋण उतार सकूँगा। शरणागतो पर दया करने वाली जगजजननी लकमी ! िजससे मेरा यज पूणु हो, वह उपाय करो।
भगव ती ल कमी न े क हाः राजकुमार ! मेरे मिनदर के दरवाजे पर एक बाहण रहते है ,
जो लोगो मे िसदसमािध के नाम से िवखयात है । वे मेरी आजा से तुमहारा सब काम पूरा कर दे गे।
महालकमी के इस पकार कहने पर राजकुमार उस सथान पर आये, जहाँ िसदसमाधी रहते
थे। उनके चरणो मे पणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड कर खडे हो गये। तब बाहण ने कहाः 'तुमहे माता जी ने यहाँ भेजा है । अचछा, दे खो। अब मै तुमहारा सारा अभीष कायु िसद
करता हूँ।' यो कहकर मनिवेता बाहण ने सब दे वताओं को वही खींचा। राजकुमार ने दे खा, उस समय सब दे वता हाथ जोडे थर-थर काँपते हुए वहाँ उपिसथत हो गये। तब उन शि े बाहण ने
समसत दे वताओं से कहाः 'दे वगण ! इस राजकुमार का अश, जो यज के िलए िनिित हो चुका था, रात मे दे वराज इनद ने चुराकर अनयि पहुँचा िदया है । उसे शीघ ले आओ।'
तब दे वताओं ने मुिन के कहने से यज का िोडा लाकर दे िदया। इसके बाद उनहोने उनहे
जाने की आजा दी। दे वताओं का आकषण ु दे खकर तथा खोये हुए अश को पाकर राजकुमार ने
मुिन के चरणो मे पणाम करके कहाः 'महषे ! आपका यह सामथयु आियज ु नक है । आप ही ऐसा कायु कर सकते है , दस ु ा सुिनये, मेरे िपता राजा बह ृ दथ अशमेध ू रा कोई नहीं। बहन ् ! मेरी पाथन यज का अनुिान आरमभ करके दै वयोग से मतृयु को पाप हो गये है । अभी तक उनका शरीर तपाये हुए तेल मे सुखाकर मैने रख छोडा है । आप उनहे पुनः जीिवत कर दीिजए।'
यह सुनकर महामुिन बाहण ने िकंिचत मुसकराकर कहाः 'चलो, वहाँ यजमणडप मे तुमहारे
िपता मौजूद है , चले।' तब िसदसमािध ने राजकुमार के साथ वहाँ जाकर जल अिभमिनित िकया
और उसे शव के मसतक पर रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे ििर उनहोने बाहण को दे खकर पूछाः 'धमस ु वरप ! आप कौन है ?' तब राजकुमार ने महाराज से पहले का सारा हाल
कह सुनाया। राजा ने अपने को पुनः जीवनदान दे ने वाले बाहण को नमसकार करके पूछाः ''बाहण ! िकस पुणय से आपको यह अलौिकक शिि पाप हुई है ?" उनके यो कहने पर बाहण ने मधुर वाणी मे कहाः 'राजन ! मै पितिदन आलसयरिहत होकर गीता के बारहवे अधयाय का जप
करता हूँ। उसी से मुझे यह शिि िमली है , िजससे तुमहे जीवन पाप हुआ है ।' यह सुनकर बाहणो सिहत राजा ने उन महिषु से उन से गीता के बारहवे अधयाय का अधययन िकया। उसके माहातमय से उन सबकी सदगती पाप हो चुके है ।(अनुकम)
हो गयी। दस ू रे -दस ू रे जीव भी उसके पाठ से परम मोक को
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
बारहव ाँ अधयायः भिियोग दस ू रे अधयाय से लेकर यहाँ तक भगवान ने पतयेक सथान पर सगुण साकार परमेशर की
उपासना की पशंसा की। सातवे अधयाय से गयारहवे अधयाय तक खास सगुण साकार परमातमा की उपासना का महिव बताया है । उसके साथ पाँचवे अधयाय मे 17 से 26 शोक तक, छठवे
अधयाय मे 24 से 29 शोक तक, आठवे अधयाय मे 11 से 13 शोक तक इसके अलावा और कई जगहो पर िनगुण ु िनराकार की उपासन का महिव बताया है । अंत मे गयारहवे अधयाय के आिखरी शोक मे सगुण-साकार भगवान की अननय भिि का िल भगवतपािप बताकर
'मत कम ु कृत ् ' से शुर हुए उस आिखरी शोक मे सगुण-साकार सवरप भगवान के भि की महता जोर दे कर समझाई है । इस िवषय पर अजुन ु के मन मे ऐसी पैदा हुई िक िनगुण ु -िनराकार बह
की तथा सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनो उपासको मे उतम कौन? यह जानने के िलए अजुन ु पूछता है ः
।। अथ िादशो ऽधयायः ।। अजुु न उ वाच एवं स ततय ुिा ये भिासतव ां पय ु पासत े।
ये चापयकरमवयि ं त ेषा ं के योग िवतमाः।।
1।।
अजुन ु बोलेः जो अननय पेमी भिजन पूवोि पकार िनरनतर आपके भजन धयान मे लगे
रहकर आप सगुणर परमेशर को और दस ू रे जो केवल अिवनाशी सिचचदाननदिन िनराकार बह
को ही अित शि े भाव से भजते है – उन दोनो पकार के उपासको मे अित उतम योगवेता कौन है ?
मययाव े शय मनो
शीभगवान ुवाच
ये मा ं िनतयय ुि ा उपासत े।
शदया परयोप ेतासत े मे य ुितमा म ताः।। 2।।
शी भगवान बोलेः मुझमे मन को एकाग करके िनरनतर मेरे भजन-धयान मे लगे हुए जो
भिजन अितशय शि े शदा से युि होकर मुझ सगुणरप परमेशर को भजते है , वे मुझको योिगयो मे अित उतम योगी मानय है ।(2) (अनुकम)
ये तवकरमिनद ेशयमवयि ं पय ु पासत े।
सवु िग मिच नतय ं च क ूटस थम चलं ध ुवम।् । 3।। संिनयमय ेिनद गाम ं स वु ि स मबुदयः
ते पापन ुविनत माम ेव सव ु भूतिह ते रताः।। 4।। कले शोऽ िधकतरसत ेषामवयिासिच ेत साम।्
अवयिा िह ग ित दु ु ःखं द ेह िविद रवाप यते।। 5।।
परनतु जो पुरष इिनदयो के समुदाय को भली पकार वश मे करके मन बुिद से परे
सववुयापी, अकथीनयसवरप और सदा एकरस रहने वाले, िनतय, अचल, िनराकार, अिवनाशी,
सिचचदाननदिन बह को िनरनतर एकीभाव से धयान करते हुए भजते है , वे समपूणु भूतो के िहत
मे रत और सब मे समान भाववाले योगी मुझको ही पाप होते है । उन सिचचदाननदिन िनराकार बह मे आसि िचतवाले पुरषो के साधन मे पिरशम िवशेष है , कयोिक दे हािभमािनयो के िारा अवयि-िवषयक गित दःुखपूवक ु पाप की जाित है ।(3,4,5)
ये त ु स वाु िण कमा ु िण मिय स ं नयसय म तपराः। अननय ेन ैव योग ेन म ां ध यायनत उ पासत े।। 6।। तेषामह ं स मुदता ु म ृ तयुस ंसारसागरात। ्
भवा िम निचरातपाथ ु म ययाव ेिशत चेतसाम।् ।7।। परनतु
जो मेरे परायण रहने वाले भिजन समपूणु कमो को मुझे अपण ु करके मुझ
सगुणरप परमेशर को ही अननय भिियोग से िनरनतर िचनतन करते हुए भजते है । हे अजुन ु ! उन मुझमे िचत लगाने वाले पेमी भिो का मै शीघ ही मतृयुरप संसार-समुद से उदार करने वाला होता हूँ।(6,7)
मयये व मन आधतसव म
िय ब ुिद ं िनव े शय।
िनव िसषय िस मय येव अत ऊ धव ा न स ंशय ः।। 8।। मुझमे मन को लगा और मुझमे ही बुिद को लगा। इसके उपरानत तू मुझमे िनवास
करे गा, इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।
अथ िच तं समा धात ुं श कनोिष मिय
िसथर म।्
अभयासयोग ेन त तो मािम चछाप ुं ध नंजय।। 9।। यिद तू मन को मुझमे अचल सथापन करने के िलए समथु नहीं है तो हे अजुन ु !
अभयासरप योग के िारा मुझको पाप होने के िलए इचछा कर।(9)
अभयास े ऽपयसमथोऽ िस म तकम ु परमो भव।
मद थु मिप कमा ु िण कुव ु िनस िदमवापसयिस।।
10।।
यिद तू उपयुि ु अभयास मे भी असमथु है तो केवल मेरे िलए कमु करने के ही परायण
हो जा। इस पकार मेरे िनिमत कमो को करता हुआ भी मेरी पािपरप िसिद को ही पाप होगा। (10) अथै तदपयशिोऽिस कत ुा मदोग मािशत ः। सवु कम ु ि लतय ागं त तः कुर यतातमवान। ् । 11।।
यिद मेरी पािप रप योग के आिशत होकर उपयुि ु साधन को करने मे भी तू असमथु है
तो मन बुिद आिद पर िवजय पाप करने वाला होकर सब कमो के िल का तयाग कर।(11) शे यो िह जानमभयासाज
जानादधय ानं िव िशषयत े।
धयान ातकम ु ि लतयागसतय ागाचछा िनतरननतरम। ् ।12।।
ममु को न जानकर िकये हुए अभयास से जान शि े है । जान से मुझ परमेशर के सवरप
का धयान शि े है और धयान से भी सब कमो के िल का तयाग शि े है कयोिक तयाग से ततकाल ही परम शािनत होती है ।(12) (अनुकम)
अिेषा सव ु भूताना ं म ैि ः करण एव च ।
िनम ु मो िनरह ंकारः स मद ु ःखस ुखः क मी।। 13।। संत ुष ः सतत ं योगी यतातमा दढिनियः।
मययिप ु त मनोब ुिदय ो मद भ िः स म े िपयः।। 14।।
जो पुरष सब भूतो मे िे षभाव से रिहत, सवाथरुिहत, सबका पेमी और हे तुरिहत दयालु है तथा ममता से रिहत, अहं कार से रिहत, सुख-दःुखो की पािप मे सम और कमावान है अथात ु ्
अपराध करने वाले को भी अभय दे ने वाला है , तथा जो योगी िनरनतर सनतुष है , मन इिनदयो सिहत शरीर को वश मे िकये हुए है और मुझमे दढ िनिय वाला – वह मुझमे अपण ु िकये हुए मन बुिदवाला मेरा भि मुझको िपय है ।(13,14)
यसमाननोिि जते लोको लोकाननोििजत हषा ु मष ु भय ोिेग ै मु िो यः स च
े च यः।
मे िपयः।। 15।।
िजससे कोई भी जीव उिे ग को पाप नहीं होता और जो सवयं भी िकसी जीव से उिे ग को
पाप नहीं होता तथा जो हषु, अमषु, भय और उिे गािद से रिहत है – वह भि मुझको िपय है । (15) अनप ेक ः श ु िचद ु क उ दासीन ो गतवयथ ः। सवाु रमभपिरतयागी
यो मद भि ः स म े िपयः।। 16।।
जो पुरष आकांका से रिहत, बाहर-भीतर से शुद, चतुर, पकपात से रिहत और दःुखो से छूटा
हुआ है – वह सब आरमभो का तयागी मेरा भि मुझको िपय है ।(16) यो न ह षयित न
िेिष न शो चित न का ंकित।
शु भाश ुभपिरतयागी भ
ििमानयः स
मे िपय ः।। 17।।
जो न कभी हिषत ु होता है , न िे ष करता है , न शोक करता है , न कामना करता है तथा जो
शुभ और अशुभ समपूणु कमो का तयागी है – वह भिियुि पुरष मुझको िपय है ।(17) सम ः शि ौ च िम िे च त था मानापमा नयोः।
शीतोषणस ुखद ु ःखेष ु स मः स ङग िवविज ु तः।। 18।। तुलयिन नदासत ुित मौन ी स ंत ु षो येन केनिचत।्
अिनकेत ः िसथ रमित भु िि मानम े िपयो नरः।। 19।। जो शिु-िमि मे और मान-अपमान मे सम है तथा सदी, गमी और सुख-दःुखािद िनिो मे
सम है और आसिि से रिहत है । जो िननदा-सतुित को समान समझने वाला, मननशील और िजस िकसी पकार से भी शरीर का िनवाह ु होने मे सदा ही सनतुष है और रहने के सथान मे ममता और आसिि से रिहत है – वह िसथरबुिद भििमान पुरष मुझको िपय है ।(18,19) (अनुकम) ये त ु ध मया ु म ृ तिम दं यथो ििं पय ु पासत े।
शद धान ा मतपरमा भिासत
े ऽतीव म े िपयाः।। 20।।
परनतु जो शदायुि पुरष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धमम ु य अमत ृ को
िनषकाम पेमभाव से सेवन करते है , वे भि मुझको अितशय िपय है ।(20)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे भिियोगो नाम िादशोऽधयायः ।।12।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे भिियोग नामक बारहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
ते रह वे अधयाय का माह
ातमय
शीम हाद ेवजी क हते ह ै – पावत ु ी ! अब तेरहवे अधयाय की अगाध मिहमा का वणन ु सुनो। उसको सुनने से तुम बहुत पसनन हो जाओगी। दिकण िदशा मे तुग ं भदा नाम की एक
बहुत बडी नदी है । उसके िकनारे हिरहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है । वहाँ हिरहर नाम
से साकात ् भगवान िशव जी िवराजमान है , िजनसे दशन ु माि से परम कलयाण की पािप होती है ।
हिरहरपुर मे हिरदीिकत नामक एक शोििय बाहण रहते थे, जो तपसया और सवाधयाय मे संलगन तथा वेदो के पारगामी िविान थे। उनकी एक सी थी, िजसे लोग दरुाचार कहकर पुकारते थे। इस नाम के अनुसार ही उसके कमु भी थे। वह सदा पित को कुवाचय कहती थी। उसने कभी भी
उनके साथ शयन नहीं िकया। पित से समबनध रखने वाले िजतने लोग िर पर आते, उन सबको डाँट बताती और सवयं कामोनमत होकर िनरनतर वयिभचािरयो के साथ रमण िकया करती थी।
एक िदन नगर को इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवािसयो से भरा दे ख उसने िनजन ु तथा दग ु वन ु म मे अपने िलए संकेत सथान बना िलया। एक समय रात मे िकसी कामी को न पाकर वह िर के
िकवाड खोल नगर से बाहर संकेत-सथान पर चली गयी। उस समय उसका िचत काम से मोिहत हो रहा था। वह एक-एक कुंज मे तथा पतयेक वक ृ के नीचे जा -जाकर िकसी िपयतम की खोज
करने लगी, िकनतु उन सभी सथानो पर उसका पिरशम वयथु गया। उसे िपयतम का दशन ु नहीं हुआ। तब उस वन मे नाना पकार की बाते कहकर िवलाप करने लगी। चारो िदशाओं मे िूम-
िूमकर िवयोगजिनत िवलाप करती हुई उस सी की आवाज सुनकर कोई सोया हुआ बाि जाग
उठा और उछलकर उस सथान पर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी। उधर वह भी उसे आते दे ख िकसी
पेमी आशंका से उसके सामने खडी होने के िलए ओट से बाहर िनकल आयी। उस समय वयाघ ने आकर उसे नखरपी बाणो के पहार से पथ ृ वी पर िगरा िदया। इस अवसथा मे भी वह कठोर वाणी मे िचललाती हुई पूछ बैठीः 'अरे बाि ! तू िकसिलए मुझे मारने को यहाँ आया है ? पहले इन सारी बातो को बता दे , ििर मुझे मारना।'(अनुकम)
उसकी यह बात सुनकर पचणड पराकमी वयाघ कणभर के िलए उसे अपना गास बनाने से
रक गया और हँ सता हुआ-सा बोलाः 'दिकण दे श मे मलापहा नामक एक नदी है । उसके तट पर
मुिनपणाु नगरी बसी हुई है । वहाँ पँचिलंग नाम से पिसद साकात ् भगवान शंकर िनवास करते है । उसी नगरी मे मै बाहण कुमार होकर रहता था। नदी के िकनारे अकेला बैठा रहता और जो यज
के अिधकारी नहीं है , उन लोगो से भी यज कराकर उनका अनन खाया करता था। इतना ही नहीं, धन के लोभ से मै सदा अपने वेदपाठ के िल को बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँ तक बढ गया था िक अनय िभकुओं को गािलयाँ दे कर हटा दे ता और सवयं दस ू रो को नहीं दे ने योगय धन भी
िबना िदये ही हमेशा ले िलया करता था। ऋण लेने के बहाने मै सब लोगो को छला करता था।
तदननतर कुछ काल वयतीत होने पर मै बूढा हो गया। मेरे बाल सिेद हो गये, आँखो से सूझता न था और मुँह के सारे दाँत िगर गये। इतने पर भी मेरी दान लेने की आदत नहीं छूटी। पवु आने पर पितगह के लोभ से मै हाथ मे कुश िलए तीथु के समीप चला जाया करता था।
ततपिात ् जब मेरे सारे अंग िशिथल हो गये, तब एक बार मै कुछ धूतु बाहणो के िर पर
माँगने-खाने के िलए गया। उसी समय मेरे पैर मे कुते ने काट िदया। तब मै मूिचछु त होकर कणभर मे पथ ृ वी पर िगर पडा। मेरे पाण िनकल गये। उसके बाद मै इसी वयाघयोिन मे उतपनन हुआ। तब से इस दग ु वन मे रहता हूँ तथा अपने पूवु पापो को याद करके कभी धिमि ु ु म
महातमा, यित, साधु पुरष तथा सती िसयो को नहीं खाता। पापी-दरुाचारी तथा कुलटा िसयो को ही मै अपना भकय बनाता हूँ। अतः कुलटा होने के कारण तू अवशय ही मेरा गास बनेगी।'
यह कहकर वह अपने कठोर नखो से उसके शरीर के टु कडे -टु कडे कर के खा गया। इसके
बाद यमराज के दत ू उस पािपनी को संयमनीपुरी मे ले गये। यहाँ यमराज की आजा से उनहोने अनेको बार उसे िविा, मूि और रि से भरे हुए भयानक कुणडो मे िगराया। करोडो कलपो तक उसमे रखने के बाद उसे वहाँ से ले जाकर सौ मनवनतरो तक रौरव नरक मे रखा। ििर चारो
ओर मुँह करके दीन भाव से रोती हुई उस पािपनी को वहाँ से खींचकर दहनानन नामक नरक मे
िगराया। उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक िदखाई दे ता था। इस पकार िोर नरकयातना भोग चुकने पर वह महापािपनी इस लोक मे आकर चाणडाल योिन मे उतपनन हुई।
चाणडाल के िर मे भी पितिदन बढती हुई वह पूवज ु नम के अभयास से पूवव ु त ् पापो मे पवत ृ रही ििर उसे कोढ और राजयकमा का रोग हो गया। नेिो मे पीडा होने लगी ििर कुछ काल के पिात ् वह पुनः अपने िनवाससथान (हिरहरपुर) को गयी, जहाँ भगवान िशव के अनतःपुर की
सवािमनी जमभकादे वी िवराजमान है । वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पिवि बाहण का दशन ु
िकया, जो िनरनतर गीता के तेरहवे अधयाय का पाठ करता रहता था। उसके मुख से गीता का पाठ सुनते ही वह चाणडाल शरीर से मुि हो गयी और िदवय दे ह धारण करके सवगल ु ोक मे चली गयी।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
तेरहवा ँ अ धयायः केिकिजिव भा गयोग बारहवे अधयाय के पारमभ मे अजुन ु ने सगुण और िनगुण ु के उपासको की शि े ता के
िवषय मे पश िकया था। उसका उतर दे ते हुए भगवान शीकृ षण ने दस ू रे शोक मे संिकप मे सगुण उपासको की शि े ता बतायी और 3 से 5 शोक तक िनगुण ु उपासना का सवरप उसका िल तथा
उसकी िकलषता बतायी है । उसके बाद 6 से 20 शोक तक सगुण उपासना का महिव, िल, पकार र भगवद भिो के लकणो का वणन ु करके अधयाय समाप िकया, परनतु िनगुण ु का तिव, मिहमा
और उसकी पािप के साधन िवसतारपूवक ु नहीं समझाये थे, इसिलए िनगुण ु (िनराकार) का तिव अथात ु ् जानयोग का िवषय ठीक से समझने के िलए इस तेरहवे अधयाय का आरमभ करते है ।
।। अथ ियोदशो
ऽधयायः ।।
शीभगवान ुवाच
इदं श रीर ं कौ नतेय केि िमतय िभधीयत े। एतदो वे ित त ं पाह ु ः क ेिज इ ित त ििद ः।। 1।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन ु ! यह शरीर 'केि' इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है , उसको 'केिज' इस नाम से उनके तिव को जानने वाले जानीजन कहते है ।(1) केिज ं चा िप मा ं िविद स वु केि ेष ु भारत।
केिक ेिजोजा ु नं यतजजा नं मत ं म म।। 2।।
हे अजुन ु ! तू सब केिो मे केिज अथात ु ् जीवातमा भी मुझे ही जान और केि-केिज को
अथात ु ् िवकारसिहत पकित का और पुरष का जो तिव से जानना है , वह जान है – ऐसा मेरा मत है ।(2)
ततक ेि ं यच च यादकच यििकािर यति यत।
्
स च यो यतपभाव ि ततसमास ेन म े श ृणु।। 3।।
वह केि जो और जैसा है तथा िजन िवकारो वाला है और िजस कारण से जो हुआ है
तथा केिज भी जो और िजस पभाववाला है – वह सब संकेप मे मुझसे सुन।(3) ऋिषिभ बु हुधा गी तं छनदो िभिव ु िवध ै ः प ृ थक् । बहस ू िपद ैि ै व ह ेत ुमिद िव ु िनिि तैः।। 4।।
यह केि और केिज का तिव ऋिषयो िारा बहुत पकार से कहा गया है और िविवध
वेदमंिो िारा भी िवभागपूवक ु कहा गया है तथा भली भाँित िनिय िकए हुए युिियुि बहसूि के पदो िारा भी कहा गया है ।(4) (अनुकम)
महाभ ू तानयह ंका रो ब ुिदरवयिम ेव च ।
इिनदयािण द शैकं च पंच च ेिनदय गोचराः।। 5।। इचछा ि ेषः स ुख ं द ु ःखं स ंिाति ेतना ध ृ ितः। एततक ेि ं स मास ेन स िवकारम ुदाहत म।् । 6।।
पाँच महाभूत, अहं कार, बुिद और मूल पकृ ित भी तथा दस इिनदयाँ, एक मन और पाँच
इिनदयो के िवषय अथात ु ् शबद, सपशु, रप, रस और गनध तथा इचछा, िे ष, सुख-दःुख, सथूल दे ह का िपणड, चेतना और धिृत – इस पकार िवकारो के सिहत यह केि संकेप से कहा गया।(5,6) अमािनतवदिमभ तवमिह ं सा क ािनतराज ु व म।्
आचायोप ासन ं शौच ं सथ ैय ु मातम िविनग हः।। 7।। इिनदयाथ ेष ु व ैरा गयमनह ंकार एव च ।
जन मम ृ तयुजराव यािधद ु ःखदोषान ुदश ु नम।् ।8।। असििरनिभषव ं गः प ु िदारग ृ हािदष ु।
िनतय ं च सम िचततव िमषािनषोपपितष
ु।। 9।।
मिय चान नय योग ेन भ ििरवयिभ चािरणी।
िव िविद े शसेिवतव मरितज ु नसं सिद।। 10।।
अधयातमजानिनत
यतव ं तिवजानाथ ु दशु नम।्
एतजजानिम ित पोिमजान ं यदतोऽ नयथा।। 11।।
शि े ता के जान का अिभमान का अभाव, दमभाचरण का अभाव, िकसी पाणी को िकसी पकार भी न सताना, कमाभाव, मन-वाणी आिद की सरलता, शदा-भििसिहत गुर की सेवा, बाहर-
भीतर की शुिद, अनतःकरण की िसथरता और मन-इिनदयोसिहत शरीर का िनगह। इस लोक और परलोक समपूणु भोगो मे आसिि का अभाव और अहं कार का भी अभाव, जनम, मतृयु, जरा और
रोग आिद मे दःुख और दोषो का बार-बार िवचार करना। पुि, सी, िर और धन आिद मे आसिि का अभाव, ममता का न होना तथा िपय और अिपय की पािप मे सदा ही िचत का सम रहना।
मुझ परमेशर मे अननय योग के िारा अवयिभचािरणी भिि तथात एकानत और शुद दे श मे रहने का सवभाव और िवषयासि मनुषयो के समुदाय मे पेम का न होना। अधयातमजान मे िनतय
िसथित और तिवजान के अथर ु प परमातमा को ही दे खना – यह सब जान है और जो इससे िवपरीत है , वह अजान है – ऐसा कहा है ।(7,8,9,10,11)
जेय ं यत तपवकयािम यजजातवाम
ृ तमश ुत े।
अनािदमतपर ं ब ह न सत ननास द ु चयत े।। 12।।
जो जानने योगय है तथा िजसको जानकर मनुषय परमाननद को पाप होता है , उसको भलीभाँित कहूँगा। वह अनािद वाला परबह न सत ् ही कहा जाता है , न असत ् ही।(12) सवु तः पा िणपाद ं ततसव ु तो ऽिक िशरोम ुखम।्
सवु तः श ु ित मललोके सव ु माव ृ तय ितिित ।। 13।।
वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब और नेि, िसर ओर मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है कयोिक वह संसार मे सबको वयाप करके िसथत है ।(13) (अनुकम)
सवे िनदय गुणाभास ं सव े िनदयिवव िज ु त म।्
असिं स वु भ ृ च चैव िनग ु णं ग ुणभोि ृ च।। 14।।
वह समपूणु इिनदयो के िवषयो को जानने वाला है , परनतु वासतव मे सब इिनदयो से रिहत है तथा आसिि रिहत होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और िनगुण ु होने पर भी गुणो को भोगने वाला है ।(14)
बिहरनत ि भ ूतानामचर ं चर मेव च।
सूकमतवातदिवज ेय ं द ू रस थं चा िनतके च तत।् । 15।।
वह चराचर सब भूतो के बाहर भीतर पिरपूणु है और चर-अचर भी वही है और वह सूकम
होने से अिवजेय है तथा अित समीप मे और दरू मे भी वही िसथत है ।(15)
अिव भिं च भ ूत ेष ु िव भििम व च िसथत म।्
भूत भत ुृ च तजज ेय ं ग िसषण ु पभ िवषण ु च ।। 16।। वह परमातमा िवभागरिहत एक रप से आकाश के सदश पिरपूणु होने पर भी चराचर
समपूणु भूतो मे िवभि-सा िसथत पतीत होता है तथा वह जानने योगय परमातमा के िवषणुरप से भूतो को धारण-पोषण करने वाला और रदरप से संहार करने वाला तथा बहारप से सबको उतपनन करने वाला है ।(16)
जयोितषाम िप तजजयोितसत
मसः पर मुचयत े।
जान ं जेय ं जानगमय ं हिद सव ु सय िव िितम।् ।17।। वह परबह जयोितयो का भी जयोित और माया से अतयनत परे कहा जाता है । वह
परमातमा बोधसवरप, जानने के योगय तथा तिवजान से पाप करने योगय है और सबके हदय मे िवशेषरप से िसथत है ।(17)
इित केि ं तथा जान ं ज े यं चोि ं स मासत ः। मद ि एतििजाय मद
ावा योपपदत े।। 18।।
इस पकार केि तथा जान और जानने योगय परमातमा का सवरप संकेप से कहा गया। मेरा भि इसको तिव से जानकर मेरे सवरप को पाप होता है ।(18)
पकृ ितं प ुरष ं च ै व िवदयन ादी उभाव िप।
िवकारा ं ि ग ुण ांि ैव िव िद पक ृ ितसमभ वा न।् । 19।।
पकृ ित और पुरष – इन दोनो को ही तू अनािद जान और राग-िे षािद िवकारो को तथा ििगुणातमक समपूणु पदाथो को भी पकृ ित से ही उतपनन जान।(19)
काय ु करणकत ुृ तवे हेत ु ः पकृितर चयत े।
पुरषः स ुखद ु ःखाना ं भोि ृतव े ह ेत ुरचयत े।। 20।।
कायु और करण को उतपनन करने मे हे तु पकृ ित कही जाती है और जीवातमा सुख-दःुखो
के भोिापन मे अथात ु ् भोगने मे हे तु कहा जाता है ।(20) (अनुकम)
पुरष ः पकृ ितस थो िह भ ुंिे प कृितजा नगुणान।्
कारण ं ग ुणस ं गोऽसय सदसदोिनज
नमस ु।। 21।।
पकृ ित मे िसथत ही पुरष पकृ ित से उतपनन ििगुणातमक पदाथो को भोगता है और इन गुणो का संग ही इस जीवातमा का अचछी बुरी योिनयो मे जनम लेने का कारण है ।(21) उपदषान ुमनता च भ ताु भोिा मह े शरः।
परमातम ेित च ापय ुि ो द ेहेऽ िसमन पुरषः पर ः।। 22।।
इस दे ह मे िसथत वह आतमा वासतव मे परमातमा ही है । वही साकी होने से उपदषा और यथाथु सममित दे ने वाला होने से अनुमनता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भताु,
जीवरप से भोिा, बहा आिद का भी सवामी होने से महे शर और शुद सिचचदाननदिन होने से परमातमा-ऐसा कहा गया है ।(22)
य एव ं व ेित प ुरष ं प कृित ं च गुण ै ः सह।
सवु था वत ु मानोऽ िप न स भूयोऽिभ जायत े।। 23।।
इस पकार पुरष को और गुणो के सिहत पकृ ित को जो मनुषय तिव से जानता है , वह सब पकार से कतवुयकमु करता हुआ भी ििर नहीं जनमता।(23)
धयान ेनातमिन पशय िनत क ेिच दातमानमातमना। अनये स ांखय ेन योग ेन क मु योग े न चापर े।। 24।।
उस परमातमा को िकतने ही मनुषय तो शुद हुई सूकम बुिद से धयान के िारा हदय मे
दे खते है । अनय िकतने ही जानयोग के िारा और दस ु ोग के िारा दे खते है ू रे िकतने ही कमय अथात ु ् पाप करते है ।(24)
अनये तव ेवम जाननतः श ु तवानय ेभय उपासत े।
तेऽ िप चा िततरनतय े व म ृ तयुं श ु ित परा यणाः।। 25।।
परनतु इनसे दस ु ् जो मनद बुिद वाले पुरष है , वे इस पकार न जानते हुए दस ू रे अथात ू रो
से अथात ु ् तिव के जानने वाले पुरषो से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते है और वे शवणपरायण पुरष भी मतृयुरप संसार सागर को िनःसंदेह तर जाते है ।(25) यावतस ंजायत े िकंिच तसिव ं स थावरज ंगमम।् केिक ेिजस ंयोगातिििद भर
तष ु भ।। 26।।
हे अजुन ु ! यावनमाि िजतने भी सथावर-जंगम पाणी उतपनन होते है , उन सबको तू केि
और केिज के संयोग से ही उतपनन जान।(26)
समं सव े षु भ ूत ेष ु ित िनत ं परम ेशरम।्
िवनशयतसविवनशयनत
ं पशयित स पशयित।।
27।।
जो पुरष नष होते हुए सब चराचर भूतो मे परमेशर को नाशरिहत और समभाव से िसथत
दे खता है , वही यथाथु दे खता है ।(27) (अनुकम) समं पशयिनह
सव ु ि स मव िसथत मीशरम।्
न िहनसतयातमन ातमान ं ततो याित परा
ं ग ितम।् ।28।।
कयोिक जो पुरष सबमे समभाव से िसथत परमेशर को समान दे खता हुआ अपने िारा
अपने को नष नहीं करता, इससे वह परम गित को पाप होता है ।(28)
पकृतय ैव च कमा ु िण िकयमाणािन सव ु शः।
यः पशयित त थातमानमकता ु रं स पशयित।। 29।। और जो पुरष समपूणु कमो को सब पकार से पकृ ित के िारा ही िकये जाते हुए दे खता है
और आतमा को अकताु दे खता है , वही यथाथु दे खता है ।(29)
यदा भ ूतप ृ थगभावम ेकस थमन ुपशयित।
तत एव च िजस कण यह पुरष भूतो
िवसतार ं बह स मपदत े त दा।। 30।।
पथ ृ क-पथ ृ क भाव को एक परमातमा मे ही िसथत तथा उस
परमातमा से ही समपूणु भूतो का िवसतार दे खता है , उसी कण वह सिचचदाननदिन बह को पाप हो जाता है ।(30)
अनािदतवािनन गुु णतवातप रमातमयमवययः। शरीरसथोऽ िप कौनत ेय न करोित न िलपयत
े।। 31।।
हे अजुन ु ! अनािद होने से और िनगुण ु होने से यह अिवनाशी परमातमा शरीर मे िसथत होने पर भी वासतव मे न तो कुछ करता है और न िलप ही होता है ।(31) यथा स वु गतं सौकमयादाकाश
ं नोपिलपयत े।
सव ु िाव िसथतो द ेहे त थातमा न ोप िलपयत े।। 32।।
िजस पकार सवि ु वयाप आकाश सूकम होने के कारण िलप नहीं होता, वैसे ही दे ह मे सवि ु िसथत आतमा िनगुण ु होने के कारण दे ह के गुणो से िलप नहीं होता।(32)
यथा पकाशयतय ेक ः कृतसन ं लोक िमम ं र िवः। केि ं क े िी त था कृतसन ं पकाशयित भ ारत।। 33।।
हे अजुन ु ! िजस पकार एक ही सूयु इस समपूणु बहाणड को पकािशत करता है , उसी पकार एक ही आतमा समपूणु केि को पकािशत करता है ।(33)
केिक े िजय ोरेवमन तरं जा नचक ुषा।
भूतप कृित मोक ं च ये िवद ु याु िनत त े परम।् । 34।।
इस पकार केि और केिज के भेद को तथा कायस ु िहत पकृ ित से मुि होने का जो पुरष जान-नेिो िारा तिव से जानते है , वे महातमाजन परबह परमातमा को पाप होते है ।(34) (अनुकम) ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन ु संवादे केिकेिजिवभागयोगो नाम ियोदशोऽधयायः ।।13।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे केिकेिजिवभागयोग नामक तेरहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
चौदहव े अ धयाय का माहा
तमय
शीम हाद ेवजी क हते ह ै – पावत ु ी ! अब मै भव-बनधन से छुटकारा पाने के साधनभूत
चौदहवे अधयाय का माहातमय बतलाता हूँ, तुम धयान दे कर सुनो। िसंहल िीप मे िवकम बैताल
नामक एक राजा थे, जो िसंह के समान पराकमी और कलाओं के भणडार थे। एक िदन वे िशकार खेलने के िलए उतसुक होकर राजकुमारो सिहत दो कुितयो को साथ िलए वन मे गये। वहाँ
पहुँचने पर उनहोने तीव गित से भागते हुए खरगोश के पीछे अपनी कुितया छोड दी। उस समय
सब पािणयो के दे खते-दे खते खरगोश इस पकार भागने लगा मानो कहीं उड गया है । दौडते-दौडते बहुत थक जाने के कारण वह एक बडी खंदक (गहरे गडडे ) मे िगर पडा। िगरने पर भी कुितया के हाथ नहीं आया और उस सथान पर जा पहुँचा, जहाँ का वातावरण बहुत ही शानत था। वहाँ हिरण िनभय ु होकर सब ओर वक ृ ो की छाया मे बैठे रहते थे। बंदर भी अपने आप टू ट कर िगरे हुए
नािरयल के िलो और पके हुए आमो से पूणु तप ृ रहते थे। वहाँ िसंह हाथी के बचचो के साथ खेलते और साँप िनडर होकर मोर की पाँखो मे िुस जाते थे। उस सथान पर एक आशम के
भीतर वतस नामक मुिन रहते थे, जो िजतेिनदय और शानत-भाव से िनरनतर गीता के चौदहवे अधयाय का पाठ िकया करते थे। आशम के पास ही वतसमुिन के िकसी िशषय ने अपना पैर
धोया था, (ये भी चौदहवे अधयाय का पाठ करने वाले थे।) उसके जल से वहाँ की िमटटी गीली हो गयी थी। खरगोश का जीवन कुछ शेष था। वह हाँिता हुआ आकर उसी कीचड मे िगर पडा।
उसके सपशम ु ाि से ही खरगोश िदवय िवमान पर बैठकर सवगल ु ोक को चला गया ििर कुितया भी उसका पीछा करती हुई आयी। वहाँ उसके शरीर मे भी कीचड के कुछ छींटे लग गये ििर भूखपयास की पीडा से रिहत हो कुितया का रप तयागकर उसने िदवयांगना का रमणीय रप धारण
कर िलया तथा गनधवो से सुशोिभत िदवय िवमान पर आरढ हो वह भी सवगल ु ोक को चली गयी। यह दे खकर मुिन के मेधावी िशषय सवकनधर हँ सने लगे। उन दोनो के पूवज ु नम के वैर का कारण सोचकर उनहे बडा िवसमय हुआ था। उस समय राजा के नेि भी आियु से चिकत हो उठे । उनहोने बडी भिि के साथ पणाम करके पूछाः
'िवपवर ! नीच योिन मे पडे हुए दोनो पाणी – कुितया और खरगोश जानहीन होते हुए भी
जो सवगु मे चले गये – इसका कया कारण है ? इसकी कथा सुनाइये।'(अनुकम) िश षय ने कहाः
भूपाल ! इस वन मे वतस नामक बाहण रहते है । वे बडे िजतेिनदय
महातमा है । गीता के चौदहवे अधयाय का सदा जप िकया करते है । मै उनहीं का िशषय हूँ, मैने भी बहिवदा मे िवशेषजता पाप की है । गुरजी की ही भाँित मै भी चौदहवे अधयाय का पितिदन जप करता हूँ। मेरे पैर धोने के जल मे लोटने के कारण यह खरगोश कुितया के साथ सवगल ु ोक को पाप हुआ है । अब मै अपने हँ सने का कारण बताता हूँ।
महाराष मे पतयुदक नामक महान नगर है । वहाँ केशव नामक एक बाहण रहता था, जो
कपटी मनुषयो मे अगगणय था। उसकी सी का नाम िवलोभना था। वह सवछनद िवहार करने
वाली थी। इससे कोध मे आकर जनमभर के वैर को याद करके बाहण ने अपनी सी का वध कर डाला और उसी पाप से उसको खरगोश की योिन मे जनम िमला। बाहणी भी अपने पाप के कारण कुितया हुई।
शीम हाद ेवजी क हते ह ै – यह सारी कथा सुनकर शदालु राजा ने गीता के चौदहवे
अधयाय का पाठ आरमभ कर िदया। उससे उनहे परमगित की पािप हुई।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
चौदहवा ँ अ धयायः ग ुणियिवभागयो ग तेरहवे अधयाय मे 'केि' और 'केिज' के लकण बताकर उन दोनो के जान को ही जान कहा और केि का सवरप, सवभाव िवकार तथा उसके तिवो की उतपित का कम आिद बताया। 19 वे
शोक से पकृ ित-पुरष के पकरण का आरं भ करके तीनो गुणो की पकृ ित से होने वाले कहे तथा 21 वीं शोक मे यह बात भी बतायी िक पुरष का ििर-ििर से अचछी या अधम योिनयो मे जनम पाने का कारण गुणो का संग ही है । अब उस सिव, रज और तम इन तीनो गुओं के संग से
िकस योिन मे जनम होता है , गुणो से छूटने का उपाय कौन सा है , गुणो से छूटे हुए पुरष का
लकण तथा आचरण कैसा होता है .... इन सब बातो को जानने की सवाभािवक ही इचछा होती है । इसिलए उस िवषय को सपष करने के िलए चौदहवे अधयाय का आरमभ करते है ।
तेरहवे अधयाय मे वणन ु िकये गये जान को जयादा सपषतापूवक ु समझाने के िलए
भगवान शीकृ षण चौदहवे अधयाय के पहले दो शोक मे जान का महतव बताकर ििर से उसका वणन ु करते है –
।। अथ चत ुद ु शोऽधयायः ।। शीभगवान ुवाच
परं भ ूयः पवकयािम जाना यजजातवा
नां जानम ुतम म।्
मुन यः स वे परा ं िसिद िमतो गता ः।। 1।।
शी भगवान बोलेः जानो मे भी अित उतम उस परम जान को मै ििर कहूँगा, िजसको
जानकर सब मुिनजन इस संसार से मुि होकर परम िसिद को पाप हो गये है ।(1) इदं जानम ुपािशतय मम
साधमय ु मागता ः।
सगु ऽ िप नोपजायनत े प लये न वयथ िनत च ।। 2।।
इस जान को आशय करके अथात ु ् धारण करके मेरे सवरप को पाप हुए पुरष सिृष के
आिद मे पुनः उतपनन नहीं होते और पलयकाल मे भी वयाकुल नहीं होते।(2) मम योिनम ु हदब ह तिसम नग भा दधामयहम। ्
संभव ः सव ु भूताना ं ततो भव ित भारत।। 3।।
हे अजुन ु ! मेरी महत ्-बहरप मूल पकृ ित समपूणु भूतो की योिन है अथात ु ् गभाध ु ान का
सथान है और मै उस योिन मे चेतन समुदायरप को सथापन करता हूँ। उस जड-चेतन के संयोग से सब भूतो की उतपित होती है ।(3)
सव ु योिनष ु कौनत ेय म ूत ु यः स मभव िनत याः। तासा ं ब ह महदोिनरह ं बीजपदः
िपता।। 4।।
हे अजुन ु ! नाना पकार की सब योिनयो मे िजतनी मूितय ु ाँ अथात ु ् शरीरधारी पाणी
उतपनन होते है , पकृ ित तो उन सबकी गभु धारण करने वाली माता है और मै बीज का सथापन करने वाला िपता हूँ।(4)
सिव ं रजसतम इ ित ग ुणाः पक ृ ितस ं भवाः। िनबधन िनत महाबाहो द ेहे द े िहनमवययम। ् । 5।।
हे अजुन ु ! सिवगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये पकृ ित से उतपनन तीनो गुण अिवनाशी जीवातमा को शरीर मे बाँधते है ।(5)
ति सिव ं िनम ु लतवातपकाश कमनामयम। ्
सुखस ंग ेन बधना ित जा नसंग ेन चानि।। 6।।
हे िनषपाप ! उन तीनो गुणो मे सिवगुण तो िनमल ु होने के कारण पकाश करने वाला और िवकार रिहत है , वह सुख के समबनध से और जान के समबनध से अथात ु ् अिभमान से बाँधता है ।(6)
रजो रागातमक ं िव िद त ृ षणास ंगस मुदव म।्
तिननबधनाित कौ
नतेय क मु संग ेन द े िहनम।् । 7।।
तमसतवजानज ं िव िद मोहन ं सव ु देिहनाम।् पमादालसयिनदा िभसतिनन बधनाित भारत।।
8।।
हे अजुन ु ! रागरप रजोगुण को कामना और आसिि से उतपनन जान। वह इस जीवातमा को कमो के और उनके िल के समबनध से बाँधता है । सब दे हािभमािनयो को मोिहत करने वाले तमोगुण को तो अजान से उतपनन जान। वह इस जीवातमा को पमाद, आलसय और िनदा के िारा बाँधता है ।(7,8) (अनुकम)
सिव ं स ुख े स ं जयित रजः क मु िण भारत।
जानमाव ृ तय तु त मः प माद े स ंजयतय ुत।। 9।।
हे अजुन ु ! सिव गुण सुख मे लगाता है और रजोगुण कमु मे तथा तमोगुण तो जान को ढककर पमाद मे लगाता है ।(9)
रजसतमस चािभ भूय स िवं भव ित भारत।
रज ः सिव ं तम िैव तम ः सिव ं रजसत था।। 10।।
हे अजुन ु ! रजोगुण और तमोगुण को दबाकर सिवगुण, सिवगुण और तमोगुण को दबाकर रजोगुण, वैसे ही सिवगुण और रजोगुण को दबाकर तमोगुण होता है अथात ु ् बढता है ।(10) सव ु िार ेष ु द ेहेऽ िसमन पकाश उप जा यते।
जान ं यदा तदा िवदाििव ृ दं सिविम तयुत।। 11।।
िजस समय इस दे ह मे तथा अनतःकरण और इिनदयो मे चेतनता और िववेकशिि उतपनन होती है , उस समय ऐसा जानना चािहए
सिवगुण बढा है ।(11)
लो भः पव ृ ितरा रमभ ः कम ु णाम शम ः सप ृ हा।
रजस येतािन जायनत े िवव ृ दे भरतष ु भ।। 12।।
हे अजुन ु ! रजोगुण के बढने पर लोभ, पविृत, सवाथब ु ुिद से कमो का सकामभाव से आरमभ, अशािनत और िवषयभोगो की लालसा – ये सब उतपनन होते है ।(12) अपकाशो ऽपव ृ िति प मादो मो ह एव च।
तमस येतािन जायनत े िव वृ दे कुरन नदन।। 13।।
हे अजुन ु ! तमोगुण के बढने पर अनतःकरण व इिनदयो मे अपकाश, कतवुय-कमो मे अपविृत और पमाद अथात ु ् वयथु चेषा और िनदािद अनतःकरण की मोिहनी विृतयाँ – ये सभी उतपनन होते है ।(13)
यदा सतव े पव ृ दे त ु प लयं याित द ेहभ ृ त।्
तदोतम िवदा ं ल ोकानमलानप ितपदत े।। 14।। जब यह मनुषय सिवगुण की विृद मे मतृयु को पाप होता है , तब तो उतम कमु करने
वालो के िनमल ु िदवय सवगािुद लोको को पाप होता है ।(14)
रजिस प लयं गतवा कम ु सं िगष ु जायत े।
तथा पलीनसतम िस म ूढयोिनष ु जायत े।। 15।। रजोगुण के बढने पर मतृयु को पाप होकर कमो की आसिि वाले मनुषयो मे उतपनन
होता है , तथा तमोगुण के बढने पर मरा हुआ मनुषय कीट, पशु आिद मूढ योिनयो मे उतपनन होता है ।(15) (अनुकम)
कम ु ण ः स ुकृतसयाह ु ः साििवक ं िनम ु लं ि लम।्
रजससत ु ि लं द ु ःख मजा नं तम सः ि लम।् ।16।।
शि े कमु का तो साििवक अथात ु ् सुख, जान और वैरागयािद िनमल ु िल कहा है । राजस
कमु का िल दःुख तथा तामस कमु का िल अजान कहा है ।(16)
सिवातस ं जायत े जान ं रज सो लो भ एव च।
पमामोहौ तम सो भवतोऽजानम ेव च।। 17।।
सिवगुण से जान उतपनन होता है और रजोगुण से िनःसंदेह लोभ तथा तमोगुण से पमाद और मोह उतपनन होते है और अजान भी होता है ।(17)
ऊधव ा गच छिनत सिवस था म धये िति िनत राजसाः। जिनयग ुणव ृ ितस था अधो गच छिनत तामसा ः।। 18।।
सिवगुण मे िसथत पुरष सवगािुद उचच लोको को जाते है , रजोगुण मे िसथत राजस पुरष मधय मे अथात ु ् मनुषयलोक मे ही रहते है और तमोगुण के कायर ु प िनदा, पमाद और आलसयािद
मे िसथत तामस पुरष अधोगित को अथात ु ् कीट, पशु आिद नीच योिनयो को तथा नरको को पाप होते है ।(18)
नानय ं ग ुण ेभयः कता ु रं यदा दषान ुप शयित। गुण ेभयि पर ं व ेित मद ावं सोऽ िधग चछित ।। 19।।
िजस समय दषा तीनो गुणो के अितिरि अनय िकसी को कताु नहीं दे खता और तीनो गुणो से अतयनत परे सिचचदाननदिनसवरप मुझ परमातमा को तिव से जानता है , उस समय वह मेरे सवरप को पाप होता है ।(19)
गुणान ेतानतीतय
ि ीनद ेही द ेह समुद वा न।्
जन मम ृ तयुजरा द ु ःखैिव ु मुिोऽम ृ त मशुत े।। 20।।
यह शरीर की उतपित के कारणरप इन तीनो गुणो को उललंिन करके जनम, मतृयु,
वद ृ ावसथा और सब पकार के दःुखो से मुि हुआ परमाननद को पाप होता है ।(20) अजुु न उ वाच
कैिल ु गैसीनग ुणान ेतानतीतो भव ित पभो। िक माचारः कथ ं च ैत ांसीनग ुणानितवत ु ते।। 21।।
अजुन ु बोलेः इन तीनो गुणो से अतीत पुरष िकन-िकन लकणो से युि होता है और िकस पकार के आचरणो वाला होता है तथा हे पभो ! मनुषय िकस उपाय से इन तीनो गुणो से अतीत होता है ।(अनुकम)
शीभगवान ुवाच
पकाश ं च पव ृ ितं च मोहम ेव च पाणडव। न ि े िष स ंपव ृ तािन न
िनव ृ तािन क ांक ित।। 22।।
उदासीनवद ासीनो गुण ैयो न िव चालयत े।
गुणा वत ु नत इत ये योऽविति ित न ेगत े।। 23।। समद ु ःखस ुख ः सवसथ ः सम लोषाशमका ं चनः।
तुलय िपयािपयो
धीरसत ुलयिन नदातमस ंसत ु ित।। 24।।
मानापमानय ोसत ुलयसत ुलयो िम िािरपकयोः।
सवा ु रमभपिरतयागी ग
ुणातीतः स
उचयत े।। 25।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन ु ! जो पुरष सिवगुण के कायर ु प पकाश को और रजोगुण के कायर ु प पविृत को तथा तमोगुण के कायर ु प मोह को भी न तो पवत ृ होने पर उनसे िे ष करता
है और न िनवत ृ होने पर उनकी आकांका करता है । जो साकी के सदश िसथत हुआ गुणो के िारा िवचिलत नहीं िकया जा सकता और गुण ही गुणो मे बरतते है – ऐसा समझता हुआ जो
सिचचदाननदिन परमातमा मे एकीभाव से िसथत रहता है और उस िसथित से कभी िवचिलत नहीं होता। जो िनरनतर आतमभाव मे िसथत, दःुख-सुख को समान समझनेवाला, िमटटी, पतथर और सवणु मे समान भाववाला, जानी, िपय तथा अिपय को एक-सा मानने वाला और अपनी िननदा
सतुित मे भी समान भाववाला है । जो मान और अपमान मे सम है , िमि और वैरी के पक मे भी सम है तथा समपूणु आरमभो मे कताप ु न के अिभमान से रिहत है , वह पुरष गुणातीत कहा जाता है ।(22,23,24,25)
मां च योऽवयिभ चार ेण भ िियोगन े स े वते। स गुणानस मतीतय ैतानबहभ ूयाय क लपत े।। 26।।
और जो पुरष अवयिभचारी भिियोग के िारा मुझको िनरनतर भजता है , वह भी इन तीनो गुणो को भली भाँित लाँिकर सिचचदाननदिन बह को पाप होने के िलए योगय बन जाता है ।(26) बहणो िह प ितिाहम मृ तसयाव ययसय च ।
शा शतसय च ध मु सय स ुखसय ैका िनतकसय च।। 27।।
कयोिक उस अिवनाशी परबह का और अमत ृ का तथा िनतयधमु का और अखणड एकरस आननद का आशय मै हूँ।(27) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन ु संवादे गुणियिवभागयोगो नाम चतुदुशोऽधयायः ।।14।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे गुणियिवभागयोग नामक चौदहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पंदह वे अधयाय क ा माहातमय शीम हाद ेवजी क हते ह ै – पावत ु ी ! अब गीता के पंदहवे अधयाय का माहातमय सुनो।
गौड दे श मे कृ पाण नामक एक राजा थे, िजनकी तलवार की धार से युद मे दे वता भी परासत हो जाते थे। उनका बुिदमान सेनापित शस और शास की कलाओं का भणडार था। उसका नाम था सरभमेरणड। उसकी भुजाओं मे पचणड बल था। एक समय उस पापी ने राजकुमारो सिहत
महाराज का वध करके सवयं की राजय करने का िवचार िकया। इस िनिय के कुछ ही िदनो बाद वह है जे का िशकार होकर मर गया। थोडे समय मे वह पापातमा अपने पूवक ु मु के कारण िसनधु दे श मे एक तेजसवी िोडा हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। िोडे के लकणो का ठीक-ठाक जान
रखने वाले िकसी वैशय पुि ने बहुत सा मूलय दे कर उस अश को खरीद िलया और यत के साथ उसे राजधानी तक ले आया। वैशयकुमार वह अश राजा को दे ने को लाया था। यदिप राजा उस
वैशयकुमार से पिरिचत थे, तथािप िारपाल ने जाकर उसके आगमन की सूचना दी। राजा ने पूछाः िकसिलए आये हो? तब उसने सपष शबदो मे उतर िदयाः 'दे व ! िसनधु दे श मे एक उतम लकणो से समपनन अश था, िजसे तीनो लोको का एक रत समझकर मैने बहुत सा मूलय दे कर खरीद िलया है ।' राजा ने आजा दीः 'उस अश को यहाँ ले आओ।'
वासतव मे वह िोडा गुणो मे उचचैःशवा के समान था। सुनदर रप का तो मानो िर ही
था। शुभ लकणो का समुद जान पडता था। वैशय िोडा ले आया और राजा ने उसे दे खा। अश का
लकण जानने वाले अमातयो ने इसकी बडी पशंसा की। सुनकर राजा अपार आननद मे िनमगन हो गये और उनहोने वैशय को मुह ँ माँगा सुवणु दे कर तुरनत ही उस अश को खरीद िलया। कुछ
िदनोके बाद एक समय राजा िशकार खेलने के िलए उतसुक हो उसी िोडे पर चढकर वन मे गये। वहाँ मग ृ ो के पीछे उनहोने अपना िोडा बढाया। पीछे -पीछे सब ओर से दौडकर आते हुए समसत सैिनको का साथ छूट गया। वे िहरनो िारा आकृ ष होकर बहुत दरू िनकल गये। पयास ने उनहे
वयाकुल कर िदया। तब वे िोडे से उतरकर जल की खोज करने लगे। िोडे को तो उनहोने वक ृ के तने के साथ बाँध िदया और सवयं एक चटटान पर चढने लगे। कुछ दरू जाने पर उनहोने दे खा
िक एक पते का टु कडा हवा से उडकर िशलाखणड पर िगरा है । उसमे गीता के पंदहवे अधयाय का आधा शोक िलखा हुआ था। राजा उसे पढने लगे। उनके मुख से गीता के अकर सुनकर िोडा
तुरनत िगर पडा और अश शरीर को छोडकर तुरंत ही िदवय िवमान पर बैठकर वह सवगल ु ोक को
चला गया। ततपिात राजा ने पहाड पर चढकर एक उतम आशम दे खा, जहाँ नागकेशर, केले, आम और नािरयल के वक ृ लहरा रहे थे। आशम के भीतर एक बाहण बैठे हुए थे, जो संसार की
वासनाओं से मुि थे। राजा ने उनहे पणाम करके बडे भिि के साथ पूछाः 'बहन ् ! मेरा अश अभी-अभी सवगु को चला गया है , उसमे कया कारण है ? (अनुकम)
राजा की बात सुनकर ििकालदशी, मंिवेता और महापुरषो मे शि े िवषणुशमाु नामक बाहण
ने कहाः 'राजन ! पूवक ु ाल मे तुमहारे यहाँ जो सरभमेरणड नामक सेनापित था, वह तुमहे पुिो
सिहत मारकर सवयं राजय हडप लेने को तैयार था। इसी बीच मे है जे का िशकार होकर वह मतृयु को पाप हो गया। उसके बाद वह उसी पाप से िोडा हुआ था। यहाँ कहीं गीता के पंदहवे अधयाय का आधा शोक िलखा िमल गया था, उसे ही तुम बाँचन लगे। उसी को तुमहारे मुख से सुनकर वह अश सवगु को पाप हुआ है ।'
तदननतर राजा के पाशव ु ती सैिनक उनहे ढू ँ ढते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन सबके साथ बाहण
को पणाम करके राजा पसननतापूवक ु वहाँ से चले और गीता के पंदहवे अधयाय के शोकाकरो से अंिकत उसी पि को बाँच-बाँचकर पसनन होने लगे। उनके नेि हषु से िखल उठे थे। िर आकर उनहोने मनिवेता मिनियो के साथ अपने पुि िसंहबल को राजय िसंहासन पर अिभिषि िकया और सवयं पंदहवे अधयाय के जप से िवशुदिचत होकर मोक पाप कर िलया। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
पंदहवा ँ अ धयायः प ुरषोतमयोग चौदहवे अधयाय मे शोक 5 से 19 तक तीनो गुणो का सवरप, उनके कायु उनका
बंधनसवरप और बंधे हुए मनुषय की उतम, मधयम आिद गितयो का िवसतारपूवक ु वणन ु िकया।
शोक 19 तथा 20 मे उन गुणो से रिहत होकर भगवद भाव को पाने का उपाय और िल बताया। ििर अजुन ु के पूछने से 22 वे शोक से लेकर 25 वे शोक तक गुणातीत पुरष के लकणो और
आचरण का वणन ु िकया। 26 वे शोक मे सगुण परमेशर को अननय भिियोग तथा गुणातीत होकर बहपािप का पाि बनने का सरल उपाय बताया।
अब वह भिियोगरप अननय पेम उतपनन करने के उदे शय से सगुण परमेशर के गुण,
पभाव और सवरप का तथा गुणातीत होने मे मुखय साधन वैरागय और भगवद शरण का वणन ु करने के िलए पंदहवाँ अधयाय शुर करते है । इसमे पथम संसार से वैरागय पैदा करने हे तु
भगवान तीन शोक िारा वक ृ के रप मे संसार का वणन ु करके वैरागयरप शस िारा काट डालने को कहते है ।
।। अथ प ंचदशोऽधयायः ।। शीभगवान ुवाच
ऊधव ु मू लमध ःशाखम शतथ ं पाह ु रवययम।्
छनद ांिस यसय पणा ु िन यसत ं व ेद स व ेद िवत।् । 1।।
शी भगवान बोलेः आिदपुरष परमेशररप मूलवाले और बहारप मुखय शाखावाले िजस संसाररप पीपल के वक ृ को अिवनाशी कहते है , तथा वेद िजसके पते कहे गये है – उस संसाररप वक ृ को जो पुरष मूलसिहत तिव से जानता है , वह वेद के तातपयु को जानने वाला है ।(1) (अनुकम)
अधिोधव ा प सृ तासतसय शाखा गुणपव ृ दा िवषयपवालाः।
अध ि म ूला नय नुस ंत तािन कमाु नुबनधीिन मन ुषयलोक े।। 2।।
उस संसार वक ृ की तीनो गुणो रप जल के िारा बढी हुई और िवषय-भोगरप कोपलोवाली
दे व, मनुषय और ितयक ु आिद योिनरप शाखाएँ नीचे और ऊपर सवि ु िैली हुई है तथा
मनुषयलोक मे कमो के अनुसार बाँधनेवाली अहं ता-ममता और वासनारप जडे भी नीचे और ऊपर सभी लोको मे वयाप हो रही है ।(2)
न रप मसय ेह त थोपलभयत े नानतो न चा िदन ु च स मपितिा। अशत थमेन ं सुिवरढ मूल -
मसङग शसेण दढ ेन िछतवा।। 3।। ततः पद ं त तपिरमा िगु तवय ं
यिसमन गता न िनव तु िनत भूयः। तमेव चाद ं प ुरष ं प पदे
यतः पव ृ ित ः पस ू ता पुराणी।। 4।।
इस संसार वक ृ का सवरप जैसा कहा है वैसा यहाँ िवचारकाल मे नहीं पाया जाता, कयोिक न तो इसका आिद है और न अनत है तथा न इसकी अचछी पकार से िसथित ही है । इसिलए
इस अहं ता-ममता और वासनारप अित दढ मूलो वाले संसाररप पीपल के वक ृ को वैरागयरप शस िारा काटकर। उसके पिात उस परम पदरप परमेशर को भली भाँित खोजना चािहए, िजसमे गये हुए पुरष ििर लौटकर संसार मे नहीं आते और िजस परमेशर से इस पुरातन संसार-वक ृ की
पविृत िवसतार को पाप हुई है , उसी आिदपुरष नारायण के मै शरण हूँ – इस पकार दढ िनिय करके उस परमेशर का मनन और िनिदधयासन करना चािहए।(3,4) िनमा ु नमोहा िज तसङगदोषा
अधयातमिनतया
िविनव ृ तकामाः।
िनिै िव ु मुिाः स ुख द ु ःखस ंज ै -
गु चछनतयम ूढा ः पदमवयय ं त त।् ।5।।
िजसका मान और मोह नष हो गया है , िजनहोने आसििरप दोष को जीत िलया है , िजनकी परमातमा के सवरप मे िनतय िसथित है और िजनकी कामनाएँ पूणर ु प से नष हो गयी है - वे सुख-दःुख नामक िनिो से िवमुि जानीजन उस अिवनाशी परम पद को पाप होते है ।(5) न त दासयत े स ूयो न श शांको न पावक ः।
यदतवा न िनवत ु नते तदाम परम ं मम।। 6।। िजस परम पद को पाप होकर मनुषय लौटकर संसार मे नहीं आते, उस सवयं पकाश परम
पद को न सूयु पकािशत कर सकता है , न चनदमा और अिगन ही। वही मेरा परम धाम है ।(6) (अनुकम)
ममैव ांशो जीव लोके जीव भूतः सनातनः। मन ःषिानीिनदयािण पक
ृ ितसथािन क षु ित।। 7।।
शरीर ं यदवाप नोित यच चाप युतकामतीशर ः।
गृ हीतव ैतािन स ंयाित वाय ुग ु न धािनवाशयात। ् ।8।। शोिं चक ु ः सप शु नं च रसन ं घाणम ेव च । अिधिाय मनिाय ं िवषयान ुपस ेवत े।। 9।।
इस दे ह मे यह सनातन जीवातमा मेरा अंश है और वही इस पकृ ित मे िसथत मन और पाँचो इिनदयो को आकिषत ु करता है ।(7)
वायु गनध के सथान से गनध को जैसे गहण करके ले जाता है , वैसे ही दे हािद का सवामी
जीवातमा भी िजस शरीर का तयाग करता है , उससे इस मन सिहत इिनदयो को गहण करके ििर िजस शरीर को पाप होता है - उसमे जाता है ।(8)
यह जीवातमा शोि, चकु और तवचा को तथा रसना, घाण और मन को आशय करके-
अथात ु ् इन सबके सहारे से ही िवषयो का सेवन करता है ।(9)
उतकाम नतं िसथ तं वािप भ ुंजान ं वा ग ुणा िनवत म।् िव मूढा नान ुपशयिनत जानचक
ुष ः।। 10।।
शरीर को छोडकर जाते हुए को अथवा शरीर मे िसथत हुए को अथवा िवषयो को भोगते
हुए को इस पकार तीनो गुणो से युि हुए को भी अजानीजन नहीं जानते, केवल जानरप नेिोवाले िववेकशील जानी ही तिव से जानते है ।(10)
यतनतो योिगनि ैन ं पशयनतया तम नयविसथ तम।्
यतनतोऽपयक ृतातमानो
नैन ं पशयनतयच ेतस ः।। 11।।
यत करने वाले योगीजन भी अपने हदय मे िसथत इस आतमा को तिव से जानते है िकनतु िजनहोने अपने अनतःकरण को शुद नहीं िकया है , ऐसे अजानीजन तो यत करते रहने पर भी इस आतमा को नहीं जानते।(11)
यदािदतयगत ं त े जो ज गदासयत े ऽिखल म।्
यचच नदमिस यचचागनौ
तत ेजो िव िद मामकम। ् ।12।।
सूयु मे िसथत जो तेज समपूणु जगत को पकािशत करता है तथा जो तेज चनदमा मे है
और जो अिगन मे है - उसको तू मेरा ही तेज जान।(12) गा मािवशय
च भूतािन ध ार यामयहमोजसा।
पुषणािम चौष धीः स वाु ः सोमो भ ूतवा रसातमक ः।। 13।। और मै ही पथृवी मे पवेश करके अपनी शिि से सब भूतो को धारण करता हूँ और
रससवरप अथात ु ् अमत ृ मय चनदमा होकर समपूणु औषिधयो को अथात ु ् वनसपितयो को पुष करता हूँ।(13) (अनुकम)
अहं व ैशनरो भूतवा पा िणना देह मािश तः। पाणापानसमाय ुिः पचामयनन ं चत ुिव ु धम।् ।14।।
मै ही सब पािणयो के शरीर मे िसथर रहने वाला पाण और अपान से संयुि वैशानर अिगनरप होकर चार पकार के अनन को पचाता हूँ।(14)
सव ु सय चाह ं ह िद स ंिन िवषो मत ः सम ृ ितजा ु नमपोहन ं च । वेद ै ि सव ैरहम ेव व ेदो
वेदानत कृिेदिव देव चाह म।् । 15।।
मै ही सब पािणयो के हदय मे अनतयाम ु ी रप से िसथत हूँ तथा मुझसे ही समिृत, जान
और अपोहन होता है और सब वेदो िारा मै ही जानने के योगय हूँ तथा वेदानत का कताु और वेदो को जानने वाला भी मै ही हूँ।(15)
िा िवमौ प ुरषौ लोक े करिाकर एव च।
करः स वाु िण भ ूतािन क ूटस थोऽकर उ चयत े।। 16।। इस संसार मे नाशवान और अिवनाशी भी ये दो पकार के पुरष है । इनमे समपूणु
भूतपािणयो के शरीर तो नाशवान और जीवातमा अिवनाशी कहा जाता है ।(16) उतम ः प ुरषसतवनयः पर
यो लोक ियमािवशय
मातम ेत युदाहत ः।
िबभतय ु वयय ई शरः।। 17।।
इन दोनो से उतम पुरष तो अनय ही है , जो तीनो लोको मे पवेश करके सबका धारण-
पोषण करता है तथा अिवनाशी परमेशर और परमातमा- इस पकार कहा गया है ।(17) यसमातकरमतीतो ऽहमकरादिप च ोतमः।
अतोऽ िसम लोक े व ेदे च पिथ तः पुरषोतमः।।
18।।
कयोिक मै नाशवान जडवगु केि से सवथ ु ा अतीत हूँ और अिवनाशी जीवातमा से भी उतम
हूँ, इसिलए लोक मे और वेद मे भी पुरषोतम नाम से पिसद हूँ।(18)
यो माम ेव मसंम ू ढो जानाित प ुर षोतम।्
स सव ु िवद जित म ां स वु भाव ेन भारत।। 19।। भारत ! जो जानी पुरष मुझको इस पकार तिव से पुरषोतम जानता है , वह सवज ु पुरष
सब पकार से िनरनतर मुझ वासुदेव परमेशर को ही भजता है ।(19)
इित गुहत मं शासिम दमुिं मयानि।
एत द ब ुदधवा ब ुिदमा नसया तकृत कृतयि भारत।।
20।।
हे िनषपाप अजुन ु ! इस पकार यह अित रहसययुि गोपनीय शास मेरे िारा कहा गया,
इसको तिव से जानकर मनुषय जानवान और कृ ताथु हो जाता है ।(20) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे पुरषोतमयोगो नाम पंचदशोऽधयायः ।।15।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे पुरषोतमयोग नामक पंदहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सोलहव े अ धयाय का माहातमय
शीम हाद ेवजी क हते ह ै - पावत ु ी ! अब मै गीता के सोलहवे अधयाय का माहातमय बताऊँगा, सुनो। गुजरात मे सौराष नामक एक नगर है । वहाँ खडगबाहु नाम के राजा राजय करते थे, जो दस ू रे इनद के समान पतापी थे। उनका एक हाथी था, जो मद बहाया करता था और सदा मद मे उनमत रहता था। उस हाथी का नाम अिरमदु न था।
एक िदन रात मे वह हठात साँकलो और लोहे के खमभो को तोड-िोडकर बाहर िनकला।
हाथीवान उसके दोनो ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, िकनतु कोधवश उन सबकी अवहे लना करके उसने अपने रहने के सथान- हिथसार को िगरा िदया। उस पर चारो ओर से भालो की मार पड
रही थी ििर भी हाथीवान ही डरे हुए थे, हाथी को तिनक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूणु िटना को सुनकर राजा सवयं हाथी को मनाने की कला मे िनपुण राजकुमारो के साथ वहाँ आये। आकर उनहोने उस बलवान दँ तैले हाथी को दे खा। नगर के िनवासी अनय काम धंधो की िचनता
छोड अपने बालको को भय से बचाते हुए बहुत दरू खडे होकर उस महाभयंकर गजराज को दे खते रहे । इसी समय कोई बाहण तालाब से नहाकर उसी मागु से लौटे । वे गीता के सोलहवे अधयाय के 'अभयम ् ' आिद कुछ शोको का जप कर रहे थे। पुरवािसयो और पीलवानो (महावतो) ने बहुत
मना िकया, िकनतु िकसी की न मानी। उनहे हाथी से भय नहीं था, इसिलए वे िचिनतत नहीं हुए। उधर हाथी अपीन िचंिाड से चारो िदशाओं को वयाप करता हुआ लोगो को कुचल रहा था। वे
बाहण उसके बहते हुए मद को हाथ से छूकर कुशलपूवक ु (िनभय ु ता से) िनकल गये। इससे वहाँ राजा तथा दे खने वाले पुरवािसयो के मन मे इतना िवसमय हुआ िक उसका वणन ु नहीं हो
सकता। राजा के कमलनेि चिकत हो उठे थे। उनहोने बाहण को बुला सवारी से उतरकर उनहे
पणाम िकया और पूछाः 'बाहण ! आज आपने यह महान अलौिकक कायु िकया है , कयोिक इस
काल के समान भयंकर गजराज के सामने से आप सकुशल लौट आये है । पभो ! आप िकस दे वता का पूजन तथा िकस मनि का जप करते है ? बताइये, आपने कौन-सी िसिद पाप की है ?
बाहण न े क हाः राजन ! मै पितिदन गीता के सोलहवे अधयाय के कुछ शोको का जप
िकया करता हूँ, इसी से सारी िसिदयाँ पाप हुई है ।(अनुकम)
शीम हाद ेवजी क हते ह ै - तब हाथी का कौतूहल दे खने की इचछा छोडकर राजा बाहण
दे वता को साथ ले अपने महल मे आये। वहाँ शुभ मुहूतु दे खकर एक लाख सवणम ु ुदाओं की
दिकणा दे उनहोने बाहण को संतुष िकया और उनसे गीता-मंि की दीका ली। गीता के सोलहवे अधयाय के 'अभयम ् ' आिद कुछ शोको का अभयास कर लेने के बाद उनके मन मे हाथी को छोडकर उसके कौतुक दे खने की इचछा जागत ृ हुई, ििर तो एक िदन सैिनको के साथ बाहर
िनकलकर राजा ने हाथीवानो से उसी मत गजराज का बनधन खुलवाया। वे िनभय ु हो गये। राजय का सुख-िवलास के पित आदर का भाव नहीं रहा। वे अपना जीवन तण ृ वत ् समझकर हाथी के
सामने चले गये। साहसी मनुषयो मे अगगणय राजा खडगबाहु मनि पर िवशास करके हाथी के समीप गये और मद की अनवरत धारा बहाते हुए उसके गणडसथल को हाथ से छूकर सकुशल लौट आये। काल के मुख से धािमक ु और खल के मुख से साधु पुरष की भाँित राजा उस
गजराज के मुख से बचकर िनकल आये। नगर मे आने पर उनहोने अपने राजकुमार को राजय पर अिभिषि कर िदया तथा सवयं गीता के सोलहवे अधयाय का पाठ करके परम गित पाप की(अनुकम)
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सो लहव ाँ अधयायः द ैवास ु र संपिि भागयो ग 7 वे अधयाय के 15 वे शोक मे तथा 9 वे अधयाय के 11 वे तथा 12 वे शोक मे भगवान ने
कहा है ः 'आसुरी तथा राकसी पकृ ित धारण करने वाले मूढ लोग मेरा भजन नहीं करते है लेिकन मेरा ितरसकार करते है ।' और नौवे अधयाय के 13 वे और 14 वे शोक मे कहाः 'दै वी पकृ ितवाले
महातमा पुरष मुझे सवभ ु ूतो का आिद और अिवनाशी समझकर अननय पेमसिहत सब पकार से हमेशा मेरा भजन करते है ', लेिकन दस ू रे पसंग चालू होने के कारण वहाँ दै वी और आसुरी पकृ ित
के लकण वणन ु नहीं िकये है । ििर पंदहवे अधयाय के 19 वे शोक मे भगवान ने कहाः 'जो जानी महातमा मुझ पुरषोतम को जानते है वह सवु पकार से मेरा भजन करते है ।' इस िवषय पर
सवाभािवक रीित से ही दै वी पकृ ितवाले जानी पुरष के तथा आसुरी पकृ ितवाले अजानी मनुषय के लकण कौन-कौन से है यह जानने के इचछा होती है । इसिलए भगवान अब दोनो के लकण और
सवभाव का िवसतारपूवक ु वणन ु करने के िलए यह सोलहवाँ अधयाय आरमभ करते है । इसमे पहले तीन शोको िारा दै वी संपितवाले साििवक पुरष के सवाभािवक लकणो का िवसतारपूवक ु वणन ु करते है ।
।। अथ ष ोडशोऽधयायः ।। शीभगवान ुवाच
अभय ं सिवस ं शुिदजा ु नय ोगवयव िसथित ः। दान ं द मि यजि सवाधयायसतप अिहंसा सतयमकोधसतयाग
आ जु वम।् ।1।।
ः शािनत रपैश ुनम।्
दया भूत ेषवलोल ुपव ं माद ु वं हीरचापलम। ् ।2।। तेज ः कमा ध ृ ित ः शौ चमदोहो नाितमािनता।
भव िनत स मपद ं द ैवी मिभ जातसय भारत।। 3।।
शी भगवान बोलेः भय का सवथ ु ा अभाव, अनतःकरण की पूणु िनमल ु ता, तिवजान के िलए धयानयोग मे िनरनतर दढ िसथित और साििवक दान, इिनदयो का दमन, भगवान, दे वता और
गुरजनो की पूजा तथा अिगनहोि आिद उतम कमो का आचरण और वेद-शासो का पठन-पाठन तथा भगवान के नाम और गुणो का कीतन ु , सवधमप ु ालन के िलए कषसहन और
शरीर तथा
इिनदयो के सिहत अनतःकरण की सरलता। मन, वाणी और शरीर मे िकसी पकार भी िकसी को कष न दे ना, यथाथु और िपय भाषण, अपना अपकार करने वाले पर भी कोध का न होना, कमो मे कताप ु न के अिभमान का तयाग, अनतःकरण की उपरित अथात ु ् िचत की चंचलता का अभाव,
िकसी की िननदा न करना, सब भूत पािणयो मे हे तुरिहत दया, इिनदयो का िवषयो के साथ संयोग होने पर भी उनमे आसिि का न होना, कोमलता, लोक और शास से िवरद आचरण मे लजजा और वयथु चेषाओं का अभाव। तेज, कमा, धैयु, बाहर की शुिद तथा िकसी मे भी शिुभाव का न होना और अपने मे पूजयता के अिभमान का अभाव – ये सब तो हे अजुन ु ! दै वी समपदा को लेकर उतपनन हुए पुरष के लकण है ।(1,2,3)
दमभो दपोऽ िभमानि को धः पारषयम ेव च।
अजान ं चािभ जातसय पाथ ु समप दमास ुरीम।् ।4।।
हे पाथु ! दमभ, िमणड और अिभमान तथा कोध, कठोरता और अजान भी- ये सब आसुरी समपदा को लेकर उतपनन हुए पुरष के लकण है ।(4)
दैवी स मपिि मोकाय िनब नधायस ुरी मता।
मा श ुच ः समप दं द ैवीम िभजातोऽ िस पाण डव।। 5।।
दै वी-समपदा मुिि के िलए और आसुरी समपदा बाँधने के िलए मानी गयी है । इसिलए हे अजुन ु ! तू शोक मत कर, कयोिक तू दै वी समपदा को लेकर उतपनन हुआ है ।(5) िौ भ ूतस गो ल ोकेऽ िसमन दैव आस ुर एव च ।
दैवो िवसतरश ः पोि आस ुर ं पा थु मे श ृणु।। 6।।
हे अजुन ु ! इस लोक मे भूतो की सिृष यानी मनुषयसमुदाय दो ही पकार का है ः एक तो दै वी पकृ ित वाला और दस ु ू रा आसुरी पकृ ित वाला। उनमे से दै वी पकृ ितवाला तो िवसतारपूवक कहा गया, अब तू आसुरी पकृ ितवाले मनुषय-समुदाय को भी िवसतारपूवक ु मुझसे सुनो।(6) पव ृ ितं च िनव ृ ितं च जना न
न शौच ं नािप चाचारो न
िवद ु रास ुराः।
स तयं तेष ु िवदत े।। 7।।
आसुर सवभाव वाले मनुषय पविृत और िनविृत- इन दोनो को ही नहीं जानते। इसिलए
उनमे न तो बाहर-भीतर की शुिद है , न शि े आचरण है और न सतयभाषण ही है ।(7) असतयमप िति ं त े जगदाह ु रनीशरम। ्
अपरसपरस मभूत ं िकमनयतकामह ैत ु कम।् । 8।। वे आसुरी पकृ ितवाले मनुषय कहा करते है िक जगत आशयरिहत, सवथ ु ा असतय और
िबना ईशर के, अपने-आप केवल सी पुरष के संयोग से उतपनन है , अतएव केवल काम ही इसका कारण है । इसके िसवा और कया है ?(8) (अनुकम)
एता ं द िषम वषभय नषातमानोऽलपब
ुदयः।
पभवनतय ुगक माु णः कया य जग तोऽिह ताः।। 9।।
इस िमथया जान को अवलमबन करके िजनका सवभाव नष हो गया है तथा िजनकी बुिद मनद है , वे सबका अपकार करने वाले कूरकमी मनुषय केवल जगत के नाश के िलए ही समथु होते है ।(9)
कामामा िशतय द ु षपूर ं दम भमानमदा िनवताः।
मो हाद ग ृ हीतवासदगाह नपवत ु नते ऽशु िचव ताः।। 10।। वे दमभ, मान और मद से युि मनुषय िकसी पकार भी पूणु न होने वाली कामनाओं का
आशय लेकर, अजान से िमथया िसदानतो को गहण करके और भष आचरणो को धारण करके संसार मे िवचरते है ।(10)
िचन तामपिरम ेय ां च पलयानताम ुपािश ताः। कामोप भोगपरमा एताविद
ित िन ििताः। 11।।
आशापाश शतैब ु दाः काम कोधपराय णाः।
ईह नते कामभोगा थु मनयाय ेनाथ ु सं चयान।् । 12।।
तथा वे मतृयु पयन ु त रहने वाली असंखय िचनताओं का आशय लेने वाले, िवषयभोगो के भोगने मे ततपर रहने वाले और 'इतना ही सुख है ' इस पकार मानने वाले होते है । वे आशा की सैकडो िाँिसयो मे बँधे हुए मनुषय काम-कोध के परायण होकर िवषय भोगो के िलए अनयायपूवक ु धनािद पदाथो का संगह करने की चेषा करते है ।(11,12) (अनुकम) इदमद मया
ल बध िमम ं पापसय े मनोरथ म।्
इदमसतीदम िप म े भ िवषयित प ुनध ु नम।् ।13।।
असौ मया हत ः शि ु हु िनषय े चापरानािप। ईशरोऽह महं भोगी िसदो ऽहं बलनानस ुखी।। 14।।
आढयोऽ िभजनवानिसम को
ऽनयोिसत स दशो मया।
यकय े दासयािम मो िदषय इतयजानिवमो िहताः।। 15।। अने किचत िवभान ता मो हजालस माव ृ त ाः।
पसिाः का मभोग ेष ु पत िनत नरक ेऽ शुचौ।। 16।।
वे सोचा करते है िक मैने आज यह पाप कर िलया है और अब इस मनोरथ को पाप कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और ििर भी यह हो जायेगा। वह शिु मेरे िारा मारा गया और उन दस ू रे शिुओं को भी मै मार डालूँगा। मै ईशर हूँ, ऐशयु को भोगने वाला हूँ। मै सब िसिदयो से युि हूँ और बलवान तथा सुखी हूँ। मै बडा धनी और बडे कुटु मबवाला हूँ। मेरे समान दस ू रा
कौन है ? मै यज करँगा, दान दँग ू ा और आमोद-पमोद करँगा। इस पकार अजान से मोिहत रहने
वाले तथा अनेक पकार से भिमत िचतवाले मोहरप जाल से समावत ृ और िवषयभोगो मे अतयनत आसि आसुर लोग महान अपिवि नरक मे िगरते है ।(13,14,15,16)
आत मसंभा िवताः सतब धा ध नमान म दािनव ताः
यजनत े नामयज ैसत े दमभ ेनािव िधप ूव ु कम।् । 17।। वे अपने-आपको ही शि े मानने वाले िमणडी पुरष धन औ मान के मद से युि होकर
केवल नाममाि के यजो िारा पाखणड से शासिविधरिहत यजन करते है ।(17) अहंकार ं बल ं दप ा काम ं क ोधं च स ंिश ताः।
मामातमपरद ेहेष ु प ििषनतो ऽभयस ूयकाः।। 18।। वे अहं कार, बल, िमणड, कामना और कोधािद के परायण और दस ू रो की िननदा करने वाले
पुरष अपने और दस ू रो के शरीर मे िसथत मुझ अनतयािुम से िे ष करने वाले होते है ।(18) तानह ं ििषत ः कूरानस ंसार ेष ु नराधमान। ्
िकपामयजसम शुभानास ुरी षवेव योिनष ु।। 19।। उन िे ष करने वाले पापाचारी और कूरकमी नराधमो को मै संसार मे बार-बार आसुरी
योिनयो मे डालता हूँ।(19)
आसुरी ं योिनमाप नना मूढा ज नमिन ज नमिन।
मा मपाप यैव कौनत ेय ततो यानतयधम
ां ग ितम।् ।20।।
हे अजुन ु ! वे मूढ मुझको न पाप होकर ही जनम-जनम मे आसुरी योिन को पाप होते है ,
ििर उससे भी अित नीच गित को पाप होते है अथात ु ् िोर नरको मे पडते है ।(20) िििवध ं नरकसय े दं िार ं नाशनमातमनः।
काम ः कोधस तथा लोभस तसमाद ेततिय ं तयज ेत।् । 21।।
काम, कोध तथा लोभ- ये तीन पकार के नरक के िारा आतमा का नाश करने वाले अथात ु ्
उसको अधोगित मे ले जाने वाले है । अतएव इन तीनो को तयाग दे ना चािहए।(21) एतैिव ु मुिः कौ नतेय त मोिार ैिसिभन ु रः।
आचरतय ातमनः श े यसततो याित परा
ं ग ितम।् ।22।।
हे अजुन ु ! इन तीनो नरक के िारो से मुि पुरष अपने कलयाण का आचरण करता है , इससे वह परम गित को जाता है अथात ु ् मुझको पा जाता है ।(22)
यः शासिव िधम ुतस ृ जय व तु ते कामकारतः।
न स िसिद मवाप नोित न स ुख ं न परा ं ग ित म।् ।23।।
जो पुरष शासिविध को तयागकर अपनी इचछा से मनमाना आचरण करता है , वह न तो िसिद को पाप होता है , न परम गित को और न सुख को ही।(23) (अनुकम)
तसमा चछास ं पमाण ं त े काया ु काय ु वयव िसथतौ।
जातवा शासिव धा नोिं कम ु क तुु िम हाह ु िस ।। 24।।
इससे तेरे िलए इस कतवुय और अकतवुय की वयवसथा मे शास ही पमाण है । ऐसा जानकर तू शासिविध से िनयत कमु ही करने योगय है ।(24) ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे दै वासुरसंपििभागयोगो नाम षोडषोऽधयायः ।।16।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे दै वासुरसंपििभागयोग नामक सोलहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सिहव े अ धयाय का माहा
तमय
शीम हाद ेवजी क हते ह ै - पावत ु ी ! सोलहवे अधयाय का माहातमय बतलाया गया। अब
सिहवे अधयाय की अननत मिहमा शवण करो। राजा खडगबाहू के पुि का दःुशासन नाम का एक
नौकर था। वह बहुत खोटी बुिद का मनुषय था। एक बार वह माणडलीक राजकुमारो के साथ बहुत धन
बाजी लगाकर हाथी पर चढा और कुछ ही कदम आगे जाने पर लोगो के मना करने पर
भी वह मूढ हाथी के पित जोर-जोर से कठोर शबद करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी कोध से अंधा हो गया और दःुशासन पैर ििसल जाने के कारण पथ ृ वी पर िगर पडा। दःुशासन को
िगरकर कुछ-कुछ उचछवास लेते दे ख काल के समान िनरं कुश हाथी ने कोध से भरकर उसे ऊपर िेक िदया। ऊपर से िगरते ही उसके पाण िनकल गये। इस पकार कालवश मतृयु को पाप
होने
के बाद उसे हाथी की योिन िमली और िसंहलिीप के महाराज के यहाँ उसने अपना बहुत समय वयतीत िकया।
िसंहलिीप के राजा की महाराज खडगबाहु से बडी मैिी थी, अतः उनहोने जल के मागु से
उस हाथी को िमि की पसननता के िलए भेज िदया। एक िदन राजा ने शोक की समसयापूितु से संतुष होकर िकसी किव को पुरसकाररप मे वह हाथी दे िदया और उनहोने सौ सवणम ु ुदाएँ लेकर मालवनरे श के हाथ बेच िदया। कुछ काल वयतीत होने पर वह हाथी यतपूवक ु पािलत होने पर भी असाधय जवर से गसत होकर मरणासनन हो गया। हाथीवानो ने जब उसे ऐसी शोचनीय
अवसथा मे दे खा तो राजा के पास जाकर हाथी के िहत के िलए शीघ ही सारा हाल कह सुनायाः "महाराज ! आपका हाथी असवसथ जान पडता है । उसका खाना, पीना और सोना सब छूट गाया है । हमारी समझ मे नहीं आता इसका कया कारण है ।"(अनुकम)
हाथीवानो का बताया हुआ समाचार सुनकर राजा ने हाथी के रोग को पहचान वाले
िचिकतसाकुशल मंिियो के साथ उस सथान पर पदापण ु िकया, जहाँ हाथी जवरगसत होकर पडा था। राजा को दे खते ही उसने जवरजिनत वेदना को भूलकर संसार को आियु मे डालने वाली
वाणी मे कहाः 'समपूणु शासो के जाता, राजनीित के समुद, शिु-समुदाय को परासत करने वाले
तथा भगवान िवषणु के चरणो मे अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन औषिधयो से कया लेना है ? वैदो से भी कुछ लाभ होने वाला नहीं है , दान ओर जप स भी कया िसद होगा? आप कृ पा करके गीता के सिहवे अधयाय का पाठ करने वाले िकसी बाहण को बुलवाइये।'
हाथी के कथनानुसार राजा ने सब कुछ वैसा ही िकया। तदननतर गीता-पाठ करने वाले
बाहण ने जब उतम जल को अिभमंिित करके उसके ऊपर डाला, तब दःुशासन गजयोिन का पिरतयाग करके मुि हो गया। राजा ने दःुशासन को िदवय िवमान पर आरढ तथा इनद के
समान तेजसवी दे खकर पूछाः 'पूवज ु नम मे तुमहारी कया जाित थी? कया सवरप था? कैसे आचरण थे? और िकस कमु से तुम यहाँ हाथी होकर आये थे? ये सारी बाते मुझे बताओ।'
राजा के इस पकार पूछने पर संकट से छूटे हुए दःुशासन ने िवमान पर बैठे-ही-बैठे
िसथरता के साथ अपना पूवज ु नम का उपयुि ु समाचार यथावत कह सुनाया। ततपिात ् नरशि े मालवनरे श ने भी गीता के सिहवे अधयाय मुिि हो गयी।
पाठ करने लगे। इससे थोडे ही समय मे उनकी
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सिहवा ँ अधयायः शद ाियिव भागयो ग सोलहवे अधयाय के आरमभ मे भगवान शीकृ षण ने िनषकाम भाव से आचरण करते हुए
शासीय गुण तथा आचरण का वणन ु दै वी संपित के रप मे िकया। बाद मे शास िवरद आसुरी संपित का वणन ु िकया। उसके बाद आसुरी सवभाववाले लोगो के पतन की बात कही और कहा
िक काम, कोध और लोभ ही आसुरी संपित के मुखय अवगुण है और वे तीनो नरक के िार है ।
उनका तयाग करके आतमकलयाण के िलए जो साधन करता है वह परम गित को पाता है । उसके
बाद कहा िक शासिविध का तयाग करके इचछा और बुिद को अचछा लगे ऐसा करने वाले को अपने उन कमो का िल नहीं िमलता है । िसिद की इचछा रखकर िकये गये कमु से िसिद नहीं िमलती है । इसिलए करने योगय अथवा न करने योगय कमो की वयवसथा दशान ु ेवाले शासो के िवधान के अनुसार ही तुझे िनषकाम कमु करने चािहए।(अनुकम)
इस उपदे श से अजुन ु के मन मे शंका हुई िक जो लोग शासिविध छोडकर इचछानुसार
कमु करते है , उनके कमु िनषिल हो वह तो ठीक है लेिकन ऐसे लोग भी है जो शासिविध न
जानने से तथा दस ु ू रे कारणो से शासिविध छोडते है , ििर भी यजपूजािद शुभ कमु तो शदापूवक करते है , उनकी कया िसथित होती है ? यह जानने की इचछा से अजुन ु भगवान से पूछते है -
।। अथ सप दशोऽधयायः ।। अजुु न उ वाच
ये शास िविध मुतसजय यजनत े श दया िनवताः। तेष ां िनिा त ु का क ृषण सिवमाहो रजसत
मः।। 1।।
अजुन ु बोलेः हे कृ षण ! जो शासिविध छोडकर (केवल) शदायुि होकर पूजा करते है , उनकी िसथित कैसी होती है ? साििवक, राजसी या तामसी?(1)
शीभगवान ुवाच
िि िवधा भ वित श दा दे िहना ं सा स वभावजा।
साििवकी राजसी च
ैव ता मसी च े ित ता ं श ृणु।। 2।।
शी भगवान बोलेः मनुषयो की वह शासीय संसकारो से रिहत केवल सवभाव से उतपनन
शदा साििवकी और राजसी तथा तामसी – ऐसे तीनो पकार की ही होती है । उसको तू मुझसे सुन।
सिवान ुरपा स वु सय शदा भवित शदामय ोऽय ं प ुरषो यो
भारत।
यच छदः स एव स ः।। 3।।
हे भारत ! सभी मनुषयो की शदा उनके अनतःकरण के अनुरप होती है । यह पुरष शदामय है , इसिलए जो पुरष जैसी शदावाला है , वह सवयं भी वही है ।(3)
यजनत े साििव का देवानयकरका ं िस राजसाः।
पेतान भूतगण ांिान ये यजनत े तामसा जनाः।।
4।।
साििवक पुरष दे वो को पूजते है , राजस पुरष यक और राकसो को तथा अनय जो तामस मनुषय है वे पेत और भूतगणो को पूजते है ।(4)
अशासिव िहत ं िोर ं तपयनत े य े तपो जनाः।
दमभाह ंकारस ंय ुिाः कामरागबला
िनवताः।। 5।।
कशु यन तः शरीरसथ ं भूतगाम मचेत सः।
मां च ैवानतः शरीरस थं तािनवदयास ुरिनियान। ् ।6।।
जो मनुषय शासिविध से रिहत केवल मनःकिलपत िोर तप को तपते है तथा दमभ और
अहं कार से युि तथा कामना, आसिि और बल के अिभमान से भी युि है । जो शरीररप से
िसथत भूतसमुदाय को और अनतःकरण मे िसथत मुझ परमातमा को भी कृ श करने वाले है , उन अजािनयो को तू आसुर-सवभाव वाले जान।
आहारसतविप सव ु सय िि िव धो भवित
िपयः।
यजसतपसत था दान ं तेष ां भ ेदिम मं श ृणु।। 7।। भोजन भी सबको अपनी-अपनी पकृ ित के अनुसार तीन पकार का िपय होता है । और वैसे
ही यज, तप और दान बी तीन-तीन पकार के होते है । उनके इस पथ ृ क् -पथ ृ क् भेद को तू मुझसे सुन।(7) (अनुकम)
आयु ः सिवबलारोग यसुखपी ितिवव धु नाः। रसया िसनगधाः
िसथरा हदा
आ हाराः साििवक
िपयाः।। 8।।
आयु, बुिद, बल, आरोगय, सुख और पीित को बढाने वाले, रसयुि, िचकने और िसथर रहने वाले तथा सवभाव से ही मन को िपय – ऐसे आहार अथात ु ् भोजन करने के पदाथु साििवक पुरष को िपय होते है ।(8)
कट वमललवणातय ुषणतीकणरकिवदािहन
आहार ा राजससय े षा द ु ःखशोकामयपदाः।।
ः। 9।।
कडवे, खटटे , लवणयुि, बहुत गरम, तीखे, रखे, दाहकारक और दःुख, िचनता तथा रोगो को
उतपनन करने वाले आहार अथात ु ् भोजन करने के पदाथु राजस पुरष को िपय होते है ।(9) यातयाम ं गतरस ं प ू ित पय ु िषत ं च यत।्
उिचछ षम िप चाम े धयं भोजन ं ताम सिपयम।् ।10।। जो भोजन अधपका, रसरिहत, दग ु धयुि, बासी और उिचछष है तथा जो अपिवि भी है वह ु न
भोजन तामस पुरष को िपय होता है ।(10)
अिलाक ांिक िभय ु जो िव िधदषो य इजयत े।
यषवयम ेव ेित मन ः समा धा य स सा ििवकः।। 11।। जो शासिविध से िनयत यज करना ही कतवुय है – इस पकार मन को समाधान करके,
िल न चाहने वाले पुरषो िारा िकया जाता है , वह साििवक है ।(11)
अिभस ंधाय तु िल ं दम भाथ ु म िप च ैव यत।्
इजयत े भरतश े ि त ं यज ं िविद राजसम। ् ।12।।
परनतु हे अजुन ु ! केवल दमभाचरण के िलए अथवा िल को भी दिष मे रखकर जो यज
िकया जाता है , उस यज को तू राजस जान।
िविध हीनमस ृ षानन ं म ं िहीनमदिकण म।्
शदािवर िहत ं यज ं ता मसं पिर चकत े।। 13।। शासिविध से हीन, अननदान से रिहत, िबना मंिो के, िबना दिकणा के और िबना शदा के
िकये जाने वाले यज को तामस यज कहते है ।(13)
देव ििज गुरपाजप ूजन ं श ौचमाज ु व म।्
बहचय ु म िहंसा च शारीर ं तप उ चयत े।। 14।। दे वता, बाहण, गुर और जानीजनो का पूजन, पिविता, सरलता, बहचयु और अिहं सा – शरीर
समबनधी तप कहा जाता है ।(14)
अनुिे गकर ं वाकय ं सतय ं िपय िहत ं च यत।्
सवाधयायाभ यसन ं च ै व वाङ मय ं त प उचयत े।। 15।। जो उिे ग ने करने वाला, िपय और िहतकारक व यथाथु भाषण है तथा जो वेद-शासो के
पठन का एवं परमेशर के नाम-जप का अभयास है - वही वाणी समबनदी तप कहा जाता है ।(15) (अनुकम)
मन ःपसादः स ौमयतव ं मौनमातम िविनग हः। भावस ं शुिदिरत येततपो मानस मुचयत े।। 16।।
मन की पसननता, शानतभाव, भगवद िचनतन करने का सवभाव, मन का िनगह और अनतःकरण के भावो को भली भाँित पिविता – इस पकार यह मन-समबनधी तप कहा जाता है । (16) शदया परया तप ं तपसत ितििवध ं नर ैः। अिलाका ं िकिभ युु िैः साििव कं पिर चकत े।। 17।।
िल को न चाहने वाले योगी पुरषो िारा परम शदा से िकये हुए उस पूवोि तीन पकार
के तप को साििवक कहते है ।(17)
सत कारमा नपूजाथ ु त पो द मभेन चैव यत।्
िकयत े तिद ह पोि ं राजस ं च लम धुव म।् । 18।।
जो तप सतकार, मान और पूजा के िलए तथा अनय िकसी सवाथु के िलए भी सवभाव से या पाखणड से िकया जाता है , वह अिनिित और किणक िलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है । (18) मूढगाह ेणातमन ो यतपीडय ा िकयत े तप ः। परसयोतसादनाथ ा वा तत मसम ुदाहत म।् ।19।।
जो तप मूढतापूवक ु हठ से, मन वाणी और शरीर की पीडा के सिहत अथवा दस ू रे का
अिनष करने के िलए िकया जाता है वह तप तामस कहा गया है ।(19)
दातवयिम ित यदा नं दीयत ेऽन ुपाकािरण े।
दे शे काल े च पाि े च तदान ं सा ििवकं सम ृ तम।् । 20।।
दान दे ना ही कतवुय है – ऐसे भाव से जो दान दे श तथा काल और पाि के पाप होने पर उपकार न करने वाले के पित िदया जाता है , वह दान साििवक कहा गया है ।(20) यतु पतय ुपकार ाथा ि लमु िदशय वा प ुनः।
दीयत े च पिर िकलष ं तदान ं राजस ं सम ृ तम।् ।21।।
िकनतु जो दान कलेशपूवक ु तथा पतयुपकार के पयोजन से अथवा िल को दिष मे रखकर ििर िदया जाता है , वह दान राजस कहा गया है ।(21)
अदेशकाल े यदानमपाि ेभयि दीयत े।
असतकृतमवजात ं तताम समुदाहतम। ् । 22।।
जो दान िबना सतकार के अथवा ितरसकारपूवक ु अयोगय दे श-काल मे कुपाि के पित िदया जाता है , वह दान तामस कहा गया है ।(22) (अनुकम)
ॐ तत सिद ित िनद े शो बहणिस िवध ः सम ृ त ः।
बाहणासत ेन व ेदाि यजाि
िव िहताः प ुरा।। 23।।
ॐ, तत ्, सत ्, - ऐसे यह तीन पकार का सिचचदाननदिन बह का नाम कहा है ः उसी से
सिृष के आिद काल मे बाहण और वेद तथा यजािद रचे गये।(23)
तसमादो िमतय ुदाहत य यजदा नतप ः िकयाः।
पवत ु नते िवधानोिाः सत
तं बहवािदनाम। ् ।24।।
इसिलए वेद-मनिो का उचचारण करने वाले शि े पुरषो की शासिविध से िनयत यज, दान और तपरप िकयाएँ सदा 'ॐ' इस परमातमा के नाम को उचचारण करके ही आरमभ होती है । तिदतयनिभस ं धाय ि लं यजतपः
दानिकयाि
िकयाः
िविव धाः िकयनत े मोकक ांिक िभः ।। 25।।
तत ् अथात ु ् 'तत ्' नाम से कहे जाने वाले परमातमा का ही यह सब है – इस भाव से िल
को न चाह कर नाना पकार की यज, तपरप िकयाएँ तथा दानरप िकयाएँ कलयाण की इचछावाले पुरषो िारा की जाती है ।(25)
सदाव े साध ु भाव े च सिदत येततपय ुजयत े।
पशसत े कम ु िण तथा स चछबदः पा थु युज यते।। 26।। 'सत ्' – इस पकार यह परमातमा का नाम सतयभाव मे और शि े भाव मे पयोग िकया जाता
है तथा हे पाथु ! उतम कमु मे भी 'सत '् शबद का पयोग िकया जाता है ।(26)
यजे तप िस दा ने च िसथ ितः स िद ित चोचयत े। कमु चैव त दथीय ं स िदत येवािभ धीयत े।। 27।।
तथा यज, तप और दान मे जो िसथित है , वह भी 'सत ्' इस पकार कही जाती है और उस
परमातमा के िलए िकया हुआ कमु िनियपूवक ु सत ् – ऐसे कहा जाता है ।(27) अशदया हु तं दत ं तपसतप ं कृत ं च यत।्
अस िदतय ुचयत े पा थु न च ततप ेतय नो इह।। 28।। हे अजुन ु ! िबना शदा के िकया हुआ हवन, िदया हुआ दान व तपा हुआ तप और जो कुछ
भी िकया हुआ शुभ कमु है – वह समसत 'असत ्' – इस पकार कहा जाता है , इसिलए वह न तो इस लोक मे लाभदायक है और न मरने के बाद ही।(28) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन ु संवादे शदाियिवभागयोगो नाम सपदशोऽधयायः ।।17।। इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे शदाियिवभागयोग नामक सिहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
अठारहव े अ धयाय का माहा
तमय
शीपाव ु तीजी न े क हाः भगवन ! आपने सिहवे अधयाय का माहातमय बतलाया। अब
अठारहवे अधयाय के माहातमय का वणन ु कीिजए।
शीम हाद ेवजी न क हाः िगिरनिनदनी ! िचनमय आननद की धारा बहाने वाले अठारहवे
अधयाय के पावन माहातमय को जो वेद से भी उतम है , शवण करो। वह समपूणु शासो का
सवस ु व, कानो मे पडा हुआ रसायन के समान तथा संसार के यातना-जाल को िछनन-िभनन करने
वाला है । िसद पुरषो के िलए यह परम रहसय की वसतु है । इसमे अिवदा का नाश करने की पूणु कमता है । यह भगवान िवषणु की चेतना तथा सवश ु ि े परम पद है । इतना ही नहीं, यह िववेकमयी लता का मूल, काम-कोध और मद को नष करने वाला, इनद आिद दे वताओं के िचत का िवशाममिनदर तथा सनक-सननदन आिद महायोिगयो का मनोरं जन करने वाला है । इसके पाठमाि से
यमदत ु ा बनद हो जाती है । पावत ु ी ! इससे बढकर कोई ऐसा रहसयमय उपदे श नहीं है , ू ो की गजन जो संतप मानवो के िििवध ताप को हरने वाला और बडे -बडे पातको का नाश करने वाला हो। अठारहवे अधयाय का लोकोतर माहातमय है । इसके समबनध मे जो पिवि उपाखयान है , उसे भििपूवक ु सुनो। उसके शवणमाि से जीव समसत पापो से मुि हो जाता है ।
मेरिगिर के िशखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है । उसे पूवक ु ाल मे िवशकमाु ने
बनाया था। उस पुरी मे दे वताओं िारा सेिवत इनद शची के साथ िनवास करते थे। एक िदन वे सुखपूवक ु बैठे हुए थे, इतने ही मे उनहोने दे खा िक भगवान िवषणु के दत ू ो से सेिवत एक अनय पुरष वहाँ आ रहा है । इनद उस नवागत पुरष के तेज से ितरसकृ त होकर तुरनत ही अपने
मिणमय िसंहासन से मणडप मे िगर पडे । तब इनद के सेवको ने दे वलोक के सािाजय का मुकुट इस नूतन इनद के मसतक पर रख िदया। ििर तो िदवय गीत गाती हुई दे वांगनाओं के साथ सब दे वता उनकी आरती उतारने लगे। ऋिषयो ने वेदमंिो का उचचारण करके िदये। गनधवो का लिलत सवर मे मंगलमय गान होने लगा।
उनहे अनेक आशीवाद ु
इस पकार इस नवीन इनद का सौ यजो का अनुिान िकये िबना ही नाना पकार के उतसवो से सेिवत दे खकर पुराने इनद को बडा िवसमय हुआ। वे सोचने लगेः 'इसने तो मागु मे न कभी पौसले (पयाऊ) बनवाये है , न पोखरे खुदवाये है और न पिथको को िवशाम दे ने वाले बडे -बडे वक ृ ही लगवाये है । अकाल पडने पर अनन दान के िारा इसने पािणयो का सतकार भी नहीं
िकया है । इसके िारा तीथो मे सि और गाँवो मे यज का अनुिान भी नहीं हुआ है । ििर इसने यहाँ भागय की दी हुई ये सारी वसतुएँ कैसे पाप की है ? इस िचनता से वयाकुल होकर इनद
भगवान िवषणु से पूछने के िलए पेमपूवक ु कीरसागर के तट पर गये और वहाँ अकसमात अपने सािाजय से भष होने का दःुख िनवेदन करते हुए बोलेः
'लकमीकानत ! मैने पूवक ु ाल मे आपकी पसननता के िलए सौ यजो का अनुिान िकया था।
उसी के पुणय से मुझे इनदपद की पािप हुई थी, िकनतु इस समय सवगु मे कोई दस ू रा ही इनद
अिधकार जमाये बैठा है । उसने तो न कभी धमु का अनुिान िकया है न यजो का ििर उसने मेरे िदवय िसंहासन पर कैसे अिधकार जमाया है ?'(अनुकम)
शीभ गवान बोल े ः इनद ! वह गीता के अठारहवे अधयाय मे से पाँच शोको का पितिदन
पाठ करता है । उसी के पुणय से उसने तुमहारे उतम सािाजय को पाप कर िलया है । गीता के
अठारहवे अधयाय का पाठ सब पुणयो का िशरोमिण है । उसी का आशय लेकर तुम भी पद पर िसथर हो सकते हो।
भगवान िवषणु के ये वचन सुनकर और उस उतम उपाय को जानकर इनद बाहण का वेष
बनाये गोदावरी के तट पर गये। वहाँ उनहोने कािलकागाम नामक उतम और पिवि नगर दे खा, जहाँ काल का भी मदु न करने वाले भगवान कालेशर िवराजमान है । वही गोदावर तट पर एक
परम धमातुमा बाहण बैठे थे, जो बडे ही दयालु और वेदो के पारं गत िविान थे। वे अपने मन को वश मे करके पितिदन गीता के अठारहवे अधयाय का सवाधयाय िकया करते थे। उनहे दे खकर इनद ने बडी पसननता के साथ उनके दोनो चरणो मे मसतक झुकाया और उनहीं अठारहवे
अधयाय को पढा। ििर उसी के पुणय से उनहोने शी िवषणु का सायुजय पाप कर िलया। इनद आिद दे वताओं का पद बहुत ही छोटा है , यह जानकर वे परम हषु के साथ उतम वैकुणठधाम को गये। अतः यह अधयाय मुिनयो के िलए शि े परम तिव है । पावत ु ी ! अठारहवे अधयाय के इस िदवय माहातमय का वणन ु समाप हुआ। इसके शवण माि से मनुषय सब पापो से छुटकारा पा
जाता है । इस पकार समपूणु गीता का पापनाशक माहातमय बतलाया गया। महाभागे ! जो पुरष शदायुि होकर इसका शवण करता है , वह समसत यजो का िल पाकर अनत मे शीिवषणु का सायुजय पाप कर लेता है ।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
अठारहवा ँ अ धयायः मो कसंनयासयोग
दस ू रे अधयाय के 11 वे शोक से शीमद भगवद गीता के उपदे श का आरमभ हुआ है । वहाँ
से लेकर 30 वे शोक तक भगवान ने जानयोग का उपदे श िदया है और बीच मे कािधमु की दिष से युद का कतवुय बता कर 39 वे शोक से अधयाय पूरा हो तब तक कमय ु ोग का उपदे श िदया है । ििर तीसरे अधयाय से सिहवे अधयाय तक िकसी जगह पर जानयोग के िारा तो िकसी
जगह कमय ु ोग के िारा परमातमा की पािप बतायी गयी है । यह सब सुनकर अजुन ु इस अठारहवे अधयाय मे सवु अधयायो के उदे शय का सार जानने के िलए भगवान के समक संनयास यानी
जानयोग का और तयाग यानी िलासििरिहत कमय ु ोग का तिव अलग-अलग से समझने की इचछा पकट करते है ।
।। अथ ाषादशो ऽधयायः ।। संनयाससय
अजुु न उ वाच
म हाबाहो तिविम
चछािम वेिदत ुम।्
तयागसय च हषीक े श प ृ थकके िशिनष ू दन।। 1।।
अजुन ु बोलेः हे महाबाहो ! हे अनतयािुमन ् ! हे वासुदेव ! मै संनयास और तयाग के तिव को
पथ ृ क-पथ ृ क जानना चाहता हूँ।
शीभगवान ुवाच कामयाना ं कम ु ण ां नयास ं कवयो िवद ु ः।
सव ु क मु िलतयाग ं पाह ु सतयाग ं िव चकणाः।। 2।।
शी भगवान बोलेः िकतने ही पिणडतजन तो कामय कमो के तयाग को संनयास समझते है
तथा दस ू रे िवचारकुशल पुरष सब कमो के िल के तयाग को तयाग कहते है ।(2) तया जयं दोषविदत येके कम ु पाह ु मु नीिषणः
यजदानतपःक मु न तयाजयिमित
चापर े।। 3।।
कुछे क िविान ऐसा कहते है िक कमम ु ाि दोषयुि है , इसिलए तयागने के योगय है और
दस ू रे िविान यह कहते है िक यज, दान और तपरप कमु तयागने योगय नहीं है ।(3) िन ियं श ृणु म े ति तयाग े भरतसत म।
तयागो िह प ु रषवय ाघ िि िवध ः समप कीित ु त ः।। 4।। हे पुरषशि े अजुन ु ! संनयास और तयाग, इन दोनो मे से पहले तयाग के िवषय मे तू मेरा
िनिय सुन। कयोिक तयाग साििवक, राजस और तामस भेद से तीन पकार का कहा गया है ।(4) यजदानतपःक मु न तयाजय ं काय ु मेव तत।्
यजो दान ं तप िैव पावनािन
मनी िषणाम।् ।5।।
यज, दान और तपरप कमु तयाग करने के योगय नहीं है , बिलक वह तो अवशय कतवुय है ,
कयोिक यज, दान और तप – ये तीनो ही कमु बुिदमान पुरषो को पिवि करने वाले है ।(5)
एतानयिप त ु कमा ु िण स ङगं तयकतवा
ि लािन च।
कत ु वया नीित म े पाथ ु िनि तं मतम ुतम म।् ।6।।
इसिलए हे पाथु ! इन यज, दान और तपरप कमो को तथा और भी समपूणु कतवुयकमो को आसिि और िलो का तयाग करके अवशय करना चािहए; यह मेरा िनिय िकया हुआ उतम मत है ।(6)
िनयतसय
मोहातसय
तु स ंनयास ः कम ु णो नोपपदत े।
प िरतय ागस तामसः प िरकीित ु तः।। 7।।
(िनिषद और कामय कमो का तो सवरप से तयाग करना उिचत ही है ।) परनतु िनयत कमु
का सवरप से तयाग उिचत नहीं है । इसिलए मोह के कारण उसका तयाग कर दे ना तामस तयाग कहा गया है ।(7) (अनुकम)
द ु ःखिमत येव यतकम ु कायकल ेश भया ियज ेत।्
स कृतवा राजस ं तय ागं न ैव तयागिल ं ल भेत।् ।
जो कुछ कमु है , वह सब दःुखरप ही है , ऐसा समझकर यिद कोई शारीिरक कलेश के भय
से कतवुय-कमो का तयाग कर दे , तो वह ऐसा राजस तयाग करके तयाग के िल को िकसी पकार भी नहीं पाता।(8)
काय ु िमतय ेव यतकम ु िनयत ं िकयत ेऽज ु न।
सङगतयकतवा िल ं च ैव स तयागः सा
ििवको मत ः।। 9।।
हे अजुन ु ! जो शासिविहत कम ु करना कतवुय है – इसी भाव से आसिि और िल का
तयाग करके िकया जाता है वही साििवक तयाग माना गया है ।(9)
न िेषटयकुशल ं क मु कुशल े नान ुषजजत े।
तयागी सिव समािवषो म े धावी िछन नसंशयः।। 10।। जो मनुषय अकुशल कमु से िे ष नहीं करता और कुशल कमु मे आसि नहीं होता – वह
शुद सिवगुण से युि पुरष संशयरिहत, बुिदमान और सचचा तयागी है ।(10) न िह देहभ ृ ता श कयं तयिुं कमा ु णयश ेषतः।
यसत ु कम ु ि लतय ागी स तयागीतयिभ
धीयत े।। 11।।
कयोिक शरीरधारी िकसी भी मनुषय के िारा समपूणत ु ा से सब कमो का तयाग िकया जाना
शकय नहीं है इसिलए जो कमि ु ल का तयागी है , वही तयागी है – यह कहा जाता है ।(11) अिनष िमष ं िमश ं च िि िवध ं कम ु ण ः िलम।्
भवतयतयािगना ं प ेतय न त ु स ंनयािसना ं कव िचत ।् । 12।।
कमि ु ल का तयाग न करने वाले मनुषयो के कमो का तो अचछा-बुरा और िमला हुआ –
ऐसे तीन पकार का िल मरने के पिात ् अवशय होता है , िकनतु कमि ु ल का तयाग कर दे ने वाले मनुषयो के कमो का िल िकसी काल मे भी नहीं होता।(12)
पं चैतािन महाबाहो कारणािन िनबोध म सांखय े कृ तानत पोिािन िसद
े।
ये सव ु क मु णाम।् । 13।।
हे महाबाहो ! समपूणु कमो की िसिद के ये पाँच हे तु कमो का अनत करने के िलए उपाय बतलाने वाले साखयशास मे कहे गये है , उनको तू मुझसे भली भाँित जान।(13) अिध िान ं त था कता ु करण ं च प ृ थिगव धम।्
िविव धाि प ृ थकच ेषा द ैव ं च ैवाि प ंच मम।् । 14।।
इस िवषय मे अथात ु ् कमो की िसिद मे अिधिान और कताु तथा िभनन-िभनन पकार के
करण और नाना पकार की अलग-अलग चेषाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हे तु दै व है ।(14) शरीरवाङ
मनो िभय ु तकम ु पारभत े नरः।
नयायय ं वा िव परीत ं वा प ं चैत े तसय ह ेतवः।। 15।।
मनुषय मन, वाणी और शरीर से शासानुकूल अथवा िवपरीत जो कुछ भी कमु करता है – उसके ये पाँचो कारण है ।(15) (अनुकम)
तिैव ं स ित कता ु रमातमान ं केव लं त ु यः।
पशयत यकृतब ुिदतवा नन स पशयित द ु मु ितः।। 16।।
परनतु ऐसा होने पर भी जो मनुषय अशुद बुिद होने के कारण उस िवषय मे यानी कमो के होने मे केवल शुदसवरप आतमा को कताु समझता है , वह मिलन बुिदवाला अजानी यथाथु नहीं समझता।(16)
यसय ना ं हकृतो भावो ब ुिदय ु सय न िल पयत े।
हतवा िप स इ माँल लोकानन
ह िनत न िनबधयत े।। 17।।
िजस पुरष के अनतःकरण मे 'मै कताु हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा िजसकी बुिद सांसािरक
पदाथो मे और कमो मे लेपायमान नहीं होती, वह पुरष इन सब लोको को मारकर भी वासतव मे न तो मरता है और न पाप से बँधता है ।(17)
जान ं जेय ं प िरजाता
िि िवधा कम ु चोदना।
करण ं कम ु कत े ित िििव धः क मु कंग हः।। 18।।
जाता, जान और जेय – ये तीन पकार की कमु-पेरणा है और कताु, करण तथा िकया ये तीन पकार का कमु संगह है ।(18)
जान ं क मु च कता ु च िि धैव ग ुणभ ेद तः।
पोचयत े गुणस ंखयान े यथावचछ ृण ु तानयिप।।
19।।
गुणो की संखया करने वाले शास मे जान और कमु तथा कताु गुणो के भेद से तीन-तीन पकार के ही कहे गये है , उनको भी तू मुझसे भली भाँित सुन।(19)
सवु भूत ेष य ेन ैकं भ ावमवययमीकत े।
अिवभिं िवभिेष ु तजजान ं िविद स ाििवकम। ् । 20।।
िजस जान से मनुषय पथ ृ क-पथ ृ क सब भूतो मे एक अिवनाशी परमातमभाव को िवभागरिहत समभाव से िसथत दे खता है , उस जान को तू साििवक जान।(20)
पृ थकतव ेन त ु यजजा नं ना नाभावानप ृ थ िगवधान। ्
वेित सव े षु भ ूत ेष ु तजजान ं िविद राजसम। ् ।21।।
िकनतु जो जान अथात ु ् िजस जान के िारा मनुषय समपूणु भूतो मे िभनन-िभनन पकार के
नाना भावो को अलग-अलग जानता है , उस जान को तू राजस जान।(21)
यतु कृतसनवद ेकिसम नकाय े सि महैत ुकम।्
अतिवाथ ु वदल पं च ततामस मुदाहतम। ् ।22।।
परनतु जो जान एक कायर ु प शरीर मे ही समपूणु के सदश आसि है तथा जो िबना युििवाला, ताििवक अथु से रिहत और तुचछ है – वह तामस कहा गया है ।(22) (अनुकम) िनयत ं स ंगरिह तमरागि ेषत ः कृतम।्
अिलप ेतस ुना क मु यततसाििवकम ुचयत े।। 23।।
जो कमु शासिविध से िनयत िकया हुआ और कताप ु न के अिभमान से रिहत हो तथा
िल न चाहने वाले पुरष िारा िबना राग-िे ष के िकया गया हो – वह साििवक कहा जाता है । (23) यतु काम ेपस ुना कम ु साह ंकार ेण वा प ुनः। िकयत े बह ु लायास ं तदजासम ुदाहतम। ् । 24।।
परनतु जो कमु बहुत पिरशम से युि होता है तथा भोगो को चाहने वाले पुरष िारा या
अहं कारयुि पुरष िारा िकया जाता है , वह कमु राजस कहा गया है ।(24)
अनुब नधं कय ं िह ं सामनव ेक य च पौरष म।्
मो हादा रभयत े कम ु यततामसम ुचयत े।। 25।।
जो कमु पिरणाम, हािन, िहं सा और सामथयु को न िवचार कर केवल अजान से आरमभ िकया जाता है , वह तामस कहा जाता है ।(25)
मुिंस ं गोऽनह ंवादी ध ृ तयुतसाहसम िनवत ः।
िसदय िसदय ोिन ु िव ु कारः कता ु साििवक उ चयत े।। 26।।
जो कताु संगरिहत, अहं कार के वचन न बोलने वाला, धैयु और उतसाह से युि तथा कायु के िसद होने और न होने मे हषु-शोकािद िवकारो से रिहत है – वह साििवक कहा जाता है ।(26) रागी कम ु ि लपेपस ुल ु बधो िहंसातमकोऽ शुिच ः।
हषु शोका िनवतः क ताु राजस ः पिरकी ित ु त ः।। 27।।
जो कताु आसिि से युि, कमो के िल को चाहने वाला और लोभी है तथा दस ू रो को कष
दे ने के सवभाववाला, अशुदाचारी और हषु-शोक से िलप है – वह राजस कहा गया है ।(27) आयुि ः पाक ृतः स तबधः श ठो न ैषकृितकोऽ लस ः।
िवषादी
दीि ु सू िी च कता ु तामस उ चयत े।।
जो कताु अयुि, िशका से रिहत, िमंडी, धूतु और दस ू रो की जीिवका का नाश करने वाला
तथा शोक करने वाला, आलसी और दीिस ु ूिी है – वह तामस कहा जाता है ।(28) बुदेभ े दं ध ृ तेि ैव ग ुणत िसिवध ं श ृणु।
पोचयमानमश ेष ेण प ृ थकतव ेन ध नंजय।। 29।। हे धनंजय ! अब तू बुिद का और धिृत का भी गुणो के अनुसार तीन पकार का भेद मेरे
िारा समपूणत ु ा से िवभागपूवक ु कहा जाने वाला सुन।(29)
पव ृ ितं च िनव ृ ितं च काय ाु काय े भयाभय े।
बनध ं मोक ं च या व ेित ब ुिद ः सा पाथ ु सा ििवकी।। 30।। हे पाथु ! जो बुिद पविृतमागु और िनविृतमागु को, कतवुय और अकतवुय को, भय और
अभय को तथा बनधन और मोक को यथाथु जानती है – वह बुिद साििवकी है ।(30) (अनुकम) यया ध मु म धम ा च काय ा च ाकाय ु मेव च ।
अयथावतपजानाित ब
ुिद ः सा पाथ ु राजसी।। 31।।
हे पाथु ! मनुषय िजस बुिद के िारा धमु और अधमु को तथा कतवुय और अकतवुय को
भी यथाथु नहीं जानता, वह बुिद राजसी है ।
अध मा ध मु िम ित या म नयत े तम साव ृ ता।
सवा ु थाु िनवपरीता ं ि ब ुिदः स ा पाथ ु तामसी।। 32।। हे अजुन ु ! जो तमोगुण से ििरी हुई बुिद अधमु को भी 'यह धमु है ' ऐसा मान लेती है
तथा इसी पकार अनय समपूणु पदाथो को भी िवपरीत मान लेती है , वह बुिद तामसी है ।(32) धृ तया यया धारयत े मनःपाण े िनदयिकयाः।
योग ेनाव यिभचािरणया ध ृ ितः सा पाथ ु साििव की।। 33।। हे पाथु ! िजस अवयिभचािरणी धारणशिि से मनुषय धयानयोग के िारा मन, पाण और
इिनदयो की िकयाओं को धारण करता है , वह धिृत साििवकी है ।(33)
यय ा त ु ध मु कामाथा ु नध ृ तया ध ार यतेऽ जुु न।
पसंग ेन िलाक ांकी ध ृ ितः स ा पाथ ु राजसी।। 34।। परं तु हे पथ ृ ापुि अजुन ु ! िल की इचछावाला मनुषय िजस धारणशिि के िारा अतयनत
आसिि से धमु, अथु और कामो को धारण करता है , वह धारणशिि राजसी है । (34) यया सवपन ं भय ं शोक ं िवषाद ं म दमेव च।
न िवम ुं चित द ु मे धा ध ृ ित ः सा पाथ ु ताम सी।। 35।।
हे पाथु ! दष ु बुिदवाला मनुषय िजस धारणशिि के िारा िनदा, भय, िचनता और दःुख को
तथा उनमतता को भी नहीं छोडता अथात ु ् धारण िकये रहता है – वह धारणशिि तामसी है ।(35) सुख ं ितवदानी ं िि िवध ं श ृणु म े भर तष ु भ।
अभयसाद मते यि द ु ःखानत ं च िनग चछित।। 36।। यतदग े िव षिमद प िरणाम ेऽम ृ तोपमम।्
ततस ुख ं सा ििवकं पोिमातमब ुिदप सादजम।् । 37।। हे भरतशि े ! अब तीन पकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। िजस सुख मे साधक मनुषय
भजन, धयान और सेवािद के अभयास से रमण करता है और िजससे दःुखो के अनत को पाप हो जाता है – जो ऐसा सुख है , वह आरमभकाल मे यदिप िवष के तुलय पतीत होता है , परं तु
पिरणाम मे अमत ृ के तुलय है । इसिलए वह परमातमिवषयक बुिद के पसाद से उतपनन होने वाला सुख साििवक कहा गया है ।(36, 37) (अनुकम)
िवषय े िनदयस ंयोगादतदग ेऽम ृ तोपमम।्
पिरणाम े िवष िमव ततस ुख ं राजस ं स मृ तम।् ।38।।
जो सुख िवषय और इिनदयो के संयोग से होता है , वह पहले भोगकाल मे अमत ृ के तुलय पतीत होने पर भी पिरणाम मे िवष के तुलय है , इसिलए वह सुख राजस कहा गया है ।(38) यदग े चान ुब नधे च स ुख ं मोहनमातमनः।
िनदा लसयपमादोत थं ततामसम ुदाहत म।् ।39।।
जो सुख भोगकाल मे तथा पिरणाम मे भी आतमा को मोिहत करने वाला है – वह िनदा, आलसय और पमाद से उतपनन सुख तामस कहा गया है ।(39)
न त दिसत प ृ िथवया ं व िद िव द ेव ेष ु वा प ुनः
सिव ं पकृ ितज ैम ु िं यद ेिभ ःसयाितििभ गुु णैः।। 40।।
पथ ृ वी मे या आकाश मे अथवा दे वताओं मे तथा इनके िसवा और कहीं भी वह ऐसा कोई भी सिव नहीं है , जो पकृ ित से उतपनन इन तीनो गुणो से रिहत हो।(40)
बाहणक िियिव शां श ूदाणा ं च पर ंतप।
कमाु िण पिव भिािन सवभावप
भवैग ु णैः।। 41।।
हे परं तप ! बाहण, कििय और वैशयो के तथा शूदो के कमु सवभाव िवभि िकये गये है ।(41)
उतपनन गुणो िारा
शमो द मसतप ः शौच ं का िनतराज ु वमेव च । जान ं िवजा नमा िसतकय ं ब हकम ु सव भावजम।् ।42।।
अनतःकरण का िनगह करना, इिनदयो का दमन करना, धमप ु ालन के िलए कष सहना, बाहर-भीतर से शुद रहना, दस ू रो के अपराधो को कमा करना, मन, इिनदय और शरीर को सरल
रखना, वेद,-शास, ईशर और परलोक आिद मे शदा रखना, वेद-शासो का अधययन-अधयापन करना और परमातमा के तिव का अनुभव करना – ये सब-के-सब ही बाहण के सवाभािवक कमु है ।(42) शौय ा तेजो ध ृ ितदा ु कयं युदे चापयपलाय नम।्
दानमीशरभावि काि
ं क मु सवभावज म।् ।43।।
शूरवीरता, तेज, धैय,ु चतुरता और युद मे न भागना, दान दे ना और सवामीभाव – ये सबके-सब ही कििय के सवाभािवक कमु है ।(43)
कृ िषगौरकयवािणजय
ं वैश यकम ु स वभावजम। ्
पिरचया ु तमकं कम ु शूदसयािप सव भावजम।् । 44।।
खेती, गौपालन और कय-िवकयरप सतय वयवहार – ये वैशय के सवाभािवक कमु है तथा सब वणो की सेवा करना शूद का भी सवाभािवक कमु है ।(44)
सवे सव े कम ु णय िभरतः स ंिस िदं लभ ते न रः।
सव कम ु िनरतः िस िदं यथा िव नदित त चछृण ु।। 45।।
अपने-अपने सवाभािवक कमो मे ततपरता से लगा हुआ मनुषय भगवतपािपरप परम िसिद
को पाप हो जाता है । अपने सवाभािवक कमु मे लगा हुआ मनुषय िजस पकार से कमु करके परम िसिद को पाप होता, उस िविध को तू सुन।(45) (अनुकम)
यतः पव ृ ित भूु ताना ं य ेन सव ु िमद ं ततम।्
सवकम ु णा त मभयचय ु िसिद ं िवनद ित मानवः।। 46।। िजस परमेशर से समपूणु पािणयो की उतपित हुई है और िजससे यह समसत जगत वयाप
है , उस परमेशर की अपने सवाभािवक कमो िारा पूजा करके मनुषय परम िसिद को पाप हो जाता है ।(46)
शे यानसव धमो िव गुणः परध माु तसवन ुिितात। ्
सवभाविनयत ं क मु कुव ु ननापन ोित िक िलबषम।् । 47।।
अचछी पकार आचरण िकये हुए दस े है , कयोिक ू रे के धमु से गुणरिहत भी अपना धमु शि
सवभाव से िनयत िकये हुए सवधमु कमु को करता हुआ मनुषय पाप को नहीं पाप होता।(47) सहज ं क मु कौनत ेय सदोष मिप न तयज ेत।्
सवाु रमभा िह दोष ेण ध ूम ेनािगनिरवाव ृ ताः।। 48।।
अतएव हे कुनतीपुि ! दोषयुि होने पर भी सहज कमु को नहीं तयागना चािहए, कयोिक धुएँ से अिगन की भाँित सभी कमु िकसी-न-िकसी दोष से युि है ।(48) असिब ुिद ः सव ु ि िजतातमा
िवगतसप ृ हः।
नैषकमय ु िस िदं परमा ं स ंनयास ेनािध गचछित ।। 49।।
सवि ु आसिि रिहत बुिदवाला, सपह ृ ारिहत और जीते हुए अनतःकरणवाला पुरष सांखययोग
के िारा उस परम नैषकमयिुसिद को पाप होता है ।(49) िस िदं पापो
यथा ब ह तथापनोित िनबोध म
समास ेन ैव कौनत ेय िनिा जा नसय या
े।
परा।। 50।।
जो िक जानयोग की परािनिा है , उस नैषकमयु िसिद को िजस पकार से पाप होक मनुषय बह को पाप होता है , उस पकार हे कुनतीपुि ! तू संकेप मे ही मुझसे समझ।(50) (अनुकम)
बुदय ा िव शुदया युिो ध ृ तयातमा नं िनयमय च। शबदादीिनवषया ं सतयक तवा रागि ेषौ वय ुदस य च।। 511। िव िविस ेवी लघ वाशी यतवाकका
यमानसः।
धयानय ोगपरो िनतय ं व ैरा गयं सम ुपा िशत ः।। 52।। अहंकार ं बल ं दप ा काम ं क ोधं पिर गहम।्
िव मुचय िनम ु म ः शा नतो ब हभूयाय क लपत े।। 53।।
िवशुद बुिद से युि तथा हलका, साििवक और िनयिमत भोजन करने वाला, शबदािद िवषयो का तयाग करके एकानत और शुद दे श का सेवन करने वाला, साििवक धारणशिि के िारा अनतःकरण और इिनदयो का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश मे कर लेने वाला तथा
अहं कार, बल, िमणड, काम, कोध और पिरगह का तयाग करके िनरनतर धयानयोग के परायण रहने वाला, ममता रिहत और शािनतयुि पुरष सिचचदाननदिन बह मे अिभननभाव से िसथत होने का पाि होता है ।(51, 52, 53)
बहभ ू तः प सननातमा
न शो चित न क ांकित ।
सम ः सव े षु भ ूत ेष ु मद ििं ल भते पराम। ् । 54।।
ििर वह सिचचदाननदिन बह मे एकीभाव से िसथत, पसनन मनवाला योगी न तो िकसी के िलए शोक करता है और न िकसी की आकांका ही करता है । ऐसा समसत पािणयो मे समभावना वाला योगी मेरी पराभिि को पाप हो जाता है ।(54)
भकतया माम िभजानाित यावानयिािसम तिव
ततो मा ं तिवतो जातवा
तः।
िवशत े तदनन तरम।् । 55।।
उस पराभिि के िारा वह मुझ परमातमा को, मै जो हूँ और िजतना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा
तिव से जान लेता है तथा उस भिि से मुझको तिव से जानकर ततकाल ही मुझमे पिवष हो जाता है ।(55)
सव ु क माु णयिप सदा क ुवा ु णो मद वयापाशयः। मत पसादादवाप नोित श ाशत ं पदमवययम। ् ।56।।
मेरे परायण हुआ कमय ु ोगी तो समपूणु कमो को सदा करता हुआ भी मेरी कृ पा से
सनातन अिवनाशी परम पद को पाप हो जाता है ।(56)
चेत सा स वु कमा ु िण म िय स ं नयसय मतपर ः।
बुिदयोगम ुपा िशतय म िचचत ः सतत ं भ व।। 57।।
सब कमो का मन से मुझमे अपण ु करके तथा समबुिदरप योग को अवलमबन करके मेरे परायण और िनरनतर मुझमे िचतवाला हो।(57)
मिचच तः सव ु द ु गाु िण मतप सादातिरष यिस।
अथ च ेिवमह ं कार ानन शोषयिस
िवनङकयिस।। 58।।
उपयुि ु पकार से मुझमे िचतवाला होकर तू मेरी कृ पा से समसत संकटो को अनायास ही पार कर जायेगा और यिद अहं कार के कारण मेरे वचनो को न सुनेगा तो नष हो जायेगा अथात ु ् परमाथु से भष हो जायेगा।(58)
यदह ंकारमािशतय न
योतसय
इ ित म नयस े।
िम थयैष वयवसा यसत े पकृ ितसतव ां िनयोक यित।। 59।। जो तू अहं कार का आशय न लेकर यह मान रहा है िक 'मै युद नहीं करँ गा' तो तेरा यह
िनिय िमथया है कयोिक तेरा सवभाव तुझे जबरदसती युद मे लगा दे गा।(59) (अनुकम) सवभावज ेन कौनत ेय िनबदः सव ेन कम ु णा।
कतुा नेचछिस यनमोहातकिरषयसयवशोऽ
िप तत।् ।60।।
हे कुनतीपुि ! िजस कमु को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूवक ु ृत
सवाभािवक कमु से बँधा हुआ परवश होकर करे गा।(60)
ईशरः सव ु भूताना ं हद ेश े ऽजुु न िति ित।
भामयनसव ु भू तािन ं य ंिा रढािन मायया।।
61।।
हे अजुन ु ! शरीररप यंि मे आरढ हुए समपूणु पािणयो को अनतयाम ु ी परमेशर अपनी
माया से उनके कमो के अनुसार भमण कराता हुआ सब पािणयो के हदय मे िसथत है ।(61) तमेव शरण ं गच छ सव ु भाव ेन भारत।
ततप सादातपरा ं शािनत ं सथान ं पापसयिस शा शतम।् ।62।। हे भारत ! तू सब पकार से उस परमेशर की शरण मे जा। उस परमातमा की कृ पा से ही
तू परम शािनत को तथा सनातन परम धाम को पाप होगा।(62)
इित ते जा नमाखयात ं गुहद ग ु हतर ं मया।
िव मृ श यैतद शेष ेण यथ े चछिस तथा क ुर।। 63।। इस पकार यह गोपनीय से भी अित गोपनीय जान मैने तुझसे कह िदया। अब तू इस
रहसययुि जान को पूणत ु या भलीभाँित िवचारकर, जैसे चाहता है वैसे ही कर।(63) सवु गुहत मं भ ूयः श ृणु म े परम ं व चः।
इषोऽ िस म े दढ िम ित ततो वकयािम त
े िहत म।् । 64।।
समपूणु गोपिनयो से अित गोपनीय मेरे परम रहसययुि वचन को तू ििर भी सुन। तू
मेरा अितशय िपय है , इससे यह परम िहतकारक वचन मै तुझसे कहूँगा।(64) मनमना भव म द भिो मदाजी
म ां नमसक ु र।
माम ेव ैषयिस स तयं ते प ितजान े िपयोऽिस
मे। 65।।
हे अजुन ु ! तू मुझमे मनवाला हो, मेरा भि बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको
पणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही पाप होगा, यह मै तुझसे सतय पितजा करता हूँ कयोिक तू मेरा अतयनत िपय है ।(65)
सव ु धमा ु नपिरतयजय माम ेकं शरण ं व ज। अहं तवा सव ु पाप ेभयो मोक ियषय ािम मा श ु चः।। 66।।
समपूणु धमो को अथात ु ् समपूणु कतवुय कमो को मुझमे तयागकर तू केवल एक मुझ
सवश ु ििमान सवाध ु ार परमेशर की ही शरण मे आ जा। मै तुझे समपूणु पापो से मुि कर दँग ू ा, तू शोक मत कर।(66) (अनुकम)
इदं त े नातपसकाय
नाभािाय
कदा चन।
न च ाशु शू षवे वाचय ं न च म ां योऽभयस ूय ित।। 67।। तुझे यह गीता रप रहसयमय उपदे श िकसी भी काल मे न तो तपरिहत मनुषय से कहना
चािहए, न भिि रिहत से और न िबना सुनने की इचछावाले से ही कहना चािहए तथा जो मुझमे दोषदिष रखता है उससे तो कभी नहीं कहना चािहए।(67)
य इम ं पर मं ग ुह ं म द भिेषविभ धासयित।
भििं म िय परा ं कृतवा माम ेव ैषयतयस ंशय़ः।। 68।।
जो पुरष मुझमे परम पेम करके इस परम रहसययुि गीताशास को मेरे भिो से कहे गा, वह मुझको ही पाप होगा – इसमे कोई सनदे ह नहीं।(68)
न च त समानमन ुषय ेष ु किि नमे िपयकृतमः।
भिवता न च म े त समादनयः
िपयतरो
भुिव।। 69।।
उससे बढकर मेरा कोई िपय कायु करने वाला मनुषयो मे कोई भी नहीं है तथा पथृवीभर मे उससे बढकर मेरा िपय दस ू रा कोई भिवषय मे होगा भी नहीं।(69)
अध येषयत े च य इ मं धमय ा सं वादमावय ोः।
जान यजेन तेनाह िमषः सया िमित म े म ित ः।। 70।।
जो पुरष इस धमम ु य हम दोनो के संवादरप गीताशास को पढे गा, उसके िारा भी मै जानयज से पूिजत होऊँगा – ऐसा मेरा मत है ।(70)
शदावान नसूयि श ृणुय ाद िप यो नरः
सो ऽिप म ुिः शुभौललोकानपापन
ुया तपुणयक मु णाम।् ।71।।
जो मनुषय शदायुि और दोषदिष से रिहत होकर इस गीताशास को शवण भी करे गा, वह भी पापो से मुि होकर उतम कमु करने वालो के शि े लोको को पाप होगा।(71) किचच देतचछत ं पाथ ु तवय ैकाग ेण च ेत सा।
किचचदजानस ंमोह ः पनषसत े धन ंजय।। 72।।
हे पाथु ! कया इस (गीताशास) को तूने एकागिचत से शवण िकया? और हे धनंजय ! कया तेरा अजानजिनत मोह नष हो गया?(72)
अजुु न उ वाच
नषो मोह ः सम ृ ित लु बधा तवतपासादानमयाचय
ुत।
िसथतो ऽिसम गतस नदेह ः किरष ये वचन ं तव।। 73।। अजुन ु बोलेः हे अचयुत ! आपकी कृ पा से मेरा मोह नष हो गया और मैने समिृत पाप कर
ली है । अब मै संशयरिहत होकर िसथत हूँ, अतः आपकी आजा का पालन करँगा।(73) (अनुकम) संजय उ वाच
इतयह ं वा सुदेवसय पाथ ु सय च म हातमनः। संवाद िममम शौषमद ु तं रोमहष ु णम।् ।74।।
संजय बोलेः इस पकार मैने शीवासुदेव के और महातमा अजुन ु के इस अदभुत रहसययुि, रोमांचकारक संवाद को सुना।(74)
वय ासपासादाचछतवान
े तद ग ुह महं परम।्
योग ं योग ेशरातक ृषणा तसाकातक थयतः सवयम। ् । 75।।
शी वयासजी की कृ पा से िदवय दिष पाकर मैने इस परम गोपनीय योग को अजुन ु के पित कहते हुए सवयं योगेशर भगवान शीकृ षण से पतयक सुना है ।(75)
राजन संसम ृ तय स ंसम ृ तय स ंवाद िमम मद भ ुत म।्
केशवाज ु नयोः प ुणय ं हषयािम च
मुहु मु हुः।। 76।।
हे राजन ! भगवान शीकृ षण और अजुन ु के इस रहसययुि कलयाणकारक और अदभुत संवाद को पुनः-पुनः समरण करके मै बार-बार हिषत ु हो रहा हूँ।(76)
तचच स ं सम ृ तय संसम ृ तय रपमतयद ु तं हर े ः।
िवस मयो मे म हान ् राजनहषया िम च प ुनः प ुन ः।। 77।।
हे राजन ! शी हिर के उस अतयनत िवलकण रप को भी पुनः-पुनः समरण करके मेरे िचत मे महान आियु होता है और मै बार-बार हिषत ु हो रहा हूँ।(77)
यि योग ेशरः क ृषणो यि पाथो धन
ु धु रः
ति शीिव ु जयो भू ितध ु वा नीित मु ित मु म।। 78।।
हे राजन ! जहाँ योगेवशर भगवान शीकृ षण है और जहाँ गाणडीव-धनुषधारी अजुन ु है , वहीं पर शी, िवजय, िवभूित और अचल नीित है – ऐसा मेरा मत है ।(78) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे शीकृ षणाजुन ु संवादे मोकसंनयासयोगो नाम अषादशोऽधयायः ।।18।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के शीकृ षण-अजुन ु संवाद मे मोकसंनयासयोग नामक अठारहवाँ अधयाय संपूणु हुआ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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