Dr Sanjay Alung-The Tribes & Castes of CG(Hindi)

December 17, 2017 | Author: sanjay_alung | Category: N/A
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डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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छत्तीसगढ़ की जनजाततयााँ(Tribes) और जाततयााँ(Castes) (ISBN: 978-81-89559-32-8, मानसी पब्लीके शन,ददल्ली 6)

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डा.संजय अलंग

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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तिषय सुचीीः-

(एक) तिशेष तपछड़ी जनजाततयााँ 1. कमार 2. अबूझमातड़या 3. पहाड़ी कोरिा 4. तबरहोर 5. बैगा (दो) अन्य जनजाततयााँ 1. अगररया 2. भैना 3. भूतमया (भुईंहार) 4. भतरा 5. भुंतजया 6. तबयार 7. बबझिार 8. धनिार 9. गदबा 10. गोंड़ 11. हलबा 12. कं िर 13. खैरिार 14. खररया 15. कोंध 16. कोल 17. माझी 18. मझिार 19. मुण्डा 20. नगेतसया 21. उरााँि 22. पाि 23. परधान 24. पारधी 25. परजा 26. सौंता 27. सिरा डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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(तीन) अनुसतू चत जाततयााँ 1. औधेतलया 2. बसोर 3. बेलदार (सोनकर) 4. भंगी 5. चमार 6. तचकिा 7. देिार 8. डोम 9. गांड़ा 10. घतसया 11. महार (चार) अन्य तपछड़ा िगग की जाततयााँ 1. अहीर (राउत) 2. बैरागी 3. बंजारा 4. बढ़ई 5. ढ़ीमर 6. दजी 7. धोबी 8. गड़ररया 9. कोष्टा (देिााँगन) 10. लोहार 11. सुनार 12. काछी 13. ठठे रा 14. कु म्हार 15. कु रमी 16. कलार 17. कोलता 18. नाई 19. पनका 20. तेली 21. रजिार (पााँच) सामान्य जाततयााँ डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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1. बतनया 2. ब्राह्मण 3. कायस्थ 4. मराठा या मराठी 5. पंजाबी 6. राजपूत 7. तसन्धी 8. ततब्बती

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छत्तीसगढ़ की जनजाततयााँ (Tribes) और जाततयााँ (Castes) -

-डा.संजय अलंग भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में कई जाततयााँ तनिास करती हैं। भारत में और उसी अनुक्रम में राज्य में भी जाततयााँ, संगठनात्मक रूप से, सुदढ़ृ हैं। यह भारतीय सामातजक संरचना का तितशष्ठ रूप है। इनके उल्लेख और अध्ययन के तबना कोई भी सामातजक, आर्थथक, राजनीततक, एततहातसक आदद अध्ययन अधूरा, सतही और अपूणग है। भारत में दकसी भी क्षेत्र के तिकास में जाततयों की अहम भूतमका है और इसमें छत्तीसगढ़ का तिकास भी सम्मतलत है। भारत में न्यूनतम तेरह नस्ल या मानि समूहों के आने के स्पष्ट प्रमाण हैं। अतीः इनका प्रभाि छत्तीसगढ़ पर पड़ना स्िभातिक है, क्योंदक यह क्षेत्र भारत के उत्तरापथ और दतक्षणापथ अथाग संतस्क्रततयों के सतन्ध स्थल पर है। यह तेरह नस्ल या मानि समूह यह हैं:नीग्रो, औष्ट्रीक या आग्नेय (सम्भितीः इन्हें ही आयों ने तनषाद कहा, तजसमें कोल, भील आदद थे।), द्रतिड़ या द्रातिड़ (सम्भितीः इन्हें ही आयों ने दास कहा।), आयग, ग्रीक या यूनानी, यूची, शक, आभीर, हूण, मंगोल (सम्भितीः इन्हें ही आयों ने दकरात कहा।), गैर मुतस्लम तुकग, मुतस्लम और यूरोपीय इसाई। मानि नस्ल अध्ययन Anthropometry अथागत मानुषतमतत और Anthropology अथागत मानिशास्त्र या जनतिज्ञान के तहत आता है। Anthropology अथागत मानिशास्त्र या जनतिज्ञान में मानि समुदाय को तीन प्रमुख नस्लों में तिभक्त दकया गया है। यह हैं:क काले अथागत इथोतपयन, (ख) पीले अथागत मंगोल और (ग) गोरे अथागत काके तशयन। अब इथोतपया (राष्ट्र) पूिी-उत्तर अफ्रीका, मंगोतलया (राष्ट्र) एतशया में रूस-चीन के मध्य और कौके सस (पिगत माला/ रूस-अरमेतनया-जार्थजया-अज़रबैजान-चेचेन्या में तिस्ताररत/ आख्यातनक कोहेकाफ क्षेत्र, इसी से ‘कोहेकाफ की पररयााँ या हूर’ मुहािरा बना) एतशया-यूरोप अथागत ब्लैक और कै सतपयन सागर के मध्य का भौगोतलक क्षेत्र है। मानि शास्त्र की दृतष्ट से, िृहत भारतीय क्षेत्र के , मानि समूहों को छीः मानि समूहों में तिभक्त दकया जाता है। उक्त छ; में प्रथम दो समूह प्राचीनतम आने िाले लोगों के हैं। यह हैं- तनतग्रटो और प्रोटो-आस्रेलाइड़ या आग्नेय। यह दोनों समूह जनजाततयों के हैं। इन्हें प्राचीनतम होने के कारण आददिासी कहा गया। इन्हें काबीले भी कहा जाता है। भारतीय भूतम पर सबसे प्रथम आने लोग नीग्रो ही माने गए हैं। इस समूह को तनतग्रटो कहा गया। तनतग्रटो समूह सिागतधक प्राचीन और अत्यल्प समूह है, तजसमें श्रािणकोर के कादन और पतलयन, राजमहल पहाड़ी के बागड़ी, दतक्षण भारत की कु छ अन्य जनजाततयााँ और अण्ड़मान और तनकोबार द्वीप समूह की जनजाततयााँ तनतग्रटो के समाप्त प्राय होते अिशेष के बचे समूह हैं। इनका आगमन अफ्रीका अथागत भारत के पतिम से अरब-ईरान होकर हुआ। यह लोग आस्रेतलया, मलाया (मलेतशया आदद क्षेत्र), दफतलपींस, न्युतगनी, अंण्ड़मान आदद भारतीय मुख्य भूतम से ही गए। भारत में प्रोटो-आस्रेलाइड़ या आग्नेय या लोगों के आगमन पर यह लोग लगभग नष्त प्राय हो गए। यह लोग कृ तष नहीं करते थे और तशकार और पेड़ो या िन डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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7 से तमलने िाले स्िभातिक आहार पर तनभगर थे। इनका काल ईसा पूिग 10 से 7 हजार िषों पूिग का था। इनकी भाषा भी समाप्त प्राय हो गई। इसका नमूना मात्र अण्मान में है। आयग लोग नीग्रो के अत्यतधक बाद आए। क्योंदक भारतीय सभ्यता आयों से ही तस्थर हुई। अतीः भारतीय सभ्यता और संस्कृ तत में तनतग्रटो तत्ि क्या हैं, इसे जानना अत्यतधक करठन है। इसे साहसी समूह माना जाता है। यह लोग ही भारत से नािों पर सूदरू और अनजान आस्रेतलया तक जा पहूाँचे। इनकी भाषा से एक शब्द बादुड़ (पूिी भारत में चमगादड़ हेतु प्रयुक्त) को आयग भाषा में तचतन्हत दकया गया है। जनजाततयों में िृहत्म समूह प्रोटो-आस्रेलाइड़ या आग्नेय या औतष्ट्रक का है, तजसमें अतधकााँश जनजाततय समूह आ जाते हैं। बाद में इन हेतु मुण्ड़ या मुण्ड़ा और कोल या कोलयाररन शब्द भी सृतजत हुए, तजसमें कई जनजाततयााँ आईं। औतष्ट्रक या आग्नेय शब्द ददशा के आग्नेय या अतग्न कोण अथागत पूिग-दतक्षण में इनके पाए जाने से बना। इनका तिस्तार िृहत्तर अतिभातजत पतिम भारत से मड़ागास्कर और प्रशााँत अथागत पैसेदफक सागर के ईस्टर द्वीप तक भी है। यह लोग पूिग और पतिम से होकार कई बार गुजरे । स्िभातिक रूप से नीग्रो और मंगोल लोगों से सम्बन्ध हुए। इनके िंशज सभी ओर हुए। कोल और मुन्ड़ा जातत समूह के लोग; असम-म्यानमार या बमाग-तहन्दचीन या पूिग एतशया की मौन-खमेर जातत समूह के लोग; तनकोबार-इण्ड़ोनेतशया या तहन्दएतशया-मलेतशया-पोलोनेतशया आदद के कई कृ ष्ण या काली देह िाले जातत समूह इन्ही के िंशज हैं। न तसफग यह लोग िरन कतथत रूप से अंत्यज जाततयों के कु छ समूह भी आग्नेय लोगों से तनकले। जैस-े ड़ोम, भुइयााँ, मुसहार, चााँड़ाल आदद। चााँड़ालों की पृथ्क भाषा का उल्लेख बुद्ध के काल तक आता है। यह मत भी ददया जाता है दक, यह आग्नेय जाततयााँ द्रतिड़ लोगो से उत्पन्न हैं। आग्नेय इस भू-भाग पर शासक हुए। अतीः राज्यातभषक, अनुष्ठान आदद के कई प्रसंग और परम्परााँएाँ इस नस्ल की दकसी न दकसी जनजातत से जुड़ी और अब तक हैं। कोल, मुण्ड़ा और मौन-खमेर भाषाएाँ औतष्ट्रक भाषाएाँ हैं। आयग भाषा में भी इसका प्रभाि है। िन, जीि आदद से सम्बतन्धत अतधकााँश शब्द इनकी भाषा से ही आयग भाषां में आए। जब आयग आए तब यह लोग तसन्धू घाटी में भी थे और द्रतिड़ लोगों के पड़ोसी थे। तब इन्हें तनषाद कहा गया। इन्हें ही कोल और भील भी कहा गया। तचपटी नाक और काले रं ग की हंसी उड़ाई गई। ईसा के 1,500 िषों पूिग ही बहुत से आग्नेय लोग आयग हो गए। उक्त दो समूहों के लोगों को शबर कहा गया। प्रोटो-आस्रेलाइड़ या आग्नेय या औतष्ट्रक लोगों को तनषाद कहा गया। इनके हेतु कोल औरा भील शब्द भी प्रयुक्त हुए। अतीः आददिासी ही शबर और तनषाद थे। प्रोटो-आस्रेलाइड़ या आग्नेय या औतष्ट्रक अन्धतिश्वास के साथ भीरूता िाले माने गए हैं, जो आनन्दी भी रहे। यह लोग संचयी नहीं हुए। बसने को प्रेररत नहीं हुए। द्रतिड़ और आयग आगमन पर भी िनों में तखसक गए। तीसरा समूह भी जनजाततय िगग में ही आता है, पर यह लोग उक्त दो के अततररक्त द्रतिड़ और आयों के आगमन के उपरााँत आए। हालााँदक दकरात नाम का प्रयोग प्रारतम्भक आयग सातहत्य में तमलने और तसन्धू सभ्यता में उनके तचन्ह तमलने से यह भी अनुमान होता है दक, िे इनसे पहले आए। ऐसे में यह तीनों समूह प्राचीनत हो जाएाँगे। यह समूह मंगोलाइड़ कहलाता है। उत्तर-पूिग में मंगोलाइड़ समूह का संकेन्द्रण है। हालााँदक यह लोग मध्य भाग में भी हैं। यह लोग ईसा से ड़ेढ़-दो हजार िषों पूिग इस क्षेत्र में आए। इस समूह के लोगों को दकरात कहा गया। सामान्य बोलचाल में चीनी। इन तीनों समूहों अथागत जनजातीय समूह में छोटा कद, चौड़ी और चपटी नाक, घुाँघराले बाल आदद शारीररक लक्षण सामान्य हैं। कु छ मंगोलाइड़ समूहों को छोड़ शेष दोनों समूहों का देह रं ग काला है। अतीः उक्त तीन से सामान्य बोलचाल के दो प्रमुख समूह बनते हैं। आददिासी और चीनी या मंगोल। चौथा समूह भूमध्य सागरीय या मेतड़टेररयन लोगों का है। इन्हें सामान्यतीः द्रतिड़ कहा जाता है। अब यह लोग अतधकााँशत: तिन्ध्य या नमगदा पार अथागत दतक्षण में हैं। यह लोग आयों के पूिग आए। इनका भी देह रं ग काला, कद छोटा, मस्तक लम्बा, के श घने-कड़े-काले और कु छ घुंघराले तथा नाक खड़ी और चौड़ी है। इस समूह के लोगों को दास और असुर कहा गया। सामान्य बोलचाल में मद्रासी। दतक्षण की ततमल, मलयाली, कन्नड़, तेलगू, पतिम पादकस्तान के बलूतचस्तान की ब्राहुई और बााँग्लादेश और मध्य, पतिम और डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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8 पूिग भारत की उरााँि जनजातत (प्रोटो-आस्रायड़) की कु ड़ुख भाषा इस समूह की है। अंग्रेजों ने जब फू ट ड़ालो और राज करो को नीतत के रूप में अंगीकृ त दकया तब उन्होंने आयग और द्रतिड़ को पृथ्क-पृथ्क नस्ल तचतन्हत कर अलग दकया। तब तक आयग और द्रतिड़ एक ही समूह अथागत भारतीय माने जाते थे। द्रतिड़ भौगोतलक संज्ञा थी। उनका धमग और संस्कृ तत एक थी। आयग तहन्दू दशगन पक्ष का अतधकााँश भाग यहीं से आया। सामान्यतीः यह स्थातपत दकया गया है दक, लगभग 3,500 ईसा पूिग यह लोग मैड़टे ेररयन अथागत भूमध्य सागर से भारत की ओर चले। रास्ते में एक शाखा ईराक-ईरान में रह गई और सुमरे सभ्यता की जनक हुई। रास्ते में एक टोली बलूतचस्तान में छू टी और ब्रहुई उनकी भाषा हुई। तसन्धू और सुमेर सभ्यता में कई सामांताएाँ पाई गई हैं। तसन्धू सभ्यता को द्रतिड़ो से जोड़ा जाता है। अतीः इसे प्राचीन तिश्व की सुसभ्य नस्ल माना गया है। इन्होंने ही कृ तष तिकास, बसचाई प्रणाली, इस हेतु बााँध तनमागण नगर तनयोजन, नगरीय सभ्यता, बड़े भिन और मतन्दरों का तनमागण, भण्ड़ारण, समाज में मातृमूलक व्यिस्था की स्थापना, शैि मत, तशि और बलग भतक्त, शाक्त मत, भतक्त िाद आदद को भारतीय समाज में स्थातपत और तिकतसत दकया। सभ्यता में यह लोग आगे आने िाले आयग लोगों से भी आगे थे। इसका कारण यह माना जाता है दक, आयग लगातार कई सददयों तक एक जगह जम कर नहीं रहते थे। आयग शब्द ऋ धातु से बना है, तजसका आशय घुमक्कड़ी या गत्यात्मकता से ही है। द्रतिड़ों ने ग्राम और नगर बसाए। आयों ने पुर और नगरी नाश करने के कारण अपने प्रमुख देि इन्द्र को पुरन्दर ही कहा। पााँचिा समूह पतिम िृत्त-कपालक अथागत िेस्टनग ब्रेसीतशफाल्स और छठा नार्थड़क आयों का है। आयग समूह प्रमुख समूह है। आयों का कद लम्बा, िणग गोरा पर गेहुआ ाँ , के श घने, मस्तक लम्बी, नाक पतली और नुकीली है। आयग जब आए तब गोरे ही थे। यह िृहत्तर और अतिभातजत भारत का प्रमुख समूह हुआ। यह लोग पारक्रमी थे। मेघा, िीरता और भािुकता को भी इनसे जोड़ा गया।

छत्तीसगढ़ के जनजाततयों और जाततयों के िणगन को तनम्ांदकत भागों में बााँटा जा सकता है। 1. तिशेष तपछड़ी जनजाततयााँ, 2. अन्य अनुसूतचत जनजाततयााँ, 3. अनुसूतचत जाततयााँ, 4. अन्य तपछड़ा िगग में सम्मतलत जाततयााँ और 5. सामान्य जाततयााँ। इनके तहत आने िाली जाततयों और जनजाततयों का िणगन आगामी पृष्ठों में, पृथ्क-पृथ्क, है। छत्तीसगढ़ में जनजातीय िगग की बहुलता है। स्िभातिक है दक, उनका िणगन पहले दकया जाए तथा तदुपरांत अन्य और सामान्य जाततयों का। सिगप्रथम जनजाततयों पर ही चचाग की जा रही है। यह उक्त प्रथम दो समूहों में हैं। जनजाततयों पर चचाग प्रारम्भ करने के पूिग कु छ सामान्य और कामन जनजाततय तत्िों का िणगन अधोतलतखत है, तजससे दोहराि से बचा जा सके । सभी जनजाततयों (तिशेष तपछड़ी और अन्य) की कु छ सामान्य तििाह प्रथाएाँ और आभूषण यहााँ उल्लेतखत हैं, तजससे आगे दोहराि नहीं हो।

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9 छत्तीसगढ़ की जनजाततयों में प्रचतलत जनजाततय तििाह:पैठुल तििाह :- अगररया जनजातत में इसे ढू कू तथा बैगा जनजातत में पैढू कहा जाता है । बस्तर साँभाग की जनजाततयों में यह ज्यादा लोकतप्रय है । इसमें कन्या अपनी पसंद के लड़के के घर घुस जाती है । तजसे लड़के की स्िीकृ तत पर पररिार के तबरोध के उपरााँत भी सामातजक स्िीकृ तत तमलती है । कोरिा जनजातत में भी ढु कु तििाह होता है । लमसेना :- यह सेिा तििाह का रूप है और छत्तीसगढ़ की सभी जनजाततयों में इसे सामातजक स्िीकृ तत प्राप्त है । इस तििाह में तििाह योग्य युिक को कन्या के घर जाकर सामान्यतीः एक से दो िषग या कभी इससे अतधक समय तक अपनी शारीररक क्षमता का पररचय देना पड़ता है । अपने भािी ससुराल में पररिार के सदस्य की तरह मेहनत करते हुए उसे कन्या के साथ पतत की तरह रहने की स्ितंत्रता रहती है, ककतु तििाह का तनणगय संतुतष्ट के पिात ही तलया जाता है। बस्तर में इस तरह के तििाह कभी-कभी, एक या अतधक बच्चों के जन्म के उपरााँत भी होता है । इस तरह का तििाह पद्धतत कं िर,गोंड,भील, माररया,मातऺडया बबझिार, अगररया,कोरिा आदद जनजाततयों में अपनाया जाता है । कं िर इसे घरजन और बबझिार घरतजया कहते है । गुरांिटीः- यह एक प्रचतलत तििाह पद्धतत है, जो संपूणग छत्तीसगढ़ में जन जातीय के साथ छत्तीसगढ़ी गैरजनजाततय जातत समूहों द्वारा भी अपनाई जाता है । इसमें दो पररिारों के बीच दो तििाह एक साथ संपन्न होते हैं , तजसमें दोनो पररिार की लड़दकयााँ एक-दूसरे के लड़कों के तलए िधु के रूप में स्िीकार की जाती हैं। इसे तबरहारे जनजातत में गोलत तििाह भी कहा जाता है। भगेली:- भगेली तििाह का प्रचलन गोंड़ जनजातत में हैं, यह लड़के और लड़की की सहमतत से होता है। यह भाग कर दकए जाने िाला प्रेम तििाह है। लड़की के मां-बाप के राजी नहीं होने की तस्थतत में लड़की अपने घर से भागकर, रातत्र में, अपने प्रेमी के घर आ जाती है और छपरी के नीचे आकर खड़ी हो जाती है, तब लड़का एक लोटा पानी अपने घर के छपपर पर डालता है। तजसका पानी लड़की अपने तसर पर लेती है । इसके पिात लड़के की मााँ उसे घर के अंदर ले आती है । दफर गााँि का मुतखया या प्रधान लड़की को अपनी तजम्मेदारी में ले लेता है और लड़की के घर उसने भगेली होने की सूचना देता है। दफर रातत्र में मड़िा गाड़कर भााँिर कराया जाता है, अकसर लड़की के माता-तपता अन्न और भेंट पाकर राजी हो जाते है। चढ़ तििाहीः- इस तरह के तििाह में दुल्हा बारात लेकर दुल्हन के घर जाता है और तितध-तिधान तथा परं परागत तरीके से तििह रस्म को पूणग करता है। इसके पिात िह दुल्हन को तबदा कराकर अपने साथ ले आता है। छत्तीसगढ़ की जनजाततयों में यह तििाह की सबसे प्रचतलत व्यिस्था है। पठोनी तििाह :- इस तििाह में लड़की बारात लेकर लड़के के घर आती है और िहााँ ही मंडप में तििाह संपन्न होता है। तदुपरान्त िह दुल्हे को तिदाकरा कर के अपने घर ले जाती है। इस तरह का तििाह छत्तीसगढ़ के अत्यन्त अल्प रूप में गोंड जनजातत में देखने को तमलता है। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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उढ़ररयाीः- इस तििाह को पलायन तििाह कहना ज्यादा उतचत है। इसे उधररया भी कहा जाता है। इस तरह का तििाह भी प्रायीः सभी जनजाततयों में होता है। यह भी प्रेम तििाह है। तजसमें लड़का और लड़की एक दूसरे को पसंद कर लेते है। माता-तपता की अतनच्छा के पिात भी अपने सहेली और तमत्रों के साथ दकसी मेला-मड़ई या बाजार में तमलते हैं और िहीं से एक साथ हो दकसी ररश्तेदार के यहां जा पहुंचते हैं । जहााँ उनके आंगन में डाली गाड़कर अस्थाई तििाह करा ददया जाता है। बाद में पंचों ि ररश्तेदारों के प्रयास से मां-बाप को राजी कराकर स्थायी तििाह कराया जाता है। छत्तीसगढ़ के सभी जनजाततयों के प्रमुख आभूषण:लुरकी:- यह कानों में पहना जाता है। सामान्यतीः पीतल, चांदी, तााँबा आदद धातुं से बना होता है। इसे कणगफूल और तखनिा भी कहा जाता है। करधनीः- चााँदी, तगलट या नकली चााँदी से बना यह आभूषण छत्तीसगढ़ के प्रायीः सभी जनजातत की मतहलां द्वारा कमर में पहना जाने िाला आभूषण है। यह अपेक्षाकृ त भारी होता है। इसे करधनी भी कहते है। सूततयाीः- गले में पहना जाने िाला यह आभूषण एल्यूतमतनयम, तगलट, चााँदी, पीतल आदद का बना होता है। सामान्यतीः यह ठोस और गोलाई तलए होता है। पैरीीः पैर में पहना जाता है और तगलट या चांदी का बना होता है। इसे पैरपट्टी, तोड़ा और सांटी भी कहा जाता है। कहीं-कहीं इसे लच्छा भी कहते हैं। बांहूटा :- बााँह में, स्त्री और पुरूष दोनों द्वारा पहना जाने िाला यह आभूषण सामान्यतीः चााँदी या तगलट का होता है। इसे भैना जनजातत में पहुंची भी कहा जाता है। भुंतजया इसे बनौररया कहते है। तबतछयां:- पैर की उं गतलयों में पहना जाता है और चांदी का होता है। इस का एक अन्य नाम चुटकी है, जो बैगा जनजातत में अपनाया जाता है। ऐंठीीः- यह कलाई में पहना जाने िाला आभूषण है, जो दक चांदी, तगलट आदद से बनाया जाता है। इसे ककना और गुलठ े ा भी कहा जाता है। बन्धाीः- यह गले में पहने जाने िाली यह तसक्कों की माला है, जो पुराने चााँदी के तसक्कों से बनाई जाती है। फु लीीः- यह नाक में पहना जाता है। यह चााँदी, पीतल या सोने का होता है। इसे लौंग भी कहा जाता है। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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धमेल :- गले में पहना जानेिाला यह आभूषण चांदी, पीतल अथिा तगलट का होता है। इसे सररया और हंसली भी कहा जाता है। नागकोरीीः- यह कलाई में पहना जाता है। खांचनीीः- यह तसर के बालों में लगाया जाता है। बस्तर के मुररया, मातड़या आददिासी इसे लकड़ी से तैयार करते हैं। यह चााँदी या तगलट का भी बनता है। कहीं-कहीं पत्थर भी प्रयोग दकया जाता है। अब बस्तर में प्लातस्टक कं घी का भी इस्तेमाल इस आभूषण के रूप में होता है। इसे ककिा भी कहा जाता है। मुंदरी :- यह हाथ में उाँ गतलयों में पहना जाने िाला धातु तनर्थमत आभूषण है। बैगा जनजातत की युिततयां इसे चुटकी भी कहती हैं। सुडाग या सुराग- यह गले में पहना जाता है । तगलट या चांदी तनर्थमत यह आभूषण छत्तीसगढ़ के आददिातसयों की एक तितशष्ठ पहचान है। छत्तीसगढ़ में सबसे प्राचीन काल से तनिासरत अथागत प्राचीनतम जनजातत बैगा जनजातत को माना जाता है। छत्तीसगढ़ में छोटा (या चुरटया) नागपुर क्षेत्र से सिगप्रथम बैगां ने प्रिेश दकया था और सरगुजा के इसी पठारी क्षेत्र में बसी थी। 2001 की जनगणना अनुसार अनुसूतचत जनजाततयों की जनसंख्या और प्रततशत की दृतष्ट से छत्तीसगढ़ में सिागतधक लोग बस्तर साँभाग में है, जहााँ कु ल जनसंख्या का 67.29% अनुसूतचत जनजातत का है। 2010 तक तनर्थमत तजलों में तजलेिार जनसंख्या में जनजातीय प्रततशत की दृतष्ट से सिागतधक, 77.58%, दतक्षण बस्तर (दंतेिाड़ा) में जनजाततय लोग हैं और जनजाततयों की संख्या की दृतष्ट से सिागतधक जनजाततय लोग सरगुजा तजले में है, जो जनसंख्या का 55.4% हैं। राज्य में जनसंख्या प्रततशत की दृतष्ट से सबसे कम अनुसूतचत जनजातत के लोग दुगग तजले में हैं। यहााँ यह प्रततशत मात्र 12.43 है। संख्या की दृतष्ट से सबसे कम जनजातत िाला तजला किघाग है। जनजातत व्यतक्तिादी नहीं होती हैं। िे समाजोन्मुखी होते हैं। एक तनतित भू-भाग की पररतध में रहने और अपने जीिन-यापन के कायो को समाज के अन्य लोगों के द्वारा सहभातगता के आधार पर करने के कारण जनजातत में सामुदातयक भािना पाई जातत है। ये परस्पर सहयोग से जीने के अभ्यस्त होते हैं। तशकार करना, जंगलों में प्रिेश करना, खेती करना, बसचाई करना, मछली मारना आदद सभी कायग ग्राम के सभी लोग या अतधकत्तर लोग तमलकर करते है। सभी जनजाततयों में टोटेम पाए जाते हैं। अंग्रेजी शब्द टोटेम का अथग है- तिश्वास। राइब, संगरठत जनजातत या उसके गोत्र (गोष्ठी अथागत समूह)1 दकसी भौततक पदाथग, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, फू ल-फल, कीड़ेमकोड़े, जल-जीि आदद से अपना एक रहस्यमय संबंध होने का दािा करते हैं। िे ही राइि या गोष्ठी नाम से 1

गोष्ठी शब्द संस्कृ त के गाय को सम्बोतधत शब्द गौ से बना है। इस अनुक्रम में गोतष्ठ का अथग समूह या झुड़ है, जो गाय के झुड़ हेतु

व्यिहाररत होता था।

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12 जाने पहचाने जाते हैं। उनपर तिश्वास या टोटेम मानते है। जनजातत टाबू भी मानते हैं। टब्बू (Taboo) का अथग तनषेध से है। इसके कारण इसका अथग धार्थमक या व्यिहाररक तनषेध, व्यिहार में नहीं लाने, बध नहीं करने, व्यिहार में नहीं लाने, खाने में व्यिहृत नहीं करने आदद से होता है। जनजातत में प्रत्येक गोष्ठी (गोत्र) या समूह का एक तनतषद्ध पदाथग होता है। प्रत्येक जनजातत को दकसी तितशष्ट नाम से जाना जाता है। जैसे बैगा, कोल, गोंड़, उरााँि आदद। जनजातत का एक तनतित भू-भाग होता है। उनका एक तनर्ददष्ट परम्परागत तनिास भूतम होती है। दकन्तु इस सम्बन्ध में तिद्वानों के तिचारों में तभन्नता है। डा. ररचडग का मत है दक, जनजातत के तलए एक तनतित स्थाई तनिास भूतम होना आिश्यक नहीं है। कई जनजाततयााँ घुमक्कड़ जीिन व्यतीत करती है। दकन्तु डा. मजूमदार का मत है दक, घुमक्कड़ जनजाततयााँ एक तनतित भू-भाग यातन एक तनतित भौगोतलक क्षेत्र में ही घूमती है, सभी स्थानों पर नहीं। िैसे छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बसने िाली अतधकत्तर जनजाततयााँ इस क्षेत्र की स्थाई तनिासी हो गई हैं। घुमक्कड़ जाततयााँ भी इस क्षेत्र से बाहर नहीं तनकली। प्रत्येक जनजातत की अपनी स्थातनय तितशष्ठ भाषा होती है, तजसका प्रयोग उस जनजातत के सभी लोग करते हैं। जनजातत भाषा का हस्तान्तरण प्रमुख रूप से मौतखक रूप से होता है। इन जाततयों की भाषां को तलतपबद्ध करने का प्रयास जनजाततयों ने कम दकया है। अतीः इनकी तलतप नहीं तमलती। हालदफलहाल में तलतप तैयार करने की चेष्टा की गई है। द्रतिड़ एिं आतस्रक संस्कृ तत बाहरी आयग तहन्दू-संस्कृ तत से भी प्रभातित हुई है। पर साथ ही तहन्दू धमग भी इन संस्कृ ततयों से प्रभातित हुआ। के ला, सुपाड़ी, नाररयल, ईंख और बसदूर मूलत: द्रतिड़ संस्कृ तत की नैिद्य े है। इसे तहन्दू संस्कृ तत ने अपनाया है।2 तहन्दू धमग के तिश्वास और धारणाएाँ भी यहााँ आकर तमतश्रत होने िाले कई तिश्वासों और धारणां से तमल कर बनी, न की दकसी एक तिश्वास और धारणा पर। तहन्दू धमग में आस्थां का तिकास भी जाततयों, नस्लों आदद के तमलन का सुस्पष्ट प्रमाण है। डा. भण्ड़ारकर का मत है दक, तहन्दुं में तशि भतक्त द्रतिड़ों से आई और इसके तिकास में आतस्रक और नीग्रो संस्कृ ततयों ने भी योग ददया। बलग पूजा आयग आगमन के पूिग से प्रचतलत थी और इसी कारण से उन्होंने यहााँ पहले से रह रहे लोगों को तशश्नदेिा पुकारा। द्रतिड़ों से ही तशि-उमा (पािगती), कार्थतके य (सुब्राह्मणयम), गणेश आदद की पूजा भी तहन्दुं में आई। गणेश की कल्पना शुद्ध भारतीय है। ऋग्िेद में तिष्णु का उल्लेख सूयग के तलए हुआ है। प्राचीन आयों में इन्द्र प्रमुख देिता थे, इसतलए अमरकोष (संस्कृ त का प्रख्यात शब्दकोष) में तिष्णु को उपेन्द्र इन्द्रािरज कहा गया। अब तहन्दू िैष्णि मत का प्रमुख पुराण श्रीमद्भागित है। कृ ष्ण का इन्द्र तिरोध तिख्यात है। बाद में तिष्णु (या िासुदि े ) राम द्वारा तदुपरांत कृ ष्ण द्वारा प्रततस्थातपत हुए। रामकथा का रामयण और रामचररत मानस सिोच्च ग्रंथ बना। इनमें भतक्त की परम्परा द्रतिड़ों से आई। इसमें कथा, ककिन्दंततयों का अपार भण्ड़ार तहन्दू पुराणों से आया। आग्नेय लोगों से तहन्दुं की पतित्रतम नदी गंगा को गंगा संज्ञा तमली, जो दक दकयांग, कं ग या घंघ शब्द से बनी थी। इन्हीं से चन्द्र गणना की ततथी, चािल की कृ तष, पुनगजन्म का तसद्धांत, पत्थर के खण्ड़ को देिता मानने की प्रथा आदद बातें तहन्दूं में आईं। इसमें देिर-देिरानी और जेठ-तजठानी की प्रथा, तसन्दूर का प्रयोग, धार्थमक अनुष्ठानों में नाररयल और पान के पत्ते का उपयोग आदद को भी जोड़ा जा सकता है। तहन्दूं में आयों से अतधकााँश दशगन और तिचार आए। जनता के दैतनक जीिन के कायग और अनुष्ठान द्रतिड़ और आग्नेय लोगों से आए। पूजा द्रतिड़ों और आतस्रक लोगों से आई तथा यज्ञ आयों से, पर आियगजनक रूप से यज्ञ पुरोतहतों और पतण्ड़तों तक सीतमत रह गया और पूजा घर-घर पहुाँच गई।

2

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13 तहन्दूं के धमग ग्रंथों या धार्थमक तिचारों के , प्रधानतीः, दो तिभाग हैं। एक िेद सम्मत है, जो यज्ञों पर बल देता है और हिन आदद के कमों को धमग का प्रमुख कायग मानता है। तद्वतीय तिभाग भतक्त, योग और तंत्र के तिषय को समातहत करता है। दोनों तिभागों को क्रमशीः तनगम और आगम कहा जाता है। तनगम तिचार िेदों से बन्धा है और मुख्यतीः पतण्ड़तों के पास है। यह आयों की देन है। आगम तिचार जनता के आचार और अनुष्ठानों का तिचार है। इस तिचार के कारण ही 33 िैददक देिता 33 करोड़ बना ददए गए। आयग और अयेत्तर समुदायों में इतना तमलन हुआ दक कु छ अभी अन्य या अलग नहीं रहा। यहााँ तक दक मनु ने ग्राम देि/देिी पूजकों को पततत कहा था, पर आज ब्राह्मण भी ग्राम देिता/देिी की पूजा करते हैं और भूतप्रेत को भी इस स्तर पर ले आए हैं। आरम्भ में इनके पुजा स्थानीय पुजारी करते थे, जो ब्राह्मणों द्वारा शूद्र माने जाते थे, परं तु आय के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें अपदस्थ कर ददया। आयग भी नदी और िृक्ष पूजने लगे। होली और बसंतोत्सि जैसे गैरआयग त्योहार और उत्सि मनाने लगे। तहन्दूं में तजन देितां, तीथों, उत्सिों आदद की मान्यता है, उनमें से अतधकााँश आयेत्तर मूल के हैं। छत्तीसगढ़ की जनजातीय भाषां का तचन्हााँकन और उन पर कायग का प्रारम्भ 1820 से हुआ। छतीसगढ़ में 93 भाषां (बोली, उपबोली आदद सतहत) तचतन्हत दकया जा चुका है। छत्तीसगढ़ में चार भाषा समूह हैं। इनमें तीन समूह पूिग से हैं।3 चौथा समूह तिगत शताब्दी में ही आया। जो तनम्ांदकत हैं।:क मुण्डाीःइस क्षेत्र में, मुण्डा भाषा पररिार की भाषां की उपतस्थतत, को प्राचीनतम माना जा सकता है। इसके तिकास को तनम्ांदकत चाटग से समझा जा सकता है।

3

इन तीन पर चचाग हीरा लाल कृ त्त छत्तीसगढ़ ज्ञानकोष के आधार पर।

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प्राचीन मुण्डा

प्राचीन दक्षऺणी

प्राचीन उत्तरी

मण् ु डा

मण् ु डा

प्राचीन बस्तर

प्राचीन मध्य

मुण्डा

गदबा

मुण्डा

खड़िया

कोककू

मवासी

तनहाऱी

प्राचीन खेरवारी

कोरवा

नगेससया

सौंता या तकरी

माझी

मझवार

खैरवारी

ववदहो

छत्तीसगढ़ क्षेत्र में, 1971 की जनगणना में, मुण्डा भाषा पररिार की तीन भाषां को तचतन्हत दकया गया। यह कोकूग , खतड़या और कोरबा थीं। इसमें कोकूग प्रधान थी। खतड़या का तिस्तार रायपुर सम्भाग तक था। इन तीन की उपबोतलयााँ हैं- मुआसी, तूरी, तनहाली मनकारी, खैरिारी, तबरहोड़, कोड़ाकू , ढेलकी, महतो, कोरी माझी, मुण्डा, मुण्डारी और संथाली। कई बोतलयााँ तिलुप्त होने िाली हैं। गदबा बोलने िाली अंततम मतहला (भालू) तो, बस्तर में, तिगत िषों में चल बसी। खतड़या और कोरिा बोलने िाले सदरी और छतीसगढ़ी तहन्दी और कोकूग बोलने िाले इन दो के साथ गोंड़ी भी बोलते हैं। इन भाषां और बोतलयों का तिस्तार महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, तबहार, झारखण्ड और आन्र प्रदेश में भी है। छातीसगढ़ में मुण्डा भाषाएाँ और बोतलयााँ उपेतक्षत हैं। इन भाषां में से कु छ पर थोड़े कायग भी हुए हैं। खतड़या पर पर एस.सी.राय और आर.सी.राय, तबरहोड़ पर भी एस.सी.राय और एस.सी.तमत्रा के पृथ्क-पृथ्क कायग आदद। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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15 खतड़या के तीन प्रकार हैं। दूध, ढेलकी और पहाड़ी। ढेलकी खतड़या जशपुर में है। मुण्डा भाषा की बोतलयों की ध्ितन में स्िर इ, उ और आ अतधक सशक्त हैं। तीन मध्य स्िर भी हैं। व्यंजन तो हैं ही। संज्ञाएाँ दो हैं- सजीि और तनजीि। बलग-पुबल्लग, स्त्रीबलग और नपुंसक के साथ सजीि और तनजीि पर भी आधाररत है। सिगनाम की तनजी तिशेषता है और बलग भेद तिहीन है। यह पााँच - पुरूष, तनिय, अतनिय, सम्बन्ध और प्रश्न- हैं। इसके दो भेद हैं- उत्तम और मध्यम। िचन तीन- एक, तद्व (दकयार और दकन) और बहु (दक और कू )- हैं। कारक सात हैं। इन कारकों से, तनम्ांदकत सारणी द्वारा, भाषा तस्थतत और स्पश्त के जा सकती है। सारणी 1 - छत्तीसगढ़ के मुण्डा भाषा पररिार की भाषां में कारक स्रोत-हीरा लाल शुक्ल कृ त्त छत्तीसगढ़ ज्ञानकोष,पृ.153 क्रमांक 1 2 3 4 5 6 7

कारक कमग करण सम्प्रदान अपादान सम्बन्ध अतधकरण सम्बोधन

खतड़या ते सोरर धड़ ते आ ? ते हन

महतो शून्य शून्य लतह मरर आ ? रे ए

माझी ले ले नेग ? ड़ अते आ ? रे ? ए

कोरिा ए ए ले रे रा ? रे हो ?

मुड ं ारी के ते नड़् एते रा रे होद

तबरहोर के ते सतरर ते रा ? रे हो ?

तब्रतजया शून्य तुतल लेना एते रा ? रे होना

कोकूग त ते लतह अरर रा ? रे हो

रं ग, संख्या आदद के शब्द तहन्दी से अपभ्रंतशत हैं। दक्रया दो- अकमगक और सकमगक- हैं। क्षेतत्रय रूप की तितभन्नता तो है ही। ख द्रबिड़ीःद्रतिड़ भाषां का तिकास तनम्ांदकत तचत्र से स्पष्ट है।

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प्राचीन द्रववि दक्षऺण-केन्द्द्रीय द्रववि(गोंिी)

दोऱी

दॊ डामी माड़िया

भकररया

अबकझमाड़िया

केन्द्द्रीय द्रववि

उत्तरी द्रववि

ऩरजी या धुरबी

कुिुख या उराॉव

द्रतिड़ भाषा का उत्तरी समूह कु ड़ुख भाषा का है। यह उरााँि जनजातत के लोग बोलते हैं। छतीसगढ़ में कु ड़ुख बोलने िाले तीन लाख से अतधक हैं। इस पर राम राय, फदग हान, एस.सी.राय, ए.जी.हान, डब्ल्यु.जी.आचगर आदद प्रारतम्भक लेखकों के अततररक्त कई अन्य ने कायग दकया है और इस पर कायग ज़ारी भी है। छतीसगढ़ के लोग भी इस पर कायग कर रहे हैं। कु ड़ुख में दस स्िर और 33 व्यंजन हैं। इसमें दो बलग, दो िचन और 6 कारक हैं। सिगनाम संख्या गोंड़ी की तरह हैं। संख्या चार तक द्रतिड़ मूल की है और उसके पिात तहन्दी आयग की। ितगमान और भूत की सहायक दक्रया रच और भतिष्य की मन धातु से है। द्रतिड़ के के न्द्रीय समूह में धुरबी या परजी है। यह बस्तर (और कोरापुट) की धुिाग और परजी जनजातत के लोग बोलते हैं। इसे बोलने िाले 30 हजार से अतधक हैं। इसके छीः क्षेत्रीय रूप हैं। यह स्थातनय भतरी, उतड़या, हलबी, तेलगू, दंडातम के तमश्रण से बने हैं। राय बहादुर हीरालाल,, .रामदास, एन.एस.सहगल, के दारनाथ थुसु, टी.बोरो आदद ने कायग दकया है। इसमें 10 स्िर और 30 व्यंजन हैं। द्रतिड़ भाषां में के न्द्रीय-दतक्षण समूह गोंड़ी से सम्बतन्धत है। गोंड़ अपने आप को कोईतोर (या कोईतोल) कहते हैं। अतीः इन्हे कोईतर बोतलयााँ कह सकते हैं। सभी बोतलयों का आधार एक ही है। द्रतिड़ कोईतर बोतलयों के मुख्य चार रूप हो सकते हैं- दोली, दण्डामी मतड़या, अबुझमतड़या और घोटुल मुररया। दोली पर तेलगू का भी प्रभाि है। इसमें 10 स्िर हैं। ग्रातसम दण्डामी मतड़या को गोंड़ी से पृथ्क नहीं करता4 है, परं तु एग्न्यु ऐसा करता5 है। इसमें भी 10 स्िर हैं। 1213 के आसपास गायता या गैता का प्रयोग, 1855 (इतलयट) से मातड़या (पहाड़) संज्ञा से हटा ददया गया और अबूझमातड़या शब्द सामने आया। यह आयग शब्द है। तग्रयसन (1939) तहल मातड़या ही तलखता है। यह दोली और मुररया के बीच की संक्रााँतत बोली है। इसमें भी 10 स्िर हैं। मुररया में भी ऐसा है। ग

आयगीः-

छत्तीसगढ़ में प्रयुक्त 93 भाषां में से 70 आयग हैं। इसका तिकास-तिभाजन इस प्रकार है।

4

तग्रयसन-मतड़या गोन्डस आफ बस्तर,पृ.473

5

एग्न्यु-जनगल आफ अमेररकन ओररएंटल सोसाईटी,भाग-53,पृ.132

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प्राचीन आयू भाषा

अधूमागधी

मागधी

ऩव क ी हहन्द्दी

उड़िया

छत्तीसगढ़ी

वऩजनीकृत्त

हऱबी

सदरी

भतरी

छत्तीसगढ़ में आयगभाषा की छत्तीसगढ़ी तहन्दी प्रमुख भाषा है। यहााँ यह स्पष्ट करना महत्िपूणग संकेत देगा दक,- यदद कोई जनजाती या इस तरह का जातीय समूह अपनी मात्तृ या मूल भाषा से को छोड़ कर आयगभाषा की बोली को अपना और तिकतसत कर लेता है तो िह सदरी कहलाती है। ऐसा छतीसगढ़ की प्राच्य क्षेत्र की जनजाततयों के साथ हुआ। संस्कृ तत तिस्तार और सााँस्कृ ततक साम्राज्यिाद की परतणतत में ऐसा होता है। अब तहन्दी सतहत अन्य आयग भाषां पर भी यह तस्थतत बन रही है। भाषा को बोलने िालों से (यथा-तहन्दी) च्युत कर सांस्कृ ततक साम्राज्यिाद के तहत अन्य भाषा (यथा-अंग्रेजी) को स्थातपत करने की स्पष्ट और घोतषत नीतत तथा पद्धतत है। जब अंग्रेजी या अन्य भाषा द्वारा दकसी तहन्दी या अन्य भाषा को हटाना होता है तो सिगप्रथम प्रोसेस आफ काण्ड-ग्रेज्युतलज़्म का चरण अपनाया जाता है। यह सप्रयास षडयंत्र होता है, पर बाहर से पता नहीं चले दक यह सयास है। िरन यह लगे दक, यह तो एततहातसक बदलाि और तिकास की स्िभातिक प्रदक्रया है। जैसे तहन्दी और आयग भाषां को बदलने (बहतग्लश) की प्रदक्रया। इसमें शेयडग िकै ब्युलरी अथागत साम्राज्यिादी भाषा के शब्द को च्युत की जाने िाली भाषा के शब्दों में हटाने के तलए उपयुक्त शब्द नहीं तमलने देना, को बढ़ाया जाता है। जैसे- रे ल, पोस्टकाडग, मोटर, शेयर रे तडयो, टेलीिीजन आदद। इनका अतधक प्रयोग दकया जाने को बढ़ािा ददया जाता है। अथागत तहन्दी में अंग्रेजी के शब्दों को प्रिेश कराना। तद्वतीय चरण को प्रोसेस आफ तडसलोके शन कहते हैं। इस चरण में सप्रयास षडयंत्रपूिगक मातृ/देशज भाषा के शब्दों को शैनीः-शैनीः बोलचाल और जीिन से हटाया जाता है। मूल भाषा के कारक मात्र रह जाते हैं और शेयडग िकै ब्युलरी को लगातार बढ़ा तलया जाता है। जैसे पेरेंटस, स्कू ल, हास्टल, स्टुदटें , संड,े युतनिर्थसरट आदद। तृतीय चरण को स्नो-बाल थ्योरी कहते हैं, तजसका आशय है दक, बफग के दो गोलों को आपस में दबाकर तमलाकर एक करने की दक्रया। ऐसा भाषा के साथ दकया जाता है। िह रणनीतत तजससे अंग्रेजी या अन्य भाषा के शब्द इतने तमल जाएाँ दक, अलग करना मुतश्कल हो। जैसे पहले भी हुआ-सब्जी, चोली-दामन, स्याही, शादी-ब्याह और अब- रे ल रटकट, सुप्रीम कोटग, पूरी की पूरी तगनती आदद। चौंथा चरण ररप्लेसमेंट का है। अब पूरे िाक्यााँश घुसाए जाते हैं। यथा- आऊट आफ टनग, आऊट आफ रीच, तबयांड डाउट, नन अदर दैन, P.T.O. आदद। पााँचिा चरण इल्यूज़न आफ स्मूथ रांतजशन कहलाता है। अब देशज (तहन्दी) के स्थान पर अंग्रेजी या अन्य भाषा को तनर्थिर्घ्ग ढ़ंग से स्थातपत दकया जाता है। अगला और छठा चरण दक्रयोल कहलाता है। इस चरण में चंगी भाषा से उसके रोज़मराग के सााँस लेते शब्दों को हटाना और उसके व्याकरण को छीन कर भाषा से बोली में बदल देना होता है। जैसे तहन्दी से बहतग्लश। अब सातिें चरण में तडदक्रयोल दकया जाता है। यह, काण्डा-ग्रेजुतलज़्म के हथकण्डों के उपरांत पूरी तरह अंग्रेजी से तिस्थापन की दक्रया है। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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18 आठं िााँ चरण फायनल असाल्ट का है। भाषा की सप्रयास और षडयंत्र पूणग हत्या साम्राज्यिाद और उपतनिेशिाद की पूणग योजनाबद्ध दक्रया है। अब तलतप बदल कर रोमन की जाती है। यह अंततम प्राणघातक प्रहार देिनागरी को अपठनीय और दफर मृत्त बनाएगा। इसी युतक्त से गुयाना में तहन्दी (43%) को फ्रेंच द्वारा तड-दक्रयोल दकया गया। तदुपरांत तत्रतनदाद, माररशस आदद में। अंततम और नौिााँ चरण तिचार और सोच पररितगन का है। िही सोचिाना, जो हम सोचें। जैसे- पेयजल, इराक, आतााँक, एड्स, ग्लोबलाइजेशन (राष्ट्रीयता हटाना) आदद। इसमें सभी तरह के हथकण्डे (साम-दाम-दण्ड-भेद) अपनाए जाते हैं। दतक्षणात्य जनजाततयों की आयग भाषा हलबी के रूप में तिकतसत हुई। हलबी एक तपतजन भाषा है। इसमें द्रतिड़ भाषा के शब्दों के उपयोग के बािज़ूद, यह आयग भाषा के रूप में तिकतसत हुई। यह बस्तर में स्थातपत हुई। पूरे बस्तर क्षेत्र में भाषां का अतत और तितचत्र संगम हुआ है। तेलगू, उतड़या, मराठी, छत्तीसगढ़ी तहन्दी, कई जनजाततय बोलीयााँ और भाषाएाँ-गोंड़ी, गदबा, (मुण्डा) आदद भाषां के क्षेत्र और िक्ता होने से हलबी उन सब के तमश्रण की सम्पकग भाषा के रूप में सामने आई। हलबा जातत से सम्बन्धता के कारण हलबी संज्ञा तमली। यह (हलबा) बस्तर शासकों की अंगरक्षक जनजातत थी। हलबी बोलने िाले साढ़े तीन लाख से अतधक हैं। इसे भी क्रयोल भाषा में रखा जाता है। ग्लासफोडग और स्टेन कोनो हलबी को छत्तीसगढ़ी की उपबोली मानते हैं। जाजग तग्रयसन और आर.के .एम.बेट्टी इसे मराठी की उपबोली मानते हैं। गंगाधर सामंत, ई.एस.हायड और सुनीतत कु मार चटजी हलबी को उतड़या और मागधी के तनकट मानते हैं।6 िैसे हलबी में उतड़या शब्द ही अतधक हैं। हलबी में छत्तीसगढ़ी तहन्दी, उतड़या, मराठी, गोंड़ी और मुण्डा गदबी का प्रभाि है। उच्चारण छत्तीसगढ़ी की तरह है। छत्तीसगढ़ के प्रिासी और उत्तर-दतक्षण समंिय की प्रतततनतध प्रतीक हलबा ही प्रतीत होती है। यह जनजातीय भाषा बस्तर ररयासत में भी प्रयुक्त होती थी। इसे बस्तर क्षेत्र की मुख्य भाषा माना जाता है। तितभन्न जाततयााँ और जनजाततयााँ अलग-अलग प्रकार की हलबी बोलती है, जो उसी जातत की हलबी के नाम से जानी जाती है। कमारी, भुंतजया, नाहरी, राजमुररया, तमरगानी, चंडारी, महरी, बस्तरी और भतरी इसकी बोतलयााँ हैं। हलबी में 12 स्िर हैं। बलग भेद सजीि में ही है। तनजीि को तस्त्रबलग में रखा गया है। सदरी छतीसगढ़ के उत्तरी भाग में बोली जाती है। इसका तिस्तार पतिम बंगाल, असम और उड़ीसा में भी है। इसे गिारी, नागपुररया, नागपुरर और नगपुररया तहन्दी भी कहा जाता है। तग्रयसगन ने इसे मगही और चटजी ने पतिम मागधी में रखा। यह तबहारी और भोजपुरी के तनकट है। इसमें छत्तीसगढ़ी के समान 10 स्िर हैं। दकसी बोली का क्षेत्र तिकतसत होने और एक ही ढ़ंग से तलखे और बोले जाने पर भाषा के रूप में तिकास हो जाता है। छत्तीसगढ़ी बोली को इसमें रखने के प्रयास हो रहे हैं। इसकी भी उपबोतलयााँ हैं। यथासरगुतझया, लररया (सम्बलपुर तजले से लगे भाग में), खलौटी (बालाघाट तजले से लगे भाग में)। जााँजगीर के आसपास के क्षेत्र की छतीसगढ़ी अतधक सम्पन्न मानी जाती है, परं तु प्रतततनतध प्रतीक दुगग-रायपुर की छत्तीसगढ़ी को माना जाता है। छत्तीसगढ़ी की तलतप भी देिनागरी ही है। यह उत्तर में बघेली से, पूिग में उतड़या से, दतक्षण में तेलगू से और पतिम में मराठी से प्रभातित है। ग्रामीण और नगरीय छतीसगढ़ी अलगअलग है। यह अभी तस्थर भी नहीं हो पाई है। लगातार तिकास और बदलाि हो रहे हैं। शताब्दी पूिग हीरा लाल बन्दोपाध्याय द्वारा व्याकरण लेखन प्रयास के दौरान ही यह तथ्य सामने आ गया था दक, करण और अपादान में ले के स्थान पर से का प्रयोग बढ़ रहा है। अब कमग और सम्प्रदान में का के स्थान पर खा आने लगा है। छत्तीसगढ़ में इसे 2007 में राज्य भाषा कहा गया है। अभी इसके व्याकरण, शब्दकोष आदद प्रारतम्भक कायग तो हुआ है पर अभी इन सतहत सभी तबन्दुं पर और कायग होना है। यह नई बोली है। इसमें प्राचीन सातहत्य नहीं है। इसकी दक्रयां में तद्विचन नहीं होता। संज्ञा को दक्रया में भी बदल तलया जाता (यथा- गोरठयाइस, उहररयाइस, थपररयाइस आदद) है।

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सुनीतत कु मार चटजी-ओरीजन आफ बंगाली,पृ.14

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19 घ

ततब्बतीीः-

छत्तीसगढ़ में, हाल में, एक नए भाषा समूह का प्रिेश हुआ है। चीन द्वारा ततब्ब्त को हतथयाने के उपरांत ततब्बत के लोग, िहााँ से पलायन कर भारत में शरण हेतु आए। उन्हें छतीसगढ़ में भी बसाया गया। उनकी भाषा ततब्बती है। यह लोग ततब्बती भाषा का प्रयोग करते हैं, जो साइनो-ततब्बतन समूह की ततब्बतो-बमगन है। यह भाषा चीनी अतधक है। इनकी अपनी लद्दाखी और दोजांखा तलपीयााँ है, जो प्राचीन ब्राह्मी और संस्कृ त से व्युत्पन्न हुई है। ब्राह्मी तलपी भारत की प्राचीन तलपी थी। ततब्बती बौद्ध सातहत्य संस्कृ त में भी तलखा गया। भारत में जब मुतस्लम अक्रााँता भारतीय संस्कृ त सातहत्य को नष्ट करने लगे, तब उसे ततब्बत ही ले जाकर सुरतक्षत रखा गया था। इसी तरह चीन द्वारा ततब्ब्त पर कब्जा करने और उसकी संस्कृ तत को नष्ट करने के ितगमान प्रयास के दौरान ततब्बती सातहत्य पतिम के देशों में ले जाया गया। पिमी तिद्वानों ितगमान ततब्बती भाषा को कोलोदियन ततब्बततयन संज्ञा से भी पुकारना प्रारम्भ दकया। अब पााँचो समूहों की जनजाततयों और जाततयों का पृथ्क-पृथक तििरण तनम्ााँदकत है। सिगप्रथम जनजाततयों को िर्थणत दकया जा रहा है।

(एक). तिशेष तपछड़ी जनजाततयााँ :भारत सरकार द्वारा, छत्तीसगढ़ प्रााँत में तनिासरत जनजाततयों में से, अतत तपछड़ी और अतिकतसत पााँच जनजाततयों को तिशेष तपछड़ी जनजातत के रूप में तचतन्हत दकया गया है। यह जनजाततयााँ हैं। :1. कमार, 2. अबूझमातड़या, 3. पहाड़ी कोरिा, 4. तबरहोर और 5. बैगा। अब सिगप्रथम छत्तीसगढ़ की पााँच तिशेष तपछड़ी जनजाततयों पर चचाग।:1. कमारीःकमार तिशेष तपछड़ी जनजातत है। यह छत्तीसगढ़ के मात्र रायपुर सम्भाग में ही तनिास करती है।7 कमार लोग बााँस हस्ततशल्प तनमागण का पारम्पररक कायग करते हैं। कमार जनजातत रायपुर सम्भाग के रायपुर और धमतरी तजलों के 11 तिकास खण्डों में पाई जाती है। रायपुर तजले के गररयाबन्द, छू रा और मैनपुर तथा धमतरी तजले के नगरी तिकास खण्डों में, इनका, अतधक संकेन्द्रण है। 2001 की जनगणना में कमार जनजातत की जनसंख्या 23,113 थी। कमार जनजातत की उत्पतत्त और तिकास के सम्बन्ध में आधुतनक िैज्ञातनक और एततहातसक शोध नहीं हुए हैं। िे स्ितीः अपनी उत्पतत रायपुर तजले के मैनपुरी तिकासखण्ड के देिडोंगर ग्राम से बताते हैं। यहीं उनके प्रमुख देि- िामन- भी स्थातपत हैं। रहिास के आधार पर कमारों के दो तिभाजन हैं- पहाड़पततया अथागत पहाड़ िासी और बुन्दरजीिा अथागत िन तनिासी। इनके प्रमुख गोत्र हैं- नेताम, कुं जाम, मरकाम, मरई, सोढ़ी, जगत आदद।8

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Dr.Mahendra Kumar Mishra-Identity and Oral narratives (A case study on Kamar Tribe of Kalahandi

adjoining Chhatishgarh) (http://www.asgporissa.org/mahendra/IdentityandOralNarrative.html) 8

S.C.Dubey-The Kamar

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20 कमार जनजातत के आिास गृह कच्चे होते हैं। िह तमट्टी, घााँस और बााँस से बने होते हैं। बााँस या काष्ठ का एक ही प्रिेश द्वारा होता है। छत बााँस, खपड़े, घााँस आदद की होती है। फशग तमट्टी का होता है, तजसे तस्त्रयााँ गाय गोबर से लीपती हैं। श्वेत तमट्टी से ददिारें पोती जाती हैं। घर में चक्की, कोठी, टोकनी, सूपा, चटाई, मृद भाण्ड, खाट, मूसल, बााँस से हस्ततशल्प बनाने के उपकरण, ओढ़ने-तबछाने-पहनने के िस्त्र आदद ही होते हैं। यह लोग कृ तष भी करते हैं। अतीः उसके कु छ उपकरण भी इनके पास होते हैं। यथा- फािड़ा, गैती, कु ल्हाड़ी, हाँतसया आदद। यह लोग तशकार भी करते हैं। अतीः तीर-धनुष और मत्स्य आखेट का जाल भी रखते हैं।9 कमार लोग स्िच्छ रहते हैं। प्रतत ददन स्नान और दातौन करते हैं। पुरूष छोटे और मतहलाएाँ लम्बे के श रखती हैं, तजसे िे कखिा (कं घी) की सहायता से चोटी या जूड़े के रूप में संिरती हैं। कमार तस्त्रयााँ हस्ततशल्प से हाथ-पैरों पर गोदना गुदिाती हैं और चमकीली धातु (नकली चााँदी) और तगलट के आभूषण धारण करती हैं। यह हैं- कलाई में ऐंठी, नाक में फू ली, कान में तखनिा आदद। पुरूष पुछ ं ा (छोटी धोती), बंड़ी और सलूका तथा मतहलाएाँ लुगड़ा और पोल्का पहनती हैं। लोककला और हस्ततशल्प छत्तीसगढ़ की जनजाततयों में घर करती है। यह अतत तपछड़ी जनजातत में भी मुखर हो कर सामने आती है। लोककला का एक अंग बााँस हस्ततशल्प कला के रूप में कमार जनजाततय लोगों का पारम्पररक व्यिसातयक उपक्रम है। छत्तीसगढ़ और रायपुर सम्भाग का प्रचतलत और प्रतसद्ध सूिा (सुआ) लोक नृत्य कमार मतहलाएाँ भी करती हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार मात्र 32.26% कमार साक्षर थे, तजसमें पुरूष साक्षरता 43.05% और मतहला साक्षरता 21.88% थी। यह प्रााँतीय औसत से कम था। तशक्षा, संचार, आिागमन, तिकास कायगक्रम, सेिां का तिस्तार, बाह्य सम्पकग , औद्योतगकीकरण आदद के कारण कमार लोगों की िेशभूषा, रहन-सहन, भाषा, लोककला आदद में पररितगन आया है। स्थानतरीय कृ तष भी स्थाई होने लगी है। पंछा और बंड़ी के स्थान पर पैंट-कमीज़, लुगड़ा और पोल्का के स्थान पर साड़ी, ब्लाउज और पेटीकोट, झाड़-फू क के स्थान पर अस्पताल से रोगोपचार, आधुतनक संचार तंत्र यथा टेलीतिजन, सेल (मोबाईल) फोन आदद का प्रयोग हो गया है। इससे बााँस हस्ततशल्प को बाज़ार भी तमला है और उसमें गुणात्मक सुधार का दबाि बढ़ा है। घरेलू समान के अततररक्त सजािटी समान की मााँग बढ़ी है। बााँस हस्ततशल्प तनमागण सामग्री तैयारी हेतु मशीनों की ज़ानक़ारी हो गई है, पर धनाभाि और इस हेतु अत्यतधक कच्चे सामग्री तथा बड़े बाज़ार की मााँग ने उसका व्यापक उपयोग रोक रखा है। सूिा (सुआ) नृत्य का िस्त्र तिन्यास भी बदला है। इसमें ब्लाउज का जुड़ना महत्िपूणग है। अंतीःिस्त्रों के प्रतत भी रूझान बढ़ा है। आभूषणों के तडजाईन भी बदले हैं। लोककला और हस्ततशल्प भी प्रभातित हुआ है। 2. अबूझमातड़या [मातड़या (पहाड़ी) गोंड़]:अबूझमातड़या जनजातत का यह नाम अबूझमाड़ क्षेत्र में रहने से पड़ा। यह बस्तर सम्भाग का भाग है। अबूझ का अथग बूझा नहीं जा सकने से है। दशकों पहले इस क्षेत्र में बाहरी लोगों के प्रिेश के तलए 3 िषों हेतु प्रततबतन्धत भी कर ददया गया। इससे यह भ्रम फै ला दक इस क्षेत्र में जाना सदा हेतु प्रततबतन्धत हो गया है। इस भ्रम को ददनााँक 23 जून’2010 की दतक्षण क्षेत्र और बस्तर आददिासी तिकास पररषद की बैठक में ही दूर दकया जा सका। हालााँदक इससे यह क्षेत्र और अबूझता की ओर बढ़ गया। बाहरी पररितगन भी नहीं पहुाँचे और न ही अबूझमातड़या बाहर गए। यह क्षेत्र सघन िनों और दुगगम पहातड़यों से आच्छाददत है। यहााँ मानि प्रिेश करठन और दुलभ ग कर ददया गया है। यहााँ तक दक, यह छत्तीसगढ़ प्रदेश का असिेतक्षत भाग है।

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान पररषद की जनजातत तिषयक पररचय पुतस्तकाएाँ

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21 ओरक्षा इस क्षेत्र का प्रिेश द्वारा माना जाता है। मातड़या का अथग पहाड़ से है। इस अबूझ और दुगगम जंगलपहाड़ पर रहने िाले गोंड़ ही अबूझमातड़या कहलाए। प्रारतम्भक उल्लेखों में Hill Mariya शब्द भी प्रयुक्त हुआ था। 1213 के आसपास गायता या गैता का प्रयोग, 1855 (इतलयट) से मातड़या (पहाड़) संज्ञा द्वारा हटाया गया और अबूझमातड़या शब्द सामने आया। यह आयग शब्द है। तग्रयसन (1939) ने तहल (पहाड़ी) मातड़या तलखा था। इन्हें मातड़या (पहाड़ी) गोंड़ भी कहा जाता है। इस क्षेत्र पर माओिादी नक्सलाईट लोगों के प्रभाि के कारण तिषम पररतस्थततयााँ और बढ़ी हैं। तिशेष तपछड़ी जनजातत के रूप में तचतन्हत अबूझमातड़या जनजातत छत्तीसगढ़ के मात्र बस्तर सम्भाग में तनिास करती है। यह लोग इस सम्भाग के नारायणपुर, बीजापुर और दंतेिाड़ा (दतक्षण बस्तर) तजलों में तनिास करते हैं। 2002 के एक सिेक्षण में, इनकी जनसंख्या, 19,401 थी।10 अबूझमातड़या जनजातत की उत्पतत्त और तिकास के सम्बन्ध में आधुतनक िैज्ञातनक शोध नहीं हुए हैं और न ही एततहातसक सन्दभग उपलब्ध हैं। िे स्ियं यह मानते हैं दक, बस्तर के मातड़या गोंड़ समुदाय का एक प्रेमी युगल, सामातजक भय से, सामान्य क्षेत्र से पलायन कर दुगगम िन और पिगत्त क्षेत्र में भाग आया। यह क्षेत्र अबूझमाड़ था। यहााँ यह युगल तििाह कर बसा और उनके िंशज ही अब अबूझमातड़या हैं।11 अबूझमातड़या लोग पहाड़ की तलहरटयों और घारटयों में रहते हैं। स्थातनय स्तर पर घुमत ं ु और 12 स्थानानतरीय कृ तष करते हैं। इसे पेन्दा कृ तष और इसके स्थान को कघई कहते हैं। स्थान और उसके आसपास के संसाधनों को उपयोग कर आगे बढ़ जाने की प्रिृतत अब रूक सी रही है। अब स्थाई कृ तष और बसाहट करने लगे हैं। अबूझमातड़या लोगों के तनिास छोटी झोपड़ी में होते हैं, तजसे लकड़ी और तमट्टी से बना कर उस पर घााँस-फू स की छप्पर डालते हैं। इस पूरे ढ़ााँचे का तनमागण, िे स्ियं करते हैं। सामान्यतीः इसमें परछी (बरामदा), अगहा (बैठक), आाँगड़ी (रसोई), लोनू (स्टोर) और बाड़ी होती है। लोनू में ही कु ल देिता का तनिास रखते हैं। इसमें तखड़की और रोशनदान नहीं होते हैं। घरे लू समान सीतमत है। सोने के तलए अल्पांजी, बैठने के तलए पोिई (चटाई), अन्न कू टने की ढेक़ी और मूसल, अन्न पीसने के तलए जाता, भोजन बनाने और खाने-पीने हेतु बत्तगन (तमट्टी, एल्युमीतनयम, लौह, पीतल), पीसने की तसल आदद; कृ तष उपकरणों में हल, कु दाली, गैंती, रापा (फािड़ा), हतसया आदद; तशकार हेतु तीर-कमान, फरसा, टााँगी (कु ल्हाड़ी), फााँदा आदद; मछली पकड़ने हेतु जाल, चोररया, डगनी आदद होते हैं। अबूझमातड़या तस्त्रयों में गोदना हस्ततशल्प से शरीर गोदिाना अतनिायग सा है। िे इसे स्थाई गहना मानते हैं। यह माना जाता है दक, गोदना मृत्यु उपरााँत भी साथ जाता है। मस्तक, नाक के समीप, हाथ, ठु ड्डी आदद दृष्टव्य स्थानों पर गोदना हस्ततशल्प का प्रयोग कराया जाता है। िे तगलट या चमकीली धातु (नकली चााँदी) के आभूषण धारण करती हैं। तोड़ा (पैर), पैर पट्टी, करधन, चूड़ी, सुड़ल े (ऐड़ी), सुता (गला), रूपईया माला, चेन, मूाँगा माला, तखनिा (कान), झुमका, बाला, फु ली (नाक) आभूषण हैं। के श कई प्रकार की तपनों से सजाती हैं। पुरूष मात्र लगोटी जैसा िस्त्र और तस्त्रयााँ मात्र लुगड़ा धारण करती हैं। अबूझमातड़यायों के भोजन में चािल, मातड़या, कोदो, कु टकी, मक्का आदद का पेज और भात; उड़द, मूाँग, कु ल्थी आदद की दाल; िनीय कन्द, मूल, भाजी, तितभन्न पशु-पछी (पड़की, मोर, बगुला, कौआ, तोता, खरगोश, लोमड़ी, साही, मुगी-मुगाग, बकरी-बकरा आदद) और मछली मााँस, महुआ शराब, सल्फी ताड़ी आदद सम्मतलत हैं। मााँस और शराब या सल्फी ताड़ी दकसी भी संस्कार या आयोजन का अतनिायग अंग है। 10

छत्तीसगढ़ शासन के आददम जातत कल्याण तिभाग का िषग 2002 का सिेक्षण

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T.B.Naik-The Abhujmariyas

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान पररषद की जनजातत तिषयक पररचय पुतस्तकाएाँ

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22 इस जनजातत के लोगो का आर्थथक जीिन पेन्दा स्थांतरीय कृ तष, तशकार, िनोपज और कन्द-मूल संग्रह पर आधाररत रहा हैं। अब स्थाई कृ तष और मजदूरी होने लगी है। बाड़ी भी लगाने लगे हैं, तजसमें मक्का, कोसरा, मूाँग, उड़द, ऋतु शाक आदद बोते हैं। मज़दूरी की ओर झुकाि कम है। िन से मधु, तेन्दूपत्ता, कोसा, लाख, गोन्द, धिई फू ल, हराग, बहेरा, चार तचरौंजी आदद एकत्र कर बेचते हैं। छोटे पशु -पतछं का तशकार करते हैं। गाय-बैल, बकरी, सुअर और मुगी पालते हैं। अबूझमातड़या जनजातत तपतृ िंशात्मक, तपतृतनिास स्थातनय और तपतृसत्तात्मक है। सभी भारतीय जाततयों के समान, इसमें भी, कई िंश और गोत्र (गोती, गोष्ठी) हैं। इनके गोती (गोत्र) हैं- अक्का, मंडािी, धुिाग, उसेंडी, मरका, गुंठा, अटमी, लखमी, बड्डे, थोंड़ा आदद। प्रसि बुजुगग मतहला द्वारा कराया जाता है। पहले, इस हेत,ु पृथ्क झोपड़ी कु रमा बनाई जाती थी। तशशुनाल को तीर या छु री से काटते हैं। जच्चा पााँच ददनों तक तखचड़ी और काढ़े (हल्दी, सोंठ, तुलसी, पीपर, गुड़, अजिाईन आदद से) पर तनभगर रहती है। छठी पर जच्चा-बच्चा की शुतद्ध करते हैं। स्नान करा निीन िस्त्र धारण कराए जाते हैं। और देिता दशगन करा नाम रखा जाता है। सामातजक समारोह कर मााँस-मददरा का सेिन करते हैं। तििाह की सामान्य उम्र युिकों हेतु 18-19 और युिततयों हेतु 16-17 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। िधू तपता की सहमतत पर सूक (िधु-धन) तनयत दकया जाता है, तजसमें अन्न, दाल, तेल, गुड़, नगद रूपए आदद होते हैं। िधु को लेकर िर के गााँि जाते हैं, जहााँ तििाह रस्में, बुजुगग सम्पन्न कराते हैं। तबधेर (घर से भाग कर तििाह), ओतड़यत्ता (घुसपैठ या घर में घुस कर जबरदस्ती) और चूड़ी पहनाना (तिधिा या पररत्यक्ता पुनर्थििाह) प्रथा है। मृतक को दफनाते हैं, पर दाह पर भी रोक नहीं है। तितशष्ट व्यतक्त की कब्र पर गाथा (लकड़ी का हस्ततशल्प से तनर्थमत नक्काकाशी दकया खम्बा) लगाते हैं। यह तितशष्ठ परम्परा है। तृतीय ददिस मृत्य भोज ददया जाता है। परम्परागत जातत पंचायत भी है। इसका माढ़ (क्षेत्र) प्रमुख मााँझी होता है और उसके अधीन पटेल, पारा मुतखया और गायता होते हैं। यह लोग माढ़ में शांतत, व्यिस्था आदद बनाए रखने, तििाद तनराकरण, जातत तनयम तनमागण/संशोधन आदद के कायग करते हैं। अबूझमातड़यों के अराध्य हैं- बूढ़ा देि, ठाकु र देि (टालू भेंट), बूढ़ी माई या डोकरी, बलगोपेन, तितभन्न गृह देि (छोटा पेन, बड़ा पेन, मंझला पेन), गोत्र कु ल देिता, लगभग सभी तहन्दू अराध्य, स्थातनय नदी, स्थातनय पहाड़, नाग, सूयग, चन्द्र आदद। अराध्य उपासना में पशु बली (मुगाग, बकरा या सुअर) सम्मतलत है। प्रमुख त्योहार हैं- काकसाड़, पंड़ुम आदद। जादू-टोना और भूत-प्रेत पर तिश्वास है। अनुष्ठान कराने िाले और तंत्र-मंत्र जानने िाले को गायता या तसरहा कहते हैं। नृत्य और गीत अबूझमातड़यों का पसन्द है। काकसाड़, गेंड़ी और ररलो प्रमुख नृत्य हैं। काकसाड़ मुररया जनजातत में भी प्रचतलत है।13 ददररया, ररलो, पूजा, तििाह, सगाई, छठी आदद के लोक गीत हैं। अबूझमाड़ी लोग माड़ी बोली बोलते हैं। यह द्रतिड़ भाषा पररिार की गोंड़ी बोली का एक रूप है। 2002 के एक सिेक्षण में मात्र 19.25% अबूझमाड़ी लोग ही साक्षर थे। कु छ पररितगन भी सामने आने लगे हैं। यथा- बच्चों को शाला भेजना, स्थाई बसना और स्थाई कृ तष करना, िस्त्रों को धारण करना, दैतनक रोज़ग़ार आदद। अबूझमाड़ी लोग अत्यतधक तपछड़े हुए हैं। धन, सम्पतत, कृ तष भूतम आदद का पूणग अभाि है। कृ तष, रोज़ग़ार, तशक्षा, पोषण आदद अत्यतधक कम है। अन्धतिश्वास अतधक है। अभाि के साथ जीिन ही तनयतत बन गया है। 13

हीरा लाल शुक्ल-आददिासी संगीत (ग्रंथ अकादेमी, भोपाल, 1986)

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23 3. पहाड़ी कोरिाीःपहाड़ी कोरिा भी तिशेष तपछड़ी जनजातत है। छत्तीसगढ़ राज्य में यह सरगुजा सम्भाग के जशपुर और सरगुजा और तबलासपुर सम्भाग के कोरबा तजले में पाई जाती है। कोरबा नाम कोरिा जनजातत से ही बना है। 2005-06 के सिेक्षण में इनकी जनसंख्या 15 तिकासखण्ड़ों में 34,122 थी।14 कोरिा जनजातत की उत्तपतत और तिकास के सम्बन्ध में आधुतनक, िैज्ञातनक और जैनरे टक शोध नहीं हुए हैं। डाल्टन15 इन्हें कोलयाररन समूह16 से तनकली जनजातत मानता है।17 कोलयाररन समूह मुद्दे पर और चचाग आगे मुण्ड़ा जनजाती के तििरण के समय की गई है। एंथ्रोपोलाजी में इन्हें Austro-Asiatic family का माना गया है।18 िे आतस्रक पररिार की मुण्डारी भाषा/बोली बोलते हैं।19 कोरिा जनजातत की उत्तपतत के तिषय में तीन कथाएाँ प्रचतलत हैं। तीनों कथां का मूल कथ्य और भािना एकसी है। मात्र देितां के नाम पररिर्थतत हुए हैं। प्रथम कथा20 यह है दक, कोरिा लोग स्ियं के तलए यह कहते हैं दक- िे लोग खुररया (तजला जशपुर) के मूल तनिासी हैं। सरगुजा के दकसी शासक ने, उन्हें, अपने क्षेत्र में बसाया। कोरिा लोग अपने डरािने और कु रूप स्िरूप का कारण यह बताते हैं दक, सरगुजा में िनीय पशु उपजों को अत्यतधक नुकसान पहुाँचाते थे। उन्हें डराने को कु रूप और डरािने तबजूखे बनाए गए। बड़े देि ने उनमें प्राण डाल ददए, तजससे उनके भक्तों को िन पशुं से कभी भय नहीं हो। कोरिा लोग अपने को उसी का िंशज मानते हैं। तद्वतीय कथा21 में बड़ा देि के स्थान पर राम-सीता हैं। बनिास काल में, सीता ने खेतों के समीप से गुजरते हुए, राम से बीजूखों में प्राण डालने का आग्रह दकया और उन्हों ने इसे दक्रयांतित कर ददया। तृतीय कथा22 में यह है दक, शंकर ने सृतष्ट तनमागण हेतु रतनपुर राज्य के काला और बाला पिगत्त से तमट्टी लेकर दो मनुष्य- काइला और घुमा- सृतजत दकए। तदुपरांत दो नारी मूर्थतयों से में प्राण डाले। िह तसद्धी और बुतद्ध बनीं। काइला और तसद्धी तथा घुमा और बुतद्ध के तििाह हुए। प्रथम युगल से तीन पुत्र- कोल, कोरिा और कु ड़ाकू (कोड़ाखू) हुए। इस तद्वतीय पुत्र कोरिा के दो पुत्र हुए। प्रथम पहाड़ पर जाकर स्थानांतरीय दतहया खेती करने लगा और पहाड़ी कोरिा कहलाया। तद्वतीय पुत्र िनों को साफ कर हल द्वारा स्थाई खेती करने लगा और तडहारी कोरिा कहलाया। 14

छत्तीसगढ़ शासन, आददम जातत कल्याण तिभाग

15

डाल्टन (1857 में रााँची कमीश्नरी का प्रशासक रहा था, तजसका उल्लेख क्रााँतत काल में भी आता है। उसने इस क्षेत्र का अध्ययन

कर पुस्तक तलखी।) 16

अथागत मूलतीः कोल जनजातत से व्युतपतत या सम्बतन्धत। कृ प्या आगामी पृष्ठों पर मुण्डा भी देखें , तजसमें इस तिषय पर और

चचाग की गई है। 17

रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड झनकार,पृ.33

18

cjtdp.cg.gov.in/tribes.htm

19http://books.google.co.in/books?id=fU8Thf35iIEC&pg=PA42&lpg=PA42&dq=Pahari+korwa+tribe&so

urce=bl&ots=LYmypAl6DQ&sig=5EU7V7QGh1saAE3Duno2MBM3-g&hl=en&ei=e4nzS7n8K4GY6gO569SADA&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=10&ved=0CDY Q6AEwCQ#v=onepage&q=Pahari%20korwa%20tribe&f=false 20

रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड झनकार,पृ.33-34

21

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान पररषद की जनजातत तिषयक पररचय पुतस्तका(टी.के .िैष्णि-छ.ग. की

अ.ज.जाततयााँ,पृ.69) 22

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान पररषद की जनजातत तिषयक पररचय पुतस्तका(टी.के .िैष्णि-छ.ग. की आददम

ज.जाततयााँ,पृ.-42)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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24 कोरिा लोगों के दो समूह हैं। पहाड़ पर रहने िाले और पहाड़-पहाड़ घुमंतु जीिन तबताने िाले पहाड़ी कोरिा और तडह (गााँि) में रह स्थाई कृ तष करने िाले तडहारी कोरिा। पूिग सरगुजा और जशपुर ररयासत के , यह लोग, प्राचीन तनिासी प्रतीत होते हैं। इस आधार पर उन्हें मूल तनिासी भी कहा जाता है। कोरिा लोग खुररया सतहत 4 स्थानों पर जमीन्दार रहे, तजसमें से 2-2 सरगुजा और जशपुर ररयासत में थीं। सरगुजा की जमीन्दाररयााँ झगड़ते रहने के कारण गाँिानी पड़ी थीं। खुररया के जमीन्दार, कोरिां के प्रमुख जैसे मान तलए गए। िे जशपुर ररयासत के परम्परागत दीिान भी रहे। कोरिा लोग, इन दोनों ररयासतों के , कु छ भागों पर शासक भी रहे।23 कोरिा जनजातत मुख्यतीः पहाड़ी क्षेत्रों में तनिास करती है। अब यह लोग मैदानों में भी रहने लगे हैं। सामान्यतीः कं िर, उरााँि, नगेतसया, मुण्डा आदद जनजाततयों के लोगों के साथ। यह लोग तमट्टी से बने और घााँस-फू स से छाए घर में रहते हैं। पहाड़ पर रहने िाले बााँस और काष्ठ का भी उपयोग करते हैं। फशग तमट्टी का ही होता है और इसीसे या गाय के गोबर से लीपा जाता है। घर में 1 या 2 कमरे ही होते हैं। घर में भोजन बनाने और खाने के बत्तगन, तीर-धनुष, कु ल्हाड़ी, बााँस टोकनी आदद होती है। अस्िच्छ रहते थे। स्नान लगभग साप्तातहक ही था। के श भी नहीं काटते थे और न ही साफ करते थे। उसकी लम्बी जटा बना कर लपेटते लेते थे। अब मैदान में आने पर कु छ सुधार आया है। मतहलाएाँ काष्ठ और तगलट के आभूषण पहनती हैं। पुरूष मात्र लंगोट और मतहलाएाँ मात्र लुगड़ा पहनती थी। अब कु छ पुरूष बंड़ी भी पहनते हैं। भोजन में कोदो, कु टली, गोदली की पेज; कभी-कभी चािल का भात और िनीय कन्द, मूल, शाक इनका खाद्य है। यह लोग सभी पशु और पक्षी खा लेते हैं। मछली और के कड़े भी खाते हैं। महुआ शराब और चोंगी पीते हैं। तशकार और िनोपज खाद्य संग्रह ही मुख्य आर्थथक दक्रया कलाप है। अब छु ट-पुट खेती भी करते हैं। िन कन्द पहचानने और तीर-धनुष तनशाना लगाने में तनपुण होते हैं। तशकार पर जाते समय कहानी कहते हैं। यह कहातनयााँ संग्रतहत की जानी हैं। एक कहानी रघुिीर प्रसाद ने झारखण्ड झनकार में दी है।24 पहले तशकार नहीं तमलने पर लूट दकया करते थे। हत्या भी कर देते थे। चोरी से डाके को बेहतर मानते थे। बच्चे के रुदन को अपशगुन मानते थे और कभी-कभी उसे ही मार देते थे। यह लोग गोंड़, कं िर आदद लोगों के यहााँ भोजन कर लेते हैं, परं तु ब्राह्मण के यहााँ भोजन नहीं करते। अन्य तहन्दू भी इनसे छु आछू त नहीं मानते हैं। पहाड़ी कोरिा जनजातत के गोत्र हैं- मुतडहार, हसदा, ऐदमे, फरमा, समाउरहला, गोन, बंड़ा, इददनिार, सोनिानी, भुददिार, तबरिानी आदद। तशशु जन्म भगिान की देन माना जाता है। प्रसि हेतु पृथक पणग कु टी- कु म्बा- बनाई जाती है। स्थातनय दाई- डोंतगन- प्रसि कराती है। तशशु नाल तीर या चाकू से काटते हैं और झोपड़ी में गाड़ते हैं। प्रसूता को हल्दी तमला भात तखलाया जाता है। कु ल्थी, एंठीमुड़ी, तछन्द जड़, सरई छाल, सोंठ, गुड़ आदद से बना काढ़ा तपलाते हैं। छठी पर शुद्धी करते हैं। जच्चा-बच्चा को स्नानोपरांत सूरज, धरती और कु ल देिी को प्रणाम कराते हैं। महुआ शराब पीते तपलाते हैं। लड़के -लड़की अपना तििाह स्ियं करते हैं। उसमें माता-तपता की तस्िकृ तत की आिश्यकता ही नहीं होती है। दहेज भी अतत अल्प रूपयों का होता है और यदद यह ददया जा सके तो 8-10 तक तििाह कर लेते हैं। एक बच्चा होने तक युगल साथ रहता है, दफर औरत अलग रहने लगती है। िह अपना कन्द-मूल ला कर अलग बनाती है और उसका एक अंश पतत को देती है। अतीः तजसकी तजतनी औरतें उसे उतना ही अतधक भोजन और आराम। 23

रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड झनकार,पृ.33

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पृ.36

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25 तििाह उम्र लड़कों हेतु 14-18 और लड़दकयों हेतु 13-16 है। तििाह प्रस्ताि लड़का रखता है। तििाह में अनाज, दाल, तेल, गुड़, कु छ रूपए आदद लड़की के तपता को सुक में ददए जाते हैं। तििाह के चार चरण हैं- मंगनी, सूतबधौनी, तििाह और गौना। गौना तििाह के 2-3 िषग उपरााँत होता है। फे रा करने का कायग जातत मुतखया कराता है। इनमें गुरािट (तितनमय), लमसेना (सेिा तििाह), पैठू (घुसपैठ या जबरदस्ती), उढ़ररया (सह पलायन), तिधिा पुनर्थििाह, देिर-भाभी पुनर्थििाह मान्य है। शि दफनाते हैं। 10 िें ददन शुतद्ध कर भोज देते हैं। तजस झोपड़ी में मृत्यु हुई है, उसे नष्ट कर दूसरी बनते हैं। पारम्पररक जातत पंचायत है। प्रमुख को मुतखया कहते हैं। इसमें पटेल, प्रधान, भाट आदद पदातधकारी होते हैं। काई जातत पंचायतों का मुतखया तोलादार कहलाता है। इसमें िधु मूल्य, तििाह, तलाक, अन्य जातत तििाह, अनैततक सम्बन्ध आदद के मुद्दे तनराकृ त दकए जाते हैं। जातत के आराध्य देिी देितां की पूजा व्यिस्था भी जातत पंचायत करती है। कोरिा लोगों के अराध्य हैं- ठाकु र देि, खुररया रानी, शीतला माता, दुल्हा देि, सतबतहनी देिी आदद। खुररया रानी को अतधक मानते हैं। पहले 30-30 भैसों और अत्यतधक बकरे आदद, हर मौके पर, बतल ददए जाते थे। अब मुगाग चढ़ाते हैं। पूिग जशपुर ररयासत में खुररया रानी का मतन्दर प्रतसद्ध है। उच्च सम भूतम के कोरिा, इसी से अपनी उत्पतत मानते हैं। यह तजस चट्टान पर बना है, िह दुगगम है। प्राचीन काल में इस कायग का दकया जाना उच्च तकनीदक योग्यता दशागता है। यहााँ स्थातपत मूर्थत बुद्ध जैसी प्रतीत होती है। यहााँ खुररया इलाके दार के गद्दी पर बैठते समय ही मुख्य पूजा होती थी।25 पहाड़ी कोरिां के तीन त्योहार प्रमुख हैं। पूस में देिथान, जब सब देितां की पूजा और बतलदान दकया जाता है। िााँर में निाखाई, जब नया अन्ना खा और शराब पी नाचते हैं और चैत्र में होली। अन्य तहन्दू त्योहार भी मनाते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना पर तिशिास है। इनमें मंत्र, टोना, जादू आदद के जानकार को देिार बैगा कहते हैं। करमा, तबहाि, परधनी, रहस आदद नृत्य करते हैं। करमा, तबहाि, फाग आदद गीत गाते हैं। 2005-06 के एक सिेक्षण में इनमें साक्षरता 22.02% थी। यह पररित्तगन का एक लक्षण माना जा सकता है। बतल, लूट, डाका, हत्या आदद नगण्य हो गई है। रहने का ढ़ंग, खान-पान, पहनना-ओढ़ना आदद भी बदला है। स्थाई कृ तष, तशक्षा, मजदूरी आदद के प्रतत रूझान हुआ है। कु छ सुधरा रूप तनम्ांदकत तचत्र से भी दर्थशत होता है।

तचत्र 1 - पहाड़ी कोरिा

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स्रोत-indianetzone.com

रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड-झनकार,पृ.76

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26 धन, स्थाई सम्पतत्त आदद का अभाि है। कन्द, मूल, अस्िच्छ पशुं का मााँस ही मुख्य आहार है। पौतष्टक आहार, अन्न आदद दूर ही है। शासकीय योजनां ने नमक, चािल आदद सहज उपलब्ध कराया है, पर अभी भी अभािग्रस्त जीिन ही है। करे ला नीम भी चढ़ता है जब इसमें अतशक्षा, अन्धतिश्वास, उपचार अभाि, कु पोषण, अस्िच्छता, रोग आदद भी जुड़ जाते हैं। प्रतसद्ध तचत्रकार जगदीश स्िामीनाथन ने जब पहली बार सरगुजा और रायगढ़ की जनजातत पहाड़ी कोरिा को रं ग ब्रश प्रदान दकया और पररणामस्िरूप जो तचत्र सामने आये उसे देख कर स्िामीनाथन ने ‘जादुई तलतप' नामक मोनोग्राफ तलखा और पहाड़ी कोरिा द्वारा बनाये गये तचत्रों को समकालीन आधुतनक तचत्रकारों के तचत्रों के साथ एिं समानांतर तिश्लेतषत दकया।26 4. तबरहोरीःतबरहोर छत्तीसगढ़ की अल्पसंख्यक और तिशेष तपछड़ी जनजातत है। तबरहोर लोग अतधकांशतीः तबहार राज्य में रहते हैं। 2001 की जनगणना में छत्तीसगढ़ में मात्र 1,744 तबरहोर लोग थे, जो राज्य जनसंख्या का 0.026% ही है। यह जनजातत सरगुजा सम्भाग के जशपुर और तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और तबलासपुर तजलों के 14 तिकासखण्डों में है। यह लोग पिगत्तीय क्षेत्रों में तनिास करते हैं। हस्ततशल्प का पारम्पररक व्यिसाय करते हैं। मोहलाइन की छाल से रस्सी, बााँस से टुकना, झंऊहा, सालेह आदद और पोटे िृक्ष की लकड़ी से ढ़ोलक, बेहग ं ा आदद बनते और बेचते हैं। यह पारम्पररक हस्ततशल्पी जनजातत है। तबरहोर जनजातत के इततहास, उत्पतत आदद के तिषय में िैज्ञातनक शोध आदद नहीं हुए हैं। इन्हे भी कोलयाररन समूह27 की जनजातत माना जाता है।28 यह भी डाल्टन का प्रततपादन हो सकता है। तबरहोर लोग यह मानते हैं दक, सूयग द्वारा सात भाई पृतथ्ि पर तगराए गए, जो खैरागढ़ (कै मूर पहाड़ी क्षेत्र) से इस क्षेत्र में आए। चार पूिग की ओर गए और तीन रायगढ़ तजले में रह गए। यह तीन भाई तात्कातलन देश राजा से य्द्द्ध हेतु तनकले। एक भाई के तसर का कपड़ा पेड़ से अटक गया। िह इसे अशुभ लक्षण मान िन गमन कर गया। शेष दो ने राजा को हरा ददया। उन्हे िापसी में तीसरा भाई िन में चोप काटते ददखा। िे उसे तबरहोर अथागत जंगल का आदमी या चोप काटने िाला कहने लगे। उनकी बोली तबरहोरी में, तबर अथागत िन और होर अथागत मानि है।29 िन में रहने िाले मानि को तबरहोर कहा गया। तबरहोर कु तड़या (झोपड़ी) में रहते हैं। कु तड़या लकड़ी और घास-फू स की बनती है और मात्र एक कमरे की होती है।30 तबरहोर घर में धान कू टने का मूसल, चटाई, बााँस की टोकरी, टोकरा, सूपा, तमट्टी और एल्युमीतनयम के कु छ बत्तगन, तीर-कमान, कु ल्हाड़ी, मछली पकड़ने का जाल आदद ही होता है। इनके पास ओढ़ने-तबछाने के पयागप्त साधन नहीं हैं। सामान्यतीः यह लोग पैरा तबछा कर सोते हैं। ठं ड में पूरा पररिार अलाि में आग जला कर उसके चारों ओर सोता है। पुरूष मात्र लंगोट या छोटा पंछा और मतहलाएाँ मात्र लुगड़ा पहनती थीं। तस्त्रयााँ पीतल या तगलट का पटा या ऐंठी, माला, तखनिा (कान), फू ली (नाक) आदद आभूषण पहनती हैं।

26

निल शुक्ल-आददिासी सातहत्य की उपतस्थतत (तदभि-दतलत तिशेष अंक)

(http://www.tadbhav.com/dalit_issue/aadibasi_sahitya.html#adibasi) 27

अथागत कोल जनजातत से व्युतपतत्त और सम्बद्ध

28

छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभाग में उपलब्ध तबरहोर जनजातत का सतन्क्षप्त मानिशास्त्रीय अध्ययन (मोनोग्रादफक अध्ययन)

29

मध्य प्रदेश आददम जातत अनुसन्धान संस्थान,भोपाल की पुतस्तका तबरहोर जनजातत(पी.सी.काबरा)

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छत्तीसगढ़ अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तका(टी.के .िैष्णि-छ.ग.की आददम जनजाततयााँ)

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27 इनके भोजन में चािल या कोदो का पेज; बेतलया, कु ल्थी या उड़द की दाल; जनगली कन्द, मूल और ऋतु शाक; मुगी, बकरा, खरगोश, तहरण, सुअर, बन्दर, जंगली पतक्षयों का मााँस; महुआ शराब आदद सम्मतलत हो सकते हैं। इनके पास प्रमुख खाद्य कम ही होते थे। यह लोग जंगली कन्द- नाकौआ कांदा, तडटे कांदा, तपठास कांदा, लागे कांदा आदद को उबाल या भून कर खाते हैं। िषाग में मछली भी पकड़ते हैं। तबरहोर लोग तशकार, िन से कन्द-मूल-शाक और अन्य उपज संग्रह पर तनभगर हैं। इनका पारम्पररक हस्ततशल्प कायग भी है, तजसका उल्लेख ऊपर आ चुका है। तबरहोरों में उपजातत नहीं है। पर घुमंतु लोग उधलू और स्थाई तनिास करने िाले जघीस कहे जाते हैं। बतहर्थििाही गोत्र हैं। इनके गोत्र हैं- सोतनयल गाततया, बन्दर गाततया, बघेल, बाड़ी, कछु आ, छतेर सोनिानी, मुररहार आदद। प्रसि काल में स्त्री को पृथक कु तड़या (झोपड़े) में रखा जाता है और िह प्रसिोपरांत एक माह तक िहााँ रहती है। सजातीय कु सेरू दाई प्रसि कराती है। सातिें ददन शुतद्ध का स्नान करा सूयग दशगन कराते हैं। शराब सेिन करते और कराते हैं। लड़कों हेतु तििाह की सामान्य उम्र 16-18 और लड़दकयों हेतु 14-16 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। तििाह तय होने पर िर तपता िधु तपता को दो खंड़ी चािल, पााँच कु ड़ी दाल, दो हतड़या शराब, िधु हेतु लुगड़ा और भायसारी देता है। तबहोर ढ़ेड़ा (पुजारी) तििाह रस्म सम्पन्न कराता है। ढ़ूकू, उढ़ररया (भाग कर प्रेम तििाह), गोलत (तितनमय) तििाह मान्य हैं। सभी तस्त्रयों ( सधिा या तिधिा) को दूसरे व्यतक्त से पुर्थििाह को भी मान्यता है।

तचत्र 2 - तबरहोर

स्रोत-panoramio.com

पारम्पररक जातत पंचायत है। इसके प्रमुख को मातलक कहते हैं। इसमें ढ़ूकू तििाह, सहपलायन, सधिा नारी द्वारा पहले पतत को छोड़ दूसरा तििाह करने पर सूक िापस करना, अनैततक सम्बन्ध आदद के तििाद तनराकृ त्त दकए जाते हैं। तबरहोर जनजातत के प्रमुख आराध्य सूयग हैं। अन्य आराध्य हैं- बूढ़ी माई, मरी माई, (पूिगज) पहाड़, िृक्ष आदद। पूजा बतल और शराब के साथ ही होती है। भूत, प्रेत, जादू, टोना, तंत्र, मंत्र आदद मानते हैं। तंत्र-मंत्र और जड़ी-बूटी जानने िाले को पाहन कहते हैं। अन्य जनजाततयााँ तबरहोर लोगों को जादू-टोना करने में प्रिीण मानती हैं और इस कारण से उनसे डरती हैं। प्रमुख त्योहार हैं- निाखाई, दशहरा, सरहुल, करमा, सोहराई, फगुआ आदद। तबरहोरों में करमा, फगुआ, तबहाि नाच आदद लोक नृत्य और गीत हैं। प्रमुख िाद्य हैं- मांदर, ढ़ोल, ढ़फली आदद। िषग 2001 की जनगणना में तबरहोर जनजातत में पुरूष साक्षरता का प्रततशत 25.43 और मतहलां में 14.84% था। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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28 तिकास कायगक्रमों, तशक्षा, संचार, यातायात, बाह्य सम्पकग आदद के तिस्तार से तबरहोर लोगों में भी थोड़ा पररित्तगन आया है। अब स्थाई झोपड़ी बना कर रहने लगे हैं। िस्त्र तिन्यास, खान-पान आदद में तिशेष पररित्तगन नहीं हुआ है। कु छ लोग अतत अल्प खेती भी करने लगे हैं और मोटा साठी धान, मक्का, कोदो आदद उगाते हैं। लोककला और हस्ततशल्प में भी अल्प बदलाि ही है। तबरहोर जनजातत में गरीबी, तशक्षा की कमी, अन्धतिश्वास, अस्िछता, रोग, कु पोषण आदद व्याप्त है। 5 बैगाीःबैगा जनजातत छत्तीसगढ़ की तिशेष तपछ्ड़ी जनजातत है। यह लोग राज्य में, 2001 में, 69,993 थे। यह राज्य की कु ल जनजाततय जनसंख्या का 1.06% है। प्रााँत में बैगा लोग रायपुर सम्भाग के कबीरधाम (किधाग) और राजनााँदगााँि; तबलासपुर सम्भाग के के तबलासपुर और सरगुजा सम्भाग के कोररया तजले में रहते हैं। यह माना जाता है दक, ित्तगमान में छत्तीसगढ़ राज्य में रह रही समस्त जनजाततयों और जाततयों में बैगा ही सबसे पुराने हैं। अथागत िे ही सबसे पहले इस क्षेत्र में आए। उनका आगमन छोटा (चुरटया) नागपुर क्षेत्र से हुआ। स्िभातिक है दक सरगुजा का क्षेत्र उनका प्रथम आिास बना। बैगा जनजातत की उत्पतत के तिषय में आधुतनक शोध नहीं हुए हैं। रस्सेल्ल31 और तग्रयसन32 का मानना है दक, बैगा जनजातत भूतमया (भूईंया) का एक पृथक समूह है। बैगा दकिन्दंती के अनुसार, ब्रह्मा ने सृतष्ट रचना हेतु दो व्यतक्त उत्पन्न दकए। एक को नागर (हल) ददया और िह खेती करने लगा। िह गोंड़ हुआ। दूसरे को टंतगया (कु ल्हाड़ी) दी और िह िन काटने गया। अनुपलब्धता के कारण उसने िस्त्र धारण नहीं दकए। िह नंगा बैगा कहलाया। इसके िंशज बैगा कहलाए।33 बैगा लोग दुगगम पहाड़ी और िन क्षेत्रों में रहते हैं। यह लोग तमट्टी से बने और घास-फू स या खपरै ल से छाए गरों में रहते हैं। दीिार पीली या श्वेत तमट्टी से करते हैं। फशग मतहलां द्वारा तमट्टी या गोबर से लीपा जाता है। घर पर कोठी (अन्न भण्डारण), मूसल (धान/अन्न कु टाई), बाहना, जाता (अन्न तपसाई), बााँस टोकरी, सूपा, तमट्टी-एल्युमीतनयम-पीतल के थोड़े बत्तगन, ओढ़ने-तबछने के कपड़े, तीर-धनुष, टंतगया, कु मनी (मत्स्य आखेट), ढु ट्टी, ढोल (िाद्य), नगाड़ा, रटसकी आदद होते हैं। बैगा मतहलां में गोदना हस्ततशल्प गुदिाने की परम्परा है। यह सामान्यतीः हाथ, पैर और चेहरे पर गुदाया जाता है। पुरूष मात्र लंगोट या पंछा और मतहलाएाँ घुटने तक आने िाला लुगड़ा पहनती हैं। पुरूष, अब बंड़ी भी पहनने लगे हैं। मतहलाएाँ तगलट या नकली चााँदी की करधन, रूतपया माला, चेन, सुततया, कााँच चूड़ी, ऐंठी (कलाई), लौंग, तखनिा (कान), कणगफूल आदद पहनती हैं। इनके खाद्य चािल, कोदो, कु टकी- की पेज या भात; उड़द, मूाँग, अरहर- की दाल; ऋतु शाक; िनीय कन्द, मूल, फल; मुगाग, मछली, बकरा, के कड़ा, खरगोश, िनीय सुअर, िन पक्षी, तहरण आदद- का मााँस सम्मतलत है। महुए से स्ियं द्वारा तनर्थमत शराब पीते हैं। पुरूष तम्बाकू को तेन्दू पत्ते में लपेटकर चोंग़ी बना कर पीते हैं। बैगा लोग पहले स्थानांतरीय बेिर कृ तष करते थे। अब पहाड़ी ढ़लान पर स्थाई कृ तष भी करने लगे हैं। इसमें िे कोदो, मक्का, मतड़या, साढी धान, उड़द, मूाँग, झुरगा आदद उगाते हैं। जंगली कन्द-मूल, तेन्दूपत्ता, तीखुर, बेचांदद आदद एकत्र कर बेचते हैं। पहले जंगली जानिरों का अतधक तशकार भी करते थे। िषाग में मछली पकड़ते हैं।

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The Cast and Tribe of Centeral Province and Berara

32

जातत आधाररत जनगणना

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िेररयर आतल्िन-द बैगा

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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29 बैगा लोग पारम्पररक हस्ततशल्प व्यिसाय में हैं। बैगा मतहलाएाँ बााँस हस्ततशल्प से सूपा, टोकरी आदद बनाती हैं। बैगा लोगों में तििाही उपजाततया हैं। यह हैं- बबझिार, भारोरटया, नरोरटया, रामभैना, दुधभैना, कोड़िान या कु ड़ी, गोंड़भैना, कु रका बैगा, साित बैगा, आदद। यह उपजाततयााँ बतहर्थििाही गोती या गोत्र में तिभक्त हैं। यह हैं- मरािी, धुिे, मरकाम, परतेती, तेकाम, नेताम आदद। प्रत्येक गोत्र के टोटम हैं। बैगा जनजातत तपतृिंशी, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय है। प्रसि घर पर सुनमाई (दाई) कराती है। प्रसूता को गुड़, सोंठ, पीपर, अजिाईन आदद का लड्डू तखलाते हैं। छठी पर शुतद्ध कर कु ल देिी या देिता को प्रणाम कराते हैं। घर की तलपाई-पुताई करते हैं। ररश्तेदारों को शराब तपलाते हैं। लड़को की तििाह उम्र 16-18 और लड-अदकयों की 14-16 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। मामा, बुआ की संतानों के मध्य तििाह होता है। िर पक्ष िधु पक्ष को खची (िधुधन) में चािल, दाल, हल्दी, तेल, गुड़ और रूपए देता है। तििाह रस्म बैगा बुजुगग की देखरे ख में सम्पन्न होती हैं। लमसेना (सेिा तििाह), चोरी तििाह (सह पलायन), पैढ़ू (घुसपैठ), गुरािट (तितनमय) और खोड़नी (पुनर्थििाह) को मान्यता है। मृतक को दफनाते हैं। तृतीय ददन साफ सफाई कर शुतद्ध करते हैं। पुरूष तसर, दाढ़ी, मूाँछ काटते हैं। दसिें ददन दसकमग करते हैं। मृत्यु भोज देते हैं। बैगा लोगों में पारम्पररक जातत पंचायत है। इसमें मुकद्दम, दीिान, समरथ और चपरासी आदद पदातधकारी होते हैं। तििाह तििाद (पेठू, चोरी, तलाक, अनैततक सम्बन्ध अदद) इसी में तनराकृ त्त होते हैं। सामातजक भोज और जुमागना जैसे पारम्पररक तरीके अपनाए जाते हैं।

तचत्र 3 - बैगा ग्राम स्रोत-gutenberg.org

तचत्र 4 – गोदना और आभूषण के साथ बैगा मतहला स्रोत-kamat.com

बैगां के आराध्य हैं- बूढ़ा देि, ठाकु र देि, नारायण देि, भीमसेन, धनशामदेि, धरती माता, ठकु राईन माई, खैर माई, रात माई, बाघ देि, बूढ़ी माई, दुल्हा देि अदद। बतल देते हैं। नाररय ल और दारू से भी पूजा सम्पन्न करते हैं। इनके त्योहार हैं- हरे ली, पोला, निाखाई, दशहरा, काली चौदस, दीिाली, करमा पूजा, होली आदद। जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत आदद मानते हैं। इनका पुजारी और भूत-रे त भगाने िाला भूमका कहलाता है। इनके लोक नृत्य हैं- करमा, तबलमा (तििाह में), झटपट (दशहरा में) आदद। छेरता (नकटा-नकटी) नृत्य नारटका है। लोक गीत हैं- करमा, ददररया, सुआ, तििाह, माता सेिा, फाग आदद। लोक िाद्य हैंमांदर, ढोल, रटमटी, नगाड़ा, दकन्नरी, रटसकी आदद। 2001 में इनकी साक्षरता 31.35% थी, जो पुरूषों में 43.87% और मतहलां में 18.68% थी। यह राज्य साक्षरता से कम है। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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30 तिकास के फै लाि ने पररितगन भी प्रेररत दकया है। स्थाई खेती, खपरै ल की छत, पहनािा, खानपान, रहन-सहन, नौकरी, लोककला आदद ऐसे ही संकेत हैं। बााँस हस्ततशल्प में बदलाि आए हैं। गरीबी, अतशक्षा, अन्धतिश्वास, भोजन और उस पर भी पौतष्टक भोजन की कमी, अन्धतिश्वास, अस्िच्छता आदद जीिन को करठन बनाते हैं। अथग प्रमुख समस्या है। खाद्यान्न की कमी ही रहती है।

(दो). अन्य जनजाततयााँ :तिगत पृष्ठों पर छत्तीसगढ़ की पााँच तिशेष तपछड़ी जनजाततयों पर चचाग की गई। तीन- तबरहोर, कमार और बैगा- हस्ततशल्प के कायों के पारम्पररक व्यिासय को भी अपनाए हुए हैं। छत्तीसगढ़ की अन्य जनजाततयााँ भी, आधुतनक सन्दभों में, उन्नत या तिकतसत नहीं हैं। मात्र यह कहा जा सकता है दक, िे तिशेष तपछड़ी जनजाततयों से थोड़ा बेहतर तस्थतत में हैं। हालााँदक कु छ जनजाततयााँ, कु छ अन्य की तुलाना में, तीव्रता से आगे बढ़ रही हैं। यह तबड़म्बना ही है दक, सम्पूणग धरती के दकसी भी भाग में, िहााँ रहने िाला प्राचीनतम या कतथत मूल तनिासी ही सिागतधक गरीब और तपछड़ा है। क्या यह मानि के कतथत रूप से सभ्य कहलाने पर प्रश्नतचन्ह नहीं खड़ा करता? साथ ही यह प्रश्न भी सामने आता है दक, कतथत सभ्य समाज की मुख्य धारा सभ्यता है या कतथत मूल तनिातसयों का सहजपन? जबकी तिश्व के सभी मानिों का मूल कोई न कोई जनजातत (काबीला या राईब) ही है। जैसे इसे जनजाततय के उल्लेख तक भी रखें तो भी यह तथ्य उल्लेख में आता है दक, अब पादकस्तान-अफगातनस्तान सीमा के कबीतलयाई (राईब) क्षेत्र में बोली जाने िाली ब्राहुई भाषा द्रतिड़ समूह की है और छत्तीसगढ़ में बोली जाने िाली द्रतिड़ भाषां का उदगम इंतगत होती है। इससे यह संकेत तलया गया दक, छत्तीसगढ़ क्षेत्र में द्रतिड़ भाषी जनजततयों के पूिगज तसन्धु क्षेत्र या तहन्दुकुश क्षेत्र से यहााँ आए। पहले कु ड़ुख बोलने िालों का समूह लगभग 2,500 िषों पूिग, दफर लगभग 1,500 िषों पूिग गोंड़ी बोलने िालों का समूह और दफर लगभग 1,200 िषों पूिग परजी बोलने िालों का समूह छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आया।34 संस्कृ तत तिकास के अनुक्रम में गााँडा और पनका जैसी जाततयााँ अपनी संस्कृ तत भूलने के कारण जनजाततय दायरे ही बाहर होती गईं और परधान, ओझा, नागची आदद भी इसी राह पर आ गए। छत्तीसगढ़ में, सामान्यतीः, 31 जातीय समूहों को जनजातत के रूप में मान्य दकया गया है। इनमें से ही तिशेष तपछड़ी जनजातत की पााँच जनजाततयों पर चचाग की जा चुकी है। शेष 26 जनजाततयों पर चचाग आगे के पृष्ठों पर की जा रही है। यह संख्यात्मक रूप से 27 होगा, क्योकक गोंड़ में अबूझमातड़या भी सम्मतलत माने जाते हैं। 1. अगररयाीःअगररया छत्तीसगढ़ की एक जनजातत है। तबहार में इसे ही असुर कहा जाता है। राज्य में 2001 में इनकी जनसंख्या 54,574 थी। यह लोग रायपुर सम्भाग के कबीरधाम (किधाग); सरगुजा सम्भाग के सरगुजा, कोररया और जशपुर तथा तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर तजले में तनिास करते हैं।

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M.S.Andrpov (1980:18)

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31 अगररया जनजतत की उत्तपतत्त के तिषय में एततहातसक और िैज्ञातनक शोध अभी होने हैं। यह जनजातत भी गोंड़ जनजतत से पृथ्क हुआ समूह है। यह द्रतिड़ भाषा पररिार से सम्बतन्धत है।35 पहले यह गोंड़ जनजातत की उपजातत रही और कालांतर में इसे पृथक जनजातीय समूह मान तलया गया।36 यह लोग सरगुजा क्षेत्र में असुर या असुर अगररया, तबलासपुर क्षेत्र में खंरटया चोक या महाली असुर या महाली असुर अगररया, रायपुर क्षेत्र में गोड्डु क अगररया और कु छ क्षेत्रों में के ल्हा अगररया कहलाते हैं। यह लोग अपने को लोहार भी कहते हैं, पर लोहार एक पृथक जातत भी है। इनकी ककिन्दंतत यह है दक, प्राचीन काल में दो गोंड़ भाईयों में तििादोपरांत छोटा भाई िन गमन कर गया। भूख से व्याकु ल हो आग जला पास पड़े पत्थरों को उसमें डाल ददया। यह लौह-पत्थर (लौहअयस्क) था। अतीः लोहा गल कर पृथक हो गया। अतीः उसने लौह अयस्क को गला कर लोहा अलग करने के कायग को अजीतिका के रूप में अपना तलया। इसके िंशज, आग से जीिकोपाजगन करने के कारण, अगररया कहलाए। सामान्यतीः अगररया लोग अन्य स्थातनय जनजाततयों के साथ दूरस्थ िन और पहड़ी ग्रामों में तनिास करते हैं। इनके घर तमट्टी के और धााँस-फू स या खपरै ल की छत िाले होते हैं। इसमें दो से तीन कक्ष होते हैं। तमट्टी की ददिारों को श्वेत या पीत तमट्टी से पोता जाता है। तमट्टी के फशग को मतहलाएाँ गोबर या तमट्टी से लीपती हैं। घर में कोठी (अन्न भंडारण), मूसल, ढेकी, चक्की, बााँस टोकरी, सूपा, बत्तगन (तमट्टी, एल्युमीतनयम, पीतल), कपड़े (ओढ़ने, तबछाने, पहनने), लौह भट्टी, धौंकनी, तचमटा, हथौड़ा, हथौड़ी, संसी, छैनी, धनुष-तीर, हंतसया, फािड़ा, कु ल्हाड़ी, कु दाल आदद िस्तुए होती हैं। अगररया लोग प्रततददन स्नान करते हैं। मतहलाएाँ गुदना हस्ततशल्प गुदिाती हैं। पुरूष पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा पहनती हैं।37 भोजन में चािल, कोदो और कु टकी का भात; मक्का रोटी; मूाँग, उड़द, अरहर और कु ल्थी की दाल; ऋतु शाक; मछली, मुगाग, बकरा, तहरण, जंगली सुअर, खरगोश आदद का मााँस; महुआ शराब आदद सम्मतलत हैं। पुरूष तेन्दूपत्ते में तम्बाकू भर कर चोंगी पीते हैं।38 लौह अयस्क से लौह उत्पादन इनका व्यिसाय है। इससे िे हस्ततशल्प उत्पाद यथा- हाँतसया, फािड़ा, कु ल्हाड़ी, कु दाल, नागर (हल) का लोहा, तीर की नोंक आदद बनाते हैं। इनकी आजीतिका और जीिकोपाजगन हस्ततशल्प आधाररत है। लौह अयस्क में कोयला तमलाकर, तमट्टी की लगभग 3 फु ट ऊाँची भट्टी में डाला जाता है। नीचे आग जला कर ताप ददया जाता है। मतहलाएाँ चमड़े की धौंकनी को पैरों से दबा कर भट्टी को हिा देती हैं। लौह अयस्क से लोहा गलकर अलग होता है। इससे हस्ततशल्प से िस्तुएाँ बना कर बेचते हैं। अतीः इन्हें, सामान्य बोलचाल में, लोहार पेशे से सम्बतन्धत दकया जा सकता है। ये लोग बैगा आददिातसयों के तलए तििाह और दूसरे खुशी के समारोहों में जलाये जाने िाले दीिट (एक दकस्म की

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R.V.Russell-The Tribes And Castes of the Central Provinces of India, Page 3

(http://books.google.co.in/books?id=H6rOX1nXCJcC&pg=PA3&lpg=PA3&dq=Agaria+tribe&source=bl &ots=kjyAr9mYov&sig=IFok48DpY08pSmoT52_tS4EWLY&hl=en&ei=PcLzS4fIH4PDrAf5q4CTDQ&s a=X&oi=book_result&ct=result&resnum=5&ved=0CCcQ6AEwBA#v=onepage&q=Agaria%20tribe&f=f alse 36

िाररयर एतल्िन-द अगररया

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छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभाग की अगररया जनजातत का सतन्क्षप्त मानिशास्त्रीय अध्ययन(मोनोग्रादफक)

38http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%

E0%A4%BE

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32 संरचना तजसमें बहुत सारे दीपक होते हैं) बनाया करते थे; दकन्तु अब लागत बढ़ने और मजबूती कम होने के कारण आंगन को रोशन करने िाले दीपक का उपयोग ही बैगां ने बंद कर ददया।39 दीिट को हस्तकला का बेहतरीन नमूना माना जाता है। हररयाली त्यौहार के मौके पर अगररया दकसान के घर जाकर उनकी खाट, चौखट अथिा देहरी पर छोटी सी कील लगा देते हैं तो उन्हें पररिार के तलए एक ददन का भोजन तमलता है। जंगल की लकतड़यों से ही िे कोयला बनाकर लाते हैं। जब नये औजार बनते हैं तो एक ददन में एक बोरा कोयला खप जाता है और साल भर में उन्हें औसतन 70 बोरे कोयले की आिश्यकता पड़ती है। अब इसकी पूती में िन तिभाग कानून के आधार पर आड़े आता है। अपने आप टूटी हुई लकतड़यों का उपयोग भी अब मूल्य तिहीन और आसान नहीं रहा। उनकी आजीतिका पर कतथत आधुतनक तिकास का सीधा प्रभाि देखा जा सकता है।40 इसके अततररक्त िे िनों से कन्द-मूल, महुआ, तेन्दूपत्ता, गुल्ली आदद एकत्र भी करते हैं। तजसके पास कु छ भूतम हो िह मक्का, कोदो, कु टकी उड़द, मूाँग आदद की खेती करता है। िषाग में स्ियं के उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं।41

तचत्र 5 - अगररया लौह भट्टी

स्रोत-bhaskar.com

अगररया जनजातत में भी तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय है। इनमें पथाररया और खूाँरटया उपजाततयााँ हैं। पथररया नाम पत्थर पर लोहे को रख कर कू टने से और खूाँरटया नाम लौह खूाँटी पर रखकर पीटने की हस्त कायग की दक्रया से जतनत हुआ। इनमें बर्थहरतििाही गोत्र हैं। जैसे- मराई, मरािी, सोनिानी, तेकाम, उईके , मरकाम, धुरिा, बघेल, बसेरा, ततलाम, नाग, करे आम, मसराम आदद। प्रत्येक गोत्र में टोटम हैं। गभागिस्था में तिशेष संस्कार नहीं है। प्रसि स्थातनय बुजुगग मतहला द्वारा घर पर कराया जाता है। बच्चे की नाल हतसया या चाकू से काटते हैं और िहीं गाड़ देते हैं। जच्चा को महुआ, जामुन और तेन्दू की छाल, अततगन, पोपोड़, गुड़ आदद का काढ़ा तपलाते हैं। तीसरे ददन भात और अरहर दाल देते हैं। छठी पर शुद्धै करते हैं। स्नान और नि िस्त्र धारण करा देिी-देिता को प्रणाम कराते हैं। ररश्तेदारों को शराब तपलाते हैं। सामान्यतीः लड़कों की तििाह आयु 16-18 और लड़दकयों की 15-17 िषग है। तििाह का प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। िर तपता िधु तपता को खची (िधुधन) में चािल, दाल, हल्दी, तेल, गुड़, कपड़ा और नगद देता है। तििाह संस्कार परधान या बुजुगों द्वारा कराया जाता है। घर जमाई, गुरांिट, मामा या बुआ की संतानों से तििाह मान्य है। ढु कू (घुसपैठ या जबरदस्ती) और उढ़ररया (सह पलायन या भाग कर प्रेम

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http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=1638

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http://www.merikhabar.com/news_details.php?nid=1638

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान की पुतस्तका-छ.ग. की अ.ज.जाततयााँ(टी.के .िैष्णि)

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33 तििाह) में सामातजक दण्ड दे कर तस्िकृ तत दी जाती है। तिधिा और पररत्यक्ता का पुनतग ििाह होता है और समातजक मान्यता है।42 मृतक को गाड़ते (दफनाते) हैं। तीसरे ददन तीज नहािन करते हैं। पररिार और ररश्तेदार पुरूष तसर और दाढ़ी-मूछ मुड़ाते हैं। घर की सफाई करते हैं। दसिें ददन भोज देते हैं। अगररया लोगों में भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गोरटया कहलाता है। इसमें तििाह, तलाक, िधू-मोल्य, अनैततक सम्बन्ध आदद के तििाद हल दकए जाते हैं। अगररया लोगो के अराध्य हैं- बूढ़ा देि, लोहासुर, ठाकु र देि, दुल्हा देि, शीतला माता, बाघ देि, जोगनी, धुरलापाट आदद। यह लोग तहन्दू देिी-देितां को भी अराध्य मानते हैं। इसके अततररक्त सूय,ग चन्द्र, िृक्ष, पहाड़, नदी, सपग आदद भी आराध्य हैं। इनके त्योहार हैं- निाखाई, दशहरा, दीिाली, होली, करम पूजा आदद। निाखाई नई फसल आने पर मनाया जाता है। दशहरा में लोहासुर को काले मुगे की बली देते हैं। भूत-प्रेत और जादू-टोना में तिश्वास है। यह लोग करम पूजा में करमा, दीिाली में पड़की, तििाह में तििाह नाच नाम नृत्य करते हैं। करमा, ददररया, सुआ, तििाह, फाग, भजन आदद लोक गीत गाते हैं।43 पररितगन की बयार अगररया लोगों तक भी पहुाँची है। औद्योतगकीकरण और सामातजक दबाि ने मुख्य व्यिसाय, लोहा तनमागण, को ही दूर दकया है। लोहा बाज़ार से क्रय कर कृ तष उपकरण आदद बनाने लगे हैं। हालााँदक इस ओर भी रूझान कम हुआ है। िन काष्ठ से कोयला प्रातप्त करठनतम भी हुई है। घर, िस्त्रतिन्यास, रहन-सहन, खान-पान आदद में भी पररित्तगन आया है। लोक कला तो पयागप्त प्रभातित हुई है, तिशेषकर हस्ततशल्प। आर्थथक समस्या अतधक है। लौह अयस्क और कोयला प्रातप्त करठन हो गया है। लोहा बाज़ार से क्रय दकया जाने लगा है। उससे बने उपकरण भी, अब, तिक्रय योग्य कम रह गए हैं। इस कारण से मजदूरी, िनोपज संग्रह आदद की ओर रूझान बढ़ा है। लोहे से अन्य कलात्मक और सजािटी िस्तुए बनाने की ओर भी आकृ ष्ट हुए हैं। यह निाचार है। तशक्षा कमी, गरीबी, अन्ध तिश्वास आदद भी समस्याएाँ हैं।

2. भैनाीःभैना जनजातत छत्तीसगढ़ राज्य का आददिासी समूह है। 2001 की जनगणना में, यह लोग, 46,452 थे। 1911 में इनकी जनसंख्या 17,000 थी।44 यह लोग तबलासपुर सम्भाग में तनिास करते हैं। अतधकांशतीः तबलासपुर तजले में और कु छ रायगढ़ तजले में।

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िाररयर एतल्िन-द अगररया

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान की पुतस्तका छ.ग. की अ.ज.जाततयााँ(टी.के .िैष्णि)

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(http://books.google.co.in/books?id=69W858aghUC&pg=PA306&lpg=PA306&dq=bhaina+tribe&sourc e=bl&ots=dEan0m38gO&sig=Oko325ooHyx8WE7F5S3x4cu0Ws&hl=en&ei=dSj2SCfAoTBcd6P0fcL& sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CBcQ6AEwAQ#v=onepage&q=bhaina%20tribe&f =false)

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34 भैना जनजातत की उत्पतत के तिषय में एततहातसक और िैज्ञातनक शोध नहीं हैं। कु छ तिद्वान भैना जनजातत को बैगा और कं िर जनजातत से पृथक हुआ समूह मानते हैं। मध्य प्रदेश के मण्डला तजले में बैगा जनजातत में राजभैना उपसमूह भी पाया जाता है। यह भी माना जाता है दक, बैगा और कं िर तथा कु छ अन्य जनजाततयों के अनैततक जातत िाह्य तनम् जातत सम्बन्धों से भैना जनजातत की उत्पतत हुई। भैना अपने जादू-टोने के तलए भी जाने गए, तजसके आधार पर भी उन्हें बैगा पुजाररयों से जोड़ा गया।45 बैगा और कं िर जनजातत से उनके सहज सम्बन्ध भी रहे हैं। यह माना जाता है दक, पेंड्रा (तबलासपुर तजला) और फु लझर (रायपुर तजला) के जमीन्दार भैना थे, जो कं िर और गोंड़ जनजातत के जमीन्दार द्वारा प्रततस्थातपत दकए गए। भैना जनजातत के लोगों के घर तमट्टी का बना होता है, तजस पर घााँस-फू स या खपड़े की छत होती है। इसमें एक परछी (बरामदा) और दो से तीन कमरे होते हैं। फशग गोबर से और ददिार सफे द तमट्टी से लीपते हैं। पशु कोठा पृथक होता है। घरे लू िस्तुं में कोठी, चारपाई, कपड़े (ओढ़ने, तबछाने और पहनने के ), बत्तगन (भोजन बनाने और खाने के ), कृ तष उपकरण, कु ल्हाड़ी, ढ़ेकी, मूसल, चक्की, टोकरी, सूपा अदद होते हैं। प्रततददन शौच, दातौन, स्नान आदद करते हैं। पुरूष बाल भी कटिाते हैं। मतहलाएाँ बाल संिारती और काढ़ती हैं। मतहलाएाँ चेहरे , हाथ और पैर पर हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। आभूषण भी धारण करती हैं। यह हैं- तबतछया, सांटी लच्छा (पैर), करधन, ऐंठी (कलाई), चूड़ी, पहुाँची (बाहु), सुडाग (गला), रूतपया माला, तखनिा (कान), फू ली (नाक) आदद। पुरूष पंछा-बंड़ी, सलूका और धोती-कु त्ताग और मतहलाएाँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। इनके भोजन में चािल और कोदो के भात की बासी; उड़द, मूाँग, अरहर, ततिड़ा, कु ल्थी आदद की दाल; ऋतु शाक; मछली, मुगाग, बकरे आदद का मााँस; महुआ शराब आदद सम्मतलत हैं। भैना लोगों का जीिकोपाजगन कृ तष, मजदूरी, िन उपज संग्रह आदद पर तनभगर रहा है। इनकी अबसतचत कृ तष कोदो, धान, उड़द, मूाँग, ततिड़ा, ततल, तुिेर आदद तक सीतमत है। िनों से तेन्दूपत्ता, तेन्दू, चार, महुआ, गुल्ली, गोन्द, लाख, हराग, आाँिला आदद एकत्र कर उपयोग करते और बेचते हैं। िषाग में मछली भी पकड़ते हैं। भूतमहीन लोग मजदूरी पर तनभगर हैं। अब तशकार नाममात्र को रह गया है। भैना जनजातत भी तपतृसत्तात्मक, तपतृिंशी, तपतृतनिास स्थातनय िंश परम्परा पर ही आधाररत है। इनमें चार उपजाततयााँ- लाररया (छत्तीसगदढ़या), उतड़या, झलयारा (पणग कु टी अथागत झाला में रहने के कारण) और घरटयारा (द्वारा पर घंटी बााँधने के कारण)- हैं। उपजाततयााँ अंतीःतििाही हैं। उपजाततयााँ गोत्र में तिभक्त हैं। यह हैं- नाग, बाघ, तचतिा, तगधिा, बेसरा, बेन्दरा, लोधा, बतररया, गबड़, दुगागतचया, तमरचा, धोतबया, अहेरा, मनका, मालीन आदद। गोत्र में टोटम हैं, जो कई संज्ञां से भी स्पष्ट हैं।46 गभागिस्था में संस्कार नहीं हैं। प्रसि सुन्नदाई द्वारा कराया जाता है। नाल चाकू या ढलेड़ से काट घर में गाड़ते हैं। प्रसूता को ततल, सोंठ, गुड़, पीपल, अजिायन, घी, नाररयल आदद का लड्डू तखलाते हैं। छठी को शुतद्ध करते हैं। पुरूष भी बाल कटाते और दाढ़ी बनिाते हैं। जच्चा-बच्चा को नहला कर कु ल देिी-देिता को प्रणाम कराते हैं। ररश्तेदारों को भोज कराते और दारू तपलाते हैं। भैना लड़कों की सामान्य तििाह आयु 16-18 और लड़दकयों की 15-17 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। िर पक्ष िधू पक्ष को चािल, दाल, तेल, गुड़, कु छ नगद सूक (िधु मूल्य) देता है। तििाह के चार सोपान हैं- मंगनी, फलदान, तबिाह और गौना। पहले तििाह जातत के बुजुगग कराते थे, अब ब्राह्मण भी बुलाने लगे हैं। इस जनजातत में तितनमय, सेिा तििाह, सहपलायन, घुसपैठ, पुनगतििाह और देिर-भाभी पुनगतििाह मान्य है।

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ(डा.टी.के .िैष्णि)

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35 मृतक को गाड़ते (दफनाते) हैं। तृतीय ददिस मुण्डन कराते हैं। तेरहिें ददन पूिगज पूजा कर भोज देते हैं। इनमें भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। इसमें िधू धन तनधागरण, तििाह, तलाक आदद के तििाद तनराकरण, अनैततक सम्बन्ध तनयंत्रण, पूजा व्यिस्था अदद कायग होते हैं। भैना लोगों के प्रमुख आराध्य हैं- ठाकु र देि, बूढ़ा देि, गोरईया देि, भैसासुर, शीतला माता आदद। इसके अततररक्त सूय,ग चन्द्र, पहाड़, नदी, िृक्ष, बाघ, नाग सतहत तहन्दू देिी-देिाता भी आराध्य हैं। पूजा में बकरा या मुगाग बतल भी करते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना पर तिश्वास है। यह लोग जादू, मंत्र आदद के जानकार को बैगा कहते हैं। इनके प्रमुख त्योहार हैं- हरे ली, तीजा, पोला, तपतर, निाखाई, दशहरा, दीपािली, होली आदद हैं। इन लोगों में प्रचतलत नृत्य हैं- करमा, रहस, रामधूनी, तबहाि नाच आदद। परचतलत गीत हैंकरमा, ददररया, रहस, भजन, सुआ, तबहाि आदद। साक्षरता का प्रततशत 12 है। मतहला साक्षरता नगण्य है। क्रतमक तिकास या समय अनुक्रम में पररित्तगन की हिा ने भी प्रभातित दकया है। खेती तितध, िस्त्रतिन्यास, रहन-सहन, खान-पान, कलाएाँ आदद इससे प्रभातित हुए हैं। अथग समस्या को और बढ़ाता है। शासकीय योजनां के कारण भोजन जुटा पाते हैं, अन्यथा िषग भर खाने का इतज़ाम नहीं होता है। तशक्षा और रोगोपचार की कमी, अन्ध तिश्वास, कु पोषण की समस्याएाँ तो साथ में हैं हीं। 3. भूतमयाीः(या भुईहर, पातलहा, भाररया, भररया, भूतमया, भूइयााँ, भूईंहर पााँडो आदद) भाररया जनजातत द्रतिड़ समूह से तिकतसत हुआ जनजाततय समूह है। यह लोग पृथ्क- पृथ्क क्षेत्रों में पृथ्क-पृथ्क नाम से जाने जाते हैं। यथाीः मध्य प्रदेश में:> तछन्दिाड़ा और तसिनी तजलों में- भाररया, > जबलपुर, मण्डला और शहडोल तजलों में- भूतमया आदद;  छत्तीसगढ़ में:> तबलासपुर में- भूतमया, > कोररया, सरगुजा, रायगढ़ और तबलासपुर तजलों के कु छ भागों में- भूइाँयां या भूईंहर > सरगुजा और तबलासपुर के कु छ भागों में इनकी कु छ अतधक तपछड़ी उपजातत- पाण्डों या पंडो। इन सभी में आपसी तििाह सम्बन्ध नहीं हैं। 2001 की जनगणना में भूतमया लोगों की जनसंख्या 88,981 थी। तछन्दिाड़ा पातालकोट में यह लोग भाररया कहलाते हैं और िे िहााँ तिशेष तपछड़ी जनजातत है।47 सरगुजा आदद में पण्डो भी अत्यतधक तपछडे हैं, हालााँदक िे यहााँ तिशेष तपछड़ी जनजातत नहीं हैं। भूतमया का अथग है- भू स्िामी या भूतम धारक। यह लोग ग्राम देिता के पुजारी होने के कारण भूतमया कहलाए।48

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डा.संजय अलंग-पातालकोटीःएक अध्ययन,पृ.10

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36 इनकी उत्तपतत और तिकास पर भी एततहातसक और िौज्ञातनक शोध होने हैं। ककिन्दंती में िे अपने आप को पााँडिों से जोड़ते हैं। महाभारत युद्ध में अजुगन ने भरू घााँस को, मंत्र द्वारा, सैतनक बनाया गया और उसने युद्ध में भाग तलया। उसे ही भुईंहर लोग अपना पूिगज मानते हैं। यह भी कहा जाता है दक, महादेि द्वारा भूतम तनमागणोंपरांत तत्रशूल द्वारा अन्य आंतररक तनमागण यथा- नदी, पहाड़, पेड़, जंतु आदद दकए गए। इसी अनुक्रम में, भूतम उपयोग हेतु, मानि नर-मादा सृतजत दकए गए। इनकी संतततयों में से एक पुत्र भूतम और देि पूजा के कायग में लगा और भूतमया कहलाया। इनकी संज्ञा उत्तपतत के प्रसंग में भी यह तथ्य आता है। अन्य पुत्र कृ तष कायग में लगे और उनसे गोंड़, कोल आदद हुए। आर.व्ही.रस्सेल्ल इन्हें भार जनजातत से व्युत्पन्न मानते हैं।49 भार जनजातत का शासन दहाल राज्य (जबलपुर क्षेत्र का मूल नाम) में 1040 से 1080 ई. में था। क्रुक इन्हें द्रबिड़ मूल का मानने के साथ चेरों और बसओररं के तनकट मानता है। हालााँदक िे सामान्यतीः गोंड़ों के अतधक समीप हैं। ड्रायडेल इसी आधार पर, उन्हें, कोलेररयन और मुण्डा समूह के अतधक समीप मानता है। रघुिीर प्रसाद भी इनके कोलिंशी होने का ही उल्लेख करते हैं और साथ ही यह भी उल्लेतखत करते हैं दक, यह लोग अपनी मूल बोली भूल गए हैं।50 भूतमया लोग मध्य प्रदेश के तछन्दिाड़ा और तसिनी तजलों में गोंड़, परधान और ओझा; जबलपुर, मण्डला और शहडोल तजलों में बैगा, कोल, गोण्ड आदद और छत्तीसगढ़ के कोररया, तबलासपुर, सरगुजा और रायगढ़ तजलों में धनिार, गोंड़, कं िर, उरााँि, मुण्डा, खाररया, कोन्ध आदद जनजततयों के साथ तनिास करते हैं।51 उत्तर छत्तीसगढ़ में यह लोग प्राचीनतम तनिासी हैं। कोररया आदद तजलों में इन्हें मूल तनिासी माना जाता है।52 इस जनजातत के लोगों के घर भी तमट्टी के बने होते हैं, तजस पर घााँस-फू स या खपरै ल की छत होती है। दीिार और फशग, दोनों, गाय के गोबर से मतहलां द्वारा लीपे जाते हैं। घर में अतनिायगतीः दो दरिाजे रखते हैं। एक से रजस्िला स्त्री ही आती-जाती है।53 िह इन ददनों भूतम पर सोती है। िह अशुद्ध समझी जाती है। पुरूष उन्हें छू लें तो 21 ददन तक अशुद्ध माने जाते हैं। पशुं हेतु स्थान पृथ्क होता है। इनके घरों में उपयोग की सामान्य िस्तुएाँ ही होती हैं। यथा- कोठी, चक्की, मूसल, बााँस टोकरी, तमट्टी और एल्युमीतनयम बत्तगन, कपड़े, कु छ कृ तश उपकरण, कु ल्हाड़ी, कु मनी (मछली पकड़ने को), चोररया (मछली हेतु) आदद। भूतमया मतहलाएाँ मस्तक, हाथ, पैर, कपोल, ठु ड्डी, गले आदद पर हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। पैडी (पैर), तोड़ा, चूड़ी, कं कना (हाथ), गुलेठा (हाथ), ऐंठी (हाथ),, बहोटा (बााँह), पहुाँची (बााँह), हमेल (गला), सररया (गला), हंसली, उमेठा (कान), तखनिा (कान), लौंग आदद इनके आभूषण हैं। सभी जनजाततयों की तरह, इनके आभूषन भी महंगी धातुं के नहीं बने होते हैं। पुरूष धोती, पंछा, बंडी और कभी-कभी कु ताग तथा मतहलाएाँ पोलका और लुगड़ा पहनती हैं। इनके भोजन में मक्का और ज्िार की रोटी, कोदो और चािल का भात, िनीय कन्द-मूल-शाक, स्थातनय दाल सम्मतलत है। मााँसाहारी हैं। मुगी, तीतर, बटेर, हररल, मछली, के कड़ा, कछु आ, बकरा, सुअर, तहरण आदद का मााँस खाते हैं। रजस्िला स्त्री को तमट्टी पात्र या पत्तल में भोजन देते हैं और इन्हें, भोजनोपरांत, फें क देते हैं। गभगिती मतहला को खटाई और तमचग खाने की मनाही है। जच्चा को िषग भर हरी शाक नहीं तखलाते हैं, क्योंदक यह लोग यह मानते हैं दक, इससे उसका दूध कमजोर हो जाएगा।54

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रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड-झनकार,पृ.99

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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डा.संजय अलंग-कोररया ररयासत का प्रशासतनक अध्ययन,पृ.19

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रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड-झनकार,पृ.101

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रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड-झनकार,पृ.101

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37 इनका जीिकोपाजगन पहाड़ी ढ़लान पर की जाने िाली आददम बेिर (पेड़-झाड़ी तगरा जला देना) और डाही (पेड़-झाड़ी की शाखाएाँ मात्र काटना और खेत में फै ला कर जलाना) कृ तष और िनोपज संग्रह पर तनभगर है। हल चला कर खेती नहीं करते हैं। कृ तष उपज कम है। िह भी मात्र मक्का, ज्िार, कोदो, कु टकी, कु लथी आदद तक ही सीतमत है। अतधकांश िनोपज संग्रह भी पूस-माघ तक सीतमत रहता है। तशकार के तलए हााँका करते हैं। मछली मारने के तलए थूहे का दूध छोड़ देते हैं। मछली मारने का एक अन्य तरीका यह अपनाते हैं दक, रात में मशाल का प्रकाश कर मछतलयों को आकर्थषत कर बछी, फसी या डंडे से मारते हैं। अब मजदूरी भी करने लगे हैं।55 भूतमया जनजातत में पृथ्क-पृथ्क क्षेत्रों में पृथ्क-पृथ्क उपजाअततयााँ हैं और उनके नाम भी अलगअलग हैं। इन उपजाततयों में तििाह सम्बन्द्ध नहीं हैं। यह हैं- भूतमया, भाररया, (भररया), भुईया, भुईंहर, पण्डो आदद। प्रत्येक उपजातत में गोत्र भी अलग-अलग हैं। उदाहराणाथगीः- भाररया (तछन्दिाड़ा) में- कु मरा, उइका, तेकाम, परतेती, पेदराम, सरे आम, भलािी, धुिाग, नगदररया, दाढ़ोतलया, पहाड़ी ओतलया, पचेतलया, गोिातलया, खमररया, रािततया, ढ़कररया, बचतलया, भतीया आदद। भूतमया (मण्डला) मेंिातडया, दारकु र, धुिाग, तजकराम, किाची, औंचौ, कारे आम, हसरा, मरािी, मरकाम, तपडौिा, पेटोरटया, पेड्रो, पोटा, टेकाम, सुखाम आदद। प्रत्येक गोत्र के अपने पृथ्क टोटम हैं। यह जनजातत भी तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय होती है। इनकी अपनी बोली लुप्त हो गई है। छत्तीसगढ़ी बहदी पर आतश्रत बोली बोलने लगे हैं। प्रथाएाँ भी तहन्दुं से ग्रहण करते हैं। ियस्क तििाह है, पर तििाह प्रथा अन्य जाततयों और जनजाततयों से अलग है। ममेरे और फू फे रे भाई-बहनों में तििाह होता है। िर तपता दो बोतल शराब और कु छ नगद रूपयों के साथ तििाह प्रस्ताि रखता है। सहमतत पर लड़की के साथ िापस आता है। िह लगभग एक पखिाड़े अपने भािी पतत के घर रहती है और यदद उसका प्रेम लड़के से नहीं हुआ तो लड़की को िापस पहुाँचा ददया जाता है। यदद प्रेम हो गया तो िर तपता इस नि युगल को लेकर िधु घर जाता है और िधु तपता को पुनीः शराब और धन देता है। उसी समय लड़का लड़की को चूड़ी पहना देता है। कु छ ददन यह सभी लोग िधु घर में उसके तपता के अतततथ रहते हैं। तब िधु तपता िर तपता से कहता है दक, बहू को ले जा और चार-पााँच ददन में िापस कर देना। तब उत्तर तमलता है दक, अच्छा लड़की ले जाता हूाँ, जब सुतिधा होगी शादी करूाँगा। िर तपता नि-दम्पतत को लेकर िापस आ जाता है। यदद लड़की की कोई बहन हुई तो िह भी साथ जाती है। घर पहुाँच कर निदम्पतत को काठ पटे खड़ा कर मााँ और बहन पैर धोते हैं और घर प्रिेश करा देितां को प्रणाम कराते हैं। इसी ददन समुदाय भोज ददया जाता है। छठिें ददन लड़का लड़की को उसके घर पहुाँचा आता है। साथ में अन्न, शराब और धोती ले जाता है। कु छ ददन िहीं रहता है। िधु तपता कु छ कपड़े देता है। अब तििाह के व्यय सतहत तििाह की तैयारी की जाती है। सब व्यिस्था हो जाने पर इस जातत का कोई सयाना व्यतक्त शराब, ततल या सरसों और हल्दी लेकर लड़की के घर जाता है। अब मण्डप, तििाह आदद की ततथी तनयत होती है। तनतित तििाह ततथी को बारात जाती है। बारात के साथ नगद, लड़की और उसकी बहनों के तलए धोततयााँ, लड़की की मााँ के तलए नगद और लड़की के मामा के तलए धोती जाती है। गााँि-घर िालों की अगिानी पिात समधी गले तमल एक कम्बल पर बैठाते हैं और एक-दूसरे को रूतपया देते हैं।अब िर-िधू को पीले िस्त्र पहना मण्डप में आया जाता है। िधू भाभी गााँठ बााँधती है और नेग लेती है। नि-दम्पतत सात फे रे इस भाभी के साथ ही लेते हैं। फे रे में लड़की की भाभी के पीछे िधू और उसके पीछे िर चलता है। भाभी ही िधू को तसन्दूर लगाती है और िर का तसर ओढ़नी से ढ़क देती है। तदुपरांत तखचड़ी लाकर, युगल को, तखलाती है और तििाह की दक्रया पूणग करती है। अब बारात के साथ लाया गया सामान लड़की की मााँ या नानी को ददया जाता है। अब भोज होता है। अगले ददन लड़की की तिदाई की जाती है।56 55

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38 घर जमाई, घुसपैठ, सह पलायन, तितनमय तििाह मान्य हैं। तिधिा और पररत्यक्ता का पुनगतििाह मान्य है। बच्चा पैदा होते ही चािल, चुन (कोढ़ा-भूसा) से उपटन करते हैं। छु री से नाल काट कनारी आदद घड़े में रख छीन्द िृक्ष के नीचे गाड़ देते हैं। घर में दकसी पूिगज ने जन्म तलया है या नहीं और दकसने तलया है? यह सब जानने को बैगा को बुलाते हैं। िह ददया जलाकर एक-एक पुरखे के नाम का चािल तनकालता है, तजसके नाम का चािल तीन भागों में बाँट जाए बच्चा उस पूिगज का अितार माना जाता है। जच्चा को गुड़, सोंठ, अजिाईन, पीपर आदद से बना सूतक तपलाते हैं। छठी पर शुद्धी कर भोज देते हैं। मुदों को गाड़ते हैं। दस ददन तक अशुद्ध समझे जाते हैं। दसिें ददन मुगी काट कर उसका रक्त कन्धों पर लगा कर शुद्ध होते हैं। इनमें पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख मुतखया कहलाता है। इसमें अनैततक सम्बन्ध, अंतजागतीय सम्बन्ध, तििाह तििाद, तििाह-तिच्छेद आदद के िाद तनराकृ त्त दकए जाते हैं। अराध्यों की पूजा की व्यिस्था भी जातत पंचायत करती है। भूतमयााँ या भुईंहार लोग काले या श्वेत पत्थर को िृक्ष के नीचे रख उसे बड़ािन देिता की संज्ञा दे अराधना करते हैं। बकरे की बली देते हैं। उसका चमड़ा तक खा जाते हैं। फाल्गुन प्रततपदा को पााँडिों की पूजा करते हैं। पााँचो पााँड़िों को होम देकर मुगी की बली दे उसका मााँस खाते हैं। अन्य आराध्य हैं- हरदूल लाला, मठु आ, पनघट, भीमसेन, धुलागपाठ, बाघदानो, जोगनी, खैरमाई, मेढ़ोदेि, चंडीमाई, बूढ़ादेि, ठाकु रदेि, भैसासुर, सभी तहन्दू देिी-देिता, सूरज, नदी, पहाड़, िृक्ष, नाग आदद। पीपल और बड़ िृक्ष में भूत-प्रेत का तनिास मान उसमें तसन्दूर, रटकली, चूड़ी आदद चढ़ा कर पूजते हैं। भूत-र भूमका कहलाता है। िह रोगोपचार भी जड़ीटोना आदद मानते हैं। इसका जानका-जादू ,प्रेतटोने से करता है। बैगा सूपे में जलता ददया लेकर तहला तहला कर मंत्र पढ़ता है। यदद रोगी -बूटी और जादू अच्छा होता नहीं ददखता है तो उसको दिा देनी भीबन्द कर देते हैं। करमा और होलीमा भादों में नहीं मना कुं िार एकादशी को प्रमुख त्योहार हैं। यह लोग कर ,इनके , गाते हैं। -रोटी खा कर शराब पी कर रात भर नाचते-मनाते हैं। ददन में उपिास रखते हैं। रात में कु म्हड़ा होली में भी ददन में उपिास करते हैं। रात को मााांसाहार कर नाचते गाते हैं। अन्य त्योहार हैं ,तबदरी नोरता आदद। दशहरा और दीपािली भी मनाते हैं। ,तपतर ,पोरा ,आठे ,तीजा ,पंचमी ,जीितत ,अखाड़ी दीपािली पर शैलातििाह पर तबहाि आदद नृत्य करते हैं। ,पोला में गुन्नर ,होली पर रहस , मतहलां का एक नृत्य पड़की भी है।

तचत्र 6 - भूतमया घर

और

7 - भूतमया िृद्धा

दोनों तचत्रों का स्रोत्त-flickr.com

छठी में सूदक, तििाह में तििाह, होली में फाग, दीपािली में अतहराई, ज्िार में सेिा गीत आदद गाते हैं।

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39 साक्षरता अत्यतधक कम है। क्रतमक तिकास में पहनािा, खान-पान, रहन-सहन और लोककला थोड़ी बदली है। जीिकोपाजगन की करठन पररतस्थततयााँ और धनाभाि प्रमुख समस्या है। कभी मात्र कन्द-मूल और मााँस ही आहार था। भोजन उपलब्धता ही मुख्य ध्येय रहा। तशक्षा की कमी और अन्धतिश्वास ने समस्या को और मुखर ही दकया। 4. भतराीःछत्तीसगढ़ राज्य में भतरा जनजातत, मुख्यतीः, बस्तर सम्भाग के बस्तर तजले में ही रहती है। 2001 में, इनकी जनसंख्या 185,514 थी। उड़ीसा में इन्हें भोतड़ा कहा जाता है। इनकी जनसंख्या महाराष्ट्र में भी है। इनकी उत्पतत पर भी एततहातसक और िैज्ञातनक जीन आदद आधाररत साक्ष्यों पर शोध होना है। इन लोगों के अनुसार, इनके पूिगज बस्तर शासक के पास सेिक के रूप में कायग करते थे। पहरे दारी और घरे लू कामकाज में तिश्वासपात्र होने के कारण भत्तरी कहा गया। इससे भत्तरा और अब भतरा कहलाए। बस्तर या दण्डकारण्य क्षेत्र इनका आदद तनिास बना।57 भतरा जनजातत के लोग अन्य जनजाततयों के साथ, तमट्टी से बने घरों में, ग्रामों में तनिास करते हैं, जो कई पारों में बाँटे होते हैं। तमट्टी से बने घरों का तनमागण िे स्ियं करते हैं। छत स्थातनय खपरै ल की होती है। मकान में चार-पााँच कमरे होते हैं। पशु कोठा पृथक होता है। सामने बैठने का चबूतरा (बरामदा) होता है। पुताई स्थातनय सफे द तमट्टी से करते हैं। तमट्टी के फशग को प्रतत सुबह गाय के गोबर से लीपते हैं। घर में सामान्यतीः चारपाई, चक्की, मूसल, कपड़े (ओढ़ने, तबछने और पहनने के ), बत्तगन (एल्युमीतनयम, कााँसा, स्टील, लोहा, तमट्टी आदद के ), कृ तष उपकरण (हल आदद), बैलगाड़ी, कु ल्हाड़ी, मत्स्य आखेट का जाल आदद रहते हैं। स्नान तनत्य प्रातीः है। दातौन नीम और बबूल की है। मतहलाएाँ रीठे से तसर धोती हैं। िे बालों में तेल लगा, बालॉ को पीछे कर, जूड़ा बााँधती हैं। पुरूष गोंछी (धोती) और मतहलाएाँ अब साड़ी पहनती हैं। मुख्य भोजन भात (चािल या कोदो का) और पेज है। इसके साथ स्थातनय शाक-भाजी, दाल आदद ले लेते हैं। मछली, मुगाग आदद खाते हैं। पुरूष तम्बाखू और बीड़ी भी पीते हैं। तपछड़ी कृ तष, िनोपज संग्रह, िन से लकड़ी काटना, कृ तष मजदूरी आदद पर अथग और जीिकोपाजगन है। कोदो, धान, ततिरा, अरहर आदद ही बोते हैं। बसचाई नगण्य प्राय है। कृ तष तपछड़ी हुई है। उपज कम है। िनों से महुआ, शहद, कोसा, गोन्द, तेन्दूपत्ता, लाख आदद संग्रह कर बेचते हैं। िषाग में नालों आदद से मछली पकड़ते हैं। भतरा जनजातत में पीत, अमनीत, सान आदद उपजाततयााँ हैं, जो क्रमशीः ऊाँचे और नीचे माने जाते हैं। इनमें गोत्र हैं- कश्यप, मोहरे , बघेल, नाग (कोरमी), पुजारी आदद। गोतत्रों में टोटम भी हैं। गभागिस्था में तिशेष संस्कार नहीं है। प्रसि पतत घर में होता है। दाई और बुजुगग मतहलाएाँ यह कायग कराती हैं। नाल घर में गाड़ते हैं। जच्चा को तीन ददनों तक िनीय जड़ी-बूटी और गुड़ आदद का काढ़ा तपलाते हैं। छठी को शुद्धी कर सूयग और कु ल देिी को प्रणाम करते हैं। भोज दे दारू तपलाते हैं। व्यस्क तििाह है। प्रस्ताि िर पक्ष देता है। यह पक्ष ही धान, दाल, नाररयल, हल्दी, सुपाड़ी, िधुिस्त्र, तमठाई, नगद आदद भी देता है। पुनगतििाह, पलायन, तिधिा तििाह आदद को सामातजक दण्द उपरााँत मान्य दकया जाता है।

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एस.एस.भण्डारी-भतरा जनजातत

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40 मृत्तक को गाड़ते हैं। कु छ सम्पन्न पररिार दाह भी करते हैं। बच्चे दफनाए ही जाते हैं। दसकमग पर मुण्ड़न और भोज है। इनके प्रमुख अराध्य हैं- ठाकु र देि, बूढ़ा बाबा, माती देिी, परदेतशन माता, दंतेश्वरी माई, बूढ़ी माई आदद। तहन्दू देिी-देिता भी आराध्य हैं, तिशेषकर हनुमान, तशि और दुगाग आदद। भूत-प्रेत, जादू-टोना पर तिश्वास है। इसके जानकार को तसरहा कहते हैं। त्योहारों में हररयाली, निाखाई, नागपंचमी, दशहरा, होली, दीपािली आदद सम्मतलत हैं। करमा, तबहाि, रामसत्ता आदद नृत्य करते हैं। गौरा, रहस आदद गीत गाते हैं। निरात्रों पर रामलीला नाटक खेलते हैं। लोक कथाएाँ भी प्रचतलत हैं। तशक्षा अल्प है। क्रतमक तिकास से पहनािे, श्रृंगार, खान-पान, रहने के ढ़ंग, शाररररक स्िच्छता, आिास व्यिस्था, लोककला आदद में परित्तगन ददखने लगे हैं। धनाभाि और अभािग्रस्तता समस्या का के न्द्र है। अन्धतिश्वास, कु रीतत, कु पोषण आदद से समस्या और बढ़ती है। 5. भुतं जयाीःभुंतजया जनजातत छत्तीसगढ़ प्रांत के रायपुर सम्भाग के रायपुर तजले में प्राचीनतम जनजातत है और इस तजले में इसे इस कारण से मूल जनजातत माना जाता है। सूनाबेड़ा पठार ( लगभग 21° 25/ और 21° 30/ उत्तर latitude and 82° 35/ पूिग longitude) को इनकी मूल भूतम माना जाता है।58 यह भूभाग रायपुर तजले की खररयार जमीन्दारी का भाग रहा, जो अप्रैल’1936 तक सेंरल प्रोबिस (मध्य प्रांत) के छत्तीसगढ़ सम्भाग के रायपुर तजले का पूिग-दतक्षण भाग था। यह भू-भाग अब उड़ीसा राज्य के नूआपाड़ा तजले के कोमा तिकासखण्ड में है।59 अब यह लोग रायपुर तजले की गररयाबन्द तहसील तक संकेतन्द्रत हैं। यह लोग उड़ीसा के कलाहााँडी तजले में भी हैं। छत्तीसगढ़ में इनकी संख्या कम है। 2001 में यह लोग मात्र 9,357 थे।60 भुंतजया जनजातत की उत्तपतत, तिकास आदद पर एततहातसक और िैज्ञातनक शोध नहीं हैं। भुंतजया का अथग भूतम से उत्तपन्न या भूतम से पैदा करने से सम्बद्ध दकया जाता है।61 के .सी.दुबे इन्हें बस्तर के हलबा लोगों से पृथ्क हुई शाखा मानते हैं, जो धाकारों से झगड़े के कारण इधर आए।62 यह लोग हलबी बोलते हैं। यह आयग भाषा के रूप में तिकतसत हुई और बस्तर में स्थातपत हुई। पूरे बस्तर क्षेत्र में भाषां का अतत और तितचत्र संगम हुआ है। छत्तीसगढ़ी तहन्दी, तेलगू, उतड़या, मराठी, कई जनजाततय बोलीयााँ और भाषाएाँगोंड़ी, गदबा, (मुण्डा) आदद भाषां के क्षेत्र और िक्ता होने से हलबी उन सब के तमश्रण की सम्पकग भाषा के 58

http://en.wikipedia.org/wiki/Bhunjia

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Atik Ahamed Khan-Sunadei - The Epicentre of Bhunjia life(Orissa Review ,September-October –

2007,P.18-20) (http://www.orissa.gov.in/e-magazine/Orissareview/sept-oct2007/engpdf/Pages1820.pdf) 60

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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ए.एल.नाहररया-भुंतजया जनजातत(पेपर)

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Atik Ahamed Khan-Sunadei - The Epicentre of Bhunjia life(Orissa Review, September-October –

2007,P.18-20) (http://www.orissa.gov.in/e-magazine/Orissareview/sept-oct2007/engpdf/Pages1820.pdf)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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41 रूप में सामने आई। हलबा जातत से सम्बन्धता के कारण इसे हलबी की संज्ञा तमली। यह (हलबा) बस्तर शासकों की अंगरक्षक जनजातत थी। इस जनजातत के लोग अपनी उत्पतत की दंतकथा यह बताते हैं दक, चौखुरटया भुंतजया जनजातत हलबा पुरूष और गोंड़ मतहला के तििाह से उत्पन्न हुई। ररजले तचन्दा भुंतजया की उत्पतत्त बबझिार और गोंड़ तििाह से मानते हैं। हालााँदक गोंड़ इस क्षेत्र में बाद में आए, पर भुंतजया लोगों का तििाह सम्बन्द्ध उनसे ही है। उन्होंने उनके अराध्यों और रीतत ररिाजों को भी अपनाया।63 यह लोग गोंड़, कमार आदद के साथ रहते हैं। भुंतजया लोगों के घर दो-तीन कमरों के होते हैं। पुताई स्थातनय पीत या श्वेत तमट्टी से करते हैं। तमट्टी के फशग को गाय के गोबर से लीओअते हैं। चौखुरटया भुंतजया लोग रााँधा घर अलग से बना, उसकी दीिार लाल तमट्टी सी लीपते हैं। इसकी छत घााँस-फू स की होती है। इसे लाल बंगला भी कहते हैं। यहााँ रसोई के साथ देि स्थान भी होता है। इसे पररिार सदस्यों के अततररक्त अन्य लोग लोग स्पशग भी नहीं कर सकते। भुंतजया घरों में कोठी, जाता, ढ़ेकी, मूसल, िस्त्र (ओढ़ने, तबछने और पहनने के ), एल्युमीतनयमतमट्टी-कााँसे के बत्तगन (भोजन बनाने और खाने के ), कृ तष उपकरण, कु ल्हाड़ी, बााँस टोकरी, सूपा, जाल (मत्स्य आखेट) आदद होता है। भुंतजया जनजातत की मतहलाएाँ हाथ, पैर, चेहरे आदद पर हस्ततशल्प से गोदना गुदिाती हैं। िह लुगड़ा और पोलका तथा पुरूष धोती, पंछा, बंड़ी, कु ताग आदद पहनते हैं। मतहलां द्वारा पहने जाने िाले आभूषण हैं- पैरों में पैरी, सांटी; हाथ में पटा, एंठी, चूड़ी; गले में सुरड़ा, रूतपया माला: नाक में कू ली; कान में तखनिा आदद। अतधकांश आभूषण तगलट और नकली चााँदी के होते हैं। इनके भोजन में चािल और कोदो का भात और बासी पेज, मतड़या पेज, मौसमी सब्जी आदद सम्मतलत हैं। कभी-कभी उड़द, मूाँग, कु ल्थी, बेतलया आदद की दाल भी खाते हैं। मांसााँहारी हैं और बकरा, खरगोश, मुगाग, मछली, तितभन्न पक्षी आदद खाते हैं। सुअर खाते हैं, पर गाय और बन्दर नहीं खाते।64 महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी भी पीते हैं। इस जनजातत के आर्थथक दक्रया-कलाप कृ तष, िनोपज संग्रह, मज़दूरी और तशकार पर ही तनभगर हैं। तशकार अब नगण्य प्राय रह गया है। कृ तष भी मात्र धान, कोदो, अरहर, ततिड़ा, ततल आदद तक सीतमत है। िनों से महुआ, चार, गोन्द, लाख, तेन्दूपत्ता आदद एकत्र करते हैं। तजनके पास कृ तष भूतम कम है, िे अन्य कृ षकों के खेतों पर कृ तष मजदूरी करते हैं। िषाग ऋतु में स्ियं के उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। मतहलाएाँ बच्चे को लेकर काम करने जाती हैं और उसे एक कपड़े के द्वारा कमर में बााँध लेती हैं।65 इनमें भी तपत्तृिंश, तपत्तृसत्तात्मकता और स्थातनय तपत्तृतनिास ही है। इनमें दो उप जातत हैंचौखुरटया और तचन्दा भुंतजया। चौखुरटया ऊाँचे माने जाते हैं। उपजाततयों में गोत्र हैं- बधिा, बोकरा, चीता,

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Atik Ahamed Khan-Sunadei - The Epicentre of Bhunjia life(Orissa Review ,September-October –

2007,P.18-20) (http://www.orissa.gov.in/e-magazine/Orissareview/sept-oct2007/engpdf/Pages1820.pdf) 64

By R. V. Russell-The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Volume 2, P.428

(http://books.google.co.in/books?id=69W858aghUC&pg=PA424&lpg=PA424&dq=Bhunjia+tribe&sour ce=bl&ots=dEan3q8ciU&sig=wIKr0rLPuzb8FgaL3sCGnxEezI&hl=en&ei=x237S6DzKoe5rAesOCtAg &sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=5&ved=0CCkQ6AEwBA#v=onepage&q=Bhunjia%20tribe &f=false) 65

By R. V. Russell-The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Volume 2, P.428-429

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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42 भैंसा, सोनिानी, तेकाम, जांता, नेताम, मरकाम, दूध, सुआ आदद। गोत्र बर्थहतििाही समूह हैं, पर उपजातत अंतीःतििाही हैं। प्रत्येक गोत्र में टोटम पाए जाते हैं।66 इनमें भी गभागिस्था संस्कार नहीं है। प्रसि घर में सुन्नदाई या बुजुगग मतहलां द्वारा कराया जाता है। प्रसूता को जड़ी-बूटी का काढ़ा तपलाते और सोंठ, गुड़, ततल आदद के लड्डू तखलाते हैं। छठी में शुतद्ध हेतु स्नान उपरााँत दूध तछड़कते हैं। तदुपरांत ररश्तेदारों को चाय-बीड़ी तपलाते हैं। रजस्लिा मतहला आठ ददन तक अपतित्र मानी जाती है। तििाह पूिग लड़दकयों हेतु पृथ्क संस्कार है। रजस्लिा होने के पूिग कांद तििाह सम्पन्न कराते हैं। इसमें कन्या का तििाह बाण से कराया जाता है। लड़कों हेतु तििाह की सामान्य आयु 16-18 और लडअदकयों हेतु 14-16 है। इनमें भी तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। यह पक्ष िधु तपता को चािल, दाल, गुड़, हल्दी, तेल, िस्त्र आदद देता है। तििाह के रीतत ररिाज बुजुगों की देखरे ख में सम्पन्न कराए जाते हैं। उढ़ररया, पैठू, लमसेना, गुरािट प्रथा भी है। तिधिा और त्यगत्ता का पुनगतििाह होता है। इसे चूड़ी पहनाना कहते हैं। मृतक को गाड़ते हैं। तीसरे ददन घर की तलपाई-पुताई, स्नान और मुण्डन आदद कर पतित्र होते हैं। दसिें ददन भोज देते हैं। भुंतजया जनजातत में भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इस पंचायत में पदातधकारी पुजेरी, पाती और दीिान हैं। यह िंशानुगत पद हैं। इसमें पारम्पररक तरीकों से अथागत नगद और भोज दण्ड द्वारा अनैततक सम्बन्ध, जातत बाह्य तििाह और सम्बन्ध, तलाक आदद के मामले तनपटाए जाते हैं।67 इनके आराध्य हैं- बूढ़ादेि, ठाकु रदेि, बूढ़ीमाई, भैंसासुर, मांटीदेि, काना भौंरा, काला कुाँ िर, डू मा देि (पूिगज) आदद। इसके अततररक्त सूरज, नदी, पहाड़, िृक्ष आदद भी आराध्य हैं। तहन्दू अराध्यों को भी पूजते हैं। इनके त्योहार हैं- हरे ली, पोला, तीजा, तपतर, निाखाई, दशहरा, दीपािली, होली आदद। प्रतत िषग ग्राम देिता और कु ल देिता को मुगी की बतल चढ़ाते हैं। ठाकु रदेि, बूढ़ीमाई और काला कुाँ िर को प्रतत तीन िषग में बकरे की बतल देते हैं। जादू-टोना, तंत्र-मंत्र पर तिश्वास है और इसका ज़ानकार बैगा कहलाता है। तबहाि (तििाह पर), पड़की (दीपािली पर), रहस (होली पर), राम सप्ताह (भादों में पुरूषों द्वारा) आदद नृत्य करते हैं। लोक गीत हैं- पड़की, ददररया, तििाह, फाग, राम सप्ताह आदद। तिकास कायगक्रमों, तशक्षा, सन्चार, यातायात, बाह्य सम्पकग आदद के कारण पररित्तगन भी स्िभातिक प्रदक्रया है। अतीः इनका भी रहन-सहन, खान-पान, कला, िस्त्र-तिन्यास, कृ तष पद्धतत आदद बदली है। इनकी समस्या आर्थथक कारणों से और तिकराल हो जाती है। गरीबी को तपछड़ी और अबसतचत कृ तष तिपरीत प्रभातित करती है। अभािग्रस्त जीिन है। तशक्षा की कमी, अन्धतिश्वास, कु पोषण आदद की समस्याएाँ इसकी अनुषांगी की तरह हैं। 6. तबयारीःतबयार छत्तीसगढ़ की एक अल्पसंख्यक जनजातत है। 2001 में इनकी संख्या 4,403 थी। यह लोग मुख्यतीः सरगुजा सम्भाग के सरगुजा तजले में ही हैं। तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और तबलासपुर तजलों में भी थोड़ी जनसंख्या है।68

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छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभाग-भुंतजया जनजातत के संतक्षप्त मानिशातस्त्रय अध्ययन(मोनोग्रादफक)

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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43 इनकी उत्पतत के िैज्ञातनक और एततहातसक साक्ष्यों पर शोध होना है। इनकी ककिदंतत के अनुसार तशि-पािगती के तिन्ध्यांचल तिचरण के समय पािगती को धान खेती की इच्छा हुई। तशि द्वारा मानि नर और मादा उत्पन्न कर ददए गए। इस युगल ने िन काट और जला कर धान बीज राख में तछड़क खेती की। इसी युगल से तबयार जनजातत के लोग अपनी उत्पतत्त मानते हैं। तबयार जनजातत के लोग गोंड़, खैरिार आदद जनजाततयों के साथ दूरस्थ ग्रामों में तनिास करते हैं। इनके आिास तमट्टी के बने होते हैं, तजस पर खपड़े की छत होती है। इनके घरों में परछी के उपरााँत दो-तीन कमरे होते हैं। दीिारें श्वेत तमट्टी या छु ई से पोती जाती हैं। तमट्टी के फशग को गोबर से लीपते हैं। इनके घरों में कोठी, चक्की, मूसल, चारपाई, िस्त्र, चूल्हा, बत्तगन, कृ तष उपकरण आदद होते हैं। यह लोग बबूल, करंज, नीम, हराग आदद की दातौन से प्रततददन दााँत साफ करते हैं। स्नान भी प्रततददन है। के श तचकनी तमट्टी से धोते है। उसमें मूाँगफली या ततल का तेल लगा कं घी करते हैं। तस्त्रयााँ बालों को गूाँथ कर जूड़ा बनाती हैं। िे गोदना भी गुदिाती हैं। मतहलाएाँ आभूषण भी पहनती हैं। पुरूष पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। इनके भोजन में भात (चािल, कोदो), रोटी (गेहू)ाँ , दाल (उड़द, तुअर, मूाँग), शाक (मौसमी भाजी) आदद हो सकते हैं। मछली, मुगाग, बकरा आदद का मााँस खाते हैं। पुरूष महुआ शराब और बीड़ी पीते हैं। तबयार जनजातत का आर्थथक जीिन तपछड़ी कृ तष, मज़दूरी और िन उपज संग्रह पर तनभगर है। कृ तष उत्पाद कोदो, धान, मक्का, उड़द, मूाँग, तुअर, ततल आदद हैं। भूतमहीन या सीमांत क्र्षक मज़दूरी पर तनभगर हैं। िनों से महुआ, गुल्ली, चार, गोन्द, तेन्दूपत्ता, हराग, लाख, आाँिला आदद एकत्र कर बेचते हैं। िषाग में स्िउपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। गभागिस्था में संस्कार नहीं है। प्रसि दाई या बुजुगग मतहलां द्वारा घर पर कराया जाता है। नाल चाकू से काट प्रसि स्थान पर गाड़ते हैं। कु ल्थी, पीपर, सरई छाल, सोंठ, छीन्द जड़, एठीमुड़ी, गुड़ आदद का काढ़ा प्रसूता को तपलाते हैं। छठी को जच्चा-बच्चा के शुतद्ध स्नान उपरााँत निीन िस्त्र धारण कराते हैं और दफर कु ल देिता/देिी, सूयग, धरती और पूिगजों को प्रणाम कराते हैं। ररश्तेदारों को भोजन कराते हैं। दारू और बीड़ी तपलाते हैं। लड़कों की तििाह आयु 12-18 और लड़दकयों की 10-16 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। िर तपता िधू तपता को लगन भराई के नगद, हल्दी, तेल और गुड़ देता है। अब तििाह हेतु ब्राह्मण बुलाने लगे हैं, पहले बुजुगग ही यह कायग करा देता था। तितनमय, सेिा तििाह, घुसपैठ, सहपलायन, तिधिा पुनगतििाह, देिर-भाभी पुनगतििाह मान्य है। मृतक को जलाते हैं। अतस्थ सोन या अन्य नददयों में प्रिातहत करते हैं। दसिें ददन शुतद्ध हेतु स्नान, पूजा, भोज आदद करते हैं। अब ब्राह्मण बुला श्राद्ध भी करने लगे हैं। जातत पंचायत भी है। प्रमुख को मुतखया कहते हैं। लगन भरना, तििाह, छू टा, अनैततक सम्बन्द्ध आदद के मामले तनराकृ त्त दकए जाते हैं। तबयार जनजातत में आराध्य हैं- महा देि, धरती माता, तसमाड़ा, दुल्हा देि, शीतला माता, ज्िालामुखी, भैंसासुर आदद और सभी तहन्दू देिी और देिता। इनके त्योहार हैं- दशहरा, दीिाली, निरातत्र, संक्रांतत, होली अदद। भूत-प्रेत और जादू-टोने पर तिश्वास है। लोक नृत्य हैं- तििाह नाच, रहस (होली) आदद। लोकगीत हैं- तििाह गीत, फाग, भजन आदद। तिकास के अनुक्रम में पररित्तगन को तीव्र अपना रहे हैं। रीतत ररिाज भी बदलने लगे हैं। ब्राह्मणिादी व्यव्स्था भी घर बना ली है। तहन्दू धमग का पूणग प्रभाि भी हो गया है। रहन-सहन, खान-पान, िस्त्र, कलाएाँ, खेती पद्धतत आदद में भी पररित्तगन है। धन का अभाि प्रमुख समस्या है। कृ तष अपयागप्त और तपछड़ी है। तशक्षा की कमी, अन्धतिश्वास, कु पोषण आदद भी हैं।

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7. बबझिारीःबबझिार जनजातत छत्तीसगढ़ प्रदेश के रायपुर और तबलासपुर सम्भागों में तनिास करती है। रायपुर में यह महासमुन्द और रायपुर तथा तबलासपुर में रायगढ़ और तबलासपुर तजलों में तनिास करते हैं। 2001 में इनकी जनसंख्या 100,692 थी। बबझिार उत्पतत्त पर भी िैज्ञातनक और एततहातसक शोध नहीं हैं, पर इस जनजातत हेतु कु छ तकग अिश्य सामने आए हैं। राबटग िाने रस्सेल्ल का मत है दक, बबझिार जनजातत मध्य प्रदेश के मण्डला और बालाघाट की बैगा जनजातत से व्युत्पन्न हुई और मैकल या महाकाल पिगत्त श्रेणी से बाहर जा कर बसी। बैगा लोगों में बबझिारों को ऊाँची श्रेणी प्राप्त है। रस्सेल इन्हें बैगा जनजातत की उसी तरह की तिकतसत श्रेणी मानता है, जैसी गोड़ों में राजगोंड़ और भीलों में तभलाला।69 बबझ शब्द तिन्ध्य का अपभ्रंश है। बबझिार लोग अपनी उत्पतत्त इसी पिगत्त से मानते हैं। उनकी आराध्य भी तिध्यिातसनीदेिी हैं। िे यह मानते हैं दक, िे बबझकू प (तिन्ध्य पिगत्त तस्थत कु आाँ या गह्िर) से लाम्टा (बालाघाट का लाम्टा या तबलासपुर का लाफा?) आए।70 िे अपनी उत्पतत्त की दंत कथा भी कहते हैं, तजसके अनुसार बारह बेतकार (धनुषधारी) भाई तिन्ध्यिातसनी देिी के पुत्र थे। उनके धनुर्थिद्या अभ्यास के दौरान एक तीर उड़ीसा सागर तट के पुरी जगन्नाथ मतन्दर के द्वारा पर जा लगा और गड़ गया। िहााँ इसे कोई, राजा के हाथी भी, नहीं तनकाल पाया। सभी भाई िहााँ पहुाँचे और उन्होंने सहजता से तीर तनकाल मतन्दर द्वारा खोल ददया। अब राजा ने प्रसन्न हो, उन्हें भूतम और जमीन्दारी प्रदान की।71 यह भी कहा जाता है दक, यह प्रतसद्ध तीर एक िन शूकर के पीछे गया। बबझिार लोगों में भूतम जोतने और खेती करने िाला िगग िरहा के नाम पर बारीहा कहा जाता है। बबझिार लोग तीर को जातत तचन्ह मानते हैं। इसे िे आपनी िस्तुं, पशुं और नाम के साथ अंदकत करते हैं। जब तक कन्या को िर नहीं तमले, उसका तििाह तीर से करते हैं। तििाह मण्डप में महुआ डाल के साथ तीर भी लगाते हैं।72 एक अन्य ककिन्दंती में यह कहा गया दक, पटना का प्रथम राजा चौहान राहपूत था। उसकी मााँ अपने पतत और सम्बतन्धयों को युद्ध में खोने के उपरााँत सम्बलपुर आ गई। उसने एक बबझिार की झोपड़ी में शरण ली। यहााँ उसे एक पुत्र हुआ। िह पटना का राजा बना। उसने उस बबझिार को बोड़ासर की जतमन्दारी दी, तजसकी झोपड़ी में उसकी माता ने शरण ली थी और जहााँ उसने जन्म तलया था। उनसे िह सम्मानपूिगक मात्र रे श्म िस्त्र लेता था। यह परम्परा आगे भी रही।73

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R. V. Russell- The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Volume 2, Page 122-123

(http://books.google.co.in/books?id=IT2M05E1QTkC&pg=PA122&lpg=PA122&dq=Binjhwar+tribe&so urce=bl&ots=s28hyXc18U&sig=CcLipsSnk_Dprif_jsjI1cqlCgE&hl=en&ei=wGD_S7niCcGGkAWq6cXx DQ&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=3&ved=0CCMQ6AEwAg#v=onepage&q=Binjhwar%20 tribe&f=false) 70

http://tdil.mit.gov.in/ggs/Sanskritik_CG(HTML)/Sanskritik_Chhattisgarh/tribesofCG4.htm

71

टी.बी.नाईक-बारह भाई बबझिार(1972)(म.प्र.ग्रंथ आकादेमी)

72

छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभार की बबझिार (भाग 1 और 2) जनजातत का सतन्क्षप्त मानिशास्त्रीय अध्ययन

73

टी.के .िैष्णि-बबझिार जनजातत

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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45 बबझिार अब द्रबिड़ मूल की बैगा जनजातत से पृथक जनजातत के रूप में तिकतसत हो गए हैं और उनसे अपने सम्बन्धों को नकार भी रहें हैं। यह लोग अन्य जनजाततयों से थोड़ा तिकतसत भी हैं।74 1857 की क्रााँतत का प्रतसद्ध (िीर) नारायण बसह इसी जनजातत का था। हालााँदक उसके तिरूद्ध उपतनिेशिादी अंग्रेजों के सहायक हुए देिरी जमीन्दार भी इसी जनजातत के थे और नारायण के ररश्तेदार थे। सोनाखान, देिरी, भटगााँि आदद जमीन्दाररयााँ इस जनजातत से सम्बद्ध रही हैं। बबझिार जनजातत की चार उपजाततयााँ हैं- बबझिार, सोनझरा, तबरतजया और बबतझया। बबझिार जमीन्दार रहे और उच्च माने जाते हैं। सोनझरा महानदी में रे त छान और धो कर स्िणग तनकालने का कायग करते हैं। बबझिारों की सोनझरा उपजातत के अततररक्त भी एक अन्य जातत समूह का नाम भी सोनझरा है, पर िह बबझिार जनजातत में नहीं है। तबरतजया पहले स्थांतरीय कृ तष बेिर करते थे। बेिर कृ तष से तबिरतजया कहलाए, जो अब तबरतजया उच्चाररत होता है। बबतझया इनमें सबसे नीचे हैं। सम्भितीः ऐसा, उनसे गोंड़ राजा की हत्या हो जाने हुआ। तबलासपुर में कहीं-कहीं इन्हें पृथ्क जातत के रूप में भी तचतन्हत दकया जाता है। भटगााँि जमीन्दारी इसी समूह के पास थी। सभी उपजाततयााँ बर्थहतििाही समूह हैं। पररिार तपतृ सत्तात्मकतपतृतनिास स्थानीय है। गोत्र स्थातनयता और टोटम पर ,तपतृिंशीय , ,(भैंसा) पोड़ ,बाघ -आधाररत हैं। जैसकमतलया े ,(कमल)पंकनली ,(पनकउआ)ताड़मछली पकड़ने ) जाल , आदद। कु छ गोत् (कार अन्य नामों पर भी आधाररत हैं। जैसेमृत्त बाघ उठाने ) मरईमेली बाघ ,उधार ,(िालाउल्टुम ,(िाचाल)के साल ,(जान बचाने िाला)जातलया आदद। कु छ गोत्र अन्य कायों और (झूठा) इस ,बंका माझी आदद। यह भी हो सकता है दक ,लोहार भील ,दूध कं िररया -समूहों पर आधाररत हैं। जैसे काायग समूह के लोग बबझिार बन गए हों। जहााँजहााँ बबझिार लोग गोंड़ और मुण्डा जनजातत के साथ रहे ,सुलई आदद और गोड़ों से टेकाम ,सोन ,मुण्डां से मुन्ना -िहााँ उन्होंने उनके गोत्र भी अपनाए। जैसे सोनिानी आदद। इस जनजातत के लोग सामान्यतीः गोंड़ कं िर आदद ,सााँिरा ,जनजातत के लोगों के साथ तनिास करते हैं। सामान्य जनजाततय घरों की तरह इनके आिास भी तमट्टी और खपरै ल के बने होते हैं। दीिारे श्वेत और पीत तमट्टी से और फशग गाय के गोबर से लीपा जाता है। घर के आगे और पीछे परछी होता (बरामदा) है। पशु कोठा अलग होता है।

तचत्र 8 - बबझिार जनजातत

स्रोत- tdil.mit.gov.in

घर में ढ़ेकी, जाता (चक्की), मूसल, कोठी, चारपाई, कपड़े (ओढ़ने, तबछाने और पहनने के ), तमट्टी का चूल्हा, भोजन बनाने और करने के पात्र, कु छ कृ तष उपकरण, िाद्ययंत्र आदद होते हैं। दातौन से दााँत की सफाई और स्नान तनत्य है। पुरूष नाई से बाल कटिाते हैं। तस्त्रयााँ लम्बे के श रख, उसे चोटी में गूाँथ जूड़ा बनाती हैं। बालों में ततल, मूाँगफली, गुल्ली आदद का तेल लगाते हैं। मतहलाएाँ हाथ,

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http://tdil.mit.gov.in/ggs/Sanskritik_CG(HTML)/Sanskritik_Chhattisgarh/tribesofCG4.htm

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46 पैर और मुहाँ पर गोदना गुदिाती हैं। िे आभूषण पहनती हैं। यथा- पैर की उं गतलयों में तबतछया, पैर में सांटी और तोड़ा, कमर में करधन, कलाई में ऐंठी और नागमोरी, बाहु पर पहुाँची, गले में सुरड़ा और रूतपया माला, कान में तखनिा और नाक में फू ली। िस्त्र तिन्यास साधारण है। पुरूष पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। इनका भोजन कोदो और चािल के भात, बासी, पेज, मौसमी सब्जी और उड़द, मूाँग, ततिड़ा आदद की दाल पर तनभगर है। जंगली कन्द, मूल, भाजी आहार का मुख्य स्रोत है। मााँसाहारी हैं। मछली, मुगाग, बकरा, सुअर आदद खाते हैं। तेन्दुआ भी खाते हैं। दूसरों का छोड़ा मााँस और गाय तथा बन्दर का मााँस नहीं खाते। उत्सि, त्योहार और आयोजनों पर महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। आर्थथक जीिन तक्र्ष, िन उपज संग्रह और मजदूरी पर आधाररत है। खेतों में कोदो, धान, ततिड़ा, उड़द, मूाँग, अरहर, ततल आदद बोते हैं। तपछड़ी और अबसतचत कृ तष से पैदािार कम है। िनों से तेन्दूपत्ता, गोन्द, चार, तेन्दू, हराग, मधु, लाख आदद एकत्र कर बेचते हैं। भूतमहीन, लघु और सीमांत कृ षक मजदूरी करते हैं। पहले कभी-कभी तशकार भी करते थे। अब तशकार प्रततबतन्धत है। इससे जीिन और रहन-सहन बदला है। िषाग में स्ि उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। गभागिस्था में संस्कार नहीं है। कुाँ िारी के गभगिती होने पर समाज को भोज दे बबझिार युिक से तििाह कर देते हैं। प्रसि घर पर स्थातनय सुन्न दाई कराती है। नाल भरूिा घााँस के पंची या ढलेड़ से काटते हैं। नाल को घर में गडढ़ा खोदकर गाड़ते हैं। प्रसूता को सोंठ, गुड़, अजिाएन, घी, पीपर, असगन्ध आदद से तनर्थमत पौषरटक लड्डू तखलाते और चाय पीने को देते हैं। छठी को शुद्धी करते हैं। पुरूष हजामत बनिाते हैं। ररश्तेदारों और तमत्रों को चाय, बीड़ी, दारू आदद तपलाते हैं। प्रसूता और बच्चे को स्नानोपरांत निीन िस्त्र पहना देिी-देिता को प्रणाम कराते हैं। तििाह की सामान्य आयु लड़कों हेतु 15 से 18 और लड़दकयों हेतु 14 से 16 िषग है। िर पक्ष ही तििाह प्रस्ताि रखता है। िर तपता िधु तपता को चािल, दाल, गुड़, तेल, हल्दी, नाररयल और नगद के साथ सुक भराई देता है। तििाह में मंगनी, फलदान, तबहाि और गौना के चार चरण होते हैं। तििाह मण्ड़प महुआ ड़ाल से बनाते हैं, तजस पर तीर लगाते हैं। कुाँ िारी कन्या द्वारा काते गए सूत से कोई बुजुगग गठबन्धन बााँधता है। बहु तििाह प्रचतलत है। तलाक आम नहीं है, पर करठन भी नहीं है। समाज के अन्दर पुनगतििाह प्रचतलत है। पहले इसी जनजातत का बुजुगग व्यतक्त तििाह कराता था। अब ब्राह्मण पतण्ड़त बुलाने लगे हैं। घर जमाई (सेिा तििाह), तितनमय, देिर-भाभी पुनगतििाह को मान्यता है। मृतक को गाड़ते हैं। तीसरे ददन मुंडन कराते हैं। दसिें ददन दसकमग करते हैं। इसमें स्नानोपरांत पूिगजों की पूजा करते हैं। मृत्यु भोज देते हैं। तपतृपक्ष में मृत्त पूिगज के नाम पर पानी तपगण कर दाल ,भातबड़ा रखते हैं। पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। यह पंचायत तििाह ,तलाक , अनैततक सम्बन्ध आदद के तििादों का तनराकरण करती है। ितगमान में तजला और राज्य स्तरीय सांगठन भी है। बबझिार जनजातत के अराध्य हैं- ठाकु रदेि, बूढ़ादेि, घटिातलन, दुल्हादेि, कररया, धुरूिा, भैंसासुर, सतबहेतनया, कं कातलन माता आदद। साथ ही सभी तहन्दू देिी और देितां को भी मानते हैं। िे सूयग, चन्द्र, पृथ्िी, नदी, पहाड़, नाग आदद की पूजा भी करते हैं। बली भी देते हैं। यह लोग पोला, हरे ली सतहत दीपािली दशहरा आदद भी मनाते हैं। भूत, प्रेत, जादू मानते हैं। इसके जानकार बैगा को झाखर कहते हैं। बबझिार लोग करमा, सूिा, रामसप्ताह, रहस, फाग, तििाहगीत आदद लोक कलाएाँ भी करते हैं।

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8. धनिारीःधनिार जनजातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर सम्भाग के रायपुर, तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर, कोरबा और रायगढ़ तथा सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और कोररया तजलों में तनिास करती है। तबलासपुर तजले में इनका संकेन्द्रण अतधक रहा है। यह हस्ततशल्पी जनजातत है। इन्हें कोररया तजले में मूल तनिासी माना जाता है।75 2001 में राज्य में इनकी जनसंख्या 42,172 थी। धनिार का अथग धनुगधारी से है। पहले इनका जीिकोपाजगन धनुगतिद्या, धनुष-तीर तनमागण (हस्ततशल्प) और तशकार पर ही आधाररत था। धनुष-िाण से धनिार शब्द बना। तशकार और आखेट इनका प्रमुख व्यिसाय है। धनुष-बांण के अत्यतधक प्रयोग के कारण ही धनिार संज्ञा बनी। यह लोग धनुषबांण

तचत्र 9 - धनिार धनुष

स्रोत-tdil.mit.gov.in

बनाने के तलए बांस और धानन िृक्ष की लकतड़यों का प्रयोग करते हैं। इन बाणों की नोंक पर लोहे की फनी लगाते हैं। बाण के दूसरे तसरों पर मोर या बाज के पंखों को धागे से बांधकर लगाते हैं। प्रत्येक धनिार के घर में धनुषबाण की पूजा की जाती है। बच्चे लगभग 5-िषग की उम्र से ही, तशकार के तलए, धनुषबाण चलाना प्रारं भ कर देते हैं।76 धनिार अपने आप को गोंड़ों के िंशज मानते हैं। इन्हे गोंड़ या कं िर से व्युत्पन्न माना जाता है। हालााँदक यह मत अतधक प्रचतलत है दक, यह लोग गोंड़ और कं िर जनजाततयों के सतम्मश्रण हैं।77 इन की उत्पतत्त पर भी एततहातसक और िैज्ञातनक शोध होना है। कं िर लोगों की तरह इनकी अपनी बोली नहीं रही है और यह लोग सामान्यतीः छत्तीसगढ़ी बोलते हैं।78 यह लोग अपनी व्युत्पतत के जो कथा कहते हैं, िह भी गोंड़ों के अतधक तनकट है। यह कथा है- एक बातघन को मााँद में तमट्टी हटाते समय तमली बालक और बातलका को बातघन ने बच्चों की तरह पाला। इनके नाम थे- नागलोधा और नागलोधी। इन दोनों का तििाह हुआ। िे संतानहीन रहे। अतीः नागलोधा ने तपस्या 75

रघुिीर प्रसाद-झारखण्द झनकार

76

http://tdil.mit.gov.in/ggs/Sanskritik_CG(HTML)/Sanskritik_Chhattisgarh/tribesofCG3.htm

77

िही

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R.V.Russell- The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Page 488-489

(http://books.google.co.in/books?id=H6rOX1nXCJcC&pg=PA488&lpg=PA488&dq=Dhanwar+tribe&so urce=bl&ots=kjyBp7g1hD&sig=YLLM1MUEtSxD76I5NqIdbRVFu2w&hl=en&ei=ZJP_S5PJDo6lcf2sya QK&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=3&ved=0CBsQ6AEwAg#v=onepage&q=Dhanwar%20tr ibe&f=false)

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48 की। उसे पत्नी को 11 तितभन्न िृक्षों के 11 फल तखलाने की आज्ञा हुई। ऐसा करने पर एकसाथ 11 पुत्र हुए। नागलोधी प्रत्येक हेतु 15 ददन के सोिर में रही और इस प्रकार कु ल साढ़े पााँच माह। अब सभी धनिार तस्त्रयााँ बच्चा होने पर साढ़े पााँच माह अशुद्ध समझी जाती हैं। कु छ ददनों पिात बारहिााँ पुत्र भी हुआ। उसके हाथ में तीर-धनुष था। इसका नाम करनकोट था। इसे ही धनुहार लोग अपना पूिग पुरूष मानते हैं। एक बार अन्य 11 भाई तशकार को गए और उन्होंने कई चीतल और तहरण देखे। इन्हें 12 ग्िाल भाई और उनकी 12 बहने चरा रहीं थीं। 11 लोधों ने जब उन्हें मारना चाहा तो िे ग्िाल लोगों द्वारा बन्दी बना तलए गए। 12 िााँ भाई, करनकोट, उन्हें खोजते हुए आया। उसने ग्िालों को परातजत कर अपने 11 भाई छु ड़ा तलए। िह 12 ग्िाल बहनों को भी साथ ले गया। सभी ने उनसे तििाह कर तलया। सबसे छोटी और सुन्दर करनकोट को व्याही। इसका नाम मसिासी था। धनिार लोग इस दम्पतत्त से अपने िंश की उत्पतत्त मानते हैं। यह माना जाता है दक, करनकोट बड़ा तशकारी था। उसने इतने पशु मारे दक, गााँिों की खदानें उनकी हतड्डयों से भर गईं। धनुहारों का मानना है दक, िह ही अब छु ई तमट्टी के रूप में तनकलती है।79 ग्रामों में धनिार लोग सामान्यतीः गोंड़, कं िर, सौंता आदद जनजाततयों के साथ तनिास करते हैं। यह जनजातत गााँि में अलग पारा बनाती है, जो धनिारपारा कहलाता है। इस पारा में धनिारों के 8-10 घर आमने-सामने होते हैं। यह मकान तमट्टी के बने होते हैं। छत घााँस-फू स या खपड़े की होती है। मकान बानाने के पूिग और बनने के पिात ग्राम पुजारी से पूजन कराते हैं। घर में दो कमरे होते हैं। पशु कोठा पृथ्क होता है। मकान के आसपास बागड़ और मकान के बाहर पानी के घड़े आदद रखने हेतु मचान बनाते हैं। देिस्थान और अन्न भण्डारण की कोठी मुख्य कक्ष में होती है।80 कपड़े, रसोई के बत्तगन, चारपाई, कृ तष उपकरण आदद इनकी प्रमुख घरे लू िस्तुएाँ हैं। यह लोग दााँत सफाई हेतु नीम, बबूल या हरे की दातौन उपयोग करते हैं। शरीर सफाई हेतु, अतधकांशतीः, पत्थर का उपयोग करते हैं। तचकनी या काली तमट्टी से बाल धोते हैं। उसमें मूाँगफली, गुल्ली, नीम आदद का तेल लगा कर कं घी करते हैं। मतहलाएाँ खोपा (एक प्रकार का जूड़ा) बनाती हैं। पुरूष पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ प्लका और लहंगा पहनती हैं। पुरूष कभी-कभी धोती-कु त्ताग भी पहनते हैं। मतहलाएाँ हाथ, पैर और चेहरे पर गोदना गुदिाती हैं। िे हाथ में चूड़ी और ऐंठी; गले में सुततया और सुराग; नाक में फू ली, कान में तखनिा आदद आभूषण पहनती हैं। इनके भोजन में कोदो और चािल का भात, बासी पेज; मौसमी सब्जी; उड़द, मूाँग, कु ल्थी आदद की दाल होती हैं। मााँसाहारी हैं। अंड़,े मछली, मुगी, बकरा, खरगोश आदद का मााँस खाते हैं। महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। धनिार लोग हस्ततशल्पी हैं। इनका जीिकोपाजगन हस्ततशल्प द्वारा बााँस से बनाए सूपा, टोकरी, धनुष-बाण आदद के साथ कृ तष, िन उपज संग्रह, तशकार और प्राकृ ततक खाद्य संकलन पर तनभगर है। इनकी मुख्य फसल धान है। इसके अततररक्त ज्िार, कोदो, कु टकी, उड़द, कु ल्थी, मक्का, अलसी, ततल, तुिर, चना आदद भी बोते और उगाते हैं। तपछड़ी और अबसतचत कृ तष से पैदािार कम है। िनों से तेन्दूपत्ता, गोन्द, चार, तेन्दू, हराग, मधु, लाख आदद एकत्र कर बेचते हैं। भूतमहीन, लघु और सीमांत कृ षक मजदूरी करते हैं। पहले तशकार करते थे। अब तशकार प्रततबतन्धत है। इससे जीिन और रहन-सहन बदला है। िषाग में स्ि उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। बााँस हस्ततशल्प बेचते हैं। धनिार समाज में पररिार तपतृ सत्तात्मक, तपतृिंशीय, तपतृतनिास स्थानीय परम्परा पर आधाररत है। तिभक्त पररिार हैं। कई गोत्र हैं। एक गोत्र के लोग, अपने को एक ही पूिगज की संततत मानते हैं। अतीः सगोत्रीय तििाह नहीं होता है। इनके गोत्र हैं- कमरों, मरई, उईके , उरे आदद।

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R.V.Russell- The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Page 489-490

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जी.एस.राित-धनिार जनजातत

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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49 प्रसि घर पर सुइन दाई द्वारा कराया जाता है और िह ही नाल काटती है। उसे, प्रसिोपरांत, अन्न और नगद भेंट दकया जाता है। प्रसूता को कु ल्थी, तछन्द जड़, सरई छाल, एठीमुड़ी, गोन्द, सोंठ आदद का काढ़ा तपलाया जाता है। सातिें ददन साता पूजन कर शुद्धी करते हैं। जच्चा-बच्चा को स्नानोपरांत देिी-देिता का दशगन करा प्रणाम कराते हैं। ररश्तेदारों को चािल, दाल, गुड़ आदद तखलाते हैं। तििाह प्रस्ताि िर तपता द्वारा िधु तपता को उसके घर जा कर ददया जाता है। तय होने पर सगाई करते हैं। इसके उपरााँत शराब या गुड़ बााँटते हैं। दोनो पक्षों को बकरा तखलाते हैं। सगाई के उपरााँत िर पक्ष िधु पक्ष को सूक भरता है। इसमें चािल, दाल, गुड़, तेल, हल्दी, नगद रूपए और िस्त्र ददए जाते हैं। तििाह ग्राम पुजारी द्वारा सम्पन्न कराया जाता है। सगाई उपरााँत फलदान, तििाह और गौना होता है। तििाह के फे रे डालते हैं। तदुपरांत बारात िधु सतहत िापस आती है। िापसी पर ग्राम देिी/देिता और कु ल देिी/देिता का पूजन करा घर लाते हैं। सहपलायन (प्रेम में भाग कर तििाह), ढू क तििाह और तिधिा/त्यगता पुनगतििाह मान्य है। मृतक को जलाते हैं। दसिें ददन दशकमग उपरााँत शुतद्ध करते हैं। पूिगज पूजा कर भोज देते हैं। जातत पंचायत है। सभी लोग इसके सदस्य होते हैं। मुतखया को धतनया कहा जाता है। इनके कायों में पूजा व्यिस्था सतहत तििाह, फलदान, अनैततक सम्बन्ध, तलाक, झगड़े आदद के मामले तनपटाना है। धनिारों के आराध्य हैं- बूढ़ादेि, ठाकु र देि, बूढ़ी माई, कु ल देिी/देिता, सूरज, चन्द्रमा, पशु, पक्षी, नदी, पहाड़ आदद। तहन्दू देिी-देितां को भी मानते हैं। पूजा का आयोजन नाच-गाने, बतल, भोज आदद के साथ करते हैं। भूत-प्रेत और जादू-टोना मानते हैं। हरे ली, करमा, निाखाई, पोला, तपतर, दशहरा, दीपािली, होली आदद त्योहार मनाते हैं। करमा, तििाह गीत और नृत्य करते और गाते हैं। होली में रहस और दीपािली में मतहलाएाँ पड़की नाचती हैं। अन्य लोक गीत हैं- ददररया, राम सप्ताह आदद। तिकास कायगक्रमों, तशक्षा, संचार, यातायात बाह्य सम्पकग आदद के कारण रहन-सहन, िस्त्र तिन्यास, खान-पान, लोककला, हस्ततशल्प आदद में पररित्तगन आया है। तशकार बन्द प्राय हो गया है। इनकी भी समस्या का के न्द्र धनाभाि है। अभािग्रस्त जीिन है। तशक्षा की कमी है। 9. गदबाीःगदबा जनजातत के लोग छत्तीसगढ़ के बस्तर में, जगदलपुर के आसपास, उड़ीसा से आए। यह लोग मुण्डारी या कोलाररयन भाषा पररिार से है।81 िाररयर एतल्िन गदबा, सााँिरा और परें गा को एक ही आस्रो एतशयारटक समूह की भाषा मानते हैं।82 परम्परागत रूप से यह माना जाता है दक, गदबां के पूिगज गोदािरी के तट से आए और जैपुर (उड़ीसा) के मुख्यालय नन्दपुर में बसे। उड़ीसा के मलकानतगरी,

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http://orissadiary.com/orissa_profile/tribal/Gadaba.asp

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िाररयर एतल्िन-जनजाततय तमथकीःउतड़या आददिातसयों की कहातनयााँ,पृ.21 (साथ ही देखें M.Istehak-Language shifts

among the shaduel tribes in India) (http://books.google.co.in/books?id=5HHX5YCcSoYC&pg=PA21&lpg=PA21&dq=%E0%A4%97%E0 %A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE+%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E %A4%A4%E0%A4%BF&source=bl&ots=7NSqn_BTt&sig=PLRFxO70IqYBvjRzV2RCrbZKEvQ&hl=en &ei=u1wDTM6IDM_rAeOk7yFDw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CB0Q6AEwAQ #v=onepage&q=%E0%A4%97%E0%A4%A6%E0%A4%AC%E0%A4%BE%20%E0%A4%9C%E0%A 4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF&f=false)

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50 कोरापुट, कालाहााँड़ी, सुन्दरगढ़, गंजम, सम्बलपुर और बुद्धफलिनी तजलों में इनकी बसाहट है।83 छत्तीसगढ़ में यह अल्प मात्रा में जगदलपुर के आसपास ही तनिास करते हैं। 2001 में इनकी जनसंख्या 6,317 थी।84 बस्तर के शासक मतहपाल देि बसह, इस जनजातत के लोगों को उड़ीसा से, पालकी उठाने और घरे लू कायग करने के तलए ले कर आए और उन्हें जगदलपुर के आसपास बसाया। यह लोग इन दोनों कायों में तनपुण माने जाते हैं। गदबा का अथग बोझा उठाने से है और यह इनका मूल कायग रहा है। इन्हें गूठान भी कहा गया। यह लोग बोझा उठाने के अततररक्त कृ तष और तशकार भी करते हैं।85 इनकी मतहलाएाँ हस्ततशल्पी हैं। यह अपने तितिध रं गीन िस्त्र तिन्यास हेतु तचतन्हत होती हैं। यह िस्त्र एक झाड़ी के रे शे से िे स्ियं बनाती हैं। िे रे शे उतारती हैं, उन्हें कात कर धागे बनाती हैं, उन्हें रं गती हैं और तब उससे रं गीन िस्त्र बनाती हैं। िस्त्र के रं ग और नमूनों में तितिधता तमलती है। इनका प्रभाि आकषगक होता है। यह रटकाऊ भी हैं। गदबा तस्त्रयों की िेषभूषा को उनके सबसे महत्ि पूणग पक्ष के रूप में तचतन्हत दकया जाता है। गदबा तस्त्रया पीतल की बड़ी बाली, बालों के सुन्दर तिन्यास, रं गीन आकषगक िस्त्र आदद हेतु जानी जाती हैं। उनके रूप सौन्दयग का िणगन उनकी लोक कथां में भी आता है।86 यह आगामी तचत्र से भी पररलतक्षत होता है। गदबा जनजातत का एक अन्य उल्लेखनीय पक्ष दकशोर-दकशोररयों के शयनाग़ार की व्यिस्था है, पर इसे मुररया घोटुल प्रथा और रोमांस के मुकाबले का नहीं माना गया है।87 गदबां में चार उपजाततयााँ हैं- बोदो (गुतुब), कथेरा, पारंगी और कापू। यह उपजाततयााँ गोत्रों में तिभक्त हैं। गोत्र िृक्षों, पशुं और प्रकृ तत के नाम पर हैं। गोत्र तीन समूहों में तिभक्त हैं। यह हैं- तोड़म, सतमदकल और पेरीकल। सगोत्रीय तििाह िर्थजत है। कु छ गोत्र हैं- मुकरिंम, नागपूस, कु रै या आदद।88 गदबा लोग बस्तर की अन्य जनजाततयों के साथ ही ग्रामों में तनिास करते हैं। इनकी झोपड़ी में गााँस-फू स से तनर्थमत्त झोपतड़यों की संख्या अतधक है। खपरै ल की झोपतड़यााँ कम हैं। यह घर के चारो ओर बाड़ी बनाते हैं। घर में आम्गन होता है। एक ओर भोजन बानाने का कक्ष और दूसरी ओर बैल आदद हेतु सार होता है। कमरे के आगे परछी भी बनाते हैं। मुख्य द्वारा के दकनारे, परछी में, ढेकी और जाता (चक्की) रखते हैं। पुताई श्वेत तमट्टी (छु ई) से करते हैं। फशग गोबर से लीपते हैं। यह कायग मतहलाएाँ करती हैं।

तचत्र 10 और 11 - गदबा मतहला और उसकी पोरेट पेंटटग स्रोत- http://www.pbase.com/neuenhofer/india_tribal_orissa_gadaba_tribe और paintingsilove.com

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http://orissadiary.com/orissa_profile/tribal/Gadaba.asp

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ। (सम्पादक-

टी.के .िैष्णि) 85

एम.एस.भलािी-गदबा जनजातत

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िाररयर एतल्िन-जनजाततय तमथकीःउतड़या आददिातसयों की कहातनयााँ,पृ.21

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छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभार- गदबा जनजातत का सतन्क्षप्त मानिशास्त्रीय अध्ययन

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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51 घर में कोठी, िस्त्र, ढ़ेंकी, जाता, बत्तगन, मूसल, गैती, फािड़ा, कु दाल, बक्ख़र, जाल आदद होते हैं। स्िच्छता के प्रतत आग्रही हैं। स्नान तनत्य है। तस्त्रया बालों को ककई (ककिा) से कोरती (काढ़ती) हैं और पीछे की ओर बााँधती हैं। मतहलाएाँ चेहरे , हाथ और पैर में, दो बार, हस्ततशल्प के गोदने गुदिाती हैं। प्रथम बार तििाह पूिग तीन तबन्दु ठु ड्डी, नाक और मस्तक पर तथा तद्वतीय बार तििाहोपरांत अंगों पर। िे तगलट, चााँदी और एल्युमीतनयम के आभूषन पहनती हैं। पुरूष धोती, गमछा, सलूका, कमीज़, बण्डी आदद और मतहलाएाँ साड़ी, लुगड़ा, पोलका आदद पहनती हैं।89 चािल, कोदो और कु टकी का भात और पेज इनका मुख्य भोजन है। िे उड़द, अरहर, चना और कु ल्थी की दाल; मौसमी सब्ज़ी आदद भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं। मछली, बकरा, मुगे और सुअर का मााँस खाते हैं। तम्बाखू खाते और बीड़ी पीते हैं। सल्फी (एक प्रकार की ताड़ी), महुआ शराब और लांदा पीते हैं। जीिकोपाजगन कृ तष मज़दूरी आधाररत है। िनों से खाद्य संग्रह करते हैं। कृ तष में धान, मक्का, ततल्ली, उड़द, कोदो, ज्िार, कोसरा आदद उपजें हैं। िनों से तितभन्न कन्द और मूल, महुआ, उमर, कटहल, बााँस जड़, बोड़ा कान्दा आदद स्ियं के भोजन हेतु एकत्र करते हैं। गोन्द, तेन्दूपत्ता, कोसा आदद संग्रह कर बेचते हैं। अब मजदूरी करते हैं। गभागिस्था में संस्कार नहीं हैं। प्रसि के समय स्त्री को आिास या कक्ष के दकनारे पर ले जाते हैं। प्रसि गााँि की उम्रदराज़ मतहला कराती है। नरा (नाल) हतसए से काट प्रसि स्थल पर गाड़ते हैं। निजात तशशु को कु नकु ने पानी से नहला मााँ के पास सुलाते हैं। प्रसूता को तछन्द जड़ का रस और हल्का पौतष्टक भोजन देते हैं। नौिें ददन बच्चे का मुण्डन करा नाम रखते हैं। ररश्तेदारों को दारू तपलाते हैं। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष द्वारा रखा जाता है। िह एक लाठी- बड़गी- को बधू गृह में गाड़ आता है। तद्वतीय ददिस तनरीक्षण में उसे यथाित पाने पर प्रस्ताि तस्िकृ त माना जाता है। अब बारह ददन बाद बारह बोतल मन्द ले जा कर िधु धन तनधागररत करते हैं। यह सामान्यतीः एक बोरा चािल, तीन खण्डी धान, एक बकरा, एक सुअर आदद होता है। तििाह रस्म मुतखया सम्पन्न कराता है। शि गाड़ते हैं। उसके साथ िस्त्र, नमक, गुड़ आदद भी रखते हैं। उसी स्थान पर मछली उबाल, उसके पानी से हाथ धोते हैं। नौ ददिस उपरााँत नहानी स्नान कर सुअर काटते हैं। भोज देते हैं। जातत पंचायत है। मुतखया बुजुगग होता है। इसमें तििाह, तिच्छेद, सम्पतत (उत्तरातधकार, बंटिारा आदद), अनैततक सम्बन्ध आदद के मामले तनराकृ त दकए जाते हैं। सामातजक सम्बन्धों और तनयमों के उल्लघन पर दण्ड़ ददया जाता है। सभी तहन्दू देिी-देितां को मानते हैं। धारनी देिी, रास देिी, गुड़ी माता आदद भी आराध्य हैं। धारनी की अराधना में अण्डे, नाररयल और काली दाल (साबुत उड़द); रास की में बकरा, मुगाग, और सुअर बतल तथा गुड़ी की में नाररयल, के ला और दूध चढ़ाया जाता है। इनके जातीय नायक के रूप में बारह भाई गदबा की कथाएाँ प्रचतलत हैं। इस्पुराल परम अराध्य है। इसे अन्य क्षेत्रों में इस्पुर कहते हैं। यह ईश्वर शब्द का अपभ्रंश है। अन्य अराध्य हैं- तबरकम दाई (नरभक्षी ब्याजखोर), सीमा दाई (सुअर दंती), भीमो (सिगव्यापी), कलंका देिता और उसके दैिी सहायक आदद।90 भूत-प्रेत, जादू-टोना, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते हैं। पूजा की कामना फसल और पशु रक्षा तथा महामारी से बचाि हेतु है। दीपािली, ओमुष, धानिा, चुरई, अमनिा आदद इनके त्योहार हैं। तििाह, होली आदद लोक नृत्य है। यह लोग नृत्य दक्ष भी माने जाते हैं।91 तििाह, होली, माता आदद लोक गीत हैं। तशक्षा की कमी है। तिकास अनुक्रम में तशकार बन्द प्राय हो गया है। िन से खाद्य संग्रह पर जीिकोपाजगन कम हुआ है। मजदूरी पर जीिकोपाअजगन बढ़ा है। लोककला, िस्त्र तिन्यास, खान-पान, रीततररिाज, धमग आदद भी प्रभातित हुआ है। अथागभाि का जीिन है। अभािग्रस्तता तनयतत बन गई है। 89

S.S.shashi-Encyclopedeia of Indian tribes(1997),P.-9

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52 10. गोण्डीःगोण्ड जनजातत भारत और छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा जनजातत समूह है। यह राष्ट्र के मध्य भाग में तनिास करता है। राज्य में, 2001 में, इनकी जनसंख्या, 3,659,384 थी। इसमें उसकी उपजाततयााँ भी सम्मतलत हैं। यह राज्य की कु ल जनजाततय जनसंख्या का 55.31 प्रततशत है अथागत राज्य के 31.76% जनजाततय लोगों मे से 17.57% गोण्ड ही हैं। स्पष्ट है दक, राज्य के आधे से अतधक जनजाततय लोग गोण्ड ही हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के अततररक्त गोण्ड आददिासी मध्य प्रदेश, पूिी महाराष्ट्र (अथागत तिदभग), उत्तरी आाँर प्रदेश और पिमी उड़ीसा में अतधकांशतीः (यह पूरा क्षेत्र गोण्ड़िाना भी कहा जाता है, क्योंदक यहााँ गोण्ड लोगों का शासन था।) और कु छ मात्रा में तबहार, झारखण्ड, कनागटक, पतिम बंगाल, गुजरात और उत्तर प्रदेश में रहते हैं। गोंण्डिाना क्षेत्र पर गोंण्डों का अतधकार था और िे अतधकांशतीः मुगलों और मराठों द्वारा हटाए गए। छत्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों में गोंड़ लोग रहते हैं। बस्तर सम्भाग के पााँचो तजले, रायपुर सम्भाग के कबीरधाम, रायपुर और महासमुन्द तजले, तबलासपुर सम्भाग के कोरबा और तबलासपुर तजले तथा सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और कोररया तजलों में इनका संकेन्द्रण अतधक है। गोंड शब्द की व्युत्पतत्त को तेलगू कोण्ड शब्द से माना जाता है। कोण्ड का अथग पिगत्त है। अतीः यह माना गय दक, पिगत्त िासी लोग गोण्ड कहलाए। दूसरी अिधारणा में इन्हें गोढ़ या गौंड़ (पतिम बंगाल और तबहार) क्षेत्र के प्राचीन नाम से जोड़ा जाता है दक, िहााँ के तनिासी गोण्ड कहलाए। गोंड़ लोग अपने को मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ क्षेत्र का ही मूल मानते हैं। हालााँदक उन्हे तसन्धु घाटी से भी जोड़ा गया है। एक अिधारणा यह है दक, जाततयााँ और जनजाततयााँ िह नाम अपना लेती हैं, जो उनका मूल व्यिसाय या जीिकोपाजगन का साधन रहा है। जैसे दक पशु पालक समूहों के तलए संस्कृ त में गाय के तलए प्रचतलत शब्द से ग्िाल शब्द की व्युत्तपतत। इसी प्रकार भेड़ चरािाहा समूहों ने भेड़ के संस्कृ त्त शब्दों से नाम तलए। इसमें सिागतधक ज्ञात नाम गड़ररया है। इसी तरह के व्यिसायगत नाम अन्य जातत समूहों में भी आए। जैस-े अरोड़ा, लोहाना, गुज्जर, भारटया, मीणा, भील, डोम, उरााँि, मुण्डा, संथाल, कोच, अहीर, महार, नायर, मराथा, खोण्ड, गोण्ड आदद।92 गोंडों का पारम्पररक व्यिसाय तशकार और मछली मारना था, परं तु अब अतधकाश गोंड़ खेततहार मजदूर है।93 इनके DNA टेस्ट में अतधकांशतीः (56.25%) Haplogroup H1 के पाए गए हैं।94 देिगढ़, चााँदा, गढ़ा-मण्डला गोण्ड शातसत राज्य थे। अथागत भारत का मध्य भाग। अकबरनामा में गढ़ा-कटंगा गोण्ड राज्य का उल्लेख 70,000 ग्रामों की अधीनता के उल्लेख के साथ आया है। गोण्ड़िाना संज्ञा इनके द्वारा शातसत क्षेत्र हेतु ही प्रयुक्त हुई। दतक्षण-पूिी मध्य प्रदेश (महाकौसल), छत्तीसगढ़ (दतक्षण कोसल), तिदभग (महाराष्ट्र), उत्तरी आन्र, उड़ीसा आदद उनके प्रभाि क्षेत्र में थे। यह क्षेत्र पन्द्रहिीं से अठारहिीं शताब्दी तक उनके प्रभाि में रहा। रानी दुगागिती भी गढ़ा-मण्डला के गोंड़ राज्य की शातसका थी। छत्तीसगढ़ की कई ररयासतें और जमीन्दाररयााँ गोण्ड शातसत रही। देिगढ़ के गोंड़ों ने मुतस्लम धमग भी अपनाया और नागपुर की स्थापना की। ऐसे लोग अपने को मुतस्लम-राजगोण्ड कहने लगे।95 92

G.S. Ghurye- Caste And Race In India (Popular Prakashan 2004 reprint) Page: 31-33

93

http://tdil.mit.gov.in/ggs/Sanskritik_CG(HTML)/Sanskritik_Chhattisgarh/tribesofCG2.htm#gond

94

http://en.wikipedia.org/wiki/Gondi_people

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http://en.wikipedia.org/wiki/Gondi_people

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53 भूगोल में भूतम के प्राचीन इततहास के तहत तिस्तृत दतक्षणी गोलाधग को गोण्ड़िाना लैण्ड कहा गया। इसमें आज का अफ्रीका, मेडागास्कर, दतक्षण अमेररका, आस्रेतलया, भारतीय उपमहाद्वीप और एंटाकग रटका सम्मतलत थे।96

तचत्र 12 - प्राचीन गोण्ड़िाना लैण्ड स्रोतhttp://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%A1_(%E0%A4%9 C%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF)

गोण्ड लोगों की भाषा गोण्डी द्रतिड़ समूह की भाषा है। दतक्षण से उत्तर और पूिग में पलायन स्िभातिक भी ददखता है। गोंड लोग यह भी कहते हैं दक, उनके पूिगज तसलोन के नाग राजा से तछटक कर यहााँ आए। गोण्ड लोगों में पररिार तपतृ सत्तात्मक, तपतृिंशीय, तपतृतनिास स्थानीय परम्परा पर आधाररत है। यह जनजातत कायग और तनिास क्षेत्र के आधार पर कई उपजाततयों में बाँटी है। यह लगभग 41 हैं। यथाीःकायग आधार परजमीन्दारी आदद कायग करने िालेराज गोंड, कृ तष और उसके सहायक कायग करने िालेधरगोंड, मााँस-मददरा से परहेज करने िालेरै ठी, लोहा गलाने िालेअगररया, नाचने-गाने िालेकोईलाभूता, मंत्र,तन्त्र,तशकार और गोदना हस्ततशल्पीमोघया या ओझा गोंड, बााँस हस्ततशल्प से बत्तगन तनमागणीकं डरा और कलंगा, गाने िालेभीम्मा, बाजा बजाने िालेढ़ुतलया या नागची, राजगोंड़ के पुरोतहतपाड़ल गोंड़ तनिास आधार परबस्तर मेंअबूझमातड़या, मातड़या, दण्डामी मातड़या, मुररया, दोरला, धुरूिा, कोया,

96

http://en.wikipedia.org/wiki/Gondi_people

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सरगुजा मेंरायपुर और महासमुन्द मेंअन्य राज्यों मेंमहाराष्ट्र- चन्द्रपुर मेंमन्नेिार (कोलम) मेंमध्य प्रदेश-रायसेन मेंहोशंगाबाद में-

कोईतूर आदद। खैरिार, सोनसरा आरख गैंती दरोई खटोला आदद-आदद।

इन उपजाततयों में खान-पान का सम्बन्द्ध है, परं तु तििाह का सम्बन्द्ध नहीं है। यह उपजाततयााँ भी गोत्रों में तबभक्त हैं। यथा- कु रागम, नेताम, मरकाम, सयागम, कारे आम, तसरसाम, भलािी, मरािी, उइका, उसेण्डी, धुिाग, परतेती आदद। गोत्रों के टोटम हैं।97 गोंड़ लोग सामान्यतीः िन, पहाड़, घाटी और नदी तीर के ग्रामों में हलबा, कमार, भुतं जया, भैना, मंझिार, सािरा, बबझिार आदद जनजाततयों के साथ तनिास करते हैं। इनके घर छोटे, झोपड़ीनुमा और तमट्टी के होते हैं। इन पर घााँस-फू स या खपरै ल की छत होती है। घर का तनमागण स्ियं करते हैं। इसमें दो-तीन कमरे और बरामदा होता है। दरिाजा बााँस या काष्ठ का होता है। सामने तघरा हुआ आाँगन और पीछे बाड़ी रखते हैं। बाड़ी दकचन गाडगन है। घर में एक स्थान देिी-देिता का होता है। घर पर तमट्टी की कोठी ,(अनाज पीसने की चक्की) जाता ,ढ़ेकी ,मतचया ,चटाई ,खाट ,हल ,कु ल्हाड़ी , ,(कु मनी) चोररया ,जाल ,फन्दा ,फरसा ,धनुष-तीर ,हाँतसया ,फािड़ा ,कु दालढ़ूटी आदद (मछली रखने की) होते हैं। मतहलाएाँ हाथचेहरे और पैरों पर हस्ततशल्प से गोदना गुदिाती हैं। इनके आ ,भूषण पैरों हेतु पैड़ी और पैरपट्टबााँह हेतु पहुाँची और ;और गुलेठ (कं गना) ककना ,ऐंठी ,कलाई हेतु चूड़ी ;कमर हेतु करधन ,; ;(इयर टरग) एटरग ,कान हेतु तखनिा ;गले हेतु सुततया और सुरड़ा ;नागमोरीनाक हेतु फु लीतसर के श हेतु ; खोचनी आदद हैं। यह अतधकांशतीः नकली चााँदी या तगलट के होते हैं। पुरूष पंचा-तलख गए या नगरों की ओर तनकल गए गोंड़ पैंट-ई पहनते हैं। पढ़-धोती और बड , ,ब्लाउज ,पाजामा आदद पहनते हैं। तस्त्रयााँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। कु छ अन्य साड़ी-कु ताग ,बुशटग कमीज की ओर भी झुकी हैं।-सलिार ,अंतीःिस्त्र ,पेटीकोट चािल ,कोदो और कु टकी का भात और पेज और बासी इनका मुख्य भोजन है। िे उड़द ,अरहर , सुअर और ,मुगे ,बकरा ,मौसमी सब्ज़ी आदद भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं। मछली ;ततिड़ा और कु ल्थी की दाल ,(एक प्रकार की ताड़ी) तहरण का मााँस खाते हैं। तम्बाखू खाते और बीड़ी पीते हैं। सल्फीमहुआ शराब और लांदा पीते हैं। (चािल की दकण्डतित बासी और तीव्र नशा)

97R.V.Russell

The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, London, 1916

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तचत्र 13 - बस्तर के डंडामी मातड़या पर ज़ारी डाक रटकट

और

14 - गोंड नृत्य

स्रोतhttp://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%82%E0%A4%A1_(%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%9 C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF) और http://bastercg.blogspot.com/2009/03/all-about-ghotul.html

गोण्ड लोग पहले आददम खेती, तशकार, िनोपज संग्रह आदद पर आतश्रत थे। अब इसमें मजदूरी, सामान्य कृ तष, नौकरी आदद भी जुड़ा है। इसकी पहाड़ पर रहने िाली अबूझमातड़या और डंडामी मातड़या जैसी उपजाततयााँ स्थनान्तररय पैंडा कृ तष, घाटी में रहने िाली मुररया, दोरला आदद उपजाततयााँ सीढ़ीनुमा खेतों पर कृ तष और समतल मैदान में रहने िाले गोंण्ड लोग स्थाई कृ तष करते रहे हैं। कृ तष तपछड़ी और अतिकतसत रही है। कोदो, कु टकी, रागी, धान, मड-इया, जािर आदद ही फसलें हैं। पहाड़ी ढलान पर उड़द, तुअर, मूाँग, कु ल्थी, बेतलया खेसरी, ततलहन, जगनी आदद बोते हैं। बाड़ी में ऋतु शाक (मौसमी सब्ज़ी) उगाते हैं। िनों से आाँिला, तेन्दू और उसका पत्ता, अचार (चार), हराग, बहेरा, महुआ, गुल्ली, साल बीज आदद एकत्र कर बेचते हैं। मजदूरी करते हैं। प्रसि पतत गृह में पररिार की बुजुगग मतहला या स्थातनय दाई द्वारा कराया जाता है। जच्चा को सोंठ, गुड़, ततल, खोपरा आदद खाने को और जड़ी-बूटी का काढ़ा पीने को देते हैं। छठी पर शुद्धी करते हैं। जच्चाबच्चा को स्नान करा अराध्य का दशगन कराते हैं। बच्चे का नाम रखते हैं। ररश्तेदारों को दारू तपलाते हैं। प्रसि में पीड़ा बढ़ने सतहत अन्य सभी रोगोपचार बैगा या भूमका के झाड़-फूाँ क द्वारा कराए जाते हैं। लड़कों की तििाह उम्र सामान्यतीः 14-18 और लड़दकयों की 12-16 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। उसका तपता िधु तपता को खची या सुक में अन्न, दाल, तेल, गुड़ औअर नगद देता है। बारत ले िधु ग्राम जाते हैं। अबुझमातड़यों में िधु को िर ग्राम लाया जाता है। तििाह जातत का बुजुगग सम्पन्न कराता है। गुरािट (तितनमय), घर जमाई (सेिा तििाह) आदद प्रचतलत हैं। मामा और बुआ की संतानों से तििाह को प्राथतमकता है। पैठू (घुसपैठ या बालात/जबरदस्ती तििाह), उढ़ररया (सहपलायन या भाग कर प्रेम तििाह) आदद को जातत पंचायत में दण्ड उपरााँत मान्य दकया जाता है। चूड़ी पहनाना (पुनग तििाह) भी है। प्रायीः मृतक को गाड़ते (दफनाते) हैं। कु छ सम्पन्न लोग जलाते भी हैं। तीसरे ददन पुरूष मुण्डन कराते हैं और घर आदद की साफाई कर स्नान करते हैं। दसिें ददन दशकरम कर भोज देते हैं। गोण्ड जनजातत में पारम्पररक जातत पंचायत है। इसमें प्रमुख राजा कहलाता है, तजसकी सहायता हेतु पंच होते हैं। इसमें तलाक, अनैततक सम्बन्ध, गौहत्या, आपसी झगड़ा, सम्पतत तििाद तनराकृ त्त दकए जाते हैं। ग्राम अराध्य की पूजा का दातयत्ि भी जातत पंचायत का है। दण्ड आर्थथक और सामातजक हैं। तनणगय नहीं मानने पर जातत और समाज से पृथ्क कर ददया जाता है। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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56 इनके आराध्य हैं- बूढ़ा देि (माहदेि-तशि का रूप), थाकु र देि, बूढ़ी माई, कं कातलन माता, छोटा पेन, बड-आ पेन, मंझला पेन, स्थातनय देिी-देिता, सूयग, चन्द्र, नदी, पहाड़, पृथ्िी, बाघ, नाग, सभी तहन्दू अराध्य अदद। पूजा में मुगी, बकरा, सुअर आदद की बतल दी जाती है। जादू-टोना, भूत-प्र्त, पुनगजन्म, आत्मा आदद पर तिश्वास है। भूमका या बैगा ही जादू-टोने और रोग का उपचार झाड़-फूाँ क से करता है। यह माना जाता है दक, गोंड़ लोगों के धमं की स्थापना पारी कु पार बलगो ने शम्भूशेक के युग में की थी। गोंडी धमं कथाकारों के अनुसार शम्भूशेक अथागत महादेि (तशि) का युग देश में आयों के आगमन से पहले हुआ था। इस काल से ही कोया पुनेम धमं का प्रचार हुआ था। गोंडी बोली में कोया का अथग मानि तथा पुनेम का अथग धमं है अथागत मानि धमं। आज से हजारों िषग पूिग से गोंड जनजाततयों द्वारा मानि धमं का पालन दकया जा रहा है। अथागत गोंडी संस्कृ तत में िसुधैि कु टुम्बकम। इसतलए भारतीय समाज और संस्कृ तत के तनमागण में गोंड समाज और संस्कृ तत का आधार और योग रहा है। गोंडिाना भूभाग में तनिासरत गोंड जनजातत की अदभुत चेतना उनकी सामातजक प्रथां , मनोिृतत्तयों, भािनां, आचरणों तथा भौततक पदाथों को आत्मसात करने की कला का पररचायक है। यह तिज्ञानं आधाररत भी रही है। समस्त गोंड समुदाय को पहांदी कु पार बलगो ने कोया पुनेम के मध्यम से एक सूत्र में बंधने का काम दकया। धतनकसर (धन्िन्तरी ) नामक गोंड तिद्वान् ने रसायन तिज्ञान अिं िनस्पतत तिज्ञान का तथा हीरा सुका ने सात सुरों का पररचय कराया था। इनके त्योहार हैं- हरे ली, पोला, निाखानी, दशहरा, दीपािली, होली आदद। बस्तर का दशहरा प्रतसद्ध है। बस्तर सम्भाग में काकसार, तबलासपुर और सरगुजा सम्भाग में करमा, सुआ, पड़की आदद नृत्य करते हैं। तििाह पर नाच-गाना होता है। करमा, ददररया, सुआ, फाग, तबहाि आइ लोक गीत हैं। इनकी अपनी गोंड़ी बोली है। गोंण्ड जनजातत या उसकी कततपय कु छ उपजाततयों के साथ घोटुल प्रथा जुड़ी हुई है। बहुचर्थचत प्रथा है। घोटुल गोंड जनजातत की समाजतशक्षा का के न्द्र है। यह बलगो पेन यानी बलगो देिता की आराधना का पतित्र स्थल भी है। 'बलगो` पेन घोटुल के संस्थापक और तनयामक माने जाते हैं। यह माना जा सकता है दकबलगो देि को ही हल्बी पररिेश में बूऺढा देि और छत्तीसगढ़ी पररिेश में बड़ा देि सम्बोतधत दकया जाता , है। बूऺढा देि, बड़ा देि या बलगो पेन भगिान तशि हैं। घोटुल की के ही अितार या अंग माने जाते (नटराज) ,तनयम तनमागण ,िाद्यरयन्त्रों की रचना ,परम्परा का सूत्रपात रीतत ररिाज आदद सभी बलगो-द्वाराही दकए गए माने जाते हैं। बेरठया प्रथा का बस्तर में चलन है। इस प्रथा के अन्तगगत गााँि के लोग जरुरतमंद व्यतक्त के हनताना तलए करते हैं। घोटुल में आपसी भाई चारे की यही भािना बड़ा कायग तबना दकसी मे-से-घर का बड़ा तनतहत होती है और यह तशक्षा भी दी जाती है। जब कभी समाज या पररिार में कोई काम होता है, घोटुल के सारे सदस्य तमलख।यहााँ सहकार की भािना काम :जुल कर उसे पूरा करते हैं। चाहे िह सुख हो या दुकरती है।`घोटुल को आरम्भ से ही एक प्रभािी और सिगमान्य सामातजक संस्था के रूप में मान्यता तमलती रही है। इसे एक ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता रहा है, तजसकी भूतमका गोंड जनजातत की मुररया शाखा को संगरठत करने में प्रभािी रहा है। यों तो मोटे तौर पर घोटुल मनोरं जन का के न्द्र रहा है, तजसमें प्रत्येक रातत्र नृत्य, गीत गायन, कथािाचन एिं तितभन्न तरह के खे-ल खेले जाते हैं। दकन्तु मनोरं जन प्रमुख नहीं अतपतु गौण होता है । प्रमुखतयह संस्था सामातजक सरोकारों से जुऺडी होती है।घोटुल के तनयम अतलतखत : कलाप में भागीदारी की -को घोटुल के आन्तररक दक्रया दकन्तु कठोर और सिगमान्य होते हैं। तििातहतों अनुमतत, तिशेष अिसरों को छोड़ कर, प्रायनहीं होती। घोटुल के तनयमों का उल्लंघन होने पर दोषी को : दण्ड का भागी होना पड़ता है। घोटुल के तनयमों का पालन नहीं करने िाले को उसकी त्रुरट के अनुरूप लघु जो आर्थथक या सामातजक होता है। इस संस्था के संचाल ,जाने का प्रािधान होता है या दीघग दंड ददयेन के डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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57 तलये तितभन्न अतधकारी होते हैं, तजनके अतधकार एिं कत्तगव्य तनतित और तभन्नतभन्न होते हैं। ये अतधकारी । ये अतधकारी हैं अलग तिभागों के प्रमुख होते हैं। इन अतधकाररयों के सहायक भी हुआ करते हैं-अलग कोटिार, ततसलदार (तहसीलदार), दफे दार, मुकिान, पटेल, देिान (दीिान) हिलदार, कातनसतबल (कॉन्स्टेबल), दुलोसा, बेलोसा, अतकरी, बुदकरी आदद। प्रायीः दीिान ही संस्था प्रमुख होता है। इन अतधकाररयों के अतधकारों को घोटुल के बाहर चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके साथ ही यदद दकसी अतधकारी द्वारा अपने कत्तगव्य पालन में दकसी तरह की चूक हुई हो तो उसे भी घोटुल प्रशासन दतण्ड़त करने से नहीं चूकता।98 गोंड़ जनजातत को बलगोंपेन और उसके िाद्ययंत्रों के तलए उल्लेख में लाया जाता है। यह कहा जाता है दक, बहुत पहले बस्तर सम्भाग के नारायणपुर तजले में रािघाट की पहातड़यों की श्रृंखला के क्षेत्र- दुगान हूर- में सात भाई रहा करते थे। उन सात भाइयों में सबसे छोटे भाई का नाम था 'बलगो`। िह अन्य भाईयों से अतधक गुणी, बुतद्धमान और बलशाली था। खेत-खतलहान तथा अन्य काम के समय सभी छह भाई सिेरे से अपने- अपने काम में चले जाते थे। छहों भाइयों का तििाह हो चुका था। बलगो सभी भाई और भातभयों का लाड़ला था। िह संगीत-कला में भी तनष्णांत तथा तिशेषज्ञ था। कहते हैं दक, िह एक साथ बारह प्रकार के िाद्ययंत्र समान रूप से बजाता लेता था। सुबह उठते ही दैतनक कमग से तनिृत्त हो कर िह संगीत-साधना में जुट जाता। उसकी भातभयााँ उसके संगीत से इतना मन्त्र-मुग्ध हो जाया करती थीं दक, िे अपने सारा काम भूल जाती। इस कारण प्राय: उसके भाइयों और भातभयों के बीच तकरार हो जाया करती थी। कारण, न तो िे समय पर भोजन तैयार कर पातीं न अपने पततयों को समय पर खेत-खतलहान में भोजन पहुाँचा पातीं। इस कारण छहों भाई बलगो से भी नाराज रहा करते। िे थक-हार कर जब घर लौटते तो पाते बलगो संगीतसाधना में जुटा है और उनकी पतत्नयााँ मन्त्र-मुग्ध हो कर उसका संगीत सुन रहीं हैं। तब छहों भाइयों ने तिचार दकया दक यह तो संगीत से अलग हो नहीं सकता और इसके रहते हमारी पतत्नयााँ इसके संगीत के मोह से मुक्त नहीं हो सकतीं। पहले तो बलगो को समझाया गया दक, िह अपनी संगीत-साधना बन्द कर दे। लेदकन बलगो चाह कर भी ऐसा न कर सका। तब छहों भाइयों ने तय दकया दक क्यों न इसे मार ददया जाए। न रहेगा बााँस न बजेगी बााँसरु ी। एक ददन उन लोगों ने एक योजना बनायी और तशकार करने चले गए। साथ में बलगो को भी ले गए। जब िे सघन िन पहुाँचे तो योजनानुसार एक बीजा पेऺड की खोह में छु पे 'बरचे` (तगलहरी प्रजातत का तगलहरी से थोडा बड़ा जन्तु। बरचे का रं ग भूरा और पूाँछ लम्बी होती है। आज भी इसका तशकार बस्तर के िनिासी करते हैं और बड़े चाि के खाते हैं।) को मारने के तलये बलगो को पेऺड पर चढ़ा ददया और स्ियं उस पेऺड के नीचे तीर-कमान साध कर खड़े हो गये। इसी समय इन छहों भाइयों में से एक ने मौका अच्छा जान कर नीचे से तीर चला ददया। तीर बलगो की बजाय पेऺड की शाख पर जा लगा। तीर लगते ही बीजा का रस, जो लाल रं ग का होता है, नीचे टपकने लगा। छहों भाइयों ने सोचा दक तीर बलगो को ही लगा है और यह रक्त उसी का है। उन्होंने सोचा दक जब तीर उसे लग ही गया है तो उसका अब जीतित रहना मुतश्कल है। ऐसा सोच कर िे िहााँ से घर भाग आए। घर आ कर सब ने चैन की सााँस ली। उधर बलगो ने देखा दक, उसके भाई पता नहीं यों उसे अके ला छोड़ कर भाग गए हैं। उसे सन्देह हुआ। िह धीरे -धीरे पेऺड पर से नीचे उतरा और घर की ओर चल पड़ा। कु छ सोच कर उसने तपछले दरिाजे से घर में प्रिेश दकया। िहााँ भाई और भातभयों की बातें सुनीं तो उसके रोंगटे खड़े हो गये। लेदकन उसने यह तथ्य दकसी को नहीं बताया और चुपके से भीतर आ गया जैसे दक उसने उनकी बातचीत सुनी ही न हो। उसे जीतित देख कर उसके भाईयों को बड़ा आियग हुआ। ददन पहले की ही तरह गुजरने लगे। इस घटना के कु छ

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58 ही ददनों बाद उसका भी तििाह कर ददया गया। उसका तििाह एक ऐसे पररिार में हुआ, तजसके पररिार के लोग जादू-टोना जानते थे। उसकी पत्नी भी यह तिद्या जानती थी। समय बीतता रहा। उनके पररिार में कभी कोई बच्चा या कभी भाई-भाभी बीमार पड़ते तो हर बार छोटी बहू पर ही शक की सुई जा ठहरती थी, दक िही सब पर जादू- टोना कर रही है। तब छह भाइयों ने छोटे भाई और बहू को घर से बाहर तनकालने की सोची। एक ददन बलगो के भाइयों ने स्पष्ट शब्दों में बलगो से कह ददया, 'तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की िजह से हम सभी लोगों को काफी परे शातनयों का सामना करना पड़ रहा है। अत: तुम लोग न के िल घर छोड कर बतल्क यह क्षेत्र/परगना छोड कर कहीं अन्यत्र चले जाओ। हम तुम्हें अपनी सम्पतत्त में से कु छ भी तहस्सा नहीं देंगे लेदकन यादगार के तौर पर तुम्हें यह 'मोह्ट` (अाँग्रेजी के 'यू` आकार की एक चौड़ी कील तजससे हल फाँ सी रहती है। इसे हल्बी में 'गोली ' कहा जाता है) देते है ।' बलगो उसे ले कर अपनी पत्नी के साथ िहााँ से चल पड़ता है। िे रास्ते में कन्द-मूल खाते, उस क्षेत्र/परगने से बाहर एक गााँि के पास पहुाँचते हैं। फागुन-चैत्र महीना था। िहां उसने देखा दक, धान की बमजाई उपरााँत पैरा (पुआल) कोठार (खतलहान) में रखा हुआ था। घर से तनकलने के बाद से उन्हें भोजन के रूप में अन्न नसीब नहीं हुआ था। उसे देख कर उसके मन में अशा की दकरण जागी और उसने तिचार दकया दक यों न इसी पैरा को दुबारा मींज कर धान के कु छ दाने इकट्ठे दकये जाएं। यह सोच कर उसने उस कोठार िाले दकसान से अपना दुखड़ा सुनाया और उस पैरे को मींजने की अनुमतत मााँगी। उस दकसान ने उसकी व्यथा सुन कर उसे बमजाई करने की अनुमतत दे दी। उसने गााँि लोगों से तनिेदन कर बैल मााँगे और उस 'मोह्ट` को उसी स्थान पर स्थातपत कर उससे तिनती की दक, तुम्हें मेरे भाइयों ने मुझे ददया है। मैं उनका और तुम्हारा सम्मान करते हुए तुम्हारी ईश्वर के समान पूजा करता हूाँ। यदद तुममें कोई तश त है, तुम मेरी तभ त की लाज रख सकते हो तो इस पैरा से भी मुझे धान तमले अन्यथा मैं तुम्हारे ऊपर मल-मूत्र कर तुम्हें फें क दूग ाँ ा। ऐसा कह उसने तमजाई शुरु की। िह तमजाई करता चला गया। तमजाई समाप्त होने पर न के िल उसने बतल्क गााँि िालों ने भी देखा दक उस पैरा से ढेर सारा धान तनकल गया है। सब लोग आियग चदकत हो गये और बलगो को चमत्कारी पुरुष के रूप में देखने लगे। उसका यथेष्ट सम्मान भी दकया। तब बलगो ने उस 'मोह्ट` की बड़ी ही श्रद्घा-भतक्त पूिगक पूजा की। उसे कु ल देिता मान तलया और पास ही के जंगल में एक झोपड़ी बना कर बस गया। बलगो और उसकी पत्नी ने तमल कर काफी मेहनत की। उनकी मेहनत का फल भी उन्हें तमला। जहााँ उन्होंने अपना घर बनाया था कालान्तर में एक गााँि के रूप में पररर्थतत हो गया। समय के साथ बलगो उस गााँि का ही नहीं बतल्क उस नए क्षेत्र/परगने का भी सम्मातनत व्यतक्त बन गया। उस गााँि का नाम हुआ 'िलेक् नार`। 'िलेक्` यानी सेमल और नार यानी गााँि। हल्बी में सेमल को सेमर कहा जाता है। आज इस गााँि को लोग सेमरगााँि के नाम से जानते हैं।इस तरह जब उसकी कीर्थत गााँि के बाहर दूसरे गााँिों तक फै ली और उसके भाइयों के कानों तक भी यह बात पहुाँची। उसकी प्रगतत सुन कर उसके भाइयों को बड़ी पीड़ा हुई। िे द्वेष से भर उठे । उन लोगों ने पुन: बलगो को मार डालने की योजना बनायी और िे सब सेमरगााँि आ पहुाँचे। उस समय बलगो घर पर नहीं था। उन्होंने उसकी पत्नी से पूछा। उसने बताया दक बलगो काम से दूसरे गााँि गया हुआ है। तब उसके भाई िहााँ से िापस हो गये और अपनी योजना पर अमल करने लगे। उन्होंने बारह बैल गातड़यों में लकड़ी इकट्ठा की और उसमें आग लगी दी। उनकी योजना थी बलगो को पकड़ कर लाने और उस आग में झोंक देने की। अभी िे आग लगा कर बलगो को पकड़ लाने के तलये उसके घर जाने ही िाले थे दक सबने देखा दक बलगो उसी आग के ऊपर अपने सभी िाद्ययंत्रों (1. मााँदर, 2. ढु डरा (कोटोड, ठु ऺडका, कोटोडका), 3. बािाँसी (बााँसुरी), 4. मााँदरी 5. परााँग, 6. अकु म (तोडी), 7. तचटकोली, 8. गुजरी बड़गा (ततरडु ड्डी या झुमका बड़गी या झुमका बड़गा), 9. हुलकी, 10. टुंडोडी (टुऺडबुऺडी), 11. ढोल, 12. तबररया ढोल, 13. दकरदकचा, 14. कच टेहड ें ोर, 15. पक टेहड ें ोर, 16. ढु तसर (तचकारा), 17. कीदकड़, 18. सुलुऺड) को बजाते हुए नाच डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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59 रहा है। यह देख कर उन सबको बड़ा आियग हुआ। िे थक-हार कर िहााँ से िापस चले गये। िे समझ गये दक, बलगो को मारना सम्भि नहीं। बलगो और उनके उन छह भाइयों के नाम का उल्लेख यह आया है- 1. उसप मुददया, 2. पटिन डोकरा, 3. खण्डा डोकरा, 4. तहड़तगरी डोकरा, 5. कु पार पाट डोकरा, 6. मड़ डोकरा, 7. बलगो डोकरा। उनके अनुसार बलगो पेन तथा उनके छह भाई गोंड जनजातत के सात देि गुरु कहे गये हैं।99 तिकास अनुक्रम में गोंड़ जनजातत की कला, खान-पान, रहन-सहन, जीिकोपाजगन के साधन, अराधना पद्धतत, िस्त्र तिन्यास आदद में पररित्तगन आया है। समस्या गरीबी ही बनी हुई है। नक्सलिाद से भी सिागतधक तिपरीत प्रभाि और पलायन इसी जनजातत का हुआ है। अभाि ग्रस्त जीिन अब परातश्रत भी हो गया है। गोंड़ और उससे उत्पन्न या जुड़ी जनजाततयों में Sickle cell hemoglobin (HbS), Betathalassemia trait और G6PD की कमी के कारण उत्पन्न रोग पाए जाते हैं। HbS gene की आिृतत्त का तिस्तार 0.0530 से 0.1805, beta-thal gene from 0 से 0.0283 और Gd- gene 0.0189 से 0.1120 तक है।100 11. हलबाीःहलबा जनजातत छत्तीसगढ़ राज्य की प्रमुख जनजातत है। यह मुख्यतीः बस्तर सम्भाग के पााँचों तजलों में रहती है। इसके अततररक्त यह लोग रायपुर सम्भाग के दुगग, धमतरी और राजनााँदगााँि तजलों में भी रहते हैं। 2001 में इनकी जनसंख्या 326,671 थी। यह प्रगततशील जनजातत मानी है। कतथत मुख्य धारा की जाततयों से इनका सम्पकग अन्य जनजाततयों की अपेक्षा अतधक है। इनकी महापंचायत की अपनी िेबसाइट http://www.halbamahapanchayat.comभी है। समाजशास्त्री पं. गंगाधर सामंत शमाग का मत है दक, हल से कृ तष कायग करने के कारण हलबा संज्ञा की व्युत्पतत्त हुई। डा.तग्रयसगन ने भी इसी मत का समथगन दकया।101 इस जनजातत के लोग स्ियं को महाभारत के रूक्मणी हरण प्रसंग से जोड़ते हैं। हरण के समय कृ ष्ण अग्रज बलराम द्वारा, तिरोतधयों को, रोक ददया गया था। अतीः हरण में सम्मतलत सैतनकों ने प्रभातित हो, उसके अस्त्र, हल और मूसल अपना तलए। उन्हीं सैतनकों के िंशज हल से खेती कर धान प्राप्त करने लगे। िे उसे मूसल से बहना में कू ट कर तचिड़ा बनाने लगे। हल, बहना और मूसल से सम्बद्धता से हल+बा=हलबा शब्द बना।102

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http://bastercg.blogspot.com/2009/03/all-about-ghotul.html

100

http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/2129613 (Institute of Immunohaematology ICMR, Seth G.S.

Medical College, Parel, Bombay, India का V.R.Rao और A.C.Gorakshakar का सिेक्षण) 101

एस.एस.भट्ट-हलबा जनजातत(मध्य प्रदेश आददम जातत अनुसन्धान संस्थान,भोपाल)

102

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ। (सम्पादक-

टी.के .िैष्णि)

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60 यह द्रतिड़ मूल की जनजातत िारं गल की रहने िाली मानी जाती है।103 राबटग िाने रस्सेल्ल इन्हें गोंड़ और तहन्दू के सन्योग से उत्पन्न तमतश्रत जातत मानता है।104 सम्भितीः उतड़या राजा के घरे लू सेिकों के एक िगग द्वारा सैतनक कायग अपनाना भी एक अिधारणा के रूप में सामने आया है। बस्तर में हलबां को ऊाँचा दजाग हातसल है। िे बस्तर शासकों के अंगरक्षक रहे। हालााँदक दररयाि के काल में उन्हें डोंगर क्षेत्र के हलबा तिद्रोह (1774-79) उपरााँत तचत्रकोट प्रपात से नीचे भी कफकिाया गया। जैनेरटक अध्ययन105 में यह पाया गया है दक, िे द्रतिड़ मूल के हैं। अतीः रस्सेल्ल का यह अनुमान दक, िह िारं गल से आए, माना जा सकता है। अब यह कहा जाता है दक, यह िारं गल की तेलगू जनजातत अन्नाम देि के साथ बस्तर आई। यह लोग दंतेश्वरी के भक्त हुए। इस जनजातत के नाम पर ही छत्तीसगढ़ी आयग भाषा के रूप का नाम हलबी पड़ा। यह लोग हलबी भाषा/बोली बोलते हैं। इसमें द्रतिड़ भाषा के शब्दों के उपयोग के बािज़ूद, यह आयग भाषा के रूप में तिकतसत हुई। यह बस्तर में स्थातपत हुई। पूरे बस्तर क्षेत्र में भाषां का अतत और तितचत्र संगम हुआ है। तेलगू, उतड़या, मराठी, छत्तीसगढ़ी तहन्दी, कई जनजाततय बोलीयााँ और भाषाएाँ-गोंड़ी, गदबा, (मुण्डा) आदद भाषां के क्षेत्र और िक्ता होने से हलबी उन सब के तमश्रण की सम्पकग भाषा के रूप में सामने आई। हलबा जातत से सम्बन्धता के कारण हलबी संज्ञा तमली। ग्लासफोडग और स्टेन कोनो हलबी को छत्तीसगढ़ी की उपबोली मानते हैं। जाजग तग्रयसन और आर.के .एम.बेट्टी इसे मराठी की उपबोली मानते हैं। गंगाधर सामंत, ई.एस.हायड और सुनीतत कु मार चटजी हलबी को उतड़या और मागधी के तनकट मानते हैं।106 िैसे हलबी में उतड़या शब्द ही अतधक हैं। हलबी में छत्तीसगढ़ी तहन्दी, उतड़या, मराठी, गोंड़ी और मुण्डा गदबी का प्रभाि है। उच्चारण छत्तीसगढ़ी की तरह है। छत्तीसगढ़ के प्रिासी और उत्तर-दतक्षण समंिय की प्रतततनतध प्रतीक हलबा ही प्रतीत होती है। यह जनजातीय भाषा बस्तर ररयासत में भी प्रयुक्त होती थी। इसे बस्तर क्षेत्र की मुख्य भाषा माना जाता है। तितभन्न जाततयााँ और जनजाततयााँ अलग-अलग प्रकार की हलबी बोलती है, जो उसी जातत की हलबी के नाम से जानी जाती है। कमारी, भुंतजया, नाहरी, राजमुररया, तमरगानी, चंडारी, महरी, बस्तरी और भतरी इसकी बोतलयााँ हैं। इस ऊपर, पूिग पृष्ठों पर, और चचाग कर ली गई है। इस जनजातत के लोग सामान्य कदकाठी के होते हैं। त्िचा का रं ग सााँिला तथा नाक चौड़ी और दबी होती है। चेहरा चौड़ा है। अतधक मेहनती होने के कारण शरीर हृष्ट-पुष्ट और गठीला है। शारीररक लक्षण प्रोटोआस्रेलाइड प्रजातत के हैं। यह लोग बड़े ग्रामों में ही बसे हैं। हलबा लोगों के आिास कच्चे और तमट्टी के होते हैं, तजन पर खपरै ल की छत होती है। िे अपने आिास स्ियं बनाते हैं। ग्राम पारों में बंटे होते हैं। यह लोग सामान्यतीः गोंड़, भतरा, मुररया, मातड़या आदद जनजातत के लोगों के साथ तनिास करते हैं। हलबा मतहलाएाँ आिास

103

http://www.scribd.com/doc/20206344/Halba-Tribe

104

R.V.Russell-The tribes and castes of Central provinces of India,Voll.-III,P.-

105

यह जैनेरटक अध्ययन कोलकाता (भारत) के Anthropology & Human Genetics Unit, Indian Statistical

Institute; Human Genetics & Genomics Department, Indian Institute of Chemical Biology और Crystallography & Molecular Biology Division, Saha Institute of Nuclear Physics, Calcutta India के द्वारा दकया गया था। 106

सुनीतत कु मार चटजी-ओरीजन आफ बंगाली,पृ.14

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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61 गृह की स्िच्छता और सफाई बनाए रखने हेतु जानी जाती हैं। यह लोग सफाई पसन्द हैं। यह लोग जड़ी-बूटी के ज़ानकार होते हैं। मतहलाएाँ अपने हाथ-पैरों में तितभन्न आकृ ततयों के गोदना गुदिाती हैं। पुरूष धोती, पटका, बंड़ी, सलुका आदद और मतहलाएाँ साड़ी-ब्लाउज पहनती हैं। पुरूष अब पैट-शटग और कु ताग-पायजामा भी पहनते हैं। पुरूष पागा भी बााँधते हैं।107 हलबा लोगों के भोजन में चािल, कोदो और कु टकी की बासी, ऋतु शाक, चटनी आदद है। िे मााँसाहारी हैं, पर अन्य जनजाततयॉ की अपेक्षा यह लोग मााँस और मददरा छोड़ने के तलए भी जाने गए।108 िे मुगाग, मछली, बकरा, खरगोश आदद खाते हैं। उत्सि, त्योहार और संस्कारों के अिसर पर सल्फी, ताड़ी और महुआ शराब देिी-देिता को चढ़ा कर पीते हैं। यह लोग अतधकांशतीः कृ तष और िन उपज पर तनभगर हैं। यह प्रगततशील जनजातत है और अन्य जनजाततयों की तुलना में इनकी आर्थथक तस्थतत अच्छी मानी जाती है। इनमें अन्य जनजाततयों से तशक्षा का स्तर भी अच्छा है। कहीं-कहीं तो इन्हे छत्तीसगढ़ की सिागतधक प्रगततशील और सम्पन्न जनजातत तलखा गया है।109 यह लोग अपने खेतों में धान, कोदो, अरहर, उड़द, मूाँग, ततल्ली, चना, ततिरा, कु टकी आदद बोते हैं। यह लोग मजदूरी और तचिड़ा कू टने का कायग भी करते हैं। कई लोग शासकीय नौकरी भी कर रहे हैं। हलबा लोग अब तीन प्रकार से जाने जाते है- छतीसगदढ़या, बस्तररया और मरारठया। छत्तीसगढ़ में प्रथम दो ही तिभाजनों को माना जाता है। छतीसगदढ़या हलबा रायपुर सम्भाग के दुगग तजले के बालोद, ड़ौण्ड़ी, दल्ली-राजहरा, गुण्डरदेही और राजनााँदगााँि तजले के चौकी, डोंगरगााँि में और बस्तररया हलबा रायपुर सम्भाग के नगरी, गररयाबन्द और देिभोग तथा बस्तर सम्भाग के बस्तर, कााँकेर, अंतागढ़, बड़े ड़ोगर, भानुप्रतापपुर, नारायणपुर, दंतेिाड़ा, बीजापुर में रहते हैं। आगे इनके पुरैत और सुरैत तिभाजन हैं। पुरैत उच्च माने जाते हैं। तदुपरांत बतहर्थििाही गोत्रों में तिभाजन है। गोत्रों के टोटम हैं। हलबां का ही एक दूसरा समूह है जो दक, दुगागदि े ी की उपासना करते हैं, यह सिता हलबा कहलाते हैं। इनके जीिन चक्र में जन्म, तििाह और मृत्यु संस्कार का तििरण यह है- प्रसि घर पर सुईन (दाई) द्वारा कराया जाता है। बुजुगग मतहलाएाँ उसकी सहायता करती हैं। सुईन नाल ढ़लेड से काटती है। दूसरे ददन तेलगुर करते हैं। ततल को कू ट कर उसमें िनीय जड़ी-बूटी को घी के साथ तमला कर जच्चा और इस आयोजन मे6 आई मतहलां को ददया जाता है। बच्चे की नाल तगरने पर शुतद्ध करते हैं। स्नान, सफाई आदद के उपरााँत बुजुगों द्वारा नामाकण दकया जाता है। व्यस्क तििाह है। बाल तििाह नहीं है। सगोतत्रय तििाह िर्थजत है। सामान्यतीः मामा और बुआ की संतानों से ही तििाह दकया जाता है। िर तपता ही िधु गृह जाकर प्रस्ताि रखता है। तैय पाए जाने पर मंगनी की रस्म की जाती है और सूक ददया जाता है। तििाह हलबा जनजातत का भण्डारी सम्पन्न कराता है। तिधिा तििाह और तलाक प्रचतलत है। मृतक को गाड़ते हैं। अब दाह भी करने लगे हैं। इसमें तपता का दाह बड़ा पुत्र और माता का छोटा पुत्र करता है। दाह उपरााँत स्नान करते हैं। छोटे बच्चे के शि को दफनाते हैं। मृतक संस्कार मतहला हेतु सातिें 107

हलबा, जनजातत का सतक्षप्त मानि शास्त्रीय अध्ययन मोनोग्रादफक अध्ययन

108

http://tdil.mit.gov.in/ggs/Sanskritik_CG(HTML)/Sanskritik_Chhattisgarh/tribesofCG3.htm

109

http://www.mapsofindia.com/chhattisgarh/people-culture-festivals/halbaa.html

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62 ददन और पुरूष हेतु नौिें ददन होता है। कहीं-कहीं तीसरे ददन भी करते हैं। तदुपरांत बैगा को बुला घर शुद्ध करा भोज देते हैं। न्याय व्यिस्था हेतु पारम्पररक राजनैततक संगठन है। हलबा तनिास को 18 क्षेत्र में तिभक्त कर उसे गढ़ की संज्ञा दी गई है। यथा- बड़े ड़ोगर गढ़, नारयणपुर गढ़, तबन्द्रानिा गढ़, अंता गढ़, कााँकेर गढ़, सोनपुर गढ़, कोलार गढ़ आदद। इन प्रशासतनक इकाईयॉ को भी कततपय लोग गलत रूप से व्याख्या कर दकले से जोड़ देते हैं। इसमें बड़े प्रकरण तनराकृ त्त दकए जाते हैं। इसके अततररक्त जातत पंचायत, राज या गढ़ पंचायत, गााँि पंचायत आदद में छोटे तििाद तनपटाए जाते हैं। इनके तनणगय सभी को मान्य होते हैं। हलबा लोग तहन्दू देिी-देितां को मानते हैं। तहन्दू त्योहार मनाते हैं। दंतश्व े री माई को पूजते हैं। इसके अततररक्त ग्राम अराध्य के रूप में दूल्हा देि, कररया धुरिा, माता देिला, शीतला माता, कं कातलन माता, शंकर भगिान, हनुमान आदद और कु ल अराध्य के रूप में गुसई, पुसई, कुं िर देि, मौली माता आदद को पूजते हैं। िे अपनी महापंचायत की िेबसाइट में धमग आददिासी तलखते हैं। यह लोग निाखाई, दीपािली, रक्षाबन्धन, तजदरी आदद त्योहार मनाते हैं। कमाग, पड़की, होली आदद नृत्य करते हैं। धनकु ल, छेरछेरा, गौरा, सुआ आदद लोक गीत हैं। आपस में हलबी में और अन्य लोगों से छत्तीसगढ़ी में बात करते हैं। तिकास अनुक्रम में इस जनजातत ने तशक्षा को अपना कर अन्य जनजाततयों की तुलना में अतधक प्रगतत की है। इनकी अराधना, रहन-सहन, लोक कला, िस्त्र तिन्यास, अराध्य, आभूषण आदद में बदलाि आया है। हालााँदक कु छ लोग इनमें कट्टरता, तजद्दीपन और अपने प्रतत अतधक आग्रही होने आदद के अंश के तिकास को भी देखते हैं। 12. कं िरीःकं िर छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातत है। राज्य में यह, जनसंख्या की की दृतष्ट से तद्वतीय क्रम पर है। 2001 में इनकी जनसंख्या 760,298 थी। यह लोग रायपुर सम्भाग के रायपुर, महासमुन्द और राजनााँदगााँि; सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और कोररया तथा तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर, कोरबा और रायगढ़ तजलों में तनिास करती है। तबलासपुर सम्भाग में इनका संकेन्द्रण अतधक है। कं िर जनजातत की उत्तपतत के एततहतसक अतभलेख नहीं हैं। िे स्ियं अपनी उत्पतत दुयोधन से सम्बद्ध करते हैं। महाभारत पराजय उपरााँत शेष रहे कौरि भाग कर िनों में तछपे। िे िहीं जीिनयापन करने लगे। ये कौरि और उनके िंशज कं िर कहलाए। इसी कारण िे अपने को कु रूिंशी और चन्द्रिंशी कहते हैं। कं िर की एक शाखा तंिर भी कहलाती है। इन्हें ही छत्तरी भी कहते हैं। रतनपुर राज्य के समय इनकी सात जमीन्दाररयााँ पुराना तबलासपुर तजला क्षेत्र में थीं। यह थीं- कोरबा, छु री, चााँदा, लाफा, उपरोंड़ा, मततन और पेंड्रा।110 जमीन्दार रहे कं िर लोग ही तंिर या छत्तरी कहलाने लगे। इनका पारम्पररक व्यिसाय सेना में कायग करना था। अब यह लोग कृ तष-कायग और मजदूरी करके अपना जीिनयापन करने लगे गये हैं।111 कं िर लोग भी अपनी मूल बोली भूल गए हैं और इन्होंने छत्तीसगढ़ी को अपना तलया है।112 इनकी भाषा कं िरी थी, जो इंड़ो-आयग समूह की है। यह हलबी की तरह और उससे उत्पन्न है।113

110

ए.के .तद्विेदी-कं िर जनजातत

111

http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/kabir005.htm

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63 इस जनजातत के लोग छत्तीसगढ़ मे गोंड़, उरााँि, मझिार, बबझिार, भैना, मुण्डा, नगेतसया आदद जनजातत के लोगों के साथ ग्रामों में तनिास करते हैं। कु छ अन्य जाततयााँ जैसे कु म्हार, तेली, राित आदद भी साथ ही ग्रामों में रहती हैं। इनके आिास घााँस-फू स या खपरै ल के छप्पर िाले और तमट्टी के बने होते हैं। इनके घरों में चार-पााँच कक्ष और सामने परछी होती है। इनमें एक कक्ष रसोई और पूजा हेतु होता है। रसोई से सटे कक्ष में खोतड़या (कोठी) रखते हैं और उसमें अतधकााँशतीः धान भण्डाररत करते हैं। पशु कोठा पृथक बनाते हैं। दीिारे श्वेत या पीली तमट्टी (छु ई) से और फशग गाय के गोबर से लीपते हैं। इनके घरों में सामान्यतीः खाट, बत्तगन (तमट्टी, कााँसा, पीतल, एल्युमीतनयम आदद के ), जांता, मूसल, टोकरीयााँ (बााँस की), कृ तष उपकरण- नागर, कोपर, कु दाली, टााँगी, रापा आदद के साथ तशकार हेतु औजार भी रहते हैं। इनके िस्त्र तिन्यास में पुरूष हेतु घुटने तक धोती और कमीज़ तथा मतहलां हेतु सूती साड़ीब्लाउज एिं छोटी बातलकां हेतु लहंगा-ब्लाउज या छोटी या आधी साड़ी है। कु छ पुरूष उं गली में मुन्दरी या छल्ला, हाथ में चूड़ा, कान में नगी या बारी और गले में कं ठा नामक आभूषण पहनते हैं। मतहलाएाँ हाथ में

तचत्र 15 - कं िर मतहला

स्रोत -http://www.joshuaproject.net/peopleprofile.php?peo12111=3&rog=3IN

ककनी, चूड़ी, ऐंठी; बााँह में नागमोरी, पहुाँची; गले में सूता, चााँदी रूपईया हार; कान में सुतिााँ, तखनिा; नाक में फू ली; कमर में करधन; पैरों में पैरी (कााँसे या चााँदी की), साटी आदद आभूषण पहनती हैं। िे हाथ, पैर और बााँह पर हस्ततशल्प का गुदना गुदिाती हैं। इनके भोजन में चािल और कोदो का भात और बासी पेज मुख्य है। िे उड़द, ततिड़ा और अरहर की दाल, ऋतु शाक (मौसमी सब्ज़ी) और भाजी आदद भी खाते है। िे मााँसाहारी है और मुगाग, बकरा, मछली, चीतल, सांभर, कोटरी, खरगोश, िन शूकर (जंगली सुअर) आदद खाते हैं। महुआ की शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी और तम्बाखू पीते हैं। पहले यह लोग सेना में भती होते थे और सैतनक थे। िे अच्छे धनुगधारी माने जाते रहे हैं।114 अब कृ तष करते हैं। िे मजदूरी भी करने लगे हैं। धान, कोदो, ततल, ततिरा, अरहर, मूाँग, उड़द आदद इनकी उपजें हैं। बसचाई साधन नहीं बराबर हैं, तजनके पास यह साधन हैं िे गेहू,ाँ चना आदद भी बोते हैं। शेष लोग मज़दूरी करते हैं। यह लोग िनोपज संग्रह से भी आय प्राप्त करते हैं। िे महुआ, तेन्दूपत्ता, महुल पत्ता, चार, गोन्द, हराग, धिई फू ल आदद िनोपज संग्रह कर बेचते हैं। अब तशकार नगण्य प्राय है।

112

chhattisgarhstate.hpage.com

113

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php?peo3=17122&rog3=IN

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http://www.india9.com/i9show/-Madhya-Pradesh/Kanwars-54948.htm

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64 कं िर जनजातत तपतृिंशीय, तपतृसतात्मक और तपतृतनिास स्थातनय गुण रखने िाली जनजातत है। कं िर कई उपजाततयों में तिभक्त हैं। इन उपजाततयों में खान-पान का सम्बन्द्ध है, पर तििाह का नहीं। तंिर या छत्तरी, रारठया, पैंकरा, चेरिा, कमलिंशी, दूधकं िर आदद इसकी उपजाततयााँ हैं। तंिर या छत्तरी लोग जमीन्दार किंर रहे। िे अपने को अन्य उपजाततयों से श्रेष्ठमानते हैं। िे रीतत-ररिाज और सामातजक तनयम राजपूत क्षतत्रयों के अपनाने की कोतशश करते हैं। इस उपजातत तिधिा तििाह िर्थजत है। रायपुर तजले में सामान्य कं िर कृ षक तसरदार कहलाते हैं। रारठया उपजातत का संकेन्द्रण रायगढ़ तजले में है। चेरिा उपजातत की उत्पतत्त कं िर पुरूष से चेरो मतहला के सम्बन्ध से मानी गई है। यह लोग सरगुजा और कोररया तजलों में संकेतन्द्रत हैं। पैकरा कं िर रतनपुर के कल्चुरी शासकों के सैतनक थे। कमलिंशी उपजातत के लोग मूल, शुद्ध या प्रारतम्भक कं िर माने जाते हैं। दूधकं िर उपजातत को डाल्टन कं िर जनजातत की क्रीम कहता है। इनका स्थान तंिर या छत्तरी के बाद माना जाता है। यह उपजाततयााँ गोत्रों में तिभक्त हैं। गोत्रों के टोटम हैं। सगोत्र तििाह िर्थजत है। गोत्र हैं- बधिा, तबच्छी, तबलिा, बोकरा, चन्द्रमा, चंिर, चीता, चुिा, चंपा, धनगुरू, ढ़ेकी, दपगण, गोबरा, हुड-अरा, जाता, कोठी, खुमरी, लोधा, सुआ, फू लबंतघया, गनगाकछार, सोनिानी, माझी, नाहना, भैसा, समुन्द, कोतड़या, दूध, आतडला, सोन पखार, जुआरी, भंड़ारी, तसकु टा, डहररया आदद। प्रसि सुईन दाई (बुजुगग मतहला या दाई) द्वारा घर पर कराया जाता है। नाल (नाड़ा) जमीन में गाड़ते हैं। प्रसूता को तीन ददन तक अन्न का भोजन नहीं देते और उसके स्थान पर कशापानी, गुड़, सोंठ, ततल लड्डू , नाररयल आदद देते हैं। तदुपरांत सामन्य भोजन ददया जाता है। छठी को शुद्धी करते हैं, तजसमें तशशु के बाल उतारते हैं। तदुपरांत पूजा करते हैं और भोज करते तथा कराते हैं। कं िर जनजातत में तििाह की उम्र लड़के हेतु 14-18 और लड़दकयों हेतु 12-16 िषग है। पहल और प्रस्ताि िर पक्ष और तनणगय कन्या पक्ष करता है। ररश्ता स्िीकारे जाने पर िर पक्ष के लोग नई साड़ी, गुड़, नगद और शराब लेकर कन्या पक्ष के घर मंगनी हेतु जाते हैं। तदुपरांत द्वारामांगा, रोटी तोड़ना, तििाह और गौना होता है। िर पक्ष सूक भराई में िधु पक्ष को चािल, दाल, गुड़, तेल, हल्दी और नगद देता है। जातत का बुजुगग व्यतक्त तििाह सम्पन्न कराता है। अब ब्राह्मण से यह कायग कराते हैं। गुरािट (तितनमय) और गह्र जमाई प्रथा भी है। ढ़ुकू (घुसपैठ) और उढ़ररया (सहपलायन) तििाह भी मान्य दकया जाता है, हालााँदक सामातजक दण्ड उपरााँत। तिधिा को चूड़ी पहनाने (पुंर्थििाह) की अनुमतत है। सामान्यतीः शि जलाते हैं। कभी-कभी गाड़ते भी हैं। बच्चों को गाड़ा जाता है। तीसरे ददन तीज नहान कर मुण्डन कराते हैं। पुरूष हेतु दसिें, मतहला हेतु निें और बच्चे हेतु पााँचिें ददन शुतद्ध करते हैं। पूजा पाठ कर भोज देते हैं। इनमें भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। यह गााँि में होती है। आठ-दस ग्रामों को तमला चक पंचायत होती है। इसके पिात सात उपजाततयों की सतगड-इया पंचायत होती है। यह किंर जनजातत की सिोच्च पंचायत है। इसका तनणगय बन्नकारी है। इन पंचायतों द्वारा िैिातहक तििाद, अन्य जातत में तििाह, अनैततक सम्बन्ध और सामातजक तनयम तोड़ने के मामले आते हैं। इनके आराध्य हैं- दूल्हा देि, बाहन देि, ठाकु र देि, तशकार देि, सिगमंगला देिी (दुगाग), कोसगाई देिी (दुगाग), बुढ़िा रक्शा, माततन देिी, बंजारी देिी, सभी तहन्दू अराध्य, सूयग, भूतम, नाग, बाघ देि, िृक्ष आदद। बकरा या मुगाग की बतल भी देते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते हैं। इसका जानकार और झाड़-फू क करने िाला बैगा कहलाता है। इनके त्योहार हैं- हररयाली, जन्माष्टमी, पोला, तीजा, पीतर, निाखानी, अनंत चौदस, परमा एकादशी, दुगाग निमी, दशहरा, दीपािली आदद। नृत्य हैं- करमा, सुआ, भोजली, राम-सप्ताह, रहस आदद। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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65 इनके गााँिों में रामायण चबूतरा होता है। इस पर रामचररत मानस का पाठ आयोतजत करते हैं। मतहलां द्वारा गाए जाने िाले लोक गीत हैं- सुआ, भोजली, राम सप्ताह। पुरूषों द्वारा गाए जाने िाले लोक गीत हैंफाग, राम सप्ताह, सेिा आदद। तशक्षा कम है। हालााँदक इसी कारण से बोलचाल, रहन-सहन, िेशभूषा, पररधान, आिास, िस्तु उपयोग, लोक कला, अराधन, अराध्य, तिचार आदद में पररित्तगन आया है और यह लोग अन्य कई जनजाततयों से बेहतर हुए हैं। 1976 में बेरली की कं िर महासभा में सामातजक दोषों यथा- तििाह में सूक प्रथा, अराधना में बतल प्रथा, मााँसाहार, मददरापान आदद को तनतषद्ध घोतषत दकया गया। इनकी भी मुख्य समस्या अथागभाि है। 13. खैरिारीःखैरिार छत्तीसगढ़ की अल्प संख्यक जनजातत है। इनकी अतधकांश जनसंख्या झारखण्ड और मध्य प्रदेश में है। इसके अततररक्त, यह लोग, उड़ीसा, पतिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी हैं। छत्तीसगढ़ में 2001 में इनकी जनसंख्या 98,701 थी। छत्तीसगढ़ के सरगुजा सम्भाग के तीनों तजलों में इनका संकेन्द्रण है। इसके अततररक्त यह लोग तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर तजले में हैं। 1857 की क्रााँतत में सरगुजा क्षेत्र में व्यापक हलचलें और िास्ततिक सशस्त्र तिद्रोह हुआ था। उसमें इस जातत का उल्लेख प्रधानता के साथ आता है। क्रांतत के नायक तनलाम्बर-पीताम्बर और िन सत्याग्रह के फे तह बसह इसी जनजातत के थे। यह लोग मध्य प्रदेश के पन्ना और छतरपुर तजलों में कोन्दर कहलाते हैं। यह लोग अपनी तनष्ठा, एकता और साहस हेतु जाने जाते हैं।115 इनकी भी बोली अब तिलुप्त प्राय है।116 अब तहन्दी की स्थातनय बोली बोलते हैं।117 चेरो शासन के आने तक पलामऊ क्षेत्र पर इनका अतधपत्य रहा। यह लोग चेरो तिस्तार में भी सहायक हुए और इस कारण से उनसे ज़ागीरें पाईं।118 चेरो लोग अपने आप को सूयगिंशी क्षतत्रय से जोड़ते हैं, पर िे प्रोटो-आस्रलायड ही हैं और द्रतिड़ भाषा का प्रयोग करते हैं। खैरिार उत्पतत पर एततहातसक दस्तािेज नहीं हैं। यह माना जाता है दक, खैरिार शब्द खैर (करूष या कत्था) िृक्ष से बना। डालटन का मत है दक, िे गोंड़ जो खैर िृक्ष से कत्था बनाते थे खैरिार कहलाए। रस्सेल्ल का मत है दक, छोटा (चुरटया) नागपुर क्षेत्र में जो चेरो और संथाल यह कायग करते थे खैरिार कहलाए। स्ियं खैरिार लोग अपनी व्युत्पतत्त सूयगिंशी क्षत्री महाराज हररिन्द्र के पुत्र रोतहताश्व से मानते हैं। खैरिार, चेरो और उरााँि में कई तथ्य एक जैसे पाए जाते हैं। यह माना जाता है दक, खरिार, चेरो, एक ही उपजातत हैं, लेदकन िे अलग-अलग उपजातत के पहचान से जाने जाते हैं। खरिार जनजातत के लोग अपने उपनाम में बसह लगाते हैं। उनका रहन-सहन, खान-पान, रीतत-ररिाज प्रकृ तत प्रदत्त है। ये काफी गंभीर, संयमी ि उच्च तिचार के होते हैं। एक मत है दक, खैरिार जनजातत का तनिास स्थल अजानगर (ितगमान अयोध्या) की ओर था। अतत पुरातन काल में पुराण पुरूष मनुिैिस्ित के छठे पुत्र करूस ने भारत के पूिी प्रांतों में अपने राज्य की स्थापना की थी। महाभारत में बिध्यपिगत पर खैरिार जातत ने आश्रय तलया 115

डा.संजय अलंग-कोररया ररयासत का प्रशासतनक अध्ययन

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http://www.patrika.com/news.aspx?id=259749

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http://www.joshuaproject.net/people-profile.php?rog3=IN&rop3=112508

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http://jharkhandi.com/kharwar.aspx

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66 था। कई जन जनजाततयों और कई दूसरे समुदायों के आगमन ि ठहरने का स्थान तबहार के रोहतास तजले में तस्थत रोहतास गढ़ का दकला था। रोहतास गढ के शासक भी चेरो, खरिार, उरााँि, मुंडा ि संथाल आददिासी रहे। सत्ता हस्तांतरण के बाद िे दूसरे क्षेत्रों में पलायन करते गये। आददिासी खरिार भी पलामू की ओर बढ़े। िहां उन्होंने अपनी आजीतिका को सुरतक्षत पाया और तब से िहीं बस गये। 119 पुराने जमाने में आजीतिका का सबसे सुरतक्षत संसाधन भूतम और िन थे। घने जंगल और उपजाऊ जमीन देखकर लोग खेती करने लगे और िहीं के होकर रह गये। रोहतास गढ से प्राप्त प्रस्तर लेख को देखकर इततहासकार प्रो. दकल होनग ने प्रताप धौला नामक सरदार को खेरिाल यातन खैरिार जातत का प्रधान माना है। पुन: एक दूसरे तशलालेख, जो ततलौथु (रोहतास तजले का एक प्रखंड) के पास फु लिारी नामक स्थान में प्राप्त हुआ है, से पता चलता है दक खैरिालों के नाम से प्रताप धौला का रोहतास गढ और उसके आसपास के भू-भागों पर पूरा अतधपत्य था। आज भी रोहतास तजला सतहत उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, तमजागपुर तक खैरिार जातत की अच्छी आबादी है। रोहतास पर राज्य करने के क्रम में िे इधर-उधर अपने क्षेत्र का तिस्तार करते रहे होंगे।120 खैरिार ग्राम सामान्यतीः अपेक्षाकृ त मैदानी क्षेत्र में होते हैं। राज्य में यह लोग सामान्यतीः उरााँि, मुण्डा, गोंड़, कं िर आदद जनजाततयों के साथ रहते हैं। िे अपने घर तमट्टी, काष्ठ, बााँस और खपड़े से बनाते हैं। उनके घरों में सामान्यतीः दो कमरे , एक बरामदा (परछी) और एक आाँगन होता है। िे दीिारे श्वेत या पीली तमट्टी से और फशग गाय के गोबर से लीपते हैं। कक्षों में सामान्यतीः तखड़दकयााँ नहीं बनाते हैं। सामने की दीिार में एक छोटा छेद प्रकाश हेतु रखते हैं। िे सोने के तलए खाट, चटाई, मतचया, सुजनी और साक़; बैठने को पीढ़ा; अन्न रखने को तसका; अन्न भण्ड़ारण हेतु कोठी; पानी रखने को तमट्टी के घड़े; भोजन पकाने को एल्युमीतनयम के बत्तगन; खाने को कााँसे के बत्तगन यथा- थाली, लोटा, ग्लास (टम्बलर) आदद रखते हैं। कु छ बत्तगन अन्य धातुं के भी होते हैं। अब स्टील के बत्तगन प्रयोग करते हैं। इनके घरों में नागर या हल, जंता, हेंगा, खांता, कु दाली, खुरपी, झाम, फार, कु ल्हाड़ी, गैंती आदद कृ तष उपकरण होते है। घर में टोकररयााँ, ढ़ेकी, जाता, लोहे के बक्से, तसल-जोराहा (बट्टा) आदद भी होते हैं। िे लाठी, भाला, बेर, गांड़सा, गुलेल, तीर-धनुष रखते हैं। इनके घरों में बााँसुरी, ढ़ोलक, झाल, करताल आदद भी रहते हैं।121 मतहलाएाँ तसर गले (सुततया, सुरड़ा, हमेल), नाक (लौंग), कान (तखनिा, दार), हाथ, कलाई (चूड़ी, ऐंठी, नागमोरी), उं गली, कमर और पैरों में आभूषण पहनती हैं। आभूषण में सस्ती और तमश्र धातुएाँ उपयोग 119http://www.mynews.in/merikhabar/News/%E0%A4%86%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B8%E0%A4

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िही

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http://jharkhandi.com/kharwar.aspx

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67 होती हैं, जो स्थातनय हाट या फे रीिालों से क्रय दकए जाते हैं। िे हाथ, पैर और चेहरे पर हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। तसर के श में तेल डाल चोटी या जूड़ा बनाती हैं। िे साड़ी, साया और ब्लाउज पहनती हैं। उम्रदराज मतहलाएाँ पूरा शरीर साड़ी से ही ढ़कती हैं। लड़दकयााँ फ्राक, पैंट और सलिार सूट भी पहनती हैं। पुरूष धोती और गंजी पहनते हैं। लड़के पैंट और बुशटग पहनते हैं। बच्चे छोटी उम्र में अधग नग्न रहते हैं। खैरिार लोगों का मुख्य भोजन चािल या कोदो का भात या बासी पेज है। िे ज्िार रोटी, दाल (तुअर, मूाँग, उड़द), मौसमी सब्जी या चटनी भी खाते हैं। मांसाहारी हैं। बकरा, मुगाग, मछली, तीतर, बटेर, हररल, खरगोष, चीतल आदद खाते हैं। महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं।122

तचत्र 16 - खैरिार मतहलाएाँ

तचत्र 17 - खैरिार पुरूष

स्रोत- indianetzone.com और http://www.joshuaproject.net/peopleprofile.php?rog=3IN&rop112508=3

खैरिार जनजातत का जीिकोपाजगन खैर िृक्ष से कत्था तनकालने, कृ तष, मजदूरी और िनोपज संग्रह पर आधाररत है। पहले कई लोग जमीन्दार आदद भी रहे। अब अतधकााँशतीः कृ तष और मजदूरी पर आतश्रत हैं। िे िनों से खैर िृक्ष की लकड़ी लाते, उसे पानी में डाल तमट्टी के घड़े में पकाते। इससे कत्था बाहरा आ जाता। कत्थे के गाढ़ा होने पर उसे सुखा कर बेचते थे। अब यह कायग बन्द प्राय हो गया है। खैरिार पररिार सन्युक्त पररिार नहीं है। सामान्यतीः तििाह उपरााँत पृथ्क आिास का ररिाज है। हालााँदक यह अतधकांश जनजाततयों में है। समाज और पररिार तपतृिंशीय, तपतृतनिास स्थातनय और तपतृसत्तातमक व्यिस्था पर है। खैरिार लोग बर्थहतििाही उपजाततयों में बटे हैं। यह हैं- सूरजिंशी, दौलतिंशी या दौलालबन्धी, पटबन्धी, मटकोड़ा या कं िरिंशी, खैरचूरा या खैरी, भोगतत या भोगता या गोंगु आदद। सूरजिंशी जमीन्दारी से जुड़े होने के कारण अपने को श्रेष्ठ मानते हैं। सूरजिंशी सतहत कु छ उपजाततयााँ जनेऊ भी धारण करती हैं। यह उपजाततयााँ गोत्रों में बाँटी हैं। यह हैं- नाग, धान, नून, ढ़ेकी, काशी, चन्दन, कछु आ, बटेर, समदुआर, चरदयाल, कौररयार, नीलकं ठा, चतन्दयार, हंसगतड़या, बहेरिार, देिालबन्ध, नमहुआर, तोपोिार, बन्धिार, हंसतबतगआ, लोहिरा, बरे िा, इन्दिार, के रके ट्टा, देला, परतधया, बेसरा, मोहकाल, चुतनआर, कन्यगमग, सातहल, ततकी, भगुआ, सोनिानी, बेन्द्रा, कसुनु, पिेना, नोिे, सोया आदद। सभी गोत्र में टोटम पाए जाते हैं। तीन पीढ़ी तक के लोगों में रक्त सम्बन्ध माने जाने के कारन आपस में तििाह नहीं होता। गभागिस्था हेतु संस्कार नहीं है। प्रसि घर पर बुजुगग मतहलाएाँ कराती हैं। प्रसूता को कु ल्थी दाल, तछन्द जड़, गुड़, हल्दी, सरई छाल, ऐंठी, मुड़ी, गोन्द, सोंठ आदद का काढ़ा उर ततल, सोंठ, गुड़ का लड्डू देते हैं। नाल तीखे चाकू से काटते हैं। प्रसूती से शेष सामान को एकांत में जलाते हैं, तजससे जच्चा-बच्चा को बुरे जादूटोने दूर रखा जा सके । एक कं टीली झाड़ी की शाखा द्वारा पर रखते हैं तजससे बुरे तत्ि दूर रहें। पूरी रात

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टी.के .िैष्णि-खैरिार

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68 ददया जलाते हैं और चाकू रखते हैं। छठी को सफाई, पूजा आदद कर शुद्धी करते हैं। भोज करते हैं। एक माह होने पर नाम रखते हैं। तििाह जातत िाह्य, सगोत्रीय और चचेरे-ममेरे भाई-बहनों नहीं होता है। सामान्यतीः एकतनष्ठ तििाह है, पर अन्य तििाहों को भी बुरा नहीं माना जाता।सेिा तििाह, तितनमय, ढु कू (घुसपैठ), सहपलायन, तिधिा और पररत्यक्ता पुनगतििाह मान्य है। लड़के के हेतु तििाह आयु 14-18 और लड़की हेतु 13-16 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष िधू तपता को देता है। तस्िकार होने पर चािल, दाल ,गुड़, तेल, नगद, बकरा और माता-तपता, भाई-बहनों तथा िधु के िस्त्र ददए जाते है। िे शकालतद्वतप या कान्यकु ब्ज ब्राह्मण से तििाह तततथ तनकलिाते हैं। तििाह के एक सप्ताह पूिग िधु धन ददया जाता है। तदुपरांत हररया और भोज ददया होता है। तििाह हेतु ररश्तेदारों आदद को बुला भूतम पूजन करते हैं। मड़िा गाड़ा जाता है। तेल, हल्दी और उपटन लगाने की रस्म की जाती है। बुरे तत्िों की शांतत हेतु चुमिान रस्म होती है। तििाह ददिस को शुतद्ध स्नान पउपरााँत नए िस्त्र धारण करते हैं। िर पालकी से आता है। इसे भुईंया लोग उठाते हैं। आगिानी उपरााँत ब्राह्मण तििाह कराता है। माल्यापगण और सात फे रे होते हैं। तििाह भोज होता है। दूसरे ददन तिदाई करते हैं। िधु की आगिानी की जाती है। िह एक सप्ताह रूक तपता या भाई के साथ िापस आती है। एक िषग उपरााँत उसे गौना करा लाया जाता है। शि को गाड़ते हैं। कभी-कभी सम्पन्न व्यतक्त को दाह भी करते हैं। आत्मा और पुनजगन्म मानते हैं। दसिें ददन शुतद्ध करते हैं। जातत पंचायत है। प्रमुख को महतोमांझी कहते हैं। यह पद िंशानुगत है। तििाह तििाद, बर्थहजातत तििाह, अनैततक सम्बन्ध, सम्पतत तििाद आदद इसमें तनराकृ त्त दकए जाते हैं। आराध्य पूजा व्यिस्था भी जातत पंचायत करती है। खैरिार जनजतत का धमग भी अन्य कई जनजाततयों की तरह तहन्दू और आददिासी मान्यतां का तमलाजुला रूप है। इनके पास बैगा और ब्राह्मण पुजारी दोनों हैं। इनके आराध्य हैं- बसगबोंगा, ग्राम बोंगा, ठाकु र देि, महारानी देिी, बूढ़ी माई, सती देिी, बंजाररन देिी, खुंटदेि, गुरमा देि, दुल्हा देि लक्षमी माता, हनुमान, दुरगा माता आदद। सभी तहन्दू देिी-देितां की अराधना के साथ सूरज, चन्द्रमा, धरती, नाग, िृक्ष, पहाड़, नदी आदद भी करते हैं। इनमें भूत-प्रेत, आत्मा, जादू-टोना, पुनगजन्म, झाड़-फूं क, बतल, टोटका, मन्नत, तनषेद्ध आदद भी है। इनके त्योहार हैं- छठ, सरहुल, दुरगा पूजा, ददिाली, जततया, सोहराइ, निाखानी, करमा, नोखा, फाग, रामनिमी आदद। बकरा और मुगाग बतल करते है। खैरिार लोगों के नृत्य हैं- करमा, जदुरा (दीपािली पर), डंडा (होली पर), तििाह आदद। इन सभी में लोक गीत भी हैं। मांदर, मंजीरा, ढ़ोल, बााँसुरी आदद िाद्य यंत्र बजाते हैं। तशक्षा कम है। आस्था रहन-सहन, पहनािा, तिचार, लोक कला, खान-पान, व्यिसाय आदद में पररित्तगन आया है। अथागभाि प्रमुख समस्या है।

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69 उपतनिेश काल में खैरिार तिद्रोह भू-राजस्ि बन्दोबस्त व्यिस्था के तिरोध में दकया गया था । यह तिद्रोह छत्तीसगढ़ और झारखण्ड़ में उभरा था ।123 14. खररयाीःखररया जनजातत मुख्यतीः उड़ीसा और तबहार में तनिासरत है। छत्तीसगढ़, आन्र प्रदेश और पतिम बंगाल में भी इनकी अल्प संख्या है। छत्तीसगढ़ में 2001 में इनकी जनसंख्या 41,901 थी, जो सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और जशपुर तथा तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ तजले के सांरगढ़ तहसील में के तन्द्रत है। खररया जनजातत की उत्पतत पर एततहातसक अतभलेख नहीं हैं। इनकी दंतकथा में यह बताया जाता है दक, खररया और छोटा (चुरटया) नागपुर के नागिंशी मुण्दा राजां के पूिगज सगे भाई थे। दोनों यात्रा करते हुए छोटा (चुरटया) नागपुर आए। लोगों द्वारा छोटा भाई राजा चुना गया। ज्येष्ठ के सामने चााँदी और मृदा टोकररयााँ रख चुनने को कहा गया। उसने तमट्टी की टोकरी चुनी और इस प्रकार खेत जुताई और बहंगी ढ़ोने का कायग अपनाया। इस प्रकार िे अपने को मुण्डा समूह का ज्येष्ठ सदस्य बाताते हैं।124 िागज भी यह बने। नागिंशी मुण्दा रातनयााँ खररया लोगों को ज्येष्ठ मान पदाग करने लगीं। ररजले खररया को मुण्डा जनजातत का एक समूह मानता है, जो तिकास क्रम में पीछे रह गए। इसतलए इसे कोलोररयन (कोल) समूह की ही जनजातत माना जाता है।125 खररया लोग ग्रामों में कोन्ध, उरााँि, मुण्डा, रारठया, नगेररया, गोण्ड आदद जनजाततयों के साथ तमट्टी, घााँस-फू स, बााँस, लकड़ी, खप्परै ल आदद सामतग्रयों से बने घरों में रहते हैं। इन आिास गृहों में सामान्यतीः दो कक्ष होते हैं। फशग गाय के गोबर से और दीिारें तमट्टी से लीपी जाती हैं। पहाड़ी खररयां के आिास में मात्र एक कक्ष होता है। इनके घरों में कोठी, चारपाई, िस्त्र, बत्तगन, मूसल, चक्की, कृ तष उपकरण, कु ल्हाड़ी, टोकररयााँ, सूपा, सऊहा, मछली पकड़ने का चोररया, ढ़ूटी, पेलना आदद सामान्यतीः रहता है। पुरूष घुटने तक पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा पहनती हैं। िे अब पोलका भी पहनती हैं। अब रूझान साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट और अंतीः िस्त्रों के प्रतत है। मतहलाएाँ हाथ, पैर और चेहरे पर गुदना गुदिाती हैं। हाथ में कााँच की चूतड़या और ऐंठी, गले में सुरड़ा और माला (रूतपया माला, मनकों की माला आदद), नाक में फु ली, कान में तखनिा आदद आभूषण पहनती हैं। गहनों में तगलट, नकली चााँदी या चााँदी का ही उपयोग करते हैं।

123http://biharjourney.blog.co.in/2010/06/22/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%

8B%E0%A4%B9/ 124

तशि कु मार ततिारी-भारत की जनजाततयााँ,पृ.143

(http://books.google.co.in/books?id=3jZLrJeQh9sC&pg=PA143&lpg=PA143&dq=%E0%A4%96%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E 0%A4%AF%E0%A4%BE+%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF&source=bl& ots=5MImQsSqyX&sig=gNy27ldcOeuNHLOQ6eCeA0Up4kI&hl=en&ei=YuIRTPmeKsvBcZGp_ZQI&sa=X&oi=book_result&ct=r esult&resnum=1&ved=0CBUQ6AEwAA#v=onepage&q=%E0%A4%96%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%B E%20%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF&f=false) 125

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तका-छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत

जनजाततयााँ(सम्पादक-टी.के .िैष्णि)

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तचत्र 18 - खररया मतहलाएाँ

स्रोत- kharia.in

इनका भोजन चािल, कोदों और गोन्दली का पेज, भात और बासी है। िे उड़्अद, मूाँग, तुअर और कु ल्थी की दाल; ऋतु शाक, िनीय कन्द-मूल, भाजी आदद खाते हैं। मााँसाहारी हैं। मछली, के कड़ा, बकरा, मुगाग, तहरण, खरगोश, सुअर, तितभन्न पक्षी आदद खाते हैं। महुआ शराब और चािल से बनी हतड़या शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। खररया लोगों की आजीतिका खाद्य संचयन और स्थानातरीय कृ तष पर तनभगर रही है।126 िे हस्ततशल्प से रस्सी बना कर बेचते हैं। इनके तीन तिभाजन हैं- दूध, ढ़ेल्की और पहाड़ी खररया।127 इनमें दूध खररया स्थाई पर तपछड़ी कृ तष और मज़दूरी करते हैं। ढ़ेल्की भी अब यह ही करते हैं। पहाड़ी सिागतधक तपछड़े हैं। िे िनोपज पर तनभगर हैं। इनके अततररक्त मुण्डा, ढ़ौंगा, दूरेगा खररया आदद भी तिभाजन हैं। छत्तीसगढ़ में दूध और मुण्डा ही हैं। यह उपजाततयााँ बर्थहतििाही गोत्रों में बाँटी हैं। प्रतेयक गोत्र के टोटम हैं। एक ही टोटम या गोत्र में तििाह अपराध माना जाता है। गोत्र हैं- दुग ं दुग ं (डु ग ं डु ग ं ), कीरो, के रकोटा, कांकुल, बार, बरला, बरोआ, देमता, तबतुम, धान, हाथी, कासी, बागे, नाग, सौर, सुरतनया, लेतैन, टोपो, सोरें ग, कु ल्लु, इन्दुअर, सोरे न मुरू, समद, टोपनो, गुल्गू, हंसदा, चरहा, बरतलहा, जारू आदद। प्रसि स्थातनय दाई या पररिार की बुजुगग मतहलाएाँ कराती हैं। छठी पर शुतद्ध करते हैं। लगभग सभी जनजाततयों की तरह खररया लोगों में भी एकल या नाभकीय (न्युतक्लयर) पररिार है। इनमें भी पररिार तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय है। एकतनष्ठ तििाह है, पर बहुसम्बन्ध भी तस्िकार कर तलए जाते हैं। सामान्यतीः लड़कों की तििाह उम्र 14-18 और लड़दकयों की 1316 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। सूक में चािल, दाल, तेल, हल्दी और नगद रूपये ददए जाते हैं। सूक को टालने के तलए अदला-बदली के तििाह को अतधक प्रोत्साहन है।तििाह जातत का बुजुगग पूरे कराता है। उढ़ररया (सहपलायन) और ढ़ुकु (घुसपैठ) प्रचतलत है। तितनमय, सेिा, पुनीः,, त्यक्त्ता, तिधुर, तिधिातििाह भी हैं। शि गाड़ते हैं। तीसरे ददन सफाई, मुण्डन, स्नान आदद है। दसिें ददन दशकमग कर भोज देते हैं। तपतृ पक्ष में तपतर पूजा करते और पानी देते हैं। खररयां में भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख परधान कहलाता है। इसमें नेगी और चपरासी (कोटिार) सहयोगी पदातधकारी हैं। अनैततक सम्बन्ध, तििाह, तििाह तिच्छेद, सूक, सम्पतत आदद प्रकरण तनराकृ त्त दकए जाते हैं। अथग दण्ड और सामातजक भोज का दण्द है। ग्राम की जातत पंचायत के ऊपर परहा पंचायत है। इसमें कई ग्रामों के परधान, नेगी आदद भाग लेते हैं। इसका प्रमुख परहाराजा कहलाता है। यहााँ ग्राम स्तरीय जातत पंचायत के अनसुलझे प्रकरण लाए जाते हैं।128 126

तशि कु मार ततिारी-भारत की जनजाततयााँ,पृ.143

127

http://www.in/kharia.php

128

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तका-छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ

(सम्पादक-टी.के .िैष्णि)

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71 खररया लोगों का धार्थमक प्रधान, दूध और ढ़ेल्की में, पहन और पहाड़ी में ददहुरर कहलाता है। यह िंशानुगत पद है। िह ही पुजारी और तंत्र-मंत्र का जानकार माना जाता है। तगटरग या बोरो प्रमुख आराध्य है। िे पूिगज पूजा बुढ़ा-बूढ़ी या मसी-मसान के नाम से करते हैं। अन्य अराध्य हैं- धरम देिता, ग्राम देिता, धरती माई, सभी पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, बाघ, नाग आदद। भूत-प्रेत, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते हैं। इनके त्योहार हैं- करमा, सरहुल, सोहराई, फगुआ, निाखानी, देिधान, दशहरा आदद। यह मुण्डा और उरााँि जनजाततयों की तरह ही हैं। सरहुल, करमा, फगुआ, तििाह आदद नृत्य हैं। लोक गीत हैं- तििाह, सरहुल, करमा, फाग आदद। तिकास अनुक्रम में रहन-सहन, िस्त्र तिन्यास, रीतत ररिाज, लोक कला आदद में पररित्तगन आया है। पैंट-शटग, साड़ी, नौकरी आदद भी प्रमुख हुए हैं। इनमें इसाई धमग ने भी पैठ बनाई है। इनकी भी प्रमुख समस्या अथागभाि है। 15. कोन्धीःकोन्ध जनजातत मुख्यतीः उड़ीसा और आन्र प्रदेश में तनिास करती है। छत्तीसगढ़ में इस जनजातत को आए अत्यतधक अल्प समय ही हुआ है। लगभग 200 िषग पूिग यह लोग इस प्रााँत में आकर बसे। 2001 की जनगणना में इनकी जनसंख्या मात्र 10,114 थी, िह भी मात्र रायपुर सम्भाग के रायपुर और तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ तजलों में ही। इन्हें खोंड़, कांध या कोतन्धया भी कहा जाता है। कोंध जनजातत की उत्पतत पार एततहातसक और िैज्ञातनक शोध होने हैं। कोन्ध शब्द की व्युत्पतत द्रतिड़ शब्द कोंड़ से मानी गई है, तजसका अथग पिगत्त है। अतीः यह कहा जाता है दक, कोंड़ अथागत पिगत्त क्षेत्र के तनिासी कोन्ध कहलाए। कु छ तिद्वान इन्हें द्रतिड़ पूिग के लोग मानते हैं। इनकी अपनी बोली है, तजसे कोन्धी या कु ई कहा जाता है। यह द्रतिड़ भाषा है, तजसकी तलतप उतड़या या आयग है।129 बस्तर के जनजाततय तिद्रोह की चचाग में कु ई (या कोई) तिद्रोह भी उल्लेतखत हुआ है, जो िन और िृक्ष रक्षा को था। उड़ीसा में इस जनजातत के नाम पर पहाड़ भी है, तजसकी िे पूजा भी करते हैं। पहाड़ सदा से जनजाततयों के अराध्य रहे हैं। तनयमतगरी130 के पहाड़ पर ड़ोंगररया कोन्ध लोगों का तनिास प्रतसद्ध है। िे तजन पहाड़ों को पूजते हैं उन पर खतनज उत्खनन हेतु आबंटन (िेदांता) का तिरोध कर रहे हैं।131 अरून्धतत राय के लेखों132, अतभनेत्री Joanna Lumley की उदघोषणां के साथ Survival International की लघु दफल्म और िैराईटी मग्जीन में तिश्व की सफलतम दफल्म अितार (जेम्स कै मरून)133 के साथ छपी कोन्ध जनजातत और उनकी आिास तनयमतगरी पहाड़ी रक्षा की अपील ने तिश्व जनमत का ध्यान खींचा और कोन्ध जनजातत चचाग में आई। 129

http://en.wikipedia.org/wiki/Kondha

130

तनयम बनाने िाले राजा का तनिास (http://socyberty.com/issues/niyamgiri-hills-home-for-dongria-kondh-

tribes-or-nature-destroying-bauxite-company/) 131

http://www.bbc.co.uk/hindi/business/2009/07/090728_vedanta_protest_alk.shtml और हंस

जनिरी’2010 अरून्धतत राय-आंतररक सुरक्षा या युद्ध,पृ.37-40 132

हंस जनिरी’2010, जनसत्ता, आउटलुक आदद

133Kathryn

Hopkins (February 8, 2010)-"Indian tribe appeals for Avatar director's help to stop

Vedanta"(The Guardian,London) (http://www.guardian.co.uk/business/2010/feb/08/dongria-kondhhelp-stop-vedanta)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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72 कोन्ध लोग रायपुर तजले में सिरा, कं िर, बबझ्िार, गोंड़ आदद जनजाततयों के साथ ग्रामों में तमट्टी, घााँसफूं स और खपरै ल से बने घरों में तनिास करते हैं। इनके आिास गृहों में सामान्यतीः, दो कक्ष होते हैं।

तचत्र 19 - कोन्ध घर , 20 - िाद्य सतहत कोन्ध पुरूष , 21 और 22 - गोदना और आभूषण सतहत कोन्ध मतहलाएाँ तथा 23 – तनयमतगरी पहाड़ी स्रोत- http://www.pbase.com/neuenhofer/india_tribal_orissa_desia_kondh , bbc.co.uk और

http://socyberty.com/issues/niyamgiri-hills-home-for-dongria-kondh-tribes-or-naturedestroying-bauxite-company/) इनके घरों में सामान्यतीः कोठी, मूसल, जाता, चूल्हा, बत्तगन, कृ तष उपकरण, िाद्य यंत्र, जाल (मछली पकड़ने का), तीर-धनुष आदद होते हैं। इनके िस्त्र तिन्यास में पुरूष पहनािा घुटने तक धोती या पंछा और बंड़ी तथा मतहलां हेतु लुगड़ा है। मतहलाएाँ हाथ, पैर, ढ़ुड़ी, मस्तक आदद पर हस्ततशल्प से गोदना गुदिाती हैं। िे नाक में फु ली, कान में तखनिा, गले में सुरड़ा और रूतपया या कााँच मनकों की माला, हाथ में चूड़ी और पटा आदद आभूषण पहनती हैं, जो तगलट, नकली चााँदी, पीतल आदद के होते हैं। कोन्ध लोगों का मुख्य भोजन चािल या कोदो का पेज, भात या बासी है। िे उड़द, मूाँग, कु ल्थी, बेतलया आदद की दाल और ऋतु शाक, कन्द-मूल-भाजी भी खाते हैं। मांसाहारी हैं। तगलहरी, बकरा, मुगाग, मछली, के कड़ा, सुअर, तहरण, खरगोश, तितभन्न पक्षी, साही, गोह आदद खाते हैं। महुआ शराब बनाते और पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। कोन्ध तपतृिंशीय, तपतृतनिास स्थातनय और तपतृसत्तात्मक जनजातत है। पररिार न्युतक्लयर या एकल हैं। इनके उपसमूह हैं- ड़ोंगररया (िन या पहाड़ी), कु रटया (पहाड़ी), पेगा, झुररया, जातमया (पहाड़ चोटी पर), नानगुली, सीतहा- कोन्ध आदद। यह उपजाततयााँ पुनीः बर्थहतििाही िंश समूहों में तिभक्त हैं। जैसेजकातसया, हौका, प्रास्का, कडरा आदद। गोत्र हैं- बच्छा, छत्रा, हीकोका, के लका, कोंजाका, मन्दीगा, कदम, नरबसघा आदद। टोटम हैं। सगोत्री तििाह िर्थजत है।134 प्रसि स्थातनय दाई या उम्रदराज़ मतहलाएाँ घर पर कराती हैं। छठी पर शुशु का मुण्डन कराते हैं और जच्चा के नाखून काटते हैं। दोनो को स्नानोपरांत तीर-धनुष का स्पशग कराते हैं। मान्यता है दक, िह इससे धनुष चालन में तनपुड़ होगा। नामाकरण छीः माह उपरााँत करते हैं। लड़कों के तििाह की उम्र 15-19 और लड़दकयों की 13-16 है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। मामा और बुआ की संतानों को प्राथतमकता है। िधू मूल्य में चािल, दाल, तेल, शराब, नगद, बकरा या सुअर, लुगड़ा आदद ददया जाता है। तििाह रस्म बुजुगों की देखरे ख में सम्पन्न होती है। उढ़ररया (सहपलायन) और ढ़ुकू या पैकू (घुसपैठ) को अथगदण्ड उपरााँत मान्य दकया जाता है। तिधुर, तिधिा, त्यगता, 134

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तका-छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ

(सम्पादक-टी.के .िैष्णि)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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73 देिर-भाभी, पुनग- तििाह है। इनमें भी पहले दकशोरगृह था, परं तु दोनों बलगों हेतु पृथ्क-पृथ्क। लड़को का धांगड़ाघर और लड़दकयों का धांगड़ीघर कहलाता था। कोन्ध पहले शि गाड़ा करते थे। अब जलाते हैं। दसिें ददन मुण्डन, स्नान, सफाई आदद कर शुतद्ध करते हैं। मृत्तक की आत्मा की िापसी की प्रत्याशा में मुगे के सामने चािल डालते हैं। उसके द्वारा चुगना आत्मा का आगमन माना जाता है। मुगे की बतल देकर धनुष से कपड़ा उठाकर आत्मा को उसमें बैठने को कहते हैं। अब यह मान कर दक आत्मा कपड़े पर बैठ गई है, उसे ले जाकर घर के कोने में स्थातपत करते हैं। ररश्तेदरों को भोज देते हैं। इनमें भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। इनका धार्थमक प्रमुख जानी कहलाता है और िह भी इसके कायों में सहयोग करता है। इसमें अनैततक सम्बन्ध, अन्य जातत में तििाह, तििाह तिच्छेद, िधू मूल्य, िैिातहक तििाद, सम्पतत तििाद (बंटिारा आदद) पारम्पररक तरीके से तनराकृ त्त दकए जाते हैं। कोन्ध लोगों के आराध्य हैं- धरती पेन्यु (माता), तनयम पेन्यु (तनयमतगरी पहाड़), नेला या बूरा पेंज (सूयग) और उसकी पतत्न तारी माता, शीतला माता, सभी तहन्दू देिी-देिता, नदी, पिगत्त, िृक्ष, बाघ, नाग आदद।135 धार्थमक आदद कायग में जानी के अततररक्त मोण्डल, बेजुतन, बाररक आदद भी होते हैं। इनके त्योहार हैं- चािल जात्रा या दशहरा, अगहन जात्रा, चैत्र या माहुल जात्रा, दीपािली, होली आदद। चािल जात्रा में नया चािल और चैत्र जात्रा में नया महुआ खाया जाता है। दशहरे में देिी-देिता और पूिगज पूजा करते हैं। मुगाग और बकरा बतल देते हैं। अंग्रेज शासन काल में नर बतल प्रथा बन्द कराए जाने तक िह भी प्रचतलत थी। भूत-प्रेत, जादू-टोना, मंत्र-तंत्र, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते हैं। इनके नृत्य हैं- तििाह, होली, जात्रा आदद। तििाह और नृत्य के अिसर पर लोक गीत गाते हैं। ित्तगमान में भजन और फाग आदद भी गाने लगे हैं। तिकास अनुक्रम में पररितगन भी हैं। लोक कला, िस्त्र, रहन-सहन, पूजा पद्धतत, अराध्य, कृ तष पद्धतत, तशक्षा और नौकरी आदद में बदलाि पररलतक्षत हुआ है। अथागभाि, तशक्षा की कमी, अंधतिश्वास, अस्िच्छता, रोग और उपचार, कु पोषण आदद समस्याएाँ भी हैं। 16. कोलीःकोल मूल जनजाततयों में तगने जाते हैं। रामायण काल में कोल का उल्लेख दकरात और भील जनजातत के साथ हुआ है। इन्ही से कोल समूह या कोलोररयन राइब ग्रुप की संज्ञा ली गई। यह अतधकााँशतीः मध्य प्रदेश में हैं और िह भी रीिा सम्भाग और जबलपुर तजले में। यह लोग उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और झारखण्ड में भी पयागप्त हैं। छत्तीसगढ़ में इनकी अल्प संख्या ही है, िह भी मात्र तबलासपुर और कोररया आदद तजलों में। यह लोग 2001 में 16,966 थे। इन पर भी एततहातसक और िैज्ञातनक शोध होने हैं। इनका उल्लेख रामायण में िन्य जातत के रूप में है, तजन्हों ने िनिास काल में राम, लक्ष्मण और सीता की सेिा की। इनमें से कु छ अपने को इसी काल की तशिरी या शबरी का िंशज मानते हैं। इसे कोलेररयन समूह की प्राचीन जनजातत माना जाता है। इस समूह का नाम भी इसी पर है। छत्तीसगढ़ में कोररया ररयासत पर अंततम शासक िंश चौहान के ठीक पूिग कोल जनजातत के लोगों का ही शासन था।136 सम्भितीः बहुत पहले यह लोग सरगुजा के भागों पर भी शासक रहे। कोल, दकरात, भील का उल्लेख प्राचीन पारम्पररक आख्यानों में आता है। अजुगन की परीक्षा हेतु तशि ने दकरात िेष धारण दकया था। एकलव्य भी दकरात था।

135

http://en.wikipedia.org/wiki/Kondha

136

डा.संजय अलंग-कोररया ररयासत का प्रशासतनक अध्ययन

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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74 कोल शब्द मुण्डारी भाषा के को शब्द से बना। इसका अथग है- िे। या यह शब्द होरो, हारा, हर, हो, या को रो शब्द से, तजसका अथग आदमी से है, बना। इनकी भाषा कोलयाररन समूह की है, तजसे अब मुण्डारी या आस्रो-एतशयारटक भाषा समूह कहा जाता है। िे भी छत्तीसगढ़ की समस्त जनजाततयों की तरह प्रोटोआस्रलाएड समूह के हैं। हालााँदक अब अतधकााँश लोग तहन्दी भाषा और देिनागरी तलतप को अपना तलए हैं। संथाल, मुण्डा, हो, भूतमज, खैररया, खैरिार और कोरिा जनजाततयााँ कोल से सम्बतन्धत हैं और कोलयाररन जनजाततयााँ कही जाती हैं। 1831-32 में छोटा (चुरटया) नागपुर में अंग्रेज तिरोधी हो और मुण्डा तिद्रोह के उपरााँत ही कोल शब्द का व्यापक प्रयोग प्रारम्भ दकया गया। उड़ीसा के हो अभी भी कोल्हा कहे जाते हैं, क्योंदक िे बसहभूतम के कोल्हान नामक स्थान से आए थे।137 कोल लोगों के आिास भी तमट्टी के बने होते हैं, तजस पर घााँस-फू स या खपरै ल का छप्पर होता है। मकान में एक आाँगन होता है। फशग और आाँगन गाय के गोबर से लीपते हैं। सामान्यतीः घर में दो-तीन कक्ष होते हैं। मकान के आन्दर एक भाग पालतू पशुं के रहने हेतु रखा जाता है।138 घर में सामान्यतीः चारपाई, ओढ़ने-तबछाने और पहनने के िस्त्र, भोजन बनाने और खाने के बत्तगन, मूसल, कु ल्हाड़ी, कृ तष उपकरण, मछली पकड़ने का जाल आदद होते हैं। कोल तनधगनता के कारण अल्प िस्त्र धारण करते रहे हैं।139 कोल मतहलाएाँ चोली, कांचली, घाघरा, लुगड़ा और ओढ़नी पहनती हैं। इनके आभूषण प्रायीः चााँदी, तगलट, कघीर और कााँसे के बने होते हैं।140 स्त्री-पुरूष प्रातीः उठकर दााँतों की सफाई नीम, बबूल, करंज आदद के दातौन से करते हैं। प्रततददन स्नान करते हैं। इनके भोजन में गेहू,ाँ मक्के, जुआर आदद की रोटी; कोदो, कु टकी, चािल आदद का भात; उड़द, चना, कु लथी आदद की दाल; मौसमी सब्ज़ी आदद हैं। मााँसाहारी हैं। मछली, मुगाग, बकरा, िन शूकर (जनगली सुअर), तितभन्न पक्षी आदद कभी-कभी खाते हैं। त्योहार आदद पर महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं।141 कोल जनजातत के लोग तपछड़ी कृ तष, िन उपज और खाड्य संग्रह और संकलन और मजदूरी पर आतश्रत हैं। तशक्षा की कमी के कारण शासकीय सेिां में नगण्य प्राय हैं। अतधकााँश लोग, तजसमें उभय बलग सम्मतलत हैं, मजदूरी पर ही तनभगर हैं।142 मध्य प्रदेश के महाकौशल क्षेत्र में इन्हें कोल गिरठया और बघेलखण्ड में भूतमया कोल कहा जाता है। इनकी उपजाततयााँ बतहर्थििाही गोत्रों में तिभक्त हैं। यह हैं- ठाकु ररया रातुल, बरबार, चेरो, बारगीया मिासी, बनग कथोरठया, सोनिानी, कु म्हररया, कथररया, भुिार, रंकटा, करपततया, नथुतनया आदद।143 झारखण्ड में यह गोत्र 12 बताए गए हैं, जो उक्त से पृथ्क ही हैं- हंसदा, सोरे न, दकस्कु , मराण्डी, तुद ु या तुड़ु, चौन्दे, हेमब्रोम, बसके , बेसरे ा, चुनरै , मुमुग और दकसनोि।144

137

http://www.everyculture.com/South-Asia/Kol-Orientation.html

138

आर.सी.सक्सेना-कोल जनजातत

139

रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड-झनकार

140

Dr.Ram Chandra Sing deo-Socio-economic History and Administrative set-up of Korea state

141

डा.संजय अलंग-कोररया ररयासत का प्रशासतनक अध्ययन

142

http://koreakumar.com/

143

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तका-छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ

(सम्पादक-टी.के .िैष्णि) 144

http://jharkhandi.com/kol.aspx

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तचत्र 24 - कोल झोपड़ी स्रोत- gutenberg.org

तचत्र 25 - कोदो खाद्य

स्रोत- upnewslive.com

प्रसि घर पर कराते हैं। प्रसूता को सोंठ, गुड़, जड़ी-बूटी, अजिायन, पीपर आदद का काढ़ा तपलाते हैं। छीः ददनों तक अस्िच्छ मानते हैं। तदुपरांत छठी पर जच्चा और बच्चा को नहला, घर की सफाई आदद कर अराध्य और सूयग के दशगन कराने के उपरााँत शुतद्ध मानते हैं। ररश्तेदारों को चाय, बीड़ी, दारू आदद तपलाते हैं। इस जनजातत में तििाह उम्र सामान्यतीः लड़दकयों हेतु 15 और लड़कों हेतु 17-18 िषग है। िधू मूल्य, तजसे हथनैना कहते हैं, मंगनी पूिग उभय पक्ष सहमतत से तनधागररत होता है। इसे लड़की को देते हैं। तििाह रस्में जातत के बुजुगग व्यतक्त द्वारा सम्पन्न कराई जाती हैं। सामान्य तििाह के अततररक्त तितनमय और सेिा तििाह भी हैं। सहपलायन और घुसपैठ को भी सामातजक जुमागना अदा करने उपरााँत तििाह माना जाता है। तिधिा पुनगतििाह को सामातजक अनुमतत है।145 शि जालते हैं। बच्चे गाड़े जाते हैं। िापसी पर स्नान करते हुए आते हैं और घर आकर उसकी सफाई करते हैं। तीसरे ददन पररिार के पुरूष सदस्य मुण्डन कराते हैं। दसिें ददन ररश्तेदारों को मृत्यु भोज देते हैं। कोल लोगों में भी जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गोंततया कहलाता है। गोंततया बारगीया िंश की पैतृक परम्परा अनुसार पंचायत का मुतखया बनता है। िह गााँि के सभी िाद-तििाद और लड़ाई-झगड़े का तनपटारा स्ियं या अपने सहयोतगयों के परामशग के आधार पर करता है। इनके अराध्य हैं- दुल्हा देि, हरदौल, मंशादेि, नंगाबाबा, भैरों, काली, तहन्दू देिी-देिता, सूयग, चन्द्र, नदी, पहाड़, िृक्ष आदद। मुगाग, बकरा आदद की बतल भी है। जादू-टोना, भूत-प्रेत, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते है। अन्धतिश्वास है। रोगोपचार गुतनया के झाड़-फूाँ क से करते हैं। इनके त्योहार हैं- निरातत्र, नाग पंचमी, होली, दशहरा, ददिाली आदद। कोल लोग लोक गीत में तसद्धहस्त होते हैं। संगीत हेतु ढ़ोलक, रटमकी, कटिाल, मंजीरा आदद उपयोग करते हैं। इनके लोक गीत हैं- दोदर, राई, फाग, भजन आदद। समय के साथ पररित्तगन अतनिायग है। कु ली, फै क्टरी, खदान में खतनक का कायग और शासकीय सेिा आदद की ओर रूझान हो गया है। तििाह पद्धतत, त्योहार के रीतत-ररिाज और पद्धतत, लोक कला, पहनािे आदद में पररित्तगन आया है। अथागभाि, तशक्षा का अभाि, अन्धतिश्वास, कु पोषण आदद की समस्याएाँ इनमें भी हैं। उपतनिेश काल में कोल तिद्रोह रांची, बसहभूतम, हजारीबाग, मानभूतम में प्रारम्भ हुआ । कोल तिद्रोह, तजसका काल 1831-32 था, में मुण्डा, हो, उरााँि, खरिार एिं चेर जनजाततयों के लोगों ने मुख्य रूप से भाग तलया था । कोल तिद्रोह का प्रमुख कारण आददिातसयों की भूतम पर गैर-आददिातसयों द्वारा अतधकार दकया जाना था और तजसका तात्कातलक कारण था- छोटा (चुरटया) नागपुर के भाई हरनाथ शाही द्वारा इनकी भूतम को छीनकर अपने तप्रय लोगों को सौंप ददया जाना। इस तिद्रोह के प्रमुख नेता बुद्धो भगत,

145

Walter G. Griffiths-The Kol tribe of Central India

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76 बसगराय एिं सुगी थे। इस तिद्रोह में करीब 800 से लेकर 1,000 लोग मरे गये थे। 1832 ई. में अंग्रेजी सेना के समक्ष तिद्रोतहयों के समपगण के साथ तिद्रोह समाप्त हो गया।146

17. माझीीःछत्तीसगढ़ में माझी जनजातत के लोगों की अल्प संख्या है। यह लोग 2001 में 60,246 थे। राज्य में यह लोग तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और कोरबा तथा सरगुजा सम्भाग के सरगुजा आदद तजलों में हैं। सरगुजा के मैनपाट से बालको (िेदांता) के बाक्साईट उत्खनन से मैनपाट से हजारो िृक्ष, पयागिरण, पहाड़ सतहत माझी जनजातत के प्राकृ ततक पयागिास और आिास को अत्यतधक नुकसान हो गया है।147 िे िहााँ से तिस्थातपत हो गए हैं। तनयमतगरी से इसी कम्पनी के कोन्ध पर पड़ने िाले प्रभाि पर लोगों का ध्यान गया, परन्तु मैनपाट, उसके िन और पयागिरण तथा यहााँ के माझी आददिासी पूणगतीः तिपरीत रूप से प्रभातित हो गए। इनकी उत्पतत पर एततहातसक अतभलेख नहीं हैं और िैज्ञातनक शोध अभी होने हैं। राबटग िाने रस्सेल्ल माझी जनजातत की उत्पतत गोंड़, मुण्डा और कं िर जनजातत के पूिगजों से मानता है।148 िह मझिार और माझी को एक ही समूह मानता है। हालााँदक माझी जनजातत मझिार से पृथ्क जनजातत है। दोनों के मध्य खान-पान का सम्बन्ध है। तशि कु मार ततिारी दोनों को एक ही मानते हैं और सही संज्ञा मााँझी उल्लेतखत करते हैं।149 छत्तीसगढ़ में भारत सरकार द्वारा माझी और मझिार, दोनों को, पृथक-पृथ्क जनजातत ही माना गया है। अगले अनुक्रम में मझिार पर ही चचाग की जानी है। अंग्रेज तितलयम क्रुक्स आयग माझी (व्यिसातयक) और द्रतिड़ माझी (जनजातत) के तिभेद हेतु सािधानी रखने को सचेत करता है। छत्तीसगढ़ में यह तस्थतत है। यहााँ माझी संज्ञा तीन प्रकार से प्रयुक्त होती है। राज्य में अनुसूतचत जनजातत के माझी और अन्य तपछड़ा िगग में आने िाले व्यािसातयक माझी पृथ्कपृथक हैं। प्रथम- छत्तीसगढ़ में जनजाततय या द्रतिड़ माझी सरगुजा तजले के मैनपाट, कोरबा तजले के लेमरू और जशपुर तजले के पहाड़ों में रहते हैं। इनका जीिकोपाजगन कन्द-मूल और िन उपज संग्रह, बन्दर और अन्य जीिों का तशकार, बााँस हस्ततशल्प से टोकरी, झऊआ आदद तनमागण, मज़दूरी आदद पर है। 146http://biharjourney.blog.co.in/2010/06/22/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D

%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B9/ 147

http://edharhai.blogspot.com/2008_11_01_archive.html(ददलीप जायसिाल)

148

R.V.Russell The Tribes and Castes of the Central Provinces of India,Voll.-IV,P.198

(http://books.google.co.in/books?id=eM1TdcVsK88C&pg=PA198&lpg=PA198&dq=majhwar+tribe&source=bl&ots=Gw5SJfX2Z R&sig=GqeI_8Rby2iQBPZwuV1Jm8iBDbo&hl=en&ei=s74cTM_BOMqFrAf2oqzVCw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum= 3&ved=0CCIQ6AEwAg#v=onepage&q=majhwar%20tribe&f=false) 149

Shiv Kumar Tiwari- Tribal roots of Hinduism,page- 299

(http://books.google.co.in/books?id=n0gwfmPFTLgC&pg=PA299&lpg=PA299&dq=majhi+tribe&source=bl&ots=ketM3CZ6Ws& sig=Y_KqWVbvG6xFCpwEDzOK_VApbQw&hl=en&ei=XrEcTI6xIoqwrAfZv_GmCw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=5 &ved=0CCEQ6AEwBDgK#v=onepage&q=majhi%20tribe&f=false)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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तद्वतीय- व्यिसातयक या आयग माझी अन्य तपछड़ा िगग के ढ़ीमर, मल्लाह, नािड़ा आदद जातत संज्ञा के लोग हैं, तजनका जीिकोपाजगन जल के उत्पादों यथा- मछली, बसघड़ा आदद की खेती, नाि चालन, फु टना(चना)-मुरमुरा तिक्रय आदद पर तनभगर है। नाि से नदी पार कराने के कायग में रत रहने के कारण इन्हें माझी कहा गया। 1886 में तितलयम क्रुक्स ने इन्हें आयगन माझी की संज्ञा दी।150 कभी-कभी इन्हें कोल लोगों के उस समूह से जोड़ा जाता है, तजसने माछ (मछली) का कायग अपनाया और माछ से माझी शब्द बना।151 तृतीय- छत्तीसगढ़ में माझी पदनाम का भी व्यिहार बस्तर सम्भाग में होता है, जो तृतीय तिभेद है। बस्तर सम्भाग में क्षेत्रीय जनजातत पंचायत का प्रमुख माझी कहा जाता है। यह िंशानुगत पद है। यह पदनाम मात्र है। इस पद का व्यतक्त तजस जनजातत का होता है, उसी जनजातत का माना जाता है। जैसेमुररया, हलबा या भतरा।152 माझी लोगों के ग्राम सामान्यतीः पहाड़ी और िनीय क्षेत्रों में होते हैं, जहााँ यह लोग गोंड़, मंझिार, कं िर, मुण्डा, नगेतसया, उरााँि, कोरिा आदद जनजाततयों के साथ तनिास करते हैं। इनके आिास सामान्यतीः तमट्टी और लकड़ी के बने होते हैं, तजस पर घााँस-फू स या खपड़े की छत होती है। फशग तमट्टी का होता है। आिास में दो-तीन कक्ष होते हैं। पशुं हेतु पीछे कमरा होता है, तजसका द्वारा तपछिाड़े में खुलता है।153 इनके घर पर मूसल, टोकरी, सूपा, िस्त्र, तमट्टी और एल्युमीतनयम के बत्तगन, कृ तष उपकरण, मछली पकड़ने का जाल आदद होते हैं। प्रत्येक घर में तीर-धनुष भी अिश्य रहता है। माझी जनजातत के स्त्री और पुरूष प्रातीः उठकर नीम, बबूल आदद की पतली टहतनयों से दातुन कर दााँत साफ करते हैं। स्नान प्रततददन नहीं करते। सप्ताह में चार-पााँच बार ही नहाते हैं। मतहलाएाँ रीठे और तमट्टी से तसर के के श साफ करती हैं और बालों में तेल लगा जूड़ा बनाती हैं। िे हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। पुरूष घुटने तक पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा पहनती हैं। मतहलाएाँ साड़ी, साया और ब्लाउज भी पहनने लगी हैं। उम्रदराज मतहलाएाँ पूरा शरीर साड़ी से ही ढ़कती हैं। लड़दकयााँ फ्राक भी पहनती हैं। लड़के पैंट और बुशटग पहनते हैं। बच्चे छोटी उम्र में अधग नग्न रहते हैं। इनका भोजन चािल और कोदो का पेज, मौसमी पत्ता भाजी या सब्जी, िनीय कन्द-मूल-फल है। यह लोग मााँसाहारी हैं। बकरा, चीतल, मुगाग, सााँभर, िन िराह, सुअर, तगलहरी, बन्दर, के कड़ा, मछली और सभी पतक्षयों को खाते हैं। अब तशकार पर प्रततबन्ध के कारण यह कायग नगण्य प्राय रह गया है। पुरूष तम्बाखू को तेन्दू पत्ते में लपेटकर आठ-नौ सेंटीमीटर लम्बी चोंगी बना कर पीते हैं। बााँस हस्ततशल्प माझी जनजातत का पारम्पररक व्यिसाय है। इनका जीिकोपाजगन इसके साथ पहाड़ी कृ तष, िन उपज संग्रह, तशकार और मजदूरी पर तनभगर है। पहाड़ी खेतों में धान, कोदो, उड़द आदद बोते हैं। िनों से महुआ, तचरौंजी आदद एकत्र कर बेचते हैं। कोल माझी मोहलाईन रे शों द्वारा हस्ततशल्प से रस्सी गेरूिा और डोरी-डांिा बनाकर कं िर, गोंड़, उरााँि, बबझिार आदद जनजाततयों को अन्न के बदले देते हैं। अब रूपया भी लेते हैं। बााँस हस्ततशल्प से टुकनी, झांपी, झऊहा आदद बनाकर बेचते हैं। बरहा, सााँभर, तगलहरी, खरगोश आदद का तशकार करते रहे हैं। स्ियं के उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। माझी जातत में मुख्यतीः तीन उपजाततयााँ हैं- कोल माझी, डोरबटा या तुरया माझी और दकसान माझी। दकसान माझी अपने को शेष दो से बड़ा मानते हैं और हाड़ू (बन्दर), तचटरा (तगलहरी) आदद नहीं 150

एस.पी.भट्ट और टी.के .िैष्णि-माझी

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R. V.Russell The Tribes and Castes of the Central Provinces of India,Voll.-IV,P.199

(http://books.google.co.in/books?id=eM1TdcVsK88C&pg=PA198&lpg=PA198&dq=majhwar+tribe&source=bl&ots=Gw5SJfX2Z R&sig=GqeI_8Rby2iQBPZwuV1Jm8iBDbo&hl=en&ei=s74cTM_BOMqFrAf2oqzVCw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum= 3&ved=0CCIQ6AEwAg#v=onepage&q=majhwar%20tribe&f=false) 152

मुराब इन्दु-माझी जनजातत

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छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभाग-भुंतजया जनजातत के संतक्षप्त मानिशातस्त्रय अध्ययन(मोनोग्रादफक)

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78 खाते। िे मुख्यतीः आददम कृ तष पर के तन्द्रत हैं। यह उपजाततयााँ गोत्रों में तिभक्त हैं। यथा- के करा, खोकसा, धनकी, बाघ, सुआ, धींिा, नाग, बारम, तेलासी, मरकाम, सेमररया, कु रागम, उड़का, मराई आदद। प्रत्येक गोत्र के टोटम होते हैं। गभागिस्था पर संस्कार नहीं हैं। प्रसि घर पर सुईन दाई कराती है। इस हेतु घर के बाहर प्रसि झोपड़ा बनाया जाता है। बच्चे का नाल तगरने पर शुतद्ध करते हैं और ररश्तेदारों को तभज देते हैं, जो सामान्यतीः छठा ददन या छठी होता है। प्रसूता को तहरं िा से बनाया गया कसा, तजसमें गुड़, सेमर छाल, तछन्द जड़, सोंठ आदद होती है। इस जनजातत में सामान्यतीः लड़कों की तििाह उम्र 14 से 18 और लड़दकयों में 12 से 16 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर तपता िधु के घर जाकर करता है। प्रस्ताि तस्िकृ त्त होने पर िधु पक्ष को चािल, शगुन रूपए, तेल, दाल, शाक, भाजी आदद सूक में ददया जाता है। तििाह रस्म जातत के तसयान या बैगा द्वारा पूणग कराई जाती है। इनमें उढ़ररया (सहपलायन), ढ़ुकु (घुसपैठ), लमसेना (घरजिाई), चूड़ी पहनाना (पुनगतििाह) आदद भी प्रचतलत हैं। मृत्तक को गाड़ते हैं। तीसरे ददन मुण्डन कराते हैं। दसिें ददन भोज देते हैं। माझी जनजातत में भी जातत पंचायत है। इसका प्रमुख तसयान कहलाता है। इसमें जातत बाह्य तििाह, तििाह-तिच्छेद, तिहाटी (िधु धन िापसी) आदद का तनराकरण दकया जाता है। यह जनजातत भी तपतृसत्तात्मक, तपतृिंशी, तपतृतनिास स्थातनय िंश परम्परा पर ही आधाररत है। इनके अराध्य हैं- ठाकु र देि, बूढ़ा देि, बूढ़ी दाई, दीहाररन, तहन्दू अराध्य, प्रकृ तत आदद। भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, आत्मा, पनगजन्म आदद पर तिश्वास है। त्योहार हैं- करमा, निा ततहार (त्योहार), फागुन ततहार (होली), गौरा ततहार आदद। इनके नृत्य हैं- सुिा, गौरा, करमा, डंडा नाच (फागुन में), तििाह नाच, आदद। गीत हैं- सुिा, करमा, डण्डा गीत अदद। यह लोग ढ़ोल, मादल आदद िाद्य यंत्र उपयोग करते हैं। तशक्षा कम है। पररित्तगन भी आए हैं। भाषा, अराध्य, अराधना, िस्त्र तिन्यास, लोक कला, शारीररक स्िच्छता, रहन-सहन आदद में बदलाि आया है। पहाड़ी कृ तष पर अतधकांश लोगों के आश्रय से गरीबी और अथागभाि है। 18. मझिारीःछत्तीसगढ़ में मझिार भी अल्पसंख्यक जनजातत है। राज्य में इनका मुख्य तनिास क्षेत्र, माझी की ही तरह, तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और कोरबा तथा सरगुजा सम्भाग के सरगुजा आदद तजलों में ही हैं। 2001 में इनकी जनसंख्या 48,510 थी। मझिार जनजातत की उत्पतत पर एततहातसक और िैज्ञातनक शोध होने हैं। इन्हें गोंड़, मुण्डा और कं िर जनजाततयों के प्रमुखों का तमतश्रत समूह माना जाता है।154 जातत पंचायत के मध्य में बैठने के कारण मझिार संज्ञा की व्युत्पतत्त हुई। िैसे भी, जैसा पूिग में उल्लेख आ चुका है, माझी जनजातत पंचायत प्रमुख का पदनाम भी है। अतीः यह शब्द दलपतत के तलए प्रयुक्त शब्द रहा है। इनकी उत्पतत माझी जनजातत के साथ मानी जाती है। कालांतर में दोनों पृथ्क समूह के रूप में तचतन्हत हुए। इस पर माझी जनजातत पर चचाग के समय भी उल्लेख में लाया गया है और उसमें भी कु छ तथ्य उल्लेतखत दकए गए हैं। अतीः उन्हें भी देखा जा

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(http://books.google.co.in/books?id=eM1TdcVsK88C&pg=PA198&lpg=PA198&dq=majhwar+tribe&source=bl&ots=Gw5SJfX2Z R&sig=GqeI_8Rby2iQBPZwuV1Jm8iBDbo&hl=en&ei=s74cTM_BOMqFrAf2oqzVCw&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum= 3&ved=0CCIQ6AEwAg#v=onepage&q=majhwar%20tribe&f=false)

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79 सकता है। इस जनजातत में अतधकााँश लक्षन कोलेररयन समूह के हैं।155 यह लोग अपनी बोली में स्ियं को होर कहते हैं। मझिार जनजातत के लोगों के घर तमट्टी का बना होता है, तजस पर घााँस-फू स या खपड़े की छत होती है। इसमें एक परछी (बरामदा) और दो से तीन कमरे होते हैं। फशग गोबर से और दीिार सफे द तमट्टी से लीपते हैं। इनके घरों में सामान्यतीः चारपाई, चक्की, मूसल, ओढ़ने-तबछाने-पहनने के कपड़े, बनाने और खाने के बत्तगन, कु ल्हाड़ी, कृ तष उपकरण, मछली पकड़ने का जाल आदद पाए जाते हैं।156 मझिार जनजातत के स्त्री और पुरूष प्रातीः उठकर नीम, बबूल, करं ज आदद की पतली टहतनयों से दातुन कर दााँत साफ करते हैं। स्नान प्रततददन करते हैं। मतहलाएाँ तमट्टी से तसर के के श साफ करती हैं और बालों में फल्ली, ततल या गुल्ली का तेल लगा चोटी या जूड़ा बनाती हैं। िे हस्ततशल्प से हाथ, पैर और चेहरे पर गुदना गुदिाती हैं। िे आभूषण पहनती हैं। इस जनजातत का भी मुख्य भोजन कोदो, कु टकी और चािल का भात और पेज है। िे उड़द, मूाँग, अरहर, कु ल्थी आदद की दाल और ऋतु शाक, िनीय कन्द-मूल-भाजी आदद भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं। बकरा, मुगाग, मछली, तहरण, खरगोश अदद खाते हैं। त्योहार या दकसी अिसर या आयोजन पर महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। इनका आर्थथक जीिन तपछड़ी कृ तष, िन उपज संग्रह, खाद्य संकलन, मजदूरी आदद पर तनभगर है। कोदो, धान, मूाँग, उड़द, अरहर, ततल, मतडया आदद उगाते हैं। महुआ, गुल्ली, तेन्दूपत्ता, हराग, गोन्द, लाख, इमली, धिई फू ल आदद िन से सग्रह कर बेचते हैं। िनों से कन्द, मूल, फल, भाजी स्ियं के उपयोग हेतु एकत्र करते हैं। अब तशकार नगण्य प्राय है। िषाग में मछली पकड़ते हैं। इनमें बर्थहतििाही गोत्र हैं। इनके नाम हैं- भैंसा, सुरही, साही, साहड़ा, भेलिा, बाघ, झींगा, चुटरू, डु मर, नाग, खोकसा, भण्डारी, डांग, सुिा, खुंटा, धानकी, कमान, बाम्बी, बचगरी, के करा आदद। गोत्र में टोटम पाए जाते हैं। प्रसि पतत गृह में पररिार की बुजुगग मतहला द्वारा कराया जाता है। नाल घर में गाड़ते हैं। जच्चा को कु ल्थी, तछन्द जड़, सरई छाल, ऐंठीमुड़ी, गोन्द, सोंठ, गुड़ आदद काढ़ा पीने को देते हैं। छठी पर शुद्धी करते हैं। जच्चा-बच्चा को स्नान करा अराध्य और सूयग का दशगन कराते हैं। ररश्तेदारों को भोजन कराते और शराब तपलाते हैं। इस जनजातत में सामान्यतीः लड़कों की तििाह उम् 16 से 18 और लड़दकयों में 14 से 16 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष िधु के घर जाकर रखता है। प्रस्ताि तस्िकृ त्त होने पर िधु पक्ष को अनाज, शगुन रूपए, गुड़, दाल, तेल आदद सुक भरा जाता है। तििाह रस्म जातत के तसयान द्वारा पूणग कराई जाती है, तिशेष कर फे रे की। मंगनी, सगाई, ब्याह और गौना की रस्में हैं। इनमें तितनमय, सेिा तििाह, घुसपैथ, सहपलायन, तिधिा पुनगतििाह, देिर-भाभी पुनगतििाह आदद को भी सामातजक मान्यता हैं। शि गाड़ते हैं। तितशष्ट व्यतक्त का शि जलाते हैं। तीसरे ददन पररिार के पुरूष सदस्य मुण्डन कराते हैं। दसिें ददन स्नानोपरांत पूिगज पूजा कर भोज देते हैं। इनमें भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। इसमें तििाह, तलाक, अनैततक सम्बन्ध, उत्तरातधकार, बंटिारा आदद के प्रकरण पारम्पररक तरीके से तनराकृ त्त दकए जाते हैं। इस जनजातत के अराध्य हैं- ठाकु र देि, बूढ़ा देि, दूल्हा देि, भीम सेन, बरगम पाट, बूढ़ी माई, कं कालीनी माई, तहन्दू अराध्य, सूयग, चन्द्र, धरती, नदी, िृक्ष, नाग आदद। भूत-प्रेत, जादू-टोना, आत्मा, पुनगजन्म, झाड-फूं क आदद पर तिश्वास है।

155टी.के .िैष्णि-मझिार 156

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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80 मझिार लोग हरे ली, पोला, भोजली, निाखानी, दशहरा, दीपािली, करमा पूजा, होली आदद त्योहार मनाते हैं। करमा, भुजतलया (भोजली पर), तििाह, रहस (होली पर), पड़की (दीपािली पर मतहलां द्वारा) आदद नृत्य करते हैं। करमा, सुिा, फाग, तििाह, ददररया, भजन आदद लोक गीत गाते हैं। तशक्षा अल्प है। तिकास कायगक्रमों, तशक्षण, संचा, यातायात और बाह्य सम्पकों आदद के कारण मझिार जनजातत के रहन-सहन, तिश्वास, खान-पान, िस्त्र तिन्यास, कृ तष पद्धतत, लोक कला आदद में पररित्तगन आया है। इनकी भी प्रमुख समस्या अथग अभाि की ही है। तशक्षा की कमी, कु पोषण, अन्ध तिश्वास, तपछड़ी श्रम साध्य कम उत्पादक कृ तष, रोग उपचार का अभाि आदद उसकी अनुषााँतग इकाई की तरह साथ हैं।

19. मुण्डाीःमुण्डा लोग भारतीय उपमहाद्वीप के मूल तनिासी माने जाते हैं।157 इसका मुख्य आधार उनकी भाषा मुण्डारी का आस्रोएतस्टक समूह का होना है। मुण्डारी आस्रोएतस्टक समूह के मुण्डा उपसमूह में रखी गई है।158 दतक्षणी छोटा (चुरटया) नागपुर इनका प्रधान क्षेत्र माना जाता हैं, जहााँ से यह लोग पूिी भारत के झारखण्ड, तबहार, पतिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम और बााँग्लादेश में फै ले। यह लोग अपने आप को हुड़ुक कहते हैं, तजसका अथग मानि है। छत्तीसगढ़ में यह कम हैं। 2001 में इनकी जनसंख्या 12,383 थी। और यह लोग छोटा (चुरटया) नागपुर अथागत झारखण्ड के साथ लगे सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और जशपुर तजलों में रह रहे थे।159 छोटा (चुरटया) नागपुर और भूमीज क्षेत्रों में इनकी सत्ता भी रही।160 मुण्डा जनजातत पर भी एततहातसक उत्पतत और िैज्ञातनक शोध होने हैं। इन्होंने ही सरगुजा-जशपुर के सघन िनों को काट स्थाई तनिास बनाया। यह लोग एक ही स्थान पर प्राचीन समय से हैं। यह लोग कोलररयन समूह के माने जाते हैं। मुण्डा जनजातत पर आगे चचाग के पूिग इस मूल समूह के आधार पर अन्य तथ्य भी जान लेना बेहतर होगा। डॉक्टर गुहा ने ‘रेस एतलमेण््स इन दी इतण्डयन पॉपुलेशन’ में भारत के तनिातसयों को छीः मानि-िंशों में बांटाीःतनतग्रटो, प्रोटो आस्रेलाइड़, भूमध्यसागरीय या मैड़टे ेररयन, पतिम िृत्त कापातलक या िेस्टनग प्रोतसतशफल और नार्थड़क। इनमें से भारत की आददम जाततयां तनतग्रटो, प्रोटो-आस्रेलाइड और मंगोलाइड आददम पररिारों से ही सम्बतन्धत हैं। इनमें प्राचीनतम- तनतग्रटो जाततयां- भारत में अत्यंत अल्प रह गई हैं। श्रािणकोर की कादन और पतलयन, राजमहल पहातड़यों की बागड़ी , दतक्षण भारत की कु छ अन्य जाततयााँ और अण्डमानतनकोबार की जनजाततयों को भारत में तिशाल तनतग्रटो-पररिार का समाप्त प्राय अिशेष माना जाता हैं। भारतिषग के उत्तरी-पूिी भागों में, तिशेषकर असम में मंगोलाइड़ िगग की जाततयां बसी हैं। हालााँदक मध्य भारत में भी उनके रक्त के कु छ अंश पाये जाते हैं।

157

Sylvain Lévi, P. Levi, Jules Bloch, Jean Przyluski-Pre-Aryan and Pre-Dravidian in India

158

http://en.wikipedia.org/wiki/Munda_people

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छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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http://www.ecoindia.com/tribes/munda.html

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81 शेष तीसरी प्रोटो-आस्रेलाइड िगग की जाततयां भारत में सिागतधक हैं। छत्तीसगढ की समस्त जनजाततयाम इसी प्रोटो-आस्रेलाइड़ प्रिगग की हैं। गुहा तलखते हैं‘’मध्य और दतक्षण भारत की सभी जनजाततयााँ तनतित रूप से इसी पररिार से संबंध रखती हैं। यद्यतप इनकी भाषां का तितभन्नभाषा पररिारों से सम्बन्ध है। पतिम भारत की समस्त जाततयााँ, गंगा के मैदान की िे जाततयााँ जो तहन्दू समाज का बाह्य अंग बन गई हैं, मध्य भारत के पहाड़ो में रहने िाली भील, कोल, िड़गा, कोरिा, खरिार, मुण्ड़ा, भूतमज, माल पहातड़या जाततयााँ और दतक्षण भारत की चेचू, कु रम्बा, मलय, येरू आदद भी इस जातत की प्रतततनतध समझी जा सकती हैं। यद्यतप उनमें अन्य पररिारों का सतम्मश्रण, तिशेषतीः तनतग्रटो का, एक समान नहीं है। तथातप यह तनतित है दक, दतक्षण भारत की जाततयों के मध्य, भारत की अपेक्षा, यह सतम्मश्रन अतधक है।‘’ गुहा द्वारा ददया गया ऊपर िर्थणत िगीकरण हालााँदक जाततगत है। भाषा की दृतष्ट से तिशाल भारत के इस पररिार के आददिातसयों ने तितभन्न जनजातीय भाषां के अततररक्त अन्य भाषा-पररिारों की भाषां को भी अपनाया है। मुण्डा भाषाएाँ आतस्रक पररिार की भाषाएाँ हैं। आतस्रक पररिार की जो भी भाषायें भारतिषग की तितभन्न जाततयों द्वारा बोली जाती हैं, िे सब की सब मुण्डा-भाषाएाँ कहलाती है। भाषां का आतस्रक पररिार एक बहुत तिशाल पररिार है, जो मध्य भारत से आस्रेतलया तक फै ला हुआ है। ई. ए. गेट राय बहादुर शरत चन्द्र राय तलतखत ‘मुण्डाज एण्ड देयर कन्री’ के इण्रोडक्शन में तलतखत हैं‘’मुण्ड़ा की भाषा, छोटा (चुरटया) नागपुर की संथाल, हो और अन्य जाततयों द्वारा बोली जाने िाली भाषां के उस पररिार से सम्बन्ध रखती है, तजसे आस्रो-एतशयारटक कहते हैं और तजसमें ख्मेर, िा, पालंग, तनकोिारी, खासी और मलक्का की आददिासी भाषाएाँ सम्मतलत हैं। भाषां का एक दूसरा पररिार भी है, तजसे आस्रो-नेतशयन कहते हैं, तजसमें इण्ड़ोनेतशयन, मालेनेतशयन और पालेनेतशयन सम्मतलत हैं। ये दोनों पररिार – आस्रो-एतशयाततअक और आस्रो-नेतशयन- एक बड़े पररिार में सम्मतलत हो जाते हैं, तजसे आतस्रक कहते हैं।“ श्यामसुन्दर दास भाषातिज्ञान में तलखते हैं दक, ‘’भारतीय तिद्वानों ने इन दोनों पररिारों का नाम आग्नेय-देशी और आग्नेय द्वीपी ददया है।'' मुण्डा भाषां के मूल और पररिार के सम्बन्ध में शरत चन्द्र राय तलखते हैं।:“प्रतसद्ध पािात्य भाषा िैज्ञातनकों ने अनुसन्धान करके इस बात का पता लगाने में सफलता प्राप्त की है िृहत्तर भारत, कोचीन-चीन, मलाय-प्रायद्वीप, तनकोबार, दफलीपाइन-द्वीप समूह, मलक्का और आस्रेतलया में जो असभ्य जाततयााँ (Rude tribes) बसती हैं, उनकी भाषां में प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। क्या शब्दकोश, क्या व्याकरण के तनयम,क्या भाषा की रचना के तत्ि सभी बातों में भारत की कोलयररन मुण्ड़ारी, संताली, भूतमज, हो, तबरहोर, कोड़ा, तूरी, असुरी कोरिा, कु रकू , खतड़या, जुिांग, सबर, गड़िा आदद भाषाएाँ मलाया प्रायद्वीप की सकई और सेमंग, अनामी बरसीसी, मोन-ख्मेर तथा खासी, मलक्का द्वीप समूह के आददिातसयों की भाषाएाँ, आस्रेतलया की ददप्पल, तुरूिल,, कतमलरोि, ओड़-ओड़ी, कककी िैलुिन, तोंगुरोग तथा अन्य भाषाएाँ और तनकोबार की कार-तनकोिार, चोिरा, तेरेसा, शोम्पेन आदद भाषाएाँ आपस में बहुत घतनष्ठ सम्बन्ध रखती हैं।“ डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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82 प्रोटो-आस्रेलाइड पररिार की कु छ जाततयों ने अपने से अतधक उन्नत मेतडटेररयन (भू-मध्य सागरीय) पररिार की द्रतिड़-जाततयों के सम्पकग में आने से अपनी मौतलक भाषां को भूलकर द्रतिड़ भाषां को ही अपना तलया है, तजसमें छोटा (चुरटया) नागपुर के उरााँि प्रमुख हैं। इन बातों के कारण तिद्वान बहुत ददनों तक जाततयों के िगीकरण के सम्बन्ध में भ्रम में पड़े रहे, क्योंदक तब तक भाषायें ही िगीकरण का सबसे मुख्य आधार थीं। दकन्तु, जब मानि शातस्रयों ने िैज्ञातनक मापदण्ड : क. मनुष्य के शरीर िणग के भेद, के श के प्रकार, नेत्र रं ग; ख. तसर का प्रकार; ग. मानि तिज्ञान की सहायता से तितभन्न समूह की जातत गत योग्यता स्िभाि का अध्ययन; घ. रक्त िगों का तिश्लेषण आदद तनधागररत कर तलए, तब भाषां का आधार महत्िपूनग नहीं रह गया और रक्त िगों का तिश्लेषण सबसे प्रमुख बन गया। उपयुगक्त भ्रम में पड़कर बहुत से शोधकमी उरााँि आदद जाततयों को द्रतितड़यन मानते रहे। एक ही प्रोटो-आस्रेलाइड जाततयों को दो समझकर उनका कोलेररयन और द्रतितड़यन पररिारों में िगीकरण दकया गया। शरत चन्द्र राय का भी यह ही मत था, दकन्तु इससे भी आियगजनक भ्रम इन्साइक्लोपीतडया का था, तजसने, पता नहीं, दकस आधार पर स्ियं मुण्डां को द्रतिड़ पररिार का माना है। उन्होंने तलखा है : "मुण्डा = छोटा नागपुर अंचल में रहने िाली द्रतिड़-असभ्य जातत तिशेष।'' यह भ्रमात्मक प्रचार है। डॉक्टर गुहा ने इस महत्िपूणग तसद्धान्त की स्थापना करके दक, जब कोई जातत अपने से अपेक्षाकृ त अतधक सभ्य जातत के सम्पकग में बहुत ददनों तक रहती है, तब िह प्राय: अपनी भाषा को भूलकर सभ्य जातत की भाषा अपना लेती है। इस भ्रम का तनराकरण कर ददया है। दुतनयााँ की बहुत सी जाततयों में यह बात हुई है। झारखण्ड के उरााँि और मुण्डा स्ियं इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। मुण्डा क्षेत्र में जो दो-चार घर उरााँि जहााँतहां आ बसे हैं, िे मुण्डा भाषा और उरााँि क्षेत्र के मुण्डा-उरााँि-भाषा बोलते हैं। आतस्रक पररिार की जो भाषायें भारत की जनजाततयों द्वारा बोली जाती हैं, उनका नाम तग्रयसगन ने कोलेररयन (या कोलभाषा-पररिार) ददया है। तग्रयसगन ने इन नाम को प्रचाररत करना चाहा, परन्तु फ्रेडररक तमलर ने इन भाषां को मुण्डा-भाषां की संज्ञा दी। इन मुण्डा भाषां का प्रचार भारत की आददम जाततयों में पहले से था और इन्हीं जाततयों के द्वारा भारत में पाषाण युग की सभ्यता का तनमागण हुआ था। इन मुण्डाभाषी जाततयों के नाम अलग-अलग हो गये हैं, रस्म-ररिाज बदल गये हैं और उनकी भाषां में बहुत अन्तर पड़ गया है। उनमें कहीं-कहीं तो इतना अन्तर पड़ गया है दक, भाषा शास्र की सूक्ष्म और िैज्ञातनक दृतष्ट से देखे तबना उनमें एकता नहीं मालूम हो सकती। इसके कारणों पर शोध िांतछत है। बहुत ददनों से ये जाततयां काल की आाँतधयों में पड़कर तबखर गई हैं। और एक दूसरे से इतनी दूर पड़ गयी है दक, उनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है। जैसे आज ज्ञान, तिज्ञान और सम्पकग बड़ी-बड़ी दूररयों को भी तनकट बना रहे हैं, िैसे ही अज्ञानता और असम्पकग ता ने इनकी तनकटता में ली लाखों कोस की डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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83 दूरी भर दी है। पहले इनमें तशक्षा की िह सूक्ष्मदशी और दूरदशी दृतष्ट भी नहीं रही है, तजससे ये भूतकाल में प्रिेश करके अपनी एकता को समझते। इसतलये एक ही जातत की एक-एक शाखा को अलग-अलग जातत मान लेना इनके तलए स्िाभातिक था। दूसरी बात यह है दक, जाततयों का िगीकरण दो प्रकार से दकया जाता है। एक तो कोई जातत स्ियं अपना नाम रखती है, तजसमें औरों से अपनी तिशेषता सूतचत करती है। दूसरे , अन्य लोग दकसी जातत का नाम रखते हैं, तजसमें उस जातत के बारे में अपने तिचारों को ध्ितनत करते हैं और उनके बारे में अपनी हीनता या उच्चता की भािना प्रकट करते हैं। बहुधा ऐसे नामों में जातीय घृणा और ततरस्कार के कारण हीनता की भािना ही प्रकट होती है। पीछे ये दोनों प्रकार के नाम रुढ़ बन जाते हैं। मुण्डा जाततयों ने बहुधा अपना नाम मनुष्यिाची रखा है। जैसे संताल - "टोड़', मुण्डा - "होड़ो को', हो - "हो' और यह स्पष्ट है दक िे तजतनी बार तबखरी उतनी बार अपना नाम रखा। हर शाखा ने अपना और अपने तनकट सम्पकग की दूसरी शाखा का नाम भी रखा। बहुत से पुराने नाम लुप्त हो गये और नये प्रकट हुए। सन्थाल, हो, जुिांग, खतड़या, आदद नाम हाल के रखे हुए हैं। मुण्डा का एक अथग है तसर या प्रमुख। गााँि के प्रधान को पहले मुण्डा कहा जाता था। पीछे और जाततयों से अपनी प्रमुखात ददखाने के तलए यह जातत का नाम बन गया और फ्रेडररक तमलर के द्वारा पूरे पररिार की भाषां के तलए अपनाया गया। कई बार शब्द अपने पुराने अथग छोड़कर नये अथग ग्रहण कर तलया करते हैं। हो जातत ने मुण्डां से अलग होने पर अपना नाम "हो' रखा। "हो' "होड़ो' का संतक्षप्त रुप है, तजसका अथग है मनुष्य। "ड़' का उच्चारण नहीं कर सकने के कारण "हो' जनजातत उसे छोड़ देते हैं। जैसे "ओड़:' को "ओअ:' (घर) "तपतड़' को "पी' (मैदान) और "कु तड़' को "कु इ' (स्री) कहते हैं। सन्ताल अपने को "होड़ो-को' कहते हैं। दूसरे लोग उन्हें सन्ताल या सन्थाल कहते हैं। इससे पहले इन जाततयों (या जनजाततयों) का "कोल' और "शबर' नाम तमलता है। "शबर' कोई घृणासूचक शब्द नहीं है। यह शब्द संस्कृ त-ग्रन्थों में प्राय: िहां आया है, जहााँ इन जाततयों से अच्छे सम्बन्ध के प्रसंग में चचाग है। तिन्ध्य क्षेत्र की "सहररया' झारखण्ड की "सौररया' और उड़ीसा, छत्तीसगढ़, कनागटक तथा झारखण्ड की "सािरा' आदद जाततयों के नाम इसी शब्द से सम्बद्ध हैं। इन्हीं शब्दों को संस्कृ त में "शबर' रुप प्रदान दकया गया है। इस प्रकार "मुण्डा' आतस्रक-पररिार की सारी भारतीय भाषां का नाम होने के साथ ही अपनी एक स्ितन्त्र उपजातत और उसकी भाषा का नाम भी है। इसे स्पष्ट करने के तलए ही इतने तििरण की आिश्यकता पड़ी। मुण्डा जनजातत के बहुत ददनों से अन्य भारतीय जाततयों के सम्पकग में रहने के कारण उनकी भाषा पर उच्चारण, शब्दों के आदान-प्रदान आदद के रुप में अन्य भारतीय भाषां का अत्यन्त प्रभाि पड़ा है। मुण्डा-भाषा में बहुत से शब्द संस्कृ त, प्राकृ त तथा अरबी-फारसी के भी सतम्मतलत हुए हैं। उन्होंने मुण्डाउच्चारण के अनुरुप अपनी रुप बदल तलया है। उदाहरण के तलए कु छ शब्द यहााँ ददये गये हैं ।:–

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84 सारणी 2 - कु छ मुण्डा, संस्कृ त्त और तहन्दी शब्दों की तुलना स्रोत्त- पूनम तमश्र- मुण्डा भाषा : एक पररचय (http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/jk017.htm) क्र.सं.

मुण्डा शब्द

संस्कृ त शब्द

तहन्दी शब्द

1

दरु

दारु

लकड़ी

2

तुल

तुला

तराजू

3

अञ्जतल

अंजली

अंजली

4

दतरोम्

दात्रोम

हंसुिा

5

चलङ्क

पालंक

पलंक

6

पण्डु

पाण्डु र

पीला

7

सार

शर

तीर

8

कदले

कदली

के ला

9

समड़ोम्

स्िणग

सोना

10

कण्टड़

काष्ठफल

कटहल

सारणी 3 - कु छ मुण्डा, फारसी और तहन्दी शब्दों की तुलना स्रोत्त- पूनम तमश्र- मुण्डा भाषा : एक पररचय (http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/jk017.htm) क्रं.सं.

मुण्डा शब्द

फारसी शब्द

तहन्दी शब्द

1

कु म्पाट

कोम्पाट

श्रेष्ठ

2

जोर

जोर

शतक्त

3

खूब

खूब

पूरा

5

जोहार

जुहार

नमस्कार

मुण्ड़ा-भाषा की मौतलक शब्दािली में िन, पिगत सम्बन्धी िस्तुं के शब्दों की भरमार है। पशुपालन, ग्राम व्यिस्था तथा कृ तष-कायों से सम्बतन्धत मौतलक शब्द इस जातत की मूल संस्कृ तत पर प्रकाश डालते हैं। धातु के बरतन, कपास के िस्त्र, िातणज्य-व्यिसाय, कजग, सूद, महाजन आदद सम्बन्धी शब्द मुण्डा-भाषा के अपने मूल शब्द नहीं हैं। मुण्डारी में इन बातों के तलये आयग भाषां के शब्दों को देखकर पता चलता है दक मुण्डां की मूल संस्कृ तत में ये बातें तिद्यमान नहीं थीं, दकन्तु नृत्य, गान, िाद्य, बांसुरी आदद के उनके अपने शब्द हैं।161

161

पूनम तमश्र- मुण्डा भाषा : एक पररचय (http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/jk017.htm)

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85 छत्तीसगढ़ में मुण्डा जनजातत के लोग ग्रामों में उरााँि, नगेतसया, कं िर आदद जनजाततयों के साथ तनिास करते हैं। इनके भी आिास तमट्टी, बााँस, काष्ठ और खपरै ल के बने होते हैं, तजसमें दो-तीन कक्ष होते हैं। सामान्यतीः दीिारे श्वेत तमट्टी से और फशग गाय के गोबर से लीपा जाता है। पशु कोठार पृथ्क होता है। ग्राम में सरना, आखर और सागन होता है। घर पर अन्न भण्डारण की कोठी, अन्न पीसने की चक्की, कू टने का मूसल, रसोई के बत्तगन, चारपाई, ओढ़ने-तबछाने-पहनने के िस्त्र, कृ तष उपकरण, कु ल्हाड़ी, मछली पकड़ने का जाल, िाद्य यंत्र आदद होते हैं। इस जनजातत के लोग प्रततददन दातौन और स्नान करते हैं। के श तमट्टी से धो तेल लगा कं घी करते हैं। मतहलाएाँ चोटी बना जूड़ा बनाती हैं। िे हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। आभूष्ण पहनती हैं। सामान्यतीः पुरूष पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। यह लोग छोटी कद काठी के काले रं ग के होते हैं। इनके के श घुंगराले होते हैं। कदकाठी और रूप रं ग में इन्हें अतधकांशतीः बंगाली लोगों के समीप माना जाता है।162 यह लोग सामान्यतीः चािल, कोदो और गोन्दली का भात खाते हैं। इसके साथ दाल या मौसमी शाक भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं और अंड़ा, मुगाग, मछली, बकरा आदद खाते हैं। त्योहार या आयोजन आदद के अिसर पर चािल से तनर्थमत हंतड़या शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी भी पीते हैं। पूिग में मुण्डा लोग तशकार पर आतश्रत थे, अब कृ तष, िन उपज संग्रह और मजदूरी पर आतश्रत हैं। अब यह लोग कु शल कृ षक माने जाते हैं। िे धान, कोदों, गोंदली, उड़द, मूाँग, अरहर, ततल आदद उगाते हैं। िनों से तेन्दूपत्ता, लाख, गोन्द, हराग, आाँिला, िनीय कन्द-मूल, भाजी आदद संग्रह करते हैं। कु छ उपयोग करते है और अतधकांश बेचते हैं। अब मजदूरी करते हैं। िषाग काल में मछली भी पकड़ते हैं। मुण्ड़ा जनजातत भी तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय गुण िाली जनजातत है। यह जनजातत कई खूंट में तिभक्त है। यह खूंट भी दकली (गोत्र) में तिभक्त हैं। जैसे- भेंगरा, बोदरा, परती, कं रू, इन्द (एक मछली), तजरहल, मुन्दरी, तनमक, अम्बा, बलुम, गोन्दली, टोपनो (एक चींटी), बरला (एक िृक्ष या मजदूर), हेमरोम, गुररया, हेरेंगे, सुररन, होरो संगा, समद आदद। प्रत्येक गोत्र के टोटम पाए जाते हैं। सामान्यतीः एक गोत्र के लोग एक क्षेत्र तिशेष में बसे हैं। गभागिस्था पर संस्कार नहीं हैं। प्रसि स्थातनय दाई या पररिार की उम्रदराज़ मतहला कराती है। नाल घर पर गाड़ते हैं। प्रसूता को सोंठ, पीपर, गुड़ और जड़ी-बूरटयों का काढ़ा तपलाते हैं। छठी पर स्नान, निीन िस्त्र धारण, सफाई और सूरज तथा कु ल अराध्य को प्रणाम करा शुतद्ध करते हैं। ररश्तेदारों को भोजन कारते और हंतड़या तपलाते हैं।163 लड़कों की तििाह आयु 16-20 और लड़दकयों की 14-18 है। सगोत्रीय तििाह नहीं है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है और अनाज, दाल, हल्दी, गुड़, तेल और शगुन के रूपए देता है। मंगनी, सगाई, ब्याह और गौना के चरण होते हैं। फे रे जातत का बुजुगग लगिाता है। तितनमय, सेिा, घुसपैठ, सहपलायनतििाह भी मान्य हैं। हो, संथाल, उरााँि और खररया में तििाह तस्िकार लेते हैं। उरााँि में चाचा-भतीजा सम्बन्ध के कारण और शेष से रक्त भाई सम्बन्ध के कारण। अन्य से तििाह पर जातत तनकाला है। 162

http://www.ecoindia.com/tribes/munda.html

163

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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86 शि गाड़ते हैं। प्रत्येक गोत्र का गुआर्थडन नामक स्तम्भ लगा स्मारक बनाते हैं। इस प्रस्तर स्तम्भ को सासांगतडरर या पीत (हल्दी) स्तम्भ कहते हैं। प्रत्येक मुण्डा को जीिन में कम से कम एक बार इन स्तम्भों का दशगन करना अतनिायग है। हालााँदक अब इसाई धमग अपनाने िाले मुण्डा लोग इसको नहीं अपनाते।164 तीसरे ददन मुण्ड़न होता है। दसिें ददन पूिगज पूजा पाहन द्वारा कराई जाती है, तदुपरांत भोज होता है। इनमें भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसमें परहा राजा, दीिान, ठाकु र, पाण्डे, करता, लाल आदद इसके पदातधकारी हैं। इसमें तििाह, तििाह-तिच्छेद, यौन व्यतभचार, उत्तरातधकार, अंतजागततय तििाहा आदद के प्रकरण तनराकृ त्त दकए जाते हैं। मुण्ड़ा जनजातत में जीििाद, बोंगािाद, प्रकृ ततिाद, टोटमिाद है। यह लोग सरना धमग मानते हैं। कई अब इसाई धमग अपना तलए हैं। इनके सिग प्रमुख अराध्य हैं- बसगबोंगा (सूयग देि)। अन्य अराध्य हैंददसुलबोंगा, चांड़ीबोंगा, हातुबोंगा, ंराबोंगा आदद। तहन्दू देिी-देिता मानते हैं। जैस-े तशि आदद। पूजा में मुगी और बकारा बतल भी देते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते हैं। धार्थमक तिशेषज्ञ या तंत्र-मंत्र के जानकार को पाहन कहते हैं। इनके त्योहार हैं- करमा, सरहुल, सोहराई (दीपािली), माघ परब, फागुन परब (होली) आदद। इनके नृत्य हैं- करमा, सरहुल, फाग, तििाह, सोहराई आदद। इनके लोक गीत हैं- करमा, सरहुल, फाग, तििाह, भजन आदद। इनमें तशक्षा अल्प ही है। तिकास आदद के कारण रहन-सहन, खान-पान, लोक कला, िस्त्र-तिन्यास आदद में बदलाि आया है। तशक्षा और नौकरी में भी रूतच आई है। अन्ध तिश्वास कम हुए हैं। अथागभाि ही मुख्य समस्या है।

तचत्र 26 - मुण्ड़ा मृतक स्मारक स्रोत्त- x.biblewalks.com

27 - मुण्ड़ा मतहलाएाँ

28 - मुण्ड़ा पररिार और आिास

promotetelugu.wordpress.com और

indianetzone.com

उपतनिेश काल में जनजातीय तिद्रोह में सबसे संगरठत एिं तिस्तृत तिद्रोह 1895 से 1901 के मध्य का मुण्डा तिद्रोह था तजसका नेतृत्ि तबरसा मुण्डा ने दकया था ।

164

http://en.wikipedia.org/wiki/Munda_people

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तबरसा मुण्डा का जन्म 1875 ई. में रांची के तमार थाना के अन्तगगत चालकन्द गााँि में हुआ था । उसने अंग्रेजी तशक्षा प्राप्त की थी । तबरसा मुण्डा ने मुण्डा तिद्रोह पारम्पररक भू-व्यिस्था का जमींदारी व्यिस्था में पररितगन हेतु धार्थमक-राजनीततक आन्दोलन का स्िरूप प्रदान दकया ।



तबरसा मुण्डा को उल्गुहान (महान तिद्रोही) कहा गया है । तबरसा मुण्डा ने पारम्पररक भू-व्यिस्था का जमींदारी व्यिस्था को धार्थमक एिं राजनीततक आन्दोलन का रूप प्रदान दकया ।



तबरसा मुण्डा ने अपनी सुधारिादी प्रदक्रया को सामातजक जीिन में एक आदशग प्रस्तुत दकया । उसने नैततक आचरण की शुद्धता, आत्म-सुधार और एके श्िरिाद का उपदेश ददया । उन्होंने तब्ररटश सत्ता के अतस्तत्ि को अस्िीकारते हुए अपने अनुयातययों को सरकार को लगान न देने का आदेश ददया ।



1900 तबरसा मुण्डा को तगरफ्तार कर तलया गया और उसे जेल में डाल ददया गया, जहााँ हैजा रोग से उनकी मृत्यु हो गयी ।165

20. नगेतसयाीःछत्तीसगढ़ में नगेतसया जनजातत अल्प संख्या में है। यह लोग अतधकााँशतीः झारखण्ड में हैं। छत्तीसगढ़ में यह लोग सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और जशपुर तथा तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ तजलों में है। नगेतसया जनजातत की उत्पतत्त पर एततहातसक और आधुतनक िैज्ञातनक उल्लेख नहीं हैं। ककिन्दंतत अनुसार यह कहते हैं दक, एक निजात तशशु को िन में फें क ददया ग्या। उसकी रक्षा नाग सााँप ने फन छत्र की तरह फै ला कर की। उधर से गुजरते कु छ मुण्डा जनजातत के लोगों ने उसे उठा तलया और पाला पोसा। आगे चलकर यह बालक मुण्डा जनजातत का राजा हुआ। इसके िंशज नगेतसया कहलाए। यह संज्ञा नाग द्वारा रतक्षत होने के कारण तमली। कु छ तिद्वान नगेतसया शब्द की व्युत्पतत्त नाग+बतसया, अथागत (छोटा) नागपुर क्षेत्र में बसने िाले, से मानते हैं। इस सम्बन्ध में यह तकग ददया जाता है दक, पहले नागबतसया शब्द ही बना, जो नागेतसया हुआ।166 नगेतसया जनजातत भी कोलेररयन या मुण्डा समूह की जनजातत है। इनकी बोली या भाषा भी मुण्डारी है। नगेतसया लोग ग्रामों में अन्य जनजातत यथा- उरााँि, मुण्ड़ा, कं िर, मझिार आदद के साथ तनिास करते हैं। इनके भी आिास तमट्टी, बााँस, काष्ठ और खपरै ल के बने होते हैं, तजसमें दो-तीन कक्ष होते हैं। सामने परछी होती है। कमरे में देि स्थान और कोठी का स्थान सुरतक्षत होता है। सामान्यतीः दीिारे श्वेत तमट्टी से और फशग गाय के गोबर से लीपा जाता है। पशु कोठार पृथ्क होता है।

165http://biharjourney.blog.co.in/2010/06/22/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D

%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%B9/ 166

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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88 घर पर अन्न भण्डारण की कोठी, अन्न पीसने की चक्की, कू टने का मूसल, रसोई के बत्तगन, चारपाई, ओढ़ने-तबछाने-पहनने के िस्त्र, कृ तष उपकरण, कु ल्हाड़ी, मछली पकड़ने का जाल आदद होते हैं। प्रत्येक प्रातीः मतहलाएाँ घर की सफाई करती हैं। इस जनजातत के लोग प्रततददन बबूल, हराग, करं ज, नीम आदद से दातौन और तदुपरांत स्नान करते हैं। पुरूष बाल कटे हुए रखते हैं। के श तचकनी तमट्टी या साबुन से धो तेल लगा कं घी करते हैं। मतहलाएाँ चोटी और जूड़ा बनाती हैं। िे हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। आभूषण पहनती हैं। तबतछया, पैरपट्टी (पैर), करधन, ऐंठी (हाथ), पहुाँची (बाहु), चेन, हमेल (गला), तखनिा (कान), झुमका, फू ली (नाक) आदद तगलट के आभूषण पहने जाते हैं। नगेतसया पुरूष पंछा, धोती, कु रता और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। यह लोग सामान्यतीः चािल, कोदो और गोन्दली का भात खाते हैं। इसके साथ उड़द, तुअर या कु ल्थी दाल या मौसमी शाक भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं और कभी-कभी अंड़ा, मुगाग, मछली, बकरा आदद खाते हैं। त्योहार या आयोजन आदद के अिसर पर चािल से तनर्थमत हंतड़या शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी भी पीते हैं। यदद यह लोग पशु पालते थे, तो उसका उपयोग खाने में ही करते थे, न दक दूध आदद हेतु।167 इनका आर्थथक जीिन कृ तष, िन उपज संग्रह और मजदूरी पर तनभगर है। यह लोग कोदो, गोन्दली, धान, मक्का, उड़द, मूाँग, ततल, कु ल्थी, तुअर आदद बोते हैं। िनों से महुआ, तेन्दूपत्ता, हराग, लाख, धिई फू ल, रे शम, कोसा आदद एकत्र कर बेचते हैं। िषाग में मछली पकड़ते हैं। पहले तशकार भी करते थे। अब मजदूरी भी करते हैं। नगेतसया जनजातत भी तपतृिश ं ीय, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय परम्परा को मानने िाली जनजातत है। इनमें तीन- तसन्दुररया, तेलहा और धुररया- उपजाततयााँ हैं। कहा जाता है दक, पहले इनमें उपजाततयााँ नहीं थीं। जब एक पूिगज द्वारा तीन तििाहों में एक तसन्दूर लगा कर, दूसरा मात्र सगाई कर मााँग में तेल लगा और तृतीय तििाह न कर मात्र धूल टीका लगा अपना बना लेने के कारण इनसे उत्पन्न संतानों को क्रमशीः यह संज्ञाएाँ तमलीं। स्पष्ट है दक इनकी उच्चता और तनम्ता का कारण और क्रम भी यह ही है। यह उपजाततयााँ बर्थहतििाही गोत्रों में बाँटी हैं। गोत्र टोटम आधाररत हैं। तशशु जन्म को ईश कृ पा माना जाता है। गभागिस्था में संस्कार नहीं हैं। प्रसि स्थातनय दाई की सहायता से घर पर कराते हैं। नाल ब्लेड़ से काट घर पर गाड़ते हैं। प्रसूता को कु ल्थी, छीन्द जड़, सोंठ, गुड़, पेपर, सरई छाल आदद से बना काढ़ा तपलाते हैं। छठी पर शुतद्ध करते हैं। जच्चा-बच्चा को नहला सूयग और अराध्य के दशगन करा ररश्तेदारों को भोज देते हैं। इसमें बीड़ी, तम्बाखू और चािल से बनी शराब हतड़या तपलाते हैं। नगेतसया जनजातत में लड़कों की तििाह आयु समान्यतीः 14-18 और लड़दकयों की 12-16 है। अब शीघ्र तििाह का आग्रह कम हुआ है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष द्वारा ददया जाता है। िर तपता िधू तपता को अन्न, दाल, तेल, गुड़ और शगुन के रूपए देता है। इसे बुन्दा कहा जाता है। तििाह के चार चरण हैं- मंगनी, 167

आर.एस.शमाग-प्राचीन भारत में भौततक प्रगतत एिं सामातजक संरचनाएाँ,पृ.169

(http://books.google.co.in/books?id=1E_1dsjUuAkC&pg=PA169&lpg=PA169&dq=%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E 0%A4%AF%E0%A4%BE+%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF&source=bl&ots=oKxRRr4vUn&sig=W5taN Erx_YN8nWMEVjVIJOKGnw&hl=en&ei=_5UpTM7RKsaHcaGY1dQC&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CBcQ6AEwAQ#v=onepage&q=%E 0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A5%87%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%20%E0%A4%9C%E0%A4%A8%E0%A4%9C%E0%A4% BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF&f=false)

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89 फलदान, तििाह और गौना। तििाह जातत प्रमुख या दकसी बुजुगग द्वारा सम्पन्न कराया जाता है। इनमें घुसपैठ, सहपलायन, तितनमय, सेिा तििाह आदद को मान्यता प्राप्त है। शि जलाते हैं और अतस्थयााँ नदी में प्रिातहत करते हैं। तीसरे ददन देिार पूिगज पूजा कराता है। इस जनजातत में मंत्र, जादू आदद के ज़ानकार और पूजा कराने िाला देिार कहलाता है। बारहिें ददन भोज देते हैं। तपतृ पक्ष के ददनों में मृतक के नाम पानी से तपगण कर दाल-भात तनकालते हैं। इनमें भी जातत पंचायत है। इसका प्रमुख मुतखया कहलाता है। इसमें अनैततक सम्बन्ध, तििाह, तलाक आदद के प्रकरण आते हैं। जातत के अराध्यों की पूजा व्यिस्था भी इसी के द्वारा की जाती है। इस जनजातत के अराध्य हैं- गौरै या देि, तशकारी देि, सदना माता, धरती माता, अन्न कुं िरी, सभी तहन्दू देिी-देिता, सूरज, चााँद, नदी, पहाड़, िृक्ष, िन पशु, नाग आदद। भूत-प्रेत, जादू-टोना आदद मानते हैं। पूजा में बकरा या मुगाग बतल करते हैं। देिार यह कायग कराता है। नगेतसया लोग दीपािली, फागुन, सरहुल, निाखानी, तपतर, पोला, दशहरा आदद त्योहार मनाते हैं। सरहुल (सरना पूजा), करमा, अखरा, तबहाि आदद न्र्तत्य करते हैं। सरहुल, करमा, तबहाि, भजन आदद लोक गीत गाते हैं। इनमें तशक्षा अल्प है। तिकास आदद के कारण रहन-सहन, िस्त्र तिन्यास, लोक कला, खान-पान आदद में बदलाि है। अथागभाि मुख्य समस्या है। अन्ध तिश्वास और कु पोषण तो है ही।

21. उरााँि (कु ड़ुख, धााँगर):उरााँि जनजातत छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातत है। अंग्रेजी में इसे Uraon, Oraon, Oran या Oram तलखा जाता है। इन्हें उनकी बोली कु ड़ुख के आधार पर कु ड़ुख भी कहते हैं। स्थातनय लोग इन्हें धााँगर पुकारते हैं। यह लोग मध्य और पूिी भारत सतहत बांग्लादेश में भी हैं। भारत में इनका अतधक संकेन्द्रण छत्तीसगढ़, झारखण्ड़, उड़ीसा, पतिम बंगाल आदद प्रााँतों में है। यह लोग नेपाल और भूटान में भी हैं। भारत के महानगरों सतहत यह लोग यूरोप और अमेररका के नगरों में भी हैं। कई लोग तो इसाई धमग के ऊाँचे पदों पर भी हैं। तशतक्षत और नौकरी पेशा हो जाने के कारण नगरों में भी बसे हैं। यह लोग छोटा (चुरटया) नागपुर के उरााँि कहलाते हैं। इस पठार का तिस्तार सरगुजा सम्भाग तक है। छत्तीसगढ़ में 2001 में इनकी जनसंख्या 645,950 थी, जो अतधकतर सरगुजा सम्भाग में थी। रायपुर राजधानी में भी, यह लोग, बसे हैं। अंग्रेज शासन के समय इस जनजातत के ताना भगत और तबष्नु भगत समूहों ने क्रमशीः ताना संत तुररया भगत और तभक्कु भगत के नेतृत्ि में उपतनिेशिाददयों के चौकीदारी कर के तिरूद्ध तिद्रोह दकया था।168 उरााँि जनजातत की उत्तपतत के तिषय में शोध तो हुए हैं, पर अभी तक मत की स्पष्ट स्थापना नहीं हो पाई है। अतधकााँश का मत है दक, उत्तर-पतिम भारत (महाराष्ट्र-गुजरात) में आयग दबाि के कारण, उरााँि लोग, पहले पतिम भारत की ओर आए और िहााँ से अन्य क्षेत्रों की ओर फै ले। इसी के आधार पर कहा गया दक, यह लोग कोंकड़ क्षेत्र से फै ले और इस कारण से कु ड़ुख कहलाए। मानि शास्त्री अध्ययनों में अभी इसकी सुस्पष्ट पुतष्ट होना शेष है। यह स्थातपत है दक, उरााँि कई तिस्थापनों और अप्रिजनों से गुजरे । यह माना जाता है दक, इन प्रिजनों के दौरान िे भोजपुर या शाहबाद में रहे और यहााँ से भी आयग दबाि में ही पलायन को बाध्य हुए। इन्होंने कई पीदढ़यों तक पटना (तबहार) के आसपास रोहतास और अन्य पहातड़यों पर तनिास

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Indian Council of Historical Research, The Indian historical review, P. 282

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90 दकया और यहााँ से मुतस्लमों द्वारा हटाए गए।169 रोहतास से पलायन दो ददशां में हुआ। एक दल गंगा तीर से राजमहल पहातड़यों की ओर गया और दूसरा कोयल तीर से पलामू की ओर। पलामू से उत्तर-पूिग रााँची की ओर गए। छोटा (चुरटया) नागपुर से ही सरगुजा, जशपुर, कोररया आदद तजलों में आए। कु छ तिद्वान उरााँि शब्द को मुण्डारी भाषा का मानते हैं। यह माना जाता है दक, मुण्ड़ा लोगों ने उन्हें इस संज्ञा से तब पुकारा, जब िे छोटा (चुरटया) नागपुर में आ बसे। कु छ तिद्वान इसे कु ड़ुख भाषा का शब्द मानते हैं, जो एक टोटम से बना। धााँगर शब्द का अथग दो युिा बलगों से लगाया जाता है।170 उरााँि जनजातत की कथा में कहा जाता है दक, तुकग मुतस्लम रोहताशगढ़ जीतना चाहते थे, परं तु योद्धा कु ड़ुख लोगों से लड़ने से बचला चाहते थे। अतीः उनकी कमजोरी जानने को मतहला जासूस तनयुक्त की गई। उसने यह तथ्य उजागर दकया दक, उरााँि लोग करमा और सरहुल उत्सि के ददन चािल से बनी हतड़या शराब पीकर धुत रहते हैं। अतीः उसी समय आक्रमण दकया गया। पुरूष धुत्त थे। अतीः मतहलां ने पुरूष पररधान धारण कर मोचाग सम्हाला और दुश्मनों को खदेड़ ददया। ऐसा बारह बार हुआ। इस कारण उरााँि लोगों में जनीतशखर त्योहार मानाने की परम्परा पड़ी। इसमें मतहलाएाँ तशकार करती हैं। यह प्रतत बरहिें िषग होता है। तेरहिें िषग तुकों ने तिजय पाई। उरााँि तनकाल बाहर दकए गए। तब िे छोटा (चुरटया) नागपुर क्षेत्र में आए।171 उरााँि जनजातत भी प्रोटो-आस्रेलाइड मूल की है। इनकी ऊाँचाई कम, नाक चपटी, रं ग काला, बाल काले और घुंघराले होते हैं। उरााँि, संथाल और माल पहाड़ी लोग एक ही मूल समूह के हैं। उरााँि और मुण्ड़ा लोग सन्युक्त रूप से नागिंशी राजा चुने जाने की परम्परा छोटा (चुरटया) नागपुर क्षेत्र में रही। सम्भितीः 64 A.D. के समय राजा भू स्िामी नहीं था और उसे उपज में भाग ददया जाता था।172 यह सभी आतस्रक समूह की भाषाएाँ बोलते हैं। उरााँि लोगों की भाषा को द्रतिड़ समूह की भाषा माना जाता रहा है। हालााँदक अब इसका तिरोध भी है। यह भाषा ब्रहुई और पहातड़या मल्टो के तनकट की मानी जाती है। प्रोटोआस्रेलाइड पररिार की कु छ जाततयों ने अपने से अतधक उन्नत मेतडटेररयन (भू-मध्य सागरीय) पररिार की द्रतिड़-जाततयों के सम्पकग में आने से अपनी मौतलक भाषां को भूलकर द्रतिड़ भाषां को ही अपना तलया है, तजसमें छोटा (चुरटया) नागपुर के उरााँि प्रमुख हैं। इन बातों के कारण तिद्वान बहुत ददनों तक जाततयों के िगीकरण के सम्बन्ध में भ्रम में पड़े रहे, क्योंदक तब तक भाषायें ही िगीकरण का सबसे मुख्य आधार थीं। दकन्तु, जब मानि शातस्रयों ने िैज्ञातनक मापदण्ड अपनाए और नई िैज्ञातनक पद्धततयों को अपनाया तब उपयुगक्त भ्रम में पड़कर उरााँि आदद जाततयों को द्रतितड़यन मानना कम हुआ। एक ही प्रोटो-आस्रेलाइड जाततयों को दो समझकर उनका कोलेररयन और द्रतितड़यन पररिारों में िगीकरण दकया गया। शरत चन्द्र राय का भी यह ही मत था, दकन्तु इससे भी आियगजनक भ्रम इन्साइक्लोपीतडया का था, तजसने, पता नहीं, दकस आधार पर स्ियं मुण्डां को द्रतिड़ पररिार का माना है। उन्होंने तलखा है : "मुण्डा = छोटा नागपुर अंचल में रहने िाली द्रतिड़-असभ्य जातत तिशेष।'' यह भ्रमात्मक प्रचार माना गया। डॉक्टर गुहा ने ‘रे स एतलमेण््स इन दी इतण्डयन पॉपुलेशन’ में इस महत्िपूणग तसद्धान्त की स्थापना करके दक, जब कोई जातत अपने से अपेक्षाकृ त अतधक सभ्य जातत के सम्पकग में बहुत ददनों तक रहती है, तब िह प्राय: अपनी भाषा को भूलकर सभ्य जातत की भाषा अपना लेती है। इस भ्रम का तनराकरण कर ददया है। दुतनयााँ की बहुत सी जाततयों में यह बात हुई है। उरााँि और मुण्डा स्ियं इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। मुण्डा क्षेत्र में जो दो169

E.T.Dalton -The Oraons, Descriptive Ethnology of Bengal, 1872. Section 1, P. 215

170

http://en.wikipedia.org/wiki/Oraon

171

एम.एल.िमाग-उरााँि जनजातत

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http://jharkhandi.com/oraon.aspx

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91 चार घर उरााँि जहााँ-तहााँ आ बसे हैं, िे मुण्डा भाषा और उरााँि क्षेत्र के मुण्डा-उरााँि-भाषा बोलते हैं, तिशेषकर झारखण्ड़ में।173 आतस्रक पररिार की जो भाषायें भारत की जनजाततयों द्वारा बोली जाती हैं, उनका नाम तग्रयसगन ने कोलेररयन (या कोलभाषा-पररिार) ददया है। तग्रयसगन ने इन नाम को प्रचाररत करना चाहा, परन्तु फ्रेडररक तमलर ने इन भाषां को मुण्डा-भाषां की संज्ञा दी। इन मुण्डा भाषां का प्रचार भारत की आददम जाततयों में पहले से था और इन्हीं जाततयों के द्वारा भारत में पाषाण युग की सभ्यता का तनमागण हुआ था। इस प्रकार "मुण्डा' आतस्रक-पररिार की सारी भारतीय भाषां का नाम होने के साथ ही अपनी एक स्ितन्त्र उपजातत और उसकी भाषा का नाम भी है।174 कु ड़ुख भाषा का सम्मेलन अक्टूबर’2006 में रााँची (झारखण्ड़) में और 10 अक्टूबर’2009 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ। अब इस भाषा की पतत्रका भी तनकलती है। इस जनजातत में अंतरागतष्ट्रय स्तर के तखलाड़ी, परमिीर चक्र तिजेता, आचग तिशप, तशक्षातिद्, प्रशासक, राजनीततज्ञ आदद भी हुए। इस जनजातत के लोग मुण्ड़ा, नगेतसया, गोंड़, कं िर, खैरिार आदद जनजाततयों के साथ ग्रामों में तनिास करते हैं। इस जनजातत में तशक्षा प्राप्त कर आगे बढ़ जाने िाले उरााँि तो नगरों में रहने लगे और पूणगतीः कतथत मुख्य धारा में सम्मतलत हो गए। पर अतधकााँश उरााँि अभी भी उस तस्थतत से दूर हैं। इनके घर तमट्टी के बने होते हैं। तजस पर खपरै ल और लकड़ी की छत होती है। घर की देिार की पुताई तहन्दू उरााँि काली तमट्टी से और इसाई उरााँि चूने से करते हैं। फशग प्रततददन गाय के गोबर से लीपते हैं। घर में दो-तीन कक्ष होते हैं। घर के चारो ओर परछी (बरामदा) होती है। मुख्य कक्ष अपेक्षाकृ त्त बड़ा होता है, तजसमें अराध्य का स्थान होता है तथा अन्न रखने की कोठी भी यहीं रखी जाती है। रसोई परछी में होती है। इनके घरों में सामान्यतीः तमट्टी, एल्युमीतनयम, कााँसे और स्टील के बत्तगन; चुल्हा, ढ़ेंकी, मूसल, चक्की, ओढ़ने-तबछने-पहनने के िस्त्र, िाद्य यंत्र तिशेष कर मांदल (तमट्टी से बना मृदग ं ), कृ तष उपकरण, मछली पकड़ने का जाल आदद होते हैं। उरााँि लोग प्रततददन दातौन कर स्नान करते हैं। पुरूष के श छोटे रखते हैं। मतहलाएाँ लम्बे बाल रखती हैं, तजसकी िेणी या जूड़ा बनाती हैं। के श धोने हेतु काली तमट्टी या साबुन का उपयोग करते हैं। पुरूष छोटी धोती और अंगरखा तथा मतहलाएाँ लुगड़ा और पोलका पहनती हैं। इसाई उरााँि पुरूष पेंट, शटग और मतहलाएाँ साड़ी, पेटीकोट, ब्लाऊज, अंतीःिस्त्र, सलिार सूट आदद पहनते हैं। सामान्यतीः इनका भोजन चािल, गोंदली और कोदो का भात और पेज है। इसके साथ उड़द, मूाँग, कु ल्थी, अरहर आदद की दाला या मौसमी सब्ज़ी खाते हैं। मााँसाहारी हैं। मुगाग, मछली, बकरा, खरगोश, सुअर, तहरण, चूहा आदद का मााँस खाते हैं। एक स्रोत175 में यह उल्लेख है दक, सरगुजा में खेतो से चूहों को, उरााँि जनजातत के लोग, मारकर खाते रहे हैं। चूहे खेतो के मेढ़ में तबल बनाकर रहते हैं। इसके तलए मेढों को

173

पूनम तमश्र- मुण्डा भाष:एक पररचय (http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/jk017.htm)

174

िही

175

http://edharhai.blogspot.com/2010/02/blog-post_7594.html

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92 खोदकर, चूहों को तनकालते हैं और जमीन पर पटक-पटक कर मारते हैं।176 आयोजन और उत्सि आदद में चािल से बनी शराब हंतड़या पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। इन्हे खाने-पीने का खूब शौक है।177 उरााँि जनजातत का आर्थथक दक्रयाकलाप मजदूरी और िनोपज संग्रह है। िनों से माहुल पत्ता, महुआ, गुल्ली, साल बीज आदद एकत्र कर तिक्रय करते हैं। कृ तष पहाड़ी ढ़लानों पर है। िे कोदो, गोन्दली, धान, उड़द, मूाँग, कु ल्थी, तुअर आदद बोते हैं। अब तनचली भूतम पर भी खेती करने लगे हैं। िषाग काल में स्ियं के उपयोग हेतु मत्सय आखेट करते हैं। पढ़े तलखे लोग तितभन्न नौकररयााँ करते हैं। शासकीय नौकरी और चाय बगानों की नौकररयों में भी हैं।

तचत्र 29 - सरगुजा में भोज्य चूहों सतहत उरााँि

30 - नृत्यरत उरााँि

स्रोत्त- http://edharhai.blogspot.com/2010/02/blog-post_7594.html और tribes-of-india.blogspot.com

यह जनजातत भी कई उपजाततयों में बाँटी है। यथा- उरााँि, धााँगड़, धनका, कोड़ा आदद। धमग के आधार पर संसारी अथागत तहन्दू उरााँि और इसाई उरााँि में तिभक्त हैं। उपजाततयााँ बर्थहतििाही गोत्रों में तिभक्त हैं। अतधकााँश उरााँि लोग अपने नाम के साथ अपना गोत्र भी तलखते हैं। ताना भगत या सरना धमग को मानने िाले उरााँि गोत्र के स्थान पर भगत तलखते हैं। कई लोग गोत्र के स्थान पर उरााँि ही तलखते हैं। सभी गोत्र टोटम आधाररत हैं। यह हैं- दकरदकटा, खलखो, खाखा, खेस्स, ततकी, टोप्पो, ततग्गा, कु जुर, बमज, एक्का, बरला, बारिा, इन्दिार या इन्द, बेक, लकड़ा, धनिार, भगिार, ककड़ो, कच्छप, दकस्पोटा, कांड़ा, कोकरो, गदद्द, खोया, चमगकों, ददेल, तनया, पन्ना, बंकुला, बासा, बन्दो, भगत, बबको, मुंजनी, रूंड़ा, बलड़ा, सोन, रािन आदद। इसाई धमग अपनाने िाले कु छ उरााँि टोप्पो के स्थान पर माजी तलखते हैं। उड़ीसा में कु छ लोग मूड़ी और रथ भी तलखने लगे हैं। प्रसि घर पर सयानी (बुजुगग) मतहला की देखरे ख में कराया जाता है। नाल जच्चा के मैके से प्रदत्त छु री को आग से तपाने के उपरााँत से काट घर पर गाड़ते हैं। प्रसूता को सोंठ, अजिाइन, गुड़, घी, नाररयल आदद से बना लड्ड़ू तखलाते हैं। छठी पर शुतद्ध करते हैं। जच्चा-बच्चा को स्नान करा निीन िस्त्र पहनाते हैं। ररश्तेदारों से आतशिागद लेते हैं। उन्हें हंतड़या तपलाते हैं। व्यस्क तििाह है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष द्वारा दकया जाता है और सुक भराई में शराब, बकरा, चािल, दाल, शाक आदद ददया जाता है। इसमें नगद रातश सम्मतलत नहीं है। तििाह रस्में जातत के बुजुगग व्यतक्त की देखरे ख में सम्पन्न होती हैं। इसाई उरााँि को तििाह के पूिग 3 से 7 ददिस तक तगरजा घर में तशक्षा दी जाती है। इनका तििाह कभी जातत प्रथा अनुसार तो कभी चचग में सम्पन्न होता है। इनमें भी सहपलायन, ढ़ुकु (घुसपैठ), तितनमय, घरजमाई प्रथा, तिधिा और पररत्यक्ता पुनर्थििाह को सामातजक मान्यता है।

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http://edharhai.blogspot.com/2010/02/blog-post_7594.html

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रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड़-झनकार,पृ.78

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93 शि गाड़ते हैं। सम्पन्न सनसारी अथागत तहन्दू उरााँि जलाते भी हैं। मृत्यु के तीसरे ददिस तीही नहिन हेतु ररश्तेदार एकत्र होते हैं। इसी ददन से शुतद्ध मानी जाती है। तीन माह पिात गमी मानाते हैं। अब भोज ददया जाता है। इसाई उरााँि की मृत्यु पर पादरी (इसाई पुजारी) को बुलाते हैं। िह अंतमलन संस्कार करता है, तजसमें ज्ञान, धमग आदद का उपदेश दे पापों का प्रायतित करा आत्मा की शााँतत हेतु प्राथगना कराई जाती है। उरााँि जीिन चक्र का एक स्पष्ट िणगन भी रघुिीर प्रसाद द्वारा उल्लेतखत हुआ है।178 उनके शब्दों में यह है- उपज काट कर अनाज घर में आने और अपने उपभोग हेतु सुरतक्षत करने के उपरााँत शेष को बेच देते हैं। इसके तत्काल उपरााँत चैन और संतुतष्ट के ददन प्रारम्भ होते हैं। पहुनाई, तििाह, शराब, मनोरं जन प्रमुख कायग हो जाता है। पूिग में जो मुदे गाड़े गए होते हैं, धान कटाई और गाही के पिात एक ददन तनतित दकया जाता है, अतििातहत मुदों को छोड़ शेष शिों को उखाड़ कर उनकी कब्र के पास उन्हें जलाते हैं। बची हुई हतड्डयों में औरतें तेल और हल्दी लगाती हैं और मृतक की मृण मूर्थत बना, हतड्ड़यों समेत टोकररयों में रखकर नदी या तालाब में तसरा देती हैं। इसके पिता सभी लोग घर लौट आते हैं। यहााँ एक भोज होता है और भोज के उपरााँत रात भर नाचते-गाते हैं। इस नाच को हड़बोरी कहते हैं। इस प्रथा के होने के उपरााँत ही तििाह प्रारम्भ दकए जा सकते हैं। उरााँि लोग प्रसन्नतचत रहते हैं और मददरा प्रेमी हैं। अगले कई माहों तक गााँिों में नाचना-गाना ही होता है और ढ़ोल की ही आिाज़ सुनाई देती है। तििाह जिान होने पर होता है। समान्यतीः मााँ-बाप ही तििाह पक्के करते हैं। लड़के -लड़की अपना तििाह ‘घुमकु ररया’ में पक्के करते हैं। छोटे घरों के कारण गााँि में एक अलग मकान होता है। इसमें सभी अतििातहत लड़के सोते हैं। इस मकान को घुमकु ररया कहते हैं। लड़दकयााँ भी अपने मााँ-बाप के मकान में नहीं सोतीं और गााँि की तिधिां के साथ सोने भेज दी जाती हैं। िहााँ से िे भी घुमकु ररया पहुाँच जाती हैं। यहााँ नाच-गाना होता रहता है। तििाह पक्का हो जाने पर लड़का बारात ले कर जाता है। बाराती बनािटी अस्त्र-शस्त्र से सजे होते हैं। तिशेषकर तीरकमान से। लड़की िाले भी िैसी ही सजधज के साथ लड़की समेत बाहर आते हैं। लड़का और लड़की अपनेअपने दकसी साथी की गोद में चढ़े रहते हैं। दफर दोनों भागों में बनािटी लड़ाई होती है। इसके बाद सब तमल कर गााँि जाते हैं आउर रात भर शराब तपलाई जाती है, नाच-गाना होता है। दूसरे ददन िर-िधू को तेल, हल्दी लगा कर मण्ड़प के नीचे लाते हैं। िहााँ हल का एक जुआ, कु छ घर छाने की घााँस और एक पत्थर की तसल रखी हुई होती है। िर-िधु उस तसल पर खड़े होते हैं, िधू के पीछे िर खड़ा होता है। दफर दोनों एक कपड़े में लपेट ददए जाते हैं। तसफ़ग उनके पैर और तसर खुले रहते हैं। एक कटोरे में बहुत सा तसन्दूर लाकर िर को ददया जाता है, जो उससे तीन रे खा िधू के माथे पर बनाता है। िधू भी इसी प्रकार तीन रे खाएाँ िर के माथे पर बानाती है, पर उसकी पीठ िर की तरफ होने के कारण िह माथे को नहीं देख सकती, इसतलए िर के मुहाँ पर कहीं भी तसन्दूर लग जाता है। उपतस्थत लोग इस पर हंसते हैं और उसी िक्त मण्ड़प के ऊपर से पानी से भरी हुई हंतड़या दकसी यत्न से िर-िधू पर ढ़ुलका दी जाती है और िे पानी से तबल्कु ल भीग जाते हैं। उपतस्थत औरते जैसे ही ‘तििाह हो गया, तििाह हो गया’ कह कर तचल्लाती हैं और िर-िधू एक कमरे में भेज ददए जाते हैं, जहााँ िे अपने कपड़े बदलते हैं। इसके बाद खा-पीना होने पर िर-िधू सतहत बारात रिाना होती है। तििाह, मरण इत्यादद प्रथां में क्रमशीः पररित्तगन होता जा रहा है। जो लोग इसाई गये हैं, उन्होंने इसाईयों की प्रथा स्थातपत कर ली है। बाकी दूसरे लोग तहन्दुं की प्रथा ग्रहण करते जाते हैं। उरााँिों में सबसे बड़ी कसम थोड़ा सा गोबर, धान और तमट्टी तसर पर रखना है। ऍसी हालत में अगर कोई झूठ बोलता है, तो उन लोगों के तिचार से, उसका सत्यानाश हो जाना चातहए। गााँिों यदद दकसी के यहााँ चोरी हो गई तो एक कु म्हड़े का तुम्बा लेकर घर-घर से उसमें थोड़ा-थोड़ा पानी डलिाते हैं, दफर उस पानी से भरे हुए तुम्बे को और एक काली मुगी को गााँि के लोहार के पास कु छ चािल उस मुगी के सामने डालते हैं। जैसे ही मुगी चािल चुनना शुरू करती है, िैसे ही उसका गला काटकर उसका खून तुम्बे के पानी में ड़ालते हैं।

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रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड़ झनकार,पृ.78 से 81

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94 दफर िह सब पानी लोहार की धौंकनी में भरते हैं। तजससे धौंकनी फू ल जाती है। तब खाली तुम्बे को लेकर दफर गर-घर जाते हैं और इस िक्त, तजसने चोरी की हो, माल दे देता है। उनका तिश्वास है दक, अगर पहले पानी देने िालों में से कोई चोर है तो उसका पेट लोहार की धौंकनी के समान फू लकर फट जाएगा। उरााँि जनजातत में भी पारम्पररक जातत पंचायत होती है। ग्राम की जातत पंचायत का प्रमुख महतो कहलाता है। यह जातत पंचायत जातत समस्या, िैिातहक तििाद, अनैततक सम्बन्ध, सम्पतत बाँटिारा आदद का तनपटारा करती करती है। साथ ही जातत के तलए ग्राम की सरना पूजा, करमा पूजा आदद की भी व्यिस्था करती है। कई ग्रामों की जातत पंचायतों को तमला कर परहा पंचायत बनाते हैं। इसका प्रमुख परहा राजा कहलाता है और इसमें अन्य पदातधकारी हैं- दीिान, कोटिार, पनेरी, पनभरिा, मुकतिा आदद। इसमें ग्राम की जातत पंचायत के अनसुलझे प्रकरण तनराकृ त्त दकए जाते हैं।179 उरााँि भूत-प्रेत पर तिश्वास करते हैं। तिपतत्त और रोग को भूत और डायन की करतूत माना जाता है। बैगा से तनदान कराते हैं। बकरे या मुगी की बतल देते हैं। जादू-टोना पर तिश्वास है। पहले, गााँि की दकसी गरीब बुदढ़या पर जादू करने का शक कर उसे डायन करार देते थे। उससे भी पहले, कतथत डायन को रााँची की सीमा पर तस्थत एक पहाड़ पर ले जाकर नीचे पथरीली खाई में धके ल कर मार डालते थे। इस पहाड़ को डायन थेरहा पहाड़ कहते थे।180 उरााँि जनजातत का धमग सरना है। तहन्दू धमग की तरह पालन करने िाले कई समूह भी हैं। यथाभगतों के कई समूह, तिष्णु भगत, बबतछदान भगत, कमग भगत और ताना भगत। कु छ उरााँि सरना धमग का पालन इसाई तरीकों से भी करते हैं। तिष्णु और बबछंदान भगत तिष्णु पूजक, कमरू और ताना भगत तशि और दुगाग पूजक हैं। उरााँिों के प्रमुख अराध्य धमेश अथागत सूयग हैं। िे धमेश को बड़ा देि भी कहते हैं। उरााँि प्राकृ ततक पूजक हैं। उनके गोत्र भी प्राकृ ततक टोटम प्रणाली से आए। इनमें जातत प्रथा नहीं है। ग्राम देिीदेितां में अन्धेरी पाट, चण्ड़ी, गााँि देिता, पाट राजा आदद हैं। निरातत्र के समय जशपुर नगर की देिी को बकरा भेंट करते हैं। त्योहारों में सुअर, बकरा, मुगाग आदद की बतल देते हैं। मंत्र तंत्र का जानकार और पुजारी पाहन कहलाता है। उसे पहनी खेत के नाम से भूतम दी जाती है। भगत समूह की स्थापना जात्रा और तुररया भगत द्वारा की गई। ताना भगतों ने उपतनिेशिादी करों का तिरोध दकया। िे गााँधी जी के कई आन्दोलनों में सम्मतलत हुए। पूरे भारत में सम्भितीः ताना भगत ही ऐसा समुदाय है, तजसके सदस्यों का ददन प्रारम्भ होता है, ततरं गे की पूजा के साथ। 1914 में 24 िषीय जतरा ताना भगत के नेतृत्ि में उरााँि जनजातत के लोगों ने संकल्प तलया दक, िे ज़मींदारों के खेत में मज़दूरी नहीं करें गे और अंग़्रेज़ी हुकू मत को लगान नहीं देंगे। इस पहल ने आगे चलकर पंथ का रूप तब ले तलया। जब इस समुदाय के लोगों का संपकग महात्मा गााँधी के साथ हुआ तब अबहसा और सत्याग्रह के आह्िान पर ताना भगतों ने सादी बज़दगी जीने का संकल्प तलया तजस पर िो आज भी क़ायम हैं। िे तजस ततरं गे को पूजते हैं िो पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस का चरखे िाला झंडा है। इस झंडे को िो आज़ादी की लड़ाई का प्रतीक मानते हैं। इसतलए उनकी स्िभातिक राजनीततक आस्था कांग्रेस पाटी के साथ भी रही है। स्ितंत्रता संग्राम में असहयोग आंदोलन के दौरान गााँधी के साथ कं धे से कं धा तमलाकर चलने और स्ितंत्रता आन्दोलन का साथ देने के कारण उन्होंने लगान देनी बन्द कर दी। अंग़्रेजी हुकू मत ने लगान नहीं ददए जाने के कारण उनकी ज़मीनों को नीलाम कर ददया। ताना भगतों में पहुत सारे ऐसे पररिार हैं तजनकी ज़मीनें तब्रतानी हुकू मत ने नीलाम कर ली। आज भी िे इन छीनी भूतमयों की िापसी की बाट जोह रहे हैं। मगर सरकारी आंकड़े बताते हैं दक, ताना भगतों की लगभग 2,486 एकड़ ज़मीन आज 179

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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रघुिीर प्रसाद-झारखण्ड़ झनकार,पृ.77-78

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95 भी उन्हें िापस नहीं तमली और इस संबंध में अभी भी 703 मामले झारखंड की तितभन्न अदालतों में चल रहे हैं। ताना भगतों का मानना है दक, उनके पूिगजों ने अपने बच्चों का नाम तमशन के स्कू लों से इस तलए कटिा ददया था दक, िो अंग़्रेजों के एजेंट थे और सरकारी स्कू लों से इसतलए कटिा ददया गया क्योंदक िो अंग्रेज़ हुकू मत के अधीन थे। अतीः िे लोग 1914 से लेकर 1947 तक, देश की आज़ादी की ख़ाततर, स्कू ल नहीं गए और इस िजह से पूरा समूह बुरी तरह से तपछड़ गया।181 यह माना जाता है दक, बंगाल के कु ख्यात अकालों से उत्पन्न भुखमरी में, अन्न के बदले धमग पररित्तगन कराने का कायग, इसाई तमशनररयों ने, इस क्षेत्र में सिागतधक उरााँि लोगों के साथ ही दकया। िे उन्हें अनाज ही तब देते थे, जब िे इस धमग को अपना लें।182 आज यह तथ्य अन्य सुतिधां यथा- तशक्षा, उपचार आदद के एिज में है। जशपुर क्षेत्र के आददिातसयों ने लगभग एक सौ िषग पूिग बेतल्जयम से आये तमशनररयों से इसाई बपततस्मा संस्कार पाया था। सन 1951 में रााँची धमगप्रााँत से अलग कर रायगढ़-अतम्बकापुर धमगप्रााँत बनाया गया था। 1977 में अतम्बकापुर और सन 2006 में जशपुर धमगप्रााँत की रचना हुई थी। रायगढ़ के धमागध्यक्ष तिक्टर ककडो को स्थानांतररत कर जशपुर धमगप्रााँत का पहला धमागध्यक्ष बनाया गया था। जशपुर धमगप्रााँत का मुख्यालय कु नकु री में है, जहााँ एतशया का सबसे बड़ा तगरजा घर (चचग) बनाया गया है। छत्तीसगढ़ राज्य में जशपुर धमगप्रााँत में काथतलकों की संख्या सिागतधक है। लगभग एक लाख अठासी हजार कै थतलकों में अतधकांश उरााँि जनजातत के हैं।183 उरााँि जनजातत में भी लोक गीत और लोक नृत्य हैं। करमा, सरहुल, तििाह आदद नृत्य हैं और करमा, सरहुल, फागुन, सोहराई, भजन आदद गीत हैं। िे परम्परा और इततहास को भी नृत्य और गीत में तपरोते हैं। इनमें तशक्षा का प्रचार हुआ है और िे कई जनजाततयों से तशक्षा में आगे हैं। इस कारण तिकास की ओर अग्रसर भी हुए हैं। पररित्तगन भी अतधक आया है। मकान, िेशभूषा, आभूषण, रहन-सहन, बोल-चाल, तिश्वास, परम्परा, लोककला, खान-पान आदद सभी में पररित्तगन हुआ है। इसाई धमग की ओर भी आकृ ष्ट हुए हैं। धार्थमक आस्था में संशय आ गया है। तत्काल धमग बदलाि के बािज़ूद पारम्पररक मान्यताएाँ और तिश्वास िही हैं, िरन अजब घालमेल की ओर प्रिृत्त हो गए हैं। अधुतनक तशतक्षत कु ड़ुख बोली के प्रतत भी उदासीन हैं। तपछड़ी कृ तष, पढ़ गए युिक-युिततयों का ग्रामों से पलायन, हंतड़या और शराब सेिन इनकी समस्यां में है। उपतनिेश काल में छोटा (चुरटया) नागपुर क्षेत्र और उरााँिों से कु छ तिद्रोह भी सम्बतन्धत रहे। कु छ का उल्लेख यथा स्थान, ऊपर आ भी गया है। कु छ का उल्लेख यहााँ दकया जा रहा है। 1767 में छोटा (चुरटया) नागपुर (झारखण्ड) के आददिातसयों ने तब्ररटश सेना का धनुष-बाण और कु ल्हाड़ी से बहसक तिरोध शुरू दकया था। 1773 में घाटतशला में भयंकर तब्ररटश तिरोधी संघषग शुरू हुआ। आददिातसयों ने स्थायी बन्दोबस्त (1793 ई.) के तहत जमीन की पैमाइश और नई जमाबन्दी का घोर तिरोध प्रारम्भ हुआ । तमाड़ तिद्रोह (1789-94) आददिातसयों द्वारा चलाया गया था । छोटा (चुरटया) नागपुर के उरााँि जनजातत द्वारा

181

http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2006/08/060814_independence_tana.shtml

182

http://en.wikipedia.org/wiki/Oraon

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http://storico.radiovaticana.org/in1/storico/2010-02/354745.html

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96 जमींदारों के शोषण के तखलाफ तिद्रोह प्रारम्भ दकया गया। चेर तिद्रोह 1800 ई. में प्रारम्भ हुआ था। 1776 ई. समयाितध में अंग्रेज पलामू के चेर शासक छत्रपतत राय से दुगग की मााँग की। छत्रपतत राय ने दुगग समपगण से इंकार कर ददया। फलतीः 1777 ई. में चेर और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ और दुगग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। बाद में भूषण बसह ने चेरों का नेतृत्ि कर अंग्रेजों के तखलाफ तिद्रोह कर ददया।1860 में मुण्डा एिं उरााँि जनजातत के लोगों ने जमींदरों के शोषण और पुतलस के अत्याचार का तिरोध करने के तलए संिैधातनक संघषग प्रारम्भ दकया। इसे सरदारी लड़ाई कहा जाता है। यह संघषग रांची से प्रारम्भ होकर बसहभूम तक फै ल गया और लगभग 30 िषों तक चलता रहा। बाद में इसकी असफलता की प्रततदक्रया में भगीरथ मांझी के नेतृत्ि में खरिार आन्दोलन संथालों द्वारा प्रारम्भ दकया गया, लेदकन यह प्रभािहीन हो गया।184 22. पािीःपाि जनजातत, छत्तीसगढ़ राज्य की, अल्पसंख्यक जनजातत है। इनकी जनसंख्या 2001 में 1307 थी। राज्य में इनका तनिास तबलासपुर तजले में मध्यप्रदेश के अनूपपुर तजले से लगे क्षेत्र में है। इस जनजातत की उत्पतत्त पर एततहातसक और आधुतनक िैज्ञातनक शोध नहीं हैं। इनकी ककिदंतत के अनुसार यह लोग अपनी उत्पतत्त परे ल िंश से मानते हैं, तजसके कारण पाि संज्ञा तमली।185 पाि लोग ग्रामों में गोंड़, कं िर आदद जनजाततयों के साथ तनिास करते हैं। इनके आिास तमट्टी और काष्ठ के बने होते हैं, तजस पर घास-फू स की छत होती है। कु छ ही घरों में खपड़े की छत होती है। इनके आिास तीन-चार कक्षों के होते हैं। घर के साथ आाँगन होता है। सोने और रहने के कक्ष को कहिा कहते हैं। फशग तमट्टी का होता है, तजसे गाय के गोबर से लीपा जाता है। दीिारें की पुताई छु ई (श्वेत या पीत तमट्टी) से की जाती है। इनके घरों में घरे लू िस्तुएाँ कम ही हैं। यथा- भोजन बनाने और खाने के बत्तगन (एल्युमीतनयम, तमट्टी, कााँसा आदद), चारपाई, चक्की, ओढ़ने-तबछाने के कपड़े, मत्स्य आखेट का जाल, कृ तष उपकरण, नृत्यसंगीत के िाद्य यंत्र आदद। बबूल, हराग या नीम की 15-20 सेंटीमीटर लम्बी पतली टहनी के दातौन से दााँत साफ करते हैं। दोतीन ददन के अंतराल से स्नान करते हैं। मतहलाएाँ के श काली तमट्टी से से साफ करती हैं। शरीर और के श में स्त्री, पुरूष दोनों गुल्ली का तेल लगा कं घी करते हैं। मतहलाएाँ चोटी बनाकर जूड़ा बनाती हैं। पुरूष धोती-कु ताग पहनते हैं। िे तसर पर पगड़ी बााँधते हैं। मतहलाएाँ पोलकी (एक प्रकार का ब्लाऊज) और लुगड़ा पहनती हैं। िे हस्ततशल्प से गुदना भी गुदिाती हैं। पाि लोगों का प्रमुख आहार मक्का, कोदो, कु टकी या चािल का पेज है। िे बटरा (मटर), उड़द, मसूर, अरहर, मूाँग आदद की दाल; मौसमी सब्जी; कन्द-मूल आदद भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं। कभी-कभी मछली, बकरा, तहरण, खरगोश आदद खाते हैं। त्योहार, उत्सि आदद अिसरों पर महुए की शराब पीते हैं। इनका जीिकोपाजगन कृ तष, िन उपज संग्रह, मजदूरी और तशकार पर तनभगर है। यह लोग धान, मक्का, ज्िार, कोदो, कु टकी, उड़द, मूाँग, अलसी, राई आदो उगाते हैं। तपछड़ी कृ तष और अबसतचत भूतम होने 184http://biharjourney.blog.co.in/2010/06/22/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D

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97 से पैदािार कम है। िनों से महुआ, गुल्ली, तेन्दूपत्ता, लाख, तचरौंजी, आाँिला, इमली आदद एकत्र कर बेचते हैं। जंगली कन्द-मूल-फल स्ियं के उपयोग हेतु भी लेते हैं। पहले तशकार भी करते थे। अब गौण है। िषाग काल में स्थातनय जल स्रोतों से स्ियं के उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। पाि जनजातत में भी सगोतत्रय तििाह नहीं है। इनमें भी कई गोत्र है। तजनमें सभी का अपना प्रतीक अथागत टोटम है। तशशु जन्म ईश देन माना जाता है। प्रसि हेतु स्थातनय दाई को बुलाते हैं। पररिर और ररश्ते की मतहलाएाँ भी प्रसि समय पर उपतस्थत रहती हैं। प्रसि उपरााँत दाई नाल को ढ़लेल या चाकू से काटती है। नाल घर पर गाड़ी जाती है। प्रसूता को गुड़, सोंठ, काली तमचग, अजिाईन, गोन्द आदद के तमश्रण से बना लड्डू तखलाते हैं। छठी पर शुदद्द करते हैं। जच्चा-बच्चा दोनों को स्नान करा सूरज और कु ल अराध्य को प्रणाम कराते हैं। ररश्तेदारों को खाना तखलाते हैं। दाई को अनाज, िस्त्र आदद देते हैं। इस जनजातत में लड़कों की तििाह आयु समान्यतीः 17-18 और लड़दकयों की 15-16 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष की ओर से रखा जाता है। िधु पक्ष की सहमतत तमलने पर िर तपता िधु तपता को अनाज और नगद रूपए देता है। तििाह की रस्म जातत का बुजुगग व्यतक्त पूरी कराता है। इस जनजातत में भी सेिा तििाह, तितनमय, पुनगतििाह, तिधिा तििाह आदद को समातजक मान्यता प्राप्त है। अतधकांशतीः शि गाड़ते हैं। कभी-कभी प्रतततष्ठत व्यतक्त का शि जलाते भी हैं। बच्चों का शि गाड़ा ही जाता है। मृतक संस्कार तृतीय ददिस कर भोज ददया जाता है। पाि जनजातत में भी परम्परागत जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। गौंरटया का पद िंशानुगत है। इस पंचायत का कायग तििाह, तलाक, देिी-देितां की पूजा, बतल-व्यिस्था, अनैततक सम्बन्ध, उत्तरातधकार, सम्पतत्त आदद तििादों का परम्परागत ढ़ंग से तनराकरण है। पाि जनजातत के अराध्य हैं- बड़का (बूढ़ा) देि, ठाकु र देि, दुल्हा देि, बूढ़ी माई, सभी तहन्दू देिीदेिता, सूयग, चन्द्र, िृक्ष, नदी, नाग आदद। भूत-प्रेत और जादू-टोने पर तिश्वास है। इनके त्योहार हैं- हरे ली, नाग पंचमी, नि रात्री, दशहरा, दीपािली, होली आदद। लोक नृत्य करते और लोक गीत गाते हैं। इनमें तशक्षा अल्प है। तिकास के अनुक्रम में इनकी िेषभूषा, बोलचाल, रहन-सहन, लोक कला, खानपान आदद में बदलाि आया है। अथागभाि इनकी प्रमुख समस्या है। 23. परधानीःपरधान जनजतत छत्तीसगढ़ राज्य में रायपुर सम्भाग के कबीरधाम और तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर तजलों में तनिास करती है। 2001 में इनकी जनसंख्या 10,481 थी। गोंड़ जनजातीय समुदाय की तितभन्न उपजाततयााँ अपने पारम्पररक तनधागररत कायग करती हैं। इस पर गोंड़ जनजातत पर लेख खण्ड़ में चचाग की जा चुकी है। अतीः सन्दभग हेतु उसे देखा जा सकता है। उसी अनुक्रम में परधान जनजातत भी गोंड़ जनजातत के पुजारी और गायक-संगीतज्ञ का कायग करती है। परधान गायक हमेशा गोंड राजां की प्रशंसा करते हुए गीत गाया करते थे। उनके गीतों के माध्यम से गोंडो के डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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98 अतीत जीतित रहा। कु छ लोग परधान को गोंडो के चारण कति कहते हैं। उनके गोंडिानी और करम सैनी, गोंड जनजातत के अतीत के बारे में है, तजसमें इततहास एिं तमथकों की झलके हैं। इन्हें और देिारों को पण्ड़िानी गायन से जोड़ा जाता है। पंड़िानी छत्तीसगढ़ का िह एकल नाट्ड है तजसका अथग है पााँड़ििाणी अथागत पााँड़िों की कथा, जो दक महाभारत की कथा है। अतीः यह महाभारत की कथा का गायन-िादन के साथ स्थातनय मंचीय प्रदशगन है, हालााँदक इसमें अजुगन के स्थान पर भीम नायक के स्थान पर है। ये कथाएं छत्तीसगढ़ की परधान तथा देिार जाततयों की गायन परंपरा है। परधान गोडों की एक उपजातत है और देिार धुमन्तू जातत है । इन दोनों जाततयों की बोली, िाद्यों में अन्तर है। परधान जातत के कथा िाचक या िातचका के हाथ में "कककनी" होता है और देिारों के हाथों में रून्झू होता है । परधानों ने और देिारों ने पंड़िानी लोक महाकाव्य को पूरे छत्तीसगढ़ में फै लाया। परधान जातत के गायक अपने यजमानों के घर में जाकर पंड़िानी सुनाते थे।186 परधान जातत की पण्ड़िानी महाभारत पर आधाररत होने के साथ-साथ गोंड तमथकों का तमश्रण है। जहााँ महाभारत का नायक अजुगन है िहीं पण्डिानी का नायक है भीम। भीम ही पाण्डिों की सभी तिपतत्तयों से रक्षा करता है। पण्डिानी में मााँ कु न्ती को माता कोतमा कहा गया है और गान्धारी को गन्धाररन। गन्धाररन के इक्कीस बेटे बताए गए हैं। पण्डिानी में तजस क्षेत्र को ददखाया गया है, िह छत्तीसगढ़ ही है। पााँण्ड़ि जहााँ रहते थे उसे जैतनगरी कहा गया है। कौरिों के तनिास स्थान को हसना नगरी कहा गया है। पण्डिानी में पााँण्ड़ि तथा कौरि - दोनों पशुपालक है। पााँण्ड़ि और कौरि पशुं को लेकर चराने जाते थे। पशुं में थे गाय, बकररयााँ और हाथी। कौरि हमेशा अजुगन को तंग दकया करते थे और भीम ही थे जो कौरिों को सबक तसखलाते थे। एक कथा यह है- पण्डिानी में कौरिों ने एक बार भीम को भोजन के साथ तिष तखलाकर समुद्र में डु बा ददया। भीम जब पाताल लोक में पहुाँचता है, सनजोगना उसे अमृत तखलाकर पुनजीतित करती है। सनजोगना नाग कन्या थी, जो पाताल लोक में भीम और सनजोगना का तििाह होता है। कु छ ददन के बाद भीम छटपटाने लगता है, अपना मााँ और भाईयों को देखना चाहता है। तब सनजोगना भीम को पाताल लोक से समुद्र तट पर ले आती है। भीम अपनी माता कोतमा और चार भाईयों के पास पहुाँचकर बहुत खुश हो जाता है। जब कौरिों ने लख महल में पाण्डिो को मारना चाहा, भीम ही था जो पाताल लोक तक एक पथ का तनमागण करता है और सबकी सुरक्षा करता है। इस घटना के बाद भीम अपनी मााँ और भाईयों को लेकर बैराट नगर पहुाँचता है। तिराट नगर (पंड़िानी में बैराट नगर) के राजा का नाम संग्राम बसह है। उसी तिराट नगर में कीचक का भीम िध करता है। पण्डिानी में महाभारत के युद्ध को महाधान की लड़ाई बताया गया है। और इस युद्ध के संदभग में द्रौपदी की सोच बहुत ही अलग ददखाई गई है। पंड़िानी करने के तलए दकसी त्यौहार या पिग की जरुरत नहीं होती है। कभी भी कहीं भी पंड़िानी आयोतजत कर सकते हैं। कभी-कभी कई रातों तक पंड़िानी लगातार चलती रहती है। ितगमान में पंड़िानी गातयका गायक तंबूरे को हाथ में लेकर मंच पर घूमते हुए कहानी प्रस्तुत करते हैं। तंबरू े कभी भीम की गदा तो कभी अजुन ग का धनुष बन जाता है। संगत के कलाकार पीछे अधग चन्द्राकर में बैठते हैं। उनमें से एक "रागी" है जो हुंकारु भरते जाता है और साथ-साथ गाता है, रोचक प्रश्नों के द्वारा कथा को आगे बढ़ाने में मदद करता है। पंड़िानी की दो शैतलयााँ हैं - एक है कापातलक शैली जो गायक गातयका के स्मृतत में या 186http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B5%E0%A4%BE

%E0%A4%A8%E0%A5%80 और http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/chgr0031.htm

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99 "कपाल"में तिद्यमान है। दूसरी है िेदमती शैली तजसका आधार है शास्र। कापातलक शैली िाचक परम्परा पर आधाररत है और िेदमती शैली खड़ी भाषा में सबलबसह चौहान के पद्य महाभारत पर आधाररत है।187

तचत्र 31 - पण्ड़िानी गायन

स्रोत-hi.wikipedia.org

कु छ क्षेत्रों में परधानों ने तचत्र कला में भी रूतच ददखाई। बडडोरी- मंडला के परधान जनजातत के तचत्राकारों ने, तपछले दो ढाई दशक में जो तचत्र बनाए, िह समकालीन गोंड तचत्रकला या जणगण कलम के नाम से जाने गए। आज पचास से अतधक परधान और गोंड तचत्रकार जो रचनाएं कर रहे हैं, िे समकालीन हैं। उसके संदभग उनकी प्रकृ तत, िातािरण, गीतों, कथां और तमथ कथां में हैं।188 परधान जनजातत की उत्पतत पर एततहातसक और आधुतनक िैज्ञातनक शोध होने हैं। ककिन्दंतत अनुसार- प्राचीन काल में सात भाई- गोंड़, बैगा, गोंड़ ग्िारी, अगररया, ढ़ुतलया, नगारची और परधान- थे। िे बूढ़ा देि (महा देि) पूजन को गए। सभी भाई पूजा उपरााँत िापस आ गए, परंतु छोटा भाई परधान ने बााँस से िाद्य यंत्र (कककनी) बना बूढ़ा देि की स्तुतत कर बजाने लगा। मधुर स्िर और लय बद्धता से प्रभातित हो बूढ़ा देि ने प्रगट हो संगीत और पूजा में तनपुड़ता का आतशिागद ददया। इसी के िंशज परधान जातत के लोग हुए और यह ही कायग करने लगे। परधान गोंड़ जनजातत की ही शाखा मानी जाती रही है, पर उनसे तनम्। िे उनके पुजारी और मंत्री का कायग करते रहे। परधान शब्द संस्कृ त्त से मंत्री आदद होने के कारण प्रयुक्त हुआ। िे गोंड़ लोगों से अतधक बुतद्धमान माने गए। गोंड़ लोग और िे स्ियं अपने को पनल कहते हैं। परधान संज्ञा बहुसंख्यक तहन्दू लोगों द्वारा दी गई। यह लोग परगतनहा, देसाई और पठारी भी कहलाते हैं। परगतनहा परगने के प्रमुख को भी कहा जाता रहा है। देसाई देशमुख की तरह भू राजस्ि अतधकारी को कहा जाता था। पठारी िंशानुगत भाट या पहाड़ी हेतु प्रयुक्त होता रहा है। छत्तीसगढ़ में इन्हें परधान पठाररया कहा जाता है।189

187

http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/chgr0031.htm और

http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E 0%A4%A8%E0%A5%80 188

निल शुक्ल-आददिासी सातहत्य की उपतस्थतत (तदभि-दतलत तिशेष अंक)

(http://www.tadbhav.com/dalit_issue/aadibasi_sahitya.html#adibasi) 189

R.V.Russell- The Tribes and Castes of the Central Provinces of India, Vol.-IV, Page 432-3

(http://books.google.co.in/books?id=eM1TdcVsK88C&pg=PA432&lpg=PA432&dq=Pardhan+tribe&source=bl&ots=Gw5UEb27_ V&sig=87UW6nYGMctOqvO0VbyOQ9BksEY&hl=en&ei=UiYzTJCBBY2rAeyqfH2Bg&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=9&ved=0CCQQ6AEwCA#v=onepage&q=Pardhan%20tribe&f=false )

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100 परधान जनजातत के ग्राम पृथ्क नहीं होते हैं। िे लोग छत्तीसगढ़ की अन्य जनजाततयों यथा गोंड़, भूतमया, बैगा आदद के साथ ग्रामों में रहते हैं। इनके घरों की संख्या, प्रत्येक ग्राम में, अन्य जंजाततयों की तुलना में कम ही रहती है। ग्राम मध्य में कच्चे रास्ते के दोनों ओर घर बने होते हैं। घर की दीिारें तमट्टी और छत घााँस-फू स एिं खपरै ल की बनी होती हैं। दीिारे पीली या सफे द तमट्टी से पोती जाती हैं। फशग भी तमट्टी से बना होता है। इसे प्रतत सप्ताह लीपा जाता है। इस आिास में एक या दो कक्ष होते हैं। इन घरों के सामने और पीछे परछी होती है। घर में सामने और पीछे द्वारा होते हैं, इसे सामान्यतीः सागौन काष्ठ से बनाते हैं। मध्य मुख्य कक्ष में अन्न कोठी, अराध्य का स्थान, िस्त्र, िाद्य यंत्र और अन्य घरे लू सामान होता है। तपछली परछी में रसोई और चुल्हा होता है। यहीं रसोई के बत्तगन भी रखे जाते हैं। पशुं हेतु घर के बगल में पृथ्क कोठार होता है। घर में प्रततददन झाड़ू लगा कर सफाई करते हैं। यह लोग प्रततददन प्रातीः रतनजोत या हराग की टहनी से दातौन कर स्नान करते हैं। के श धोने हेतु काली तमट्टी उपयोग करते हैं। पुरूष दाढ़ी, मूाँछ और तसर के बाल काटते हैं। बालों में मूाँगफली या गुल्ली का तेल लगाते हैं। तस्त्रयााँ और बच्चे आाँखों में काजल लगाते हैं। पुरूष कु ताग, धोती, बंड़ी, साफा आदद और मतहलाएाँ अंतगया, पोलका, छींट, लुगड़ा आदद पहनती हैं। मतहलाएाँ हस्ततशल्प से गोदना गुदिाती हैं और पैरों में पैरी, तोड़ा; कमर में करधन; कलाई में कााँच की चूड़ी, तगलट के कं गन, गुलेटा; गले में नथ, लौंग आदद आभूषण पहनती हैं। परधान जनजातत के घरों में रसोई के साधन यथा- तमट्टी का चूल्हा, तिा, लोहे का तचमटा, कढ़ाई, अन्य बत्तगन यथा- एल्युमीतनयम या पीतल के पैना, तगाड़ी, भगोना, तगलास, लोटा, थाली, कटोरी आदद होते हैं। अब स्टील के बत्तगन व्यिहार में आ गए हैं। पानी भरने को तमट्टी का घड़ा होता है। घरे लू उपयोग की अन्य िस्तुं में ढ़ेकी, मूसल, कु नेता, चदकया, टोकरा, सूपा आदद होता है। इनका मुख्य िाद्य ककगरी भी अिश्य ही रखते हैं। साथ ही ढ़ोल, नगाड़ा, तम्बूरा, खंजरी, हारमोतनयम आदद भी रखने का प्रयास करते हैं और उन्हें भी बजाते हैं। इनके भोजन में मक्का और ज्िार की रोटी, कोदो और कु टकी का भात, चािल, उड़द, तुिर, मौसमी सतब्जयााँ आदद होती हैं। जंगली कन्द-मूल, फल-फोल, पत्ते भी खाते हैं। मााँसाहारी है। मुगी, बकरा, अंड़,े मछली, खरगोश, चूहे आदद का मााँस खाते हैं। महुआ शराब भी पीते हैं। परधान जनजातत संस्कारतीः जजमानी प्रथा पर आतश्रत होती है। गोंड़ों के पुजारी का कायग करने पर इन्हें अन्न, दाल आदद जीिकोपाजगन हेतु प्राप्त होता है। परधान का आशय दूसरे के (पर) धान (अन्न) पर आतश्रत से भी तलया जाता है, जो इसी कारण आया। यह लोग संगीत, लोक गीत आदद से भी कमाते हैं और इन्हें अनाज, दाल, नगद आदद प्राप्त होता है। अब यह लोग कृ तष, मजदूरी, िन उपज संग्रह, पशु पालन, नौकरी आदद भी करते हैं। कृ तष में यह लोग कोदो, कु टकी, मक्का, ज्िार, उद-अद, तुिर, जगनी आदद बोते हैं।190 परधान जातत मुख्यतीः राज, गांड़ा और पोतथया- परधान उपजाततयों में बाँटी है। राज परधान सबसे उच्च और राजगोंड़ पुरूष और परधान स्त्री के िंशज माने जाते हैं। राज परधान बूढ़ादेि के पुजारी होते हैं। गांड़ा परधान राज परधान से नीचे माने जाते हैं। िे िाद्य या बाजा बजाने का कायग करते हैं। परधानों के कु छ और भी उपजातीय तिभाजन हैं। यथा- घुमक्कड़ी कर जीिन यापन करने िाले देसाई परधान, बस्तर माड़ क्षेत्र में तनिास करने िाले माढ़ेर परधान, छत्तीसगढ़ मैदान में तनिास करने िाले खलौरटया परधान, 190

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की जनजातीय तिषयक तितभन्न पुतस्तकाएाँ।

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101 इसी क्षेत्र में पुजारी का काम करने िाले बैगा परधान, नौकरी करने िाले और पुराने कपड़ों का क्रय-तिक्रय करने िाले अरागख परधान, बााँस हस्ततशल्प से टोकरी आदद बनाने और बेचने िाले कं ड़रा परधान आदद। कं ड़रा लोगों को मण्ड़ला-तसिनी क्षेत्र में सरोती और पठारी भी कहा जाता है। उपरोक्त उपजाततयााँ कई बर्थहतििाही गोत्रों में बाँटी हैं। जैसे- मरकाम, तसरसाम, कु रागम, सरे आम, परतेती, उइके , भलािी आदद। प्रत्येक गोत्र के टोटम होते हैं। अपजातत अंतीः तििाही समूह होता है। परधान गोंड़ आदद जनजाततयों से नीचे माने जाते हैं, पर राज परधान पुरोतहतीय कायग के कारण अपने को उच्च मानते हैं। इनमें पररहास और आहार सम्बन्ध है। संतान उत्पतत्त को ईश्वर की देन मानते हैं। हालााँदक यह तथ्य अतधकााँश जनजाततयों में मान्य है। रजीःस्िला स्त्री को अपतित्र माना जाता है। उनके तलए रसोई, पूजा, पानी भरने आदद के कायग तनतषद्ध होते हैं। गभागिस्था में कोई संस्कार नहीं है। प्र्सि घर पर सुईन दाई द्वारा कराया जाता है। िह ही नाल काटती है, तजसे घर में गाड़ा जाता है। प्रसूता को चाय, उड़द की दाल सुदक आदद तपलाते हैं। छठी पर शुतद्ध करते हैं। प्रसूता और निजात तशशु नहला और निीन िस्त्र धारण करा देिी-देिता और सूयग को प्रणाम कराते हैं। इसी ददन तशशु का नामाकरण भी करते हैं। सामान्यतीः लड़को की तििाह आयु 16-18 और लड़दकयों की 14-17 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। तििाह में व्यय की रातश, अन्न, दाल, गुड़ और तेल आदद िधु पक्ष को देते हैं। िधु को साड़ी, पोलका आदद िस्त्र देते हैं। मंगनी, फलदान, तििाह और गौना के चार चरणों मे तििाह पूणग होता है। बारात में 30-40 व्यतक्त पैदल या बैलगाड़ी में िधु आिास जाते हैं। अब तितभन्न उपलब्ध िाहन भी प्रयुक्त होते हैं। साथ में बाजा िाला भी होता है। तििाह फे रे लेने पर पूणग होता है। इस िधु धन पारम्पररक तििाह के अततररक्त तितनमय तििाह, सह पलायन, घुसपैठ, सेिा तििाह, पुनगतििाह को भी सामातजक मान्यता है।191 शि गाड़ते हैं। सम्पन्न या प्रतततष्ठत व्यतक्त की मृत्यु पर उसका शि जलाते हैं। ग्यारहिें ददन देिीदेिता और पूिगजों की पूजा कर ररश्तेदारों को भोज दे शुतद्ध करते हैं। आगामी िषग से तपतृपक्ष में मृतक के नाम से मृत्यु तततथ को पानी से तपगण कर कौिों को दाल-भात, भतजया आदद तखलाते हैं। परधान जनजातत में भी अपनी जातत पंचायत है। इस पंचायत का मुख्य कायग जातत के देिीदेितां की पूजा व्यिस्था करना, जातत में तििाह, फलदान, छु टा आदद प्रसंगों का तनराकरण करना, अनैततक सम्बन्धों को रोकना, झगड़ा तनपटाना आदद है। इस जनजातत के अराध्य हैं- मुठिा, हरदुल लाला, माता, भैंसासुर, धुरलापाट, खड़ेराई, भीम सेन, जोगनी आदद। िे सभी तहन्दू अराध्यों को भी पूजते हैं। सभी जनजाततयों की तरह नदी, पिगत्त, िृक्ष आदद भी उनके अराध्य हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना, आत्मा, पुनगजन्म आदद मानते हैं। इनके त्योहार हैं- राम निमी, बीदरी, आखा तीज, अखाड़ी, जीिती, पंचमी, आठें , पोला, तपतर पक्ष, दशहरा, दीपािली, महातशि रातत्र, होली आदद। त्योहारों में अराध्यों की पूजा करते हैं। नाररयल, मुगी, बकरा आदद की बतल चढ़ाते हैं। दाल-भात, बतल मााँस, पूड़ी, भतजया आदद का भोज करते हैं। दारू पीते हैं।

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http://www.aptribes.gov.in/html/tcr-studies-eci-pardhan.htm

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102 परधान लोग संगीतज्ञ हैं। ककगरी प्रमुख िाद्य है। अन्य िाद्य बजाने में भी योग्य हैं। लोक गीत गायन में भी योग्यता है। राम चररत्र, महा भारत, आल्हा-ऊदल, स्थातनय राजा-रानी की कथाएाँ गाते हैं। हालााँदक इनमें तशक्षा अल्प है। तिकास अनुक्र्म में अत्यतधक बदलाि के तशकार हुए हैं। जजमानी प्रथा लुप्त प्राय होती जा रही है। अब कृ तष, मजदूरी, िन उपज संग्रह और नौकरी ही अश्रय रह गया है। पंण्ड़िानी भी अंतष्ट्रीय और नगरीय दशगकों को ध्यान में रख कर पररमार्थजत हुई है। रहन-सहन, िेष-भूषा, खान-पान, लोक कला आदद में बदलाि है। पारम्पररक संगीत और लोक कला पीछे भी छू ट रही है। कला का छू टना, अल्प आय, तपछड़ी कृ तष, अन्ध तिश्वास, अल्प तशक्षा, कु पोषण, िंशानुगत रोग आदद इनकी समस्याएाँ हैं। गोंड़ जनजातत से जुड़ाि के कारण Sickle cell hemoglobin (HbS), Betathalassemia trait और G6PD की कमी के कारण उत्पन्न रोग इनमें भी पाए जाते हैं। परधान जनजातत तसकल सेल रोग हेतु सिागतधक खतरे िाले समूहों में एक है।192

24. पारधी (बहेतलया/तशकारी):पारधी/तशकारी जनजातत छत्तीसगढ़ की अल्प संख्यक जनजातत है। 2001 में इनकी संख्या 10,757 ही थी। यह जनजातत रायपुर सम्भाग के रायपुर, दुगग, राजनााँदगााँि और महासमुन्द; तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर और कोरबा तथा बस्तर सम्भाग के उत्तर बस्तर (कााँकेर) तजलों में तनिासरत है। इन्हें बहेतलया, बहेतल्लया, तचता पारधी, लंगोली पारधी, तशकारी, टाकनकार, टादकया भी कहा जाता है। राज्य के कु छ भागों में इन्हें सामान्य श्रेणी में भी माना गया है। ितगमान में पारधी रायपुर तजले के तबन्द्रानिागढ़, रातजम, देिभोग तहसील में अनुसूतचत जनजातत मे है, लेदकन इसी तजले के भाटापारा और बलौदाबाजार तहसीलों में सामान्य िगग में है। इसी तरह दुगग तजले में यह समुदाय दुगग, पाटन, बालोद, गुंडरदेही, गुरूर, डौंडीलोहारा और धमधा तहसीलों में अनुसूतचत जनजातत में शातमल है, जबदक इसी तजले के निागढ़, बेमेतरा, साजा और बेरला तहसील क्षेत्र में यह सामान्य िगग में है। राजनांदगााँि के पारधी अनुसूतचत जनजातत िगग में है, लेदकन किधाग के पारधी सामान्य िगग में है, जबदक इन सब के बीच सामातजक संबंध भी हैं और इनकी आर्थथक और शैक्षतणक तस्थतत भी सामान है।193 उपतनिेश काल में इन्हे अपराधी जनजातत माना जाता था।194 कु छ लोग इन्हें समाज रक्षा समूह के रूप में भी तचतन्हत करते हैं।195 पारधी (तशकारी) जनजातत की उत्पतत पर आधुतनक िैज्ञातनक और एततहातसक शोध नहीं हैं। रस्सेल्ल और हीरालाल के द्वारा इन्हें राजपूत और बािरी जातत का तमतश्रत समूह माना गया है, जो मुख्य जातत से पृथ्क हो गया। पारधी शब्द की व्युत्पतत संस्कृ त के पारध शब्द से मानी गई है, तजसका अथग तशकार 192

http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/2129613 (Institute of Immunohaematology ICMR, G.S.Seth

Medical College, Parel, Mumbai से V.R.Rao और A.C.Gorakshakar का सिेक्षण) 193

http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/14074/2/0

194

http://www.ambedkar.org/jamanadas/CriminalTribes.htm (Dr. K. Jamanadas- Criminal Tribes Of

India) 195

http://www.mynews.in/merikhabar/News/_N19130.html और

http://visfot.com/index.php/story_of_india/875.html

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103 है। इस जनजातत का मनना है दक, महाभारत काल में भगिान महादेि द्वारा पारधी आखेटक का रूप धर िन िराह का आखेट दकया गया था। अजुगन का तीर भी साथ-साथ ही उस िराह को लगा। अतीः इस तशकार पर अतधकार हेतु दोनों में युद्ध हुआ। अजुगन ने महादेि को पटकनी देने हेतु उनका पैर पकड़ा, ककतु महादेि ने प्रसन्न हो िर दे ददया। पारधी लोग इसी पारधी तशकारी िेषधारी महादेि से अपनी उत्पतत मानते हैं। पारधी लोग ग्रामों में अन्य जनजाततयों के साथ परं तु पृथक पारा में तनिास करते हैं, जो गााँि के एक दकनारे पर होता है। इनके घर छोटे और कम ऊाँचाई के होते है। घर तमट्टी, घााँस-फू स और खपरै ल के बने होते हैं, तजनमें एक रसोई और एक अन्य कक्ष होता है। घर का बाहरी भाग परछी, रसोई रधनी खोली और अन्य कक्ष माई घर कहलाता है।196

तचत्र 32 - पारधी मतहलाएाँ

आिास बच्चे और उनका ,स्रोत-merikhabar.com

पुरूष पंछा, गमछा, धोती, सलूका, बंड़ी, कु ताग आदद पहनते हैं। मतहलाएाँ बारह हाथ का लुगड़ा पहनती हैं। पहले िे ब्लाऊज आदद नहीं पहनती थें। अब साड़ी-ब्लाऊज भी पहनती हैं। िे अतधकांशतीः तगलट के आभूषण पहनती हैं। िे देिार मतहलां द्वारा हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती है6। गुदना हातह, पैर, बााँह, माथे, ठु ड़ी आदद पर गुदिाया जाता है। इस जनजातत के घरों में सामान्यतीः कोठी, जाता, मूसल, चटाई, चरपाई, िस्त्र, बत्तगन, कु ल्हाड़ी, कु दाली, हाँतसया, पक्षी पकड़ने के फन्दे, खण्ड़ाऊ, फााँसा रखने का तनसलो आदद होते हैं। इन के भोजन में चािल और कोदो का भात, बासी और पेज प्रमुख है। िे साथ में मूाँग, उड़द, ततिड़ा आदद की दाल या मौसमी सब्जी भी लेने की कोतशश करते हैं। मााँसाहारी हैं। तशकार करते रहे हैं। तीतर, बटेर, खरगोश, चूहा, तहरण आदद को तशकार कर खाते हैं। मुगी, बकरा आदद पालतू खाते हैं। मछली िषाग आदद में पकड़ कर खाते हैं। महुआ तनर्थमत्त कच्ची शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। कु छ मतहलाएाँ तम्बाखू खाती हैं। पारधी या तशकारी िनों से तीतर, बटेर, खरगोश, बाज, िन मुगी, फाख़्ता आदद सतहत अन्य पशु पक्षी पकड़ कर बेचते रहे हैं। कभी इसमें तहरण, तसयार सतहत अन्य बड़े पशु भी सम्मतलत थे। याह कारय िे स्ियं द्वारा हस्ततशल्प से तनर्थमत्त जालों से करते थे। िे हस्ततशल्प के अन्य कायग कर भी जीिकोपाजगन करते हैं। यथा- छेन्द पत्तं से चटाई, झाड़ू, टोकनी आदद बनकर बेचना। िे तशकार से प्राप्त बची िस्तुं से स्थातनय लोगों में प्रचतलत मान्यतां के अनुसार उपचार भी करते हैं और उससे भी आय प्राप्त करते है। यथा- बच्चे को नज़र से बचाने हेतु तगद्ध या मोर नाखून को गले में पहनाना, नाखून को जला कर मोहनी दिा बनाना, टी.बी. हेतु चमगादड़ का उपयोग, त्िचा फटने-सूखने पर उपयोग,, परसूद हेतु तसयार रक्त आदद। सामन्यतीः आखेटक जाततयााँ तक्र्ष नहीं करती, पर पारधी लोग खाली समय में कर लेते हैं। हालााँदक 196

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तका-छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ

(सम्पादक-टी.के .िैष्णि)

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104 थोड़ी मात्रा में ही। कोदो, धान, ततिड़ा, ततल, उड़द आदद बोते हैं।िे कृ तष मजदूरी भी करते हैं। िषाग में स्ियं के उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं।197 यह जनजातत भी तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक, तपतृतनिास स्थातनय गुण धारक जनजातत है। इस जंजातत में भी एकल पररिार ही है। इनमें बारह- तससोददया, चौरतसया, सोलंकी, मच्छीमार, तततोड़ी, कथररयो, मराररयो, मातलयो, गिारो, रतहररयो, चुआर और कु रगल- गोत्र हैं। इनके अततररक्त यह गोत्र नाम भी प्रचतलत हो गए हैं- नेताम, पुिार, गिाड़ा, मरकाम, तडररया, कोसाररया, सोरी, छेदाम, कुं जाम, मरई आदद।198 अतधकतर लोग चौहान, पिार और सोलंकी सरनेम उपयोग करते हैं।199 गोत्रों की उत्पतत की भी दकिंन्दंततयााँ प्रचतलत हैं।200 कहीं-कहीं यह भी उल्लेख आया है दक, पारधी भी कई तरह के होते हैं। जैसे राज, बाघरी, गाय, तहरन तशकारी और गााँि पारधी। इस हेतु यह उल्लेख दकया गया दक, राजा के पास जो तशकार करने िाला तिशेषज्ञ था िह राज पारधी कहलाया। जब राजा की इच्छा बाघ पर सिारी की होती तो बाघरी पारधी बाघ पकड़ता और उसे पालतू बनाता। बाघ को जीतित पकड़ उसे पालतू बनाना अत्यतधक करठन कायग रहा होगा। गाय पारधी का मुख्य िाहन गाय रहा। प्रत्येक पररिार के पास एक गाय होना आिश्यक था। यह गाय प्रतशतक्षत भी थी। यह पारधी के तशकार के धंधे की मां होती मानी गई और इसतलए पारधी गाय का मााँस नहीं खाते। दकसी पारधी के तलए तहरन के पीछे दौड़कर मारना करठन था। िह इसमें गाय की सहायता लेता था। िह ऐसी गाय बाजार से खरीदने की बजाय अपनी ही गाय से काम लेता है। तहरन के तशकार के िक्त जब गाय चरती हुई आगे बढ़ती है तब उसके पीछे पारधी तछपा आता है। तहरन के पास आते ही पारधी उसके ऊपर अचानक छलांग मारता है। पारधी की गाय तशकार की सारी शैतलयां जानती है। उसकी गाय इतनी सीखी होती है दक शरीर के तजस तहस्से में हाथ रखो तो िह समझ जाती है क्या करना है। कहते हैं दक, पारधी पंतछयों की बोली भी जानते हैं। जैसे पारधी के तीतर जब दूसरे तीतरों को गाली देते हैं, तब जंगल के कई तीतर लड़ने के तलए आते हैं, लेदकन िह बीच में लगे जाल में फं स जाते हैं। इस तरह तशकार के और भी कई ढ़ंग हैं। पारधी तशकार के बारे में सिागतधक सूचना रखने िाला जातत समूह है।201 पारधी या तशकारी प्रसि कायग घर के बाहर परछी में या घर के पीछे पृथ्क झोपड़ी बना कर सुईन दाई से कराते हैं। तशशु नाल खपरै ल या बारीक कमची से काट घर के बाहर गाड़ते हैं। जच्चा को मृदा भाण्ड़ में भोजन देते हैं। पौतष्टक आहार में सोंठ, गुड़, ततल लड्ड़ू, सूखा नाररयल आदद देते हैं। छठे ददन छठी पर शुतद्ध करते हैं। इसी ददन तशशु का मुण्ड़न भी करते हैं। बच्चे को पूजा घर में लाते हैं। आगंतुक उपहार स्िरूप रूपए देते हैं। तशशु का नाम मुतखया या दकसी बुजुगग द्वारा रखा जाता है। आिास की शुतद्ध हेतु दारू या महुआ का जल तछड़का जाता है। घर की गाय गोबर से लीपाई की जाती है। इनमें भी सगोत्रीय तििाह िर्थजत है। सामान्यतीः तििाह आयु लड़कों हेतु 18-20 और लड़दकयों हेतु 16-18 िषग है। तििाह तय करते समय िर पक्ष िधु पक्ष के घर जा बीड़ी (माखुर) देता है और कहता है- “

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छत्तीसगढ़ अतभलेख प्रभाग-पारधी

198

छत्तीसगढ़ आददम जातत अनुसन्धान और प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की पुतस्तकाएाँ

199

http://www.ambedkar.org/jamanadas/CriminalTribes.htm (Dr. K. Jamanadas- Criminal Tribes Of

India) 200

जी.आर.अतहरिार-पारधी (म.प्र.आददम जातत अनुसन्धान पररषद)

201

http://www.ambedkar.org/jamanadas/CriminalTribes.htm और

http://en.wikipedia.org/wiki/Phase_Pardhi

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105 आज से हमारा समधी बन जाओ। हमारी बीड़ी तपयो।“ बीड़ी तस्िकार करने पर सम्बन्ध तय माना जाता है। िर तपता अनाज, दाल, नगद आदद िधु तपता को देता है। तििाह रस्म बुजुगग व्यतक्त की देखरे ख में सम्पन्न होती है। पैढ़ू, उढ़ररया, गुरांिट, लमसेना तििाह भी समाज को मान्य है। तिधिा या पररत्यक्ता को चूड़ी पहनाने (पुनगतििाह) की अनुमतत है। पारधी भी शि गाड़ते हैं। कब्र में सिगप्रथम पुत्र तमट्टी ड़ालता है। तीन ददन तक शोक के कारण चुल्हा नहीं जलाया जाता। तीज नहािन कर नाई से नाखून कटा तेल लगिाते हैं। सगे सम्बन्धी भी नाई से के श कटिाते हैं। दसिें ददन स्त्री और पुरूष दोनों पगड़ी रस्म पूरी करते हैं। पारधी जनजातत के लोग लगभग दस-दस गााँिों के मध्य िंशानुगत मुतखया का चुनाि करते हैं। इनकी जातत पंचायत में पंच, सतचि, चपरासी आदद पद होते हैं। इसमें तििाह, तलाक, जातत तिरोतध कायग आदद की तस्थतत में बैठक करते हैं। पारम्पररक जुमागने, दारू, बीड़ी और भोज द्वारा तििाद तनराकृ त्त करते हैं। यह जनजातत प्रकृ तत और देिी पूजक है। हालााँदक देिता की भी पूजा करते हैं। इनके अराध्य हैंछप्पन कोड़ देिी, सािली देिी, देिी नोकोट, तेंतीस कोट, शीतला देिी, काली देिी, रायस कोतर देिी, महा काली, गंगा देिी, मातलया देिी, बसग भिानी, ठाकु र देि, बूढ़ा देि, बरम देि, पारधन आदद। तहन्दू देिीदेिता राम, कृ ष्ण, हनुमान, तशि अराध्य है6। िे सूय,ग चन्द्र, नदी, िृक्ष, नाग अदद की पूजा करते हैं। पूजा में मुगाग या बकरे की बतल करते हैं। अतनष्ठकारी टोना में तिश्वास है। इसे करने िाली तस्त्र टोनही और पुरूष टोनहा कहलाता है। य्द्हा लोग मानते हैं दक, मंत्र शतक्त से भूत-प्रेत िश में दकए जा सकते हैं। जादू-टोने के प्रभाि को दूर करने िाला बैगा कहलाता है। बच्चों को भोत, प्रेत, टोना, नज़र आदद से बचाने हेतु हाथ में सफे द या काली चूड़ी या गले में ताबीज पहनाते हैं। पारधी या तशकारी जनजातत के लोक गीतों में तशकार और तछन्द कटाई के समय गाए जाने िाले गीत, सुिा गीत, ददररया, करमा गीत, पुरिा गीत, सरकी (चटाई) गीत, जन्म अिसर पर गाए जाने िाले गीत, तििाह गीत, देिी गीत आदद हैं। पुरूष रहस (होली में), करमा, राम सप्ताह आदद नृत्य और मतहलाएाँ पड़की (दीपािली), तििाह नृत्य आदद करती हैं। पारधी अल्प तशतक्षत जनजातत है। तिकास अनुक्रम में इनमें बदलाि आया है। शासकी आिास योजनां के कारण पक्के आउर अपेक्षाकृ त्त बड़े मकान में रहने लगे हैं। िस्त्र तिन्यास, खान-पान, रहन-सहन, लोक कलाएाँ आदद बदली हैं। दफल्म गीत का प्रभाि बढ़ा है। तशकार भी अत्यतधक कम हो गया है। इनकी भी मुख्य समस्या अथागभाि है। मजदूरी पर आश्रय बढ़ा है।

25. परजा (धुरूिा):परजा छत्तीसगढ़ की अल्प संख्यक जनजातत है। छत्तीसगढ़ में, यह लोग, 2001 में 1,588 ही थे। यह लोग बस्तर सम्भाग में ही हैं, जहााँ इन्हें धुरूिा भी कहते हैं। िैसे यह लोग अतधकााँशतीः आाँर प्रदेश और उड़ीसा में रहते हैं। इनकी भाषा या बोली पररज है।

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106 इस जनजतत की उत्पतत पर आधुतनक िैज्ञातनक और एततहातसक शोध होना है। रस्सेल्ल इस जनजातत को भी गोंड़ जनजातत एक उप समूह मानता है। यह लोग बस्तर में उड़ीसा से आए। िे अपनी उत्पतत्त सूयग से मानते हैं। उतड़या भाषा में पो का अथग पुत्र और रजा का अथग राजा है। अतीः इसका आशय यह माना गया दक, जनजातीय ग्रामों के प्रमुख लोगों से बना समूह। परजा जनजातत के लोग बस्तर में अन्य जनजाततयों यथा मातड़या, भतरा, हलबा आदद और शुण्ड़ी, महरा, धाकड़, अहीर आदद अन्य जाततयों के साथ ग्रामों में तनिासरत हैं। इनका घर एक या दो कमरों का होता है, जो तमट्टी का बना होता है। दीिारे पीली या श्वेत तमट्टी तथा फशग गोबर से लीपते हैं। इनके घरों में कोठी, जाता, मूसल, बत्तगन, कु ल्हाड़ी, कृ तष उपकरण, कपड़े, चटाई, टोकरी आदद होती है। सामान्यतीः पुरूष एक छोटा कपड़ा लपेट कर पहनते रहे हैं। बाहर जाते समय बन्ड़ी भी पहन लेते हैं। मतहलाएाँ मोटे सूत का लुगड़ा, घुटने के ऊपर से कमर में लपएटते हुए पहनती रही हैं। अब पोलका भी पहना जाने लगा है। िे आलों का जूड़ा बनाती हैं। हाथ, पैर और चेहरे पर हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। िे हाथ, पैर, गले, नाक, कान आदद में तगलट के आभूषण पहनती हैं। इनका मुख्य भोजन कोदो, मातड़या, चािल आदद का पेज; मौसमी शाग-भाजी; उड़द, तुिर, कु ल्थी आदद की दाल है। मााँसाहारी हैं। तितभन्न पक्षी, मुगी, बकरा, सुअर, खरगोश, तहरण, गोह, तगलहरी, चूहा, मछली आदद खाते हैं। िे सल्फी, लांदा, महुआ आदद शराब पीते हैं। परजा जनजातत के लोग मुख्यतीः पहाड़ी ढ़लांनों मतड़या, कोदो, उड़द, तुअर, कु ल्थी और समतल पर धान की खेती करते हैं। उपज कम है। हस्ततशल्प भी इनका पेशा रहा है। यह लोग बााँस की चटाई, टोकरी आदद बनाते हैं। िे िनों से कन्द, मूल, भाजी एकत्र कर खाते हैं और महुआ, लाख, तेन्दूपत्ता, कोसा, गोन्द आदद भी एकत्र कर बेचते हैं। मजदूरी भी करते हैं। पहले तशकार भी करते थे। अब तशकार पर रोक है। िषाग आदद में स्ि उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। इनमें कई उपजाततयााँ हैं। यथा- परांगी परजा, बरें गी (जोतड़या) परजा, कोड़ परजा, गदबा परजा, ददड़ाई परजा, पेंगू परजा, धुर परजा आदद। उपजाततयााँ गोत्रों में तिभक्त हैं। यथा- बाघ, कतिम (कछु आ), बोकरा (बकरा), नेताम (कु त्ता), गोही (गोह), पड़की (पक्षी), नाग (सपग) आदद। सभी गोत्र के अपने टोटम हैं। गोत्र बर्थहतििाही समूह हैं। इस जनजातत में भी पररिार तपत्तृिंशीय, तपत्तृतनिास स्थानीय होता है।

तचत्र 33 - परजा मतहलाएाँ स्रोत-trekearth.com

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107 इनमें भी गभागिस्था में संस्कार नहीं हैं। प्रसि ग्राम या जातत की बुजुगग मतहलां द्वारा कराया जाता है। प्रसूता को सोंठ, गुड़, िन जड़ी-बूटी आदद का काढ़ा तपलाते हैं। छठी पर शुतद्ध करते हैं। जच्चा-बच्चा को स्नान कराते हैं। सम्बतन्धयों को दारू तपलाते हैं। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। लड़कों की तििाह आयु सामान्यतीः 16 से 18 िषग और लड़दकयों की 13 से 17 िषग के मध्य है। तििाह हेतु लड़का और लड़की की सहमतत अतनिायग है। सामान्यतीः िे अपना जीिन साथी स्ियं चुनते हैं। िर पक्ष िधु पक्ष को िधु धन के रूप में सामान्यतीः चािल, गुड़, दाल और नगद देता है। िधु पक्ष के लोग िधु को लेकर िर के घर जाते हैं। दो मण्ड़प बनाए जाते हैं। हल्दी लगाने और फे रे का कायग जातत के बुजुगग व्यतक्त के द्वारा सम्पन्नकराया जाता है। तितनमय, सेिा तििाह, सहपलायन, घुसपैठ, तिधिा तििाह, पुनगतििाह, देिर-भाभी पुनगतििाह आदद को सामातजक मान्यता है। परजा लोग भी शि गाड़ते हैं। मृतक के कपड़े, बतगन, कु छ अन्न आदद को दफनाने के स्थान पर छोड़ कर जाते हैं। तीसरे ददन पुरूष मुण्ड़न कराते हैं और घर की सफाई करते हैं। दसिें ददन धार्थमक पूजन आदद कर भोज देते हैं। परजा जनजातत में भी पारम्पररक जातत पंचायत पाई जाती है। इसके प्रमुख का पद अनुिांतशक होता है। इसमें तििाह, तलाक, अनैततक सम्बन्ध, उत्तरातधकार आदद के िाद, पारम्पररक ढ़ंग से, तनराकृ त्त दकए जाते हैं। पंचायत के तनणगय मान्य दकए जाते हैं। परजा जनजातत की प्रमुख देिी मााँ दंतेश्वरी है। इनके अन्य अराध्य हैं- भीमसेन देि, ठाकु र देि, बूढ़ादेि, बूढ़ी माई आदद। भूत-प्रेत, जादू-टोना आदद पर तिश्वास है। धार्थमक पुजारी और जादू-टोना का ज़ानकार तसरहा कहलाता है। इनके प्रमुख त्योहार हैं- पोला, निाखाई, दशहरा, दीपािली, होली आदद। त्योहारों पर अराध्य को शराब चढ़ाते हैं। प्रतत िषग अराध्य मुगाग बतल अर्थपत करते हैं। चैत्र और पूष प्रमुख पिग हैं। परजा लोगों के प्रमुख लोक नृत्य हैं- परजी नृत्य, काकसार, तििाह नृत्य आदद। लोक गीत हैं- रीलो, करमा, ददररया, तििाह गीत आदद। प्रत्येक उत्सि, त्योहार और आयोजन पर नृत्य की परम्परा है। इनमें भी तशक्षा अल्प है। हालााँदक तिकास कायगक्रमों, तशक्षा, संचार, यातायात, बाह्य सम्पकग आदद से रहन-सहन, िस्त्र-तिन्यास, खान-पान आदद में पररितगन आया है। अथागभाि ही प्रमुख समस्या है। तशक्षा की कमी, कु पोषण, अन्धतिश्वास, अस्िच्छता, उपचार आदद समस्याएाँ भी हैं।

26. सौंताीःसौंता भी छत्तीसगढ़ की अल्पसंख्यक जनजातत है। यह जननजातत उड़ीसा में भी पाई जाती है। यह लोग उड़ीसा से ही छत्तीसगढ़ आए। 2001 में छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या 2,959 थी और यह लोग

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108 तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर, कोरबा और रायगढ़ तथा सरगुजा सम्भाग के सरगुजा तजलों में तनिास कर रहे थे।202 सौंता जनजातत के लोग ग्रामों सामान्यतीः अन्य जनाजाततय लोगों यथा- गोंड़, धनिार, कनिर आदद के साथ ही तनिास करते हैं। हालााँदक इन ग्रामों में इनके पररिारों की संख्या कम ही है। इनके घर रास्ते के दोनो अलंग होते हैं। घर की छप्पर घास-फू स या खपरै ल की होती है। दीिारें पीली या सफे द तमट्टी से लीपी जाती हैं। फशग तमट्टी का बना होता है। घर में सामान्यतीः दो कक्ष होते हैं। घर के आगे परछी होती है। मुख्य कक्ष में देि-स्थान और अन्न कोठार होता है। पशु कोठा, घर के बाजू में, पृथ्क से होता है। घर की सफाई प्रततददन और फशग की गाय के गोबर से तलपाई 2-3 ददन में की जाती है। सामान्यतीः यह कायग मतहलाएाँ ही करती हैं। सामान्यतीः घर पर कपड़े, बत्तगन,चारपाई, कृ तष उपकरण आदद िस्तुएाँ होती हैं। बबूल, नीम या हरे की दातौन और स्नान प्रततददन करते हैं। अभी तक पीली तचकनी तमट्टी से तसर के के श धोते थे, अब साबुन भी उपयोग करते हैं। इन्हें धोने के उपरााँत गुल्ली, मूाँगफली, नीम आदद का तेल लगा कं घी करते हैं। मतहलाएाँ जूड़ा बनाती हैं। िे आभूषण भी पहनती हैं। यथा- पैरों में सांटी, पैरपरट्ट; कमर में करधन; सुहातगन मतहलाएाँ पैर की उं गतलयों में तबतछया; कलाई में चूड़ी, ऐंठी, पटा; बाजू में पहुाँची; गले में सुंड़ा, रूतपया माला, चैन; कान में तखनिा; नाक में फू ली आदद। िे हस्ततशल्प से गुदना भी गुदिाती हैं। गुदना को स्थाई गहना माना जाता है। पुरूष मुख्यतीः पंछा, सलूका, बन्ड़ी, धोती, कु रता आदद और मतहलाएाँ लुगड़ा, पोलका आदद पहनती हैं। अब पैंट, शटग, साड़ी, ब्लाउज आदद के प्रतत भी रूझान हुआ है। सौंता लोगों का मुख्य भोजन कोदो और चािल का भात है, तजसे मौसमी शाक के साथ सामान्यतीः खाया जाता है। िे भात के साथ उड़द, मूाँग, कु ल्थी आदद की दाल या िनीय कन्द-मूल, भाजी आदद भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं। अण्ड़े, मछली, मुगी, बकरी, खरगोश आदद खाते हैं। त्योहार, उत्सि, जन्म, तििाह, आयोजन आदद के अिसर पर महुआ शराब पीते हैं। पुरूष बीड़ी पीते हैं। सौंता जनजातत के लोग आददम कृ तष, िन उपज संग्रह, मजदूरी, बााँस हस्ततशल्प आदद पर आतश्रत हैं। पहले तशकार भी करते थे। यह लोग कोदो, कु टकी, धान, मूाँग, उड़द, तुिर, ततिड़ा, ततल आदो बोते हैं। िनों से महुआ, चार, गोन्द, तेन्दूपत्ता, हराग, लाख आदद एकत्र करते हैं। यह लोग बााँस हस्ततशल्प से टोकनी आदद बना कर बेचते हैं। िषाग काल में स्ियं के उपयोग हेतु मछली भी पकड़ते हैं। यह जनजातत भी तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक और तपतृतनिास स्थातनय की परम्परा का पालन करती है। इनमें दो तिभाजन हैं- छत्तीसगढ़या और उतड़या। जो लोग 7-8 पीढ़ी से यहााँ हैं िे छत्तीसगदढ़या और 23 पीढ़ी से यहााँ हैं िे उतड़या कहलाते हैं। इनके गोत्र बर्थहतििाही हैं। गोत्र हैं- पोन्दरू, घुरिा, मरकाम, सोनिानी, तेलासी, लिदररया, तसरारठया, भैंसा, सुआ, बाघ आदद। सभी गोत्र प्रकृ ततक जीि या तनजीि िस्तुं पर आधाररत हैं। िे इनसे अपना सम्बन्ध दशागते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं। टोटम है, पर अब उसका स्पष्ट प्रभाि घटता लगता है।

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आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की टी.के .िैष्णि व्दारा सम्पाददत पुतस्तका छतीसगढ़ की अनुसूतचत

जनजाततयााँ

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109 संतानोपतत्त को ईश देन माना जाता है। रजस्िला स्त्री को अपतित्र मानते हैं। िह खाना बनाने, पानी भरने, पूजा करने आदद कायों के तलए िर्थजत मानी जाती है। गभागिस्था में कोई संस्कार नहीं है। प्रसि घर पर सुइन दाई द्वारा करा जाता है। तशशू नाल िह ही काटती है। तजसे घर पर ही गाड़ते हैं। प्रसूता को तछन्द जड़, कु ल्थी, सरई छाल, ऐठीमुड़ी गोन्द, सोंठ और गुड़ से बना काढ़ा तपलाते हैं। ररश्तेदारों को भोजन कराते हैं। तििाह की उम्र, लड़कों में 12-18 और लड़दकयों में 10-16 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। तििाह में अनाज, दाल, गुड़, तेल, नगद आदद सुक भरने के रूप में ददए जाते हैं। तििाह के चरण हैंमंगनी, फलदान, तििाह, गौना। िधु को लुगड़ा, पोलका ददया जाता है। तििाह में फे रा लगाने की रस्म सौंता जनजातत का मुतखया पूरी कराता है। इनमें तितनमय, सहपलायन, घुसपैठ, सेिा तििाह भी मान्य है। शि गाड़ते हैं। सम्पना और प्रतततष्ठत मृतक को जलाते भी हैं। ग्यारहिें ददिस शुतध्द और पूिगज पूजा कर भोज देते हैं। तद्वतीय िषग के तपतृपक्ष में और मृत्यु ततथी को पानी तपगण कर दाल, भात और बड़ा उसके नाम से रखते हैं। सौंता में भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसका प्रमुख गौंरटया कहलाता है। यह िंशानुगत पद है। जातत पंचायत अराध्य पूजा व्यिस्था, तििाह तििाद, अनैततक सम्बन्ध तििाद, झगड़ों आदद का तनराकरण करती है। सौंता जनजातत के अराध्य हैं- ठाकु र देि, बूढ़ा देि, ग्राम देिता, धरम देिता, तडहाररन माई, खूंट देि, शीतला माता, कं कातलन माता, सूरज नारायण, चन्दा, धरती माता, पनघट, बागह देि, नाग देि, सभी तहन्दू अराध्य आदद। प्राकृ ततक और जीिन िस्तुं को पूज्य मानते हैं। अराध्य को शराब चढ़ा, मुगे की बतल देते हैं। जादू, टोना, भूत, प्रेत, पुनगजन्म आदद को मानते हैं। इनके त्योहार हैं- हरे ली, रथदूज, पोला, तपतर, निाखाई, दशहरा, दीपािली, होली आदद। नृत्य हैंकरमा, तबहाि, पड़की (दीपािली पर लड़दकयों द्वारा), रहस (होली पर लड़को द्वारा)। नृत्य के समय मांदर, मंजीरा आदद बजाते हैं। लोक गीत हैं- तबहाि, करमा, सुआ आदद। तशक्षा कम है। तिकास अनुक्रम में पररितगन आए हैं। लोक कला, रहन-सहन, खान-पान, िेष-भूषा आदद बदली है। अथागभाि प्रमुख समस्या है।

27. सिराीःसिरा जनजातत के लोग छत्तीसगढ़ के अततररक्त उड़ीसा, पतिम बंगाल, तबहार आदद में भी हैं। िषग 2001 में इनकी जनसंख्या, छत्तीसगढ़ में, 104,718 थी और यह लोग रायपुर सम्भाग के रायपुर और महासमुन्द तजलों तथा तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और तबलासपुर तजलों में तनिासरत थे।203

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आददम जातत अनुसन्धान एिं प्रतशक्षण संस्थान,रायपुर की टी.के .िैष्णि व्दारा सम्पाददत पुतस्तका छतीसगढ़ की अनुसूतचत

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110 सिरा भारत की प्राचीन जनजातत है। इसे भी कोलेररयन समूह में माना जाता है। इस जनजातत को द्रतिड़ और मंगोल, दोनों से, उत्पन्न माना जाता है। यह लोग अपनी उत्पतत्त रामायण आख्यान से प्रतसद्ध शबरी से मानते हैं। महाभारत में भी सबर जातत का उल्लेख आता है। इन जाततयों (या जनजाततयों) का "कोल' और "शबर' नाम तमलता है। "शबर' घृणासूचक शब्द नहीं रहा है। यह शब्द संस्कृ त-ग्रन्थों में प्राय: िहां आया है, जहााँ इन जाततयों से अच्छे सम्बन्ध के प्रसंग में चचाग है। तिन्ध्य क्षेत्र की "सहररया' झारखण्ड की "सौररया' और उड़ीसा, छत्तीसगढ़, कनागटक तथा झारखण्ड की "सािरा' आदद जाततयों के नाम इसी शब्द से सम्बद्ध हैं। इन्हीं शब्दों को संस्कृ त में "शबर' रुप प्रदान दकया गया है।204 रायपुर सम्भाग के सािरा लोग अपनी उत्पतत्त रामायण आख्यान से प्रतसद्ध िानर राज सुग्रीि से मानते हैं। इनकी उत्पतत्त हेतु दंत कथा भी है- मनुष्य को कृ तष प्रतशक्षण देने हेतु महादेि ने हल बनाया। सिर जातत के पूिगजों को, इस हेत,ु कु ल्हाड़ी से िन काट साफ करने को आदेतशत दकया। िे इस दरतमयान नन्दी को हल के पास छोड़ दूसरा बैल लेने गए। सबर द्वारा िन काटने का कायग दकया और तबा उसे तीव्र भूख लग आई। अन्य खाद्य सामग्री नहीं तमलने के कारण नन्दी को मार कर खा तलया गया। महादेि बापस लौटे। िन सफाई का कायग देख, प्रसन्न हो, सबर को तंत्र-मंत्र और जड़ी-बूटी का ज्ञान ददया। बाद में नन्दी के तिषय में जान उसे और उसके िंशजों को भूखे रहने का श्राप ददया। इस तरह गरीबी को सिरा तनयतत से जोड़ ददया गया है। यह लोग ग्रामों में अन्य जनजातत यथा- बबझिार, कोन्ध, खररया कं िर आदद के साथ तनिास करते हैं। इन ग्रामों में अन्य जाततयााँ यथा- कोलता, अघररया, धोबी, अहीर, ब्राह्मण आदद भी तनिास करती हैं। इनके भी आिास भी तमट्टी, बााँस, काष्ठ और खपरै ल के बने होते हैं, तजसमें दो-तीन कक्ष होते हैं। कमरे में देि स्थान और कोठी का स्थान सुरतक्षत होता है। सामान्यतीः दीिारे श्वेत या पीली तमट्टी से और फशग गाय के गोबर से लीपा जाता है। पशु कोठार पृथ्क होता है। घर पर अन्न भण्डारण की कोठी, अन्न पीसने की चक्की, कू टने का मूसल, रसोई के बत्तगन, चारपाई, ओढ़ने-तबछाने-पहनने के िस्त्र, चुल्हा, कृ तष उपकरण, कु ल्हाड़ी, मछली पकड़ने का चेररया आदद होते हैं। प्रत्येक प्रातीः मतहलाएाँ घर की सफाई करती हैं। इस जनजातत के लोग प्रततददन बबूल, हराग, करं ज, नीम आदद से दातौन और तदुपरांत स्नान करते हैं। पुरूष बाल कटे हुए रखते हैं। के श तचकनी तमट्टी या साबुन से धो तेल लगा कं घी करते हैं। मतहलाएाँ चोटी और जूड़ा बनाती हैं। िे हस्ततशल्प से गुदना गुदिाती हैं। आभूषण पहनती हैं। तबतछया, पैरपट्टी (पैर), करधन, ऐंठी (हाथ), पहुाँची (बाहु), चेन, हमेल (गला), तखनिा (कान), झुमका, फू ली (नाक) आदद तगलट के आभूषण पहने जाते हैं। सिरा पुरूष पंछा और बंड़ी तथा मतहलाएाँ लुगड़ा पहनती हैं। अब ब्लाउज भी पहाना जाने लगा है। यह लोग सामान्यतीः चािल और कोदो का पेज या भात खाते हैं। इसके साथ उड़द, तुअर या कु ल्थी दाल या मौसमी शाक भी खाते हैं। मााँसाहारी हैं और कभी-कभी अंड़ा, मुगाग, मछली, बकरा आदद खाते हैं। महुआ शराब पीते हैं। पुरूष तम्बाखू को पत्ते में लपेट चोंग़ी पीते हैं।

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पूनम तमश्र- मुण्डा भाषा:एक पररचय (http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/jk017.htm)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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111 इनका आर्थथक जीिन तपछड़ी कृ तष, िन उपज संग्रह, खाद्य संकलन, मजदूरी आदद पर तनभगर है। कोदो, धान, मूाँग, उड़द, अरहर, ततल, आदद उगाते हैं। महुआ, टोरी, तेन्दूपत्ता, हराग, गोन्द, लाख, चार, सरई बीज आदद िन से संग्रह कर बेचते हैं। िनों से कन्द, मूल, फल, भाजी स्ियं के उपयोग हेतु एकत्र करते हैं। िषाग में स्ियं के उपयोग हेतु मछली पकड़ते हैं। सिरा लोगों में महासमुन्द और रायगढ़ तजलों में मुख्यतीः तीन उपजाततयााँ हैं- कला पीतड़या (बड़े सिरा), आड़े सिरा और ठाकु र सिरा (छोटे सिरा)। तीनो उपजाततयााँ अंतीः तििाही समूह हैं। यह उपजाततयााँ गोत्रों में तिभक्त हैं। यह हैं- भैंसा, भोई, बाघ, कु न्दला, िनमूला, बींछी, बगुला या हंसराज, नाग, कलशा, सूरजिंशी, गुररया, बाहरा, भारटया, हतथया आदद। इस जनजातत में भी तपतृिंशीय, तपतृसत्तात्मक्त्ता और तपतृिश ं स्थातनय के गुण हैं। इस जनजातत में भी गभागिस्था में कोई संस्कार नहीं है। प्रसि पतत गृह में पररिार की बुजुगग मतहला द्वारा कराया जाता है। नाल सुंतई (सीप) से काटते हैं। जच्चा को कु ल्थी दाल, खम्हार छाल का काढ़ा, सोंठ, पीपर, गुड़, नाररयल खाने को देते हैं। छठी पर शुद्धी करते हैं। जच्चा-बच्चा को स्नान करा निीन िस्त्र पहनाते हैं। ररश्तेदारों और तमत्रोंको भोजन कराते और शराब तपलाते हैं। इस जनजातत में सामान्यतीः लड़कों की तििाह उम् 14 से 19 और लड़दकयों में 12 से 16 िषग है। तििाह प्रस्ताि िर पक्ष रखता है। प्रस्ताि तस्िकृ त्त होने पर िधु पक्ष को सूक का अनाज, शगुन रूपए, गुड़, दाल, तचिड़ा, साड़ी आदद दी जाती है। तििाह रस्म जातत के तसयान या गाररया (बैगा) द्वारा पूणग कराई जाती है, तिशेष कर फे रे की। इनमें तितनमय, सेिा तििाह, घुसपैठ, सहपलायन, तिधिा पुनगतििाह, देिरभाभी पुनगतििाह आदद को भी सामातजक मान्यता हैं। सिरा लोग शि जलाते हैं। अतस्थयााँ महानदी में तिसर्थजत करते हैं। तीसरे ददन पुरूष सदस्य मुण्ड़न कराते हैं। घर की पुताई आदद कराते हैं। मृत्यु भोज या तो तीसरे ददन या दसिें ददन देते हैं। इनमें भी पारम्पररक जातत पंचायत है। इसके पदातधकारी महासमुन्द तजले में मुक्कदम और दीिान हैं। मुक्कदम प्रमुख और दीिान सहयोगी है। इसमें तििाह, तलाक, अनैततक सम्बन्ध, उत्तरातधकार, बंटिारा आदद के प्रकरण पारम्पररक तरीके , सामातजक भोज और जुमागना लेकर, से तनराकृ त्त दकए जाते हैं। इअसके ऊपर परगना जातत पंचायत है। इसमें सभापतत और कोषाध्यक्ष होता है। िे अंतगजाततय तििाह, तििाह तिच्छेद के अनसुलझे प्रकरण आदद तििादो का तनराकरण करते हैं। सिरा जनजातत के अराध्य हैं- जगन्नाथ भगिान, ठाकु र देि, कररया धुरूिा, दूल्हा देि, माता देिाला, शबर शबरी, घटिातलन, साहड़ा देि, भैंसासुर, समलाई मंगला, खड़ापाठ, पुरूआ पाठ, सभी तहन्दू अराध्य, सूयग, चन्द्र, धरती, नदी, पिगत्त,िृक्ष, नाग आदद। भूत-प्रेत, जादू-टोना, आत्मा, पुनगजन्म, झाड-फूाँ क आदद पर तिश्वास है। अराध्य पूजा में मुगाग या बकरे की बतल देते हैं। यह लोग रथयात्रा, हररयाली, नागपंचमी, जन्माष्टमी, निाखाई, दशहरा, दीपािली, होली आदद त्योहार मनाते हैं। तििाह, रहस (होली पर) आदद नृत्य करते हैं। रामधुनी, रामायण, भजन आदद गाते हैं। करमा, ददररया आदद भी गाते हैं। तशक्षा कम है। तिकास कायगक्रमों, तशक्षण, संचार, यातायात और बाह्य सम्पकों आदद के कारण इस जनजातत के रहन-सहन, तिश्वास, खान-पान, िस्त्र तिन्यास, कृ तष पद्धतत, लोक कला आदद में पररित्तगन आया है। इनकी भी प्रमुख समस्या अथग अभाि की ही है। तशक्षा की कमी, कु पोषण, अन्ध तिश्वास, तपछड़ी श्रम साध्य कम उत्पादक कृ तष, रोग उपचार का अभाि आदद उसकी अनुषााँतग इकाई की तरह साथ हैं।

(तीन). अनुसूतचत जाततयााँ:डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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112 तिगत पृष्ठों में हमने पााँच तिशेष तपछड़ी जनजाततयों का तििरण ददया था। उसके उपरााँत हमने शेष अन्य 27 जनजाततयों की चचाग की। छत्तीसगढ़ राज्य की जनजाततयााँ उन्नत नहीं हैं। कु छ लोग राजगोंड़ों, उरााँि, बबझिार, हलबा आदद में तिकास के प्रतत आग्रह देखते हैं। जनजाततयों का प्रिगग क्षेत्र मूल तनिास के प्रिगग से जोड़ा जाता है। भारतीय तहन्दू िणग व्यिस्था के तहत यह लोग कभी क्षत्रीय िणग में तो कभी अंततम दतलत िणग में भी तगने जाते हैं। अभी तक धमग और िणग तिभाजन की यह धारणा, जनजाततयों के मुद्दे पर, पूणग स्पष्ट नहीं है। भारतीय जाततय व्यिस्था का स्थातपत और व्यिासय जतनत सुस्पष्ट तिभाजन अनुसूतचत जातत प्रिगग से प्रारम्भ होता है। यह सभी जाततयााँ तहन्दू धमग में हैं। यह जातत व्यिस्था इस धमग का स्थातपत लक्षण है। यह लोग बहदू धमग मानते हैं। यह व्यिसाय आधाररत तिभाजन ही जातत समूह में बदला। भारत तहमालय और समुद्र से तघरा होने के कारण अलग सा था। श्रम-तिभाजन की परम्परा जातत प्रथा के रूप में पुष्त हुई। जाततयााँ सुस्पष्ट और स्थातपत रहीं। इसका तनधागरण जन्म से ही माना गया। अन्य कोई आधार नहीं माना गया। अनुसूतचत जातत िगग की समस्त जाततयााँ, िणग व्यिस्था के अंततम पायदान पर ही आईं। समय-समय पर इन्हें तितभन्न संज्ञाएाँ तमलीं। यथा- गााँधी जी द्वारा हररजन, शासन द्वारा अनुसतू चत जातत, िणग तिभाजकों द्वारा शूद्र आदद। अब सिागतधक प्रचतलत संज्ञा दतलत जाततयों की है। छत्तीसगढ़ में अनुसूतचत जाततयों की उपतस्थतत पयागप्त है। जे.डी.बेगलेर ने तो कल्पना की ऊाँची उड़ान भरी। उसका मत है दक, एक कतथत तबहारी जनश्रुतत के अनुसार जरासंघ के शासन में दतलत अंत्यज़ों के छत्तीस (36) घर दतक्षण, बेगलर के अनुसार दतक्षण अथागत छत्तीसगढ़, चले गए और िहां बसे। इसी छत्तीस घर से छत्तीसगढ़ बना और इसी कारण से छत्तीसगढ़ में दतलत अंत्यजों की संख्या अतधक है।205 िषग 2001 की जनगणना में इनकी जनसंख्या 2,418,722 थी। यह राज्य की कु ल जनसंख्या का 11.61% है। अनुसूतचत जाततयााँ पारम्पररक जाततगत व्यिसायों, जो सामान्यतीः अस्िच्छ व्यिसाय हैं, को अपनाती हैं। यह व्यिसाय तचन्हााँकन 1931 की जनगणना में दकया गया था और िह ही अब तक मान्य है। उसके उपरााँत अब 2011 की जनगणना जातत आधार पर प्रस्तातित हुई है। छत्तीसगढ़ में इन समूहों की पृथ्क-पृथक जनसंख्या में पयागप्त अंतर है। चमार 10 लाख (1 तमतलयन) से ऊपर हैं और देिार सात हजार से भी कम। जाततयों के मध्य जनसंख्या, सामातजक तस्थतत, आर्थथक तस्थतत, साक्षरता, तशक्षा आदद में अंतर है। सतनातमयों आदद में जागरूकता और तिकास की ओर ललक है, तो देिार अभी भी तभक्षािृतत्त पर ही रटके हुए हैं। छत्तीसगढ़ राज्य में तकनीकी रूप से 43 जाततयों को अनुसतू चत जातत प्रिगग में रखा गया है। इनमें से 32 जाततयााँ या तो छत्तीसगढ़ में पाई ही नहीं जाती हैं या नगण्य प्राय हैं। इस प्रकार अनुसूतचत जातत प्रिगग की मात्र 11 जाततयााँ बचती हैं, जो छत्तीसगढ़ राज्य में सामान्यतीः ददखती हैं। इनमें से कु छ जाततयों की जनसंख्या तीन हजार से भी कम है। जैसे- ओधेतलया और बेलदार (सोनकर)। उपरोक्त तचतन्हत 11 जाततयों की चचाग आगे की जा रही है।

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तेलंग- छत्तीसगढ़ी बोली का अध्ययन,पृ.3

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113 1. औधेतलया :छत्तीसगढ़ राज्य में औधेतलया जातत के लोग अल्प संख्या में ही हैं। िह भी मात्र तबलासपुर सम्भाग के तबलासपुर तजले में। 1981 की जनगणना में इनकी जनसंख्या मात्र 2,429 ही थी।206 औधोतलया जातत के लोग सुअर पालन के कायग के अततररक्त मजदूरी भी करते हैं। यह लोग आमतौर पर ग्राम सीमा पर तनिास करते रहे हैं। इनके आिास गृह कच्चे होते हैं और सामान्यतीः तमट्टी के बने होते हैं। छत खपरै ल की होती है। घर के आगे और पीछे आाँगन रखने का प्रयास करते हैं, तजससे आिश्यकता पड़ने पर सुअर पालन में सहायता तमले। यह लोग तहन्दू धमग के अराध्यों को मानते हैं और इस धमग के त्योहार मनाते हैं। भोजन में चािल इनका मुख्य आहार है। स्थातनय सतब्जयााँ खाते हैं। मााँस और मददरा के प्रतत रूझान है। औधोतलया पररिार तपतृसत्तात्मक हैं।

2. बसोरीःबसोर अनुसूतचत जातत के लोगों की भी संख्या, छत्तीसगढ़ में कम है। इनका लगभग पूणग जीिकोपाजगन हस्ततशल्प पर तनभगर है। यह लोग बााँस हस्ततशल्प में तनपुण होते हैं। उसके बत्तगन, सजािटी और उपयोगी समान आदद बनाने के तलए जाने जाते हैं। बसोर लोग ढ़ोल बजाने का भी कायग करते हैं। इन्हें बंसोर, बुरूड़, बंसोड़ी, बांसफोर और बसार भी कहा जाता है। मध्य प्रदेश को सम्मतलत करते हुए भी 1991 में इनकी जनसंख्या 16,292 ही थी।207 हालााँदक एक स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में 9 लाख मान, छत्तीसगढ़ में 18 हजार अनुमातनत कर 13 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है।208 बसोर जातत की व्युत्पतत डोम जातत से मानी जाती है। डोम प्रचीन जातत है और कई जाततयों और उपजाततयों की व्युत्पतत इससे हुई, तजसमें युरोपीय तजप्सी जाततयााँ भी सम्मतलत हैं।209 एच.एम.ईतलयट डोम को भारत की मूल जातत मानते हैं। राबटग िाने रस्सेल्ल का मानना है दक कं जर, बेड़नी, सांसी, तमरासी जैसी घुमंतु और िेश्यािृतत्त में तलप्त जाततयााँ बंगाल की डोम जातत से ही तनकलीं और इनसे अन्य देशों के तजप्सी।210 यह लोग सेनां आदद के कादफले के साथ दूर देशों में जाते थे और िहीं बस जाते थे।211 इस

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छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ (डा.टी.के .िैष्णि)

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छत्तीसगढ़ आददम जातत कल्याण तिभाग की अ.जा. की सूतच पुतस्तका में उल्लेतखत

208

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

209तनकोलस

साउल,सूसन टेिूट्ट,तगयरसन,कफ्रक,जोयजी,दफसेल,टरनर,सम्पसन,रूतड़ग़र,हैनकाक आदद का मत

[http://www.britannica.com/Ebchecked/topic/168403 /Dom , Grierson(1888)-Fournal of the Gypsy lore socity और Nicholas saul,Susan Tebbutt-The role of the Romanies:Images and counter-images of “Gypsies”] 210

R.V.Russell and Hira lal-The Caste and Tribe of the Central provinces of India)

211

The Sansis of Punjab; a Gypsy and De-notified Tribe of Rajput Origin, Maharaja Ranjit Singh- The

Most Glorious Sansi, pp 13, By Sher Singh, 1926-, Published by , 1965, Original from the University of Michigan,

Tribalism in India, pp 160, By Kamaladevi Chattopadhyaya, Edition: illustrated,

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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114 तबन्दू पर पृथ्क चचाग आगे डोम पर तििरण देते समय की गई है। जी.एस.घुरे यह मानते हैं दक, बसोर जातत की व्युत्पतत डोम जातत से ही हुई, हालााँदक िे लोग इनसे और धोबी जातत से दूरी बनाते हैं।212 यह लोग ग्रामिातसयों के साथ गााँिों में तनिास करते हैं। । बसोर मतहलाएाँ दाई का कायग करने में मातहर मानी जाती हैं। बुरूड़ या बसोर संज्ञा बााँस से ही बनी है पहले यह लोग िनों से बााँस लाते थे, अब इन्हें िन तिभाग द्वारा ररयायती दरों पर बााँस प्रदाय दकया जाता है। इनके घर छोटे और तमट्टी के बने होते हैं। इसमें परछी और आाँगन रखा जाता है, जहााँ बैठ कर बााँस का कायग करते हैं। इनके घरों में इनके तनमागण के उपकरण अिश्य होते हैं। बसोर पररिार तपतृसत्तात्मक होते हैं। यह लोग तहन्दू अराध्यों को मानते हैं और तहन्दू त्योहारों को मानते हैं। 3. बेलदार (सोनकर) :बेलदार या सोनकर जातत के लोग भी, छत्तीसगढ़ में, कम संख्या में हैं। 1991 में मध्यप्रदेश को तमला कर मात्र 2,976 ही थे।213 यह लोग रायपुर सम्भाग और तबलासपुर तजले में हैं। इनका मुख्य कायग ज़मीन खोदने की मज़दूरी करना रहा है। पहले यह लोग चूने के पत्थर और तमट्टी गधों पर ढ़ोते थे और इसी कारण बेलदार और गधेरा कहलाते थे। यह लोग अब मजदूरी करने लगे हैं और तमट्टी खोदने के पारम्पररक कायग को मजदूरी से जोड़ तलया है। इनके घर तमट्टी के बने होते हैं, तजस पर खपरै ल की छत होती है। इनका पाररिाररक ढ़ााँचा भी तपत्तृसत्तात्मक है। तहन्दू धमग के अराध्यों को मानते हैं और त्योहार मानाते हैं। 4. भंगी (मेहतर, बाल्मीदक):भंगी जातत के लोग, छत्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों में पाए जाते हैं। महात्मा गााँधी ने इन्हें ही हररजन कहा था। इन्होंने स्ियं को बाल्मीदक कहना अपनाया। बाल्मीदक को संस्कृ त्त रामायण का रचतयता और आदद या प्रथम कति माना जाता है और यह धारणा रही है दक, िे इसी जातत के थे। भंगी, मेहतर,

Published by Vikas, 1978, Original from the University of Michigan, Sociological Bulletin,pp 97, By Indian Sociological Society, Published by Indian Sociological Society., 1952,

Indian Librarian edited

by Sant Ram Bhatia,pp 220, Published by , 1964 Item notes: v.19-21 1964-67, Original from the University of Michigan,

"Two, Ranjit Singh who seemingly got “total ascendancy” in Punjab was not

a Jat but a Sansi...", Sangat Singh, MCLEOD AND FENECH AS SCHOLARS ON SIKHISM AND MARTYRDOM, Presented in International Sikh conferences 2000 , www.globalsikhstudies.net,

The

Sikhs in History, pp 92, By Sangat Singh, Edition: 2, Published by S. Singh, 1995, Original from the University of Michigan और Journal of the Gypsy Lore Society , Page 114, Gypsy Lore Society - 1912 212

जी.एस.घुरे

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छत्तीसगढ़ आददम जातत कल्याण तिभाग की अ.जा. की सूतच पुतस्तका में उल्लेतखत

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115 बाल्मीदक, लालबेगी और धारकर एक ही हैं। स्िीपर संज्ञा भी इसी जातत हेतु प्रयुक्त होती है। पारम्पररक रूप से सफाई, मैला उठाना और हटाना आदद इनका मुख्य व्यिासाय रहा है। 1991 में इनकी जनसंख्या, मध्य प्रदेश सतहत, 13,151 थी।214 अथागत मात्र छत्तीसगढ़ में यह कम ही होंगें, परंतु एक अन्य स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में 43.65 लाख मान, छत्तीसगढ़ी बोलने िालों की संख्या 15 हजार बताई गई है।215 कभी यह लोग सिागतधक रूप से अछू त माने जाते थे। संड़ास साफ करना, शिों (पशु और मानि दोनों) को हटाना, सफाई करना, मैला उठाना आदद इनके कायग रहे हैं।216 शुष्क शौचालयों, बूचड़खानों आदद के कारण अब तस्थती में बदलाि आया है। भंगी दतलतों में भी सबसे नीचे थे।217 प्रतसद्ध उपन्यासकार अमृत्त लाल नागर उपन्यास नाच्यो बहुत गोपाल में यह तथ्य सामने लाते हैं दक, प्रारतम्भक तिदेशी आक्रांतं ने परातजत शासक जाततयों की मतहलां को तो अंक शायनी बनाया, पर पुरूषों को मैला उठाने को बाध्य कर अपमातनत दकया। इस मान भंग के कारण िे भंगी संज्ञा को प्राप्त हुए, परं तु अपने को मूल मैला उठाने िालों से ऊपर समझने के कारण महत्तर मानने लगे, तजससे मेहतर संज्ञा बनी।218 भंगी तहन्दू देिी-देितां की पूजा करते हैं, मुख्यतीः हनुमान की। तहन्दू त्योहार मनाते हैं। कु छ ने इसाई और बौद्ध धमग भी अपना तलया है। तहन्दू घरों से इन्हें त्योहारों पर जजमानी का खाना और घरे लू सामान उपहार में तमलने की परम्परा रही। यह लोग गााँि से बाहर तनिास करते रहे हैं। अब मजदूर और कारखानों आदद में श्रम करने लगे हैं। इनके पररिार भी तपतृसत्तात्मक हैं। घर छोटे और तमट्टी के बने हैं। 5. चमारीःचमार छत्तीसगढ़ की प्रमुख अनुसूतचत जातत है। चमार में चमारी, बैरिा, भाम्बी, जाटि, मोची, रे गर, नोना, रोहीदास, अतहरिार, चमारमांगन, रै दास, सतनामी, रामनामी, सूयगरामनामी और सूयगिंशी आते हैं। 1991 में, मध्य प्रदेश सतहत, इनकी जनसंख्या 1,075,734 थी। एक अन्य स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में 4 करोड़ 80 लाख से कु छ अतधक मान, छत्तीसगढ़ में 20 लाख अनुमातनत कर साढ़े 12 लाख को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है।219 यह जातत छत्तीसगढ़ के सभी तजलों में है। यह लोग रायपुर सम्भाग में अतधक के तन्द्रत हैं।220 इस जातत में, छत्तीसगढ़ राज्य में, अलग-अलग समूह पृथ्क-पृथ्क कायग करते हैं। सतनामी और रामनामी समुदाय के लोग कृ तष मजदूरी और मजदूरी का कायग करते हैं। अन्य सभी समूह पारम्पररक चमड़ा हस्ततशल्प का कायग करते हैं। यह लोग चमग हस्ततशल्प में मातहर माने जाते हैं, तिशेषकर जूते और चप्पल तनमागण में। अब मजदूरी भी करते हैं। भाम्बी उपसमूह ढ़ोल और नगाड़े बनाता रहा है, जो मतन्दर आदद में बजाए जाते रहे हैं।

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छत्तीसगढ़ आददम जातत कल्याण तिभाग की अ.जा. की सूतच पुतस्तका में उल्लेतखत

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http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

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http://wikipedia.org/wiki/Bhangi

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संजीि खुदश े की पुस्तक सफाई कामग़ार समुदाय िाबशगटन तिश्वतिद्यालय में पढ़ाई जाती है।

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अमृत्त लाल नागर-नाच्यो बहुत गोपाल

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http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

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छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जनजाततयााँ (डा.टी.के .िैष्णि)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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116 चमार संज्ञा की व्युत्पतत्त संस्कृ त के चमगकार शब्द से हुई। पहले यह जातत उत्तर भारत और नेपाल में के तन्द्रत थी और प्रारम्भ में चपरासी के रूप में सिागतधक यह लोग ही सामने आए।221 बलूच मोची जाट के रूप में भी सामने आए, तजसका अथग ऊाँट सिार से है। चमार भारत की दूसरे नम्बर की सिागतधक जनसंख्या िाली जातत है। अनुसूतचत जाततयों में यह जातत सबसे बड़ा दबाि समूह है। हालााँदक अनुसूतचत जातत िगग में महार भी एक बड़ा जातत दबाि समूह है। परम्परागत रूप से यह जातत नीचे की जाततयों में थी और गुजगर के ठीक बाद। यह लोग महार और मंग लोगों से अपने को ऊपर मानते हैं। सामान्यतीः दतलत जाततयों में अपने को, अन्य से ऊाँचे मानते हैं। चमग शोधन कायग में लगे होने के कारण पहले अछू त माने जाते थे। आज यह तिकासशील जातत है और इस प्रिगग में आरक्षण का सिागतधक लाभ भी इस जातत के लोग उठाते हैं। महारों को भी आरक्षण लाभ उठाने िाली तिकासशील जातत माना जाता है। यह माना जाता है दक, चमार भारत की प्राचीनतम जाततयों में से है और यह लोग भारत में आयों के आगमन के पूिग से यहााँ रह रहे हैं। इततहासकार उन्हें ही सबसे प्राचीन और सच्चा तहन्दू मानते हैं। शेष लोग बाद में इस धमग से जुड़,े िह भी यहााँ आकर बसने और रहने के कारण। यह लोग पंजाब आदद में राजनीततक और सामातजक रूप से आगे भी हैं। चमार तहन्दू धमग का पालन करते और तहन्दू देिी-देितां को मानते हैं। अब कु छ तसक्ख, बौद्ध और इसाई हो गए हैं। कु छ ने आद्यधमग, रतिदासी और आयग समाज जैसे आन्दोलनों को अपनाया है। तनरंकारी एक नए तत्ि के रूप में सामने आया है। छत्तीसगढ़ में इनका झुकाि सतनामी और रामनामी पंथ की ओर रहा है। यह जातत राजनीततक रूप से सशक्त जातत है। कु छ लोगों का मनना है दक, तजस तरह महारों ने अम्बेड़कर को समथगन ददया था, उसी तरह इस जातत ने बहुजन समाज पाटी को समथगन ददया। इस जातत में योद्धा और लड़ाकू होने के तत्ि भी पाए जाते हैं। चमारों की कु छ उपजाततयााँ क्षतत्रयों से भी तछटक कर बनीं। भट्टी, तूर, चौहान, बरगुजार आदद को कु छ लोग इसी तरह का जातत समूह मानते हैं। इस तत्ि को पहचान उपतनिेशिादी शासकों ने चमार रे जीमेंट तक का गठन दकया। पादकस्तान के शासक अयूब खान इसी रेजीमेण्ट के थे। 1857 के तिद्रोह के नायक बााँके चमार, चेतराम, जाटि, बेलूराम आदद इस जातत के प्रतसद्द योद्धा माने गए। छत्तीसगढ़ में सतनामी पंथ बहुत प्रतसद्ध हुआ। तहन्दुं का सतनामी पंथ 1657 में हररयाणा के नरनौल से प्रारम्भ हुआ था। यह पंथ रतिदास पंथ से तनकला था। रतिदास ने रै दास पंथ की स्थापना की थी। सतनाम का अथग भगिान के सत्य नाम से है। तिशेष कर राम और कृ ष्ण से। सतनाम का शातब्दक अथग सच्चा नाम है। राज्य में इसके अनुयाइयों की संख्या अतधक है, जो युग पुरूष गुरू घासी दास के प्रभाि को दशागता है। गुरू घासीदास ने सतनामी पंथ को छत्तीसगढ़ में स्थातपत दकया। कई तो मााँस, मददरा तक का त्याग कर देते हैं। मुगल काल में सतनातमयों का तिद्रोह हुआ था। सतनाम अपनाने से छत्तीसगढ़ की दतलत जाततयों में उत्थान और सुधार आया। झलकारी बाई झााँसी की रानी के स्थान पर लड़ी थी। मााँगरू ाम आद्यधमग की प्रित्तगक और ग़दर पाटी के सदस्य थे। कई लोगों के योगदान भी अप्रततम रहे। सामान्यतीः मााँसाहारी हैं। मााँस और मददरा से कई सतनामी दूर रहने का प्रयास करते हैं। तििाह एक-पत्नीत्ि पर आधाररत है। दहेज प्रथा है। तिधुर तििाह अतधक ग्राह्य है, पर तिधिा तििाह कम। शि को जलाते हैं। दसगात्र पर उसे चािल देते हैं। 6. तचकिा (तचकिी) :221

http://wikipedia.org/wiki/Chamar

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तचकिा या तचकिी जातत छत्तीसगढ़ मे है। 1991 में इनकी जनसंख्या 23,648 थी। हालााँदक इसमें मध्य प्रदेश भी समातहत है, पर इनका मुख्य संकेन्द्रण छत्तीसगढ़ में ही रहा है। यह लोग छत्तीसगढ़ प्रांत के तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और जशपुर तजलों में हैं। यह हस्ततशल्पी जातत है। बुनकरी इनका पारम्पररक व्यिसाय है। यह लोग अतधकााँशतीः बुनकरी द्वारा ही जीिकोपाजगन करते हैं। इनके घरों में बुनकरी के औज़ार और बुनकरी का ताना-बाना लगाने का खड्डा अिश्य होता है। यह जातत में भी तपतृसत्तात्मक पररिार है। यह लोग तहन्दू अराध्यों के अराधक और इस धमग के त्योहारों को मानाने िाले हैं। 7. देिार :देिार जातत का मुख्य कायग या व्यिसाय तभक्षा मााँगना है। यह लोग सुअर भी पालते हैं। इस जातत की मतहलाएाँ हस्ततशल्प से गोदना गोदने में तनपुण होती हैं। यह उनका व्यिसाय है। छत्तीसगढ़ के लोग उनसे ही गुदना गुदिाते हैं, जो दक यहााँ की जनजाततयों और जाततयों का स्थाई आभूषण या गहना माना जाता है। देिार लोग अत्यतधक गरीब हैं। यह लोग छत्तीसगढ़ के समस्त क्षेत्रों में हैं। रायपुर सम्भाग में इनका संकेन्द्रण अतधक है।1991 में इनकी जनसंख्या 6,279 थी।222 हालााँदक इसमें मध्य प्रदेश भी समातहत है, पर इनका संकेन्द्रण छत्तीसगढ़ में ही है। एक अन्य स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में तीन लाख मान, छत्तीसगढ़ में 11 हजार अनुमातनत कर कु ल 3 लाख में से 14 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है। देिार लोग तहन्दू धमग के िैष्णि मत को मानने िाले हैं। तहन्दू देिी-देितां की पूजा करते हैं और तहन्दू त्योहारों को मानाते हैं।223 8. डोम (डु मार, डोमे):डोम छत्तीसगढ़ में तबलासपुर सम्भाग के रायगढ़ और सरगुजा सम्भाग के सरगुजा और कोररया तजलों में तनिास करते हैं। 1991 में इनकी जनसंख्या 10,694 थी। हालााँदक इसमें मध्य प्रदेश भी समातहत है, पर इनका संकेन्द्रण छत्तीसगढ़ में ही है। हालााँदक एक स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में साढ़े 21 लाख से कु छ अतधक मान, 40 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है।224 छत्तीसगढ़ में डोम जातत कला के व्यिासय में है। इनका मुख्य कायग बाजा बजाना है। यह लोग सड़क सफाई का भी कायग करते हैं। यह लोग मजदूरी और सड़कों पार गाकर भीख मााँगने का भी कायग करते रहे हैं। कला-संगीत से जीिकोपाजग ही मुख्य कायग रहा है। इनकी मतहलाएाँ घरों में भी कायग करती रही हैं। डोम जातत को जाततय इततहास के तिकास क्रम में महत्िपूणग स्थान हातसल है। कु छ अंिेषक डोम जातत की व्युत्पतत दकसी मूल जनजातत से मानते हैं। कई बार कु छ अंिेषक इन्हें परम्परागत ब्राह्मणिादी जातत व्यिस्था से इस तलए पृथ्क मानते हैं, क्योदक इनकी मान्यताएाँ और तिश्वास कु छ अलग हैं। हालााँदक 222

छत्तीसगढ़ आददम जातत कल्याण तिभाग की अ.जा. की सूतच पुतस्तका में उल्लेतखत

223Sudhir 224

Kumar Behara-Dewar:The cast and its identity (Insight Journal-Saturday,Sept.10,2005)

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118 उनकी यह भी धारणा हैं दक, गाय की हत्या कर देने के कारण उनके भगिान ने, उन्हें गरीबी में रहने को श्रातपत दकया। यह लोग तहन्दू धमग का पालन करते हैं। सभी तहन्दू अराध्यों की पूजा करते हैं। इनके तिशेष अराध्य हैं- बाबा रामदेि और बभरो। राजस्थान में बाबा रामदेि का मतन्दर इनका मुख्य आकषगन रहा है। तनकोलस साउल, सूसन टेिूट्ट, तगयरसन, कफ्रक, जोयजी, दफसेल, टरनर, सम्पसन, रूतड़ग़र, हैनकाक आदद कई तिज्ञ जन ने यह स्थातपत दकया है दक, इसी डोम जातत से, युरोप आदद की, कई घुमत ं ु तजप्सी जाततयों की व्युत्पतत हुई।225 यह तजप्सी जाततयााँ इसी कारण लोम और रोम संज्ञा का उपयोग करती हैं। सीररया की तजप्सी जातत तो अपने आप को डोउम (डोम-Doum) ही कहती हैं। जी.एस.घुरे यह मानते हैं दक, बसोर जातत की व्युत्पतत डोम जातत से ही हुई, हालााँदक िे लोग इनसे और धोबी जातत से दूरी बनाते हैं। एच.एम.ईतलयट इसे भारत की मूल जातत मानते हैं। स्पष्ट है दक, डोम अनुसतू चत जातत में एक मुख्य जातत है, तजसने भारत की कई अनुसतू चत जाततयों की व्युत्पतत के साथ मध्य एतशया और युरोप की कई तजप्सी जाततयों की व्युत्पतत में योग ददया। तजतप्सयों की डोमरी और रोमातन बोली भी इन्ही से उत्पन्न हुई। राबटग िाने रस्सेल्ल का मानना है दक कं जर, बेड़नी, सांसी, तमरासी जैसी घुमत ं ु और िेश्यािृतत्त में तलप्त जाततयााँ बंगाल की डोम जातत से ही तनकलीं और इनसे अन्य देशों के तजप्सी।226 यह लोग सेनां आदद के कादफले के साथ दूर देशों में जाते थे और िहीं बस जाते थे। कई तिद्वान यह मानते हैं दक, पंजाब के प्रतसद्ध महाराज रणजीत बसह सांसी थे।227 डोम लोगों में भी तपतृसत्तामक पररिार हैं। इनके घर छोटे और तमट्टी के बने होते हैं। मााँस-मददरा का सेिन करते हैं। 9. गांड़ाीः225

http://www.britannica.com/Ebchecked/topic/168403 /Dom , Grierson(1888)-Fournal of the Gypsy

lore socity और Nicholas saul,Susan Tebbutt-The role of the Romanies:Images and counter-images of “Gypsies” 226

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Most Glorious Sansi, pp 13, By Sher Singh, 1926-, Published by , 1965, Original from the University of Michigan,

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Published by Vikas, 1978, Original from the University of Michigan, Sociological Bulletin,pp 97, By Indian Sociological Society, Published by Indian Sociological Society., 1952,

Indian Librarian edited

by Sant Ram Bhatia,pp 220, Published by , 1964 Item notes: v.19-21 1964-67, Original from the University of Michigan,

"Two, Ranjit Singh who seemingly got “total ascendancy” in Punjab was not

a Jat but a Sansi...", Sangat Singh, MCLEOD AND FENECH AS SCHOLARS ON SIKHISM AND MARTYRDOM, Presented in International Sikh conferences 2000 , www.globalsikhstudies.net,

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Sikhs in History, pp 92, By Sangat Singh, Edition: 2, Published by S. Singh, 1995, Original from the University of Michigan और Journal of the Gypsy Lore Society , Page 114, Gypsy Lore Society - 1912

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गांड़ा जातत के लोग छत्तीसगढ़ के सभी तजलों में हैं। 1991 में इनकी जनसंख्या 204,086 थी। हालााँदक इसमें मध्य प्रदेश भी सम्मतलत है, पर इनका संकेन्द्रण छत्तीसगढ़ में ही है। हालााँदक एक स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में 12 लाख मान, छत्तीसगढ़ में सिा तीन लाख अनुमातनत कर सिा दो लाख को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है।228 गांड़ा जातत हस्ततशल्प के पारम्पररक व्यिसाय में है और इनका कायग बुनकरी का है। यह लोग कला-संगीत के व्यिसाय में भी हैं और बाजा बजाने का कायग करते हैं। यह लोग ग्राम कोटिार भी बनते थे। अब मजदूरी करने लगे हैं।229 राबटग िाने रस्सेल्ल इनकी उत्पतत छोटा-नागपुर की पान जनजातत से मानता है।230 यह लोग भी तहन्दू धमग मानते और उसके अराध्यों की पूजा करते हैं। तहन्दू त्योहार मनाते हैं। इनके घर छोटे और तमट्टी के बने होते हैं।

10. घतसया (घासी):घतसया जातत के लोग छत्तीसगढ़ प्रााँत के सभी तजलों में रहते हैं।1991 में इनकी जनसंख्या 72,140 थी।231 हालााँदक इसमें मध्य प्रदेश भी सम्मतलत है, पर इनका संकेन्द्रण छत्तीसगढ़ में ही है। एक अन्य स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में सिा चार लाख मान, छत्तीसगढ़ में 1.19 लाख अनुमातनत कर 75 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है।232 घतसया जातत के लोगों का मुख्य पारम्पररक कायग घााँस काटना है और इस कायग के कारण ही इस जातत को घतसया की संज्ञा तमली। यह लोग घासी भी कहलाते हैं।233 घतसयारा (घााँस काटने िाला) इसी से बना। यह लोग कोररया आदद तजलों में बाजा बजाने का भी कायग करते हैं, तजसे घतसया बाजा कहा जाता है। यह लोग भी तहन्दू धमग मानते और उसके अराध्यों की पूजा करते हैं। तहन्दू त्योहार मनाते हैं। इनके घर छोटे और तमट्टी के बने होते हैं।234 11. महार (मेहरा, मेहर):महार जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों में तनिास करते हैं। 1991 में इनकी जनसंख्या 154,688 थी। हालााँदक इसमें मध्य प्रदेश भी सम्मतलत है, पर इनका संकेन्द्रण छत्तीसगढ़ में ही है।235 228

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

229

N.Patnaik-The Ganda,A Scheduled caste weaver community of westran Orissa

230

R.V.Russell and Hira lal-The Caste and Tribe of the Central provinces of India,P.77

231

छत्तीसगढ़ आददम जातत कल्याण तिभाग की अ.जा. की सूतच पुतस्तका में उल्लेतखत

232

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

233

E.W.Crooke-Tribe and castes of North westren provinces and Oudh

234

Sir Athel stane Baines-ethnography:Castes and tribes

235

छत्तीसगढ़ आददम जातत कल्याण तिभाग की अ.जा. की सूतच पुतस्तका में उल्लेतखत;

छत्तीसगढ़ की अनुसूतचत जाततयााँ (डा.टी.के .िैष्णि)

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120 हालााँदक एक स्रोत में इनकी जनसंख्या भारत में 87 लाख मान, छत्तीसगढ़ में पौने तीन लाक अनुमातनत कर ड़ेढ़ लाख को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला भी माना गया है।236 महार लोगों का मुख्य व्यिसाय हस्ततशल्प का है। यह लोग बुनकरी के द्वारा जीिकोपाजगन करते हैं। यह लोग ग्राम कोटिार भी होते हैं।237 अब यह लोग अनुसूतचत जातत प्रिगग में सम्भितीः आरक्षण का लाभ उठाने िाले प्रमुख समूह हैं। यह इस प्रिगग का प्रमुख दबाि समूह भी है। महार जातत के लोग मराठी भाषी महाराष्ट्र क्षेत्र से तनकले हैं। महाराष्ट्र में इनकी जनसंख्या 9% तक है और िहााँ इसे मूल जातत तथा भूतमपुत्र तसद्धांत के तहत माना जाता है।238 चौदहिीं शताब्दी में महार संत चोखा मेला ने धार्थमक समारोहों में भाग लेने का मुद्दा उठाया था। िरकारी पंथ उनसे और उनके पररिार से जुड़ा हुआ है। सोलहिीं शताब्दी में ब्राह्मण मराठी कति एकनाथ ने इस बात पर चालीस कतिताएाँ तलखीं दक, काश मैं महार होता। सत्रहिीं शताब्दी में यह लोग तशिाजी की सेना में भी सम्मतलत हुए। अठारहिीं शताब्दी के उत्तराधग और उन्नीसिीं शताब्दी में यह लोग उपतनिेशिादी शासकों की सेना में रहे, तजन्होंने पृथ्क महार रे जीमेंट भी बनाई। यह लोग रे ल और आयुद्ध तनमागण फै क्टररयों में भी सम्मतलत हुए और अभी भी हैं।239 महार लोग तहन्दू धमग का पालन करते हैं और उसकी जातत एिं अछू त प्रथा के सबसे बड़े आलोचक हैं। िे, इस कारण, से बौद्ध और इसाई धमग भी अपनाने लगे हैं। बौद्ध अतधक हुए हैं। डा. भीम राि अम्बेड़कर द्वारा बौद्ध धमग अपनाने के कारण, इस बात को बल तमला।240 एक स्रोत में छत्तीसगढ़ में मात्र 10 हजार महार इसाई बताए गए हैं।241 ड़ा.अम्बेड़कर के बौद्ध धमग के सम्पकग में आने कारण ही, बाद में, बौद्ध अशोक के अशोक चक्र और अशोक स्तम्भ मुखर रूप से सामने आए और अन्ततीः भारत के राष्ट्रीय तचन्ह बने। महारों के बौद्ध धमग अपनाने के कारण िे बौद्ध और निबौद्ध भी कहलाने लगे हैं। पहले महार लोगों की जीतिका इनाम और बलूता (ग्रामोपज का अंश) में तमली भूतम और अन्न द्वारा चलती थी। िे बुनकरी कायग तो करते ही थे, पर साथ ही ग्राम के संगीतकार और गायक भी होते थे। तदुपरांत इन्होंने औद्योतगक मजदूरी इतनी बड़ी संख्या में अपनाई दक, 1921 में मुम्बई की टेक्सटाईल तमलों का 12% मजदूर महार जातत का हुआ। हालााँदक यह बुनकरी से जुड़ा व्यिसाय ही था। अम्बेड़कर के रचनात्मक प्रयासों से यह जातत अध्ययन और अध्यापन के प्रतत अत्यतधक रूझान के साथ सामने आई और यह लोग आरक्षण का सिागतधक लाभ उठाने और शासकीय सेिां में पयागप्त संख्या में आने में सफल रहे। प्रगततशील माने जाते हैं। इस जातत का समाज भी तपतृ सत्तात्मक है।

(चार). अन्य तपछड़ा िगग की जाततयााँ:236

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

237

http://www.britannica.com/Ebchecked/topic/ 357931/Mahar

238

http://en.wikipedia.org/wiki/People-of-the-konkan-Division

239

http://www.everyculture.com/South-Asia/Mahar-history-and-Culture-relations-html

240

Jayshree Gokhale-Form Concessions to Cofrontations:The Politics of an Indian Untouchable

Community 241

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छत्तीसगढ़ में अनुसूतचत जनजाततयों और अनुसूतचत जाततयों के अततररक्त एक अन्य जातत समूह भी पृथ्क से तचतन्हत है, तजसे अब अन्य तपछड़ा िगग की जाततयााँ कहा जाता है। इस िगग की जाततयााँ भी अल्प तिकतसत और तपछड़ी हैं और कतथत छोटी जाततयााँ होने के कारण श्रम और हस्ततशल्प के कायग भी इनके परम्परागत व्यिसाय हैं। कई मूल हस्ततशल्प भी इन जाततयों का व्यिसाय हैं। बी.पी.मण्ड़ल की अध्यक्षता िाले तपछड़ा िगग आयोग ने इस क्षेत्र का भ्रमण 1980 में दकया। मण्ड़ल स्ियं भी, अब अन्य तपछड़ा िगग में सम्मतलत जातत, अहीर, से थे। इस मुद्दे पर 1953 में काका कालेलकर आयोग ने भी कायग दकया था। भारतीय सबिधान की धारा 340 यह सुतनतित करती है दक, दकसी भी सरकार हेतु इस िगग के उत्थान के तलए कायग करना आिश्यक है।242 अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों से आशय आर्थथक और सामातजक रूप से तपछड़ी उन जाततयों से है, तजन्हों ने कतथत रूप से जन्म के आधार पर तिपरीत पररतस्थततयों का सामना दकया और िे अनुसूतचत िगग की जाततयों में सम्मतलत नहीं हैं। अतीः सामान्यतीः यह माना गया दक, इनमें से अतधकााँश के पास कम भूतम है या नहीं है और उन्हें आर्थथक स्ितंत्रता के अिसर कम रहे हैं। इस आधार पर यह धारणा रही दक, मोटे तौर पर यह जाततयााँ आर्थथक उपाजगन और जीिकोपाजगन हेतु सामान्य या अगड़ी जाततयों पर ही अतश्रत रहीं। अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों के भी अतधकााँश सदस्य ग्रामों में रहते हैं और अतधक श्रम िाले पारम्पररक व्यिसायों में ही लगे हैं।243 तिश्व के लगभग सभी धमों का उदय एतशया में ही हुआ। यह एतशया की बौतद्धक क्षमता को इंतगत करता है। धमग सभी की बराबरी की सुतनतिता के साथ ही सामने आते हैं और िे दकसी भी तरह के भेदभाि का तिरोध करते हैं, दफर िह भेद बलग, भाषा, जातत, समाज, धन या दकसी अन्य प्रकार ही क्यों न हो। समानता और भेदभाि रतहत धमग तो सभी हैं, पर इसी पर तिशेष ज़ोर देने िाले दो धमग- तसक्ख और मुतस्लम- भी भारत में प्रचलन में हैं। पर भारत में उत्पन्न या बाहर से आया कोई धमग भी अंततीः भारतीय जातत प्रथा को अपना ही बैठा, चाहे उसकी मान्यताएाँ कु छ भी रही हों। इसमें, उक्त दो सतहत इसाई धमग भी उसी लकीर पर चला। मुतस्लम ने तो इसे स्पष्टतीः तस्िकार भी कर तलया। इसे इस तथ्य के सशक्त इशारे के रूप में भी तलया गया दक, इस धमग में जो व्यतक्त तहन्दू धमग की तजस जातत या पेशे से गया िह सामान्यतीः उसी में रहा। छत्तीसगढ़ की अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों की सूतच में मुतस्लम धमग की भी 26 जाततयााँ उल्लेतखत हैं, भले ही उन्हें िगग या समूह की संज्ञा दी गई। सामान्यतीः जातत को तहन्दू धमग की प्रथा माना जाता है, पर अब यह अन्य धमों में भी मान्य हो गई है और िह भी सप्रयास। मण्ड़ल कमीशन द्वारा अन्य तपछड़ा िगग के तहत 3,000 समूह तचतन्हत दकए गए। उन्होंने इन्हें अततरे क पूणग ढ़ंग से कु ल जनसंख्या का 52% तनरूतपत दकया, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय नमूना सिेक्षण द्वारा 32% ही तचतन्हत हुए। अब इसे इससे भी कम माना जाता है। अब 2011 की जनगणना जातत आधार पर हो रही है, इसके आाँकड़े आने पर सही तथ्य सामने आ जाऐंगे। छत्तीसगढ़ में भी इनका प्रततशत और अनुपात तचतन्हत नहीं है। इसे 25-30% अनुमातनत दकया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य में अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों के रूप में 92 जाततयााँ सूतचबद्ध हैं। यह सूतच अतिभातजत मध्यप्रदेश के समय की है। इसमें उनकी उपजाततयााँ, िगग, समूह, पुकारे और तचतन्हत दकए जाने की संज्ञाएाँ और नाम भी जोड़े गए हैं। इनमें कई जाततयााँ या तो छत्तीसगढ़ में नहीं ही रहती हैं या नगण्य प्राय हैं। जैस-े तिायफ, भारूड़, बरई, सुत, दांगी, बपजारा, आंजना, भुततया, मीणा, भाट, हरबोला, गुजरग , नायटा, पटका, तसदकलगर, बोिाररया, तुरहा, त्युर, रजड़, जादम, धोररया, रूहेला, रे िारी आदद। अन्य तपछड़ा िगग की जाततयााँ अतधकााँशतीः कृ तष या उससे सम्बद्ध और जतनत व्यिासायों पर आतश्रत रही हैं। इस िगग में हस्ततशल्प का कायग करने िाली जाततयााँ भी कई हैं। यथा242

डी.डी.बसु-भारत का संतिधान,पृ.384-385

243

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122 बारीपणग हस्ततशल्प (पत्तों से बत्तगन, साज-सज्जा के समान आदद का तनमागण), छीपािस्त्र छपाई और रं गाई, तचतारीदीिारों पर तचत्रकारी (तभतत्ततचत्र), चुनकर या राजगीरचूना, गारा का कायग और भिन तनमागण, बढ़ईकाष्ठ हस्ततशल्प, बाया महरा या कौशल बयाबुनकर, कोष्टा या देिांगनबुनकर, गड़ररयाबुनकार (ऊन, कम्बल), सुनारआभूषण हस्ततशल्प लोहारलौह हस्ततशल्प, कड़ेराआततशबाजी तनमागण, लखेरालाख और कााँच के सामान (चूड़ी आदद) बनाना, पटकारे शम धागे और िस्त्र बनाना, तसदकलग़रशस्त्र पार धार देना और उनका तनमागण आदद। अन्य तपछड़ा िगग में कला पर आतश्रत जाततयााँ भी है। यथा- िासुदि े (तिरूदािली गायन), भाट (राजा के सम्मान में प्रशंसात्मक कतिता लेखन, पाठ और तिरूउदािली गायन), धोली (ढ़ोल िादन, पूजा, गायन), तिायफ (नाचने और गाने के द्वारा मनोरंजन), सरगटा (ढ़ोल िादन) आदद। अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों में िह जाततयााँ भी सम्मतलत कर दी गई हैं, जो या तो जनजाततयााँ हैं या उन जैसा ही व्यिहार करती हैं। यथा- बोिररया (हालााँदक यह छत्तीसगढ़ में नहीं रहती), मानकर (इस जातत की तनहाल जनजातत ही है), पनका, खैरूिा (खैरिार), लोढ़ा (तंिर), मोिांर, तेलंगा (ततलगा), गयार (परधतनया) आदद। छत्तीसगढ़ के तलए घोतषत इन अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों में से उन को तचतन्हत दकया जाए जो इस राज्य में रहती ददखती हैं, तो उनकी संख्या 35-40 ही होगी। कु छ अततअल्पसंख्यक जाततयााँ भी हैं। यथा- तेलंगा (ततलगा), रोततया, असारा, भड़भूंजा, बारी, अनुसूतचत जातत िगग के इसाई या बौद्ध धमग अपनाने िाले लोग आदद। अतीः छत्तीसगढ़ में स्पष्ट रूप से तनिासरत जाततयों को तचतन्हत कर उन पर चचाग की जा रही है, जो 21 हैं।

1. अहीर (राउत):आहीर जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों में तनिासरत हैं। राज्य में इस जातत की पहचान राउत नाम से की जाती है, तजससे राउत नाचा नृत्य और उसका तबलासपुर उत्सि प्रतसद्ध है। अहीर जातत हेतु ब्रजिासी, गिाली, गोली, जादि, यादि, बरगही, बरगाह, ठे ठिार, राउत, गोिरी, ग्िारी, गोिरा, गिारी, ग्िारा, महाकु ल (राउत), महकु ल, गोप, ग्िाली, बलगायत नाम भी प्रचतलत हैं। यहााँ यह स्पष्ट करना उतचत होगा दक, इसमें सम्मतलत यादि संज्ञा उस यादि से पृथ्क है, जो दक राजपूत होते हैं और यह भी दक, अहीरों द्वारा प्रयुक्त यह यादि शब्द क्षत्रीय राजपूत यदु िंश से उत्पन्न शब्द नहीं है। अहीर जातत का पारम्पररक और जाततगत व्यिसाय पशु पालन है, तिशेषकर दुधारू पशुं का, उसमें भी गाय और भैंस, का पालन और उनसे प्राप्त दूध का तिक्रय है। िे यह मानते हैं दक, उनके अराध्य सदा उनके पशुं के पास होते हैं। यह लोग तहन्दू हैं, तहन्दू अराध्यों को मानते हैं और तहन्दू त्योहार मनाते हैं। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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123 अहीर शब्द की व्युत्पतत संस्कृ त के अभीर से मानी गई है, तजसका अथग है- भीरू नहीं। प्राचीन अभीर लोग योद्धा थे, जो कृ तष कायग भी करते थे।244 गाय दुहने के कारण, यह लोग, ग्िाल कहलाए। इस तरह की संज्ञाएाँ व्यिसाय जतनत थीं। पतित्र गाय से सम्बबन्धत होने के कारण, इन्हें, तितशष्ट स्थान भी तमला।1931 की जाततगत जनगणना में भारत में 14 तमतलयन (1 करोड़ 40 लाख) अहीर थे।245 यह लोग नेपाल तक तिस्ताररत थे। औपतनिेतशक शासन में योद्धा िगग में तचतन्हत होने के कारण सेना और पुतलस में जाने का रूझान 246 हुआ। अपने आप को राजपूत यादि और यदुिंश से जोड़ने की इच्छा के कारण 1922-23 से यादि उपनाम के प्रतत आग्रह को स्थातपत दकया जाने लगा। 1922 की लखनऊ अहीर कााँग्रेस के उपरााँत 1923 में इलाहाबाद अहीर महोत्सि हुआ, तजसमें यादि संज्ञा के साथ प्रााँतीय सभा सामने आई।247 इस हेतु उन्होंने कृ ष्ण के सखां अथागत गोप-गोतपयों के िंशज होने का तकग प्रस्तुत दकया और बाद में कृ ष्ण से ही जोड़ने लगे। अब अहीर जातत को यदुिंशी, नन्दिंशी और ग्िालिंशी में भी तिभक्त दकया गया। यह माना जाता है दक, अहीर लोग भारत मध्य एतशया के पूिी भाग से खैबर दरे से अफगातनस्तान होते हुए आए और सिगप्रथम तिस्ताररत पंजाब मे भू-भाग पर बसे। तद्वतीय शताब्दी ईस्िी के आसपास शक और कु षाण आदद भारत आ रहे थे। एक अन्य मत में उन्हें ईस्िी सम्ित के प्रारम्भ में एतशया माइनर या सीररया से आना बताया गया है। कु छ लोग उनका आगमन आयों से पहले का मानते हैं। कु छ तिद्वान उन्हें धांगरों का एक उपसमूह मानते हैं। इततहासकार यह मानते हैं दक, अहीर शब्द युरेतशया की अिर जनजातत से बना। जैसे जाट गैटे से, शक स्कै थी से, गुजगर और खत्री ख़जार से, ठाकु र और तरखन तुतखररयन से, सौराष्ट्र सौरामट्टी या सरमारटयनस से और तससौददया स्सेतनयन से।248 टाड़249 और के .सी.यादि ने पुरूरिास समूह के यादि चन्द्रिंशीय क्षत्रीय से उत्पतत्त का तसद्धांत ददया। इनका मूल तनिास सतलुज और यमुना के मध्य का क्षेत्र बताया गया। एक मत (डा.बुद्ध प्रकाश) यह है दक, अभीर शब्द से अभीरायण शब्द बना और उससे हररयाणा (राज्य) शब्द।250 महाभारत के सभा और भीषम पिग में तसन्ध की सरस्ितत नदी के समीप अभीर देश बताया गया। इन्हें बेबीलान की सुरभीर की उत्पतत हेतु दाई माना गया। श्रीमद्भागित में तसन्धु के पास अभीर देश का उल्लेख आया। ऐसा उल्लेख प्लाटमी ने भी दकया। कु छ तिद्वान बाइतबल के अफीर समूह को अहीर ही मानते 244

Ganga Ram Garg-Encyclopaedia of the Hindu world,Vol-.1, P.113 और M. S. A. Rao-Urban

sociology in India: reader and source book;P:286,(New Delhi; Orient Longman,1974) 245

http://www.adherents.com/Na/Na_16.html

246http://books.google.com/books?id=8G8COTxOUkgC&pg=PA105&dq=ahir+martial+tribe&hl=en&ei=

cLhyTOa6DoSKvQOtoflB&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=2&ved=0CC8Q6AEwAQ#v=one page&q=ahir%20martial%20tribe&f=false और Eyre and Spottiswoode-Report on the Census of British India taken on the 17th February 1881, London, P. 326 247

Nandini Gooptu -The politics of the urban poor in early twentieth-century India, P.205, (Cambridge

University Press, 2001) 248

http://www.archive.org/strem/tribescasteesofceruss_djvu.txt;

http://www.wahlah.org;

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Tod,1829,Vol1,p69 ii,p358 और Population geography: a journal of the Association of Population ...,

Vol. 10 By Association of population Geographers of India, P.2 250

Sukhdev Singh Chib-Haryana,P.3

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124 हैं। काकरटक भाषा में भारत के तलए प्रयुक्त संज्ञा सौदफर है, तजससे सुरतभर बना। मकरन्द पुराण में यह उल्लेख दकया गया दक, परशुराम द्वारा पृथ्िी को क्षत्रीय तिहीन करने के दौरान अभीर भाग कर पिगत्त पर छु प कर बच गए। यहााँ यह कहा जाता है दक, या तो िे हैहयों की उपजातत थे या उनसे कहीं उत्पन्न हुए। िात्सायन के कामसूत्र में भी अभीर राज्य का उल्लेख है। कृ ष्ण की गोप-गोतपयों के साथ इनका उल्लेख चौंथी सदी से प्रारम्भ हुआ। अहीर राजां के दो पृथक-पृथक िंशों ने नेपाल पर भी शासन दकया, तजसमें क्रमशीः 8 और 3 शासक हुए। गुजरात से प्राप्त एक अतभलेख में तभल्सा (तिददशा) और झााँसी के मध्य का क्षेत्र अहीरिाड़ा कहा गया। समुद्र गुप्त के इलाहाबाद लौह स्तम्भ अतभलेख में पतिम और दतक्षण-पतिम के अभीर राज्यों को करद राज्य बताया गया है। हालााँदक कई तिद्वान गुप्त और मौयग को भी अभीर मानते हैं। चौंथी सदी के नातसक अतभलेख में तमजागपुर का एक क्षेत्र अहरउरा और झााँसी के समीप का एक क्षेत्र अतहरिारा उल्लेतखत है। रस्सेल्ल इटािा और खुरई के आसपास ग्िालों का अतधपत्य सातिीं सदी में मानता है। देिगढ़ (तछन्दिाड़ा) में भी इनका प्रभाि था। सीतथयनों और कु षाणों द्वारा धके ले जाने पर ही अहीर मध्य प्रााँत और छत्तीसगढ़ आए। मध्य प्रााँत में अहरोरा नगर भी बसाया। मध्य काल में ही िे योद्धा से कृ तष और पशु पालन की ओर मुड़।े अहीर और जाट गोत्र तमलते-जुलते हैं। यह भी कहा जाता है दक, अहीर शासक जातत और क्षत्रीय थे। इनके राज्य में ब्राह्मण दूसरे दज़े पर आ गए। इस कारण उन्होंने षणयंत्रपूिगक इन्हें धीरे -धीरे शूद्रों में या नीचे के क्रम में ढ़के ल ददया। छत्तीसगढ़ में अहीर अतधकााँशतीः राउत कहलाते हैं। यह लोग कृ तष और पशु पालन कायग में लगे हैं। दूध तिक्रय का व्यिसाय इनके हाथ में है। यह लोग छत्तीसगढ़ी बोली बोलते हैं। यह लोग िैष्णि कृ ष्ण भक्त होते हैं। तहन्दु धमग, तहन्दू अराध्य और तहन्दू त्योहारों को मानते और मनाते हैं। जन्माष्टमी इनका प्रमुख त्योहार है। मृतक को जलाते हैं। दशगात्र और त्रयोदशी संस्कार करते हैं। राउत लोग लम्बे और पतले होते हैं। अतीः यह माना जाता है दक, िे राउत नाचा करते समय सुन्दर ददखते हैं। इन्हें मेहनती भी माना जाता है। सुबह 4 बजे से पहले उठकर पशुं को चराने के तलए लेकर तनकल जाते है। संध्या के पहले घर िापस नहीं लौटते और घर लौटकर भी बकरी, भेड़, गाय की देखभाल करते है।

2. बैरागीीःबैरागी जातत के लोग िैष्णि तहन्दू हैं। अतीः िैष्णि भी कहलाते हैं। यह लोग धार्थमक तभक्षा से ही जीिकोपाजगन करते हैं। इस बैरागी जातत में ब्राहमण बैरागी जातत सम्मतलत नहीं है और इसमें िैष्णि भी उपजातत की तरह सम्मतलत है, न दक, मूल िैष्णि मत या बैरागी पंथ या सम्प्रदाय के रूप में। यह बैरागी लोग तिष्णु, राम और कृ ष्ण के पूजक हैं। बैरागी लोग जटाएाँ रखते हैं। कभी-कभी दकसी तीथग पर ही बाल मुंड़ाते हैं। गुरू के देहांत पर अिश्य बाल मुंड़ाते हैं। श्वेत िस्त्र धारण करते हैं। द्वाररका से लाई गई मृदा, तजसमें कृ ष्ण और गोतपयााँ स्नान करते थे, से चक्र, शंख, पम और गदा बनाते हैं। तचमटा रखते हैं। पहले मृग चाल भी रखते थे। भोजन ग्रहण करने

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125 के पूिग उसमें तुलसी पत्र डाल उसे शुद्ध करते हैं। मााँस और मददरा के सेिन का पूणग त्याग करते हैं। एक-दूसरे से तमलते समय जय सीताराम का अतभिादन करते हैं।251 बैरागी जातत में कतथत शूद्र िणग की जाततयों को छोड़ कर शेष तीन िणग की जाततयों के लोग सम्मतलत होते हैं। हालााँदक इस बैरागी जातत समूह में सामान्यतीः तहन्दू जातत क्रम में नीचे की जाततयों के लोग ही सम्मतलत होते रहे हैं। कु छ ऊाँची जाततयों के लोग भी सम्मतलत होते हैं। तथातप सभी साथ भोजन करते हैं। रस्सेल्ल का तो यह भी मानना है दक, त्याज्य, भगोड़े, पररत्यक्त और गरीब लोग भी इसमें सम्मतलत होते हैं, तजससे उन्हें सामातजक सम्मान और भोजन तमल सके ।252 इसमें तस्त्रयााँ भी सम्मतलत होती हैं, पर इसमें अतधकााँशातीः पुरूष ही हैं। सभी धार्थमक जीिन जीते हैं। बैरातगयों को उच्च सामातजक स्तर प्राप्त है। सभी जातत के तहन्दू लोग उनसे भोजन ग्रहण करते रहे हैं। िे धार्थमक गुरू की तरह रहते हैं, और गुरू मंत्र भी देते हैं। िे अपने चेलों और तद्वज जाततयों को राम और कृ ष्ण से सम्बतन्धत मंत्र और अन्य जाततयों के लोगों को तशि से सम्बतन्धत गुरू मंत्र देते हैं। जनेऊ धारण करते और ततलक लगाते हैं। पहले स्त्री सम्बन्ध िर्थजत था, बाद में जुमागने पर मान्य कर तलया गया। अतििातहत बैरागी की सम्पतत का उत्तरातधकार चेले को था। तििातहत का उत्तरातधकार पुत्र को, अन्यथा चेले को, तमलता है। तििातहत बैरागी का दजाग नीचा माना जाता है। िे अतििातहत बैरागी के साथ चौके में बैठ कर भोजन नहीं कर सकते हैं। मृतक को जलाते हैं, परं तु प्रतसद्ध और पतित्र संत बैरागीयों को गाड़ते हैं। ऐसे बैरागी भगता कहलाते हैं। गुरू या महंत की समातध बनाते हैं, जो सामान्यतीः उनके मठ में होती है। मठ बनाते हैं। यहााँ गुरू और महंतों की समातधयााँ, धमगशाला, ग्रंथालय होता हैं। छत्तीसगढ़ में इनके कई मठ हैं। तििातहत बैरातगयों में तहन्दुं की तरह प्रथाएाँ हैं। तििाह-तिच्छेद और पुनगतििाह प्रचतलत है। हालााँदक यह तनयम तो नहीं है, पर कृ तष कायग करने िाले बैरातगयों में अपने हाथों से जुताई करने की परम्परा रही है। कु छ बैरागी बड़े भू स्िामी भी होते हैं। (राज)नााँदगााँि और छु ईखदान में बैरागी शासक हुए। राजनााँदगााँि के बैरातगयों का सम्बन्ध पंजाब से रहा और छु ईखदान के बैरातगयों का राजस्थान से।253 बैरातगयों के चार पंथ रहे हैं- रामानुजी या रामनन्दी, तनमानन्दी, तिष्णु स्िामी और मध्य। छत्तीसगढ़ राज्य और रायपुर सम्भाग में रामानुजी या रामनन्दी और तनमानन्दी पंथ के बैरागी लोग ही अतधक हैं। यह लोग राजनााँदगााँि और छु ईखदान क्षेत्र के शासक रहे। अतीः िहााँ उनकी संख्या अतधक है। अठारहिीं शताब्दी के अिसान काल में सोहागपुर पंजाब से शाल (दुशाले) के घुमंतु व्यापारी बैरागी प्रहलाद दास रतनपुर रूक गए। तब रतनपुर में नागपुर के भोंसले मराठा तबम्बाजी का राज था। प्रहलाद दास को यहााँ बहुत व्यािसातयक लाभ हुआ। तब बैरागी अतििातहत ही रहते थे। प्रहालद दास का तशष्य (चेला) महंत हरर दास सम्पतत का उत्तरातधकारी हुआ। तबम्बाजी की कई रातनयों मे से सात या आठ रातनयों ने महंत हरर दास से दीक्षा ले ली। अब महंत राजगुरू कहलाने लगे और उन्हें रतनपुर राज्य के प्रत्येक ग्राम से दो रूपये भेंट बसूली (गुरू दतक्षणा) का अतधकार ददया गया। इस धन से महाजनी 251

R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The tribe and Castes of the Central Province of

India,Vol:II,P.93-94 (http://www.scribd.com/doc/2396270/The-Tribes-and-Castes-of-the-CentralProvinces-of-IndiaVolume-II-by-Russell-R-V) 252

िही

253

धानूलाल श्रीिास्ति-अष्ट-राज्य-अम्भोज,पृ.45 और 78

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126 (चल/अचल सम्पतत बन्धक/तगरिी रख धन ब्याज पर उधार देना) का कायग भी प्रारम्भ कर ददया गया। यह व्यिसाय भी बहुत लाभप्रद रहा। इस प्रकार िे तिपुल धन के स्िामी हो गए।254 पाड़ादाह जमीन्दार ने, हररदास के पास जतमन्दारी तगरिी रख कर, धन उधार तलया और ऋण पटाने में असमथग रहा। अतीः जमीन्दारी हररदास के पास आ गई।255 हररदास की मृत्यु उपरााँत उनके तशष्य (चेले) महंत रामदास पाड़ादाह जतमन्दारी के उत्तरातधकारी हुए। तब (राज)नााँदगााँि में जमीन्दार इस्लाम धमागिलम्बी थे। (राज)नााँदगााँि जमीन्दारी भी, उक्त प्रकार से ही, रामदास के पास आ गई। रामदास के उपरााँत महंत रघुिर दास और उनके उपरााँत तहमंचलदास तशष्य परम्परा में उत्तरातधकारी हुए। इसके काल में अतधक व्यय या दान आदद से कोष ररक्त हो गया। ररयासत पर नागपुर के भोंसलों का तनयंत्रण था। उनका तनयत िार्थषक राजस्ि भी भुगतान नहीं दकया जा सका। तहमंचलदास को नागपुर आहुत दकया गया। िह प्रिीण गायक थे। उनके गायन ने भोंसले शासक को प्रसन्न कर ददया। सभी बकाया माफी के साथ उपहार स्िरूप मोहगााँि परगना भी उन्हे दे ददया गया और िह भी तबना लगान के । तहमंचलदास के उपरााँत महंत मौजी रामदास सत्ता में आए। उन्होंने खैरागढ़ के साथ तमल कर, नागपुर दरबार के तिद्रोही, डोंगरगढ़ जमीन्दार और उसके भाई को परास्त दकया।256 उन्हे आधा डोंगरगढ़ (आधा बसगारपुर, छु ररया और डोंगरगढ़ परगने) पुरस्कार में दे ददया गया।257 इन्होंने तशष्य महंत घासीदास को दत्तक पुत्र बनाया। बाद में रामदास गृहस्थ हो गए और तििाह से औरस पुत्र हुआ। इस तरह राजनााँदगााँि की सत्ता पंजाबी बैरातगयों के पास आ गई और उत्रातधकार में स्ितंत्रता तक बनी रही। छु ईखदान ररयासत के अंततम शासक िंश का संस्थापक एक िैष्णि बैरागी महंत रूप दास को माना जाता है।258 यह तचतौड़ के राजपूत महाराणा के ररश्तेदार थे और इनका नाम रूप बसह था। िे पाररिाररक िैमनस्यों के कारण, पानीपत में दीक्षा लेकर, िैष्णि बैरागी हो गए थे। उन्होंने अपने भतीजों- ब्रह्म बसह और तुलसी बसह- को भी ब्रह्म दास और तुलसी दास के नाम से दीक्षा ददलिाई और साथ रखा। िे अठारहिीं शताब्दी में नागपुर आ गए और भोंसलों के एक सरदार हो गए। इसी समय कोकड़ा जमीन्दारी, जो छु ईखदान क्षेत्र का पुराना नाम था, ने तिद्रोह कर ददया। नागपुर शासक द्वारा रूप दास को इसका दमन करने हेतु भेजाअ गया। दोनों में युद्ध हुआ। कोकड़ा का जमीन्दार मारा गया। नागपुर राजा इस कायग से प्रसन्न हुआ और 1750 में रूप दास को कोकड़ा की ज़ागीर दे दी। इस प्रकार छु ईखदान में भी बैरातगयों की सत्ता स्थातपत हुई। यहााँ यह भी समीचीन होगा दक,बैरागी मत की उत्पतत्त भी उल्लेतखत कर दी जाए। दसिीं से तेरहिीं-चौदहिीं शती तक इस प्रकार भतक्त का आन्दोलन दतक्षण में शास्त्रीय रूप धारण करके तथा आध्यातत्मक पक्ष में दृढ़ होकर पुन: उत्तर की ओर आया और चौदहिीं शताब्दी से उन्नीसिीं शताब्दी तक प्रबल िेग के साथ देश के तिस्तृत भूभाग में महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, मध्यदेश, मगध, उत्कल, असम और िंगदेश में फै लकर व्यापक लोकधमग बन गया। उत्तरभारत में इसका निीन रूप में प्रचार करने िाले सबसे 254

धानू लाल श्रीिास्ति-अष्ट-राज्य-अम्भोज,पृ.45 और छत्तीसगढ़ ददग्दशगन

255

धानू लाल श्रीिास्ति-अष्ट-राज्य-अम्भोज,पृ.45 और छत्तीसगढ़ ददग्दशगन

256

छत्तीसगढ़ ददग्दशगन में यह उल्लेख है दक, (सम्भितीः) डोंगरगढ़ के घासीदास द्वारा छत्तीसगढ़ से नागपुर में अंग्रेजों और मराठों

हेतु जा रहे कर संग्रह के खाजाने को रोका और लूटा गया था। िह बन्दी बनाया गया। 257छत्तीसगढ़

ददग्दशगन में यह उल्लेख है दक, (सम्भितीः) खैरागढ़ को अन्य उपहारों के साथ बसह की उपातध लगाने का भी

अतधकार ददया गया। 258

छु ईखदान के इस अंततम शासक िंश का सतन्क्षप्त इततहास यहााँ के पूिग दीिान भागीरथ के नोट के आधार पर उनके पौत्र धानू

लाल श्रीिास्ति ने अष्ट-राज्य-अम्भोज में तलखा और अभी तक िह ही प्रयुक्त हो रहा है।

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127 प्रथम और सबसे अतधक शतक्तशाली स्िामी रामानन्द हुए, तजन्होंने आध्यातत्मक दृतष्ट से रामानुज के तितशष्टाद्वैत को ही मानते हुए भतक्त का पृथक् सम्प्रदाय स्थातपत दकया, तजसमें दातक्षणात्य श्रीिैष्णिों की तरह स्पशागस्पशग के तनयम कठोर नहीं थे। लक्ष्मीनारायण के स्थान पर उन्होंने सीताराम को उपास्य देि बनाया। रामानन्दी िैष्णि िैरागी िैष्णि कहे जाते हैं। रामानन्द की दो प्रकार की तशष्य-परम्पराए और थीं। एक में तनम् जाततयों के लोग थे और दूसरी में सिणग लोग। मध्ययुग में भतक्त का प्रचार करने िाले भक्तकतियों में एक के प्रतततनतध कबीरदास और दूसरी के तुलसीदास हुए।259 इन्होंने ही छत्तीसगढ़ में िैष्णि प्राचार दकया और तिरक्त मत की स्थापना की, जो बैरागी कहलाया। यहााँ इनके कई मठ बने। दो ररयासतों में सत्ता रही। इनके तशष्य कबीर हुए, तजनका कबीर पंथ भी छ्त्तीसगढ़ में व्यापक प्रचतलत हुआ। तेरहिीं शताब्दी में राघिानन्द के तशष्य रामानन्द ने छत्तीसगढ़ में िैष्णि मत का प्रचार दकया। उन्होंने तस्त्रयों और गैर-ब्राह्मणों को भी दीतक्षत दकया। इन्होंने ही छत्तीसगढ़ में तिरक्त दल का गठन दकया, जो अब बैरागी कहलाता है। बैरागी और दशनामी सन्यातसयों मठ छत्तीसगढ़ में स्थातपत हुए, जो आज तक हैं। गरीब दास (जन्म 1560) पौनी (तजला-भण्ड़ारा) में, उनके तशष्य बलभद्रदास का रायपुर में दूधाधारी मठ (राजा जैतबसहदेि के काल में) स्थातपत हुआ। बलभद्रदास मात्र दूध का आहार लेते थे। अतीः दूधाधारी मठ का नाम बना। मराठा तबम्बाजी भोंसले उनसे तमलने गए और ज़ागीर भी प्रदान की। इस मठ के िैष्णि दास ने दूधाधारी संस्कृ त महातिद्यालय स्थातपत दकया। ग्िातलयर से आए द्याराम ने तशिरीनारायन मठ स्थातपत दकया। हैहय राजा इसी गद्दी से सम्बद्ध हुए। रायपुर में ही बैरातगयों के चार मठ थे। कई बैरागी मालगुजार और साहूकार भी थे। राज्य में कई स्थानों पर और भी मठ बने। राजनााँदगााँि और छु ईखदान की सत्ता भी बैरागी लोगों को तमली। कबीर रामानन्द के प्रमुख तशष्य थे, दकनके कबीर पंथ का प्रचार भी छ्त्तीसगढ़ में पयागप्त हुआ। यहााँ यह उल्लेख भी प्रासााँतगक है दक, शुद्धाद्वैत पर आधाररत पुतष्टमागग के संस्थापक िल्लभाचायग (1478-1530) का जन्म छत्तीसगढ़ के चम्पारण में हुआ था।260

3. बंजाराीःबंजारा छत्तीसगढ़ राज्य की घुमक्कड़ जातत है। राज्य का शायद ही कोई तजला या तहसील हो जहााँ बंजारा नाम से कोई न कोई स्थान, मतन्दर, स्मारक या अन्य कोई चीज न हो। यहााँ तक दक राज्य के बाहर भी ऐसा प्रचतलत रहा है। जैसे हैदराबाद की सिागतधक पाश कालोनी बंजारा तहल्स। बंजारा लोग लद्दू बैलों और छोटी बैलगातड़यों में सामान लादकर दूरस्थ अंचलों में व्यापार करते थे। दूरस्थ अंचलों में नमक पहुाँचाने के कारण इनकी बहुत मााँग थी और इनकी प्रतीक्षा की जाती थी। आगे चलकर, जब ितणक जाततयों ने छत्तीसगढ़ में पााँि पसारे , तब उन्होंने नमक को ही शोषण का अतधकार बनाया। 259

ब्रज तडस्किरी

(http://hi.brajdiscovery.org/index.php?title=%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%A3%E0%A4%B 5_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A 4%AF) 260

http://en.wikipedia.org/wiki/Champaran_(Chhattisgarh)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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128 बंजारा लोगों को बंजारी, मथुरा, मुकेरी, लभाना, नायक, नायकड़ा, धाररया और लामने भी कहा जाता है। नायक बंजारा की उपजातत भी है। यह नायक ब्राह्मण नायक से तभन्न है। बंजारा जातत के लोग छत्तीसगढ़ में महाराष्ट्र से आए। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बसंतराि नाईक और सुधाकरराि नाईक बंजारा जातत के ही थे।261 बंजारा शब्द की व्युतपतत्त प्राकृ त और संस्कृ त िन-चर (िन-िन घूमने िाले) से मानी जाती है, तजसका अथग व्यापार से है।262 बंजारा मुतस्लमों में भी हैं और पादकस्तान तक फै ले हैं। इन्हें एततहातसक रूप से पृतथ्ि की मूल घुमक्कड़ जाततयों या समूह में सम्मतलत दकया जाता है। कु छ तिद्वान इन्हें अप्रत्यातशत रूप से चारण या भाटों का तिस्तार भी मानते हैं। इन्हें राजस्थान का तनिासी माना जाता है। हालााँदक यह लोग मूल रूप से तसन्धु घाटी के तनिासी थे, जो मुतस्लम धािों के उपारं त राजस्थान आए। िे यह मानते हैं दक, िे पृतथ्िराज की ओर से लड़े भी थे। इन्हें कतथत अतग्निंशी राजपूत कु ल से भी जोड़ा जाता है। कु छ लोग इन्हें तमश्र से तनष्कातषत यहूददयों से उत्पन्न मानते हैं। भारत में इनकी जनसंख्या 56 लाख तक और छत्तीसगढ़ में 67 हजार तक अनुमातनत की गई है।263 यह लोग घुमक्कड़ व्यापारी होने के कारण भार ढ़ोने िाले पशु रखते हैं और इस कारण से पशु पालक भी हैं। दूरस्थ अंचलों में नमक पहुाँचाना इनका प्रमुख कायग रहा है। औपतनिेतशक काल में अंग्रेज सेना को भी यह लोग ही सामान पहुाँचाते थे। सामान्य पररिहन इससे जुड़ा व्यिसाय था। अब यह लोग बसने लगे हैं और कृ तष और मजदूरी का कायग करते हैं। अब कहीं-कहीं कु छ बंजारा मूंज और पन्नी घास से झाड़ू बना कर बेचने का कायग भी करते हैं। कभी-कभी लूट आदद भी करते थे। िे नट, जादूग़र, दकस्सागो, औज़ार आदद बनाने िाले और भतिष्य-िक्ता का भी कायग करते हुए भी पाए जाते हैं। यह लोग कोररया जैसे दूरस्थ अंचलों में भी जाते थे। इन्हें िहााँ लिण, नमक व्यापार के कारण, कहा जाता था। िे जहााँ डेरा डालते थे, अब िह स्थान बंजारीड़ांड़ कहलाता है।264 बंजारों का शारीररक गठन अच्छा होता है। इन्हें महत्िकांक्षी माना जाता है। लोगों से अलग-थलग रहना, अभी भी, इनकी स्िभािगत तिशेषता है। इनके कई स्थातनय और प्रचतलत नाम हैं, जो 53 तक हो सकते हैं। यह लोग लाम्बांड़ी भाषा या बोली बोलते हैं। इनकी चार प्रमुख उपजाततयााँ हैं- चरण, मथुररया, लभाना और धाररया।पहले प्रथम तीन तिभाजन 265 ही थे। इन उपजाततयों के भी आगे और समूह तिभाजन हैं। उच्च अजततयों के भी नामों को अपनाया गया है, तिशेषकर ब्राह्मण नामों को। तजन बंजारों ने कृ तष कमग अपना तलया, उन्हें बंजारा कु मी कहा जाने लगा। मुतस्लम बंजारा के दो तिभाग हैं- तुरदकया और मुकेरी। यह लोग उड़ीसा से छत्तीसगढ़ आए। अन्य समुदायों से अलग रहते हैं। अपने समूह (कााँखा) को टांड़ा कहते हैं। प्रत्येक टांड़ा एक दलपतत होता है और उसे नायक कहा जाता है। जहााँ तनिास करने लगते हैं, उसे कु री कहते हैं। अपने साथ कु त्ते की एक खास नस्ल रखते हैं, जो तशकारी भी होते हैं। यह तीन नस्ल में पाए जाते हैं। इन कु त्तों से अत्यतधक प्रेम करते हैं। दुगग तजले में, बालौद के समीप, एक स्िामीभक्त कु त्ते के स्मरण में बनिाया गया कु करा मतन्दर भी है। ऐसा एक मतन्दर मण्डला तजले में भी है। बंजारे नृत्य और गायन के शौकीन और प्रिीण लोग हैं। दशहरा, दीपािली, होली आदद पर घर-घर जा

261

http://en.wikipedia.org/wiki/Banjara

262

िही

263http://www.joshuaproject.net/peopctry.php?rop3=111445&rog3=IN 264

डा.संजय अलंग-कोररया ररयासत का प्रशासतनक अध्ययन

265

(sir.), Alfred Comyn Lyall (1870). "Appendix A : Sketch of Banjáras of Berár". Gazetteer for the

Haidarábád assigned districts commonly called Berár. Printed at the Education Society's Press, P. 195. (http://books.google.com/books?id=qA4EAAAAQAAJ&pg=PA195)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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129 कर नाचते और इनाम पाते हैं। इनकी मतहलाएाँ अत्यतधक आकषगक िस्त्र धारण करने हेतु जानी जाती हैं। इनके िस्त्र रं गीन और साज-सज्जा िाले होते हैं, तजस पर कढ़ाई और कााँच, सीप, मोती आदद का काम दकया गया होता है। िे आकषगक और अतधक साज-सज्जा िाले आभूषण भी धारण करती हैं। बााँहों पर हस्ततशल्प से गोदना गुदिाती हैं। मोटी तितशष्ट चूतड़यााँ, पूरी बााँह में, धारण करती हैं। पतिम के लोग भी, इनके , पररधान की ओर आकृ ष्ट हुए हैं।

तचत्र क्र.34,35,36,37 और 38 - बंजारा मतहलाएाँ, कढ़ाई, चोली और लहंगा(स्कटग) स्रोत-thevoiceofbanjara.blogspot.com,www.flickr.com,www.farfesha.com आदद

छत्तीसगढ़ के अतधकााँश बंजारे तहन्दू हैं। कु छ मुतस्लम भी हैं। तहन्दू बंजारे तहन्दू अराध्यों को मानते हैं। कई तहन्दू टैबू (धारणां) का पालन करते हैं। इनकी मुख्य अराध्य देिी कातलका या भिानी है। िे शीतला देिी की मरी माता या आई के नाम से पूजा करते हैं। उन्हें बतल भी देते हैं। बंजारी देिी की स्थापना पहाड़ो और िनों के दुगगम और करठन स्थानों पर रक्षा की कामना के साथ करते हैं। बंजारी माता के मतन्दर पूरे छत्तीसगढ़ में हैं। बंजारी और मरी माता का मतन्दर रायपुर में भी है। छत्तीसगढ़ के अतधकााँश बंजारे तहन्दू हैं। कु छ मुतस्लम भी हैं। तहन्दू बंजारे तहन्दू अराध्यों को मानते हैं। इनकी मुख्य अराध्य देिी कातलका या भिानी है। िे शीतला देिी की मरी माता या आई के नाम से पूजा करते हैं। उन्हें बतल भी देते हैं। बंजारी देिी की स्थापना पहाड़ो और िनों के दुगगम और करठन स्थानों और मागों पर, रक्षा की कामना के साथ, करते हैं। बंजारी माता के मतन्दर पूरे छत्तीसगढ़ में हैं। बंजारी और मरी माता का मतन्दर रायपुर में भी है। जादू-टोना और टोटकों में तिश्वास करते हैं। बीमाररयों का इलाज उससे ही करते हैं। अपने आप को नानक और तसक्ख धमग से भी जोड़ते हैं। बंजारा लोगों में तििाह िषाग के समय भी होते हैं, जबकी उस समय तहन्दुं की अन्य जाततयों में तििाह नहीं होते हैं। के िल बंजारों में ही तििाह करते हैं। तिधिा तििाह मान्य है, पर देिर और जेठ से ही। अन्य से करने पर जुमागना दकया जाता है। हालााँदक उसके उपरााँत तस्िकार लेते हैं। बच्चे के जन्म पर छठी को शुतद्ध करते हैं। कुाँ िारे और चेचक रोग से मरने िाले शि को जलाते हैं। अन्य को गाड़ते हैं। शोक काल, अन्य जाततयों से, कम- तीन ददन- है। मुख्य भोजन रोटी है। गेहूाँ और बाजरे आदद का दतलया भी खाते हैं। मााँसाहार के प्रतत अतत आग्रही हैं। लगभग सभी तरह के मााँस खाते हैं। बकरी (बकरा) के रक्त और बोटी से बनने िाला खाद्य- सलोईबंजारे ही बनाते हैं। साक्षरता अत्याल्प है। छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं (लगभग 32,000 बंजारा लोग)।

4. बढ़ईीःडा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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बढ़ई जातत के लोग छत्तीसगढ़ के सभी तजलों में तनिास करते हैं। इसका पारम्पररक व्यिसाय ही काष्ठ हस्ततशल्प है। सामान्यतीः लकड़ी से फनीचर, कृ तष उपकरण और सजािटी िस्तुएाँ बनाते हैं। भारत में इनकी जनसंख्या का अनुमान साढ़े छप्पन लाख का है266, छत्तीसगढ़ में भी कु छ हजार तक हो सकती हैं। बढ़ई शब्द संस्कृ त बर्थधका या मूल िधग से बना तजसका अथग काटने से है।267 इनके तलए प्रयुक्त होने िाला शब्द सुतार, संस्कृ त के सूत्रधार शब्द से बना। ब्राहमण पुराण में उन्हें तिश्वकमाग से उत्पन्न बताया गया। तहन्दू मैथालाजी में कारीगर जाततयों को देि तनमागणकताग तिश्वकमाग से जोड़ा जाना स्िभातिक है। इसतलए िे तिश्वकमाग भी कहे जाने लगे। तिश्वकमाग को बढ़ई की एक उपजातत के रूप में भी सम्मतलत दकया गया है। कहा जाता है दक, िे ब्राह्मण सूत्रधार थे, जो अकाल आदद के कारन इस पेशे में आए। कहीं-कहीं सूत्र सब्द उस धागे से तलया गया बातया जाता है, जो तमस्त्री भिन तनमागण के समय सूत्र तमलाने को उपयोग करते हैं। इन्हें दिेज और कु न्देर भी कहा जाता है। अन्य जातत के तजन लोगों ने बढ़ई को पेशेगत रूप में अपनाया, पर िे मूल बढ़ई जातत के नहीं थे, उन्हें परदेशी संज्ञा से सम्बोतधत दकया गया। सामान्यतीः काष्ठ तशल्पी बढ़ई तथा भिन तनमागण और मूर्थत कला में रत लोगों को सुतार कहा जाने लगा है।268 हस्ततशल्प या कारीतगरी के पााँच मूल व्यिसाय या कायग माने गए हैं। बढ़ईतगरी एक है। अन्य चार हैं- सुनारी, ठठे रा, पत्थर तशल्प और लुहारी। यह ग्राम कारीतगरी की भी मूल श्रेणी में है। अतीः मूल हस्ततशल्प है। ककिन्दंती में यह तिश्वकमाग द्वारा गुरू मंत्र प्राप्त माने गए। मानि तिकास का उच्च और प्रारतम्भक मुख्य अतिष्कार- पतहया- बढ़ईयों द्वारा बनाया गया माना जाता है। इन्हें जंतगद ब्राह्मण कहा जाता है, जो दक तिश्वकमाग के उत्तरातधकारी थे। तिश्वकमाग को तहन्दू मुख्य िास्तुतिद मानते हैं। महर्थष अंतगरा भी जंतगद ब्राह्मण थे। आधुतनक औद्योतगक क्रााँतत और तिकास के पूिग, भारत में, जंतगद ब्राह्मण ही अतभयंता या यंत्री और िास्तुतिद होते थे। भिन, मतन्दर, रथ, युद्ध और कृ तष उपकरण, सजािटी समान आदद के रे खातिन्यासक और तनमागता यह लोग होते थे। इसमें मूर्थत तशल्प भी सम्मतलत था। जंतगद ब्राह्मण ही आगे चलकर बढ़ई, सुतार और तिश्वकमाग हुए। मतन्दर तनमागण में इनकी मुख्य भूतमका होती थी। तकनीकी, अतभयााँत्रकी और हस्ततशल्प की प्रिीणता इनके पास रही। इनमें कु छ लोग जनीऊ भी धारण करते हैं। छत्तीसगढ़ के बढ़ई तहन्दू हैं। यह लोग सभी तहन्दू देिी-देितां को मानते हैं। तिश्वकमाग इनके प्रमुख अराध्य हैं। सभी तहन्दू त्योहारों को मनते हैं। तिश्वकमाग पूजा और दशहरा प्रमुख त्योहार हैं। दशहरे को अपने उपकरणों की पूजा करते हैं। शाकाहारी भोजन ही करते हैं। शराब नहीं पीते। बढ़ई जातत भी गरीबी में है। इनमें तििाह तिच्छेद की दर, अन्य जाततयों की अपेक्षा, अतधक रही है। इनके घरों में, सामान्यतीः, बढ़ई उपकरण होते हैं।

5. ढ़ीमरीःढ़ीमर जातत के लोग छत्तीसगढ़ में तनिास करते हैं। बस्तर सम्भाग में, इन्हें, जलारी या जालारनल कहा जाता है। यह लोग भोई, कहार, के हरा, धीिर, मल्हा, तनषाद, कश्यप, बाथम, के िट, सोंतधया अदद भी

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http://www.joshuaproject.net/people-profile.php?rop3=111468&rog3=IN

267

http://www.maharashtra.gov.in/english/gazetteer/FINAL_GAZETTEE/people1.html

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Suresh Kumar Singh, B. K. Lavanta, Dipak Kumar Samanta, Sushil Kumar Mandal, N. N. Vyas-

Rajasthan, Vol- II.,.( Anthropological Survey of India) P. 201

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131 कहलाते हैं। एक स्रोत में इनकी जनसंख्या राष्ट्र में 16 लाख मान, छत्तीसगढ़ी बोलने िालों की संख्या सिा लाख मानी गई है।269 यह माना जाता है दक, यह लोग बबझिार जनजातत से उत्पन्न हुए।270 यह लोग पारमपररक रूप से मछली पकड़ने, पालकी ढ़ोने, घरे लू नौकरी करने, जलीय फसलें (जैसे- बसघाड़ा, कमलगट्टा आदद) ऊगाने, पानी भरने और नाि चलाने का कायग करते रहे हैं। अब रे श्म उत्पादन, मजदूरी आदद की ओर भी आए हैं। ढ़ीमर शब्द संस्कृ त के धीिर शब्द से बना है, तजसका अथग मछु आरा है।271 इनमें से बसघाड़ा उगाने िाले बसघातड़या, नदी तीर पर रहने िाले नदहा और चािल तिक्रय करने िाले धूररया कहलाए। मुख्य कारय मछली पकड़ना ही है। शेष कायग साथ-साथ करते हैं। छत्तीसगढ़ में सामान्यतीः दो उपजाततयााँ हैं- बंतसया (मछली पकड़ने की बााँस की बंसी से) और बन्धईया (रस्सी बनाने से)। बस्तर में जलारी के रूप में तचतन्हत हैं, ही। यह कायग कु शल लोग माने जाते हैं। ढ़ीमर मतहलाएाँ घरों में कायग और दाई का कायग भी करती हैं। ढ़ीमर लोग तििाह सम्बन्धों के तलए कठोर हैं। सगोत्रीय और तनकट समबतन्धयों (यथा- ममेरे, चचेरे आदद) में तििाह िर्थजत है। तलाक मान्य है, पर कम है। तिधिा तििाह होने लगे हैं। गरीबी के कारण शि गाड़ने की प्रथा प्रचलन में आई। यह ढ़ीमर जातत में भी है। 6. दजीीःदजी जातत के लोग छत्तीसगढ़ के सभी तजलों में तनिास करते हैं। इन्हें छीपी, तछपी, तशपी, मािी, नामदेि भी कहा जाता है। कपड़ों पर छपाई और रं गाई करने िाले छीपा लोग अलग हैं। यह पुराने बरार क्षेत्र में अतधक हैं। अल्प संख्या में छीपा लोग छत्तीसगढ़ भी आए। दोनों जाततयों के तलए हस्ततशल्प व्यिसाय है। दजी लोग कपड़ा तसलाई के और छीपा लोग कपड़ा रं गाई के हस्ततशल्प व्यिसाय में हैं। कहीं-कहीं दजी लोग काष्ठ हस्ततशल्प का बढ़ई कायग भी करते हैं। यह लोग यह मानते हैं दक, इनकी उतपतत्त तिश्वकमाग से हुई। दजी मुतस्लम धमग में भी हैं। यह लोग संगरठत भी हुए। 1929 में राजकोट से यह प्रारम्भ हुआ। इनका संगठन श्री मच्छू कातथया सांई सुथार गन्यातत है। अथागत मच्छू नदी तट पार बसे (मच्छू कातथया) लोगों में से कपड़ा तसलने (सांई) और बढ़ई कायग (सुथार) का व्यिसाय अपनाने िालों का संगठन। हालााँदक भारत में दजी शब्द का प्रचलन मुतस्लमों के आगमन के पिात ही आया। प्रतसद्ध संत नामदेि दजी जातत के थे। अतीः इस उपनाम को भी अपना तलया गया। इस जातत का अकषगण नगरों के प्रतत है। कहीं-कहीं यह व्यिसाय जतनत संज्ञा अतधक है और जातत कम। दजी और छीपी जातत में धोबी जातत से सिागतधक लोग आए। पगड़ी बनाने िालों का दजाग थोड़ा ऊाँचा है। दजी लोग ऊाँची ब्राह्मण जाततयों की परम्परां को अपनाने की कोतशश करते हैं। तहदू धमग का पालन करते हैं। तहन्दू अराधयों को मानते हैं। तहन्दू त्योहार मनाते हैं। जन्म और मृतक संस्कार भी तहन्दू हैं। मुतस्लम दजी मुतस्लम धमग का पालन करते हैं। 7. धोबीीः-

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http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

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http://www.maharashtra.gov.in/english/gazetteer/BHANDARA/people_castes.html

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http://www.india9.com/i9show/Dhimar-55893.htm

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धोबी जातत के लोग छत्तीसगढ़ के सभी तजलों में तनिास करते हैं। इस जातत के लोग दजी और छीपा जातत में भी गए। इन्हें रजक, बट्ठी और बरे ठा भी कहा जाता है। यह लोग पारम्पररक रूप से कपड़े धोने और उसे स्त्री (प्रेस) करने कायग करते हैं। धोबी शब्द संस्कृ त धि और तहन्दी धोना से बना है।272 एक स्रोत में भारत में इनकी जनसंख्या एक करोड़ से अतधक मान छत्तीसगढ़ में साढ़े तीन लाख से अतधक मानी गई है, तजसमें से लगभग सिा दो लाख छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।273 मनु के अनुसार यह लोग प्रततलोम तििाह अथागत उच्च जातत की माता और तनम् जातत के तपता की संतान हैं। यह माना जाता है दक, इसमें नीचे के जातत क्रम के लोग आए। धोबी जातत के कई उपसमूह हैं। िे या तो उस क्षेत्र का प्रतततनतधत्ि करते हैं, जहााँ से िे आए या उस जातत का जहााँ से िे इसमें सम्मतलत हुए। कहीं-कहीं और कभी-कभी दजी और छीपा भी इससे जुड़ते हैं। पहले धोतबयों में बाल तििाह प्रचतलत था, अब थोड़ी बड़ी उम्र में तििाह करने लगे हैं। तििाह स्थातनय तहन्दू रीतत से करते हैं। तिधिा तििाह है, पर अन्य जाततयों की तरह देिर और जेठ से नहीं। इअसमें ब्राह्मण नहीं बुलाते हैं। तििाह तिच्छेद मान्य तो है, पर करठन पररतस्थततयों में। उत्रातधकार सभी पुत्रों में समान है। धोबी तहन्दू धमग, उसके अराध्य, त्योहार आदद मानते हैं। अतधकााँशतीः शैि हैं। देिी में भी अतधक आस्था है। संस्कार और पूजा में ब्राह्मण बुलाते हैं। मााँस खाते हैं। मृतक को जलाते हैं। तहन्दू तििाह संस्कार और समारोह में धोबी और नाई की उपतस्थतत िााँतछत होती है। 8. गड़ररयाीःगड़ररया जातत के लोग छत्तीसगढ़ में तनिास करते हैं। इन्हें धनकर, कु रमार, हटगर, हटकर, हाटकार, गाड़री, धाररया, धोषी (गड़ररया), गारी, गायरी, पाल बघेल गड़ररया भी कहते हैं। पाल और बघेल गड़ररया हैं। यह बघेल राजपूत से पृथक हैं। यह लोग पशुपालक हैं। भेड़, बकरी आदद पालते हैं। इनका पारम्पररक व्यिसाय हस्ततशल्प से भी सम्बतन्धत है। यह लोग उक्त पालतू पशुं के बालों से ऊन बना, उससे कम्बल बना तिक्रय करते हैं। कृ तष भी करते हैं। गड़ररया जातत के लोग, भारत में, उत्तर और पतिमोत्तर से आए। यह शब्द संस्कृ त के गांधार शब्द से बना। संस्कृ त में यह शब्द गान्धार या कान्धार देश या क्षेत्र से बना, जहााँ से भेड़ें भारत में आईं या लाई गईं। छत्तीसगढ़ में गड़ररया नमगदा घाटी और सतपुड़ा पिगत से होकर आए। यहााँ इनक प्रिेश तचल्फी घाटी से हुआ। छत्तीसगढ़ और महाकौशल क्षेत्र में कई संज्ञाएाँ इनसे जुड़ी या बनीं। जैस-े गदरीखेड़ा और गाड़रिाड़ा (गड़ररयाखेड़ा)।274 एक स्रोत में छत्तीसगढ़ में तहन्दू गड़ररयों की जनसंख्या का अनुमान लगभग 68 हजार का है, तजसमें लगभग 42 हजार छत्तीसगढ़ी बोली भी बोलते है और साथ ही यह लोग भारत मे 58 लाख अनुमातनत हैं।275

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http://www.indianetzone.com/31/dhobi_washerman_caste.htm

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http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

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R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The Tribe and Castes of the Central Province of India और

http://en.wikipedia.org/wiki/Gadarwara

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133 गड़ररया तमतश्रत जातत मानी जाती है। िे स्ियं यह मानते हैं दक, उनके पूिगज को महा देि ने बनाया। उसने ब्राह्मण, ढ़ीमर और बरई तस्त्रयों से तििाह दकए। इनसे गड़ररयों की तीन उपजाततयााँ उत्पन्न हुईंतनखार, ढ़ेगर और बरतमयान। एक अन्य कथा में पूिगज को बतनया बताया गया है, तजसे तिष्णु ने ऊन उत्पादन का कायग सौंपा और उसे भेड़ दे ‘इतलहान’, ‘ईहान’ उच्चारण का मन्त्र ददया। उक्त तीन उपजाततयों में तनखार (अथागत शुद्ध) को ऊपर माना जाता है। ढ़ेगर, धााँगर का अपभ्रंश है। यह उपजातत मराठों के साथ छत्तीसगढ़ आई। छत्तीसगढ़ में बसने िाले गड़ररया छेररया या जंगली कहलाए। उत्तर भारत से आने िाले गड़ररया लोग देशा और अिध से आने िाले पूर्थिया कहलाए। गड़ररयों की तनखार और ढ़ेंगार उपजातत के पुरूषों में आपसी खान-पान के सम्बन्ध हैं, पर उनकी मतहलां में नहीं। कभी-कभी आपस में तििाह सम्बन्ध भी बनाते हैं, पर लड़की का तपता के घर पर भोजन करने का अतधकार समाप्त हो जाता है। इनमें कई गोत्र हैं, जो पशुं और िृक्षों के नाम पर हैं। जैस-े सााँपा (सााँप), मोररया (मोर), नाहर (बाघ), फू लसुंघा (पुष्प), तहरणिार (तहरण) आदद। कु छ गोत्र अन्य जाततयों से भी बने। जैसे- अतहरिार (अहीर), बम्हतनया (ब्राह्मण) आदद। सामान्यतीः इनकी अस्िच्छता, आलस और दुगगन्ध को लेकर स्थातनय उतक्तयााँ भी बनाई गईं। गड़ररयों में भी सगोत्रीय और चचेरे-ममेरे बच्चों के मध्य तििाह िर्थजत है। पहले बाल तििाह था, अब कु छ बड़े होने पर तििाह करते हैं। िर पक्ष तििाह प्रस्ताि देता है। इसे सुपाड़ी की अदला-बदली से तस्िकृ त करते हैं। तिधिा तििाह और तििाह तिच्छेद को मान्यता है। इस राज्य के गड़ररया लोग तहन्दू धमग को मानते हैं। ददतश देिी इनकी अराध्य हैं, जो भेड़ों की रक्षा करती है। मााँसाहारी हैं, पर मुगी और सुअर के मााँस से दूर रहने का प्रयास करते हैं। मददरा भी पीते हैं। इनकी जातत पंचायत है, तजसका मुतखया महतो कहलाता है। यह पद िंशानुगत है। गड़ररया जातत क्रम में नीचे हैं और आलसी माने जाते हैं। तशक्षा अल्प है। 9. कोष्टा (देिााँगन):हस्ततशल्पी कोष्टा जातत के लोग छत्तीसगढ़ में तनिास करते हैं। इसमें कोष्टा, कोष्टी, देिााँगन, माला पदमशाली, साली, सुतसाली, सलेिार, सालिी, देिांग, जन्द्रा, कोस्काटी, कोश्काटी (बलगायत), गढ़िाल, गढ़ेिाल, गरे िार, गरािर, ड़ुकर और गोल्हाटी सम्मतलत हैं। सामान्यतीः कोष्टा और देिााँगन नामों से जाने जाते हैं। एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनससंख्या को लगभग 14 लाख अनुमातनत कर छत्तीसगढ़ में ढ़ाई लाख का अनुमान कर ड़ेढ़ लाख को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।276 यह लोग बुनकरी हस्ततशल्प के पारम्पररक व्यिसाय में है और सामान्यतीः रेशम और सूती िस्त्रों का उत्पादन करते हैं। इस जातत के ड़ुकर कोल्हाटी कसरत और व्यायाम प्रदशगन करते हैं। बुनकरी के व्यिसाय में रायपुर सम्भाग के दुगग तजले की बाया महरा या कौशल िया जातत भी है, जो दक कोष्टा से पृथ्क जातत है। कोष्टा नाम कोसा रेशम में व्यिहार करने के कारण पड़ा। यह रे शम अपने कु रमुरे टसर, सुन्दर और बहुअरं गी बप्रट और उसमें लाए गए निाचार और बदलािों के कारण प्रतसद्ध हुआ। छत्तीसगढ़ के कोसा रे शम को तिश्व स्तर तक ले जाने में इस जातत का योग है। यह लोग इसमें निाचार भी करते हैं। सूत की तितभन्न 275

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134 मोटाईयााँ, िस्त्र सुधार, नई तडजाईनें आदद सामने आईं। रामायण और महाभारत के तचत्रों की क्रमबध्दता और रं गसंयोजन ने, इस प्रतसद्ध तडजाईन को, ऊाँचाईंयााँ दीं। इस जातत का मानना है दक, उनकी उत्पतत माकग ण्ड़ेय ऋतष से हुई। यह माना जाता है दक, उन्होंने ईश्वर की नग्नता को ढ़कने के तलए कमल पुष्प के तंतुं से, सिगप्रथम िस्त्र बुना था। इसके पुरस्कार स्िरूप उनका तििाह सूयग कन्या से दकया गया। उन्हें दहेज में भिानी दैत्य और बाघ तमले। अिज्ञा के कारण, उन्होंने, भिानी दैत्य का िध कर ददया और उसकी हतड़ड़यों से प्रथम लूम बनाया। बाघ आज्ञाकारी बना रहा। अतीः यह कहा जाने लगा दक, कोष्टा को यदद िन में बाघ तमले तो िह माकग ण्ड़ेय ऋतष का नाम लेने पर छेड़छड़ नहीं कर आगे बढ़ जाता है। इस कथा में बाघ के जुड़ाि के कारण ही यह लोग शेर की सिारी करने िाली बसहिातहनी देिी की अराधना करते हैं। हालााँदक इनके बुनकरी तचत्रों में शेर भी बाघ के रूप में ही दशागया गया है। कोष्टा जातत में भी कई गोत्र हैं। लगभ 60। इनमें आपसी तििाह सम्बन्ध है। यह हैं- तरार, कु मज, बाराबुतधया, हडाऺहू, धके ता, सोनपरे ता या कु कु रपरे ता या परे ता, भेलिा, लेंजिार, खटकी, तलमजा, बांगडाऺ या बांगर, नेिरा, बांकुरा, कोसररया या सोनकोसररया, गरकट्टा, राजापूज्या, तनखार, ज्ञानकोहरी, नन्दनिार या नन्हेिार, रे हकिार या रे ड़कू , गोषा या गोखा, बुराग या गुराग, नारायणिंशी, नागिंशी या नागरिंशी, दुगगिंशी, गुरुिंशी या रघुिंशी, पदुमिंशी, रुद्रिंशी, शुकरिंशी, सूयगिंशी, देििंशी, ितशष्ठ, तिश्वातमत्र, शादुल ग या सांतडल, कश्यप, गगग, गौतम, देिराज, मेघराज, गजराज, धमगराज, सोनभद्रा, सोरता, बसघनी या बसहनी, बसह, तसयार, सोनयानी या सोनिानी, हनुमानिंशी, कोदररया, कु म्भज, कौतशक, िाचबंध,ु अतश्वनी कु मार, बोकररया, बेतसयार, बांधा या बाघा / बातधन, रुि,े कुं हार या कुं भज या कोहार, भुसा और यिार या पिार । इनमें लगभग 10 उपगोत्र भी हैं– बसेरा, कु कु र परे ता, नककरटा, बाघसिारी, नन्हेिार, कु ल्हाड़ा, साहकार, सदाफल, बघेल और नागिंशी। देिांगन जातत के कु छ गोत्रों के समूह को देि गोत्र कहते हैं । इनमें आपसी तििाह सम्बन्ध नहीं होते हैं।यह हैं– बाराबुतधया या ज्ञानकोतरी या नेिरा, भेलिा या खटकी या बांगड़ा, नारायणिंशी या पदुमिंशी या राजापूज्या या बोकररया, लेंजिार या धके ता या तरार या हड़ाहू, तलमजा या गरकट्टा या नककट्टा, बांकुरा या पिार या सोनिानी, कोसररया या सोनकोसररया या सोनभद्रा, बसह या शादूल्ग य, सोरता या कोहार और परे ता या सोनपरे ता/ या कु कु रपरे ता।277

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http://en.wikipedia.org/wiki/Dewangan

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135 तचत्र क्र.-39,कोष्टा कोसा बुनकरी में तचतत्रत बसहिातहनी

तच.क्र.-40,लूम

स्रोत- http://en.wikipedia.org/wiki/Dewangan

कोष्टा लोग तहन्दू धमग का पालन करते हैं और इसी धमग के अराध्यों की पूजा करते हैं। बसहिातहनी के रूप में दुगाग के उपासक हैं। सभी तहन्दू त्योहारों को मनाते हैं। इनके घरों में बुनकरी के सभी आिश्यक उपकरण होते हैं। लूम प्रमुख उपकरण है। ताना-बाना लगाने और रं ग सन्योजन में प्रिीण हैं। नए प्रयोग भी दकए हैं। जन्म और मृतक संस्कार तहन्दुं की तरह हैं। इनमें, तिशेष कर देिााँगनों में, तशक्षा का प्रचार हुआ है। तिदेश व्यापार और शासकीय नौकररयों में भी सफलता तमली है। निाचारों को भी प्रोत्सातहत दकया है।

10. लोहारीःलोहार जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। इसमें लुहार ,गड़ोले ,लोहपीटा , लोहार ,गड़ौला तिश्वकमाग और हुंगा लोहार सम्मतलत हैं। इसमें उल्लेतखत तिश्वकमाग संज्ञा ब्राह्मण तिश्वकमाग से पृथक है। एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनससंख्या को लगभग 87 लाख अनुमातनत कर, ढ़ाई लाख को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।278 लोहार लोग हस्ततशल्प के परम्परागत व्यिसाय में हैं। जैसा दक बढ़ई पर चचाग के दौरान उल्लेख आ चुका है दक, तिशिकमाग के हस्ततशल्प या कारीतगरी के पााँच मूल व्यिसाय या कायग माने गए हैं। लोहारी उसमें एक है। अन्य चार हैं- सुनारी, ठठे रा, पत्थर पर कायग और बढ़ईतगरी। यह ग्राम कारीतगरी की भी मूल श्रेणी में है। अतीः मूल हस्ततशल्प है। अब उस व्यतक्त को लोहार कहते हैं जो दक, लोहा या इस्पात का उपयोग करके तितभन्न िस्तुएाँ बनाता है। भारत में लोहार एक प्रमुख व्यािसातयक जातत है। हथौड़ा, छेनी, भाथी (धौंकनी) आदद उसके औजार हैं। िह इन औजारों का प्रयोग करके फाटक, तग्रल, रे बलग, कृ तष, बतगन, हतथयार आदद बनाता है।279 भारत में लोहार शब्द का प्रचलन मुतस्लमों के आने के उपरााँत आया। यह उदूग के लोहा शब्द से बना। यह जातत तहन्दू सतहत तसक्ख और मुतस्लम धमों में भी है। इन्हें मूलतीः ईरान की जनजातत माना जाता है, जो ईरान के खैरमंशाह (करमन शार) से पादकस्तान के खैबर-पख्तूनकहिा तक बसे थे। कभी लाहौर का नाम भी लोहारपुर था। पादकस्तान के पंजाब में अभी एक नगर लोहार नाम से है। एच.ए.रोज और डेनतजल इबटसन लोहारों की व्युत्पतत राजपूतों और जाटों से मानते हैं, जो दक तरखन (तुरकन या ईरानी जनजातत) थे और भारत आ गए थे। इन्हें सैसनाईड़278

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136 परतसयन से व्युत्पन्न कहा जाता है, तजन्होंने कभी ईरान पर शासन दकया था। जब यहााँ लोग भारत में स्थातपत होने लगे तब ऐसे ब्राह्मण और क्षतत्रय के रूप में स्थापना की, जो लोहे के हतथयार बनाते थे। भारत में लोहे हतथयार बनाने िाले लोग पहले से इस प्रिगग में थे।280 लोहार एक योद्धा जातत थी, तजसे सभ्यतां के प्रथम संस्थापकों में से एक माना जाता है। यहााँ मध्य एतशया की तसथतनक (ईरानी) जनजाततयों में से एक थे। भारत में इन्हें तिश्वकमाग से जोड़ा गया। कश्मीर के पुंछ तजले के लोहाररयन में इनकी सत्ता थी। यह पीर-पंजाल पिगत ऋंखला में है। प्रतसद्ध रानी ददद्दा, जो के शन गुप्त को ब्याही गई थी, लोहार शासक तसम्हा की पुत्री थी। तसम्हा स्ियं काबुल के जाट िंशीय शासक लाली भीमा की पुत्री से तििातहत था। ईरान से आने िाले लोहारों को तुकी लोहार कहा गया। इनका लोहारी कायग से कु छ भी लेना-देना नहीं था। यहााँ लोग बादशाह अकबर के दबाि के कारण यहााँ कायग करने लगे। इन्होंने उत्तर भारत की प्रतसद्ध जाततयों, यथा- खत्री, गुजगर, जाट और राजपूतों, के उप और िंश नामों को रखने की कोतशश की। सीतथयन, परतथयन, ग्रीक, बैक्टेररयन और मध्य तस्शया की हैतक्थ्लइज और टोचररयन या यूजी आदद जनजाततयााँ जब भारत में आईं तो िे क्षत्रीय िणग में सम्मतलत की गईं। धीरे -धीरे यहााँ लोग भारतीय आयग शाखा में तमल गए। अतीः यहााँ अम्भािना बनती है दक, खत्री, राजपूत, कम्बोज, जाट, गुजगर आदद िगग उनके स्थातनय तत्िों के तमलन से बने। भारत में लोहार तिश्वकमाग ब्राह्मण के रूप में सामने आए। इन्हें सीतथयन (ईरानी) मूल का माना गया। छत्तीसगढ़ राज्य में लोहार सभी तजलों में हैं। यहााँ लोग लोहे और इस्पात से कृ तष उपकरण, बतगन, हतथयार, सजािटी िस्तुएाँ आदद बानते हैं। छत्तीसगढ़ में लौह धातु अयस्क प्राचीन काल से तमलता रहा है और इस धातु के उपयोग के प्रमाण प्राचीन काल से ही तमलने लगते हैं। लोहार मेहनती और कायग कु शल जातत मानी जाती है। इस तलए ‘.... एक हाथ लोहार का’ जैसी उतक्तयााँ प्रचलन में आईं। इन्होंने छत्तीसगढ़ी सभ्यता, संस्कृ तत और हस्ततशल्प तिकास और उसकी स्थापना में योग ददया है। भारत में भी सुस्पष्ट ज्ञात इततहास का प्राम्भ भी लोहे की ज़ानकारी के साथ ही प्रारम्भ होता है। ददल्ली का लौह स्तम्भ इततहास में लोहे और कारीगरी का उच्च मापदण्ड़ है। नालन्दा तिश्वतिद्यालय की स्थापना इसको एक नया आयाम देती है। यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मानाते हैं। तिश्वकमाग की पूजा करते हैं। तहन्दू संस्कारों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं।

11. सुनारीःसुनार जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। इसमें सोनार, झाणी, झाड़ी, स्िणगकार, अितधया, औधी और सोनी सम्मतलत हैं। इसमें बतनया और अन्य जाततयों के सोना, चााँदी, आभूषण, रत्न आदद के व्यिसायी और व्यापारी तथा ज्िेलर आदद सम्मतलत नहीं हैं। यह लोग छत्तीसगढ़ राज्य के सभी 280

http://en.wikipedia.org/wiki/Lohar

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137 तजलों में तनिास करते हैं, तिशेष कर नगरीय क्षेत्रों में। सुनार जातत के लोग पारम्पररक रूप से हस्ततशल्प के व्यिसाय में हैं। यह लोग सामान्यतीः सोने और चााँदी के आभूषण, सजािटी िस्तुए,ाँ घरे लू सामान आदद बनाते हैं। सुनार शब्द संस्कृ त के सुिणग-कर (कार) शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। राबटग िाने रस्सेल्ल और रायबहादुर हीरालाल द्वारा, यह उल्लेख करते हुए, एक कथा बताई गई है दक, यह समान कथा खत्री और सुनार, दोनों जाततयों में, प्रचतलत है, पर यह तथ्य दोनों से अनतभज्ञ है दक, यह समान कथा दोनों जाततयों में है। यह कथा है- यह लोग उन दो राजपूत भाईयों में से उस एक की व्युत्पतत्त हैं, तजसे सारस्ित ब्राह्मण ने बचाया। ज्ञातव्य हो दक, सारस्ित ब्राह्मण उत्तर-पतिम में सामन्यतीः हैं। जैसे पंजाब, कश्मीर, तसन्ध आदद। आगे यह कहा गया दक, जब परशुराम क्षत्रीय िध को उदत्त थे, तब एक भाई से सुनार हुआ। खतत्रयों में यह बात अपने हेतु कही गई।281 सुनार जातत की तस्थतत , भारतीय जातत व्यिस्था में, कृ षक जाततयों से ऊपर है। इनमें कु छ अन्य प्रिगग भी हैं। जैस-े मेर क्षत्रीय सुनार (राजस्थान से प्रिजन), सूयगिंशी राजा अमरीश से क्षत्रीय सुनार, िैश्य अयोध्यािासी या पुरिईया सुनार, कन्नौतजया सुनार, महािर या महुर सुनार, दुगागपूजक सूयगिंशी, खुदाबन्दी तसन्धी स्िणगकार, ब्राह्मण गोत्र कश्यप, कौशल, भारद्वाज, शांतड़ल्य, ित्स अपनाने िाले रस्तोगी स्िणगकार। सुनार जातत हस्ततशल्प के परम्परागत व्यिसाय में हैं। जैसा दक बढ़ई और लोहार पर चचाग के दौरान उल्लेख आ चुका है दक, तिशिकमाग द्वारा हस्ततशल्प या कारीतगरी के पााँच मूल व्यिसाय या कायग तनधागररत दकए गए हैं। सुनारी उसमें से एक है। अन्य चार हैं- लोहारी, ठठे रा, पत्थर तशल्प और बढ़ईतगरी। यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मानाते हैं। तिश्वकमाग की पूजा करते हैं। तहन्दू संस्कारों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं।

12. काछीीःकाछी जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। इसमें इसकी उपजाततयााँ कु शिाहा, शाक्य, मौयग, कोयरी, कोईरी, पनारा, मुराई और सोनकर सम्मतलत हैं। साथ ही इसमें माली, सैनी और मरार प्रिगग भी सम्मतलत है। ।एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनसंख्या को लगभग सिा 53 लाख अनुमातनत कर 18 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।282 काछी जाततयााँ शाक (सब्ज़ी) का उत्पादन करती रही हैं, अब पुष्प उत्पादन भी करती हैं। शाक उत्पादन में इनकी रूतच अतधक है। माली लोग पुष्प उत्पादन करते रहे हैं। अब शाक भी उगाने लगे हैं। उद्यानकी या बाग़िानी िगग के सभी उत्पादों में इनकी अतधक रूतच रही है। कु छ लोग दुकानदारी, ईंट-भट्टे

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R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The Tribe and Castes of the Central Province of India

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138 आदद का कायग भी करने लगे हैं। यह लोग पररश्रमी और कायगकुशल माने जाते हैं और शााँतत के साथ अपने कायग में लगे रहते हैं। राज्य का अतधकााँश शाक, फू ल और फल उत्पादन और व्यिसाय इनके पास है। अतधकााँश काछी छत्तीसगढ़ी बोली बोलते हैं। यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मानाते हैं। शाकम्बरी देिी के रूप में दुगाग देिी की उपासना करते हैं। िे यह मानते हैं दक, िह उनके उत्पादन और उसकी रक्षा हेतु रहती है। तहन्दू संस्कारों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं। पहले बाल तििाह आम था। अब थोड़ी बड़ी उम्र में तििाह करने लगे हैं। तििातहत मृतक को गाड़ते हैं। कभी-कभी अतििातहत को भी, पर सदैि नहीं।

13. ठठे राीःठठे रा जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। ठठे रा में कसार, कसेरा, तमेरा, तम्बटकर, ओटारी, ताम्रकार, तमेर, घड़िा और झाररया सम्मतलत हैं। तिद्वान इनमें 44 के लगभग उपजाततयााँ बताते हैं, तजसमें िमाग और बसह जैसे उपनामों सतहत तथा राजपूतों जैसे बघेल, चौहान, परमार, गहलोत आदद उपनाम भी आ गए हैं।283 एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनससंख्या को लगभग 29 लाख अनुमातनत कर छत्तीसगढ़ में साढ़े पााँच हजार का अनुमान कर साढ़े तीन हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।284 ठठे रा जातत के लोग पारम्पररक रूप से हस्ततशल्प के व्यिसाय में हैं। यह लोग तााँबे, कााँस,े एल्युमीतनयम आदद धातुं या तमश्र धातुं से बतगन, घरेलू उपकरण, सजािटी समान आदद बनाते और तिक्रय करते हैं। अब कृ तष भी करने लगे हैं। जैसा दक बढ़ई, सुनार और लोहार पर चचाग के दौरान उल्लेख आ चुका है दक, तिश्वकमाग द्वारा हस्ततशल्प या कारीतगरी के पााँच मूल व्यिसाय या कायग तनधागररत दकए गए हैं। ठठे रा हस्ततशल्प उसमें से एक है। अन्य चार हैं- लोहारी, सुनारी, पत्थर तशल्प और बढ़ईतगरी। ठठे रा लोग अपने को चन्द्रिंशी राजपूत मानते हैं। उनका मानना है दक, उनकी उत्पतत्त सहस्त्रबाहु से हुई, जो परशुराम द्वारा मारा गया था। इसी कारण से िे अपनी व्युत्पतत्त को हैहय राजपूतों से भी सम्बद्ध करते हैं।285 इनमें जातत पंचायत भी है, तजसमें सम्पतत तििाद, तििाह-तिच्छेद, धोखा, अतिश्वास आदद के प्रकरण सुलझाए या तनराकृ त दकए जाते हैं।

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http://en.wikipedia.org/wiki/Thathera

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K.S.Singh-People of India-Utter Pradesh,Vol.-XLII,Pt.-III,P.1536-1540 (Manohar publications)

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139 यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मानाते हैं। अबधशतीः तहन्दू िैष्णि पंथ को मानने िाले होते हैं और राधा-कृ ष्ण की उपासना करते हैं। तहन्दू संस्कारों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं।

14. कु म्हारीःकु म्हार जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। इसमें प्रजापतत और कुं भार सम्मतलत हैं। एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनससंख्या को सिा करोड़ से अतधक अनुमातनत कर ड़ेढ़ लाख को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।286 इनका पारम्पररक कायग मृदा हस्ततशल्प से तमट्टी के बतगन, उपयोगी घरे लू समान, साज-सज्जा की िस्तुएाँ आदद बना कर तिक्रय करने का है। अब कृ तष कायग भी करने लगे हैं। यह लोग अपनी व्युत्पतत सीधे ब्रह्मा या प्रजापतत से मानते हैं और इसी कारण प्रजापतत भी तलखते हैं। कहीं-कहीं िमाग और कु माित भी तलखते हैं। इनका दािा यह भी है दक, कु म्हार के चक्र के रूप में, उन्हों ने ही पतहए का अतिष्कार दकया था।287 कु म्हार अच्छे व्यतक्त माने जाते हैं, जो सरल, धार्थमक, ईमानदार और पररश्रमी होते हैं। यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मनाते हैं। तशि और धरती माता की उपासना करते हैं। तहन्दू संस्कारों और रीतत-ररिाजों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं।

15. कु रमीीःकु रमी जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। कु रमी जातत में चन्द्राकर, पाटीदार, कु म्भी, गिैल, गमैल, तसरिी, कु रमार, कु नमी, कु मी, कु लमी, कु लम्बी, कु मगिंशी और कु ल्मी सम्मतलत हैं। एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनससंख्या को लगभग ड़ेढ़ करोड़ अनुमातनत कर 13 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।288 प्राचीन काल से ही कु रमी प्रमुख कृ षक जातत रही है। यह लोग कृ तष और कृ तष मजदूरी का कायग

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140 करते हैं। इन्हें तहन्दू धमग के क्षत्रीय िणग में माना जाता है। मनु के अनुसार यह िे क्षतत्रय हैं, तजन्होंने कृ तष कायग अपना तलया।289 इन्हें कु नबी भी कहा जाता है, तजसका अथग कृ षक है। कृ तष कायग करने के कारन इन्हें कृ तश भूतम के पट्टे ददए गए, तजससे यह लोग पाटीदार, पारटलदार, पारटल और पटेल कहलाए।290 राज्य में अतधकांशतीः चन्द्राकर, चन्द्रा, चन्द्रिशी, गमैल, कु नबी, कु मी, कु ल्मी आदद के नामों से जाने जाते है। पटेल, पाटीदारा, पाटनिार, खड़िा, लेिा, रे ड्ड़ी, नायड़ू, िाक्कातलगार, कोलांबी, कोलिाड़ी, कापू, कामा आदद भी इन्हींकी उपजाततयााँ हैं। यह लोग अथगरिंशी जैसिार, कादढ़या, करटयार, कन्नौतजया आदद में बटे हैं। अब यह लोग चन्द्राकर (चन्द्रिंशी), पटेल (पाटीदार), िमाग, करटयार, गंगिार, पिार, पारटअल, भोंसले, रे ड्डी, गौड़ा, तसतन्धया (तशन्दे), मोहंता, नायड़ू, महतो, सचान, कन्नौतजया, राि, तजखर आदद सरनेम तलखते हैं। यह माना जाता है दक, कु मी लोग आयों के भारत में आने के पूिग से ही कृ तष कायग कर रहे हैं। हालााँदक िे अपने को सूयगिंशी राम के सीधे िंशज कहते हैं, पर दोनो तथ्य तिपरीत हैं, क्योंदक राम एक आयग प्रतीक हैं। िे एक अन्य आयग प्रतीक, भागित में िर्थणत राजा पृथु से भी अपने को जोड़ते हैं, तजसे पृथ्िी को सिगप्रथम जोतने िाला बताया गया है। कनगल डाल्टन उन्हें प्रारतम्भक आयों का िंशज मानते हैं। प्रारतम्भक हो या बाद का, डाल्टन का मत उन्हें आयग ही मानता है। कु मी शब्द कमग शब्द से बना, तजससे पहले कमी बना और दफर कु मी। कमग शब्द संस्कृ त का है, तजसका अथग है करना। 1894 में लखनऊ में सरदार कु मी सभा का गठन दकया गया और 1910 अतखल भारतीय क्षतत्रय महासभा का। संत तुकाराम, प्रततभा पारटल, बल्लभ भाई पटेल, सन्दीप पारटल, दकरन मोरे , एस.के .िानखेड़,े तस्मता पारटल, चन्दू लाल चन्द्राकर, शरद पिार आदद इसी जातत में आते हैं। छत्तीसगढ़ के कु मी छत्तीसगढ़ी बोली बोलते हैं। इनमें तशक्षा का उतचत प्रचार है। यह पररश्रमी जातत है। यह लोग अपनी मुखरता और उग्रता हेतु भी जाने जाते हैं। इन्हें बलशाली और सशक्त हाथ िाला माना जाता है। इन्हें लोगों को अपने अधीन तनयुक्त करना पसन्द आता है। यह लोग लम्बे, मुखर और स्ितंत्र स्िभाि िाले होते हैं। यह लोग राज्य और सम्भाग में राजनीततक, आर्थथक और सामातजक रूप से अन्य तपछड़ी जाततयों से अतधक सक्षम हैं और एक बड़े दबाि समूह का कायग भी करते हैं। कु मी मतहलां की ऊाँचाई कम होती है। यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मनाते हैं। तहन्दू संस्कारों और रीतत-ररिाजों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं। 16. कलारीःकलार जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। इसमें जायसिाल, कलाल, डड़सेना

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अध्याय-X,श्लोक-90,95,106

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http://en.wikipedia.org/wiki/kurmi

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141 सम्मतलत हैं। एक स्रोत द्वारा भारत में इनकी जनससंख्या को साढ़े 36 लाख अनुमातनत कर 5 हजार को छत्तीसगढ़ी बोलने िाला माना गया है।291 कलार लोग पारम्पररक रूप से शराब तनमागण और उसके तिक्रय के व्यिसाय में रहे हैं। अब कृ तष और व्यापार करने लगे हैं। छत्तीसगढ़ में औपतनिेतशक काल में नमक पर, जब कर भार अतधक था, तब यह लोग नमक बाहर से माँगा जनजाततयों को ऊाँचे मूल्य पर बेचते थे। िे उन्हें शराब दे कर अन्न लेते थे। छत्तीसगढ़ में कई जनजाततयााँ भी शराब बनाती रही हैं, जो उनके सभी आयोजनों और संस्कारों में उपयोग होती रही है। कु छ कलार महाजनी भी करते थे। इबटसन इनके कु ख्यात व्यापारी होने का इशारा करता है।292 कलार शब्द संस्कृ त के कल्यपाल से बना है, तजसका अथग मददरा बनाने िाला होता है। कल्यपाल का मतलब हुआ आसिन की गई सामग्री का अतधपतत, तजसमें शराब और औषतध आदद सभी प्रकार आसिन सम्मतलत हैं। हालााँदक बाद में यह शराब तक ही सीतमत रह गया। कलाल शब्द की व्युत्पतत्त संस्कृ त के कल्य या कल्प से मानी जाती है तजसका अथग होता है इच्छापूर्थत करना। व्यिहार में लाने योग्य, समथग आदद। व्यािहाररक तौर पर इसमें राशन सामग्री का भाि भी आता है। आप्टे के संस्कृ त शब्दकोश में कल्पपालीः का अथग शराब तिक्रेता बताया गया है। इसी तरह कल्य शब्द का अथग भी रुतचकर, मंगलमय आदद है। इसमें भी भोज्य सामग्री का भाि है। कल्य से ही बना है कलेिा जो तहन्दी में खूब प्रचतलत है और सुबह के नाश्ते या ब्रेकफास्ट के अथग में इस्तेमाल होता है। कल्या का मतलब मादक शराब होता है। मददरा के कई उपासकों का कलेिा कलाली पर ही होता है। कल्यपाल या कल्पपाल एक पदनाम भी रहा तजस पर तैनात व्यतक्त के तजम्मे सेना की रसद से जुड़ी हुई तमाम तजम्मेदाररयां थीं। कल्यपाल यानी जो खाद्य आपूर्थत का काम करे ।293

तचत्र क्रमांक-41, कलारों द्वारा दकए जाने िाला आसिन स्रोत- http://shabdavali.blogspot.com/2009/02/blog-post_27.html

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142 इनमें कई उपतिभाग हैं, जो सामान्यतीः क्षेत्र के आधार पर बने हैं। जैसे- अिध और कन्नौज से आने िाले जैसिार और कन्नौतजया, मालिा से आने िाले मालिी, दतक्षण गुजरात से आने िाले ड़हार, जबलपुर से आने िाले डेहररया। इनमें से राय उपजातत के लोग अपने को ऊाँचा और सभ्रांत मानते हैं। तशिहरे जातत की संज्ञा सोम-हर या सोम से बनी। यह भी माना जाता है दक तशि पूजक होने से तशिहरे शब्द बना। तशिहरे लोग अपने को बतनया जातत की उपजातत अग्रिाल से सम्बतन्धत मानते हैं और यहााँ कहते हैं दक, िे एक ही पूिगज ही दो संतानों- शेरू और अगरू,- से उत्पन्न हुए। कु छ का मानना है दक, कलार िैश्यों और बतनयां की तितभन्न उपजाततयों से उत्पन्न हुए। कु छ कलारों ने जैन धमग भी अपनाया।294 देश के अलग अलग इलाकों में इनके कई नाम भी प्रचतलत हैं मसलन कलार, कलिार, दहररया, जायसिाल, कनौतजया, आहलूिातलया, तशिहरे आदद। पंजाब के आहलूिातलया पंजाब की लड़ाका जातत रही है। यह भी कलार जातत में माने जाते हैं। कलाल समुदाय में जायसिाल िगग काफी सम्पन्न और तशतक्षत भी रहा है।295 छत्तीसगढ़ राज्य में कलारों की एक उपजातत ड़ड़सेना है। यह नाम ड़ंड़ा या छड़ी लेकर चलने के कारण पड़ा। इसकी यह कथा कही जाती है दक, बालोद के राजा के पुत्र का तमत्र एक कलार युिक था। उसकी बहन के प्यार में राजपुत्र पड़ा। कलार युिक ने राज दरबार में उपतस्थत होकर यह कहा दक, एक कु त्ता मेरे दरिाजे पर बार-बार आता और घुसता है, तो अब मैं क्या करू? राजा ने कहा- मार दो। तब इस युिक ने पूछा दक, क्या मुझे इसकी सजा तमलेगी? राजा ने कहा- नहीं। आगामी ददिस जब राजपुत्र उसके घर उसकी बहन से तमलने घुसने लगा तो, उसने उसे मार डाला, जबदक िह उसका तमत्र भी था। अब राजपूतों ने रानी के नेतृत्ि में इन लोगों पार हमला कर ददया। राजा तटस्थ बना रहा। राजपूत हार गए। राजा ने मध्यस्थता कर कलारों को बचा तो तलया, पर कलारों ने बालोद सदा के तलए छोड़ ददया और िहााँ का पानी पीना बन्द कर ददया। यह कलार लोग ड़ंड़े से लड़ने के कारण ड़ड़सेना कहलाए।296 कलार जातत ऊाँची कृ तष जाततयों से नीचे रही है। ब्राह्मण उनके संस्कारों में सम्मतलत होते हैं, पर सामान्यतीः खान-पान से दूर रहते थे। यह लोग मददरापान भी करते हैं। कलार लोग तहन्दू रीतत से तििाह करते हैं, इनमें िास्ततिक तििाह के पूिग कु एाँ से तििाह की रस्म दकए जाने का प्रचलन रहा है।297 यह लोग तहन्दू धमग, तहन्दू देिी-देिता को मानते और तहन्दू त्योहारों को मनाते हैं। तहन्दू संस्कारों और रीतत-ररिाजों को अपनाते हैं। जन्म और मृत्यु संस्कार तहन्दुं के अपनाते हैं। 17. कोलताीःकोलता जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में उड़ीसा राज्य के सम्बलपुर तजले से लगे तजलों यथा रायगढ़ आदद में तनिास करते हैं। इसमें कलोता, कलोटा और कोल्टा सम्मतलत हैं। यह लोग राज्य में कृ तष 294

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143 कायों में रत रहे हैं। छत्तीसगढ़ में कोलता लोग उड़ीसा राज्य से आए। इनकी भाषा उतड़या है और अब छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं। यह लोग प्रचीन और मध्य काल में तिस्ताररत दतक्षण कोसल राज्य के तनिासी रहे हैं। यह माना जाता है दक, यह लोग उड़ीसा के बुद्ध राज से आए। िहााँ यह लोग भी दीिान थे। िहााँ से आने के उपरााँत यह लोग राज्य के उत्तर-पतिम के तजलों में बसे। यह तजले सम्बलपुर के आस-पास हैं। छत्तीसगढ क़ोलता लोगों को बाबा तबशाशहे कु ल कोलता समाज के नाम से भी जाना जाता है। भारत में यह लोग 6 लाख अनुमातनत हैं। राज्य में इनकी जनसंख्या का अनुमान डेढ़ से पौने दो लाख का है, तजसमें से 70-75 हजार छत्तीसगढ़ी भी बोल लेते हैं।298 यहााँ यह लोग अतधकााँशत: रायगढ़ ,जशपुर, बरमके ला-सररया , सरायपाली ,बसना एिं तपथौरा में बसे हैं। इसके अततररक्त यह लोग महासमुंद, रायपुर, तभलाई, तबलासपुर एिं कोरबा आदद नगरों में नौकरी और तशक्षा आदद के कारण बसे हैं। इनका समातजक रहन सहन, सांस्कृ ततक एिं भाषाई तिशेषताएं संबलपुर अंचल से तमलती जुलती हैं। पहले सम्बलपुर भी कोसल और छत्तीसगढ़ का ही भाग था।299 कोलता जातत की उत्पतत्त के तिषय में यह कहा जाता है दक, यह लोग कु लादारी पिगत्त के समीप रहते थे और कु लादरी से ही कोलता संज्ञा की व्युत्पतत्त हुई। कोलता का अथग कोलादरी या कु ल्लू से उत्पन्न है। बाद में यह लोग प्रिजन कर दतक्षन कोसल में आए। यह लोग मानते हैं दक, जाब रम बनिास काल में सम्बलपुर के िनों में थे, तब उन्हें तीन भाई तमले। उन्होंने उनसे पानी मााँगा। पहला भाई तााँबे के पात्र में पानी आया। दूसरा डोरी की सहायता से कुाँ ए से पानी तनकाल पणग दोने में लाया। तीसरा खोखले कद्दू में लाया। तीनों क्रमशीः शुद्ध, दुमाल (डोरी-माल) और कोलता (क़ु -रीता) कहलाए। एक अन्य कथा में यह कहा गया दक यह लोग अयोध्या से बुद्ध आए। िे जनक द्वारा सीता के साथ अयोध्या भेजे गए, जहााँ िे पानी उठाने/भरने का काम करते थे। यह भी कहा जाता है दक, िे जनक की जूठन से बने। िे बनिास के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता के साथ आए।300 कु छ तिद्वान कृ षक जातत चासा से कोलता जातत की व्युत्पतत्त मानते हैं। उनका मत है दक, यह लोग िह चासा हैं जो दक, कु लथा (Dolichos uniflorus) बोते थे। कोलता लोगों में कई गोत्र हैं। यथा- दीप (दीपक), बच्चा (बछड़ा), हतस्त (हाथी), भारद्वाज (नीलकं ठ) आदद। बच्चा गोत्र के लोग दकसी भी बछड़े को सबसे पहले नहीं जोतते हैं। इन लोगों में 120 के करीब सरनेम प्रचतलत हैं। यथा- राउत, साहू, प्रधान, नाईक, माझी, कु लता, कु मारी, गुप्ता, तबशाल, बेहरा, बाररक, बदेहई आदद। बुद्ध के राजा ने अपनी पुत्री के तििाह में एक दुमाल और चार कोलता पररिार पंतगढ़ के राजा को ददए। इन लोगों ने पटना ररयासत के कृ तष तिकास में योग ददया। कु छ कोलता पररिार पटनागढ़ से बरगढ़-गैसमा प्रिर्थजत हुए। इन्होंने सरसरा में रामचंड़ी देिी का मतन्दर बनाया। यह इनकी प्रधान अराध्य 298

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R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The Tribe and Castes of the Central Province of

India,P.537-542

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144 या इष्ट देिी बनीं। कोलतं के मुख्य उपिगग- भाई और प्रधान- इसके पुजारी हुए। इन्होंने बरगढ़ स्थातपत दकया, जो कोसल की भी एक प्रशासतनक इकाई अथागत एक गढ़ हुआ। अथागत छत्तीसगढ़ संज्ञा का एक गढ़। यह लोग महानदी बेतसन की जीरा, अंग और तेल नदी के क्षेत्रों में बसे।301 पटनागढ़ के राजा राय बसहदेि के काल में कोलता साहू पररिार का गौंरटया रहा। उसके दो पुत्र कु िेर साहू और अमर साहू तथा एक पुत्री थी। यह कन्या सुन्दर थी। पटनागढ़ का एक राज पुरूष उस पर आसक्त हो गया। अब उसकी कु दृतष्ट उस पर थी। अतीः इस पररिार ने पटनागढ़ छोड़ ददया। इन्होंने अंग नदी पार की और प्रण दकया दक, अब उनके िंशज अंग नदी के उस पार ही नहीं जाएाँगें। अब िे उत्तर की ओर बढ़ कर बरपाली के उपरााँत जीरा नदी को पार कर गए। तब सम्बलपुर में अजीत बसह (1725-1766) शासक था। िह कमजोर शासक रहा है। उस पर दीिान का अतधपत्य था। इसी समय यह कोलता लोग जीरा नदी के उत्तरी तट पार बसे। रात में इस िृद्द गौंरटया को ने स्िप्न में एक िृद्धा को देखा, जो यह कह रही थी दक अब और आगे मत जां। यह स्थान गैसमा कहलाया। गैसमा का अथग गाय-सीमा है। अथागत जहााँ तक गाय चले। गैसमा में इन्होंने तक्र्श तिकास के कई कायग दकए। उस समय िहााँ स्थातपत तब्ररटश पातलरटकल एजेंट काबडेन रामसे ने भी कोलता लोगों की कृ तश योग्यता की प्रशंसा की। राजा उदय प्रताप देि (1853-1881) कृ तष तिकास हेतु कोलतां को कालाहााँड़ी ले गए। उनकी पतत्न आशा कु मारी महाराज नारायण बसह की इकलौती कन्या थी। 1882 में कालाहााँड़ी का कु न्द तिद्रोह कोलता लोगों द्वारा ही दकया गया।302 कोलता लोग कृ तष कायग तो करते ही हैं, परंतु इनका योग कृ तष तिकास और इस हेतु आधुतनक तकनीदकयााँ अपनाने में है। इन्होंने जल और बसचाई प्रबन्धन को भी तिकतसत दकया। कृ तष को उन्नत बनाया। याह लोग सामातजक तिकास में भी रूतच रखते हैं। छत्तीसगढ़ राज्य में यह लोग तशक्षा तिकास, स्त्री तशक्षा तिकास, ग्राम तिकास, ग्राम सद्भािना, ग्राम प्रबन्धन आदद में सहयोग के तलए तचतन्हत हुए। यह लोग इन सभी कायों में पहल भी करने के साथ अभूतपूिग योगदान भी करते हैं। धार्थमक और सााँस्कृ ततक आयोजनों को बढ़ािा देते हैं। सामूतहक उत्सिों का आयोजन करते हैं। सामातजक, सााँस्कृ ततक उत्थान और तशक्षा तिकास की ओर तिशेष आग्रही हैं। छत्तीसगढ़ के कई ग्रामों में स्त्री तशक्षा और रथ यात्रा का प्रारम्भ इन्हीं लोगों द्वारा दकया गया। िैष्णि और शैि पंथों को पास लाने का प्रयास दकया। हरर-हर तिचार को प्रोत्सातहत दकया। गन्धारादी में इस तरह का मतन्दर भी स्थातपत दकया। कोलता तहन्दू धमग का पालन करते हैं। तहन्दू अराध्यों की उपासना करते हैं। रामचण्ड़ी इनकी इष्ट हैं। पुरी के जगन्नथ के उपासक हैं। तशि की भी पूजा करते हैं। तहन्दू संस्कारों और रीतत-ररिाजों को मानते हैं। धार्थमक आयोजन आयोतजत करते हैं और उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं। जन्म, तििाह और मृत्यु संस्कार तहन्दु रीतत से करते हैं। जगती क्षेत्र में सभ्यता के तिकास हेतु जाने जाते हैं। यह लोग सुसंस्कृ त माने जाते हैं, जो प्रबन्धन और तिकास को अपनाते और प्रोत्सातहत करते हैं। 18. नाईीःनाई जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य में तनिास करते हैं। नाई में सेन, सतिता, उसरे टे, श्रीिास 301

http://en.wikipedia.org/wiki/Kuilta

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145 सम्मतलत हैं। इसमें इनकी म्हाली, नाव्ही और उसरे टे उपजाततयााँ भी सम्मतलत हैं। इन्हें नऊआ और नाऊ ठाकु र भी कहा जाता है। कहीं-कहीं हज्ज़ाम भी बोलते हैं। यह लोग छत्तीसगढ़ के सभी तजलों के अतधकााँश ग्रामों में हैं। इस राज्य में इनकी जनसंख्या सिा से ड़ेढ़ लाख तक होने का अनुमान है, तजसमें से आधे से अतधक छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं और भारत में इनकी जनसंख्या 1 करोड़ 5 लाख से अतधक अनुमातनत है।303 नाई जातत के पारम्पररक कायग में प्रमुख बाल काटना है। इसके अततररक्त शरीर सेिा यथा- मातलश करना, नाखून काटना, थकान उतारना, बदन दबाना, ददग ठीक करना आदद कायग भी यह लोग करते हैं। अब इन कायों में अन्य उच्च जाततयों के लोग भी आए हैं और ब्युटी पालगर या तक्लतनक, मसाज पालगर, हैल्थ क्लब या तक्लतनक, स्पा, सैलन ू आदद कई नामों से यह कायग सैतलतब्ररट रूप ले चुका है। पर यह लोग नाई के अन्य पारम्पररक कायग नहीं करते। जैसे- नाई की उपतस्थतत तििाह संस्कारों में िांतछत होती है। पारम्पररक आमंत्रण और न्योते नाई हे देते थे। पारम्पररक तििाह प्रस्ताि और सम्बन्ध इन्हीं के द्वारा कराए जाते थे। शुभ समाचार भी नाई ही ले कराए जाते थे। नाई लोग अब कृ तष भी करने लगे हैं।304 नाई अपनी उत्पतत तशि द्वारा बताते हैं, जब उन्होंने पािगत्ती के नाखून काटने हेतु इन्हें बनाया।305 नाई लोग अपने को क्षत्रीय मानते हैं। इनमें तीन तिभाजन हैं- गोले, बैहमारी और बारी। आगे इसमें और उपतिभाजन हैं।306 इनमें भी जातत पंचायत है, पर तनिागतचत। यह परम्परा भंग, अिैध सम्बन्ध आदद के मामले सुलझाती है। नाई लोग तहन्दू धमग का पालन करते हैं। इनमें शैि और िैष्णि, दोनों पंथ, को मानने िाले हैं। मुतस्लम धमग अपनाने िाले हज्ज़ाम कहलाते हैं, जो दक छत्तीसगढ़ में लगभग नहीं हैं। 19. पनकाीःपनका जातत, तजसे पतनका भी कहा जाता है, छत्तीसगढ़ के रायपुर और तबलासपुर सम्भाग में मैकाल पिगत्त श्रेणी और मध्य प्रदेश के शहड़ोल तजले से लगे भागों में रहते हैं। शहड़ोल ही इनका मुख्य आिास है। पूरे भारत में मात्र यह क्षेत्र ही इनका आिास है। छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या लगभग साढ़े आठ लाख अनुमातनत है, तजसमें से चार लाख के लगभग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं और भारत में इनकी जनसंख्या लगभग 10 लाख ही अनुमातनत है।307 अथागत यह लोग अतधकााँशतीः इस राज्य में ही हैं।

303

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php?rog3=IN&peo3=113203

304( 305

Edited by) A. Hasan and J. C. Das-People of India -Uttar Pradesh, Vol.-XLII, P. 1067-1069

R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The Tribe and Castes of the Central Province of India,

P.331-354 306

http://en.wikipedia.org/wiki/Nai_(caste)

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146 पतनका लोग ईमानदार माने जाते हैं। सामान्यतीः गोंड़, बैगा, पारधी आदद जनजाततयों के साथ रहते हैं। मध्य प्रदेश के बुन्देल और बघेल खण्ड़ों में पतनका भी जनजातत ही है। यह लोग ग्राम कोटिारी या चौकीदारी करने के कारण कोटिार भी कहे जाते रहे हैं। यह लोग हस्ततशल्प से रं गीन बुनकरी के तलए भी जाने जाते हैं। इसके अततररक्त यह लोग मजदूरी भी करते हैं।

तचत्र क्र.-42, पनका बुनकर

स्रोत- http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

पनका लोगों की व्युत्पतत अभी तक अनिेतशत नहीं है। रस्सेल्ल ने इन्हें द्रतिण मूल का माना था, तजनकी व्युत्पतत छोटा (चुरटया) नागपुर की पान जनजातत से हुई। पान से पहले गााँड़ा लोग बने दफर यह लोग।308 छत्तीसगढ़ में अतधकााँश पनका लोगों ने कबीर पंथ को अपनाया हुआ है। इनका दूसरा समूह शाक्त पंथ को मानता है। कबीर पंथ मानने िाले पनका, राज्य में, अतधक हैं। िे कहते हैं:पानी से पनका भए, बुन्दन राचे शरीर आगे-आगे पनका बहे, पाछे दास कबीर

कबीर पंथ मानने िाले पनका अपने को शुद्ध मानते हैं और मााँस और मददरा से परहेज करते हैं। इनका तशक्षा के प्रतत रूझान भी है। अब यह लोग सरकारी नौकररयों में सामान्य तौर पर आ रहे हैं। शाक्त पनका इसके तिपरीयत हैं। िे बुनकरी करते हैं और अपनी रं गीन बुनकरी की पृथ्क पहचान बानाने में सफल रहे हैं। इनके भी कई गोत्र हैं, जो पशुं और िृक्षों के नाम पर हैं। यह लोग अपनी जातत के अन्दर ही तििाह करते हैं। लड़दकयों का तििाह जल्दी करते हैं। यह लोग तहन्दू धमग का पालन करते हैं। शाक्त पतनका में यह भािना अतधक प्रबल है। कबीर पंथी कबीर के अनुयायी हैं। िे छोटे मनकों की माला पहनते हैं। कबीर भजनों को गाते हैं। मूर्थत और जातत प्रथा के तिरोधी हैं। गााँि में कबीर-चौरा नामक चबूतरा बनाते हैं। इनका प्रधान महन्त कहलाता है, तजसका एक दीिान होता है। माघ, फाल्गुन और कार्थतक पूर्थणमा को तिशेष पूजा करते हैं। तहन्दू धमग का ही पालन करते हैं। सभी पनका तहन्दू त्योहारों, रीतत-ररिाजो, संस्कारों आदद का पालन करते हैं। सामान्यतीः सभी पनका 308

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147 शाकाहारी हैं। मााँस-मददरा सेिन पर जातत िाह्य दकया जाता है। सामान्यतीः श्वेत िस्त्र ही पहनते हैं। स्त्री के बदचलन होने पर ही तलाक ददया जाता है, िह भी उसे एक बार सचेत करने के उपरााँत। पुरूष को सामातजक भोज देना पड़ता है, तजसे मस्ती-जीती का भात कहते हैं। शि का तसर उत्तर ददशा में रख कर जलाते हैं। 20. तेलीीःतेली जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों में हैं। इसमें ठाठ, साहू और राठौर सम्मतलत हैं। यह साहू कोलता या कु लता साहू से और यह राठौर राजपूत राठौर से पृथक है। सामान्यतीः यह लोग राठौर और साहू सरनेम तलखते हैं। यह जातत एक दबाि समूह के रूप में भी सामने आई है। यह एक कमग आधाररत व्यिसायी जातत है। तजन तेतलयों ने मुतस्लम धमग अपनाया था, िे रोशनदार, मतलक या मुतस्लम तेली कहलाए। छत्तीसगढ़ में तहन्दू तेली ही हैं। यह लोग तेल पेरने, तनकालने और तिक्रय का कायग करते हैं। सामान्यतीः खाद्य तेल। कोल्हू और बैल इनका पारम्पररक उपकरण रहा है। तेली शब्द तेली से ही बना है। यह लोग अपने को साहू (िैश्य) कहते हैं और सरनेम के रूप में सा, साि, साहू, बकाने, पुरूस्ती, ड़ेहरा, नातथले, गुलहाने, जेस्ती, गुप्ता, प्रधान, तसरभटे, तमसुरकार, साकारकार, िाटगह्टे, मण्ड़ल, साहा, बंजारी, गोरी, दास, साधु, छोटिे, कार्ददले, देहादे, तशन्दे, कारपे, बेले, तेली, लंजिारे , असमिार, चौधरी आदद लगाते हैं। भारत में इनकी जनसंख्या का अनुमान 1 करोड़ 65 लाख का है, तजसमें से लगभग 24 लाख छत्तीसगढ़ में माने जाते हैं और उसमें से लगभग 13 लाख तेली छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।309 तेली लोगों की कई उपजाततयााँ हैं। जैसे- राठौर, सािजी, तुरमाल, एकबैली, व्दौबैली, ततलिाना पतिम भारत में चौहान तेली भी हैं। उपतनिेश काल में तेल का व्यपार लाभप्रद होने पर कु छ कृ षक जाततयााँ इसमें सम्मतलत हुई। चौहान एक ऐसी ही उपजातत हो सकती है। आदद।310

छत्तीसगढ़ में तेली तहन्दू हैं। कु छ ने इसका सतनाम पंथ भी अपनाया है। 21. रजिार:रजिार जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य के सरगुजा सम्भाग में तनिास करते हैं। अन्य भागों में नगण्य प्राय हैं। इनका व्यिसाय कृ तष मजदूरी और कृ तष है।311 इनकी व्युत्पतत्त के तिषय तितभन्न मत हैं। प्रथम- भुईंया जातत से व्युत्पतत का। तद्वतीय- डाल्टन का द्रतिण का (तचलो नृत्य के कारण)। तृतीय- कु मी पुरूष और कोल मतहला के मेल से व्युत्पतत का। इसी कारण

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(Edited by) A. Hasan and J. C. Das-People of India -Uttar Pradesh, Vol.-XLII

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डा.संजय अलंग-कोररया ररयासत का प्रशासतनक अध्ययन

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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148 से कु छ जाततयााँ इनसे पानी नहीं पीतीं थीं। चतुथग- एक ऋतष की दो संतानों में से एक रजिार और एक मुसहर होने का।312 भारत में इनकी जनसंख्या 543,000 अनुमातनत की गई है, तजसमें से मात्र 2,500 लोग ही छत्तीसगढ़ हेतु अनुमातनत दकए गए हैं, तजनमें से 2,200 छत्तीसगढ़ी की उपबोली सरगुतजहा भी बोलते हैं।313 यह लोग छोटा (चुरटया) नागपुर से छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आए। तहदू धमग का पालन करते हैं। तहन्दू अराधयों को मानते हैं। तहन्दू त्योहार मनाते हैं। जन्म, तििाह और मृतक संस्कार भी तहन्दू हैं। इनकी तस्त्रयााँ मृदा तभतत्त तचत्रकारी हेतु जानी जाती हैं।

(पााँच). सामान्य जाततयााँ:तिगत पृष्ठों में हमने छत्तीसगढ़ में तनिासरत अनुसूतचत जनजातत, अनुसूतचत जातत और अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों पर चचाग की। तितभन्न िगग की जाततयों पर चचाग करने के उपरााँत अब सामान्य िगग की जाततयों पर चचाग शेष रह जाती है, तजस पर आगामी पृष्ठों पर चचाग की जा रही है। सामन्य िगग की जाततयों में िह सभी जाततयााँ सम्मतलत हैं, जो दक अनुसूतचत जनजातत, अनुसूतचत जातत और अन्य तपछड़ा िगग में िगीकृ त्त नहीं हैं। ऐसी जाततयों का पृथक-पृथक उल्लेख कहींकहीं अिश्य है, पर यह िगीकृ त्त और सूचीबद्ध नहीं हैं। अतीः इनकी संख्या भी स्थातपत नहीं की गई है। अतीः इस िगग की जाततयों का तचन्हााँकन और िणगन सामान्य और सहज सुलभ सूचनां के आधार पर ही दकया जाना होगा। सामान्य िगग की इन जाततयों को अब, अगड़ी जाततयााँ (Forward caste या class) कहा जाने लगा है। यह िह जाततयााँ हैं, तजन्हें भारत शासन और राज्य सरकारों द्वारा कोई आरक्षण नहीं ददया गया है। इन जाततयों की सूची, संख्या और जनसंख्या स्पष्ट रूप से घोतषत नहीं है। 2011 की जातत आधाररत जनगणना के आाँकड़े आने के उपरााँत तस्थतत स्पष्ट होने की आशा है। कततपय सिेक्षणों के आधार पर इनकी जनसंख्या कु ल जनसंख्या का लगभग 36-39% तक अनुमातनत है। इसका अतधक तिस्तार दकया जाए तो इसमें अन्य धमों के लोग भी आ जाएगें, जो दक आरक्षण हेतु पात्र नहीं माने गए हैं। राष्ट्रीय सिेक्षण सूचकांक के सिेक्षण में इन जाततयों को भारत में लगभग 36% और मध्य प्रदेश में लगभग 21% पाया गया था। तब छत्तीसगढ़ भी मध्य प्रदेश का भाग था। एक अनुमान के अनुसार अतधकााँश िैश्य या बतनया जाततयााँ, अग्रिालों के सभी समूह, इसी के समांतर अन्य व्यिसायी जाततयााँ, के रल के अंबलािंशी, दतक्षण भारत के आयग व्यास या तचट्टी या शेट्टी, सभी ब्राह्मण जाततय़ााँ, कई जाट जाततयााँ, कनागटक कु कग की खोड़िा जातत, सभी लबाना जाततयााँ, सभी कायस्थ जाततयााँ, कई महाजन जाततयााँ, कई मतहषस्य जाततयााँ, महाराष्ट्र की मराठा जातत, दतक्षण की नायर और बुंट जाततयााँ, सभी राजपूत और क्षत्रीय जाततयााँ, उड़ीसा की पटनायक जातत, कनागटक की बलगायत या िीराशैि जातत, पंजाब के सभी खत्री समूह, सभी अरोड़ा समूह, सभी तसन्धी आदद को सामान्यतीः इस सामान्य िगग में

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R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The Tribe and Castes of the Central Province of India,

P.575-576 313

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149 तचतन्हत दकया जा सकता है। कु छ जाततयााँ ऐसी भी हैं जो तभन्न-तभन्न राज्यों में तभन्न-तभन्न प्रिगों में हैं। जैस-े ततमलनाड़ू में चरट्टयार या चेट्टी अन्य तपछ्ड़ा िगग में, तिश्वकमाग कई राज्यों में अन्य तपछ्ड़ा िगग में, तबहार में कई िैश्य और बतनया जाततयााँ अन्य तपछ्ड़ा िगग में, बोयार के न्द्र सरकार के अन्य तपछ्ड़ा िगग में, धााँगर महाराष्ट्र, गुजगर पााँच राज्यों में, कााँपू की कई उपजाततयााँ आन्र प्रदेश और ततमलनाड़ू में, कानूनीग़ार ततमलनाड़ू में, कु रमी पााँच राज्यों में, कु म्हार कई राज्यों में, नायड़ू और उसकी उपजाततयााँ, िेल्या आन्र प्रदेश में, कम्मा आन्र और ततमलनाड़ू में, रे ड्ड़ी रे ड़ीयार के रूप में कु छ राज्यों में। कु छ अन्य धमागिलम्बी भी सामान्य िगग में आते हैं। जैसे- तसन्धु नदी के पतिम से आने िाले और बसने िाले मुतस्लम समूह और जाततयााँ, दतक्षण के कई इसाई समूह और जाततयााँ, लगभग सभी जैन, पारसी, यहूदी, अल्प संख्या में बौद्ध आदद। उक्त िणगन के आधार पर आगामी िणगन के तलए कु छ आधार तमलता है। छत्तीसगढ़ राज्य में अनारतक्षत सामान्य या अगड़ी जाततयों के रूप में तचतन्हत होने िाली जाततयााँ हैं- अपनी उपजाततयों के साथ िैश्य िणग की बतनया जाततयााँ (कु छ को छोड़कर। जैसे कलार) सभी तिभाजनों और उपतिभाजनों के साथ सभी ब्राह्मण जाततयााँ, कु छ राजपूत और क्षतत्रय जाततयों को छोड़ कर अतधकााँश राजपूत और क्षतत्रय जाततयााँ, सभी पंजाबी जाततयााँ (जैस-े पंजाबी ब्राहमण, खत्री, अरोड़ा, अतधकााँश तसक्ख आदद)(कई राज्यों में तसक्खों की कु छ जाततयााँ अन्य प्रिगों में भी हैं।), सभी जैन जाततयााँ (हालााँदक अब जैन धमग एक अलग अल्पसंख्यक धमग के रूप में मान्य दकया गया है।), सभी कायस्थ जाततयााँ, मराठा, तसन्धी जाततयााँ आदद। हालााँदक इस कतथत सामान्य िगग में भी गरीबी और तपछड़ापन है। ग्रामीण क्षेत्रों में इन अगड़ी जाततयों में मात्र 6.4% लोग ही ऐसे थे, तजनकी आय 925/- प्रततमाह थी। जबकी 30% ग्रामीण इस प्रिगग में हैं। इस प्रिगग के 30% लोगों की आय 525/- प्रतत माह से काम थी। मात्र 5.6% लोग ही ऐसे थे तजनकी मातसक आय 1,925/- से अतधक थी। के िल 8% स्नातक और 30% साक्षर पाए गए थे। युनाइटेड़ नेशन 1 $ अमेररकी डालर प्रततददन से कम आय को गरीबी मानता है। भारत में इसे पररिर्थत्तत कर 0.25 अमेररकी डालर दकया गया है। इस आधार पार छत्तीसगढ़ ग्रामीण क्षेत्रों में 26% लोग गरीब माने गए हैं। छत्तीसगढ़ सरकार के पृथक-पृथक तिभाग में यह आाँकड़ा पृथक-पृथक है। अतह इसे भी राष्ट्रीय सिेक्षण सूचकांक पार ही आधाररत दकया जा रहा है। यदद 1 अमेररकी डालर को ही आधार माने तो 65% लोग गरीब की श्रेणी में आ जाऐंगें। इस उल्लेतखत सिेक्षण में कई अन्य तपछ्ड़ा िगग की जाततयााँ आगे थीं। यूथ फार इिल्टी जैसे कई संगठन आरक्षण और खुली प्रततयोतगता के मुद्दे पर ऐसे आाँकड़े रखते आए हैं, जो तनरूत्तरता में ही तब्दील हुए हैं। छत्तीसगढ़ की सामान्य जाततयों पर चचाग तनम्ााँदकत है।:1. बतनयाीःबतनया जातत िैश्य िणग में हैं। अब िैश्य और बतनया लगभग समान अथों में उपयोग होने लगा है। िैश्य िणग की बतनया जातत के लोग छत्तीसगढ़ के समस्त तजलों में तनिास करते हैं। भारत में इनकी जनसंख्या ढ़ाई करोड़ से ऊपार मानी जाती है, तजसमें से से एक लाख से ऊपर लोग छत्तीसगढ़ में अनुमातनत हैं, तजनमें से लगभग 54 हजार छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।314 बतनया का सामान्य अथग व्यापार करने िाली जाततयों से लगाया जाता है। यह शब्द संस्कृ त के िातणज्य से बना है। छत्तीसगढ़ में बतनया जातत के अंतगगत कई िैश्य जाततयााँ सम्मतलत हैं। िह हैं- अग्रिाल,

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150 अग्रहरर, अजोध्यािासी, अतस्थ, दोसार, गहोई, गोलापिग, कसारिानी, कसाऊधन, खण्ड़ेलिाल, लाड़, बलगायत, महेश्वरी, नेमा, ओसिाल, परिार, श्रीमाली, उमरे आदद।315 यहााँ पर उन्हीं बतनया लोगों की उन्हीं उपजाततयों की चचाग की जा रही है, जो छत्तीसगढ़ राज्य में रहती हैं। छत्तीसगढ़ में बतनया जातत में अग्रिाल सिगप्रमुख हैं। राष्ट्र में इनकी जनसंख्या का अनुमान 45 लाख से अतधक का है। छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या लगभग 15 हजार अनुमातनत है, तजसमें से लगभग सभी तहन्दी भाषी हैं और साथ ही उसके आधे छत्तीसगढ़ी का तद्वततयक बोली की तरह व्यिहार करते हैं।316

बतनयों की अग्रिाल उपजातत, छत्तीसगढ़ राज्य का, सिागतधक सम्पन्न और सशक्त जातत समूह है। इसे राज्य का सबसे सशक्त दबाि समूह भी माना जाता है। यह लोग राज्य के सबसे सफल और राजनीततक-आर्थथक प्रभुत्ि िाले लोग हैं। राष्ट्र में भी इनकी तस्थतत यह ही है।317 छत्तीसगढ़ निीन राज्य बनने के उपरााँत यह लोग राष्ट्र के अन्य भागों से इस राज्य की ओर बड़ी संख्या में प्रिर्थजत हो रहे हैं। अग्रिाल जातत का तिकास अग्रेय गणराज्य से हुआ है। इस गणराज्य में तसकं दर की सेनां का डटकर मुकाबला दकया। जब उन्हें लगा दक िे युद्ध में जीत हातसल नहीं कर पायेंगे तब उन्होंने स्ियं अपनी नगरी को जला तलया।318 हररयाणा के तहसार तजले का अग्रोहा कस्बा इसका मुख्य स्थान माना जाता है, तजससे दक अग्रिाल शब्द बना। इसका अथग है- अग्रोहा के लोग। अग्रिाल जातत का उदय तहन्दू िैष्णि पंथ के अनुयायी सूयगिंशी क्षत्रीय शासक अग्रसेन से मानी गई है। पहले इनका क्षेत्र कु रू-पााँचाल राज्य का भाग था। यह कहा जाता है दक, अग्रसेन प्रतापनगर के शासक बल्लभ के पुत्र थे। उसके 17 या 18 पुत्र नाग राजा िासुदक की कन्यां से तििातहत हुए। इसी कारण से अब तहन्दू और जैन अग्रिाल सााँप या नाग सााँप को नहीं मारते और कई लोग अपने द्वारा पर सााँप भी तचतत्रत कराते हैं। नाग और ग्िाल (गोली) कन्याएाँ ही पारम्पररक रूप से सिग सुन्दर मानी गई हैं और इसी कारण से सभी ककिन्दती तििाह इनसे ही बताए जाते रहे हैं। तहल्टन नागों को बारबेररयन, यूची या कु षाण मानता है। इसी से राजपूत, टाक, हैहय आदद की व्युतपतत भी मानी जाती है। कहीं-कहीं अग्रसेन को अग्रोहा के साथ आगरा का शासक भी माना गया है। अब यह कहा जाने लगा है दक, लक्ष्मी द्वारा अग्रसेन को क्षत्रीय िणग छोड़ने और िैश्य िणग अपनाने का आदेश ददया था। तब िह अग्रोहा में बसा। एक अन्य प्रसंग में यह कहा जाता है दक अगर ऋतष की नाग कन्या से तििाह करने पर 18 पुत्र हुए। इसी से अग्रिालों के 18 गोत्र बने। कहीं-कहीं साढ़े सत्रह भी कहा जाता है। सन्दभग यह ददया जाता है दक, अग्रसेन ने 18 यज्ञ दकए। अंततम यज्ञ को बतल देने से इंकार कर अधूरा छोड़ ददया। उसके उत्तरातधकारी तिभू हुआ।319 अग्रोहा में ही िहााँ बसने िाले को एक ईंट और एक रूपया देने तथा व्यापार हातन पर एक ईंट और पााँच रूतपया देने की जाततय सहकारी प्रथा की नींि पड़ी। यह लोग पहले ददल्ली, तहसार, ग्िातलयर और राजस्थान में फै ले, दफर पूरे भारत और अब तिश्व के कई प्रमुख शहरों में। 1354 में दफरोज शाह तुगलक ने अग्रोहा में नया नगर तहसार-ए-दफरोज़ा (दफरोज का दकला) बसाना चाहा। यही बाद में तहसार कहलाया, जो अग्रिालों का मूल शहर माना जाता है। यह लोग राजस्थान के मारिाड़ और शेखािती क्षेत्र में भी बसे और मारिाड़ी बतनया कहलाए। यह माना जाता है दक, संतान हीनता के कारण अग्रसेन ने समस्त नगरिातसयों को संतान मान

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Robert Vane Russell and Raibhadur Hira Lal-The Tribes and Castes of the Central Provines of

India,Vol.-II,P.97-110 316

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Suresh Kumar Singh, B. V. Bhanu-People of India(Popular Prakashan,Mumbai), Anthropological

Survey of India (Kolkata),P.46,(ISBN 8179911004. OCLC 58037479) 318

http://www.bhartiyapaksha.com/?p=4915

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http://en.wikipedia.org/wiki/Agarwal

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151 तलया था और िे सभी अग्रिाल कहलाए।, इसे इस उपजातत में कई जाततयों या समुदायों के सम्मतलत होने के संकेत के रूप में तलया जाता है। स्पष्ट है दक, यह एक तमतश्रत जातत है। गहोई बतनयों की कथा भी ऐसा संकेत करती है। सम्भितीः इसी कारण से अग्रिाल बतनयों में कई तरह के नयन-नक्श और आकार-प्रकार के मनुष्य समुदाय तिकतसत हुए। जैस-े इसमें नाटे, गोल मूाँह और चपटी नाक िाले लोग भी हैं और तीखी नाक, चौड़े माथे और लम्बे ऊाँचे लोग भी। छत्तीसगढ़ में अग्रिाल सतहत सभी बतनया जाततयों में दो प्रमुख तिभाजन हैं- बीसा और दसा अथागत बीस और दस। बीसा दसा से ऊाँचे माने जाते हैं। दसा को तिधिा पुनगतििाह या नाग पत्नी की दासीयों/नौकरातनयों अथागत गैर अग्रिाल तस्त्रयों से उत्पन्न माना जाता है। इन्हीं उपसमूहों के मध्य ही तििाह सम्बन्ध होते हैं। छत्तीसगढ़ में एक नया और अततररक्त तिभाजन पााँचा का भी है। इसका अथग पााँच है। अग्रिाल सतहत बतनयों में 20 सूत्रीय आचार सबहता प्रचतलत है। इसके सभी तबन्दुं को मानने िाले बीसा, आधे मानने िाले दसा और चौथाई मानने िाले पााँचा तिभाजन में आते हैं। इसके अततररक्त अग्रिालों के 18 (या साढ़े सत्रह) गोत्र हैं- एरण, बंसल, तबन्दल, धुम्या, धरण, गगग, गोयल, गोयनका, गंगल या गोल, तजन्दल, कं सल, कु च्छल, मुद्गल, तमत्तल, नंगल, बसघल, तायल और बतगल।320 छत्तीसगढ़ क्षेत्र में प्रथम बन्दोबस्त 1860-70 के समय से ही अग्रिाल लोगों की बड़ी सम्पततयााँ प्रतिष्ट हुईं। अब उसमें और इज़ाफा हुआ है। यह माना जाता है दक, भारत में भू बन्दोबस्त लागू करने िाले और अकबर के नौ रत्नों में से एक राजा टोड़रमल भी अग्रिाल ही थे। यह लोग तहन्दू धमग के िैष्णि पंथ के अनुयायी हैं। तहन्दू अराध्यों की उपासना करते हैं। तहन्दू रीतत-ररिाजो को मांते और तहन्दू त्योहारों को मानाते हैं। दीपािली को िैश्य िणग का ही त्योहार माना जाता था। यह अब भी, इनका, प्रमुख त्योहार है। अब अग्रसेन जयंती को अपनी उपतस्थतत दशागने का सशक्त माध्यम मान अतधक ददखािे के साथ मनाने लगें हैं। यह लोग सामान्यतीः मााँस और मददरा से दूर रहने की कोतशश करते हैं। बतनयों की अग्रहरी उपजातत भी छत्तीसगढ़ राज्य में है। यह लोग मुख्यतीः रायपुर, तबलासपुर और कोररया तजलों में हैं। भारत में इनकी जनसंख्या साढ़े तीन लाख के लगभग और छत्तीसगढ़ में ढ़ाई हजार के लगभग मानी गई है, तजसमें से लगभग हजार लोग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।321 यह लोग अतधकााँशतीः गुप्ता सरनेम उपयोग करते हैं और बतनया में कश्यप (या कु चेचल) गोत्र में माने जाते हैं। इन्हें अग्रिाल का भाग भी मान तलया जाता है।322 यह लोग अपने को अग्रसेन से ही जोड़ते हैं। क्रुक का मानना है दक, यह लोग अंशतीः िैश्य से और अंशतीः ब्राह्मण से जुड़े हैं। नैसफील्ड़ का मानना है दक, यह लोग अग्रिालों से खान-पान सम्बन्धी तुच्छ लड़ाई पर अलग हुए। प्रारम्भ में अपनी तस्त्रयों को दुकानों से पृथ्क नहीं रखने के कारण अलग नज़रों से देखे गए।323 यह लोग भी तहन्दू हैं और उनकी सभी परम्परां को मानते हैं। कहीं-कहीं इनमें से कु छ नानक पंथ को भी मानते हैं। कु छ राज्यों में कु छ तसक्ख भी हुए। अजोध्यािासी बतनया अयोध्या क्षेत्र के तनिास से जोड़े जाते हैं, जो दक इस उपिगग के नाम का आधार बना। अयोध्या अिध क्षेत्र का पुराना नाम माना जाता है। अपराध करने िाली एक जनजातत का नाम भी अयुध्या रहा है, यह नाम भी अयोध्या से तनकला। अजोध्यािासी कोररया तजले में हैं। छत्तीसगढ़ में इनकी संख्या नाममात्र को है। भारत में भी इनकी जनसंख्या 95 हजार ही अनुमातनत की गई है।324 यह लोग तहन्दू हैं। कु छ जैन भी हैं। तहन्दू रीतत-ररिाजों का पालन करते हैं। तलाक मान्य है, पर तलाक की ओर 320

http://en.wikipedia.org/wiki/Agarwal

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http://en.wikipedia.org/wiki/Agrahari

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(Edited by) B. R Rizvi & J C Das-People of India-Uttar Pradesh, Vol.- XLII, Part-One, P.285

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152 झुकाि कम है। बदचलनी पर स्त्री को समाज बाह्य करने की परम्परा रही है। सगोत्रीय और चचेरे-ममेरे भाई-बहनों में तििाह िर्थजत है। जनेऊ संस्कार को गुरमुख कहते हैं। शि को जलाते हैं। देिी पूजक हैं। अन्य बतनया लोग दीपािली को मुख्य त्योहार मानते हैं, पर यह लोग दशहरे को। तब बतल और मााँस खाने की परम्परा भी बनी। तिद्वान अयुध्या जनजातत की उत्पतत इसी बतनया िगग से मानते हैं। यह जनजातत बहसा रतहत नकली आभूषण, नकली तसक्के और रूपए आदद बनाने, आर्थथक अपराध करने और खाली घरों में चोरी करने आदद में तलप्त जनजातत रही है। दोनों का देिी भक्त होना और समान रीतत-ररिाज मानना समानता के संकेत के रूप में तलया गया है।325 अतस्थ बतनया भी, छत्तीसगढ़ में, अत्यल्प हैं। िे अपना मूल मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ को मानते हैं। यह बतनया जातत में ऊाँचे स्तर पर नहीं माने जाते। यह माना जाता है दक, एक अहीर बतनया बना था और यह लोग उसी की व्युत्पतत हैं। अतधकााँशतीः तहन्दू हैं, कु छ जैन हैं। पहले शि गाड़ने के उपरााँत जलाते थे, अब के िल जलाते हैं। तब कहा जाता था- अद्धग जले, अद्धग गरे ; तजनके नाम अतस्थ पड़े।326 चरं गरी या समैया बतनया जैनों का एक छोटा समूह है। यह छत्तीसगढ़ में अत्याल्प हैं। यह लोग तारण स्िामी के अनुयाई हैं, तजन्होंने जैन तीथांकरों की पूजा दकए जाने का तिरोध दकया था। इनका मुख्य पतित्र स्थान ग्िातलयर में मल्हारगढ़ है। फाल्गुन में यहााँ उत्सि मनाते हैं। अब सामान्य जैन मतन्दरों में भी जाने लगे हैं। इनकी व्युत्पतत परिार बतनया जातत से हुई। यह लोग भी बीसा और दसा में बाँटे हैं।327 धुसार या भागगि धुसार बतनयों की व्युत्पतत तििादास्पद है। िे बतनयों की उपजातत माने जाते हैं, पर व्युत्पतत ब्राह्मण से मानते हैं। िे अपना नाम धूसी या धोसी पहाड़ी से लेते हैं, जो नरनौल (अलिर, राजस्था) के पास है। भागगि संज्ञा तो भृगु ऋतष से ली गई है। मनु भृगु को अपना पुत्र बता कर िंश परम्परा का प्रारम्भ करते हैं। हालााँदक यह बात, इन लोगों ने, हाल में ही अपनी व्युत्पतत हेतु जोड़ी है। कहीं-कहीं मध्य काल में ददल्ली के शासक हेमू से भी जोड़ा जाता है। धुसार ब्राह्मण भी होते हैं, पर इनके उनसे तििाह सम्बन्ध नहीं हैं। यह माना जाता है दक, सम्बहितीः यह लोग िे ब्राहमण हो सकते हैं, जो बतनया बने। पंजाब में यह लोग कहीं-कहीं ब्राह्मण हैं, तो कहीं बतनया। तहन्दुं के तिपरीत इन लोगों में सुबह का प्रथम भोजन या कलेिा पूजा पूिग लेने की परम्परा रही है, जो अब छू ट सी रही है। मााँस, मददरा से दूर रहते हैं। कहीं-कहीं यह लोग गायन हेतु भी जाने जाते हैं। पुराने मध्य प्रााँत (और बरार) का भागगि बैंक इसी उपजातत के लोगों का था।328 भारत में इनकी जनसंख्या सिा दो लाख से कु छ अतधक अनुमातनत है, तजसमें से कु छ सौ लोग ही छत्तीसगढ़ में रहते हैं और उसमें से लगभग सौ लोग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।329 दुसार या दूसरा बतनया का आशय तद्वतीय से है। यह दूसरा संज्ञा तिधिा को तद्वतीय (या पुनगतििाह) की सहज अनुमतत देने के कारण आई। इनकी व्युत्पतत ऊमार बतनयों से मानी जाती है। हालााँदक यह लोग उनसे नीचे माने जाते हैं। इनका मूल स्थान गंगा-यमुना दोआब और अिध माना जाता है। िहााँ से यहााँ आने के उपरााँत इनके तीन और समूह बने- दोआतबया, इलाहाबाददया और अितधया, तथा इन्हीं में आपसी तििाह भी होने लगे। इनके तिभाजन गंगापारी (अिध का), सगराहा (सागर का), मकराहा (मक्के का व्यापारी) और तमखुहा (तम्बाखू का व्यापारी) में है। यह लोग अपने आप को कश्यप गोत्र का मानते हैं।

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153 िैष्णि पंथ के तहन्दू हैं। सनाढ़य ब्राह्मण इनके पुजारी हैं। अन्य ब्राह्मण इन्हें नीचा मानते हैं। यह लोग अतधकााँशतीः व्यापारी हैं। सामान्यतीः सोना, चााँदी, अनाज, तम्बाखू और मतनहारी का व्यापार करते हैं। इनमें िर मूल्य देने की प्रथा है।330 छत्तीसगढ़ में अत्याल्प ही हैं। गहोई बतनया भी छत्तीसगढ़ में अत्यन्त अल्प हैं। भारत में इनकी जनसंख्या तीन-सिा तीन लाख के मध्य अनुमातनत की गई है। छत्तीसगढ़ में कु छ सौ ही है, तजसमें से सौ के लगभग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।331 इनका मूल स्थान बुन्देलखंड़ का खड़गपुर है। यह अपनी व्युत्पतत की यह कथा कहते हैं- एक शाला में एक तशक्षक था। शाला में बीया पााँण्ड़े ब्राह्मण आया। उसने बूकम्प की भतिष्यिाणी कर सभी तिद्यार्थथं को बाहर आने को कहा। मात्र 12 आए। शेष दब मरे । तशक्षक ने इन 12 को ले एक जातत बनाई, जो गहोई कहलाई। इसका अथग है दक, िह अंश जो शेष रहा। इस शाला तशक्षक को िे अपना प्रित्तगक मानते हैं। तििाह आदद आयोजनों पर उसका तचत्र दीिारों पर बना मक्खन और पुष्प द्वारा उसकी पूजा करते हैं। अतीः अग्रिालों की तरह यह भी एक तमतश्रत जातत है, तजसमें कई जाततयााँ सम्मतलत हैं। इनके 12 तिभाजन या गोत्र हैं, जो टोटेम आधाररत हैं। यथा- मोर, सुहतनया (सुन्दर), नगररया (नगाड़ा), पहातड़या (पिगत), मतेली (ग्राम प्रमुख), तपपरितनया (पीपल), ददाररया (गायक) आदद। सगोत्रीय तििाह नहीं है। तििाह में पुराने नागपुर राज्य के तसक्कों का उपयोग अिश्य करते हैं। िैष्णि पंथी तहन्दू हैं। इनके पुरोतहत भागगि हैं। िे अपने प्रितगक तशक्षक को भी भागगि मानते हैं। दीपािली पर अपने व्यपार, बही-खाते और कलम-दािात की पूजा करते हैं। कतथत लोक व्यिहार में इनके अत्यतधक चालाक और लालची होने को, रस्सेल्ल प्रचतलत कहाितों द्वारा इंतगत करता है। है। िह तो यह भी इंतगत करता है दक, तपता से भी चालाकी नहीं चूकते।332 गोलापूरब या गोलहरे बतनया छत्तीसगढ़ में अत्याल्प हैं। इनकी व्युत्पतत्त भी बुन्देलखण्ड़ से हुई। इनमें अतधकााँश ददगम्बर जैन हैं। कु छ लोग ही तहन्दू हैं। कहीं-कहीं इनके तििाह सम्बन्ध परिार बतनयों से भी होते हैं, जो दक ददगम्बर जैन हैं। यह लोग नेमा बतनयों से भी सम्बन्ध रखते हैं। यह माना जाता है दक इनकी व्युत्पतत पुरतबया बैस राजपूत की अहीर रखैल की संतान से हुई। गोलक का अथग अिैध से और पूरब का अथग पूरतबया से। सम्भितीः इसी नाम से इस कथा को आधार तमला। कहीं-कहीं इन्हें गोलहरे भी कहा जाता है।333

कसारिानी बतनयों के नाम की व्युत्पतत कााँसा (Bell metal) शब्द से हुई। इनकी व्युत्पतत भी ठठे रों (कसार और तमेर) से हुई, जो धातु हस्ततशल्पी हैं। भारत में इनकी जनसंख्या पौने चार लाख से अतधक अनुमातनत की गई है। छत्तीसगढ़ में भी यह पयागप्त संख्या में हैं।334 छत्तीसगढ़ में यह उपजातत तमजागपुर से आई। यह लोग रायपुर सम्भाग में ही हैं। पूिग काल में छत्तीसगढ़ या रतनपुर राज्य का बेल मैटल का आकषगक कायग या उद्योग ही इन्हें यहााँ लाने का कारण बना। बत्तगन बेचना इनका मुख्य व्यिसाय रहा है। हालााँदक अब यह लोग अन्य व्यिसायों में चले गए हैं। यह लोग कसोधन बतनयों की तरह पूरतबया और पछइहा (पतिमी) में बाँटे हैं। यह लोग बतनया आचार सबहता को मानने को उत्सुक नहीं रहते हैं। मााँसाहारी हैं, पर मददरा से दूर रहने की कोतशश करते हैं। तिधिा और तलाशुदा का पुनगतििाह मान्य करते हैं। दो पररिारों में तििाह सम्बन्ध कन्यां के अदान-प्रदान से भी करते हैं। जनेऊ को अतनिायगता के रूप में नहीं लेते। इनके पुरोतहत सरिररया ब्राह्मण हैं। अग्रिाल, ऊमरी, गहोई तो इनसे भोजन ले लेते हैं, पर कई 330

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154 ब्राह्मण और राजपूत नहीं। इनमें जातत पंचायत है, तजसका प्रमुख चौधरी कहलाता है। सामान्यतीः इसी पंचायत में तििाह सम्भन्ध तनधागररत होते हैं, जहााँ नाई अतनिायगतीः उपतस्थत रखा जाता है। यह कहा जाता है दक, कसारिानी िह, जो तहसाब रखे अथागत बतनया।335 कसौन्धन या कसोंधन बतनया छत्तीसगढ़ में तनिास करते हैं। राज्य में इनकी जनसंख्या पयागप्त है। भारत में यह साढ़े चार लाख से अतधक अनुमातनत दकए गए हैं।336 इस उपजातत के संज्ञा शब्द की व्युत्पतत कााँसा (Bell metal) और धन शब्द से हुई। यह लोग भी राज्य के कााँसे के कायग के कारण आए। यह भी कसारिातनयों की तरह बत्तगन का ही व्यपार करते थे। इनकी व्युत्पतत भी धातु हस्ततशल्प जातत ठठे रा से हुई। सम्भितीः यह लोग कसारिानीयों से ही अलग होकर अतस्तत्ि में आए। दोनों लोग पूरतबया और पछइहा (पतिमी) में तिभातजत हैं। छत्तीसगढ़ में कबीर के पट तशष्य धमगदास थे, तजन्होंने कबीर पंथ की

स्थापना की, िह कसौन्धन बतनया ही थे। छत्तीसगढ़ में कबीरपंथ के महंत और किधाग के उच्च पुजारी बतनयों की इसी उपजातत के रहे। इसी कारण से यहााँ कसौन्धन बतनया कबीर पंथी हो गए। शेष तहन्दू ही रहे।337

खण्ड़ेलिाल बतनया उपजातत सम्पन्न और उच्च मानी जाती है। यह लोग छत्तीसगढ़ में तनिासरत हैं। भारत में इनकी जनसंख्या एक लाख दस हजार ही मानी गई है।338 खण्ड़ेलिाल संज्ञा से उत्तर प्रदेश में ब्राहमणों की भी एक उपजातत है। खण्ड़ेलिाल बतनयों की संज्ञा राजपूताना के जयपुर क्षेत्र के शेखािटी संघ के मुख्यालय खंड़ल े ा से बनी। यह लोग तहन्दू धमग के िैष्णि पंथ को या जैन धमग को मानने िाले हैं।339 लाड़ बतनयों की जनसंख्या छत्तीसगढ़ में अत्याल्प है। यह लोग गुजरात से आए। गुजरात का पुराना नाम लाट प्रदेश था और इसीसे इनकी संज्ञा बनी। भारत में इनकी जनसंख्या ड़ेढ़ लाख से कु छ अतधक ही अनुमातनत है, तजसमें से कु छ सौ ही छत्तीसगढ़ में अनुमातनत हैं, तजसमे से भी 30-40 लोग ही छत्तीसगढ़ी भी बोल लेते हैं।340 हालााँदक इनकी मुख्य भाषा गुजराती ही है। इनमें भी बीसा और दसा समूह हैं। इनके पुरोतहत खण्ड़ेलिाल ब्राह्मण हैं। लाड़ मतहलाएाँ, तिशेषकर बड़ौदा क्षेत्र से आने िाली, अपने िस्त्र तिन्यास और सुरूतच के तलए जानी जाती हैं। यह लोग तहन्दू धमग के िैष्णि पंथ के िल्लभाचायग मत (पुतष्ट मागग) को मानते हैं और कृ ष्ण पूजक हैं। बल्लभाचायग का जन्म छत्तीसगढ़ के चम्पारण में हुआ था, जहााँ गुजरात के लाट बतनया लोगों ने मतन्दर भी बनिा तलया है।341 िे लोग बड़ी संख्या में गुजरात से भी तीथग यात्रा हेतु आते हैं। इनकी कु लदेिी असनी की आशापूरी हैं। रस्सेल्ल इन्हें यौन इच्छं की ओर झुकाि रखने िाला भी मानता है।342

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बलगायत बतनया भी छत्तीसगढ़ में अत्याल्प हैं। यह लोग तहन्दू धमग के शैि पंथ के बलगायत (िीरशैि) मत के अनुयायी हैं। भारत में इनकी जनसंखया 56 हजार ही अनुमातनत है।343 छत्तीसगढ़ में इनकी उपतस्थतत रायगढ़ और जशपुर में ही ददखाई गई है।344 यह लोग अन्य बतनयों के साथ भोजन और तििाह का व्यिहार नहीं रखते हैं। इनके पााँच उपतिभाजन हैं- पंचम, ददक्षािंत, तचलीिंत, ताकलकर और खाण्ड़े। इनमें पंचम या पंचम सातलस महत्िपूणग हैं, यह िे ब्राह्मण हैं, तजन्होंने बलगायत मत अपनाया। अष्टिनग का पालन करते हैं। ददक्षािंत का सम्बन्ध ददक्षा (दीतक्षत ब्राह्म्णों की तरह) से है, यह लोग पंचम लोगों से ही आए। ताकलकर संज्ञा तकाली िन से बनी। खाण्ड़े कनारा से हैं। तचलीिंत लोगों के भोजन को कोई गैर-बलगायत देख ले तो त्याज्य हो जाता है। पर बलगायत गोत्र तनम् जाततयों की तर हैं। यथा- काओड़े (कौआ), तेली, धुिी (बौना), उनदकर (आग लगाऊ), गुड़करी (गुड़), धामनकर (धान गााँि) आदद। इनके जातीय तनयम पुरातन और कड़े हैं। तिधिा तििाह अमन्य है, परा पतत और तपता की जातत में ही। तलाक मान्य है। तशिरात्री इनका मुख्य त्योहार है। सदा तशि बलग भी धारण दकए रहते हैं, जो मरने पर भी उनके साथ जाता है। शि को इस बलग के साथ बैठा कर जलाते हैं, पर दुीःख में तसर नहीं मुड़ाते। इसके गुमने पर खान-पान प्रततबतन्धत रहता है, जब तक दक दूसरा बनिा कर धारण न कर तलया जाए। यह लोग ब्राह्मण पुजाररयों की सेिा नहीं लेते हैं और कमगकांड़ स्ियं करते हैं, जो दक पंचम लोगों में से जंगम लोग कराते हैं। अतधकााँशतीः लोग तेलगू भाषी हैं।345 महेश्वरी बतनया भी छत्तीसगढ़ में कम हैं। यह नाम इन्दौर के समीप नमगदा तट पर तस्थत महेश्वर से तलया गया है। हालााँदक इनमें से कु छ अपना मूल स्थान बीकानेर को मानते हैं। िे यह मानते हैं दक, इनका पूिगज एक राजा था, जो अपने 72 अनुयाईयों के साथ पाषाण का हो गया था। उनकी पतत्नयों को सती हेतु उदत्त देख तशि ने पुनीः प्राण ड़ाल ददए। तब उन्होंने अस्त्र-शस्त्र छोड़ व्यपार अपना तलया। इस कथा के आधार पर इनके 72 गोत्र बने। यह लोग महेश्वरी में महेश शब्द को तशि से जोड़ते हैं। गुजरात में सभी गैरजैन बैतनयां को महेश्वरी कहा जाता है। यह लोग तशि से उत्पतत अिश्य जोड़ते हैं, पर तहन्दू धमग के िैष्णि पंथ को मानते हैं। कु छ जैन भी हैं। बतनयों की यह उपजातत भी सम्पन्न और राजनीतैक-आर्थथक रूप से प्रभािशाली है। यह लोग सुरूतच सम्पन्न और बुतद्धमान माने जाते हैं।346 कोररया तजले में कोररया कालरी की कोयला खदान लेने िाले नागपुर की फमग बंशीलाल अबीरचन्द इसी उपजातत के थे।347 इसी फमग के कस्तूर चन्द ड़ागे (काम्पटी) बड़े बैंकर थे। भारत में इनकी जनसंख्या को लगभग 5 लाख अनुमातनत दकया गया है, तजसमें से छत्तीसगढ़ हजार-बारह सौ का ही अनुमान है, तजसमें से तीन-चार सौ को छत्तीसगढ़ी बोली भी आती है।348 नेमा बतनया भी छत्तीसगढ़ में कम हैं। कु छ नेमा कोररया तजले में हैं।349 यह लोग मध्य प्रदेश के नरबसहपुर तजले से छत्तीसगढ़ आए और उत्तर छत्तीसगढ़ के तजलों में बसे। भारत में इनकी जनसंख्या

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156 110,000 अनुमातनत है, तजसमें से कु छ सौ ही छत्तीसगढ़ में हैं और उनमे से लगभग 30-40 ही छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।350 इनकी व्युत्पतत भी बुन्देलखण्ड़ में हुई मानी जाती है। यह लोग तहन्दू हैं। कु छ जैन भी हैं। कु छ लोग नेमा संज्ञा को तनमाड़ से भी जोड़ते हैं। हालााँदक इस संज्ञा की व्युत्पतत अतधक स्पष्ट नहीं है। एक कथा य्द्ह भी कही जाती है दक, परशुराम द्वारा पृथ्िी की क्षत्रीयतिहीनता की दक्रया के समय 14 क्षत्रीय तिद्याथी तशक्षा ग्रहण करने हेतु आश्रम में थे और बच गए। इन्होंने िैश्य िणग अपनाया और नेमा इनसे हुए। इन्हीं से नेमां के 14 गोत्र बने, जो उनके पुरोतहतों के नाम पर ही थे। इनमें भी बीसा, दसा और पााँचा तिभाजन हैं। इनमें 52 और उप तिभाजन हैं। सामान्यतीः तिधिा तििाह नहीं है। यह लोग तीक्ष्ण या तेज व्यापारी माने जाते हैं। रस्सेल यह कहाित का उल्लेतखत करता है दक, जहााँ एक नेमा व्यापारी हो या एक भेड़ चरे िहााँ क्या बचेगा?351 ओसिाल बतनया छत्तीसगढ़ राज्य में हैं। भारत में इनकी जनसंख्या 8 लाख से कु छ कम अनुमातनत है, तजसमें से 7 से 10 हजार छत्तीसगढ़ में होंगें और उसमें से ढ़ाई हजार लोग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।352 बतनया जातत में अग्रिालों के उपरााँत यह लोग ही महत्िपूणग माने जाते हैं। यह संज्ञा मारिाड़ के ओतसया या ओस नगर से ली गई। िे कहते हैं दक, यहााँ के राजा को पुत्र प्रातप्त एक जैन मुतन के आतशिागद से हुई। लोगों ने राजा के जैन हो जाने के भय से, उसे बाहर कर ददया। नगर देिी ओसा ने संत रतन सूरी को एक आियग द्वारा यह करने की प्रेरणा दी दक, एक रूई की कोनी को संत की पीठ में सााँप में बदल ददया, तजसने राजपुत्र जयचन्द को डस तलया। तब िह सहपत्नी शयनरत था। जब दाह होने लगा तो तसंत ने रोक, युगल को यथाित शयन करते रहने को कहा। मध्य रात्री में सपग ने तिष चूस तलया। अब राजा दरबार और जनता सतहत जैन हो गया। यह गोत्र श्रीमाल या श्रीमाली कहलाया, तजसका अथग है- पतित्रतम। श्रीमाली बतनया भी छत्तीसगढ़ में हैं। इनकी जनसंख्या भारत में 437,000 अनुमातनत की गई है, तजसमें से लगभग 800-1,000 राज्य में होंगें और उनमें से लगभग 200 छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।353 यह नाम मारिाड़ के नगर श्रीमाल से आया, जो अब भीममाल कहलाता है। यह लोग स्ियं लक्ष्मी द्वारा अपने आप को बनाया जाना मानते हैं, जो दक उनके हार के 90 हजार फू लों से बने। श्रीमाली ब्राह्मण ही इनके पुरोतहत हैं। बीसा और दसा के अततररक्त लड़िा तिभाजन को मानते हैं, जो लाट (गुजरात) नाम से तलया गया। कहीं-कही श्रीमाली बतनया और ओसिाल श्रीमाल को अलग-अलग बतनया जातत समूह भी माना जाता है। हालााँदक अब यह लोग पृथक तचतन्हत होते हैं, पर इन पर अलग से चचाग नहीं की जा रही है। नगर के अन्य राजपूत ओसिाल हुए। ब्राह्मणों ने संत से पूछा दक, जब सब जैन हो गए हैं, तब हम कहााँ जाएाँ? तब संत ने उन्हें इन पररिारों का पुरोतहत बने रहने को कहा। यह ब्राह्मण भोजक (भोजन करने िाले) कहलाए। इस प्रकार ओसिाल बतनयों के पुरोतहत मारिाड़ी ब्राहम् हुए। एक अन्य कथा यह कही जाती है दक, श्रीमाली के राजा ने गैरकरोड़पततयों को राज्य तनकाला दे ददया। यह लोग मण्ड़ोिाड़ में बसे और ओसा (अथागत सीमा) कहलाए। अब इन लोगों ने रतन सूरी के सातनध्य में जैन धमग अपनाया और ओसिाल कहलाए। इसमें श्रीमाली बतनयों सतहत भट्टी, चौहान, गौड़, गहलोत, यादि और अन्य राजपूत भी सम्मतलत थे। कनगल टाड़ ने ओसिालों की व्युत्पतत राजपूतों से मानी है, तजसमें अतधकााँश पिार, सोलंकी औएअ भट्टी हैं। यह लोग जैन है। कु छ तहन्दू िैश्नि हैं। दोनों में तििाह मान्य हैं। िे अन्य जैनों में तििाह करते हैं। इनमें भी बीसा, दसा और पााँचा तिभाजन हैं। 84 गोत्र हैं। यथा- लोहरा, नुतनया (नमक बानाने िाला), सेठ (बैंकर), दफ्तरी (दफ्तर में काम करने िाला), िैद्य (तचकत्सक), भंड़ारी (रसोईया या हाऊस होल्ड़ प्रभारी), कु करा (कु त्ता) आदद। तहन्दू रीतत-ररिाज मानते हैं। शि जलाते हैं। आगामी ददिस पाश्वगनाथ मतन्दर जाते हैं। मृत्यु उपरााँत 350

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157 आिास और व्यतक्त के अपतित्र हो जाने को नहीं मानते। सामान्यतीः भोज उपरााँत मृत्क को भुला देते हैं। जैन तीथंकर पाश्वगनाथ मुख्य अराध्य हैं। यह लोग कई ररयासतों और राज्यों में दीिान आदद भी हुए।354 परिार बतनया भी छत्तीसगढ़ में अत्याल्प संख्या में हैं। इनकी व्युत्पतत और नाम पर अभी स्पष्तता नहीं है। हालााँदक नाम के आधार पर, इन्हें, राजपुताना से जोड़ा गया है। इनकी मतहलां द्वारा तसर पर पहने जाने िाले आभूषण और चारू पात्र के उपयोग के आधार पर और उनके गीतों के आधार पर भी इसी ओर संकेत तलए गए हैं। यह लोग पोरिाल बतनया लोगों की तरह भी माने जाते हैं355, तजनकी जनसंख्या, भारत में, 577,000 अनुमातनत की गई है, तजसमें से दोनों प्रकारों को तमला कर 1,500 से अतधक लोग इस राज्य में होंगें और उनमें से 600 से अतधक लोग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं। इस राज्य में समैया और चन्नगरी अन्य जैन समूह हैं। यह लोग जैनों की पतित्र पुस्तकों को पूजते हैं। इनके तिभाजनअठसके और चौसके - में हैं। एक अन्य समूह तबनाईका का है, जो सामान्यतीः पुनगतििातहत तिधिाएाँ हैं। 12 गोत्र हैं। सभी गोत्रों में 12 मूल (उपजाततयााँ) भी हैं। सगोत्रीय तििाह नहीं है। तहन्दू रीतत-ररिाजों और ददगम्बर जैन व्यिहारों का पालन करते हैं। शि जलाते हैं। जातत पंचायत है।356 बतनया जातत में- बैस, बाराहसेनी, बरनिार, तिजयिगीय, चेट्टी, गन्ध बतनक, गूजर, जैसिाल या कलार, कसार, खत्री, खेदयता, कोरमी, लोड़ासा, महाजन, माहुर, मारिाड़ी, मोध, नागर, रस्तोगी, रऊनेर, सरोगी, सुिणग ितनक, तत्रिर्थणक िैश्य, उमरे , उम्माद, उनड़ू आदद कई- अन्य बतनया भी हैं। इसमें से भी कई छत्तीसगढ़ राज्य में अत्याल्प या नगण्य मात्रा में होंगे। जैसिाल या कलार पर अन्य तपछड़ा िगग की जाततयों के तहत चचाग की जा चुकी है। 2. ब्राह्मणीःब्राह्मण जातत के लोग छ्त्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों में तनिास करते हैं। भारत में इनकी जनसंख्या साढ़े पााँच करोड़ अनुमातनत है। छत्तीसगढ़ में भी इनकी जनसंख्या ढ़ाई-तीन लाख से अतधक होने का अनुमान है, तजसमें से लगभग दो लाख छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।357 तहन्दू धमग की िणग और जातत व्यिस्था में ब्राह्मण जातत सिोच्चय स्थान पर है। इस जातत का प्रमुख कायग तशक्षा, शोध, पुरोतहती, कमगकाण्ड़ आदद है। नौकरी और कृ तष भी करते हैं। अब कभी-कभी व्यिासय भी करने लगे हैं। इन्हें तिप्र (तिद्वान) भी कहा जाता है। पाली अतभलेखों में बाभन संज्ञा का उपयोग हुआ है। तहन्दू परम्परां, रीतत-ररिाजों, स्थापनां, तशक्षां, पुस्तकों आदद सभी की स्थापना इसी जातत के द्वारा की गई है। स्पष्ट है दक, पूरे तहन्दू धमग की समस्त मान्यताएाँ, रीततयााँ और स्थापनाएाँ इसी जातत द्वारा प्रिर्थतत, संचातलत और स्थातपत की गई हैं। अतीः इन्होंने यह भी स्थातपत दकया दक, िे ही ज्ञान

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का स्रोत हैं। िेदों में भी ब्राह्मणों का स्पष्ट उल्लेख है। यस्क मुतन की तनरुक्त के अनुसार - ब्रह्म जानातत

ब्राह्मण: अथागत ब्राह्मण िह है जो ब्रह्म (अंततम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। अतीः ब्राह्मण का अथग है - "ईश्वर ज्ञाता"| अब इन्हें पारम्पररक पुजारी और कमगकाण्ड़ी के अथग में अतधक तलया जाता है। दकन्तु आजकल बहुत सारे ब्राह्मण जातत के पारम्पररक व्यिसाय से इतर कायग भी करते हैं। अब यहााँ धारणा भी आने लगी है दक, उनकी धार्थमक परं पराएं उनके जीिन से कम होती जा रही हैं| यद्यतप भारतीय जनसंख्या में ब्राह्मणों का प्रततशत कम है, तथातप धमग, संस्कॄ तत, कला, तशक्षा, ज्ञान-तिज्ञान तथा उद्यम के क्षेत्र में इनका योगदान अपररतमत है।358 यह लोग सभ्य, तशष्ट और तिद्वान माने जाते रहे हैं। प्रारतम्भक सभी आख्यानों में यह माना गया दक, स्थातपत पूिगज पूत्रों में क्षत्रीय और ब्राह्मण दोनों पुत्र थे। भागित पुराण में ऐसे कई उदाहरण हैं। बाद में यह स्पष्टतीः पृथक जातत स्थातपत हुई, तजसमें धीरे धीरे अन्य जातत और जनजातत समूहों के तिद्वान, पुजारी सम्मतलत हुए। अन्य जाततयों और जनजाततयों के अराध्यों और धमग स्थलों को भी तहन्दू धमग में सम्मतलत मान तलया गया। इनमें के न्द्रीय नेतृत्ि और सिगमान्य संगठन का अभाि रहा है। ब्राह्मणों प्रमुख दो तिभाजन हैं- पंच गौड़ और पंच द्रतिड़।359 कणागटकाि तैलंगा द्रातिड़ा महाराष्ट्रकाीः, गुजगरािेतत पञ्चैि द्रातिड़ा तिन्ध्यदतक्षणे || सारस्िताीः कान्यकु ब्जा गौड़ा उत्कलमैतथलाीः, पन्चगौड़ा इतत ख्याता तिन्ध्स्योत्तरिातस ||360 (कल्हण-राजतरं गणी,कश्मीर,11 िीं शताब्दी)

उक्त श्लोक स्पष्ट करता है दक, पंचगौड़ अथागत उत्तर भारत के सारस्ित, कान्यकु ब्ज, गौड़, उत्कल और मैथली तथा पंच द्रतिड़ अथागत दतक्षण भारत के कन्नड़ (कनागटक), तेलगू (आाँर), द्रतिड़ (ततमल और के रल या मलयाली), महाराष्ट्र और गुजरात ब्राह्मण। यहााँ स्पष्टतीः नमगदा के उत्तर और दतक्षण का पारम्पररक तिभाजन है। इनमें से सभी कु छ न कु छ मात्रा में छत्तीसगढ़ में तनिासरत हैं। पंच गौड़ में सारस्ित मुख्यतीः पंजाब और उसके आसपास रहते आए हैं। यह खतत्रयों के पुरोतहत हैं। अब इनमें से कु छ छत्तीसगढ़ में भी हैं। इनमें मुख्य पंजाबी ब्राह्मण हैं। कश्मीरी पाँतड़त भी सारस्ित हैं। सारस्ित नाम सरस्ितत नदी तट पर तनिास के कारण पड़ा। भारत में इनकी जनसंख्या पााँच लाख अनुमातनत है। तजसमें से कु छ सौ ही छत्तीसगढ़ में है। गौड़ ददल्ली के आसपास रहते आए हैं। गौड़ नाम 358http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9

%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%A3 359

द्रोणी लाल शमाग-ब्राह्मणोत्पतत मातगण्ड़,पृ.41-42

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कल्हण (कश्मीर,11 िीं शताब्दी)-राजतरं गणी और Jogendra Nath Bhattacharya- Hindu Castes and Sects में

भी उधृत्त

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159 बंगाल के पुराने नाम गौड़ (लखनौती) से बना। कबनघम इसे उत्तर प्रदेश के गोंड़ा (तजला) से जोड़ता है।भारत में इनकी जनसंख्या सात लाख अनुमातनत की गई है। इनमें कान्यकु ब्ज या कन्नौतजया संज्ञा कन्नौज नगर (कानपुर के समीप गंगा तट पर बसा नगर) से बनी। उत्तर प्रदेश में इन्हें महत्िपूणग स्थान प्राप्त है। यह छत्तीसगढ़ में भी हैं और रायपुर सम्भाग में इनका संकेन्द्रण है। इनमें भी चार उपतिभाजन हैं- कनौतजया, तजझौततया, सरिररया और सनाढ़य। भारत में कन्नौतजए पौने सात लाख, तजझौततए मात्र 15 हजार, सरिररए सिा चार लाख और सनाढ़य पााँच लाख अनुमातनत दकए गए हैं। मैथली तबहार में गंगा के उत्तर में तस्थत तमतथला (ततरहुत) के हैं, तजससे ही उन्हें यहााँ संज्ञा तमली। यह छत्तीसगढ़ में कम हैं। भारत में मात्र आठ हजार अनुमातनत हैं। उड़ीसा के उतड़या भाषी ब्राह्मण उत्कल कहे जाते हैं। यह छत्तीसगढ़ में भी हैं। इनकी जनसंख्या भारत में 113,000 अनुमातनत है।361 द्रतिड़ ब्राह्मणों में महारातष्ट्रय महाराष्ट्र से हैं। इनके प्रमुख तीन तिभाजन हैं- देशस्थ अथागत गृह देश (पुणे) के , कोंकणस्थ अथागत कोंकड़ क्षेत्र के और करहरा स्थान के , जो दक सतारा तजले में है। भारत में महारातष्ट्रयन ब्राह्मण पौने दो लाख अनुमातनत दकए गए हैं। तैलन्ग तेलगू आाँर प्रदेश के हैं। द्रतिड़ ततमलनाड़ू और के रल प्रााँत से हैं। कन्नड़ कनागटक से हैं। गुजराती गुजरात प्रााँत से हैं। इनके दो तिभाजन है- खेड़ा (खेड़ा तजला, गुजरात) और नगर। पंच द्रतिड़ समूह के ब्राह्मणों की जनसंख्या अपेक्षाकृ त कम है।362 ब्राह्मण जातत के उपरोक्त मुख्य तिभाजन के अततररक्त क्षेत्र, प्रााँत, भाषा, बोली, जीिन शैली, व्यिसाय, कायग आदद सभी आधारों पर तिभाजन, उपतिभाजन, पुनीःतिभाजन आदद-आदद के द्वारा इतने समूह और उपसमूह बनाया गए हैं दक, उनका तगना जाना भी करठन है। यह तिभाजन एक-दूसरे में तििाह नहीं करते हैं। यहााँ तक दक, यदद भाषा भी अलग हो तब भी। जैसे बंगाली ब्राह्मण का कन्नड़ ब्राह्मण से तििाह नहीं होता है। ज़रा इन तिभाजनों या तितभन्न नामों में से कु छ पर दृतष्ट तो ड़ातलए- अचरज, आचायग, अंिदा, अन्िला, औतधच, बगदा, बंगाली, भट्ट, भोजक, भूतमहार, चतुिेदी, तचतपािन, छत्तीसगढ़ी, दइमा, दकौत, दतक्षणी, देशस्तुआ, देिरूख, तधमान, द्रतिड़, गौड़ सारस्ित, गौर या गौड़, गुजरग गौर, गुजराती, हल्बानी, हररयाणा, तजझौततया, जोशी, ज्योतत, कन्नौतजया, कन्नड़ा, करबाड़ू, करहदा, कश्मीरी पंतड़त, खण्ड़ेलिाल, मट्टा, मरट्टठा, मैथली, माल्िी, मराठी, मस्तान, मेिाड़ा, मोध, मुतस्लम, नागर, ओझा, पालीिाल, पाररख, पुरोतहत, पुष्करणा, राधी, ऋतषसुर, सकलव्दीपी, सनाढ़य, संकलीिाल, सारस्ित, सरयूपारीय, तसक्ख, तसखिाल, श्रीगुड़, श्रीमाल, ततमल, तत्रिेदी मेिाड़ा, उत्कल, िैददक, िरे न्द्र, व्यास आदद-आदद।363 छत्तीसगढ़ी ब्राह्मण364 के रूप में यहााँ रहने िाले ब्राह्मण तचतन्हत दकए जाते हैं। इनमें दो प्रमुख हैंकन्नौतजया और सरयूपारीय। अिध, उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत के कन्नौतजया ब्राह्मण छत्तीसगढ़ के इसी संज्ञा के लोगों से सामान्यतीः रोटी-बेटी का या अन्य व्यिहार नहीं रखते हैं। छत्तीसगढ़ के कन्नौतजया ब्राह्मण मूल कान्यकु ब्ज का एक उपतिभाजन या उपजातत के रूप में माने और पृथ्क तचतन्हत दकए जाते हैं। छत्तीसगढ़ी ब्राह्मणों के तीन उपतिभाजन हैं- पौतथया या पंतक्तपािन अथागत एक पंतक्त में बैठने िाले, जाततया या जाततकु ल या गंगाबारी और तुततया या तुतीकु ल। छत्तीसगढ़ी ब्राह्मण में पंतक्तपािन के तीन कु ल- गगग, गौतम और शांतड़ल्य- हैं। इसमें भी तेरह उपतिभाजन हैं। गहग ऋतष यजुिेद के पठन-पाठन हेतु जाने जाते हैं। शेष दो ने उसमें सामिेद भी जोड़ा। गंगापारी के उपतिभाजन हैं- कृ ष्णात्रेय, कश्यप और भारद्वाज। तुततया के उपतिभाजन हैं- पराशर, ितशष्ठ, उपमन्यु, संकृतत, अगस्त्य, कौतशक आदद। 361

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India,Vol.-II,P.237-250

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160 छत्तीसगढ़ी ब्राह्मणों में दस शाखाएाँ प्रचतलत मानी गई हैं। यह हैं- शुक्ला, तमश्रा, ओझा, दीतक्षत, तद्विेदी या दुबे, पाठक, तत्रपाठी या ततिारी, पााँड़,े चतुिेदी या चौबे और उपाध्याय। हालााँदक अतहतातग्न यमुना प्रसाद राम तत्रपाठी चतुमागस चतुमागसे द्वारा तलतखत िंशािली में 261 गोत्रों का उल्लेख है, पर छत्तीसगढ़ में 26 गोत्र प्रचतलत हैं। प्रथम तीन- गगग, गौतम और शांतड़ल्य- का उल्लेख पूिग में भी आ चुका है। तदुपरांत 10 गोत्र हैं- कौंतड़ल्य, ितशष्ठ, उदबाहु, उपमन्यु, मऊना, करण, िरतात, भृगु, अगस्त्य और कौमस्य। इसके उपरााँत 13 गोत्र हैं- पराशर, गालि, कश्यप, कौतशक, भागगि, सिगग, अतत्र, कात्यायन, अंगीरा, ित्स, संकृत्य, जमदातगनी और पुनहा। कान्यकु ब्ज या कन्नौतजया की संज्ञा कन्नौज से बनी तो सरयुपारीय की सरयु नदी से। यह कहा जाता है दक, राम जब ब्रम्ह हत्या (रािण िध) उपरााँत अयोध्या िापस आए तब उन्होंने प्रायतित हेतु ब्रम्हभोज ददया। कन्यकु ब्जों ने इस आमंत्रण को अतस्िकार कर ददया और सरयुपाररयों ने तस्िकार कर तलया। छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी ब्राह्मणों के अततररक्त पंजाबी सारस्ित ब्राह्मण, उत्कल ब्राह्मण, बंगाली ब्राह्मण, मराठा ब्राह्मण, महा ब्राह्मण (पततत और मृतक संस्कार के उपहर और भोज लेने िाले) आदद भी तनिास करते हैं। ब्राह्मणों की तस्थतत िेदों के अनुसार भी तनधागररत होती है। छत्तीसगढ़ में ऋगिेदी और यजुिेदी ब्राह्मण ही हैं। इनमें आंतररक तििाह ही मान्य है, तजसका तिस्तार आंतररक शाखा तिभाजन तक हो सकता है। छत्तीसगढ़ के स्थातनय यजुिेददयों तीन प्रमुख मान्य शाखाएाँ हैं- कण्ि, अपस्तंभा और मध्यांनददन। यह शुक्ल (श्वेत यजुिेद) से तनकले माने जाते हैं। ऋगिेदी पाठ के दौरान तसर आगे-पीछे और यजुिेदी हाथ और शरीर अगल-बगल तहलाते हैं। मध्यानददन मध्यान के पूिग भोजन नहीं करते। सामान्यतीः राज्य के मराठा ब्राह्मण ऋगिेदी और छत्तीसगदढ़या ब्राह्मण यजुिेदी हैं। यह स्थातपत दकया गया है दक, पूिगज ब्रह्मा, तजसे ब्राह्मण अपना पूिगज स्थातपत करते हैं, के सात पुत्र थे- भृगु, अंगीरसा, माररची, अतत्र, पुलह, पुलस्त और ितशष्ठ। इसमें भी मुख्य पूिगज प्रथम छीः- भृगु, अंगरीसा, माररची और अतत्र- ही कहे जाते हैं, क्योंदक पुलह ने मात्र दानिों को और पुलस्त ने मात्र राक्षसों को जन्म ददया और ितशष्ठ की मृत्यु हो गई तथा िह मारीतच के िंश में ही पैदा हुए। एक अन्य कथा में ब्राह्मण पूिगज सप्त ऋतष (Great bear तारा समूह) कहे गए हैं। यह थे- जमदातग्न, भारद्वाज, गौतम, कश्यप, ितशष्ठ, अगस्त्य, अतत्र और तिश्वातमत्र। यह भी आठ कहे जाते है। एक अतत्र से हैं। कहा जाता है दक, बाद के यह ऋतष मूल चार से हैं और अतत्र दोनों प्रसंगों में हैं। दोनो सूतचयों को तमलाने पर 11 ऋतष बनते हैं और सभी ब्राह्मण उन्हीं से अपने आप को जोड़ते हैं। मूल चार ही हैं। कु छ बाद में भी जुड़।े जैस-े गगग, शांड़ील्य, कौतशक, ित्स और भागगि। यह पूिग उल्लेतखत 11 के अततररक्त हैं। इनमें भी कु छ नाम टोटम प्रधान हैं। जैस-े भारद्वाज अथागत गाने िाला भारद्वाज पक्षी

(Lark)(सामान्यतीः नीलकं ठ), कश्यप अथागत कच्छप (कछु आ), कौतशक अथागत कु श (घााँस), अगस्त्य अथागत अगतस्त पुष्प आदद। छत्तीसगढ़ में सरनेम के जातीय नाम भी तितभन्न आधारों पर हैं। यथा- पाण्ड़े (बुतद्धमान), दुबे (दो िेदों का ज्ञाता), ततिारी (तीन िेदों का ज्ञाता), चौबे (चार िेदों का ज्ञाता), शुक्ल (श्वेत या शुद्ध), उपाध्याय (तशक्षक), अतग्नहोत्री (अतग्न-होत्र), दीतक्षत (दीक्षा देने िाला) आदद। इनमें समान पाररिाररक नाम िालों और समान गोत्र में तििाह िर्थजत है। माता, नाना, तपता आदद के गोत्र अथागत सतपतण्ड़यों में भी तििाह नहीं होते हैं। दो पररिारों में कन्यां की अदला-बदली नहीं होती है। एक व्यतक्त से दो बहनों का तििाह िर्थजत है, जब तक दक एक मृत न हो। िधू का उम्र और लम्बाई में छोटा होना भी देखा जाता है। बड़ी बहन के कुाँ िारी रहते छोटी का तििाह नहीं दकया जाता। ऊाँचे ब्राह्मण नीचे ब्राह्मण से कन्या ले लेते है, पर देते नहीं। बहु-तििाह सामान्यतीः नहीं है। तलाक को मान्यता नहीं है। पररतक्यता जातत बाह्य हो जाती है, हालााँदक यह अब उतना कठोर नहीं रहा और उसमें कमी भी आई है। डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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161 तिधिा तििाह िर्थजत है, हालााँदक यह भी अब होने लगा है। तिधिा पुनगतििाह भी नहीं है। तििाह हेतु कुाँ आरी होना प्रमुख शतग है। यह कहा जाता है दक, छत्तीसगदढ़या ब्राह्मण तििाह सम्बन्ध करते समय यह पूछते हैं दक आप तशखा गााँठ दाएाँ बााँधते हैं या बाएाँ और चरण धोते समय पहले कौन सा चरण धोते हैं।365 अब तिधिा सर मुण्ड़न नहीं होता, पर अभी भी मराठा और खण्ड़ेलिाल ब्राह्मण इसका आग्रह करते हैं। छत्तीसगढ़ी ब्राह्मणों में मााँस-मददरा का सेिन नहीं करने की परम्परा रही है। हालााँदक उत्कल, बंगाली, मैथली, कश्मीरी आदद ब्राह्मणों में मााँसाहार सामान्य है और उनके पारम्पररक आयोजनों में भी यह आहार सम्मतलत है। ब्राह्मण तहन्दू धमग का पालन करते है। अतधकााँशतीः िैष्णि पंथ को मानते हैं। कु छ शैि और शाक्त पंथ को भी मानते हैं। प्रततददन पूजा करते हैं। जनेऊ धारण करते हैं। अब इनकी जातत पंचायत ढ़ीली-ढ़ाली व्यिस्था ही रह गई है। यह लोग प्रशासतनक, राजनीततक, कला, तशक्षा, शोध, तिज्ञान, तकनीकी आदद सभी क्षेत्रों में सिोच्च स्तर तक रहे हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री भी इसी जातत के थे। अब कु छ अन्य सामान्य तथ्य भी- ब्राह्मणों के कतथत मूल और क्षेत्रीय तिभाजनों में, अहीिसी कृ तष कायग करते हैं। तजझौततया कन्नौतजया उपजातत का ही एक तिभाजन है, जो दक बुन्देलखण्ड़ से हैं और बुन्देलखंड़ के ही पुराने नाम तजझौततया से यह नाम तलया गया है। कन्नौतजया या कन्यकु ब्ज संज्ञा कन्नौज से ली गई है। यहााँ कभी हषग बधगन शासक था और व्हेन सााँग ने भी यहााँ का भ्रमण दकया था। उत्तर में यह लोग ही ब्राह्मण जातत के प्रमुख भाग हैं। इनके चार उपतिभाजन है- कन्नौतजया, तजझौततया, सरिररया और सनाढ़य। सनाढ़य गंगा-यमुना दोआबे से हैं। सरिररया कन्नौतजयों से ऊपर हैं। खण्ड़ेलिाल ब्राह्मण सामान्यतीः गुजराती हैं। इनकी संज्ञा खेड़ा नगर से बनी। नागपुर के भोंसले जब छत्तीसगढ़ आए तब उनके साथ महाराष्ट्र के माराठी ब्राह्मण इस क्षेत्र में बसे। इनके तीन उप तिभाजन है- देशस्थ, कोंकणस्थ और करहाड़ा। मैथली पंचगौड़ में एक हैं। यह मााँसाहारी हैं। मालिीय मालिा के हैं। नागर गुजराती ब्राह्मणों की एक शाखा है। नरामदेि लोग तनमाड़ के हैं। उत्कल उड़ीसा से हैं। इनके दो तिभाजन हैं- दतक्षणात्य और जचपुररया। सम्बलपुर में बसने िाले झाररया या जंगली कहलाए।

3. कायस्थीःकायस्थ जातत के लोग छत्तीसगढ़ राज्य के सभी तजलों के नगरों में तनिास करते हैं। इनकी जनसंख्या भारत में 70 लाख और छत्तीसगढ़ में 40 हजार अनुमातनत की गई है, तजसमें से लगभग 30 हजार लोग छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं।366 कायस्थ का अथग तलखने िाला या तलतपक से है। यह लोग, सामान्यतीः, नौकरी करते हैं और प्रशासक माने जाते हैं। उच्च अगड़ी जाततयों में तगने जाते हैं।367 यह माना जाता है दक, ब्रह्मा के तितभन्न अंगों से 16 पुत्र हुए। सत्रहिााँ पुत्र मतस्तष्क और आत्मा से हुआ। यह तचत्र गुप्त थे। इसी कारण से कायस्थों के िणग तिभेद पर अस्पष्टता रही। उन्हें प्रथम तीन िणग में से

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कायस्थ ररसचग बिग

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162 दकस िणग में रखा जाय यह पूणगतीः सुतनतित नहीं हो सका। संस्कृ त शब्द कोश में तलतपक होने से, इन्हें, का-यता या का-यस्थ कहा गया।368 ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने के तमथक के कारण भी यह संज्ञा मानी गई। सामान्यतीः यह माना जाता है दक, यह लोग ब्राह्मणों के तलतपक थे। इस कारण से ब्राह्मण िणग में होने का आधार पुष्ट हुआ। प्रशासदकय कायग करने के कारण क्षतत्रय िणग में होने का आधार बना। अस्पष्टता के कारण िैश्य िणग में इंतगत दकए जाने का आधार बना। ब्राह्मण और क्षतत्रय होने हेतु यह भी कहा जाता है दक, तचत्रगुप्त के दो तििाह हुए। पत्नी सूयगदतक्षणा/नंदनी ब्राह्मण कन्या थी, इनसे चार पुत्र- भानू, तिभानू, तिश्वभानू और िीयगभानू- हुए तथा पत्नी एरािती/शोभाितत क्षतत्रय कन्या थी, इनसे आठ पुत्र- चारु, तचतचारु, मततभान, सुचारु, चारुण, तहमिान, तचत्र, और अतततन्द्रय- हुए। यह मुख्य रूप से उत्तर भारत (आयगितग क्षेत्र) भर में फै ले हुए हैं और सामान्यतीः ऊपरी गंगा क्षेत्र में ब्राह्मण और बाकी में क्षतत्रय माने जाते हैं।369 यह कहा जाता है दक, जब यम को कायग हेतु अतभलेख सन्धारण में करठनाई हुई तो उन्होंने समस्या से ब्रह्मा को अिगत कराया। यम सतन्हता के अनुसार, ब्रह्मा ध्यान मग्न हुए और तचत्रगुप्त को उत्पन्न दकया। उनकी काया से उत्पन्न होने कारण कायस्थ संज्ञा दी और उनके शरीर में रहने रहते हुए भी अदृश्य रहने के कारण तचत्रगुप्त। कहा जाता है दक, सूयग पुत्र मनु ने पुत्री सुदतक्षणा या नंदनी का और धमग शमाग ने पुत्री इरािती या शोभािती का तििाह तचत्र गुप्त से दकया। इनके 12 पुत्रों का उल्लेख ऊपर के पैरां में आ गया है। इनसे कायस्थों के 12 गोत्र बने। यह हैं- माथुर, गौर, तनगम, आस्थाना, कु लश्रेष्ठ, सूयध्ग िज, बातल्मक, भटनागर, श्रीिास्ति, अम्बष्ट, सक्सेना और करण।370 यह गोत्र कई कु लों या अल्ल में तिभातजत हैं। यह भी कहा गया दक यह सभी नाग कन्यां से तििाहोपरांत उत्पन्न हुए। जैसा दक पूिग में बताया जा चुका है दक, लगभग सभी तमथकों में नाग और गोली या ग्िाल कन्यां को ही अततसुन्दर माना गया है और उनसे तििाह बाताए गए हैं। नाग िंश की कन्याएाँ आज भी सुन्दर मानी जाती है। ब्राह्मणों का तलतपक होने के कारण ब्राह्मण होने का दािा तो है ही, साथ ही यह भी कहा जाता है दक, तचत्र गुप्त पुत्र तचत्ररथ तचत्रकू ट का क्षतत्रय राजा हुआ और इससे क्षतत्रय होने का दािा तलया गया। राजां के आदेश और अतभलेख लेखन का कायग भी कायस्थ लोगों से ही कराया जाता रहा है। िंशानुगत रूप से कायस्थों को तीन प्रकार से तचतन्हत दकया जाता रहा है। अब चार प्रकार हैं- एकतचत्रगुप्त या तचत्रगुप्तिंशी या ब्रह्म कायस्थ या कायस्थ ब्राह्मण, दो- चन्द्रसेनी या प्रभु या क्षत्रीय (हैहय) कायस्थ, तीन- तमतश्रत कायस्थ- इसमें कु छ अपने को क्षतत्रय मानते हैं और कु छ अन्य िणग का तथा चार- िे कायस्थ जो मूल कायस्थ िंशों से नहीं हैं और उनके व्यिसाय को अपनाने के कारण इस जातत में आए। कायस्थों के उक्त 12 गोत्रों का सतन्क्षप्त सारणीकरण तनम्ााँदकत है, तजसमें प्रथम 8 इरािती/शोभािती के और अंत में शेष 4 सुदतक्षणा/नतन्दनी के पुत्र हैं। हालााँदक सम्भितीः सभी कायस्थ 368

Hindunet.org पर संस्कृ त शब्द कोश

369

http://www.archive.org/stream/ethnographicalno00chanrich/ethnographicalno00chanrich_djvu.txt

और http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E 0%A4%A5_%E0%A4%AC%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A5%8D% E0%A4%AE%E0%A4%A3 370

Robert Vane Russell and Raibhadur Hira Lal-The Tribes and Castes of the Central Provines of

India,Vol.-III,P.404-422

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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163 कश्यप गोत्र के माने जाते हैं। सारणी, कायस्थ गोत्रों का सतन्क्षप्त तििरण

स्रोत- http://en.wikipedia.org/wiki/Kayastha

क्रमााँ क

पुत्र/गोत्र

गुरू

रातश नाम

नाग पतत्न

अराध्य

कतथत प्रदत्त क्षेत्र

उपतिभाग

कु ल या अल्ल संख्या 84

1

चारू/माथु र

मथुरे

धुरन्ध र

पंगजकशी

दुगाग(मथुरेशि री)

महानदी-क़ृ ष्णा दोआबा (उड़ीसा)

1.मथारा के , 2.पांचाल (पंचोली या पांचाली) की गढ़िाल तहल के नगर मथारा के और 3.गुजराती कच्छी माथुर

2

सुचारू/ गौर

ितशष्ठ

धमगद त्त

शाकम्बरी देिी

गौड़ (बंगाल)

1.खरे,2.दूसरे, 3.बंगाली,4.देह ल्िी ,5.बदायुाँनी

3

तचत्रके श/ भटनागर

भट्ट

मतधया (नागराज िासु की पुत्री) भद्रकलनी

जयंती देिी

भट्ट नदी और देश तथा मालिा

4

मततमान/ सक्सेना

कोकलेश

शाकम्बरी

शक (काबुल, कन्धार, युरेतशया)

खरे और दूसरे

106

5

तहमिान/ अम्बष्ट

श्रंधार

भुजंगकशी

अम्बा

तगरनार और कारठयािाड़

तहमिान के पााँच पुत्रों(जो गन्धिग कन्यां से ब्याहे) के आधार पर तिभाजननागसेन, ज्ञानसेन, गयादत्त रत्नमूल और देिधर

क्रमश: 24 +35+8 5 +25+2 1 =190

6

तचत्रचारू/

सुमंत

अशगन्धम तत

दुगाग

महाकौशल और तनगम(सरयु तट)

7

तनगम अरूण

लक्ष्मी और

करण(कनागटक)

मान्यताएाँ और अन्य तथ्य 1.अयो ध्या में रघुिंश के पहले शासन की मान्यता, 2.कु छ तिद्वान दतक्षण के पाण्ड़य राज्य का शासक मानते हैं, तजसके कू टनीततज्ञ रोमन आगस्टक तक गए।

32

84

1.तचत्रकू ट और तचत्तौड़ बसाने की मान्यता सखा (तमत्र) होने के कारण सक्सेना कहलाए 1.प्रदत्त क्षेत्र का नाम अम्बा-स्था हुआ और उससे अम्बष्ट 2.तसकन्द र और चन्द्रगुप्ट से परातजत हो पंजाब में जा बसने की मान्यता

43

गया(तबहार) में

360

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164 चारू/

िैष्णि

बसने िाले ग्यािाल और तमतथला में बसने िाले मैतथल (यह लोग बौद्ध हुए)

करण 8

तजतेन्द्र या अततयेन्द्री य/ कु लश्रेष्ठ

शांतड़ल्य

मंजूभातष णी

लक्ष्मी

कनौज

9

श्रीभानु/

धमगव्दा ज

पदमनी

श्रीिास,श्रीनगर(कश्मीर,क न्धार)

श्याम सुन्दर

मालती

कश्मीर का उत्तर

श्रीिास्ति

10

िैभानु/

यह पुत्र अिागतधक धार्थमक माना गया और धमागत्मा तथा पंतड़त कहा गया

श्रीभानु के पुत्र देिदत (कश्मीर) औअर घंश्याम(तसन्धु तट) के िशज श्रीिास्ति और तद्वतीय पत्नी खेरी से खरे ।इसके भी दोपुत्र-धंिंतरी और सिगज्ञ।यह दूसरे श्रीिास्ति कहलाए

65

सूयगपुत्री मााँ होने से सूयग ध्िज तलया और उसी से नाम तपस्या के दौरान िातल्मकी से ढ़्के

सूयगध्िज

11

तिश्वभानु/ िातल्मकी

दीनदया ल

तबम्बिती

12

िीयगभानु/ अस्थाना

माधि राि

तसहदेिनी

शाकम्बरी/ िल्लभ पंथ

िातल्मकी क्षेत्र(तचत्रकू टनमगदा)

अतधष्ठान

पुत्र चन्द्रकााँत गुजरात बसे।इअसके िंशज बल्लभी कहलाए।अन्य पुत्र उत्तर में बसे। 5

1.रामनग रिाराणासी राजा द्वारा 8 रत्न देने के कारण आष्ठाना या 2.कोई स्थान नहीं होने के कारण अस्थान से

कायस्थों भी सगोत्रीय और एक कु ल या अल्ल में तििाह नहीं करते है। तििाह जातत के अन्दर और सामान्यतीः अपनी उपजातत में ही करते हैं। भाईदूज (दीपािली उपरााँत) को कलम, दिात और तलिार के साथ तचत्रगुप्त की पूजा करते हैं, जो दक ब्रह्मा द्वारा उनके सृजन का ददिस माना जाता है। यह भी माना जाता है दक, तचत्रगुप्त के सृजन के डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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165 कारण इसी ददन यम को थोड़ा अिकाश तमल पाया और िह अपनी बहन यमुना से तमलने जा पाया और इसी कारण से भाईदूज मनाने का प्रचलन हुआ। तचत्रगुप्त के रूप में पूिगज पूजा करने िाली यह बहदूं की इकलौती अगड़ी जातत मानी जाती है।371 यह लोग तहन्दू धमग मानते हैं और तहन्दू अराध्यों की पूजा करते हैं। तहन्दू रीतत-ररिाजों और परम्परां को मानते हैं। सामान्य तहन्दू शाकाहार आग्रह के तिपरीत मााँसाहारी हैं। सभी तहन्दुं की तरह गाय मााँस नहीं खाते हैं। मााँसाहार का कारण यह ददया जाता है दक, कायस्थ लोग दकसी भी शासक और प्रशासक िगग या संिगग को अततशीघ्र और सिगप्रथम अपना लेते हैं और उनसे तत्काल घुलतमल जाते हैं। इसी कारण से यह लोग मध्य काल के मााँसाहारी मुतस्लम शासकों से भी शीघ्र और सबसे पहले घुलतमल गए और उनसे अपनी प्रगाढ़ता प्रदर्थशत करने को उन्हीं के जैसा खान-पान प्रारम्भ कर ददया। इन्हें व्यापक और अच्छी भोजन रूतच हेतु भी जाना जाता है। यह लोग दकसी भी जातत या समूह की तुलना में लोगों से, तिशेष कर उच्च िगग के लोगों से, सरलता से घुलतमल जाते हैं। यह उक्त तथ्य से भी स्पष्ट है। शासक और प्रशासक िगग से सप्रयास ऐसा करते हैं। हालााँदक यह माना जाता है दक, इनकी यह भािना उच्च िगग के दूसरों के प्रतत ही है, आपस में स्ियं कायस्थों के मध्य ऐसा व्यिहार नहीं है।372 यह लोग ररयासतों, राज्यों आदद में दीिान, प्रशासक, अतधकारी और तलतपक रहे हैं। मौयग काल में भी यह लोग प्रशासतनक व्यिस्था में थे। यह लोग नगरों में ही रहते हैं और उसी संस्कृ तत और सभ्यता के पोषक हैं। तशक्षा की ओर अत्यतधक झुकाि है। पररितगनों को सहज अपना आगे बढ़ते हैं। कई लेखक और तिद्वान इन्हें अद्धग सैतनक जातत कहना पसन्द करते हैं। कायस्थ जातत की अपनी तलपी है, तजसे कै थी कहते हैं। यह देिनागरी से तमलती जुलती है। पूिग में इस तलपी को कायथी, कायती और कायस्थी भी कहा जाता था।373 मध्य काल में, मुतस्लम शासकों के समय, कायस्थ अन्य जाततयों या समुदायों की तुलना में अतधक तीव्रता से आगे बढ़े। मध्यकालीन शासकों ने अन्य जाततयों के लोगों को रोज़गार देना तक कम या बन्द कर ददया था। कायस्थों ने परम्परा अनुसार उनसे शीघ्र अच्छे सम्बन्ध बना तलए। आतुरता यहााँ तक थी दक, कई ने मुतस्लम धमग भी अपना तलया और इस्लामी जातत प्रथा या िगग तिभाजन में अशरफ और शेख का ऊाँचा स्थान भी प्राप्त दकया।374 िे शाकाहारी से मााँसाहारी हो गए। इन्होंने फारसी, अरबी और ऊदूग भी शीघ्र सीखी। तब से ही अतधकााँश पटिारी और भू अतभलेख का कायग करने िाले सरकारी कमगचारी कायस्थ ही होने लगे, जो दक भारत की स्ितंत्रता उपरााँत भी लम्बे समय तक ज़ारी रहा। िे भू अतभलेख के एक पद कानूनगो (अब आर.आई.) को भी सरनेम की तरह इस्तेमाल में लाने लगे। तब्ररटश उपतनिेशिादी शासन काल भी ऐसा दकया और जल्द उनकी नौकरीयों में भी आए और तसतिल सेिा अतधकारी, कर अतधकारी, अन्य उच्च और कतनष्ठ शासकीय अतधकारी, तशक्षक, तितध सहायक और िेत्ता, तलतपक आदद

371

http://en.wikipedia.org/wiki/Kayastha

372

http://en.wikipedia.org/wiki/Kayastha

373

http://en.wikipedia.org/wiki/Kayastha

374

Dileep Karanth- Caste in Medieval India: The Beginnings of a Reexamination

(http://www.svabhinava.org/HinduCivilization/DileepKaranth/CasteMedievalIndia-frame.php), Imtiaz Ahmad- Caste and Social Stratification among the Muslims और M.K.A. Siddiqui- Caste among the Muslims of Calcutta

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166 हुए। भारततयों को जहााँ तक ऊाँचे सरकारी पद तमल सकते थे, इन्हें तमले और यह बात स्ितंत्रता उपरााँत तक लागू रही।375 कायस्थ उच्च प्रशासतनक सफल जातत रही। िे उच्चतम प्रशासतनक और सैन्य पदों पर रहे। इस जातत के लोग राजनीततक उच्चतम पदों (भारत के प्रथम राष्ट्रपतत और एक प्रधानमंत्री) पर भी पहुाँचे। उक्त के अततररक्त राजनय, तशक्षा, सातहत्य (प्रेमचन्द), तिज्ञान, तकनीकी, कला, दफल्म (अतमताभ), संगीत, इततहासकार, स्ितंत्रता सेनानी (सुभाष च. बोस), पत्रकार आदद सभी तिषयों और क्षेत्रों में भी उच्चतम पद या स्थान पाए। आधुतनक काल के कई पंथ भी इनके द्वारा प्रारम्भ हुए। यथा- स्िामी प्रभुपाद का हरे कृ ष्ण इस्कान, महर्थष महेश योगी का आध्यात्मिाद (ज्ञातव्य हो दक िे योग्य होने के बािजूद मात्र गैर ब्राह्मण होने के कारण शंकराचायग नहीं चुने गए।), श्री अरतबन्दो का आंतररक योग, परमहंस योगानन्द का दक्रयायोग और सिागतधक स्थातपत तििेकानन्द का िेदांत। यह लोग अपनी चतुराई के साथ सहज प्रततव्युत्पन्नमतत और हास्य क्षमता (Sense of humour and wit) हेतु भी जाने जाते हैं। उत्तर प्रदेश और तबहार में लालाजी के चुटकु ले प्रतसद्ध रहे हैं। यह संज्ञा भी कायस्थों हेतु सामान्य बोलचाल में उपयोग होती है।376 4. मराठा या मराठीीःनागपुर के भोंसले मराठा लोगों का शासन जब छत्तीसगढ़ क्षेत्र में आया, तब उसके उपरााँत मराठा या महाराष्ट्र आए मराठी भाषी लोग इस क्षेत्र में बसे। यहााँ पर और छत्तीसगढ़ के सन्दभग में मराठा या मराठी भाषी लोगों का आशय उन लोगों से है, जो महाराष्ट्र से आकर छत्तीसगढ़ में बसे और तजनकी मातृभाषा मराठी थी या है। मराठा या मराठी लोग छत्तीसगढ़ में भोंसलों के सैतनक, जमीन्दार, सरदार, सरपोतदार और इनके आतश्रतों आदद के रूप में आए। यहााँ आने िाले लोगों को अतधकााँशतीः योद्धा और साथ में कृ तष कायग में रत लोगों का समूह माना जा सकता है। मूल मराठा और मराठा कु नबी लोग अपने आप को क्षतत्रय मानते हैं। मराठा या मराठी लोगों में 96 उपतिभाजन हैं। यह 96 नाम, सामान्यतीः, तििाददत हे रहे, इसतलए कई बार समूहों ने अपने मराठा दलपतत का नाम ही अपना तलया। मराठा या मराठी शब्द की व्युत्पतत्त का एक तसद्धांत यह ददया जाता है दक, दक्कन के कु छ भाग के लोग रातष्ट्रक कहे जाते थे। यह उल्लेख अशोक स्तम्भों में भी आया है। इस रातष्ट्रक शब्द से संस्कृ त में महा-राष्ट्र (बड़ा या महान रातष्ट्रक या देश) शब्द बना। भातषक रूप से संस्कृ त के इस महाराष्ट्र शब्द से जैन मराठी सातहत्य में प्राकृ त भाषा का शब्द मरहठा बना और उसी से मराठा या मराठी शब्द तिकतसत हुआ। एक अन्य तसद्धांत में मराठा और राष्ट्री शब्द को रट्टा शब्द से सम्बद्ध दकया जाता है, जो दक राष्ट्रकू ट (िंश) शब्द से बना। ितगमान मराठी भाषा भी प्राकृ त की महा-राष्ट्री से उत्पन्न हुई।377 मराठा या मराठी लोग दक्कन के सैतनक इलाके दार के रूप में कई ररयासतों में कायगरत रहे। मध्य काल के प्रारम्भ में इनके राज्य भी बने। यथा- सातिाहन, राष्ट्रकू ट आदद। इसके लगभग चार शातब्दी पिात तशिाजी ने इनके राज्य की स्थापना का प्रयास दकया। िह भोंसले मराठा थे। अब पेशिा काल में मराठों का एक सुस्थातपत राज्य सामने आया था। अपने चरम काल में मराठे कमजोर हो गए मुगलों पर

375

उक्त सतहत मुल्कराज आनन्द

376

http://en.wikipedia.org/wiki/Kayastha

377

http://en.wikipedia.org/wiki/Maratha

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167 अतधपत्य पाने में सफल रहे थे। यह उत्थान 1761 के पानीपात युद्ध के साथ समाप्त हो गया। तब्ररटश शासन में िे इनकी सेना में भती हुए। इसका पररणाम मराठा लाइत इंफेंरी थी, तजसके पूिग िे बाम्बे तसपाही में जंगी पल्टन थे।378 छत्तीसगढ़ में सामूतहक रूप से मराठी भाषी लोगों को मराठा की संज्ञा दी जाती है। इसमें कई जाततयााँ भी सम्मतलत हो सकती हैं। इस भाषा का प्रभाि छत्तीसगढ़ी बोली और बस्तर की जनजातीय बोतलयों पर भी पड़ा। इनमें कु छ इलाके दार भी रहे। छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या अल्प ही है। यह लोग तहन्दू धमग मानते हैं। तहन्दू अराध्यों की पूजा करते हैं। तहन्दू रीतत-ररिाजों और परम्परां को मानते हैं। 5. पंजाबीीःछत्तीसगढ़ राज्य में पंजाबी मातृभाषा बोलने िाले लोगों का समूह तनिास करता है। यह िे लोग हैं, तजनकी मातृभाषा पंजाबी रही या है। इनका मूल िृहद पंजाब या उसका तिस्ताररत क्षेत्र रहा है। पंजाब का यह तिस्ताररत क्षेत्र तिश्व की प्राचीनतम सभ्यतां का के न्द्र रहा है। तसन्धू घाटी सभ्यता उसका अग्रणी उदाहरण है। पंजाबी एक सांस्कृ ततक पहचान है। इसमें िह लोग हैं, तजनकी मूल प्रथम या मातृ भाषा भारोपीय (Indo-European) पररिार की पंजाबी भाषा रही है।379 हालााँदक राज्य के कु छ पंजाबी लोग इस भातषक पहचान से थोड़ा दूर भी हुए हैं, परंतु िे पंजाबी सााँस्कृ ततक परम्परा की पहचान लगातार बनाए रखते हैं।380 छत्तीसगढ़ के पंजाबी लोग अतधकााँशतीः तिस्ताररत और अतिभातजत भारत एिं उसमें भी अतधकााँशतीः अतिभातजत पंजाब राज्य और कु छ उत्तर-पतिम सीमा प्रााँत तथा तसन्ध प्रााँत से राष्ट्र तिभाजन के उपरााँत आए। भारत तिभाजन के समय पंजाब प्रााँत को दो राष्ट्रों में बााँट ददया गया। इसकी राजधानी लाहौर पादकस्तान में चली गई। भारत में अतधकााँश पंजाबी पंजाब, हररयाणा, तहमांचल प्रदेश, ददल्ली और चण्ड़ीगढ़ में तनिास करते हैं। इसके अततररक्त िे जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, उत्तराखण्ड़ और उत्तर प्रदेश में भी पयागप्त अतधक हैं।381 छत्तीसगढ़ में भी इनकी जनसंख्या सभी तजलों में है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में पंजाबी भाषी 29,102,477 लोग थे।382 यह, तिश्व में, जनसंख्या की दृतष्ट से ग्यारहिें क्रम भाषा थी। पादकस्तान में भारत से ढ़ाई गुने से अतधक लोग पंजाबी बोलते हैं और यह िहााँ का सबसे बड़ा भाषा समूह है।383 युनाईटेड़ ककगड़म में यह तद्वतीय क्रम में384 और कनाड़ा में चतुथग क्रम में385 िहााँ का सबसे बड़ा भाषा समूह है। पंजातबयों की उल्लेखनीय संख्या अमेररका, के न्या, तंजातनया, फारस की खाड़ी में तस्थत सभी देशों, हााँगकााँग, मलेतशया, बसगापुर,

378

James Grant Duff - A History of the Mahrattas, 3 vols. London, Longmans, Rees, Orme, Brown,

and Green (1826)( ISBN 81-7020-956-0) 379

http://www.krysstal.com/langfams_indoeuro.html

380

http://en.wikipedia.org/wiki/Punjabi_people

381

िही

382

भारत की जनगणना’2001

383

Statpak.gov.pk (पादकस्तान में 44.15% लोग पंजाबी भाषी हैं)

384

Punjabi Community(The United Kingdom Parliament)

385

Indian Abroad-The Times of India(Punjabi is 4th most spoken language in Canada)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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168 आस्रेतलया और न्यूजीलैण्ड़ में है। यह लोग तिश्व के सभी तहस्सों में भी फै ले हैं और लगभग 12 करोड़ (120 तमतलयन) हैं।386 पंजाब अथागत पााँच-आब (पानी, जल या नदी) है। आब अरबी-फारसी शब्द है, तजसका अथग हैपानी। स्पष्ट है दक, यह क्षेत्र संस्कृ ततयों के तमलन का क्षेत्र बना। 3,300 ईसा पूिग ही तसन्धू घाटी सभ्यता का तिकास भी इसी क्षेत्र में हुआ। आयग सतहत परतशयन, सीतथयन, ग्रीक, मध्य-एतशया की कई जाततयााँ और नस्लें, अरब, अफगान, तब्ररटश आदद यहााँ आक्रााँता और शासक हुए। भारतीय-आयग (Indo-Aryans), तजनसे की सम्पूणग भारत और पादकस्तान का ितगमान संस्कृ तत और तिकास पररदृश्य बना, इस क्षेत्र में यहााँ ही ईसा पूिग 2000 और 1250 के मध्य आए और यहााँ से ही उपमहाद्वीप के सभी क्षेत्रों में गए, तजसमें छत्तीसगढ़ भी सम्मतलत है। इन्हीं की भाषा दतक्षण एतशया की भाषा हुई। आयग िैददक तहन्दू संस्कृ तत का तिकास यहीं हुआ। यहााँ बौद्ध धमग भी फै ला। आठिीं शताब्दी में मुतस्लम आए। पन्द्रहिीं शताब्दी में यहीं तसक्ख धमग भी स्थातपत हुआ।387 1947 में स्ितंत्रता के साथ तिभाजन भी साथ आया। भारत के दो प्रमुख राज्य- पंजाब और बंगाल- भी बााँट ददए गए। इस ग्रह के सबसे बड़े मानि पलायन को अतनिायग बना ददया गया। इसका प्रधान प्रभाि पंजाब राज्य सतहत अतिभातजत भारत के उत्तर और उत्तर-पतिम में तस्थत प्रााँतों के लोगों पर व्यापक रूप से पड़ा, तजसमें सिागतधक पंजाबी ही प्रभातित हुए। तसन्धी भाषी और बांग्ला भाषी भी व्यापक प्रभाि के दायरे में थे। तिश्व के इस सिागतधक बड़े पलायन में नितनर्थमत पादकस्तान से तहन्दू और तसक्ख अब नितनर्थमत भारत में आए और इधर से कु छ मुतस्लम उधर गए।388 तब्ररटश उपतनिेशिाददयों ने अपने स्िाथगिश स्ितंत्रता को तिभाजन में बदल मानि इततहास की सबसे त्रासद और भयािह घटना में बदल ददया।389 छत्तीसगढ़ आने िाले अतधकााँश पंजाबी भाषी लोग इसी घटना का पररणाम थे। अतधकााँश पंजाबी भले ही भारत तिभाजन के पिात छत्तीसगढ़ आए, पर उनका स्पष्ट प्रभाि और उपतस्थतत यहााँ पहले से थी। िे छत्तीसगढ़ के रतनपुर के शासकों के राजगुरू रहे और आगे चल कर राजनााँदगााँि ररयासत के शासक हुए। सतक्त ररयासत में भी िे शासक रहे और तदुपरााँत िहीं दीिान हो अतधकारी िगग में रहे। रायगढ़ ररयासत में भी िे अतधकारी िगग में सम्मतलत हुए। िे सामान्य राजकमगचारी भी हुए, जैसे कोररया ररयासत में राजा के ड्राइिर फकीरा बसह। अठारहिीं शताब्दी के अिसान काल में सोहागपुर पंजाब से शाल (दुशाले) के घुमंतु व्यापारी बैरागी प्रहलाद दास रतनपुर रूक गए। तब रतनपुर में नागपुर के भोंसले मराठा तबम्बाजी का राज था। प्रहलाद दास को यहााँ बहुत व्यािसातयक लाभ हुआ। तब बैरागी अतििातहत ही रहते थे। प्रहलाद दास का तशष्य (चेला) महंत हरर दास सम्पतत का उत्तरातधकारी हुआ। तबम्बाजी की कई रातनयों मे से सात या आठ रातनयों ने महंत हरर दास से दीक्षा ले ली। अब महंत राजगुरू कहलाने लगे और उन्हें रतनपुर राज्य के प्रत्येक ग्राम से दो रूपये भेंट बसूली (गुरू दतक्षणा) का अतधकार ददया गया। इस धन से महाजनी (चल/अचल सम्पतत बन्धक/तगरिी रख धन ब्याज पर उधार देना) का कायग भी प्रारम्भ कर ददया गया। यह व्यिसाय भी बहुत लाभप्रद रहा। इस प्रकार िे तिपुल धन के स्िामी हो गए।390 छत्तीसगढ़ क्षेत्र के 386

http://en.wikipedia.org/wiki/Punjabi_people

387

Sir Denzil Ibbetson- Punjab Castes: Race, Castes and Tribes of the People of Punjab (Cosmo

Publications) (ISBN 81-7020-458-5) 388

South Asia-British India Partition

389

डा.संजय अलंग-भारत तिभाजन की पृष्ठभूतम का अध्ययन

390

धानू लाल श्रीिास्ति-अष्ट-राज्य-अम्भोज,पृ.45 और छत्तीसगढ़ ददग्दशगन

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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169 पाड़ादाह जमीन्दार ने, हररदास के पास जतमन्दारी तगरिी रख कर, धन उधार तलया और ऋण पटाने में असमथग रहा। अतीः जमीन्दारी हररदास के पास आ गई।391 हररदास की मृत्यु उपरााँत उनके तशष्य (चेले) महंत रामदास पाड़ादाह जतमन्दारी के उत्तरातधकारी हुए। तब (राज)नााँदगााँि में जमीन्दार इस्लाम धमागिलम्बी थे। (राज)नााँदगााँि जमीन्दारी भी, उक्त प्रकार से ही, रामदास के पास आ गई। इस प्रकार छत्तीसगढ़ में पंजाबी लोग ररयासत की सत्ता के स्िामी हुए और शासक िगग में आ गए। भारत की स्ितंत्रता प्रातप्त तक राजनााँदगााँि की ररयासत पंजाबी बैरातगयों द्वारा शातसत होती रही। पंजाबी लोग राजनााँदगााँि के पूिग सतक्त ररयासत के भी स्िामी रह चुके थे और अंततम शासक िंश के साथ िे दीिान रहे। अथागत शासक के उपरााँत अतधकारी िगग में रहे। सतक्त में अंततम शासक गोंड़ िंश के पूिग दीिान तनमगल बसह के पूिगज पुरूषों का शासन था। यह िंश पंजाब से यहााँ आया था। इस िंश को दीिान उपातध सम्बलपुर राजा द्वारा दी गई थी। इस तरह राजनााँदगााँि के पूिग सतक्त में भी पंजाबी शासक रहे। रायगढ़ ररयासत के अतधकारी िगग में भी पंजातबयों का उल्लेख आता है। यह उल्लेख जुझार बसह के ज्येष्ठ पुत्र देि नाथ बसह के शासन काल से आ जाता है। 1833 में बरगढ़ के शासक अजीत बसह नें अंग्रेज ईस्ट इतण्डया कम्पनी के शासन के प्रतत तिद्रोह दकया। देि नाथ बसह ने उसे, अंग्रेजों के तलए परातजत दकया। अतीः अंग्रेजों ने उसे बरगढ़ की जमीन्दारी भी, 1833 में, दे दी। देिनाथ बसह ने 1857 की क्रांतत के समय भी अंग्रेजों की सहायता की। उसने क्रांततकारी और तिद्रोही सम्बलपुर के सुरेन्द्र साय और उदयपुर के तशिराज बसह को सातथयों सतहत पकड़ कर अंग्रेजों के हिाले कर ददया। होतशयारपुर, पंजाब से आकर एक तसक्ख- िीर बसह- ररयासत में बसे थे। उसके िंशजों ने बरगढ़ को हराने में सहायता की। इसीका एक िंशज शमशेर बसह हुआ। िह नेटनागढ़ ग्राम का माफीदार और अन्य दो ग्रामों का मालगुज़ार था।392 देिनाथ बसह 1862 में स्िगगिासी हुए। इस तरह छत्तीसगढ़ में पंजाबी लोग अतधकारी और शासक िगग में आए। पंजाबी लोग ही भारतीय मूल आयग िैददक सनातन संस्कृ तत के पारतम्भक और मूल अध्येता और संस्थापक थे। इनकी संस्कृ तत तिश्व की प्राचीनतम और समृद्धतम संस्कृ तत मानी गई। छत्तीसगढ़ राज्य में आने और बसने िाले प्रमुख पंजाबी जाततयााँ या समूह, तजनकी जनसंख्या, राज्य में पयागप्त है, हैं(i) पंजाबी ब्राह्मण, (ii) पन्जाबी क्षत्रीय- (क) पंजाबी खत्री और (ख) पंजाबी अरोड़ा तथा (iii) पंजाबी जट्ट तसक्ख इसके अततररक्त कु छ अन्य पंजाबी भाषी जातत समूह भी आए, पर छोटे पैमाने पर। उपरोक्त तीन प्रमुख समूहों के उल्लेख के पूिग उनका भी उल्लेख उतचत होगा। एक- भारटया:-

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धानू लाल श्रीिास्ति-अष्ट-राज्य-अम्भोज,पृ.45 और छत्तीसगढ़ ददग्दशगन

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धानूलाल श्रीिास्ति-अष्ट-राज्य-अम्भोज,पृ.118-119

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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इन्हें भाटी और भट्टी राजपूतों से सम्बद्ध दकया जाता है। यह गुजगर क्षत्रीय393 हैं, क्योंदक इनका मूल गुज्जर है। इनमें कच्छी, िेहा, हाली, कं तथ, निगम, पतचसगाम और पंजाबी तिभाजन है। पंजाब में मेर और तसक्ख राजपूत के रूप में जाने जाते हैं।394 दो- सूदीःअपने को अतग्नकु ल राजपूत मानते हैं। सूद का अथग गाड़ीिान और नानबाई से लगाया जाता है। क्षत्रीय से व्यापारी बने। सूद लेने के कारण मुतस्लमों शासकों ने पृथ्क नाम ददया। 1839 के अहमद शाह आब्दली के आक्रमण उपरााँत उत्तरी पहाड़ों पर चले गए। अब अपने को अख्यान के राजा सुदास से जोड़ते हैं। इनके उचंतड़या या पहाड़ी और नेिंतड़या या मैदानी तिभाजन हैं। इनमें 52 कु ल या अल्ल या सरनेम हैं।395 तीन-तरखन (बढई):तरखन सामान्यतीः बढ़ई माने जाते हैं। यह शब्द तोखा शब्द से बना।396 चार-अहलूिातलया या िातलया:अहलुिातलया या िातलया जातत समूह को कलार जातत समूह से सम्बद्ध दकया जाता है, शराब और आसिन आदद के व्यिसाय से सम्बद्ध समूह रहा है।397 पर यह योद्धा जातत रही है। अब छत्तीसगढ़ के प्रमुख पंजाबी जातत समूहों पर चचाग की जा रही है। [ i ] पंजाबी ब्राह्मणीःपंजाबी ब्राह्मणों में अतधकााँशतीः और मुख्यतीः सारस्ित ब्राह्मण हैं।398 इन्हें सारस्ित संज्ञा पौरातणक और आख्यातनक सरस्िती नदी तट/घाटी और उसके आस-पास के क्षेत्रों में तनिास करने के कारण 393

http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_Gujjar_Clans, http://en.wikipedia.org/wiki/Bhatia और

http://en.wikipedia.org/wiki/Gujjar 394

G.S.Churye-caste and Race in India और Reginld Edward Enthoven-The Tribe and Caste of

Bombay 395

H. A Rose- A Glossary of the Tribes & Castes of Punjab, P.480 और

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http://en.wikipedia.org/wiki/Tarkhan_(Punjab)

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Gazette (Punjab Department of Revenue),Religions and Caste

Ahluwalia & Walia

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171 तमली। यह सारस्ित ब्राह्मण पतिम भारत के कोंकणी और मराठी भाषी गौड़-सारस्ित और कश्मीरी सारस्ित ब्राह्मणों से तभन्न हैं। पंजाबी सारस्ित ब्राह्मण मूल ब्राह्मण और प्राचीनतम आयग माने जाते हैं। प्रारतम्भक आयग, ब्राह्मण ही आए और सभी पेशों को करते थे। उनके सरनेम यह पेशा भी दशागते थे। 712 में तसन्ध के इस्लामीकरण से इनका पलायन प्रारम्भ हुआ। बाद में जब बसधीभाषी लोग तिभाजन आदद के कारण पलायन दकए, तब उनमें भी तसन्धी सारस्ित ब्राह्मण भी थे, जो पंजाबी सारस्ित ब्राह्मण से तभन्न हैं। यह लोग भी सामान्यतीः जोशी, पाठक और कु मार सरनेम ही उपयोग करते रहे हैं, पर कु छ ने अन्य तसन्धी सरनेम भी अपनाए। यथा- आड़िानी, माधिानी, चन्द्राणी आदद। इनमें ‘आतमल’ तसन्धी समुदाय प्रमुख है। पंजाबी ब्राह्मण अतधकााँशतीः तहन्दू िैष्णि पंथ को मानने िाले हैं। इनके प्रमुख चार उपतिभाजन हैं।399प्रथम- बरातहस। इसमें शकाद्वीपीय या मग ब्राह्मण हैं। यह 12 जाततयों में ही तििाह करते हैं। तद्वतीय- बािन जई। यह 52 घरों में ही तििाह करते हैं। तृतीय- अठिान। यह अपने आठ कु लों में ही तििाह करते हैं। यह आठ कु ल हैं- जोशी, कु लग, संड़, पाठक, भारद्वाज, शौरी, तद्विेदी और ततिारी। यह श्रेष्ठ तस्थतत में हैं। कु लग को छोड़ शेष सात मूल सात ऋतषयों से उत्पन्न माने जाते हैं। इन्ही सात के द्वारा िेद रचना मानी गई है। इनमें से तद्विेदी अतधकााँशतीः होतशयारपुर तजले के टाँड़ा के समीप तस्थत बुतद्धबपड़ ग्राम के हैं। चतुथ-ग मोहयल। यह योद्धा ब्राह्मणों की श्रेणी है। यह ब्राह्मणों से व्युत्पन्न ऐसा समूह है, जो सैन्य ज्ञान को तशक्षा और पढ़ाई के साथ जोड़ता है। इनकी व्युत्पतत सारस्ित ब्राह्मणों से ही मानी जाती है। इसे सास्ित पंजाबी ब्राह्मणों का ही एक उपसमूह भी माना जा सकता है। िे अपने को परशुराम का िंशज मानते हैं। परशुराम को प्रथम ब्राह्मण माना जाता है, तजन्होंने अस्त्र-शस्त्र धारण दकए थे। इन्होंने ब्राह्मणों के मूल कायग और पूजा, पुरोतहताई, पुजारी आदद के कायग छोड़ कर योद्धा के कायग अपना तलए। इसमें सात कु ल हैं- बाली, भीमिाल, तछब्बर, दत्त, लाउस, मोहन और िैद्य। यह ब्राह्मण िगग खुखरे न (कोहली) खतत्रयों से भी सम्बतन्धत रहा है। दत्त तो इनके पुरोतहत भी रहे हैं। यह लोग भू स्िामी हैं। सेना और प्रशासन में जाना पसन्द करते हैं और उसमें हैं भी। धार्थमक तिश्वासों, परम्परां, कमगकाण्ड़ों और रीतत-ररिाजों के प्रतत आग्रह नहीं रखते हैं। मााँसाहारी हैं। अन्य तहन्दुं की तरह गाय मााँस नहीं खाते हैं। अपने सात कु लों में ही तििाह करते हैं। यह लोग भूतम के मातलक, दीिान, शाह, जमीन्दार, राजा आदद हुए। इन्होंने उत्तरपतिम सीमा प्रााँत में (अब पादकस्तान) अपना पृथ्क अतस्तत्ि बनाया और स्थातपत दकया, जहााँ यह लोग जमीन्दार, योद्धा, तशक्षक, तितधिेत्ता आदद हुए। यहााँ के पठान ज्ञान और जन-जातीय कानूनों हेतु इन्हीं की सलाह लेते हैं। पंचम- भास्कर। यह ितशष्ठ गोत्र के पंजाबी ब्राह्मण हैं। इनका मूल स्थान ‘बदु की गुसाईयााँ’ माना जाता है, जो अब पादकस्तान में है। पलायन, तनिासस्थलों के व्यापक तिस्तार, आधुतनकता, सामातजक-आर्थथक कारण आदद के कारण अब कु ल अंतगगत तििाह प्रथां में क्षीणता आई है। [ ii ] क्षत्रीयीःइस शीषगक के तहत छत्तीसगढ़ में रह रही दो प्रमुख पंजाबीभाषी क्षत्रीय जाततयों पर ही चचाग की जा रही है। यह हैं- पंजाबी खत्री और पंजाबी अरोड़ा।

399

http://en.wikipedia.org/wiki/Punjabi_Brahmins

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172 क पंजाबी खत्रीीःखत्री शब्द संस्कृ त या पाली के क्षत्रीय शब्द की पंजाबी व्युत्पतत है।400 पंजाबी में क्ष का उच्चारण नहीं है। ऐसी ही एक नेपाली व्युत्पतत छत्री है। हालााँदक खत्री मौयग काल तक क्षत्रीय ही उच्चाररत होते थे।401 यह एक क्षत्रीय योद्धा जातत रही है, जो सूयगिंशी हैं।402 यह लोग शासक और प्रशासक के रूप में सामने आए और धमग तथा मानिता के सेिक के रूप में जाने गए।403 धीरे -धीरे अन्य व्यिसायों और व्यापर में भी आए। इसी जातत ने भारत पर हुए समस्त आक्रमणों का सामना सिगप्रथम दकया। खत्री तहन्दू और तसक्ख दोनों हैं। पादकस्तान और अफगातनस्तान में मुतस्लम खत्री भी हैं। पंजाबी संस्कृ तत का तिकास इसी जातत द्वारा दकया गया है। तसक्ख धमग भी इसी जातत के लोगों से तनकला। सभी तसक्ख गुरू खत्री थे। भारत में सिा उन्नीस लाख से अतधक तहन्दू खत्री अनुमातनत हैं, तजसमें से लगभग पााँच हजार से अतधक छत्तीसगढ़ में रहते हैं और उसमें से दो हजार से अतधक छत्तीसगढ़ी भी बोल लेते हैं। भारत में तसक्ख खत्री तीन लाख के लगभग हैं, तजसमें से लगभग हजार-पााँच सौ छत्तीसगढ़ में रहते हैं और उसमें से आधे छत्तीसगढ़ी भी बोल लेते हैं। भारत में मुतस्लम खत्री लगभग पचास हजार तक हैं और तिश्व में यह लगभग बारह लाख हैं।404 प्रारम्भ में खत्री मुख्यतीः उत्तर-पतिम में तक्षतशला और माजह क्षेत्र में बसे। यह क्षेत्र ही भारतीय आयग संस्कृ तत के तिकास और िेद, महाभारत, रामायण, गुरू ग्रंथ साहेब, पुराणों आदद के तिकास का भी क्षेत्र था। सुनारों पर चचाग करते समय राबटग िाने रस्सेल्ल और रायबहादुर हीरालाल द्वारा, उत्पतत की एक कथा बताई गई है और यह उल्लेख दकया गया है दक, यह समान कथा खत्री और सुनार, दोनों जाततयों में, प्रचतलत है, पर इस तथ्य से दोनों अनतभज्ञ है दक, यह समान कथा दोनों जाततयों में है। यह कथा है- यह लोग उन दो राजपूत भाईयों में से उस एक की व्युत्पतत्त हैं, तजसे सारस्ित ब्राह्मण ने बचाया। ज्ञातव्य हो दक, सारस्ित ब्राह्मण उत्तर-पतिम भारत में सामन्यतीः हैं। जैसे पंजाब, कश्मीर, तसन्ध आदद। आगे यह कहा गया दक, जब परशुराम क्षत्रीय िध को उदत्त थे, तब एक भाई से खत्री हुआ। सुनारों में यह बात अपने हेतु कही गई।405 खतत्रयों को मूल आयग माना जाता है। आयों की तरह खत्री इण्ड़ो-सीतथयन माने जाते हैं। इततहासकार यह मानते हैं दक, खत्री शब्द युरेतशया की खजार जनजातत से बना। जैसे अहीर अिर से, जाट

400

Dr. Buddha Prakash - Political and Social Movements in Ancient Punjab

(http://punjabrevenue.nic.in/gaz_asr9.htm), तथा अमृत्सर, लुतधयाना और फरीदकोट तजला गजेरटयर 401

The Punjab Past and Present By Punjabi University Dept. of Punjab Historical Studies Published

by Dept. of Punjab Historical Studies, Punjabi University., 1981 402

पं हररश्चंद्र शास्त्री , पं श्याम चरण शास्त्री , तलिादमे , जे सी नेसदफल्ड , सी एच इतलयट , सर जॉज्ग कै म्बल , ए एच

तिल्सन 403

http://en.wikipedia.org/wiki/Khatri

404

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

405

R.V.Russell and Rai Bahadur Hira Lal -The Tribe and Castes of the Central Province of India

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173 गैटे से, शक स्कै थी से, गुजगर और खत्री ख़जार से, ठाकु र और तरखन तुतखररयन से, सौराष्ट्र सौरामट्टी या सरमारटयनस से और तससौददया स्सेतनयन से।406 डा.बुतद्ध प्रकाश आधुतनक पंजाबी या उत्तर भारतीय समूहों का उक्त तििरण तनम्ााँदकत अनुसार देते हैं। इस सूची में खत्री और पंजाबी से इतर जातत समूह भी सम्मतलत हैं।:सारणी - आधुतनक पंजाबी/उत्तर भारतीय समूहों का पूिग जनजाततयों से सम्बतद्धकरण स्रोत- Dr.Buddha Prakash- Political and Social Movements in Ancient Punjab (http://punjabrevenue.nic.in/gaz_asr9.htm)

पंजाबी/उत्तर भारतीय सरनेम अरोड़ा बग्गा बधिार और बेदी बहल, बेहल, भल्ला, भल्का, भल्लार और भल्लोिाना चािला गुजगर हून

जाट जुनेजा, कम्बोध कं ग कपूर

406

सम्बतन्धत पूिग नस्ल/जनजातत/कबीला अरत्ता, आरस्रक भगल भद्रा बतल्हका जउला गुजगरा, खजार, िू-सुन, हूण जरता-जरटओइ

यिनजा-इओतनन् कम्बोजा कं ग-क्यु अजुगनयना ?

http://www.archive.org/strem/tribescasteesofceruss_djvu.txt;

http://www.wahlah.org;

http://www.google.co.in/serch?h1=ensq=gujjar+khazar+thakur+ahir+as+avars&btng=serch&meta+saq =fsod= और http://www.geocities.com/pakhistory/indos-cythian.html

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खन्ना खरोतत खोसला खोखर मदान मालिा मेहरा ओसहन पठान पुरी सलूजा साहनी तसक्का सोइ सोंढ़ी, सूद सुल्का, सूरी तोखी,ठाकु र,तिश्नोई तिश्नोई,िादेि

ख्योन(तखओतनते) खरोस्था कु सुल्का करास्कर मद्र मालिा-मलोई मग सतह(शक) पक्था पौरि सल्िज-साल्ि सहनुसतह-कु षाण शक तस-िांग(शक) सौनतड़क तलक-सोतग्दन तुखारा िैस्नि-िसुदि े क

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175 खतत्रयों का सिागतधक पुराना आाँतररक तिभाजन अबुल फज़ल की आईना-ए-अकबरी407 में तमलता है, तजसे डेंतज़ल इब्बेटसन408 ने उद्धृत दकया और तत्पिात यह सभी स्थानों पर उद्धृत होने लगा, तजसमें सभी गजेरटयर भी सम्मतलत हैं। उक्त के अनुसार अल्लाउद्दीन तखलज़ी के शासन काल में तिधिा पुनगतििाह लागू कराया गया। बािन (52) खत्री कु लों (अल्ल) या जाततयों ने शासक को इसके तिरूद्ध ज्ञापन ददया। यह (52) खत्री कु लों (अल्ल) या जाततयााँ बनजई या बािनजई कहलाईं। इसका अथग बहु-जई (कई जन्म) लेने से भी तलया जाता है, जो दक बार-बार गलती करने और तनकाले जाने तथा पुनीः िापस तलए जाने से जोड़ा जाता है। इस सूची में खुखेररयन, ढ़ाईये, बाहरी आदद खत्री तिभाजन के कई कु ल (अल्ल) और अरोड़ा पंजाबी भी सम्मतलत हैं, जो सूयग और चन्द्रिंशी, दोनों, हैं। यह अतधकााँशतीः पतिम पंजाब के हैं, उसमें भी मुल्तान के । ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के कारण, इस तिभाजन में कु छ अरोड़ा समूह भले ही सम्मतलत हो गए, पर िे खतत्रयों में नहीं तगने जाते हैं। हालााँदक आगे उन समूहों का भी उल्लेख दकया जा रहा है, तजन्होंने ज्ञापन पर हस्ताक्षर तो दकए, पर िे खत्री न हो कर अरोड़ा थे। अरोड़ा अिश्य अपने को खत्री कहलाना पसन्द करते हैं, पर िे खतत्रयों से नीचे की अन्य जातत माने जाते रहे हैं। पहले खत्री इनसे तििाह सम्बन्ध नहीं रखते थे, पर अब धीरे -धीरे इनमें भी तििाह करने लगे हैं। हालााँदक िे खत्री, तजन्होंने इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर दकए थे, पृथक तचतन्हत हो जाने के कारण तििाह अपने मध्य ही करने लगे। इस तिभाजन (या ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने िालों में) (अरोड़ा सतहत) में अधलक्खा (अरोड़ा), अिाल, बधिार, बग्गा, बहल, बस्सी, बेरी, भल्ला, भामरी, भण्ड़ारी, तबन्द्रा, धीर, दुग्गल, धुपर, गम्भीर (अरोड़ा), गन्दोत्रा (अरोड़ा), गान्धी (अरोड़ा), गुलाटी (अरोड़ा), गुल्ला, हाण्ड़ा, जग्गी, जेटी, जग्गा, जोल्ली या जौली, कत्याल, खोसला, खुल्लर, दकरर, कोचर, लाम्बा, मन्ढ़ोक, मन्हान या महन, मैनी, माकन/मरकान/ मादकन, मतलक, मनखंड़, मरिाह, मोंगा, मोंतगया, नेहरा, तनखंज, ओबेराय, ओहरी, परिंदा, पुरी, पहिार, पादागल, पस्सी, राय, रोशन, सबलोक, सग्गर या सागर, सतह या शाही, सरना, सेकरी या सेखरी, तसकन्द, तसक्का, सोनी, थमान, ठक्कर या ठाकु र, तुली, थापर, उप्पल, िढ़ेरा, तिग या 407Abul

Fazlallami-The Ain-I-Akbari (English translation from original Perisan by H.Blochmann,M.A.

and Colonel H.S.Jarrett),Vol.111, P.114 408

Denzil Ibbetson,Edward MacLagan,H.A.Rose-A Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab

and North-West Frontier Province (1911),Vol.-II,P.510

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176 तिज, तिनायक, िाही आदद सम्मतलत हैं।409 पूिी पंजाब की तजन खत्री कु लों (अल्ल) या जाततयों ने इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने से इंकार दकया, िे शरा-अईन (कानून मानने िाले) अथागत सरीन कहलाईं। यह बड़ा और छोटा सरीन में बटे हैं इनके लगभग 300 कु ल (अल्ल) हैं। यह भी अपने मध्य ही तििाह करते हैं। खतत्रयों से ही खोखरन समूह तनकला। यह िे खत्री कु ल (अल्ल) या जाततयााँ थीं, तजन्होंने खोखरन तिद्रोह में खोखरन लोगों का साथ ददया। यह आठ हैं- आनन्द, भसीन (भू-सीन/प्रिचन शतक्त), चढ़्ड़ा (चामुण्ड़ा), कोहली (कु ल-हरी), सबरिाल (शुभ-िर/भाग्यशाली), साहनी (सेनानी), सेठी (श्रेष्ठी) और सूरी (सूयग या सूरिीर)। बाद में इनके अन्य उपतिभाज भी सम्मतलत हुए। यह हैं- चंड़ोक (चन्दधोके , चन्धोक, चन्ददीओक)(चढ्ड़ा का एक उपतिभाजन, जो दक 1940 के बाद ही सामने आया), छच्छी (चच्ची, छाची)(कोहली का एक उपतिभाजन, जो दक छ्च्छी, अटोक तजला, तजसे चमेल या चम्पबेल-पुर कहा जाता था, में बसने िाले।), गंढ़ोक और घई (सम्भितीः सूररयों से सम्बतन्धत)। बोलचाल की भाषा में इन्हें कोहली खत्री कहा गया। इनसे अन्य खत्री तििाह को अतनच्छु क हो गए। खोखरन खत्री लोग बेहरा (भद्रािती) नगर (सरगोधा तजला,पादकस्तान) और साल्ट क्षेत्र से हैं। इसे ‘बेहरा फू लों का सेहरा’ कह कर सम्बोतधत दकया जाता रहा है।410 बेहरा नगर (भद्रािती) पुरू जनजातत या कबीले का नगर था। 7 फु ट 6 इंच लम्बा कै कय राज पुरषोत्तम411 या पोरस (325 ई.पू.) यहीं का सबरिाल खोखरन खत्री था और तसकन्दर से 326 ई.पू. में लड़ा था। इसमें सग्गर (तसन्धू -झेलम) और तजच (झेलम-तचनाब) दोआबा, खुशाब, बपड़ीघेब, तालागंग, चकिाल, बपड़ ड़ंड़रखान, पेशािर, नौशहरा आदद हैं। सभी अब पादकस्तान में हैं। इनकी भाषा दोआबी कहलाई। यह माना जाता है दक, कु श (राम पुत्र) से खुख शब्दांश बना, तजसका अथग जड़ लगाया गया और रे न संस्कृ त के रायन से बना, तजसका अथग है िंशज। अथागत राम पुत्र कु श के िंशज और सूयगिंशी। खोख्ररन खत्री लोग कश्यप गोत्र के हैं। आन्नद, कोहली और भसीन यह गोत्र ही अपनाते हैं, पर शेष पााँच ने अपने पुरोतहत प्रथम शताब्दी में ही बदल तलया। यह अत्यतधक असधारण बात थी। चढ्ड़ा और

409

http://en.wikipedia.org/wiki/khukhrain

410

बेहारा एंकेलेि में खुखरे न लोगों व्दारा तलखिाया गया। http://en.wikipedia.org/wiki/khukhrain

411

ग्रीक इततहासकार एररयन का मत

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177 साहनी ने ित्स (िीरिंस), सेठी ने पुलस्त, सूरी ने भागगि और सबरिाल ने हंस को पुरोतहत बनाया और यह ही इनका गोत्र हुआ। खतत्रयों के इस उपतिभाजन अथागत खोखरन खतत्रयों को िीरों में भी िीर जातत की संज्ञा भी तमली412, तजसका कारण सभी तिदेशी और खासकर मुतस्लम आक्रााँतां से डट कर सामना करना था। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन बसह खतत्रयों के इसी तिभाजन से सम्बतन्धत खत्री हैं। बारी ढ़ाई (तीन को शुभ नहीं मानने के कारण) घर खत्री मेहर चन्द, खान चन्द और कपूर चन्द के िंशज हैं। यह िे तीन खत्री थे, जो अकबर द्वारा राजपूत कन्या से तििाह करने पर तििाह समारोह में उपतस्थत हुए। इन्हें खतत्रयों से पृथ्क कर ददया गया। अतीः इनके तििाह इन्हीं पररिारों में होने लगे। इसमें मेहरा (मल्होत्रा, मेहरोत्रा), खन्ना, कपूर आदद सम्मतलत हैं। यह लोग कृ ष्ण िंशज चन्द्रिंशी माने जाते हैं। बारी बहरान खत्री में टण्ड़न, चोपड़ा, बोहरा, िधािन या िाधिा, तलिार, सहगल, धिन, महेन्द्रू आदद हैं। यह सूयगिंशी हैं। ककक्ड़ और सेठ चार घर खत्री तिभाजन में हैं, जो दक ढ़ाई घर का ही तिस्तार है। इन तिभाजनों के अलािा अन्य खत्री नागिंशी माने जाते हैं। इसमें नैय्द्यर, नायर, नाईक आदद हैं। यह अपने को क्षतत्रय खत्री मानते हैं। इन्हें खतत्रयों ने पृथक कर ददया था। यह दतक्षण भारत में भी हैं। बाद में बाहर या तिदेश में रहने िाले खतत्रयों हेतु बाहरी संज्ञा भी सामने आई। खत्री जातत में भी उपजाततयों की प्रधानता का क्रम आदद भी है। बारी में ढ़ाई घर के तीन- कपूर, मल्होत्रा और खन्ना- ऊपर हैं। इसके उपरााँत बारह घर के खत्री हैं, तजसमें गुजराल, मरिाह, टण्ड़न, चोपड़ा, िाही आदद हैं। इनके उपरााँत बािनजई (बािन) घरी हैं। इन घरों के उपरााँत खुखेररयन हैं।413 अबुल फज़ल के उपरोक्त तििरण से स्पष्ट है दक, खतत्रयों के कु लों (अल्ल) के मध्य उक्त प्रकार का तिभाजन मध्य काल से ही प्रारम्भ हुआ। 412

H A Rose- A glossary of the tribes and castes of the Punjab and North-West provinces, Vol-II, P.-

513 (http://books.google.com/books?id=1QmrSwFYe60C&pg+RA4PA514&1pg+RA4PA514&dq=krukhak& source=web&ots=qJ14aZjg95&sig+mqkKIP9QA3hgtIWpp6ZyssJJ_5U और #PPA123,MI) 413

http://en.wikipedia.org/wiki/khukhrain

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एक अन्य सामान्य तिभाजन यह है दक, जैस-े जैसे खत्री भारत के तितभन्न प्रदेशों में बसते गए, िैसे-िैसे उन्होने स्थानीय रीतत ररिाजों, व्यिहार और व्यसाय को अपनाना प्रारम्भ दकया। इस तरह उनकी अनेक उपजाततयां बन गयी, तजसमें स्थातनयता और क्षेत्र का तत्ि प्रधान था। व्यिसाय, युद्धकौशल, तितभन्न धार्थमक संप्रदायों के प्रतत आस्था और रहन सहन की तिशेषतां के उपजाततयों के नामकरण होते गए। साथ ही सामातजक प्रततष्ठा और स्िातभमान के कारण कु छ अपने को श्रेष्ठ समझने लगे। ऋतष परं परा के गोत्र भी तिभेद का कारण बने। खत्री जातत के उपभेदों को ‘अल्ल’ (कु ल) कहते हैं। अल्लों की उत्पतत्त का कु छ कारण ज्ञात है और कु छ अनुमातनत, इसमें बहुत शोध होना आिश्यक है। भारत पर तिदेशी आक्रमण उत्तर-पतिम से ही हुए और पंचनद (पंजाब) प्रदेश ही इससे सिागतधक प्रभातित हुए। यहााँ के लोग ही पीछे ढ़के ले गए। इस पर पृथक चचाग और शोध िााँतछत है। फलत: उस प्रदेश के तनिासी समय-समय पर भारत के अन्य प्रदेशों में प्रिास कर गए। जो खत्री पहले गंगा-यमुना के दकनारे दकनारे कोलकाता तक अथागत पूिग में फै लते गए, िे पूर्थिय (पूर्थिया, पूिागधे, पबाधे) खत्री कहलाए और जो बाद में अपने प्रदेश से तनकले और सामान्यतीः पतिम की ओर बसे , िे पतछए (पछादे, पचाधे, पररचमाधे) कहलाए। इसी प्रकार आगरेिाले, ददल्लीिाले, लाहौररये आदद उपभेद बनते चले गए। राजस्थान और गुजरात में बसनेिाले ब्रह्मक्षतत्रय के नाम से जाने गए। दतक्षण भारत में सहस्राजुगन प्रतसद्ध सम्राट हुए हैं , उनके िंशज अपने को सोमिंशीय सहस्राजुन ग खत्री कहते हैं। यह ध्यान देने योग्य बातें हैं दक ब्रह्मक्षतत्रय और सहस्राजुन ग क्षतत्रय अपने तिभेद का कारण प्रतसद्ध परशुराम को मानते हैं।414 इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में बसने िाले खत्री उत्तर प्रदेश के खत्री कहलाए। अब छत्तीसगढ़ में बसने िाले खतत्रयों हेतु भी यह तथ्य रे खााँदकत होता है।

414http://khatrisamaj.blogspot.com/search/label/%E0%A4%96%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%

B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82%20%E0%A4%95%E0%A5%87%20%E 0%A4%85%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%B2

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तसक्ख धमग स्थातपत करने िाले गुरू नानक सतहत सभी दसों तसक्ख गुरू पंजाबी खत्री जातत (नानक-बेदी, अंगद-त्रेहन, अमरदास-भल्ला और शेष सात-सोढ़ी) के ही थे। 415 गोतिन्द बसह ने दशम ग्रंथ के बतच्चत्तर नाटक में सोढ़ी और बेदी खतत्रयों का उल्लेख करते हुए उन्हें सूयगिशीं राम पुत्र लि और कु श का िंशज माना।416 अतीः कु छ तिद्वान भगिान राम और उनके िंश को भी खत्री ही मानते हैं। यह माना जाता है दक, लि और कु श का जन्म रामतीथग (अब अमृत्सर का एक मतन्दर) में हुआ था। दसम ग्रंथ में यह भी बताया गया दक, पंजाब की पूिग राजधानी लाहौर का नाम लि के नाम पर पड़ा। यहााँ के दकले में उनका मतन्दर भी है। लि लौह उच्चाररत हुआ और उससे लोह-िर(गढ़) अथागत लोहे का दकलालाहौर।417 कसौर (अब पादकस्तान में) का नाम कु श के नाम पर माना जाता है। खत्री सूयि ग श ं ी क्षत्रीय हैं। अतधकााँश खत्री कु लों (अल्ल) के नाम सूयग के पयागयिाची ही हैं।418 जैस-े सहस्त्रकार से सहगल (पुरोतहत-मोतहले), कृ पाकार से कपूर (पुरोतहत-पम्ब), सहनकान से खन्ना (पुरोतहतबझगन), मातगण्ड़ से टण्ड़न (पुरोतहत-बझगन), तमत्र से मेहरा (पुरोतहत-जेटली), श्रेष्ठ से सेठ, बहुकर से बोहरा, चक्रिली से चोपड़ा, करलंगनी से कक्कड़ (पुरोतहत-कु मददया), सूयग से सूरी आदद। खत्री जातत मूल रूप से सूयग पूजक है। यह सारस्ित ब्राह्मणों के यजमान हैं। बाकू (आततशगाहअजरबैजान) और काबुल (अफगातनस्तान) के सूयग मतन्दर खत्री लोगों द्वारा ही बनिाए गए। इसका उल्लेख राहुल साकृ त्यायन और असग़र िजाहत के यात्रा तििरणों में भी आया है।419 खतत्रयों का उक्त िणगन तनम्ााँदकत सारणी से भी स्पष्ट होता है।:सारणी 4 - कु छ खत्रीयों के कु ल देिता, पुरोतहत, िंश, गोत्र आदद का सारणीकरण स्रोत-http://khatri2khatri.com/history.htm और http://en.wikipedia.org/wiki/khukhrain

415

http://en.wikipedia.org/wiki/Khatri

416गुरू

गोतिन्द बसह- श्री दसम ग्रंथ सातहब,पृ.144 (http://www.sridasam.org/dasam?Action+Page&p=144)

417

http://en.wikipedia.org/wiki/Khatri

418

राजा िन तिहारी कपूर का मत

ज्िाला प्रसाद तमश्रा-जातत भास्कर(1914) 419

असग़र िजाहत-चलते तो अच्छा था,पृ.83-86

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क्रमााँक

सरनेम (कु ल या अल्ल)

िंश

कु ल अराध्य

गोत्र

पुरोतहत

1

मेहरा

सूयगिंशी

तशि

कौशल्य

जेतली

2

कपूर

चन्द्रिंशी

चंतड़का

कौतशक

कपूररये

3

सेठ, बैजल

चन्द्रिंशी

बराई

हंसलस

ततक्खे

4

टण्ड़न

अतग्निंशी

चतण्ड़का

अहररस

तभम्गरन

5

कक्कड़

चन्द्रिंशी

तशि

ित्स

कु मरये

6

िोहरा

चन्द्रिंशी

चतण्ड़का

कौसल्या

मालीया

7

धौन

चन्द्रिंशी

योगमाया

ऋंग

कालीया

8

महेन्द्रू

चन्द्रिंशी

तशि

ित्स

भढ़ूररया

9

खन्ना

चतण्ड़का

कौतशक

10

भल्ला

जाने देिी

कौशल्य

11

चोपड़ा

चतण्ड़का देिी

अिलश कौशल्य

बग्गा

12

सहगल

चंतड़का देिी

कौशल्य

होसल

13

पुरी

भारद्वाज

खोखरन खत्रीीः14

आन्नद

सूयगिंशी

दुगाग माता

कश्यप

तबजड़ा

15

भसीन

सूयगिंशी

दुगाग माता

कश्यप

तबजड़ा

16

चढ्ड़ा

सूयगिंशी

भद्र काली और

ित्स(िीरिंस)

िासुदि े

ऊ.प्र.

में

बाबा

और

ऊ.प्र. में लि

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181 सोंढ़र 17

कोहली

सूयगिंशी

सत्यिती

कश्यप (भारद्वाज)

दत्त

18

साहनी

सूयगिंशी

भद्रकाली

िीरिंस(ित्स)

िासुदि े

19

सबरिाल

सूयगिंशी

बाबा मेदार

हंसलाल

मदन खम्म

20

सूरी

सूयगिंशी

भगिती

भागगि

पांध

पुलस्त

सूदन

और

ऊ.प्र. में शेष नाग 21

सेठी

सूयगिंशी

िैष्णि देिी

खतत्रयों में कई कु ल या अल्ल प्रचतलत हैं, जो उनके सरनेम से प्रदर्थशत होते हैं। 1891 की जनगणना में खतत्रयों के 3,086 समूह और 1911 की जनगनना में 1,559 समूह सूचीबद्ध हुए थे। यह माना जाता है दक, पहले िाली जनगणना में अरोड़ा भी खत्री जातत में तगन तलए गए थे420, जबदक अरोड़ा खतत्रयों से पृथक समूह है, जो दक खत्री कहलाना पसन्द करता है। दकन्हीं स्रोतों में अत्यतधक सरनेम उल्लेतखत हैं421, दकसी में सीतमत422, पर उनकी संख्या 1,500 से ऊपर प्रतीत होती है। तद्वतीय स्रोत423 के आधार पर कु छ का उल्लेख यह है।:-

ए. एबराल, अलंग (अलघ, अल्ग, अलंघ), आनन्द, अंगरा, अिाल, अजाद, अम्बा; बी. बधिार (बुधिार), बहल, बाहरर, बैजल, बतस्स, बेदी, बेरी, भल्ला, भामरी, भामरा, भण्ड़ारी, भसीन, तबन्द्रा;

420

http://en.wikipedia.org/wiki/khukhrain

421

http://khatrisamaj.blogspot.com/2010/01/blog-post_14.html

422

http://en.wiktionary.org/wiki/Appendix:Indian_surnames_(Khatri)

423

http://en.wiktionary.org/wiki/Appendix:Indian_surnames_(Khatri)

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सी. चांड़क (चड़ढ़ा), चंड़ोक, चौधरी, छट(चट)िाल, चोना, चोपड़ा, छौंछा; डी. दातगया, धीर, दुग्गल, ढ़ाल, ढ़ांड़; जी. गदढ़योक, गोसाई, घई (घेई), गुजराल, गन्दोत्रा; के . कक्कड़, कपूर, खन्ना, खोसला, कोहली, कत्याल, खट्टर(खत्री), दकरी; एल. लाल, लांबा, लूम्बा; एम. मंड़ोक, महन, महेन्द्रू, मैनी, माकन (मरकान, मादकन, मिदकन, मके न), मल्होत्रा, मतलक, मनखन्द, मरिाह (मरिाहा), मेहरा, मेहरोत्रा;

एन. नईय्द्यर (नायर, नाईर), तनजहिान, तनखंज, नन्दा; ओ. ओबेराय, ओहरी; पी. परिन्दा, पुरी, पहिार; आर. राय, रोशन; एस. सयाल, सबरिाल, सग्गर, साहनी, सातम, सरीन, सरिाल, सग्गी, सरना, सहगल, सेठी, सेठ, तसब्बल, तसकन्द, तसक्का, सोबती, सोढ़ी, सोन्धी, सोनी, सूरी;

टी. तलिार, तेहमान, टण्ड़न, त्रेहन, तुली; यु. उप्पल; व्ही. िढ़ेरा, िासुदि े , तिज (तिग), तिश्वनाथ, िमाग; डब्ल्यु. िाही, िातलया, िधािन आदद-आदद। खतत्रयों के कु छ स्पष्ट प्राचीन सन्दभग भी हैं, तजसमें अबुल फजल के आइना-ए-अकबरी का उल्लेख दकया जा चुका है। कु छ अन्य हैं- पााँचिी और छठी शताब्दी में तसयालकोट के राजा रसालू के मंत्री मातहत डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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183 चोपड़ा का उल्लेख आता है, जो यह तसद्ध करता है दक, तब चोपड़ा सरनेम प्रचतलत था। खोखरन खतत्रयों की चचाग के समय तजस बेहरा नगर का उल्लेख आया है, िहााँ 1540 में शेरशाह सूरी ने नया नगर बसाया, जो बाद में अकबर के कब्जे में आया। यह लाहौर सूबे में था। मोहम्मद शाह के काल में यहााँ का प्रभारी सलामत राय और बाद में उसका भतीजा फतेह बसह आनन्द खत्री था।424 बेहरा का अंततम शासक ददिान बहादुर जािातहर मल सेठी खुखेररयन खत्री था।425 यह पररिार या िंश पेशािर से आया था। गजनी का मुकाबला खुखेररयन खतत्रयों ने भी दकया। गजनी के आक्रमणों का सामना करने में खतत्रयों द्वारा डटकर मुकाबला करने का स्पष्ट उल्लेख ड़ा. ईश्वरी प्रसाद और जाअन तब्रग्स करते हैं।426 राजा फतेह चन्द, तजसने तसक्ख गुरू तेग बहादुर की सेिा की थी, तमयानी खत्री था और इसीसे तमयानी संगत तथा बाललीला तमयानी संगत अतस्तत्ि में आए। हकीकत राय पुरी खत्री था। हरर बसग नलिा उप्पल खत्री था। रं जीत बसह के दीिान खत्री सािन मल और खत्री मूल राज चौपड़ा मुल्तान के गिनगर रहे। तसयालकोट के साधु बसह गुल्ला उपतनिेशिाददयों के तिरूद्ध लड़े। बंगाल (अतिभातजत अथागत उड़ीसा और तबहार सतहत) के िधगमान नरे श खत्री थे। उड़ीसा के खत्री अन्य क्षत्रीय जाततयों से ऊाँचे माने जाते हैं। पुरी के राजा खत्री थे और अब उनके िंशज पुरी मतन्दर के रस्टी हैं। भारत और छत्तीसगढ़ के अतधकााँश खत्री तहन्दू हैं और सनातन खत्री कहे जाते हैं।427 खत्री गैरब्राह्मण जाततयों में िह जातत है तजसे िेद अध्ययन का अतधकार परम्परागत प्राप्त रहा है।428 सारस्ित ब्राह्मण इनसे सभी तरह का, कच्चा और पक्का दोनों, भोजन ग्रहण करते हैं। जब खतत्रयों द्वारा तसक्ख धमग की स्थापना हुई तो, सभी खत्री पररिारों से तसक्ख बनने की परम्परा पड़ी, जो अब क्षीण हुई है। खतत्रयों में कई तसक्ख खत्री छत्तीसगढ़ में भी हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन बसह भी तसक्ख खत्री हैं। दयानन्द द्वारा स्थातपत आयग समाज को भी खतत्रयों ने ही अपनाया और पोतषत दकया। अल्प मात्रा में जैन खत्री भी हुए।

424Imperial

Gazetteer of India,Voll.-22,P.124

(http://dsal.uchicago.edu/reference/gazetteer/pager.html?objectid+DS405.1.134_V22_219.gif) 425

W.L.Conran and H.D Craik- The Punjab Chiefs,P.197

426

Mohomed Kasim Ferishta(Translated from the original Persian by John Briggs)- History of the rise

of the Mahmomedan Power in India, Vol P.- 22 427

Matthew Atmore Shering-Hindu Castes and Tribes as represented in Banares,1872,P.277

(http://books.googal.com/books?id=8V4IAAAAQAAJ&Pg=PA167&dq=The+Tribes+and+castes+of+th e+NorthWestern+Provinces+and+oudh&Ir=#PPA277,M1P277) 428

Matthew Atmore Shering-Hindu Castes and Tribes as represented in Banares,1872,P.277

(http://books.googal.com/books?id=8V4IAAAAQAAJ&Pg=PA167&dq=The+Tribes+and+castes+of+th e+NorthWestern+Provinces+and+oudh&Ir=#PPA277,M1P277)

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184 जैन आचायग आत्माराम, जो तिजयानन्द सूरी कहलाए, कपूर खत्री थे। कश्मीर, पादकस्तान और अफागातनस्तान में मुतस्लम खत्री भी हैं। रमेश चन्द्र मजूमदार का मनना है दक, खत्री तब-तब अत्यतधक एकीकृ त और संगरठत हुए जब मध्यकाल में तहन्दू तिश्वासों, धन और तस्त्रयों पर खतरा मंड़राया।429 खत्री लोग सभी तहन्दू त्योहारों को मनाते हैं। पंजाबी संस्कृ तत के प्रमुख हैं। लोहड़ी, निरात्र, बैसाखी भी मनाते हैं। बसंत या चैत्र निरात्री को खतत्रयों द्वारा मनाने की कथा इस त्योहार की उत्पतत की कथा से ही जुड़ी हुई है। यह कथा यह है।:तशकार के दौरान (अयोध्या) राम के पूिगज कोसल राज (अयोध्या) सूयगिंशी राजा रुि बसह शेर द्वारा मारे गए। अतीः रानी मनोरमा के पुत्र राजकु मार सुदशगन के राज्य आरोहण की तैयारी की जाने लगी। अब अन्य रानी लीलािती के तपता उज्जैन राज युद्धजीत और रानी मनोरमा के तपता िीरसेन अपने-अपने नाततयों को बसहासनारूढ कराने हेतु युद्धरत हो गए। इस युद्ध में कबलग राज खेत रहा। मनोरमा पुत्र सुदशगन सतहत तनष्कातसत हो गई। इनके साथ एक तहजड़ा भी था। िे भारद्वाज आश्रम में आ गए। इधर तिजयी उज्जैन राज युद्धजीत ने अपनी पुत्री के पुत्र शत्रुजीत को कोसल राजधानी अयोध्या में बसहााँसनारूढ़ कराया। तदुपरांत उसने ऋतष से शरणागतों को मााँगा। ऋतष ने इंकार कर ददया। इसी समय एक ऋतष पुत्र आश्रम आया। उसने तहजड़े हेतु प्रयुक्त संस्कृ त संज्ञा- क्लीब- से उसे पुकारा। राजकु मार ने प्रथम शब्दांश तक्ल को ही सुना और उसे क्लीम पुकारने लगा। यह देिी का बीज मंत्र भी है। सो उसे देिी दशगन और िरदान प्रातप्त हुई। उसे ददव्य अस्त्र-शस्त्र तमले। अब उसे िाराणसी दरबार के कु छ लोगों ने देखा और िहााँ की राज कन्या शतशकला के िर के रूप में चुन तलया। शतशकला ने भी स्ियंिर में उसे ही िरा और तििाह सम्पन्न हुआ। इस समारोह में उज्जैन राज उद्धजीत भी था। िह िाराणसी राज से लड़ बैठा। देिी ने सुदशगन और उसके स्िसुर की सहायता की। युद्धजीत ने ततरस्कार दकया और िह और उसकी सेना भस्माभूत हो गई। सुदशगन ने पत्नी और स्िसुर के साथ देिी की स्तुती की। देिी ने उन्हें बसंत/चैत्र में हिन और अन्य साधनों से भतक्त करने का आदेश ददया और अंतध्यागन हो गईं। िे भारद्वाज ऋतष के आश्रम लौट आए। अब ऋतष ने सुदशगन को आतशिागद के साथ कोसल (अयोध्या) का बसहांसनारोहण भी कराया। सुदशगन ने प्रतत बसंत/चैत्र निरात्र पर हिन पूजन से तितधित देि भतक्त का क्रम बनाए रखा। आगे उसके िंशज भी इसे तनभाते रहे, तजसमें राम भी सम्मतलत हैं। खत्री भी अपने को इसी िंश का मानते हैं। अतीः िे भी इस िंश

429

Ramesh Chandra Majumdar-Ancient India(ISBN 8120804368)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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185 परम्परा को तनभाते हैं। शरद निरात्र भी राम की रािण पर तिजय से जोड़ा जाता है। इसी से दशहरा और दीपािली भी जुड़े हैं। यह कथा या तथ्य मात्र परम्परा और िंश रे खांदकत करने हेतु उल्लेतखत की गई है। हालााँदक अन्य आयोजनों और त्योहारों हेतु भी तितभन्न कथाएाँ और प्रसंग पृथक से हैं। 1936 की लाहौर खत्री महासभा के आयोजन में सभी अरोड़ा, सूद और भारटया लोगों को खतत्रयों रोटी-बेटी के सम्बन्ध हेतु मान्य दकया, पर इससे कोई खास प्रभाि नहीं पड़ा और आगे जाकर समय के प्रभाि से धीरे -धीरे स्िमेि यह दक्रया प्रचलन में आती गई।430 खतत्रयों में सामान्यतीः गभागिस्था में संस्कार नहीं दकया जाता। जन्म संस्कार में जच्चा-बच्चा की शुद्धता 40 ददनों के उपरााँत मानी जाती है। तब स्नान, नि िस्त्र धारणा, पूजा, अराध्य दशगन आदद की परम्परा है। तब चौका चढ़ाई की रस्म की जाती है। तििाह संस्कार रस्मो ररिाज िाले हैं, तजन्हें बड़े शौक और उत्साह से तनभाया जाता है। पंजाबी तििाह के रस्मोररिाजों में ठाका, सगन, चुन्नी, सगाई, धुगतनया, तेल, घड़ोली चूड़ा, मेहन्दी, लेड़ीज संगीत, सेहरा बन्दी, िाग, सुरमा, तमलनी, सगन रोटी और तगराई, लााँिा फे रे , जूता तछपाई, कलीचतड़, ड़ोली, ततलमल्ले, कं गना आदद रस्मों के अन्दर भी कई रस्में हैं। इनमें से कई तो दकसी ररश्ते तिशेष के द्वारा ही की जानी होती हैं। लेड़ीज संगीत और मेंहदी जैसी कई रस्में खतत्रयों से ही अन्य तहन्दू और भारतीय समुदायों में पुष्ट हुईं। बारात में नाचने-गाने की परम्परा भी पंजाबी शाददयों से ही पुष्ट हुई। तििाह में सात फे रे होते हैं। तििाह समारोहपूिगक करते हैं। मृतक को जलाते हैं। अतस्थ तिसजगन, सामान्यतीः, गंगा में हररद्वार जाकर करते हैं। मृतक संस्कार तहन्दुं की तरह है, पर सामन्यतीः मुण्ड़न नहीं कराते हैं, पर अब कु छ कराने लगे हैं। खत्री अपनी तनष्पक्षता, योग्यता, प्रशासतनक क्षमता, मयागददत व्यिहार और ईमानदारी के तलए ख्यात हुए तथा इन्हें तीखे नयन-नक्श, चौड़े माथे और ऊाँचाई के कारण भी तचतन्हत दकया गया।431 भारत के सिागतधक प्रधानमंत्री (तीन-नन्दा, गुजराल और मनमोहन) इसी खत्री जातत से हुए।

430

http://punjabrevenue.nic.in/fdigs.htm

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यह जातत मूलतीः योद्धा है। सेना के सिागतधक अध्यक्ष भी खत्री ही रहे हैं। दफल्म (कपूर) और कला में खतत्रयों की उच्च और पृथक पहचान है। इस जातत से कई उच्च ख्यातनाम लेखक, फाइन आटग पेंटर/तचत्रकार, प्रशासक, मंत्री, न्यायतिद, तखलाड़ी, पत्रकार, उद्योगपतत, व्यिसायी, फै शन तडज़ाईनर, इजीतनयर, तचदकत्सक, सजगन, िैज्ञातनक आदद हुए हैं।432 खत्री सज्जन, कानून मानने िाले और तशतक्षत रहे हैं और हैं।433 योग्यतम प्रशासक माने जाते हैं। भााँगड़ा लोक नृत्य खत्री जातत का नृत्य माना जाता है, जो इनसे अन्य पंजाबी जाततयों में गया।434 ख अरोड़ाीःपंजाबीयों में खत्री प्रधान जातत है। अरोड़ा उससे तमलता-जुलता, पर पृथ्क, जातत समूह है। यह भी क्षत्रीय हैं435, पर इन्हें कहीं-कहीं िैश्य कहा436 और समझा जाता है। इब्बेटसन इन्हें रोर का क्षत्रीय कहता है।437 अरोड़ा जातत भारोपीय (Indo-European) समूह की योद्धा जातत है। यह भी योद्धा पर तशतक्षत जातत है। भारत तिभाजन के पूिग यह लोग अतधकााँशतीः पतिम पंजाब (पादकस्तान) के तसन्ध और उसकी सहायक नददयों के साथ, मालिा क्षेत्र (भारतीय पंजाब), उत्तर-पतिम सीमा प्रााँत और तसन्ध में रहते थे। यह राजस्थान और गुजरात में भी थे। अतिभातजत पंजाब में अतधकााँश खत्री उत्तर के पोतोहार और माझा में तथा अतधकााँश अरोड़ा मध्य और दतक्षण-पतिम (बहािलपुर सतहत) में अतधक थे। अभी भी उत्तरपतिम सीमा प्रााँत और पंजाब के उत्तर-पतिम के तजलों में इनकी उपतस्थतत उल्लेखनीय है। भारतीय आयग तिशेषकर खत्री और अरोड़ा पूरे एततहातसक काल में तसन्धू घाटी में ही रहे। कु छ अरोड़ा तसक्ख भी हुए। भारत में तहन्दू अरोड़ा भारत में लगभग 36 लाख अनुमातनत दकए गए हैं, तजसमें से लगभग 25

431

http://en.wikipedia.org/wiki/Khatri और The Punjab Past and Present By Punjabi University Dept. of

Punjab Historical Studies Published by Dept. of Punjab Historical Studies, Punjabi University., 1981 432

http://en.wikipedia.org/wiki/List_of_distinguished_Khatris

433

लुतधयाना गजेरटयर

434

http://en.wikipedia.org/wiki/Arora

435

http://en.wikipedia.org/wiki/Arora

436

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

437

Denzil Ibbetson, Edward MacLagan, H. A. Rose- A Glossary of The Tribes & Casts of The Punjab

& North West Frontier Province, 1911,Vol-II, P.17

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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187 हजार छत्तीसगढ़ में माने गए हैं और उसमें से लगभग कु छ सौ छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं। राष्ट्र में तसक्ख अरोड़ा लगभग साढ़े चार लाख अनुमातनत दकए गए हैं, तजसमें से लगभग एक-आध हजार छत्तीसगढ़ में माने गए हैं और उसमें से कु छ ही छत्तीसगढ़ी भी बोलते हैं। मुस्लोम अरोड़ा भारत में कु छ सौ मात्र हैं।438 अरोड़ा संस्कृ त के अरोडा से बना और यह अरोडा प्रोटो-इण्ड़ो-आयग शब्द अरट्टा से बना।439 युनानी ग्रीक अरके तशया (अब कन्धार) में रहने िाले अरट्टा लोगों को इओररटे कहते थे। अरोर (आरकोट, अलोर) नगर का नाम अरोड़ा नाम पर ही पड़ा। कु छ का मानना है दक, इस नगर के नाम पर अरोड़ा नाम पड़ा।440 तब यह कहा गया दक अरोर से उन्हें परशुराम ने हटाया। अरोड़ा लोगों ने अरोर को बसाया और िहााँ शासन दकया। कहते हैं, दक एक फकीर के श्राप से यह जनशून्य हुआ। इसका उल्लेख लोकगीत में भी आया। एक लोक गीत में यह प्रसंग आता है दक, मुतस्लम आक्रााँतां और क्रुध संत के प्रभाि के कारण पंजाब के दतक्षण और पतिम, राजस्थान के नाउगर और जोधपुर, तसन्ध, गुजरा आदद में यह लोग गए। कु छ तसन्धी, गुजराती, लोहाना, राजस्थान के नागौरी और जोधपुरी खत्री भी अरोड़ा सरनेम का उपयोग करने लगे।441 आयग का नाम भी इनके तलए प्रयुक्त हुआ। आयग इनकी उपजातत भी हुई। अरोड़ा उत्पतत के सभी तथ्य अरोर, रोहोर और सुक्कु र (उत्तर तसन्ध-पंजाब और तसन्ध की सीमा पर) की ओर संकेत करते हैं। डा. बुद्ध प्रकाश अरोड़ा को मध्य एतशया की अत्त्ता, आरस्रक जनजातत से सम्बद्ध करते हैं।442 यह तसन्धु तट और घाटी का क्षेत्र है। मध्य एतशया से आयग आगमन पर भी यह यहीं थे। तसन्धु ही इनका मूल क्षेत्र है। बाद में यह लोग अमृतसर भी आ गए और अरोररयााँिाली गली अतस्तति में आई।443 अरोड़ा आयों की व्युत्पतत हैं। भारत के बाहर एक तसद्धांत यह माना जाता है दक, प्रोटो-इण्ड़ोयुरोतपयन लोगों में कम से कम तमश्रण के साथ, अरोड़ा लोग ही हैं। एक तसद्धांत यह है दक, आके तनयन्स के नाम से जाने िाले अरट्टा (Arattas) लोग ही अरोड़ा हैं। यह अरट्टा लोग महाभारत में भी बतहलका (पंजाब, पादकस्तान) के पड़ोसी के रूप में उल्लेतखत हुए हैं। अरके तशया (कन्धार या दतक्षण अफगातनस्तान 438

http://www.joshuaproject.net/people-profile.php

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लुतधयाना गजेरटयर, Punjab Revenue (Section on Aroras)

440Denzil

Ibbetson, Edward MacLagan, H. A. Rose- A Glossary of The Tribes & Casts of The Punjab

& North West Frontier Province, 1911,Vol-II, P.17 441

Punjab Revenue (Section on Aroras) की पाद रटप्पणी

442

Dr. Buddha Prakash - Political and Social Movements in Ancient Punjab

(http://punjabrevenue.nic.in/gaz_asr9.htm) 443

अमृतसर गजेरटयर, Punjab Revenue (Section on Aroras)

डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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188 और हेलमन्द नदी का बेतसन) से, यह लोग तसन्ध में बसे। अरोर और अरोड़ा अरट्टा से व्युत्पन्न शब्द हो सकते हैं।444 जब फकीर श्राप के उपरााँत अरोर आदद से अरोड़ा उत्तर, पतिम और दतक्षण गए तो इसी अनुसार उनके तिभाजन भी सामने आए। यह थे- उत्तराधी, गुजराती और दक्खनी।445 पहले तििाह इन उपतिभाजनों के अन्दर ही करते थे। इनमें उचन्धा और तनचन्धा तिभाजन भी है। तसन्धु तट पर अरोर (अरबी नाम अल-रोर से) (अब रोहरर) तसन्ध की प्राचीन राजधानी था, जो दक समृद्ध और व्यािसातयक था। प्रतसद्ध राजा दातहर यहीं से था। इसे 711 में अरब सेनापतत मोहम्मदतबन-कातसम ने जीता और राजधानी मंसूरा ले गया। 962 के भूकम्प से तसन्धु की धारा का बहाि मागग बदलने से यह नगर समाप्तप्राय होकर गााँि मात्र रह गया।446 समाजशास्त्री जी.एस. धुररए ने कु छ उन जाततयों को तचतन्हत दकया है, तजनके नाम व्यिसायों से आए। जैस-े ग्िाल, गड़ररया (भेड़ के तलए शब्द गदर से), लोहार, कु म्हार, सुनार आदद-आदद। साथ ही यह भी दक कु छ जातत नाम अपनी पूिग जनजातत, परम्परा और आचार-तनयमों के आधार पर आए, इसमें अरोड़ा भी हैं। अन्य कु छ हैं- गुज्जर, लोहाना, भारटया, मीणा, भील, डोम, उरााँि, मुण्ड़ा, संथाल, कोच, अहीर, महार, नायर, मराठा, गोण्ड़, खोण्ड़ आदद-आदद।447 छत्तीसगढ़ में अतधकााँश अरोड़ा भारत तिभाजन के उपरााँत आए, तजसमें उत्तराधी अरोड़ा अतधक हैं। अरोड़ा जातत तेज, उत्साही, बुतद्धमान और चतुर मानी जाती है। इसी कारण यह लोग शीघ्र ही व्यितस्थत भी हुए। इसमें तहन्दू और तसक्ख दोनों थे। व्यिसाय और उद्योग, इनका प्रमुख पेशा है। यह लोग भले ही खत्रीयों से तभन्न और जातत क्रम में उनसे नीचे थे, पर इब्बेटसन कु छ मामलों में इन्हें उनसे बेहतर भी मानता है।448 पहले इनमें तििाह सम्बन्ध नहीं थे। अब होने लगे हैं। 1936 की लाहौर खत्री महासभा के आयोजन में सभी अरोड़ा, सूद और भारटया लोगों को खतत्रयों ने रोटी-बेटी के सम्बन्ध हेतु मान्य दकया, पर इससे कोई खास प्रभाि नहीं पड़ा और आगे जाकर समय के प्रभाि से धीरे -धीरे स्िमेि यह दक्रया प्रचलन में आती गई।449 यह लोग खत्री कहलाने में गिग महसूस करते हैं और खत्री पंजाबी आचरण को अपनाते हैं। इनमें भी कई तसक्ख बने। तसन्ध में रहने के कारण तसन्धी तहन्दुं के कई सरनेम इनसे मेल खाने लगे। जैसे- अहूजा, चािला, ठक्कर आदद। तिशेष कर ‘आनी (या अतन)’ और ‘जा’ शब्दांत िाले। 444

http://en.wikipedia.org/wiki/Arora

445

Denzil Ibbetson, Edward MacLagan, H. A. Rose- A Glossary of The Tribes & Casts of The Punjab

& North West Frontier Province, 1911,Vol-II, P.17 446

http://en.wikipedia.org/wiki/Aror

447

G.S.Ghurye-Caste and Race in India (Popular prakashan,2004),P.31 to 33

448

होतशयारपुर गजेरटयर

449

http://punjabrevenue.nic.in/fdigs.htm

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189 राजस्थान में जोधपुरी और नागौरी खतत्रयों के सरनेम भी अरोड़ां से मेल खाए। जैसे- गाबा और जुनज े ा। इन्होंने कु छ खत्री सरनेम को भी अपनाया। इनके भी कु ल (अल्ल) कई हैं, तजनकी संख्या 1,500 से भी अतधक है। इन्हें कभी-कभी खतत्रयों में भी तगना ददया जाता रहा है। छत्तीसगढ़ इनके अतधकााँश सरनेम जा या आनी (या अतन) शब्दांत िाले हैं। कई इस तरह के शब्दांत से पृथ्क भी हैं। तेरह (13) प्रमुख पंजाबी अरोड़ा कु ल (अल्ल) या सरनेम माने गए हैं- गाबा (गाभा, गौभा), तगलहोत्रा, चुघ, ग्रोिर, मदान, मोंगा, नागपाल, नरूला, सचदेि (सचदेिा), सेततया, िाधिा, िातलयाकु करे जा, कालरा और ढ़ीगरा।450 इनके कई (1,500 से अतधक) अन्य सरनेम हैं (तजनमें से कु छ खत्री बािनजई तिभाजन में भी उल्लेतखत हुए हैं, पर िे मात्र ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के कारण, न दक खत्री होने के कारण):-

ए. अचेजा, अचरेजा, अधलक्खा, अहूजा (आहूजा), अजमानी, अलरे जा, अनेजा, अरनेजा, अरोड़ा, आयग, असीजा, अल्माड़ी;

बी. बजाज, बलूजा, बंगा, बरे जा, बथेजा (बतथजा), बाथला, बत्रा, बिरे जा, बािेजा (बिेजा), भरे जा, भटेजा, भूसरी (बुसरी, बौसरी), भुगरा, भूटना, भूटानी (भुरटयानी), बुतद्धराजा (बुद्धराजा), भरटजा, बनोथा;

सी. चािला, चचरा, छाबड़ा, चुघ; डी. डंग, डारगन, डािर, धमीजा (धमेजा), धनेजा, ढ़ींगरा, दुआ, डु ड़ज े ा, डु रेजा (धुरेजा), दुसेजा (दोसेजा), डोडा;

ई. ईशफु नीयानी; एफ. फु टेला; जी. गाबा (गौभा, गाभा), गिेरा, गगनेजा, गक्खर, तगलहोत्रा, गलहोत्रा, तगरोत्रा, गम्भीर, गान्धी, तगरधर (तगधर), गोतगया, गुम्बर, ग्रोिर, गुलाटी, गुलरी, गुरेजा, गुलयानी;

एच. हंस, हंतसजा, होरा; आई. ईशपुजानी; जे. जगतसया, जड़ेजा, जयबसह, जाम्भ (झांब), जुनेजा (जनेजा, जोनेजा), जसूजा; 450http://en.wiktionary.org/wiki/Appendix:Arora_surnames

और http://en.wikipedia.org/wiki/Arora

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के . कटाररया, िात्रा, कालरा, कमरा, कठपाल, कथूररया, खरबन्दा, खेड़ा, खुंगर, खुराना, कु करे जा, कु मार, कैं थ, कु क्कड़;

एल. लाल, लेखी, लूना, लूथरा, लूला (लुल्ला, नरूला), लीका; एम. मदान, माखीजा, मक्कड़, मतल्लक (मतलक), मनचन्दा, तमनोचा (मनोचा), मट्टा, मेहन्दीरत्ता (मेन्दीरत्ता), तमढ़ड़ा, बमगलानी, तमत्तरा (तमत्रा), मोतहन्द्रा, मोंगा, मुधार, मुखी, मुंजाल, मुटनेजा, मटरएजा;

एन. नागदेि, नागपाल (ननंगपाल, अंग्रेजी संस्करण-पाल), नागरू, नकरा, नरूला (नरूल्ला, तनरूला), तनचल (तनिल, तनसचल);

पी. पपनेजा (पुपनेजा0, पबरे जा, पट्टेजा, पाहूजा, पहिा, पपरे जा, परे जा, प्रूतथ (परूतथ) (यह सरनेम तिदेशी अलबातनयन लोगों में भी है), पसरीचा, पसरीजा, फु टेला, पुनयानी;

आर. रहेजा, रजेजा, रखेजा (रके जा), रल्हन, रिेजा, रसिंत; एस. सचदेि (सचदेिा), सालूजा (सलूजा), सतीजा, तसन्द्धिानी, सुतखजा, सुनेजा, तसदाना (सदाना);

टी. टगरा, तलरे जा, तलुजा, तनेजा, तरनेजा, थरनेजा, टुटेजा; यु. उटरे जा; व्ही. िासन (िसंत), िासदेि (िासदेिा, िासुदि े ), िाधिा आदद-आदद।451 अरोड़ा लोगों ने भारतीय स्ितंत्रता आन्दोलन में बढ़ कर भाग तलया। तहन्दू महासभा से जुड़े और मदन लाल पहिा इस कारण जाने गए। आयग समाज की गतततितधयों में भी भाग तलया। जब खत्री तसक्ख धमग और अन्य समूहों यथा आयग समाज आदद की ओर झुकने लगे, तब अरोड़ा लोग तहन्दू झण्ड़ाबरदार के रूप में सामने आए। अरोड़ा कद्दािर और सुन्दरता से भी जाने गए। अपने संस्कारों, तशक्षा, उद्यमशीलता, चतुरता और बने रहने की तीव्र इच्छाशतक्त के कारण अपने को स्थातपत कर पाए। पररश्रमी होते हैं और करठन परीश्रम से अपने को स्थातपत करने के कारण जाने गए।452 इन्होंने व्यिसाय, तशक्षा, मैतड़तसन, तित्त, तकनीकी, इंजीतनयटरग, तनमागण, कला, मनोरं जन, सेना और प्रशासन में अपने को स्थातपत दकया। झूमर नृत्य अरोड़ा जातत का मूल नृत्य माना जाता है, जो इनसे अन्य जाततयों में गया।453

451

http://en.wiktionary.org/wiki/Appendix:Arora_surnames और http://en.wikipedia.org/wiki/Arora

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अमृतसर गजेरटयर

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http://en.wikipedia.org/wiki/Arora

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191 [ iii ] पंजाबी जट्ट तसक्खीःजैसा की पूिग में उल्लेख आ चुका है दक, पंजाबी भाषा में क्ष और श का उच्चारण नहीं होने के कारण खत्री (क्षत्रीय) और खुख(कु श)-रे न(रायन) अथागत खोखेरन शब्द (जातत समूह) बने। उसी प्रकार संस्कृ त के तशष्य और तशक्षा शब्द से तसक्ख शब्द की व्युतपत्ती हुई।454 तसक्खों की पररपाटी और आचार सतन्हता की पुस्तक रेहात-मयागदा के अनुसार तसक्ख िह मनुष्य है जो अजर, अमर, अतिनाशी पर तिश्वास करे , दस गुरूं (गुरू नानक से गोतिन्द बसह तक) और गुरू ग्रंथ सातहब की तशक्षां पर तिश्वास करे, दसिें गुरू द्वारा तनधागररत संस्कार कराए और अन्य धमग के प्रतत तनष्ठािान नहीं हो।455 सहज संस्काररत तसक्ख सोच-समझ कर धीरे -धीरे बना जाता है और इसतलए उन्हें सहजधारी तसक्ख कहा जाता है। तिश्व में सभी जाततयों के तसक्ख 2 करोड़ 50 लाख (25 तमतलयन) तक हैं456, तजसमें से 2001 की जनगणना में 1 करोड़ 92 लाख (19,215,730) भारत में थे।457 बसगापुर में तसक्खों की प्रतितष्ट भी तहन्दू के रूप में ही होती है।458 पंजाबी खत्री जातत से तसक्ख धमग का प्रारम्भ हुआ और प्रारम्भ में खत्री ही इसे जीतित रखने और बनाए रखने को उदत्त हुए। तसक्ख धमग स्थातपत करने िाले गुरू नानक सतहत सभी दसों तसक्ख गुरू पंजाबी

खत्री जातत (नानक-बेदी, अंगद-त्रेहन,अमरदास-भल्ला और शेष सात-सोढ़ी) के ही थे।459 इसके मानितािाद और समानता के प्रचार के कारण इसमें कई जाततयों के लोग जुड़ते चले गए, तजसमें तहन्दू जाट जातत के लोग सिागतधक थे। यह माना जाता है दक, भारत में आज यह जट्ट तसक्ख, तसक्ख धमग का 50 से 66% भाग हैं और िे तसक्ख धमग के खालसा पंथ की स्थापना के बाद इससे जुड़े और इस धमग के खालसा पंथ को ही मानते हैं, अन्य पंथों को नहीं। धीरे -धीरे इन्हें ही तसक्ख प्रतीक के रूप में माना जाने लगा। 12 में से कम से कम 7 तसक्ख तमतसल जट्ट तसक्खों के ही अतधकार में आ गईं।460 छत्तीसगढ़ में इन्ही को तसक्ख प्रतीक माना जाता है।461 यह अतधक रूढ़ और कट्टर हुए।462 अपने को पृथ्क बताने के तलए ‘जट्टा’ शब्द प्रचतलत दकया। 454

Khushwant Singh-The illustrated History of the Sikhs(Oxford university press,ISBno.-19-567747-

1),P.15 और खान बसह नाभा-गुर शबद रत्नाकर महान कोष (गुरूमुखी तलपी में),पृ.720 (http://www.ik13.com/online_Library.htm#mahankosh) 455

तसक्ख रे हत मयागदा (तशरोमणी गुरूव्दारा प्रबन्धक कमेटी)

(http://wwwsgpc.net/rehat_maryada/Section_one.htmi) 456

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192 भारत में जट्ट तसक्खों की जनसंख्या 1 करोड़ 4 लाख तक अनुमातनत है, तजसमें से लगभग 20 से 25 हजार छत्तीसगढ़ में अनुमातनत हैं और उसमें से लगभग दस हजार छत्तीसगढ़ी भी बोल लेते हैं।463 डा. इरफान हबीब और प्रो.दकसन बसह का मानना है दक, तसक्ख धमग अपनाने से जाटों की तस्थतत में सुधार आया।464 जाट शब्द अरबी शब्द जट्टा से बना है।465 यह लोग पतिमोत्तर भारत से होकर भारत में आए। यह अतधकााँशतीः दसिें गुरू गोतिन्द बसह की ओर अतधक आकृ ष्ट हुए। इनमें रूढ़ता और कट्टरता अपेक्षाकृ त अतधक आई। यह लोग अमृत संस्कार करा तसक्ख धमग के खालसा पंथ के तसक्ख बनने को अतधक प्रिृत्त हुए, जो दक पंच ककार (के श, कच्छा. कड़ा, कं घा और कृ पाण) धारण करते हैं। एक स्थान पर तो यह तथ्य भी उल्लेतखत है दक नानक के व्यापक भ्रमण के दौरान उनकी भेंट कबीर से तबलासपुर के गौरे ला के समीप (अमरकण्टक) हुई, जहााँ बाद में कबीर चौरा बनाया गया।466 इसमें सत्यता दकतनी है, यह अभी शोध का तिषय है। छत्तीसगढ़ में कु छ तसक्ख स्ितंत्रता के पूिग आए। सतक्त ररयासत में िे पहले शासक और बाद में सतक्त के अंततम शासक िंश गोंड़ के दीिान रहे। सतक्त में अंततम शासक गोंड़ िंश के पूिग दीिान तनमगल बसह के पूिगज पुरूषों का शासन था। यह िंश पंजाब से यहााँ आया था। इस िंश को दीिान उपातध सम्बलपुर राजा द्वारा दी गई थी। रायगढ़ ररयासत में, इन्हें माफी ग्राम भी तमले। 1833 में बरगढ़ के शासक अजीत बसह नें अंग्रेज ईस्ट इतण्डया कम्पनी के शासन के प्रतत तिद्रोह दकया। देि नाथ बसह ने उसे, अंग्रेजों के तलए परातजत दकया। अतीः अंग्रेजों ने उसे बरगढ़ की जमीन्दारी भी, 1833 में, दे दी। देिनाथ बसह ने 1857 की क्रांतत के समय भी अंग्रेजों की सहायता की। उसने क्रांततकारी और तिद्रोही सम्बलपुर के सुरेन्द्र साय और उदयपुर के तशिराज बसह को सातथयों सतहत पकड़ कर अंग्रेजों के हिाले कर ददया। होतशयारपुर, पंजाब से आकर एक तसक्ख- िीर बसह- ररयासत में बसे थे। उसके िंशजों ने बरगढ़ को हराने में सहायता की। इसीका एक िंशज शमशेर बसह हुआ। िह नेटनागढ़ ग्राम का माफीदार और अन्य दो ग्रामों का मालगुज़ार था।467 देिनाथ बसह का देहांत 1862 में हुआ। कु छ अन्य का भी उल्लेख आता है। जैसे कोररया ररयासत के राजा के ड्रायव्हर फकीरा बसह या कोररया में ही एक अन्य ड्रायव्हर बेबचत बसह।468 हालााँदक छत्तीसगढ़ में अतधकााँश जट्ट तसक्ख भारत तिभाजन के उपरााँत ही आए, िरन् यह कहा जा सकता है दक, छत्तीसगढ़ आने िाले अतधकााँश तसक्ख भी जट्ट तसक्ख ही थे। यह सभी जाट जातत से तसक्ख हुए। अतीः उनकी तरह इनका भी मुख्य व्यिसाय कृ तष ही रहा है। िे योग्य प्रगततशील कृ षक तसद्ध हुए। िे अच्छे सैतनक भी तसद्ध हुए। छत्तीसगढ़ में इन्होंने पररिहन, आटोमोबाईल रे स्टोरें ट और होटल आदद व्यिसायों को भी स्थातपत दकया। यह लोग मेहनती माने जाते हैं। जट्ट तसक्खों में 120 से अतधक कु ल या सरनेम प्रचतलत हैं। लगभग सौ यह हैं।:ए. औलख, अटिाल; बी. बस्सी, ब्रार(बरार), बाजिा, बैंस, भुल्लर, भंगू, बल, बसरा, खोखर, भलाही, भाली, तबल्लान,

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A.E. Barstow- The Sikhs: An Ethnology, P.155

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कााँततकु मार जैन-बैकुण्ठपुर में बचपन,पृ.74 और 153

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193 बैदिान, बादेशा; सी. चीमा, चहल, चथा, चज्झ, तचनजेर; डी. धालीिाल, देओल, दढ़ल्लन, दोसांजा, ददनसा, धुले; जी. गरे िाल(ग्रेिाल), तगल, घुमान, ददनोहा, गोरया, घोत्रा,गारचा; एच. हयेर, हीर, हेतथ, हुंड़ाल, हंसरा, हनजारा; जे. जोहल, जज्जा, जसपाल, जगपाल, जनतझहा, जिार; के . कं ग, खेरा, कलैर, कू नर, कहलों, खंड़ोला, खंगुरा, खरौन्द; एम. मान, मन्दैर(मंढ़ेर), महल, मंगत, मुंडी, मनशाही, माति, मखसोसपुरी, मरहर(मरहार); एन. तनज्जर, नगाड़ा; ओ. ओज्जला; पी. पुरेिाल, पद्दा, पन्नु, पिार, पन्धेर; आर. राना, रन्धािा, राई, रत्तौल, राठौर(राथौर), रे नू(रेणू); एस. तसद्धू, सन्धू, सहोता, शेरतगल, सरिान, साल, सोहट्टी, सामरा, शेखों, सुनपाल, सग्गू, स्िाइच, सुनेर, सूच; टी. थांड़ी, तूर, तनिाल, तरार, ततआरा(तथआरा); यु. उप्पल; व्ही. तिकग ; डब्ल्यु. िराइच। खतत्रयों के मूल नृत्य भााँगड़ा को नाचने में जट्ट तसक्खों ने महारत हातसल की। िे तगद्धा नृत्य भी अच्छा करते हैं। िे इनमें आगे बढ़ कर भाग लेते हैं। बैसाखी मुख्य त्योहार के रूप में मानाते हैं। लोहड़ी, गुरू परब, गुरूं की जयंततयों आदद को भी मनाते हैं। सभी तहन्दू त्योहार मनाते हैं। तिशेषकर दीपािली। हालााँदक इसके िे नए अन्य कारण देते हैं। मााँसाहारी हैं। हलाल के अतस्तत्ि में आने पर झटका का प्रचलन अपनाया। तजन्दगी के हर पल को जीने में तिश्वास करते है। छत्तीसगढ़ में गुरूद्वारों का तनमागण इनके आने उपरााँत ही अतस्तति में आया। इससे नई िास्तु कला सामने आई। 6. राजपूतीःराजपूत क्षत्रीय िणग में आते हैं। याह भी योद्धा िणग और जातत है। यह लोग छठिीं से बारहिीं शताब्दी के मध्य सशक्त हो कर उभरे और पृथक रूप से तचतन्हत दकए जाने लगे। राजपूत शब्द का अथग होता है राजा का पुत्र। राजा से राज और पुत्र से पूत शब्द बना। यह राजपूत शब्द कभी-कभी क्षत्रीय के तलए भी प्रयोग कर तलया जाता है, जो गलत है, क्योंदक क्षत्रीय िणग की कई जाततयााँ हैं और राजपूत उसमें से एक हैं। इसके अततररक्त इन्हें ठाकु र, छत्री आदद भी कहा जाता है। क्षत्रीय िणग का कायग शासन करना माना गया है और राजपूत क्षत्रीय उसमें सिागतधक आए। राजपूतों ने भारत के कई राज्यों, क्षेत्रों, ररयासतों, जतमन्दाररयों, इलाकों आदद पर शासन दकया। 600 के लगभग ररयासतों में से लगभग 400 में इस जातत का शासन था। भारत की स्ितंत्रता के समय 121 राज्यों या ररयासतों को सैल्यूट का दजाग हातसल था और उसमें से 81 राजपूत थे।469 भारत में तहन्दू राजपूत 4 करोड़, तसक्ख राजपूत साढ़े सात लाख और मुतस्लम राजपूत सिा 469

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194 बाईस लाख अनुमातनत दकए गए हैं, तजसमें से क्रमशीः लगभग दो से ढ़ाई लाख तहन्दू राजपूत, हजार-पााँच सौ तसक्ख राजपूत और इतने ही मुतस्लम राजपूत छत्तीसगढ़ में हैं और उसमें से तीन चौथाई से अतधक छत्तीसगढ़ी भी बोल लेते हैं।470 िणग के रूप में क्षत्रीय िेद काल से उल्लेतखत हैं। राजपुत्र शब्द महाभारत में राम और लक्ष्मण हेत471 ु , बौद्ध आख्यानों में बुद्ध हेतु, भागित में अतभमन्यु पुत्र परीतक्षत हेतु472, कौटील्य (BC 350-283) के अथगशास्त्र, कालीदास (BC प्रथम सदी) के मालतिकाअतग्नतमत्र, अश्वघोष (ई.80-150) के हषगचररत्र और कादम्बरी, कल्हण (सातिीं सदी) के राजतरं गणी आदद में आया है। यह शब्द कु मार गुप्त III (533 ई.) के ताम्र अतभलेख, पृथ्िीगढ़ ताम्र अतभलेख (570), तलच्छिी अतभलेख (डी.आर.रे गमी द्वारा ररकाड़ग), तसकू बाही अतभलेख आदद में भी आया है। 606 में कन्नौज राज हषग िधगन राजपुत्र तसलादीत्य के नाम से बसहााँसनारूढ़ हुआ था। राजपुत्र शब्द से राजपूत शब्द की व्युत्पतत मानी गई है। तिदेशी और आक्रााँता जातत समूह भी इसमें तमले। जैस-े शक, कु षाण आदद। इनके स्थातनय सम्बन्धों से बने िंश भी इसमें सम्मतलत हुए। क्षत्रीय िणग में योद्धा और शासक जाततयााँ रहीं और क्षत्री संज्ञा इनके तलए प्रयुक्त हुई। ज्येष्ठ पुत्र उत्तरातधकार के कारण एक ही पुत्र राजा हो पाता था। शेष राजपुत्र कहलाते थे। यह शब्द राजपुत्र हुआ और धीरे -धीरे जातत में तब्दील हो गया। राजपूत अपने को क्षतत्रयों से तिकतसत और उत्पन्न मानते हैं। राजपूतों के तीन प्रमुख तिभाजन हैं- सूयगिंशी, चन्द्रिंशी और अतग्निंशी। कहीं-कहीं दो अन्य तिभाजन भी बताए जाते हैं- नामिंशी और ऋतशिंशी। सूयि ग ंश सिागतधक प्राचीन है। इसे सूयग से उत्पन्न माना जाता है। इसमें आख्यान उल्लेतखत और प्रतसद्ध प्रथम इच्छिाकू और तदुपरांत हररिन्द्र, सागर, ददलीप, भागीरथ, रघु, दशरथ, राम आदद हुए। कालीदास कृ त्त रघुिंश इसी िंश से सम्बतन्धत है। सामान्यतीः अब इसमें अहरा, बरगुजगर, बच्चा, बरसाल, बतधयाल, तबधाित, बसरिाल, बालूच, तबदी, बरिाल, बुन्देला, तबसेन, भरेह, भुट्टा, बन्दराल, बनीरोत, तबका, भदौररया, चम्पाित, चत्तार, ढ़ढ़िाल, दततया, गौतम, गुहरिार, घोरे िाह, घुरटयाल, गहलौत, गौर, हरचन्द, जामिाल, जसरोततया, जतयिात, जसिाला, जोधा, जगमनपुर (कनेर), करनौत, कोहल, काम्पाित, कछिाहा, कलेयानोत, कगौरत, खोखरा, खण्ड़ौल, लिततमया, लखनेसर, लोहना, मेदाततया, मेहथान, तमनहास, मौयग, मदाध, नरूका, नथाित, पुंड़ीर, राठौर, राघि, राजाित, रायजादा, रिातोत, रानाित, रूरू, शक्ताित, शेखाित, श्रीनेत्र, तशिबह्मपोता, सम्याल, सेंगर, तसकरिार, तससौददया, बसघि, सुखार, तपाररया आदद हैं। खत्री भी सूयगिंश से हैं। चन्द्रिंशी चन्द्रमा से उत्पन्न माने गए। यह भी प्राचीन िंश है, पर सूयगिंश के बाद का। सोम इसका प्रथम शासक माना गया तदुपरांत पुरूरिा, नहुष, ययातत, दुष्यंत, भरत या भारत, कु रू,, शांतनु, युतधतष्ठर आदद। आख्यान उल्लेतखत यदुिंश भी इसी चन्द्रिंशी तिभाजन में है। ययातत ज्येष्ठ पुत्र यदु से यदुिंश बना, तजसमें कृ ष्ण हुए। हररिंश पुस्तक में इस िंश का तििरण है। सामान्यतीः अब इसमें यदुिंशी, यादि (अहीर यादि नहीं), तचब, धााँगर, सोमिंशी, हररओिंश, मंगराल, जुनजुआ, जराल, दकनिार, जादौन, खानजादा, भट्टी, जड़ेजा, चौदसमां, चन्देल, कलयाल, पथनी, मंज, चािड़ा, दातहया, जोतहया, कश्यप, कटोच, कु तलहररया, मनकोरटया, अन्दोत्रा, झाला, बनाफर, पथतनया, राित, सोलोन, सैनी, तोमर, नागिंशी, टाक, खानपुररया आदद हैं। कहीं-कहीं बुन्देला भी इसमें उल्लेतखत है। अतग्निंश में िह जाततयााँ या समूह हैं, जो बाद में क्षत्रीय िणग में सम्मतलत दकए गए और राजपूत बनाए गए। राजपूत शब्द के प्रतत यह लोग ही सिागतधक आग्रही हुए। मध्य काल में इन्हीं के उभार और 470http://www.joshuaproject.net/people-profile.php 471

बालमीदक-महाभारत (रामोप्ख्यान),3.266.61

472

श्री मद्भागित,1.12.311

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195 स्थापना से इस िंश को बल तमला। भतिष्य पुराण में उल्लेतखत दकया गया दक, अशोक के उपरााँत माउं ट आबू पर हुए यज्ञ में चार पुरूष अतग्न से उत्पन्न हुए- परमार, चफानी (चौहान), चु (चालुक्य/सोलंकी), पररहारक़ (प्रततहार)। अतग्निंश पुस्तक में इन्हें उस पुरूष से उत्पन्न बताया गया, जो दक ितशष्ठ के यज्ञ से परशुराम के क्षत्रीय संहारोपरांत उत्पन्न हुआ। इततहासकार यह मानते हैं दक, यह चार निीन जातत समूह इण्ड़ो-ग्रीक आक्रमणों में, युद्ध करने हेत,ु योद्धा िगग में जोड़े गए। कु छ का यह मानना है दक, िे गैर क्षत्रीय स्थातनय और तिदेशी समूह जो धीरे -धीरे शासक बने और तजनका तिकास यहााँ स्थातनय सम्बन्ध बनने से हुआ, इसमें सम्मतलत होते गए। इस भारतीय सन्दभग को समझने के तलए कु छ महत्िपूणग एततहातसक तथ्यों का उल्लेख आिश्यक हो जाता है। यह रूतचकर भी हैं। मध्य एतशया की हूण जनजातत या नस्ल बबगर रही है। जब यह लोग प्रभािी थे और तिस्तार में रूतच ले रहे थे, तब भारत में गुप्त लोगों का और युरोप में रोम राज्य का प्रभाि था। पााँचिी शताब्दी मे यह लोग दोनों स्थानों में घुसे। िे भारत से स्कन्द गुप्त द्वारा खदेड़े गए, परं तु पुनीः आए और मालिा में सत्ता स्थातपत करने में सफल रहे। तोरमल और तमतहरकु ल हूण शासक थे। (जयचन्द्र) तोरमान के पुत्र तमतहरकु ल की राजधानी शाकल (स्यालकोट) थी और िह अपने को पशुपतत (तशि) उपासक कहता था। इनकी क्रूरता ह्युएन-सांग और कल्हण द्वारा भी िर्थणत हुई है। इनके शासन को मन्दसर शासक यशोिमगन ने तोड़ा। इनका शासन भले ही खतण्ड़त हुआ, पर हूण भारत में ही रहे और छोटेछोटे राज्य या ररयासतें बना कर उपद्रि और आक्रमण करते रहे। अंततीः यह तब रूका जब ब्राह्मणों ने इन्हें भी शुद्ध कर राजपूत बना तलया।473 बौद्ध-ब्राह्मण संघषग में राज आश्रय का भी महत्ि था। जब क्षत्रीय राजा बौद्ध हो जाता तो ब्राह्मणों को क्षुब्धता होती। क्षतत्रयों को बाहर जाते देख ब्राह्मणों ने नया उपाय दकया। जो तिदेशी हूण, शक, कु षाण आदद यहााँ सत्ता प्रातप्त का संघषग कर रहे थे, उन्हें आबू पहाड़ (माउण्ट आबू) के कु ण्ड़ में यज्ञ कर राजपूत बना तलया। िे ब्राह्मणों के कृ त्ज्ञ हो गए। ब्राह्मण-क्षत्रीय संघषग में ब्राह्मNa भारी हो गए। उन्हें नए तशष्य और यजमान तमल गए।474 डा.भगितशरण उपाध्याय का मत है दक, ितगमान कई राजपूत हूण, गुजरग आदद से प्रदुभूगत हुए। गुरजरों से तो तितशष्ट शाक िंश गुजगर-प्रततहार की नींि पड़ी। इन्हीं से गुजरात प्रदेश का नाम रखा गया। जाट जैसी कई अन्य जाततयााँ भी बाहर से आने िाले लोगों से बनीं। अब सामान्यतीः इसमें, तबष्ट, तनिागन, चौहान, खुरमी, मेहमी, परमार, खैर, तसरोही, हाड़ा, सोलंकी, सोनगरा, रघुिंशी, बघेल, बलनौत, महलगोता, नथाित, खेराड़ा, िीरपुरा, धोजाित, जेतड़या, प्रततहार आदद हैं। कहीं-कहीं भदौररया भी इसमें उल्लेतखत हैं। ऋतषिंश में ढ़कार कु ल का उल्लेख आता है। पाताल राज बातल के देि राज इन्द्र से घायल होने पर रक्त ढ़ाख (ढ़ाक या पलाश) के पत्ते पार एकत्र दकया गया। इसे गुरू शुक्राचायग ने पुरूष में बदल ददया। प्रथम तीन प्रमुख तिभाजन में 36 कु ल हैं, जो इन तीन में बाँटे हैं। इन 36 कु लों का उल्लेख जयतसम्हा की कु मारपाल चररत्र और चद्रबरदाई की पृथ्िीराज रासों में है। कानगल टाड़ ने भी इनका उल्लेख दकया है। इन छत्तीस कु लों के भी आगे और तिभाजन और शाखाएाँ हैं। राजपूत तसक्ख, बौद्ध और मुतस्लम भी हैं। छत्तीसगढ़ में राजपूत जातत के लोग सभी तजलों में हैं। इस राज्य में एक असाधारण तथ्य यह है दक, यहााँ डहररया लोग राजपूत जातत से अन्य जातत में गए। छत्तीसगढ़ में सामान्य राजपूत तचन्हााँकान यह है- बागरी, बैस, बक्सररया, बनाफर, बुन्देला, चन्देल, धारकर, गहरिार (गहरिाल), गौर, हैहय (हैहयिंशी, कल्चुरी), हूण, कछिाहा (कु छिाहा), नागिंशी (टाक, भोठी), तनकु भ, पाईक, पररहार, राठौर, चािड़ा, इच्छिाकू , इन्दू (सोमिंशी), रघु (गहलोत, तससोददया), यदु (भट्टी, जरे जा, जादौन, बनाफर), तोमर, चौहान (भदौररया, हारा, दकची, तनकु म्भ), चालुक्य (सोलंकी, बघेल) आदद हैं।

473

रामधारी बसह ददनकर-संस्कृ तत के चार अध्याय,पृ.231

474

रामधारी बसह ददनकर-संस्कृ तत के चार अध्याय,पृ.235

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196 7. तसन्धीीःतसन्धी लोग छत्तीसगढ़ के सभी तजलों में तनिासरत हैं। यह िह लोग हैं, जो भारत तिभाजन के उपरााँत तसन्ध प्रााँत (अब पादकस्तान में) से भारत आए और तजनकी मातृभाषा तसन्धी है। तसन्धी लोग नगरों में रहते हैं और नगरीय संस्कृ तत के पोषक हैं। नई चीजों को शीघ्र स्िीकारते हैं। परम्परां को गततरोधक नहीं बनने देते। रूदढ़यों पर कट्टरता नहीं है। सहनशील और मेहनती होते हैं।475 तसन्ध या बसधू नाम तसन्धू (इंडस) नदी के नाम से बना। तसन्ध प्रााँत तसन्धू नदी का उपजाऊ क्षेत्र है। यह भारतीय उपमहाद्वीप के प्रिेश के दो मुख्य मागों मे बीच में तस्थत है। सीतथयन, परतथयन, कु षाण, हूण, ईरानी, ग्रीक (युनानी) सतहत सभी प्राचीन और मध्यकालीन आक्रााँता इन्ही रास्तों से भारत आए। तसन्धू (इंडस)-तसन्ध से ही इतण्ड़या मूल नाम सामने आया। यह नाम इतना एततहातसक और प्राचीन है दक, इसी से तहन्द महासागर, ईस्ट और िेस्ट इंड़ीज, इंड़ोनेतशया, रे ड इतण्ड़यन, इंतण्ड़यन, तहन्दू, इतण्ड़या आदद शब्द सामने आए। यहीं तिश्व की प्राचीनतम सभ्यता- तसन्धू घाटी सभ्यता- पनपी।476 आयों के आगमन के उपरााँत द्रतिण पूिग और दतक्षण की ओर गए। आयग प्राकृ त, िेद, इन्द्र, तिष्णू पूजा ने द्रतिड़ तशि और बलग पूजा को प्रततस्थातपत दकया और सभी ग्रंथ इस को स्थातपत करने के तलए ही तलखे गए। तसकन्दर (एलेक्ज़ेण्ड़र) सतहत सभी आक्रााँता यहााँ की समृतद्ध को लूटने के उदेश्य से आए। छत्तीसगढ़ में तसन्धी लोग भारत तिभाजन के उपरााँत उक्त तसन्ध प्रााँत से आए। तिभाजन के समय तसन्ध में लगभग 2 करोड़ तहन्दू थे। इसमें लगभग 14-15 लाख तसन्धी तहन्दू माने गए हैं और इसमें से आधे से अतधक तिभाजन उपरााँत के भारत आ गए। 1951 की जनगणना के अनुसार तिभाजन उपरााँत भारत आने िाले तहन्दू तसतन्धयों संख्या 776,000 थी। हालााँदक पंजाबी तहन्दू और तसक्खों की तरह इन्हें व्यापक दंगों, नरसन्हार, लूट आदद का सामना नहीं करना पड़ा। अब ताजा जनगणना आाँकड़ों में अब पादकस्तान में (1998) लगभग 23 लाख और भारत में (2001) लगभग 26 लाख तसन्धी तहन्दू थे।477 तसन्धी लोग लोहानों मूल के माने गए हैं। एक तसन्द्धांत यह है दक, इनकी व्युत्पतत आयग-द्रतिड़ तमश्रण की संस्कृ तत से हुई, तो दूसरा यह दक, यह लोग तसन्धु घाटी में पंजाब और कच्छ से प्रव्रजन कर आए। बाद में इनकी कई शाखाएाँ हुईं, तजसमें मुख्य थीं- प्रथम- आतमल। यह उच्च जातत बनी। इसमें अतधकााँशतीः शासकीय अतधकारी और कमगचारी हुए। यह अतधकार सम्पन्न लोग थे। यह लोग पूिग में मुतस्लमों हेतु भी कायग कर चुके थे। इस कारण से इन्हें भूतमयााँ भी तमलीं और यह लोग ही जमीन्दार और ज़ागीरदार हुए। उपतनिेशकाल में तसतिल सर्थिस में आ गए। आतमल िगग में ही तसन्धी सारस्ित ब्राहमण भी रहे। इनके कु छ कु लनाम (सरनेम) हैं- आड़िाणी, माधिानी, चन्द्राणी आदद। हालाMदक इस समुदाय में उनके ब्राह्मण होने का महत्ि नगण्य प्राय रहा है और अब तो लोग इस तथ्य को भूल प्राय गए हैं। तद्वतीयतसन्दुिर्दक। यह व्यापारी और रेडर हुए। इन्होंने सम्पूणग तिश्व में व्यापार हेतु ठीहे स्थातपत दकए। इनमें कई धनाढ़य हुए। इनकी मतहलाएाँ लोकगीतों, रं गीन िस्त्रालंकरण और आकषगक िेषभूषा के तलए जानी गईं। तृतीय- तशकापुररए। यह बैंकर हुए और व्यापार को मध्य-पूिग तक ले गए। चतुथ-ग िन्या। यह दुकानदार हुए।478 475

Aileen Wortley-the Sindi Hindu population:Foregign influences on their cultur

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P.Jethmal gulrajani-Sind and its Sufis

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197 तसन्धी लोगों को उपमहाद्वीप के तहन्दू समुदाय में कु छ तितशष्ट तथ्यों ने भी रेखााँदकत दकया है। एक- भारतीय तहन्दू व्यिस्था में सभी क्षेत्रों में कोई न कोई जातत अछू त इं तगत रही है, परं तु तसतन्धयों का कोई भी जातीय तिभाजन इस श्रेणी में नही रहा। दो- भारतीय तहन्दूं में मात्र तसन्धी ही ऐसा िगग रहा तजसमें जातत प्रथा का प्रभाि नहीं पड़ा और सम्भितीः भारत के सभी स्थानों में यह इनकी सहज स्थापना का सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है। तीन- तहन्दुं में तसन्धी लोगों ने ही ब्राह्मण और ब्राह्मणिाद को दरदकनार करने में सफलता पाई। अब तो यह तथ्य भी तिस्मृत कर ददया गया है दक तसन्धी आतमल िगग में ब्राह्मण जातत भी है। इसके यह एततहातसक कारण उल्लेतखत होते हैं दक, तसकन्दर (एलैक्ज़ेण्ड़र) के तसन्ध आक्रमण के समय तसन्धी ब्राह्मणों ने तसन्ध शासक को तसकन्दर का स्िगत नहीं करने की सलाह दी और उसकी सजा बतौर ग्रीक (युनानी) सेना ने तसन्ध में ब्राह्मणों को लगभग नेस्तनाबूाँद कर ददया। पर इनके सामातजक प्रभाि को गायब कर देने िाला कारण बाद में आया। सोलहिीं शताब्दी में मोहम्मद-तबनकातसम ने तसन्ध शासक दातहर को ब्राह्मणों की सहायता से ही हराय। िे उससे तमल गए, परं तु जब सत्ता उसके पास आई तो उसने दातहर को धोखा देने के प्रत्यक्ष उदाहरण के कारण ब्राह्मणों को अतिश्वासी और तिश्वासघाती जान और मान कर लगभग नेस्तनाबूाँद करा ददया। यह तद्वतीय तथ्य सत्यता के अतधक करीब इस तलए लगता है दक, तसकन्दर के उपरााँत भी ब्राह्मण तसन्ध में शतक्तशाली थे, परं तु कातसम के उपरााँत तो उनका प्रभाि ही जाता रहा। अपने कु ख्यात और शमगसार एततहातसक अतीत के कारण शेष बचे ब्राह्मण एक तो तसमट कर अपने खोल में घुस गए, दूसरे तसतन्धयों ने भी उनका बतहष्कार कर ददया और तहन्दू धार्थमक कायों हेतु पड़ोसी राज्यों यथा पंजाब आदद से ब्राह्मण बुलाए जाने लगे। स्थातनय ब्राह्मन तपछड़े और बतहष्कृ त मान तलए गए। यह तहन्दू व्यिस्था में क्रााँततकारी और अियगजनक तत्ि था। चार- तहन्दुं में तसन्धी लोगों में ही ब्राहमणिादी कमगकान्ड़, अन्धतिश्वास, रूदढ़यााँ, परम्परा आदद के बन्धन नहीं आ पाए। इसका कारण ब्राह्मण और ब्राह्मणिादी व्यिस्था से शीघ्र छु टकारा पा लेना था, तजसका उल्लेख ऊपर आया है। इस जंजाल से छु टकारा पाने का दकतना लाभ हुआ इस हेतु कु छ सामातजक उदाहरण पयागप्त होंगें। जैस-े इनमें तिधिा तििाह कभी भी आपत्तीजनक नहीं रहा, बाल तििाह कभी भी अतस्तत्ि में नहीं आ पाया, छु आछू त की भािना ही नहीं पनपी, तिकास आदद में रूदढ़यों की बाधाएाँ दूर हो गईं आदद। ब्राह्मण और ब्राह्मणिादी व्यिस्था से छु टकारा पा लेने का अगला पररणाम अन्य आस्थां की तरफ स्िभातिक रूझान के रूप में सामने आया। अब तसन्धी लोग तसक्ख और सूफी मत की ओर आकृ ष्ट हुए। यहााँ भी तसन्धी तसक्ख लोग नानक के मूल तसक्ख धमग में ही रहे। िे उस उसके कतथत कट्टर स्िरूप और खालसा पंथ के रूप में सामने आए बाद के तसक्ख धमग के स्िरूप से ज़रा भी प्रभातित नहीं हुए। यह भी उनके सुलझे व्यतक्तत्ि को दशागता है। पहले तो ब्राह्मण तत्ि को दरदकनार दकया, दफर तसक्ख धमग के भी अपेक्षाकृ त कतथत रूढ़, कमगकाण्ड़ी और कट्टरपन को स्थातपत कर बढ़ािा देने िाले स्िरूप को भी गले नहीं लगाया। यह लोग नानक द्वारा प्रिर्थतत तसक्ख धमग की मूल स्िरूप को ही मानते रहे। इस कारन से गोतिन्द बसह द्वारा स्थातपत रूदढ़यों और परम्परां जैसे पंचककारों की धारणा, खालसा मत, तितभन्न धार्थमक दक्रयाएाँ आदद नहीं अपनाईं। तसन्धी तसक्ख होते हुए भी पगड़ी, दाढ़ी आदद के रूढ़ प्रतीकों से दूर ही रहे। तसन्ध में यह लोग बुद्ध से भी प्रभातित रहे। इसका स्पष्ट कारण उनका क्षत्रीय होना और ब्राह्मणिादी व्यिस्था ि कमगकांड़ो का तिरोध है। इसी नींि पर नानकिादी तसक्ख धमग को भी आधार उपलब्ध हुआ। सूफी शब्द भी साफू से बना है और उसका अथग साफ से है तथा यहााँ साफ का आशय पतित्र से तलया जाता है। तसतन्धयों के अतधकााँश कु लनाम (सरनेम), पंजाबी अरोड़ां की तरह, जा और आनी शब्दांत पर हैं (जैस-े पंजिानी, कदगरे जा) और कु छ समान भी हैं (जैस-े ठक्कर, अहूजा)। दोनों लगभग समान क्षेत्र से हैं। अतीः यह तमलते-जुलते सरनेम का कारण हो सकता है। संस्कृ तत का सीधा सम्बन्ध भाषा से है। संस्कृ तत के तबना भाषा नहीं और भाषा के तबना संस्कृ तत नहीं। तसन्धी भाषा भी इण्ड़ो-आयग समूह की ही है, तजसमें ऊदूग और अरबी के भी पयागप्त शब्द आ गए हैं। छत्तीसगढ़ में तसन्धी तहन्दू धमग का पालन करने के साथ नानक के मूल तसक्ख धमग का भी पालन डा.सॊजय अऱॊग-छत्तीसगढ़ की जनजाततयाॉ(Tribes) और जाततयाॉ(Castes) ISBN 978-81-89559-32-

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198 करते हैं और उनके अनुयायी हैं। सभी बड़े तहन्दू त्योहारों और झूलेलाल तथा नानक जयंती को मनाते हैं। इन्होंने भी गुरूद्वारे का तनमागण कार स्थापत्य कला को बढ़ािा ददया है। तहन्दू रीतत ररिाजों का पालन करते हैं। जनेऊ संस्कार करते हैं। गाय को पतित्र मानते हैं। मााँसाहार से दूरी नहीं बनाते हैं। छत्तीसगढ़ में तसतन्धयों ने व्यापार, दुकानदारी आदद में आशातीत सफलता पाई है। 8. ततब्बतीीःछत्तीसगढ़ में ततब्बती लोग िह हैं जो चीन द्वारा ततब्बत पर कब्जा कर लेने के उपरााँत भारत में शरणार्थथयों के रूप में आए और चीन से ततब्बत की स्ितंत्रता नहीं प्राप्त होने के कारण यहीं बस गए। भारत में इनकी संख्या लगभग ड़ेढ़ लाख है।479 ततब्बत शब्द तूबों से बना है, जो अरबी और युरोपीय भाषां में ततब्बत उच्चाररत हुआ। इन्हें प्राचीन बउतत लोगों से सम्बद्ध दकया जाता है। यह लोग बौद्ध धमग के अनुयायी हैं और दलाई लामा को अपना धार्थमक गुरू मानते हैं। िह 1959 से भारत में रह रहे हैं। ततब्बती बौद्ध धमग बौद्ध महायान और िज्रयान पंथों का तितशष्ट तमश्रण है, जो उत्तरभारत के संस्कृ त बौद्ध परम्परा से िहााँ गया। यहााँ इसके चार समूह बने- गेलुग(पा), काग्येउ(पा), बन्यग्मा(पा) और शाक्य(पा)। यह लोग ततब्बती भाषा का प्रयोग करते हैं, जो जो साइनो-ततब्बतन समूह की ततब्बतो-बमगन भाषा है। यह भाषा चीनी अतधक है। इनकी अपनी लद्दाखी और दोजांखा तलपीयााँ है, जो प्राचीन भारतीय ब्राह्मी तलतप से व्युत्पन्न हुई है। ब्राह्मी तलपी भारत की प्राचीन तलपी थी। ततब्बती बौद्ध सातहत्य संस्कृ त में भी तलखा गया। अब तहन्दी भी बोलने लगे हैं। यह लोग ततब्बत को बोड (Bod) कहते हैं, तजसे मूलतीः युसााँग (U-Tsang) कहा जाता रहा है। बोड का उच्चारण पोइंग (Poing) होता है। यहााँ यह लोग सामान्यतीः व्यापार में लगे और तिशेषकर गरम कपड़ों का व्यापार करने लगे। यह लोग बुद्ध से सम्बतन्धत त्योहार मनाते हैं। लोसार इनके नया िषग का पिग है। --==**==--ड़ा संजय अलंग 75, एश्वयग रे सीडेंसी तेलीबााँधा, P.O.-रतिग्राम रायपुर, छत्तीसगढ़, 492006 [email protected]

+91 9425307888

पररचय-: · नाम – संजय अलंग · तपता- स्ि. श्री अशोक कु मार अलंग , माता- स्ि. श्रीमती लज्या अलंग पत्नी - श्रीमती सुतमता अलंग , पुत्र द्वय – सिगज्ञ और सौहादग अलंग

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http://hindi.webdunia.com/news/news/national/1008/04/1100804107_1.htm

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199 · जन्म – तभलाई, जुलाई’8, 1964 · तशक्षा – बैकुण्ठपुर, अतम्बकापुर, ददल्ली · सेिा – भारतीय प्रशासतनक · पदस्थापना – भोपाल, रीिा, रतलाम, तसिनी, ग्िातलयर, कोरबा, रायगढ़, रायपुर आदद तजले · लेखन – कई पत्र-पतत्रकां में शोध आलेख, कतिताएाँ, लेख, समीक्षाएाँ आदद-आदद प्रकातशत। यथा – िसुधा, बया, पतब्लक एजेण्ड़ा, पााँड़ुतलतप आददआदद। साथ ही ‘कतिता छत्तीसगढ़’ और ‘तहन्दी तसनेमा/िसुधा’ में सम्मतलत लेखन। ‘छत्तीसगढ़ की जनजाततयााँ और जाततयााँ’ तथा ‘छत्तीसगढ़ की ररयासतें और जमीन्दाररयााँ’ प्रकातशत। इनका और तिस्तृत स्िरूप आन-लाईन पर भी उपलब्ध। पृथ्क से ‘छत्तीसगढ़ के पंजाबी’ पुतस्तका प्रकातशत और आन लाईन http://www.scribd.com/doc/52473329/%E0%A4%9B%E0%A4% A4%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B8%E 0%A4%97%E0%A5%9D-%E0%A4%95%E0%A5%87%E0%A4%AA%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0% A4%AC%E0%A5%80-On-line पर उपलब्ध। कु छ पुस्तकें यथा ‘छत्तीसगढ़ का हस्ततशल्प’ ‘छत्तीसगढ़ का इततहास और संस्कृ तत’, ‘छत्तीसगढ़ के लोक तिश्वास’ आदद प्रकाशनाधीन। कु छ पुस्तकें यथा -‘बाल कतिताएाँ’, ‘कतिताएाँ’, आदद पााँड़ुतलतप सम्पादन में। · सम्मान -राष्ट्रीय पंजाबी महासभा का तिषय-तिशेषज्ञ सम्मान। · यात्रा – भारत के कई प्रााँतों की, तजसमें सूदरू अण्ड़मान सम्मतलत, कु छ तिदेश यात्राएाँ भी, तजसमें दतक्षण एतशया, पूिग एतशया, पतिम एतशया अथागत मध्यपूिग, अफ्रीका आदद के कु छ देश सम्मतलत। · प्रतशक्षण – आपदा प्रबन्धन, प्रशासन, प्रबन्धन, ईगिनेंस आदद · सम्पकग -75 एश्वयग रे सीड़ेंसी, तेलीबााँधा, ड़ाकघर – रतिग्राम, रायपुर, छत्तीसगढ़, भारत, तपनकोड़ – 492006. + 91 8817332999, [email protected]

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भाके छ्गप्राकीजाअजजा 12.11.10 मदफ सअ /////र.2/10/11,न.रा./गााँ.ज.///

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